Monday, December 30, 2019

हिन्‍दी पाठकों के बीच राजस्‍थानी कहानियां / नन्‍द भारद्वाज

धुनिक राजस्‍थानी कथा-यात्रा की शुरूआत ठीक वहीं से होती है, जहां से हिन्‍दी कहानी की यात्रा आरंभ होती है, लेकिन दोनों के क्रमिक विकास और उपलब्धियों में काफी अंतर है। कमोबेश यही बात अन्‍य भारतीय भाषाओं की कहानी पर भी लागू होती है। यद्यपि लोकवार्ता की दृष्टि से राजस्‍थानी का कथा साहित्‍य पर्याप्‍त समृद्ध रहा है और यहां की वाचिक परंपरा में‍ लोक कथाएं सर्वाधिक लोकप्रिय रही हैं। यही कारण है कि आधुनिक कथा लेखन के दौर में भी रानी लक्ष्‍मीकुमारी चूंडावत, विजयदान देथा, नानूराम संस्‍कर्ता, मनोहर शर्मा, मुरलीधर व्‍यास जैसे आधुनिक भावबोध वाले समर्थ कथाकारों ने इन लोक कथाओं के लेखन और संग्रहण में विशेष रुचि ली। उल्‍लेखनीय बात ये कि‍ यही कथाकार इसी दौर में अपनी मौलिक कहानियां भी लिखते रहे, जिससे आधुनिक राजस्‍थानी कहानी की बेहतर संभावनाएं विकसित हो सकीं।  
     राजस्‍थानी भाषा के साथ एक बड़ी विडंबना यह रही कि आजादी के बाद जहां हिन्‍दी सहित देश की चौदह भारतीय भाषाओं को तो संवैधानिक मान्‍यता देकर उनके विकास का रास्‍ता खोल दिया गया, लेकिन देश के बड़े प्रान्‍त राजस्‍थान की समृद्ध भाषा राजस्‍थानी और कुछ अन्‍य भारतीय भाषाओं‍ को इस प्रक्रिया से बाहर ही छोड़ दिया गया। इरादा शायद यही था कि राजकीय मान्‍यता और संरक्षण के अभाव में ये भाषाएं धीरे धीरे व्‍यवहार से बाहर हो जाएंगी और उनके स्‍थान पर लोग हिन्‍दी या उस क्षेत्र विशेष की मान्‍यता प्राप्‍त भाषा को ही अपनी मातृभाषा के रूप में कुबूल कर लेंगे, जबकि‍ यह सोच अपने आप में ही अवैज्ञानिक और अव्‍यावहारिक थी। इन वंचित भाषा-भाषियों ने अपनी भाषा की मान्‍यता के लिए लंबी लड़ाइयां लड़ीं और उसी की बदौलत अब तक दस और भारतीय भाषाओं को संविधान की आठवीं सूची में शामिल किया जा चुका है, लेकिन राजस्‍थान के आठ करोड़ शान्तिप्रिय वाशिन्‍दों की मातृभाषा राजस्‍थानी आश्‍वसनों और दिलासों के बावजूद आज तक उस मान्‍यता से वंचित है। वह लोगों के जीवन-व्‍यवहार की भाषा है, इसलिए उसे मिटा पाना तो किसी सत्‍ता व्‍यवस्‍था के वश की बात नहीं है, लेकिन संवैधानिक मान्‍यता के अभाव में न वह प्राथमिक स्‍तर पर शिक्षा का माध्‍यम बन सकी और न सरकारी काम-काज की प्रक्रिया में उसको कोई तवज्‍जो दी जाती। अपनी भाषा और संस्‍कृति से लगाव रखने वाले हजारों लाखों संस्‍कृतिकर्मी और जागरूक लोग आज भी उसे अपने जीवन-व्‍यवहार का आवश्‍यक अंग बनाए हुए हैं, उन्‍हीं में वह लेखक समुदाय भी आता है, जो ग्‍यारहवीं शताब्‍दी से चली आ रही साहित्यिक विरासत से जुड़कर आज भी अपनी भाषा में साहित्‍य सृजन की परंपरा को सजीव बनाए हुए है। डॉ नीरज दइया के संपादन में आधुनिक राजस्‍थानी कहानियों के हिन्‍दी अनुवाद के रूप में प्रकाशित कथा संकलन ‘101 राजस्‍थानी कहानियां’ को मैं राजस्‍थानी भाषा की अस्मिता के इसी संघर्ष और उसकी सृजन परम्‍परा के विस्‍तार से जोड़कर ही देखता हूं।    
     इस ऐतिहासिक प्रक्रिया पर बात करते हुए डॉ नीरज दइया ने इस संकलन की भूमिका में भारतीय कहानी के भविष्‍य पर बहुत सटीक टिप्‍पणियां की हैं। वे प्रादेशि‍क भाषाओं और हिन्‍दी कहानी के अंतर्संबंध की ओर इशारा करते हुए सही कहते हैं कि “भारतीय कहानी का भविष्‍य हमारी क्षेत्रीय भाषाओं की कहानी से निर्मित होगा। हरेक भाषा में कहानी की अपनी परंपरा और विकास के आयाम रहे हैं। अपनी समृद्ध साहित्यिक विरासत विकास के कारण आधुनिक राजस्‍थानी कहानियों का भारतीय कहानी में विशेष महत्‍व है।" और इसी महत्‍व को रेखांकित करने के लिए उन्‍होंने आधुनिक राजस्‍थानी के 101 कथाकारों की चुनिन्‍दा कहानियों के पांच सौ पृष्‍ठ के इस वृहद संकलन को मूर्त रूप दिया है। 
    हिन्‍दी प्रकाशन जगत में आजादी के कुछ वर्ष बाद तक शोध और पाठ्यक्रम की मांग के अनुसार राजस्‍थानी के प्राचीन और मध्‍यकालीन साहित्‍य को उसके मूल पाठ और उन पर हिन्‍दी टीकाओं के प्रकाशन में जरूर कुछ दिलचस्‍पी रही, लेकिन राजस्‍थानी के नये मौलिक लेखन के प्रति आमतौर पर उदासीनता ही देखने को मिलती है। प्रदेश में यह जिम्‍मा कुछ हद तक राजस्‍थानी साहित्‍य और संस्‍कृति से जुड़ी संस्‍थाओं और शोध संस्‍थानों ने जरूर संभाला, लेकिन उनकी भी नये लेखन को सामने लाने में कम ही रुचि रही। इस स्थिति में कुछ सुधार तब हुआ, जब राजस्‍थानी के सृजनशील लेखकों ने अपने निजी प्रयत्‍नों से पत्रिकाओं और पुस्‍तकों का प्रकाशन अपने हाथ में लिया। मरुवाणी, जाणकारी, ओळमों, हरावळ, राजस्‍थली, चामळ, जलमभोम, हेलो, दीठ जैसी पत्रिकाओं के माध्‍यम से एक पूरी पीढ़ी सामने आने लगी। उसी दौर में भाषा की मान्‍यता के लिए बढ़ते दबाव में साहित्‍य अकादमी ने राजस्‍थानी भाषा के साहित्‍य को मान्‍यता देते हुए सन् 1972 से राजस्‍थानी कृतियों को साहित्‍य अकादमी पुरस्‍कार की प्रक्रिया में शामिल किया। उसी दौर में बीकानेर में राजस्‍थानी भाषा साहित्‍य और संस्‍कृति की स्‍वतंत्र अकादमी बनी और प्रदेश के हिन्‍दी प्रकाशकों ने राजस्‍थानी की नयी कृतियों को प्रकाशित करने में रुझान दर्शाया। सन् 1960 में जोधपुर से सौ किलोमीटर दूर स्थित बोरूंदा गांव में विजयदान देथा और कोमल कोठारी ने जिस रूपायन संस्‍थान की नींव रखी, उसके आरंभिक संकल्‍प तो काफी व्‍यापक रहे, लेकिन कालान्‍तर में यह संस्‍थान अपने ही कलेवर में सिमटता गया। उस संस्‍थान के माध्‍यम से राजस्‍थानी लोक कथाओं के संग्रहण और प्रकाशन की योजना आरंभ हुई, जिसके तहत ‘बातां री फुलवाड़ी’ का श्रृंखलाबद्ध प्रकाशन आरंभ हुआ। इस योजना के साथ इस संस्‍थान ने राजस्‍थानी के नवलेखन को भी प्रकाशित करने का बीड़ा उठाया और नारायण सिंह भाटी, सत्‍यप्रकाश जोशी, गजानन वर्मा, रेवतदान चारण, कल्‍याणसिंह राजावत, जनकवि उस्‍ताद आदि के कुछ काव्‍य-संकलन पहली बार प्रकाश में आए। लेकिन यह योजना जल्‍दी ही बंद हो गई और रूपायन संस्‍थान बिज्‍जी (विजयदान देथा) के साहित्‍य लेखन को प्रकाशित करने तक सीमित हो गया। इस बीच साहित्‍य अकादमी, दिल्‍ली और राजस्‍थानी भाषा साहित्‍य अकादमी के समर्थन से नये लेखन को प्रकाशित करने की योजनाएं भी सामने आईं। इन संस्‍थानों ने मूल राजस्‍थानी में कृतियां प्रकाशित कीं।
      पिछले एक अरसे से साहित्‍य अकादमी और हिन्‍दी की राष्‍ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं की सक्रियता और समर्थन से जहां राजस्‍थानी कृतियों के हिन्‍दी, अंग्रेजी और दूसरी भारतीय भाषाओं में अनुवाद प्रकाशित होने लगे हैं, वहीं हिन्‍दी और अन्‍य भाषाओं की श्रेष्‍ठ कृतियों के राजस्‍थानी अनुवाद भी प्रकाशित होकर सामने आने लगे हैं। इसी क्रम में राजकमल प्रकाशन जैसे राष्‍ट्रीय प्रकाशन संस्‍थान ने पहली बार सन् 1979 में बिज्‍जी की राजस्‍थानी लोक कथाओं का संकलन ‘दुविधा और अन्‍य कहानियां’ तथा ‘उलझन’ (सन् 1982) हिन्‍दी अनुवाद के रूप में प्रकाशित किये। इतना ही नहीं सन् 1984 में इसी प्रकाशन संस्‍थान ने बिज्‍जी की मौलिक राजस्‍थानी कहानियों का संकलन ‘अलेखूं हिटलर’ मूल भाषा में प्रकाशित कर राष्‍ट्रीय स्‍तर पर राजस्‍थानी कृतियों के प्रकाशन का रास्‍ता खोला। इसके बाद तो भारतीय ज्ञानपीठ और हिन्‍दी के अन्‍य प्रकाशन संस्‍थानों ने भी राजस्‍थानी की अनेक कृतियां मूल और अनुवाद के रूप में प्रकाशित की हैं। राष्‍ट्रीय पुस्‍तक न्‍यास ने भी अपनी भारतीय पुस्‍तक माला श्रृंखला के अंतर्गत राजस्‍थानी भाषा के लेखन को शामिल करते हुए आधुनिक राजस्‍थानी की प्रतिनिधि कहानियों और कविताओं के संकलन मूल राजस्‍थानी में प्रकाशित किये हैं, जिनके हिन्‍दी अनुवाद भी सामने आ चुके हैं। इसी तरह कुछ और हिन्‍दी प्रकाशकों ने इस दिशा में बेहतर रुझान दिखाया है। डॉ नीरज दइया के संपादन में गाजियाबाद के के एल पचौरी प्रकाशन से आए इस ताजे संकलन ‘101 राजस्‍थानी कहानियां’ को मैं इसी श्रृंखला के विस्‍तार के रूप में देखता हूं और निश्‍चय ही इससे राजस्‍थानी के नवलेखन को हिन्‍दी के व्‍यापक पाठक समुदाय के बीच पहंचने की बेहतर संभावनाएं विकसित हो रही हैं।  
     नीरज दइया ने इधर राजस्‍थानी आलोचना के क्षेत्र में काफी सराहनीय कार्य किया है। उन्‍होंने ‘आलोचना रै आंगणै’ और ‘बिना हासलपाई’ जैसी आलोचना कृतियों के माध्‍यम से राजस्‍थानी कथा साहित्‍य के विवेचन का व्‍यापक काम अपने जिम्‍मे लिया है। इसी क्रम में इस कहानी संकलन के प्रारंभ में उनकी बीस पेज लंबी भूमिका राजस्‍थानी कहानी यात्रा के सभी पक्षों का गहराई से अध्‍ययन और विश्‍लेषण प्रस्‍तुत करती है। यह भूमिका न केवल राजस्‍थानी कहानी के इतिहास और उसके विकास-क्रम का ब्‍यौरा पेश करती है, बल्कि राजस्‍थानी कहानी के बहुआयामी रचना-संसार और कहानियों की अंतर्वस्‍तु का बारीक विवेचन प्रस्‍तुत करते हुए उसकी प्रयोगधर्मिता और रचना-कौशल की खूबियों को भी रेखांकित करती है। नीरज की इस भूमिका की बड़ी खूबी यह है कि उन्‍होंने राजस्‍थानी कथा यात्रा की चार पीढ़ियों के उल्‍लेखनीय कथाकारों की रचनाशीलता की वैयक्तिक खूबियों को उनकी प्रमुख कहानियों को हवाले में रखकर विस्‍तार से समझाने का प्रयत्‍न किया है, जो अपने आप में अच्‍छे खासे अध्‍यवसाय और श्रम की मांग करता है।
    राजस्‍थानी के कई महत्‍वपूर्ण कथाकारों ने हिन्‍दी के कथा साहित्‍य में भी अपनी अलग पहचान अवश्‍य बनाई है, लेकिन पिछले पांच दशक में जो कहानियां हिन्‍दी में अनुदित होकर पाठकों के बीच पहुंची हैं, उनके भीतर का देशज रचना-संसार, उनकी अंतर्वस्‍तु और बयानगी हिन्‍दी या किसी भी भारतीय भाषा की कहानी से नितान्‍त नयी और भिन्‍न किस्‍म की है। वह राजस्‍थानी कहानी की अपनी ज़मीन से उपजी हैं।
    यों तो नीरज ने अपनी भूमिका में संकलन के लिए कथकारों और उनकी कहानियों के चयन को लेकर अपनी सीमाओं का भी हवाला दिया है, लेकिन इस महत्‍वपूर्ण प्रतिनिधि चयन में मुरलीधर व्‍यास, मूलचंद प्राणेश, रामकुमार ओझा, रामनिवास शर्मा, पुष्‍पलता कश्‍यप, हरमन चौहान जैसे जाने-पहचाने कथाकारों का न होना थोड़ा अचरज जरूर पैदा करता है, क्‍योंकि‍ ये अपने समय के महत्‍वपूर्ण कथाकार के रूप में चर्चित रहे हैं, और उनकी कहानियों के संग्रह भी उपलब्‍ध रहे हैं, बल्कि मूलचंद प्राणेश तो साहित्‍य अकादमी पुरस्‍कार से भी सम्‍मानित कथाकार रहे हैं। कुल मिलाकर ‘101 राजस्‍थानी कहानियां’ संकलन का प्रकाशन हिन्‍दी पाठकों के बीच  राजस्‍थानी कहानी की बेहतर प्रस्‍तुति की दृष्टि से एक उल्‍लेखनीय उपलब्धि है।  
---------------------------------

