Friday, April 14, 2023

मोहन आलोक - एक दिव्य काव्य-पुरुष/ डॉ. नीरज दइया

    मोहन आलोक को इस संसार से गए दो साल से अधिक समय हो गया है किंतु अब भी उनके जाने का दुख मुझ में इस तरह समाया है कि उन्हें याद करते हुए मैं विचलित हो जाता हूं। जानते हुए भी हर बार जीवन-मृत्यु के प्रश्नों से जूझता हूं, एक मन कहता है कि वे पंचतत्व में विलीन हो चुके किंतु दूसरा मन कहता है वे इसी संसार में है हमारे आस-पास। कवि कभी मरता है भला! वह आपने शब्दों से साहित्य इतिहास में अमर रहता है। पहले वे एक देह थे और दैहिक रूप से संसार से कूच कर गए, किंतु वे अपने परिजनों और चाहने वालों के भीतर किसी अंश रूप ही सही विद्यमान है।     
    मोहन आलोक के विषय में कुछ भी लिखना सूरज को दीपक दिखाने जैसा है। उन्हें हर पढ़ने-लिखने वाल व्यक्ति जानता है और जो उनके संपर्क में कभी रहे हैं, वे तो उन्हें कभी भूल ही नहीं सकते हैं। वे एक साहित्यकार और व्यक्ति के रूप में अपने दुश्मनों को भी प्रभावित करने की अद्वितीय क्षमता रखते थे। यह सच है कि मुझे उनका सान्निध्य मेरे पिता सांवर दइया के कारण विशेष मिला। हमारी कहानी लंबी है और मेरा मन है कि एक पूरी किताब उन पर आए। एक किसी आलेख में मैंने उनके विषय में लिखते हुए ‘दिव्य काव्य-पुरुष’ विशेषण प्रयुक्त किया तो एक आलोचक मित्र ने चुटकी ली और इसका उपहास बनाते हुए अपनी अज्ञानता प्रकट की। व्यक्ति के रूप में यदि छोड़ कर केवल एक कवि, गीतकार, कहानीकार, व्यंग्यकार, निबंधकार, अनुवादक, संपादक और राजस्थानी भाषा मान्यता के संघर्ष के संदर्भ में ही बात करेंगे तो देखेंगे उनकी विलक्षण प्रतिभा के घटकों में ‘दिव्यता’ यत्र-तत्र सर्वत्र सामहित है।
    मोहन आलोक हमारी भाषा की एक बड़ी आवाज के रूप में पहचाने गए और कविता में खासकर ‘डांखला’-‘सॉनेट’ के जनक रहे हैं। उनका जन्म 03 जुलाई, 1942 को चूरू जिले के किशनपुरा में हुआ और 19 अप्रैल, 2021 वह तारीख जिस दिन उनकी ‘दिव्यता’ का एक नया आध्यय आरंभ हुआ है। वे 80 साल के जीवन में बहुत कम बीमार रहे किंतु जब मुझे पता चला कि वे पिछले कुछ समय से बीमार चल रहे हैं, और मैं जब मिलने उनके घर पहुंचा तो दहल गया। एक जीवट कवि बिस्तर में क्षीण काया लिए किसी पोटली भी भांति मुडा लेटा हुआ दिखाई दिया। लगा जैसे यह अब अपने सामान को समेटने की प्रक्रिया में है। होने को बात भी हुई और किंतु उनकी पीड़ा को देखकर मैं भीतर तक दुख से भर गया, जैसे मेरी हिम्मत ने जवाब दे दिया और मैं भाई कृष्ण कुमार ‘अशु’ के साथ वहां से भरे मन लौट आया। उनके पुत्र आनंद ने विस्तार से विगत दिनों का हाल सुनाया था उसी में मैं काफी दिन उलझा रहा और फिर एक दिन उनके नहीं रहने के सामाचार मिले।
    सोलह वर्ष की वय से लिखना आरंभ करने वाले मोहन आलोक ने करीब साठ से अधिक वर्षों लेखन किया और अबाध किया। जब किताबें नहीं छपती थी या कहें कम छपती थी तब उन्होंने एक विकल्प के रूप में रबड़ की मुहर से पहली किताब ‘संभावित हम’ का प्रकाशन कर एक अभिनव कार्य किया। यह वह दौर था जब उन्होंने राजस्थानी में मुक्तक छंद को ‘डांखळा’ नाम देते हुए राजस्थान पत्रिका के लोकप्रिय प्रकाशन ‘इतवारी पत्रिका’ में एक स्तंभ आंरभ किया था। ‘डांखळा’ निरर्थक अभिव्यक्ति का एक नया छंद कवि मोहन आलोक की देह है। यह स्तंभ इतना लोकप्रिय हुआ कि इसके माध्यम से इतवारी पत्रिका से पाठक जुड़े और पाठकों ने राजस्थानी पढ़ना सीखा। राजस्थानी नई कविता के दौर में नई