राजस्थानी कहानियों की बड़ी सीमा यह रही है कि लंबे समय तक वह लोक कथाओं की बुनघट लिये रही। पर पिछले कई दशकों की राजस्थानी कहानी पर जाएंगे तो पाएंगे शैली, परिवेश और किस्सागोई में राजस्थानी कहानी ने अपनी मौलिक पहचान बनायी है। डॉ. नीरज दइया द्वारा संपादित एक सौ एक कहानियों को पढ़ते हुए यह भी लगता है कि राजस्थानी कहानी किसी भी दृष्टि से भारतीय भाषाओं से कमतर नहीं है। ‘एक सौ एक कहानियां’ का यह संचयन राजस्थानी कहानी की गौरवमयी परंपरा के साथ ही आधुनिक दृष्टि और बदलते परिवेश का शिल्प समृद्ध संसार है। गांव, किसान और अकाल से जूझती जूण के साथ ही राजस्थान के बदले परिवेश, मान्यताओं और आधुनिक दीठ संजोने वाले इस संग्रह में यादवेंद्र शर्मा ‘चंद्र’, विजयदान देथा, श्रीलाल नथमल जोशी, सांवर दइया, मोहन आलोक, चेतन स्वामी, मदन सैनी, मधु आचार्य, किरण राजपुरोहित, चंद्रप्रकाश देवल, जनकराज पारीक, नवनीत पांडे, नानूराम संस्कर्ता, भरत ओला, भंवरलाल ‘भ्रमर’, मदन गोपाल लढ़ा, माधव नागदा, रामस्वरूप किसान, हरीश बी. शर्मा, उम्मेद धानिया आदि कहानीकारों की वह कहानियां हैं, जिनसे राजस्थानी कहानी के ओज और नए तेवर से साक्षात हुआ जा सकता है।
इस मायने में भी यह संग्रह महत्त्वपूर्ण है कि इसके जरिए राजस्थानी कहानी के आज को गहरे से गुना गया है। राजस्थानी भाषा की समृद्ध शब्दावली के साथ ही धोरों की धरा का अतीत और बदलते परिवेश की अनुगूंज इन कहानियों में है तो दलित चेतना के साथ जीवनानुभूतियों का राग-अनुराग इसमें बांचा जा सकता है। राजस्थानी कहानी के संचयन इससे पहले भी निकले हैं पर वृहद रूप में प्रयास इसलिए भी सराहनीय है कि संग्रह के आरंभ में डॉ. नीरज दइया ने राजस्थानी कहानी के आरंभ से लेकर उसके विकास से जुड़ी पगडंडियों को अपनी सूक्ष्म आलोचकीय सूझ से अंवेरा है। इस सूझ में राजस्थानी कहानी का आलोचना पक्ष है तो आधुनिकता के बदलाव से जुड़े समय संदर्भों का लेखा-जोखा भी है। राजस्थानी कहानी की परंपरा और वर्तमान के विविध पक्षों की परख नूंतता यह संचयन भारतीय भाषाओं में लिखी जा रही कहानी की भी एक तरह से विरल दीठ है।
- डॉ. राजेश व्यास
(राजस्थान पत्रिका वार्षिकी 2020)
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