  चर्चित कृति : 101 राजस्‍थानी कहानियां, संपादक : नीरज दइया, प्रकाशक : के एल पचौरी प्रकाशन, गाजियाबाद (उ प्र), पष्‍ठ 504, मूल्‍य : 1100/- रुपये।  

"दुनिया इन दिनों" (प्रधान संपादक : डॉ. सुधीर सक्सेना) जनवरी-2020 अंक में

 

डॉ. आईदान सिंह भाटी : साहित्य की शान / डॉ. नीरज दइया

‘आईजी’ के नाम से विख्यात कवि-आलोचक डॉ. आईदान सिंह भाटी एक ऐसा नाम है जो किसी परिचय का मोहताज नहीं है। हाल ही में आपकी राजस्थानी काव्य-कृति ‘आँख हींयै रा हरियल सपना’ को वर्ष 2019 का महाकवि बिहारी के नाम पर दिया जाने वाला के.के. बिड़ला न्यास का पुरस्कार घोषित हुआ है। सम्मानस्वरूप पुरस्कार में प्रशस्ति और ढाई लाख रुपए की राशि भेंट की जाती है। उनकी इस काव्य-कृति को पहले से अनेक सम्मानों से समादृत-पुरस्कृत किया जा चुका है। साहित्य अकादेमी नई दिल्ली का मुख्य पुरस्कार और राजस्थानी भाषा साहित्य एवं संस्कृति अकादमी का सर्वोच्च पुरस्कार इसी कृति के लिए अर्पित किया गया। निसंदेह यह एक उल्लेखनीय कविता-संग्रह है। इसका हिंदी-अनुवाद ‘आँख हृदय के हरियल सपने’ (1996) साहित्य अकादेमी द्वारा प्रकाशित है।
     डॉ. आईदान सिंह भाटी का कृतित्व और व्यक्तित्व ऐसा जादूई है कि जो एक बार रू-ब-रू होता है, उनके जादू से बच नहीं सकता। उन्होंने स्वयं की ही नहीं हिंदी-राजस्थानी के विभिन्न कवियों की सैंकड़ों कविताएं अपने कंठ में ऐसे बसा रखी हैं कि उनकी इस मेधा को हर कोई प्रणाम करता है। वे वाचिक परंपरा के कवि हैं। उनका आधुनिकता बोध उनकी लोकधर्मी प्रतिबद्धता से पोषित होता है। वे आपने पाठकों श्रोताओं के स्मरण में स्थाई निधि के रूप में बसे हुए हैं। उनके रंग-रूप और वेश-भूषा में देशी ठाठ के जलवे देखते ही बनते हैं। एक पंक्ति में कहा जाए तो आईजी ऐसे विरल कवि हैं कि उनका कोई सानी नहीं है। सुप्रसिद्ध आलोचक डॉ. नामवर सिंह का आईजी के विषय में मानना है- ‘लोक भाषाओं के साहित्यकारों का यह दायित्व है कि लोक की आत्मा, लोकभाषा के सार्थक पक्षों को पहचानने और राजनीति की अराजकता के विरुद्ध उसे प्रतिरोध की ताकत के रूप में इस्तेमाल करें। आईदान सिंह भाटी की कविताओं में मुझे लोक भाषा के इसी सार्थक और प्रतिरोधी रूप की झलक मिलती है। वे स्थानिक तथा परंपरा और प्रतिरोध के सौंदर्यबोध के कवि हैं।’
    डॉ. आईदान सिंह भाटी इतने सरल, सहज और सब के आत्मीय रहे हैं कि उन्हें स्वयं से पृथक कर देखना मेरे लिए कठिन है। इसके ठीक विपरीत कभी कभी ऐसा भी लगता है कि वे इतने जटिल, गुंफित और आत्मकेंद्रित रहते हैं कि उनके कवि-मन की थाह पाना संभव नहीं है। वे प्रचलित मानकों और मानदंडों के आधार पर आलोचना के लिए चुनौति है। किसी भी कविता और कवि को जानने के लिए उसमें बहुत गहरे उतरना होता है और आईजी अपनी मुलाकातों में परत-दर-परत खुलते हुए भी बहुत कुछ जैसे अपने भीतर बचाए रखते हैं। उनसे मिलते समय हर बार समय कम पड़ जाता है और बहुत सी बातें बाकी रह जाती हैं। उनसे मिलना और बारबार लगातार मिलना उन्हें पृष्ठ-दर-पृष्ठ जैसे खुलते और खिलते हुए देखना होता है। उनका जन्म 10 दिसम्बर 1952 को जैसलमेर जिले के नोख गांव में हुआ। उन्होंने हिंदी साहित्य में एम. ए. करने के बाद जयनारायन विश्वविद्यालय जोधपुर से प्रो. विमलचंद्र सिंह के निर्देशन में ‘नई कविता के प्रबंध : वस्तु और शिल्प’ विषय पर शोध किया। बाद में वे विभिन्न राजकीय महाविद्यालयों में अध्यापन-कार्य से जुड़े रहे और पूरा जीवन जैसे शिक्षा और साक्षरता को समर्पित कर दिया। उनकी लोकधर्मिता और लोक से गहरा जुड़ाव कविता में संभवतः इसी मार्ग से होता हुआ बढ़ता गया और अब यह जानकर आश्चर्य होगा कि उनका पहला हिंदी कविता संग्रह ‘जलते मरुथल मेम दाझे पांवों से’ (2019) सामने आया है। उनकी हिंदी भी देशी हिंदी है जिसमें राजस्थानी और राजस्थान का जायका भरा रहता है। ऐसा नहीं है कि वे आधुनिक कविता और खासकर हिंदी की कविता के विकास से अनभिज्ञ हों, वे अधिकृत विद्वान हैं और वर्षों तक विद्यार्थियों की हिंदी शुद्ध करते रहे हैं। किंतु उन्हें अपनी हिंदी में मातृभाषा और अपने आस-पास के जीवन से जुड़ी लोकभाषा ही स्वीकार है। विकास के नाम पर बदलते चेहरे और देश के भूगोल के बीच ग्रामीण और शहरी जगत में अब भी एक बड़ा तबका ऐसा है, जो यह सब पचा नहीं सका है। उसका देशज स्वरूप आईजी की कविता में शब्द-दर-शब्द अंकित होता चला गया है। दिखावे और नकली चेहरों के बीच एक असली चेहरा यानी भीड़ में एक अलग चेहरा है आईजी। राजस्थान की मिट्टी की सौंधी सौंधी महक लिए हुए उनकी हिंदी कविताएं मंचों पर चर्चित रही हैं। वे देश के विभिन्न शहरों में आयोजित कवि-सम्मेलनों में अपनी लोकरंग की तुकांत और अतुकांत कविताओं के लिए प्रमुखता से याद किए और बुलाए जाते हैं। उनकी कविताओं में आधुनिकता के साथ परंपरा का समिश्रण आकर्षित करता है। वे नाद-सौंदर्य के नित्य नए प्रयोग करते हुए आधुनिक काव्य-धारा में परंपरा के निजता के आस्वाद के विशिष्ट कवि हैं।
    राजस्थानी वाचिक परंपरा के अग्रणी कवि आईजी का पहला राजस्थानी कविता संग्रह ‘हंसतोड़ा होठां रा साच’ (1987) बेहद चर्चित रहा, इसका दूसरा संस्करण 2014 में प्रकाशित हुआ है। पुरस्कृत राजस्थानी कविता-संग्रह के अलावा ‘रात कसूंबल’ (1997), ‘खोल पांख नै खोल चिड़कली’ (2014) संग्रह प्रकाशित हैं। वे कवि के साथ-साथ वे सफल अनुवाद के रूप में भी पर्याप्त चर्चित रहे हैं। उनके द्वारा गांधीजी की आत्मकथा का राजस्थानी में अनुपम अनुवाद किया गया है। जिसको साहित्य अकादेमी नई दिल्ली ने अनुवाद पुरस्कार से सम्मानित भी किया। उनकी दो अन्य अनूदित कृतियां- ‘गैंडो’ (राईनासोर्स) और ‘रवीन्द्रनाथ री कवितावां’ भी साहित्य अकादेमी से प्रकाशित हुई है।     राजस्थानी भाषा साहित्य एवं संस्कृति अकादमी बीकानेर की मासिक पत्रिका ‘जागती जोत’ के कुछ अंकों और ‘डॉ. नारायणसिंह भाटी की सुप्रसिद्ध कविताएं’ कृति का संपादन भी उन्होंने किया है। वे मूल में स्वयं को राजस्थानी लेखक-कवि कहलाना पसंद करते हैं किंतु मित्रों के आग्रह और अपनी पसंद से अनेक कृतियों की समीक्षाएं भी लिखी है। उनके आलोचनात्मक निबंधों और समीक्षाओं को उनकी कृति ‘समकालीन साहित्य और आलोचना’ (2012) में देखा जा सकता है। इसी भांति ‘राजस्थान की सांस्कृतिक कथाएं’ (2016), ‘थार की गौरव कथाएं’ (2017) और ऐतिहासिक उपन्यास ‘शौर्य पथ’ (2013) उनकी सांस्कृतिक दृष्टि से पगी कृतियां हैं। यह आलेख उस विराट कवि की दिशा में एक संकेत है। मेरी साध है कि उन पर एक कृति लिख सकूं। राजस्थान और राजस्थानी का पर्याय बन चुके डॉ. आईदान सिंह भाटी को बिहार पुरस्कार घोषित होना स्वयं पुरस्कार का सम्मानित होना है। आईजी राजस्थानी ही भारतीय साहित्य की शान बढ़ाने वाले कवि हैं।
"दुनिया इन दिनों" (प्रधान संपादक : डॉ. सुधीर सक्सेना) जनवरी-2020 अंक में
 

Thursday, October 03, 2019

बाल मनोविज्ञान से जुड़ी कहानियां / डॉ. नीरज दइया

बच्चों की दुनिया में गुड़िया को लेकर एक अलग प्रकार का आकर्षण रहता है। यह आकर्षण भले उम्र के साथ धीरे-धीरे कम हो जाए किंतु हम बड़े भी मरते वक्त तक इस आकर्षक से कहीं न कहीं बंधे रहते हैं। हमारा प्रेम इस शब्द में कहीं समाहित है। शायद यही कारण है कि बेटियों के लिए भी गुड़िया शब्द का प्रयोग समाज में रहा है। गुड्डा और गुड़िया बालमन को मोहित करने वाले उपादान हैं और वरिष्ठ बाल साहित्यकार शीला पांडे ने अपने बाल कहानी-संग्रह का नाम रखा है- ‘सांची की गुड़िया’। इस संग्रह में बाल मनोविज्ञान से जुड़ी पंद्रह कहानियां हैं। इस संग्रह में बाल मनोविज्ञान से जुड़ी पंद्रह कहानियां हैं। लेखिका ने संग्रह में ‘मन की बात’ के अंतर्गत लिखा है- ‘जीवन-जंतु, मानव, पर्यावरण आदि के प्रति बच्चों को संवेदनशील बनाने तथा जीवन के प्रति समझ और सही सोच विकसित पैदा करना इन कहानियों का उद्देश्य है।’ इस कथन के आलोक में संग्रह की कहानियों को देखा जाना चाहिए।
शीर्षक कहानी ‘सांची की गुड़िया’ में रिया और सांची के माध्यम से बालकों को मन की सच्ची सुंदरता और बुद्धिमानी की शिक्षा देने का प्रयास किया गया है, वहीं ‘मेहनत की मिठास’ और ‘वेदांश’ जैसी कहानियों के कथ्य से जिस सहजता-सरलता से शिक्षा स्वतः अभिव्यक्त होती है वह अधिक प्रभावशाली लगती है। तीसरी कक्षा के विद्यार्थी आयुष और सार्थक को उनकी रमन मैम द्वारा सौंपे गए छोटे-मोटे कामों में जिस जिम्मेदारी और जबाबदेही को सही ढंग से निर्वाह किए जाने का कथानक वर्णित किया गया है, जो नाटकीय ढंग से कहानी में बहुत सहजता-सरलता से प्रस्तुत हुआ है और अपने उद्देश्य की पूर्ति करता है। बाल मन ऐसी सहज और सच्ची प्रतीत होने वाली कहानियों से गहरे तक प्रभावित होते हैं। ‘वेदांश’ कहानी में वेदांश नामक छात्र को नायक के रूप में रोचक ढंग से प्रस्तुत किया गया है, कहानी में दैनिक विज्ञान से जुड़े कुछ सवाल-जबाबों को इस प्रकार गूंथा गया है कि कहानी अपनी रोचकता के साथ कुछ सवालों का जबाब भी बन गई है। इस कहानी में लेखकीय कौशल से कहानी में प्रतियोगिता का आयोजन हुआ है और सीधे-सीधे प्रश्नोत्तर भी कहानी का हिस्सा बन गए हैं।
बालकों के लिए लिखते समय यह बड़ी चुनौति रहती है कि हम कोई नई बात शिक्षा के रूप में प्रस्तुत भी करें और वह सीधे-सीधे शिक्षा और उपदेश के रूप में नहीं वरन सरलता-सहजता से कहानी के कथ्य का हिस्सा बनते हुए प्रस्तुत हो। उदाहरण के लिए पेड़ का एक पर्यावाची ‘हरितराज’ है जिसे कहानी ‘नदी कहती थी’ में शीला पांडे ने बड़े कौशल से प्रयुक्त करते हुए इसके साथ अनेक तथ्यों को कहानी में समाहित किया है। नदी कहती थी में जल संकट और आज के पर्यावरण के साथ नदियों के संकट को स्पर्श करने का उम्दा प्रयास है। कहानी में कछुआ, मछली, नाव और पेड़ के संवाद से बहुत कुछ कहा गया है किंतु बेहद कौशल के साथ छोटे-छोटे वाक्यों और सरल शब्दों के प्रयोग में इसका निर्वाहन किया गया है, जो अन्य रचनाकारों के लिए प्रेरक कहा जा सकता है।
‘भूरा और भूरी’ कहानी में मीनू बकरी के दो बच्चों भूरा और भूरी के माध्यम से बच्चों को अकेले बाहर नहीं जाने और बड़ों का कहना मानने का संदेश अभिव्यक्त हुआ है, वहीं ‘अनुभूति’ कहानी में पर्यावरण के प्रति हमारे बालकों की जिम्मेदारी को सुंदर ढंग से रचा गया है। अनुभव मौज-मस्ती करने वाला बड़ा बेफिक्र बच्चा था किंतु कहानी के अंत तक पहुंचते हुए वह इस रूप में बड़ा हो गया है कि पेड़ों को भी किसी को काटने नहीं देता। वह नए पेड़-पौधे लगाने के लिए दूसरों को प्रेरित करने लगा है। इसी भांति ‘पेड़ और पक्षी’ कहानी में वरुन का पर्यावरण के प्रति सजग होना और ‘अमन की खोज’ में सांप्रदायिक सद्भाव को लेकर चेतना के लिए लेखिका ने प्रयास किया है। छोटे, मध्यम और कुछ बड़े आकार की इन कहानियों में बच्चों की रूपहली दुनिया है और इन सब में बाल मन की अभिव्यक्ति के साथ लेखिका का अपना नजरिया और चीजों को देखने दिखाने का रंग-ढंग भी है। कहीं कहीं अधिक कहने के उत्साह में वे कहानी को ब्यौरों से भर देती हैं पर जहां-जहां उन्होंने वाल पाठकों की समझ और ग्रहणशीलता पर विश्वास किया है वहां-वहां वे सफल रही हैं।
मुद्रण और लेआउट की बात करें तो बेहद आकर्षक आवरण और भीतर की साज-सज्जा में रंगीन चित्रों से रजी यह किताब निसंदेह बाल पाठकों को मोहित करने वाली है। बाल साहित्य की पुस्तकों में भाषा और वर्तनी का विशेष ध्यान रखा जाना चाहिए। यदि पुस्तक सूचना और प्रसारण मंत्रालय भारत सरकार के प्रकाशन विभाग विभाग से प्रकाशित है तो उनकी पाठकों के प्रति जिम्मेदारी बढ़ जाती है। ‘हिमांशु का बाल भी नहीं कट पाया था।’ (पृष्ठ-51) के स्थान पर ‘हिमांशु के बाल भी नहीं कट पाए थे।’ होना चाहिए था। इसी भांति इसी पृष्ठ पर एक शब्द ‘चाबी’ के चाबी और चाभी दो वर्तनीगत प्रयोग हुए हैं। शब्दों के मामले में शुद्धता और समरूपता का निर्वाह किया जाना चाहिए। पर किताब की सुंदरता को देखते हुए कुछ प्रूफ की भूलों को नजरअंदाज किया जा सकता है। जैसे- अनेंकों (पृष्ठ-46), पूंछे (पृष्ठ-47) और आर्शीवाद (पृष्ठ-79) आदि। अनेक स्वयं एक का बहुवचन है और बहुवचन का बहुवचन नहीं होता। इसी प्रकार ‘आशीर्वाद’ शब्द लिखने में बहुधा त्रुटि होती है, इससे बचा जाना चाहिए। समग्र रूप से इसे एक मनोरंजक और शिक्षाप्रद कहानी संग्रह कहा जा सकता है।
------------------------------------
समीक्षक : डॉ. नीरज दइया
------------------------------------
पुस्तक : सांची की गुड़िया (बाल कथा-संग्रह) लेखिका : शीला पांडे , प्रकाशक : प्रकाशन विभाग, सूचना और प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार, सूचना भवन, सी.जी.ओ. कॉम्पलेक्स, लोदी रोड, नई दिल्ली- 110003, संस्करण : 2018 (द्वितीय), पृष्ठ : 80, मूल्य : 110/-

"बाल वाटिका" (संपादक  डॉ.भैरूंलाल गर्ग) अक्टूबर, 2019 अंक में  

Sunday, August 18, 2019

उल्लेखनीय कार्य : 101 राजस्थानी कहानियां का हिंदी अनुवाद

पोथी-परख / राजेन्द्र जोशी
101 राजस्थानी कहानियां (संपादक : डॉ. नीरज दइया)ISBN : 978-81-938976-8-3 प्रकाशक : के.एल.पचौरी प्रकाशन, 8/ डी ब्लॉक, एक्स इंद्रापुरी, लोनी,गजियाबाद-201102  प्रकाशन वर्ष : 2019 / पृष्ठ : 504 / मूल्य : 1100/-
            प्रत्येक भाषा का अपना अलायदा मुहावरा होता है। भाषा छाटी या बड़ी नहीं होती, दुनिया के किसी भी हिस्से में बोली जाने वाली भाषा की एक संस्कृति की प्रतिनिधि पैरोकार होती है। भारतीय भाषाओं की बात करें तो यहां अनेक भाषाएं सदियों से प्रचलन में हैं। इन्हीं भाषाओं में से एक है- राजस्थानी भाषा। यह अपने अनुभव की व्यापकता को राजस्थानी संस्कृति से जोड़ने का काम निरंतर करती रही है। भारत में प्रचलन में रही भाषाओं में अपना वजूद बढ़ाती हुई राजस्थानी भाषा दुनिया के लगभग सभी क्षेत्रों में बोली और बरती जाती है।
            राजस्थानी भाषा का साहित्य-संसार भी बहुत प्राचीन है, राजस्थानी के आधुनिक साहित्य की बात करें तो इसमें विभिन्न विधाओं में लगभग समान रूप से वर्तमान में लिखा जा रहा है। साहित्य में कहानी विधा प्रारंभ से ही लोकप्रिय विधा रही है। अगर हम राजस्थानी कहानी की बात करें तो लगता है कि राजस्थानी कहानी के माध्यम से स्वयं लोक प्रकट हो रहा है। पिछले दिनों डॉ. नीरज दइया के संपादन में एक सौ एक राजस्थानी कहानियां हिंदी में एक साथ पठने को मिली। राजस्थानी कहानी को और अधिक पाठकों तक पहुंचाने का डा. नीरज दइया का यह प्रयास उल्लेखनीय एवं सराहनीय है। इससे जहां एक और राजस्थानी भाषा के मान्यता-आन्दोलन को बल मिलेगा, वहीं राजस्थानी कहानी की मठोठ, शिल्प, संवेदना और शैली को जानने का अवसर राजस्थानी से इतर पाठकों एवं ऐसे आलोचकों को मिल सकेगा जो भारतीय कहानी पर बात करना चाहते हैं।
            डॉ नीरज दइया के इस उम्दा प्रयास ‘101 राजस्थानी कहानियां’ से राजस्थानी में लिखे जा रहे साहित्य के साथ-साथ राजस्थानी-संस्कृति को समझने का भी अवसर मिलेगा। कथा साहित्य में अभिव्यक्त जीवन में लोक और लोक-संस्कृति एक दूसरे से बेहद करीब नजर आते हैं! राजस्थानी कहानी के परिवेश की बात करें तो यह अपने विविध सांस्कृतिक पक्षों को उजागर करती दिखाई देती है। ‘101 राजस्थानी कहानियां’ कृति में डॉ. नीरज दइया ने विभिन्न आयु-वर्ग और कहें पीढ़ियों के कहानीकारों को एक साथ स्थान देकर समग्र कहानी को जानने समझने का सुवसर दिया है, साथ ही साथ वे पाठकों को यह बताने में भी सफल रहे हैं कि राजस्थानी कहानी की यात्रा वर्तमान तक किस और किन किन तरह के बदलावों के साथ यहां तक पहुंची है। वर्तमान में भारतीय कहानी के समानांतर राजस्थानी में क्या कुछ बदलाव आएं हैं वे भी यहां नजर आ रहे हैं। कहानी-यात्रा के विभिन्न पड़ावों से पाठक रू-ब-रू होता है। दशकवार आकलन करें तो यहां विविध दशकों की सीधे-सीधे पड़ताल तो नहीं किंतु इस चयन में यह अंतर्निहित है कि विविध दौर में समय के साथ पहले की राजस्थानी कहानी और आज की राजस्थानी कहानी में काफी कुछ अंतर आया है!
            कहानी के पाठकों को यह राजस्थानी कहानियों का समुच्चय नया पाठक वर्ग भी दे सकेगा। बहरहाल इस तरह के आंशिक और छोटे स्तर पर प्रयास पहले भी होते रहे है। किंतु 101 कहानियों का यह एक साथ पहला और उल्लेखनीय प्रयास है। राजस्थानी कहानियों के संपादन की बात करें तो डॉ. नीरज दइया से पहले 1976 में रावत सारस्वत और रामेश्वर दयाल श्री माली के संपादन में मूल राजस्थानी में आज रा कहाणीकारपुस्तक साहित्य अकादेमी से प्रकाशित हुई थी। इन संपादकों के विचारों और डॉ. नीरज दइया के संपादकीय में अभिव्यक्त विचारों का तुलनात्मक अध्ययन किया जा सकता है। दोनों ही पाठकों को अपने अपने स्तर पर कुछ सोचने-समझने के अवसर के साथ पाठक की दृष्टि को मांजते हैं। इस साझा संकलन की भूमिका में रतन सारस्वत का मानना है कि उन्नीसवी शताब्दी के बाद और हिंदी के प्रवेश के साथ राजस्थानी की रचनाएं दीन-हीन अवस्था में पहुंचने लगी थी, डेढ सौ वर्षों की इस दीन-हीन दशा ने राजस्थानी भाषा-साहित्य के स्वरूप को समाप्त करने का काम किया। कारण था कि आज की राजस्थानी कहानी को दूसरी विधाओं के साहित्य की तरह अपनी पुरानी परिपाटी से अलग नया मार्ग बनाना पड़ा। यह मार्ग राजस्थान की घटती जा रही पहचान रखने वाले पावों से नहीं बना... बल्कि विचित्र पांवों की विचित्र चाल से बना। और अपने साथी सम्पादक जैसे विचार रखते हुए अपनी टिप्पणी में रामेश्वरदयाल श्रीमाली ने लिखा- आज हम जिस कहानी की बात करते हैं और आज की कहानी के आस-पास प्रत्याशा से हिंदी और हिंदी में भी प्रेमचंद की कहानी के प्रभाव से राजस्थानी कहानी आस-पास पसरी हुई है। इसी जमीन की हवा के मुताबिक आजादी की लड़ाई के जन-जागरण के साथ-साथ देश की सारी भाषाओं के साहित्य की तरह राजस्थानी भाषा और इसके कथा साहित्य ने भी आलस्य तोड़ा था, इसके बावजूद वह अगले कई वर्षों तक उनींदा-सा ही पड़ा रहा।
            इसी भांति ठीक 39 वर्षों बाद के एन बी टी से 32 राजस्थानी कहानियों का संकलन ‘तीन बीसी पार’ नंद भारद्वाज के संपादन में 2015 में प्रकाशित हुआ, जिसमें बहुत करीने से नंद भारद्वाज ने हिंदी के आलचकों की तरह इन कहानियों का मूल्यांकन पाठकों के भरोसे छोड़ दिया। वैसे किसी भी रचना का मूल्यांकन पाठक ही किया करते हैं परंतु आलेचक की राय साहित्य में बहुत महत्त्व रखती है। 39 वर्षों पूर्व रावन सारस्वत और रामेश्वर दयाल श्रीमाली के जो टिप्पणी अपनी भूमिका में अपने तरीके से लिखी है। उसका ‘तीन बीसी पार’ में नंद भारद्वाज अपनी टिप्पणी में उल्लेख देते हुए लिखा है कि इस तीसरी बीसी के जिन समर्थ और प्रतिभाशाली कथाकारों की कहानियां इस संकलन में शामिल की गई हैं, उनकी कथा-यात्रा और कहानियों के बारे में अभी कोई मूल्य निर्णय देने की जल्दीबाजी मुझे उचित नहीं लगती है। उनकी रचनाशीलता के अन्तस्त्रों को समझना बेहद जरूरी है। मेरी यही राय है कि फिलहाल ऐसी प्रतिनिधि कथाओं का चयन करना और उन्हें पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत कर देना पर्याप्त है। यह निर्णय पाठक की सुरूचि और उसके पर ही छोड देना बेहतर है कि वे दूसरी भारतीय भाषाओं की कथा-यात्रा में उन्हें कहा खड़ा पाते है। यह ठीक वैसा है कि साथ ले जाकर बीच सडक में छोड़ देना की वह अपना मुकाम खुद तय करें। तीन बीसी पार का महत्त्व इसलिए अधिक है कि इसका मूल राजस्थानी के बाद हिंदी अनुवाद भी एन बी टी ने इसी नाम से पुस्तकाकार प्रकाशित किया है।
            यादवेंद्र शर्मा ‘चंद’ ने राजस्थानी कहानियों को हिंदी पाठकों के लिए ‘कालजयी कहानियां’ 20 कहानियों और राजस्थानी की ‘प्रतिनिधि कहानियां’ में 17 कहानियों के साथ प्रकाशित किया। नंद भारद्वाज के संपादन से पहले 2007 में तथा 2015 में हिंदी में तीन बोसी पार आया था और अब 2019 में संख्यात्मक दृष्टि से इन दोनों संकलनो को आगे बढ़ाने की बात करते हुए डॉ. नीरज दइया ‘101 राजस्थानी कहानियां’ का वृहत संकलन तैयार किया है, हालांकि अधिकतर कहानीकार डॉ. नीरज दइया के इस 101 कहानीकारों में शामिल दिखायी देते हैं परंतु नीरज अपनी टिप्पणी में लिखते हैं- मेरी कोशिश रही है कि राजस्थानी की उल्लेखनीय एवं विशिष्ट कहानियां हिंदी के विशाल पाठक समुदाय तक पहुंचे। साथ ही आलोचकों का ध्यान भी उन पर जाए ताकि उन पर सार्थक चर्चा और विमर्श हो सके। डॉ. नीरज का आश्य इस सकंलन के माध्यम से राजस्थानी कहानी को हिंदी और भारतीय भाषाओं की कहानी के बीच खड़ा करने का रहा है। डॉ. नीरज 101 राजस्थानी कहानियों के हिंदी अनुवादों के माध्यम से भारतीय कहानी के मध्य कहानी के विकास में राजस्थानी कहानी का अवदान और सामर्थ्य साथ रखना चाहते हैं, मूल्यांकन की स्थितियां ऐसे प्रयासों से ही संभव हो सकेंगी। संभव है कि इस प्रयास से राजस्थानी की अनेक कहानियां अन्य भारतीय भाषाओं में अनुवाद के द्वारा पहुंच कर राजस्थानी की महक को गुलजार करे। बिना किसी संस्थागत सहयोग से 101 कहानियों का 504 पेज का संकलन हिंदी पाठकों के समुख रखना अपने आप में महत्त्वपूर्ण और प्रेरक है। इसमें विभिन्न कहानीकारों के साथ महिला कहानी लेखक को भी उचित प्रतिनिधित्व दिया गया है तथा सभी पीढ़ी के रचनाकारों पर व्यवस्थित रूप से चर्चा करने का ईमानदार प्रयास है।
डॉ. नीरज दइया हिंदी और राजस्थानी के समर्थ और प्रतिभाशाली रचनाकार हैं। सृजन और अनुसृजन में उनकी समान गति है। इक्कीसवीं सदी के शुरुआती दौर में वह मौलिक लेखन के सशक्त हस्ताक्षर के साथ-साथ सहोदरा भाषाओं- हिंदी और राजस्थानी के मध्य सेतु बनकर उभरे हैं।
            दुनिया इन दिनों के प्रधान संपादक और कवि-आलोचक डॉ.सुधीर सक्सेना की फ्लैप पर लिखी इन बातों से सहमत हुआ जा सकता है कि नीरज ऐसे आलोचक हैं, जो संकोच या लिहाज में यकीन नहीं रखते। वह खूबियां गिनाते हैं, तो खामियां भी बताते हैं। उनका यकीन खरी-खरी अथवा दो टूक है। उनके लिए थीमभी मायने रखती है और सलूक भी। वह रचनाकार के सलीके को भी नजरअंदाज नहीं करते। वह अपनी बीनाई (दृष्टि) से चीजों को परखते हैं। उनके लिए शिल्प और संवेदना मायने रखते हैं, तो प्रयोगधर्मिता भी समय के यथार्थ से जुड़ना और उससे मुठभेड़ के साथ-साथ प्रासंगिकता को वे महत्त्वपूर्ण मानते हैं। गौरतलब है कि हिंदी की पहली और राजस्थानी की प्रथम कहानी लगभग असपास ही लिखी गई। शिवचंद भरतिया की 1904 में लिखी पहली कहानी के बाद लगभग एक सदी में राजस्थानी की कहानी ने बहुत कुछ सार्थक अर्जित किया है। सरकारी या गैर सरकारी संरक्षण की न्यूनता के बावजूद उसने गतिरोधों से उबरकर अपना रास्ता तलाशा और पहचान अर्जित की। नीरज दइया की यह कृति राजस्थानी कहानी को जानने-बूझने के लिए राजस्थानी समेत तमाम भारतीय पाठकों के लिए अर्थगर्भी है। नीरज बधाई के पात्र हैं कि अपनी माटी के ऋण को चुकाने के इस प्रयास के जरिए उन्होंने राजस्थानी कहानी को वृहत्तर लोक में ले जाने का सामयिक और श्लाघ्य उपक्रम किया है।


राजेन्द्र जोशी




Sunday, July 07, 2019

बिल्कुल कोरी स्लेट नहीं होते बच्चे / डॉ. नीरज दइया

पुस्तक समीक्षा
1. ‘अपना होता सपना’ (बाल-उपन्यास) पृष्ठ-64 , मूल्य-150/- , संस्करण- 2016
2. ‘चींटी से पर्वत बनी पार्वती’ (बाल-उपन्यास) पृष्ठ-64 , मूल्य-100/- , संस्करण- 2016
3. ‘सुनना, गुनना और चुनना’ (बाल कहानी संग्रह) पृष्ठ-64 , मूल्य-100/- , संस्करण- 2016
4. ‘खुद लिखें अपनी कहानी’ (बाल कविता संग्रह) पृष्ठ-80 , मूल्य-100/- , संस्करण- 2016
5. ‘कठघरे में बड़े’ (बाल नाटक) पृष्ठ-64 , मूल्य-80/- , संस्करण- 2016
पांचों पुस्तकों के रचनाकार मधु आचार्य ‘आशावादी 

प्रकाशक-  सूर्य प्रकाशन मंदिर,  बीकानेर 
बाल साहित्य लेखन परंपरा में ‘पंचतंत्र की कहानियां’ और बचपन में नानी-नाना, दादी-दादा व अन्यों की जबानी सुनी कहानियां का स्मरण आदर्श के रूप में रखा जाता रहा है। बच्चों का ज्ञानवर्धन और उन्हें जानकारियां देना कभी बाल साहित्य का उद्देश्य रहा होगा, किंतु वर्तमान में बाल साहित्य लेखक के सामने अनेक चुनौतियां हैं। आधुनिक इलेक्ट्रोनिक मीडिया में बच्चों की पुरानी कहानियां, कविताएं अब उस स्थिति में नहीं है कि वे बच्चों को बांध सके। नैतिक सन्देश अथवा मूल्यों की स्थापना बंधन के रूप में तो होनी भी नहीं चाहिए। सबसे बड़ी पाठशाला जीवन ही है। जीवन पर्यंत हम आचार-व्यवहार से सीखते हैं। बाल-साहित्य के विषय में अनेक भ्रांतियां हैं। पहली तो यही कि लेखक गंभीरता से नहीं लेते हैं, जबकि सच्चाई यह है कि बच्चों के लिए लिखना बड़ों के लिए लिखने से कठिन है। इसके लिए गहरी समझ और दृष्टिकोण की आवश्यकता होती है। विपुल मात्रा में साहित्य-लेखन हेतु चर्चित नामों में इन दिनों मधु आचार्य ‘आशावादी’ शामिल है। आपके दो बाल-उपन्यास- ‘अपना होता सपना’, ‘चींटी से पर्वत बनी पार्वती’, बाल कहानी संग्रह- ‘सुनना, गुनना और चुनना’, बाल कविता संग्रह- ‘खुद लिखें अपनी कहानी’ बाल नाटक ‘कठघरे में बड़े’ बाल-साहित्य में एक नई शुरुआत है।
बाल साहित्य में मधु आचार्य की रचनाओं में जीवन की अभिव्यक्त अनेक रंगों में मिलती है। उनके बाल उपन्यास ‘अपना होता सपना’ में कथा-नायक नितिन की संघर्षभरी प्रेरक कहानी है। कर्मशील नितिन का चरित्र एक आदर्श के रूप प्रस्तुत किया गया है। शीर्षक में कौतूहल है कि सपना क्या है? कौनसे सपने की बात है? और वह अपना कैसे होता है? रूढ़ अर्थों में सपना- सच्चा या झूठा होता है। सपने को कभी हम अपना या पराया कहते हैं। खुली आंख से देखे गए सपने ही वास्तविक सपने होते हैं। इस बाल उपन्यास में नायक नितिन का वर्णित सपना कुछ ऐसा ही था, जिसे लेखक ने सरल-सहज प्रवाहमयी भाषा में रखते हुए बालमनोविज्ञान को आधार बनाया है। बालमन के समक्ष यह सपना जीवन में कुछ आगे बढ़ कर, कुछ कर दिखाने का जजबा जाग्रत करता है। दूसरे शब्दों में कहें तो ऐसा कुछ कर दिखाने का बालकों से आह्वान है।
उपन्यास अपने मार्मिक स्थलों और कुछ बिंदुओं के कारण बालमन को छू लेने की क्षमता रखता है। कहा जाता है कि बच्चे भगवान का रूप होते हैं। अगर उनकी लगन सच्ची हो तो उन्हें कोई रोक नहीं सकता। इसका एक उदाहरण उपन्यास का संस्कारवान नायक नितिन है। उसने जीवन में कभी सच्चाई का दामन नहीं छोड़ा। ऐसे प्रेरक चरित्र से बालकों को शिक्षा मिलती है। नैतिक मूल्यों और संस्कारों के साथ उपन्यास में मितव्ययता और दूरदृष्टि का मूल मंत्र भी मूर्त हुआ है।
हम वयस्कों को चाहिए कि बच्चों को वर्तमान हालात से जल्द से जल्द परिचित करा दें। आर्थिक समस्याओं से ग्रसित आज का समाज सुख के लिए तरस रहा है। मीडिया द्वारा रंगीन सपने परोसे जा रहे हैं। यांत्रिक होते मानव-समाज के बीच बाल साहित्य के रचनाकारों को सुकोमल बचपन को बचाना है।
जैसा कि शीर्षक से स्पष्ट है कि दूसरे बाल उपन्यास ‘चींटी से पर्वत बनी पार्वती’ में एक लड़की पार्वती की कहानी होगी। साथ ही यह भी कि वह अपने जीवन में किसी छोटे मुकाम से बड़े मुकाम तक पहुंची होगी, संभवत: चींटी और पर्वत का यही प्रतीक हो सकता है। शीर्षक प्रेरक सूत्र सा उपन्यास की कहानी स्पष्ट करता है। उपन्यास में अस्थमा पीडि़त सरकारी कर्मचारी है। उसकी इकलौती लड़की पार्वती छोटी उम्र में भी बहुत होशियार है। अच्छी शिक्षा से उसे बड़े पद पर पहुंचाना पिता का सपना है। बेटी की शिक्षण व्यवस्था खर्च और आर्थिक तंगी के चलते पिता बीमारी में दवाइयां समय पर नहीं ले पाता है। उनका इन्हेलर भी खाली रहता है, कई बार परेशानी होती है और पार्वती को बहुत दुख होता है।
पिता-पुत्री का प्रेम और उसकी समझ का चित्रण उपन्यास में हुआ है। आर्थिक संकट के कारणों में उपन्यासकार नहीं जाता। पिता की अकाल मौत के बाद बाद पार्वती पूरे घर-परिवार का भार संभालती है। वह अपनी लगन, मेहनत और हिम्मत से जीवन में निरंतर संघर्ष से आगे बढ़ती है। उपन्यास में संयोग के साथ घटनाओं का चित्रण है। बालमन की मार्मिक गाथा प्रेरणास्पद है। सामाजिक संबंधों में प्रेम, भाईचारे का प्रभावी चित्रण उपन्यास में है। छोटे-छोटे संवादों द्वारा कथा को आगे बढ़ाते हुए उपन्यासकार प्रभावित करता है।
बाल कहानियों का संग्रह ’सुनना, गुनना और चुनना’ और बाल कविताओं के संग्रह ‘खुद लिखें अपनी कहानी’ के शीर्षक देखकर लगता है कि जैसे यह बदल गए हैं। कविताओं की पुस्तक में कहानी जैसा और कहानियों की पुस्तक में कविता जैसा शीर्षक है। ‘खुद लिखें अपनी कहानी’ प्रेरक उक्ति के रूप में संदेश देने पंक्ति है, तो ‘सुनना, गुनना और चुनना’ में अनुप्रास से काव्य-सौंदर्य जैसा मर्म उद्घाटित होता है। इसे तयशुदा व्यवस्थाओं को नए रूप में देखने का लेखकीय प्रयास कहा जा सकता है। पांच बाल कहानियां का संकलन कहानी संग्रह है- ‘तौल-मौल कर बोल’, ‘संभव भी है असंभव’, ‘यूं बिगड़ती है बात’, ‘खुद का सहारा खुद’ और ‘सुनना, गुनना और चुनता’।
‘तौल मौल कर बोल’ दीपक की कहानी है जिसे मम्मी-पापा की रोक-टोक पसंद नहीं है। उसे लगता है कि उसके साथ ज्यादती हो रही है। कहानी में वह आत्मकेंद्रित गुस्से में घर निकल जाता है। घर से निकल कर पहने पर उसे संयोगवश पहले पुलिस से सवाल-जवाब करना पड़ता है। बाद में वह गुंडों के चंगुल में फंसता है, तब उसे घर की बातें समझ आती है। एक सामान्य-सी यह कहानी में लेखक ने सपने के माध्यम से घर में ही दीपक को पाठ पढ़ा दिया है। कहानी अपने अंत पर रहस्य उद्घाटित कर बालमन को प्रभावित करने वाली है।
संग्रह की दूसरी कहानी ‘असंभव भी है संभव’ मूर्तियां बेचनेवाले मजदूर परिवार की कहानी है। छोटी उम्र में पिता खो चुके किशोर मनोज के साहस की यह प्रेरक कहानी है। ‘चींटी से पर्वत बनी पार्वती’ और ‘अपना होता सपना’ के पात्रों की भांति इस कहानी में मनोज अपने परिवार को संभालता हुआ जीवन में आगे बढ़ता है। ‘यूं बिगड़ती है बात’ कहानी एक सुखी हंसते-खेलते ऐसे परिवार की कहानी है, जिसका बेटा बुरी संगत में बिगड़ जाता है। उसकी मां चद्दर में पांव उलझने और संयोग से छत पंखें के गिरने से घायल होती है, और बाद में दिमागी संतुलन खो देती है। मां और पिता दोनों पुत्र पर ध्यान नहीं दे पाते, जिससे वह रास्ता भटक जाता है। कहानी के अंत में मां की जलती चिता और पिता-पुत्र का मिलन है। कहानी बालमन को हिम्मत, धैर्य और सही राह पर चलने का संकेत छोड़ती है। ऐसी ही कहानी ‘खुद का सहारा खुद’ ट्रक ड्राइवर के बेटे कमल की है। पिता घर से अधिकतर बाहर रहने से पारिवारिक कलह है। दुर्घटना में पिता की मृत्यु और मां का किसी के साथ चले जाना, माता-पिता के अभाव की कहानी है। दादी के साथ एकाकी कमल अपने संघर्ष से जीवन जीता है। बहुत ही मार्मिक ढंग से कही गई यह कमल की मर्मस्पर्शी कहानी है।
शीर्षक कहानी ‘सुनना, गुनना और चुनना’ एक धनिक परिवार में तीन भाइयों के बीच इकलौती और सबकी चहेती अनिता की कहानी है। वह अत्यधिक लाड़ प्यार से जैसे सही- गलत में फर्क करना ही भूल जाती है। एक संत के प्रवचन सुनकर उसे आत्मज्ञान और ग्लानि होती है। वह आधी रात को घर से निकल जंगल पहुंच जाती है। जहां एक फैंतासी में जंगल के पेड़, टहनी और जानवरों से संवाद उसे ‘सुनना, गुनना और चुनना’ का मूल मर्म समझता है। इन कहानियों में पठनीयता के साथ सुनने-सुनाने का भाव निहित है। बालमन पर गहरी पकड़ है।
संचित लेखकीय अनुभव का काव्य-रूपानंतरण है- बाल कविता संग्रह ‘खुद लिखें अपनी कहानी’। कविताओं के शीर्षक देखें-फूल मत तोडऩा, मत उडऩा हवा में, बड़ो पर मत उठाना सवाल, वफादारी से हो यारी, भूलों से बचाना, दर्द को बांटो, गुस्सा मत करना, जैसा बोओगे वैसा काटोगे, जीवन का गीत, सूरज से सीख, बादल बन जाओ, अच्छा हो साथ, चींटी की एकाग्रता, बड़ों की आज्ञा सर्वोपरी, एक की तो मदद करो, तिनका तिनका सुख, हक के लिए हो लड़ाई, रेत पर लिखो मन की बात, चलना ही जीवन, सरस्वती से मिलता ज्ञान, मन में हो मां आदि। स्पष्ट है कि थोड़े शब्दों में सरलता-सहजता को अंगीकार करते हुए बच्चों की भाषा में बहुत सी मर्म भरी बातें यहां कहीं गई है।
यह एक पीढ़ी को संस्कारित करने का एक मार्ग हो सकता है। इन कविताओं की अपनी प्रविधि है। बात कहने का सलीक-संप्रेषण है। कविता ‘भूखे को खिलाना’ और ‘सवसे बड़ा धर्म’ में कुछ साम्य है। ‘एक दिन / किसी भूखे को खिलाना’ अथवा ‘अपने हिस्से की / एक रोटी भूखे को खिलाओ / सबसे बड़ा पुण्य कमाओ’ जैसी उक्तियां सदाचार को प्रेरित करती हैं। बच्चों के लिए जरूरी है कि वे खुद अपनी कहानी लिखें।
बिल्कुल कोरी स्लेट नहीं होते बच्चे, उनके लिए लिखना चुनौतीपूर्ण है। खासकर कविताएं। सबका अपना अपना नजरिया हो सकता है किंतु बाल कविता लेखन परम्परा से कुछ अलग ये कविताएं छंद मुक्त होकर भी जैसे छंद साधती है। सीधी सपाट होते हुए भी बहुत से रहस्यों को अपने भीतर रखते हुए संकेत करती हैं।
मधु आचार्य ‘आशावादी’ की छवि मूलतः सुपरिचित साहित्यकार-रंगकर्मी के रूप में रही है और वे रंगमंच से विविध रूप में सक्रिय रहे हैं, अस्तु ‘कठघरे में बड़े’ बाल नाटक में उनसे उपेक्षाएं अधिक थीं और उन्होंने उन्हें पूरा किया है। विषय की नवीनता के साथ नाटक के सभी तकनीकी पहुलू इसमें समाहित हैं। एक विशेष बात यह भी कि यह नाटक प्रकाशन से पूर्व सुरेश हिंदुस्तानी के निर्देशन में मंचित भी हुआ जिसका ब्यौरा पुस्तक में दिया गया है साथ ही निर्देशक की बात भी पुस्तक में प्रकाशित की गई है। यह नाटक असल में एक प्रयोग है जिसमें बच्चों द्वारा अदालत लगा कर बहुत सामयिक बातें बड़ों के लिए सहजता से प्रस्तुत की गई है। शिक्षा तथा बाल विकास की अनेक अवधारणाओं को समाहित करते इस नाटक के विषय में व्यंग्यकार कहानीकार बुलाकी शर्मा ने लिखा है- ‘कटघरे में बड़े को पढ़ते हुए लगता है जैसे मधु आचार्य ‘आशावादी’ नें परकाया-प्रवेश करने जैसा दुष्कर कार्य किया है। इस नाटक में बच्चे जज, वकील और गवाह है और कटघरे में उनके अभिभावक। जिन समस्याओं को अभिभावक या बड़े लोग नजरअंदाज करते रहे हैं, उन पर बच्चों की पैनी नजर है और वे उनका समाधान चाहते हैं। बारह वर्ष का अशोक जज के रूप में जो फैसले लेता है, उन्हें सुनकर सभी बड़े लोगों की आंखें खुल जाती है।’ जैसा कि पहले संकेत किया मधु आचार्य के यहां तयशुदा व्यवस्थाओं को नए रूप में देखने का प्रयास करते हैं। फ्रूप की कुछ भूलों को छोड़ दें तो विषयानुकूल मोहक चित्रों में सजी ये पांचों पुस्तकें बाल पाठकों को लुभाने वाली पुस्तकें कहीं जा सकती है।
------------------
- समीक्षक : डॉ. नीरज दइया, बीकानेर (राज.)
बाल साहित्य को समर्पित और 24 वर्षों से लगातार प्रकाशित होने वाली शिक्षा, साहित्य एवं सांस्कृतिक संस्कारों की लोकप्रिय मासिक पत्रिका ‘बाल वाटिका’ के जुलाई, 2019 अंक में साहित्यकार मधु आचार्य ‘आशावादी’ की पांच कृतियों पर समेकित आलेख को ‘पुस्तक समीक्षा’ के अंतर्गत प्रकाशित किया गया है, आदरणीय संपादक डॉ.भैरूंलाल गर्ग जी का बहुत-बहुत आभार। 

Monday, June 17, 2019

Saturday, June 08, 2019

हिंदी कार्यशाला में मुख्य वक्ता डॉ. नीरज दइया

कल गुरुवार 06 जून को राष्ट्रीय अश्व अनुसन्धान केंद्र बीकानेर में “राष्ट्रभाषा, राजभाषा एवं मातृभाषा के प्रति दायित्व-बोध” विषय पर आयोजित हिंदी कार्यशाला में मुख्य वक्ता के रूप में विचार व्यक्त करने का अवसर मिला। यह सुनहरा अवसर रहा कि महाराणा प्रताप की 480 जयंती भी उनकी अष्ट-धातु की मूर्ति पर माल्यार्पण कर मनाई गई। अश्व अनुसन्धान केंद्र में साथियों द्वारा हुई चर्चा सार्थक रही। अपने साथियों और अधिकारियों से सदा मेरी अपेक्षा रही है कि हम सब अच्छे बन कर ही अच्छा कर सकते हैं। किसी भी विषय में सकारात्मता के बिना अच्छे और वांछित परिणाम संभव नहीं है। भाषाओं के संदर्भ में हमें न केवल आत्मावलोकन करना है बल्कि अच्छे कार्य करने की एक अदृश्य प्रतिबद्धता भी इसमें निहित हो जाए तो क्या कहना। राजकीय लक्ष्य हिंदी में शत प्रतिशत कार्य करने का हम मिलजुल ही प्राप्त कर सकेंगे।
केंद्र के प्रभारी अधिकारी डॉ. एस. सी. मेहता सृजनात्मकता के धनी हैं उन्होंने अश्व अनुसन्धान केंद्र को पर्यटन से जोड़ने के उम्दा प्रयास किए हैं। पूरे परिसर को डॉ. एस. सी. मेहता, डॉ. राकेश राव (अधिष्ठाता, पशु चिकित्सा एवं पशु विज्ञान महाविद्यालय, बीकानेर) और डॉ. उम्मेश बिस्सा जी के साथ देखने-समझने का अवसर मिला। वहीं हिंदी कार्यशाला में
कवि श्री विजय धमीजा और श्री लीलाधर सोनी से मुलाकात हुई, उनकी कविताएं सुनी। डॉ. आर. के. सावल (निदेशक, राष्ट्रीय उष्ट्र अनुसंधान केंद्र, बीकानेर) का सानिध्य मिला। राजभाषा अधिकारी बृजलाल जी कार्यक्रम का संचलान किया, इस कार्यशाला में डॉ सुमंत व्यास, डॉ. बी. एल. चिरानिया, श्री रामेश्वर व्यास, श्री दिनेश मुंजाल, डॉ. आर. ए. लेघा, डॉ रमेश देदर, डॉ टी. आर. तालुरी, डॉ. जितेन्द्र सिंह, श्री कमल सिंह, डॉ. आर. ए. पचोरी, श्री नरेंद्र चौहान सहित अनेक अधिकारी-कर्मचारी उपस्थित रहे। केंद्र के प्रभारी अधिकारी डॉ. एस. सी. मेहता जी का बहुत-बहुत आभार।
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
@NRC on Equines, Bikaner Campus

डॉ. नीरज दइया की प्रकाशित पुस्तकें :

हिंदी में-

कविता संग्रह : उचटी हुई नींद (2013), रक्त में घुली हुई भाषा (चयन और भाषांतरण- डॉ. मदन गोपाल लढ़ा) 2020
साक्षात्कर : सृजन-संवाद (2020)
व्यंग्य संग्रह : पंच काका के जेबी बच्चे (2017), टांय-टांय फिस्स (2017)
आलोचना पुस्तकें : बुलाकी शर्मा के सृजन-सरोकार (2017), मधु आचार्य ‘आशावादी’ के सृजन-सरोकार (2017), कागद की कविताई (2018), राजस्थानी साहित्य का समकाल (2020)
संपादित पुस्तकें : आधुनिक लघुकथाएं, राजस्थानी कहानी का वर्तमान, 101 राजस्थानी कहानियां, नन्द जी से हथाई (साक्षात्कार)
अनूदित पुस्तकें : मोहन आलोक का कविता संग्रह ग-गीत और मधु आचार्य ‘आशावादी’ का उपन्यास, रेत में नहाया है मन (राजस्थानी के 51 कवियों की चयनित कविताओं का अनुवाद)
शोध-ग्रंथ : निर्मल वर्मा के कथा साहित्य में आधुनिकता बोध
अंग्रेजी में : Language Fused In Blood (Dr. Neeraj Daiya) Translated by Rajni Chhabra 2018

राजस्थानी में-

कविता संग्रह : साख (1997), देसूंटो (2000), पाछो कुण आसी (2015)
आलोचना पुस्तकें : आलोचना रै आंगणै(2011) , बिना हासलपाई (2014), आंगळी-सीध (2020)
लघुकथा संग्रह : भोर सूं आथण तांई (1989)
बालकथा संग्रह : जादू रो पेन (2012)
संपादित पुस्तकें : मंडाण (51 युवा कवियों की कविताएं), मोहन आलोक री कहाणियां, कन्हैयालाल भाटी री कहाणियां, देवकिशन राजपुरोहित री टाळवीं कहाणियां
अनूदित पुस्तकें : निर्मल वर्मा और ओम गोस्वामी के कहानी संग्रह ; भोलाभाई पटेल का यात्रा-वृतांत ; अमृता प्रीतम का कविता संग्रह ; नंदकिशोर आचार्य, सुधीर सक्सेना और संजीव कुमार की चयनित कविताओं का संचयन-अनुवाद और ‘सबद नाद’ (भारतीय भाषाओं की कविताओं का संग्रह)

नेगचार 48

नेगचार 48
संपादक - नीरज दइया

स्मृति में यह संचयन "नेगचार"

स्मृति में यह संचयन "नेगचार"
श्री सांवर दइया; 10 अक्टूबर,1948 - 30 जुलाई,1992

डॉ. नीरज दइया (1968)
© Dr. Neeraj Daiya. Powered by Blogger.

आंगळी-सीध

आलोचना रै आंगणै

Labels

101 राजस्थानी कहानियां 2011 2020 JIPL 2021 अकादमी पुरस्कार अगनसिनान अंग्रेजी अनुवाद अतिथि संपादक अतुल कनक अनिरुद्ध उमट अनुवाद अनुवाद पुरस्कार अनुश्री राठौड़ अन्नाराम सुदामा अपरंच अब्दुल वहीद 'कमल' अम्बिकादत्त अरविन्द सिंह आशिया अर्जुनदेव चारण आईदान सिंह भाटी आईदानसिंह भाटी आकाशवाणी बीकानेर आत्मकथ्य आपणी भाषा आलेख आलोचना आलोचना रै आंगणै उचटी हुई नींद उचटी हुई नींद. नीरज दइया उड़िया लघुकथा उपन्यास ऊंडै अंधारै कठैई ओम एक्सप्रेस ओम पुरोहित 'कागद' ओळूं री अंवेर कथारंग कन्हैयालाल भाटी कन्हैयालाल भाटी कहाणियां कविता कविता कोश योगदानकर्ता सम्मान 2011 कविता पोस्टर कविता महोत्सव कविता-पाठ कविताएं कहाणी-जातरा कहाणीकार कहानी काव्य-पाठ किताब भेंट कुँअर रवीन्द्र कुंदन माली कुंवर रवीन्द्र कृति ओर कृति-भेंट खारा पानी गणतंत्रता दिवस गद्य कविता गली हसनपुरा गवाड़ गोपाल राजगोपाल घिर घिर चेतै आवूंला म्हैं घोषणा चित्र चीनी कहाणी चेखव की बंदूक छगनलाल व्यास जागती जोत जादू रो पेन जितेन्द्र निर्मोही जै जै राजस्थान डा. नीरज दइया डायरी डेली न्यूज डॉ. अजय जोशी डॉ. तैस्सितोरी जयंती डॉ. नीरज दइया डॉ. राजेश व्यास डॉ. लालित्य ललित डॉ. संजीव कुमार तहलका तेजसिंह जोधा तैस्सीतोरी अवार्ड 2015 थार-सप्तक दिल्ली दिवाली दीनदयाल शर्मा दुनिया इन दिनों दुलाराम सहारण दुलाराम सारण दुष्यंत जोशी दूरदर्शन दूरदर्शन जयपुर देवकिशन राजपुरोहित देवदास रांकावत देशनोक करणी मंदिर दैनिक भास्कर दैनिक हाईलाईन सूरतगढ़ नगर निगम बीकानेर नगर विरासत सम्मान नंद भारद्वाज नन्‍द भारद्वाज नमामीशंकर आचार्य नवनीत पाण्डे नवलेखन नागराज शर्मा नानूराम संस्कर्ता निर्मल वर्मा निवेदिता भावसार निशांत नीरज दइया नेगचार नेगचार पत्रिका पठक पीठ पत्र वाचन पत्र-वाचन पत्रकारिता पुरस्कार पद्मजा शर्मा परख पाछो कुण आसी पाठक पीठ पारस अरोड़ा पुण्यतिथि पुरस्कार पुस्तक समीक्षा पुस्तक-समीक्षा पूरन सरमा पूर्ण शर्मा ‘पूरण’ पोथी परख प्रज्ञालय संस्थान प्रमोद कुमार शर्मा फोटो फ्लैप मैटर बंतळ बलाकी शर्मा बसंती पंवार बातचीत बाल कहानी बाल साहित्य बाल साहित्य पुरस्कार बाल साहित्य समीक्षा बाल साहित्य सम्मेलन बिणजारो बिना हासलपाई बीकानेर अंक बीकानेर उत्सव बीकानेर कला एवं साहित्य उत्सव बुलाकी शर्मा बुलाकीदास "बावरा" भंवरलाल ‘भ्रमर’ भवानीशंकर व्यास ‘विनोद’ भारत स्काउट व गाइड भारतीय कविता प्रसंग भाषण भूमिका मंगत बादल मंडाण मदन गोपाल लढ़ा मदन सैनी मधु आचार्य मधु आचार्य ‘आशावादी’ मनोज कुमार स्वामी मराठी में कविताएं महेन्द्र खड़गावत माणक माणक : जून मीठेस निरमोही मुकेश पोपली मुक्ति मुक्ति संस्था मुरलीधर व्यास ‘राजस्थानी’ मुलाकात मोनिका गौड़ मोहन आलोक मौन से बतकही युगपक्ष युवा कविता रक्त में घुली हुई भाषा रजनी छाबड़ा रजनी मोरवाल रतन जांगिड़ रमेसर गोदारा रवि पुरोहित रवींद्र कुमार यादव राज हीरामन राजकोट राजस्थली राजस्थान पत्रिका राजस्थान सम्राट राजस्थानी राजस्थानी अकादमी बीकनेर राजस्थानी कविता राजस्थानी कविता में लोक राजस्थानी कविताएं राजस्थानी कवितावां राजस्थानी कहाणी राजस्थानी कहानी राजस्थानी भाषा राजस्थानी भाषा का सवाल राजस्थानी युवा लेखक संघ राजस्थानी साहित्यकार राजेंद्र जोशी राजेन्द्र जोशी राजेन्द्र शर्मा रामपालसिंह राजपुरोहित रीना मेनारिया रेत में नहाया है मन लघुकथा लघुकथा-पाठ लालित्य ललित लोक विरासत लोकार्पण लोकार्पण समारोह विचार-विमर्श विजय शंकर आचार्य वेद व्यास व्यंग्य व्यंग्य-यात्रा शंकरसिंह राजपुरोहित शतदल शिक्षक दिवस प्रकाशन श्याम जांगिड़ श्रद्धांजलि-सभा श्रीलाल नथमल जोशी श्रीलाल नथमलजी जोशी संजय पुरोहित संजू श्रीमाली सतीश छिम्पा संतोष अलेक्स संतोष चौधरी सत्यदेव सवितेंद्र सत्यनारायण सत्यनारायण सोनी समाचार समापन समारोह सम्मान सम्मान-पुरस्कार सम्मान-समारोह सरदार अली पडि़हार संवाद सवालों में जिंदगी साक्षात्कार साख अर सीख सांझी विरासत सावण बीकानेर सांवर दइया सांवर दइया जयंति सांवर दइया जयंती सांवर दइया पुण्यतिथि सांवर दैया साहित्य अकादेमी साहित्य अकादेमी पुरस्कार साहित्य सम्मान सीताराम महर्षि सुधीर सक्सेना सूरतगढ़ सृजन कुंज सृजन संवाद सृजन साक्षात्कार हम लोग हरदर्शन सहगल हरिचरण अहरवाल हरीश बी. शर्मा हिंदी अनुवाद हिंदी कविताएं हिंदी कार्यशाला होकर भी नहीं है जो