कविता के साथ ‘गीत’ को आधुनिक भावबोध देने का काम मोहन आलोक ने किया। आपकी पहली किताब ‘ग-गीत’ ग्राममंच श्रीगंगानगर से 1981 में प्रकाशित हुई जिसे कवि ने अपने प्रेरणा पुंज आदणीय डॉ. हरिवंश राय बच्चन जी को समर्पित करते हुए लिखा कि उन्होंने अपने पत्रों के माध्यम से कविता का क ख ग सीखा और वर्तनी तक की भूलों को सुधारा। कवि मोहन आलोक बच्चन जी से प्रभावित रहे और बाद में उनसे उनके व्यक्तिगत संबंध भी रहे। नगर परिषद श्रीगंगानगर में नौकरी करते हुए मोहन आलोक का दायरा भारतीय कविता से रहा।
    राजस्थानी में मोहन आलोक को प्रयोगवादी कवि के रूप में ख्याति इसलिए मिली कि वे ऐसे कवि हैं जिन्होंने छंद को ना केवल पकड़े रखा वरन उसे आधुनिक बनाते हुए उसमें प्रयोग संभव किया। यह शोध खोज का विषय है कि उन्होंने जीवनकाल में कितने ‘डांखळा’ लिखे। उनकी ‘डांखळा’ (1983) किताब के बाद 2021 में फिर ‘डांखळा 104 नॉट आउट’ संग्रह का आना जैसे किसी काल-चक्र का वर्तुलाकार पूरा होना है। अंतिम किताब के एकदम अंत में परिचय में उन्होंने लिखवाया संप्रति बीमार और इसी के साथ वे अपनी कहानी पूरी करते हैं।
यहां यह भी उल्लेखनीय है कि ‘डांखळा’ की मांग सदाबहार है और इसी के चलते ‘डांखळा’ नाम से वर्ष 2012 में एक पुस्तक प्रकाशित हुई जिसमें नई रचनाओं के साथ पिछली रचनाओं का पुनर्मुद्रण भी हुआ है। ‘डांखळा’ नाम से एक स्वतंत्र विधा राजस्थानी में विकसित हो चुकी है। वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. विद्यासागर शर्मा की भी पुस्तक ‘डांखळा’ नाम से प्रकाशित हुई जिसमें मोहन आलोक जी ने विस्तार से भूमिका लिखी है।
    मोहन आलोक की कविता में लोक और समाज के साथ एक आध्यत्मिक रूप अथवा घटक भी जुड़ा हुआ है। आध्यत्मिक रूप से उनकी सबलता रूबाई छंद में कृति ‘आप’ (2021) कृति में देख सकते हैं। सोरठा छंद का नया रूप ‘एकर फेरू राजियै नै’ (1986) में मिलता है तो अंग्रेजी के लोकप्रिय छंद को ‘सौ सानेट’ (1991) में देखना हमें चकित करता है। वेलियो छंद का नया रूप ‘चिड़ी री बोली लिखो’ (2003) में देखा जा सकता है। एक उदाहरण जिसमें उन्होंने अपने परिवार के विषय में लिखा है-
‘माया’ आण प्रथम बांध्यो ‘मुझ’/ ‘चिंता’ जलमी तणै चित।/ अति चिंतन ‘आनंद’ उपज्यो,/ हुई तणै ‘संतोष’ हित॥ इसमें ‘माया’ श्रीमती आलोक है तो आनंद पुत्र और चिंतामणि, संतोष दो पुत्रियां वर्णित है। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि कविता में निजता के साथ-साथ अर्थ को अनंत आकाश देना उनकी विशिष्टता रही।
    मोहन आलोक की चयनित रचनाओं के संग्रह ‘बानगी’ (2011) में उनकी नई रचनाएं भी है। खेजड़ी और बकरी रचना बेहद लोकप्रिय हुई किंतु उनकी कविता यात्रा में ‘वनदेवी - अमृत’ (2002) एक अति महत्त्वपूर्ण उल्लेखनीय कृति है जो राजस्थानी के साथ तुषार घोष कृत अंग्रेजी अनुवाद के साथ प्रकाशित हुई थी जिसे पर्यावर्णविद श्री सुंदरलाल बहुगुणा ने अपनी भूमिका में पर्यावरण-पुराण कहा। मोहन आलोक के बहुगुणा जी से भी संबंध-संपर्क रहे और वे महाकवि तो थे ही किंतु ‘वनदेवी - अमृता’ महाकाव्य लिखकर जैसे विधिवत महाकवि भी हुए। इसे बाद हिंदी में भी महाराजा अग्रसेन के जीवन पर आधारित प्रगतिशील महाकाव्य ‘अग्रोक’ (2019) का प्रकाशन हुआ जो उनकी दोनों भाषाओं में मेधा का परिचायक है। जीवन के अंतिम वर्षों में मोहन आलोक जी ने हिंदी में काफी नई कविताएं लिखी जिनका केंद्रीय विषय मृत्यु है। कृति बानगी के लेखकीय परिचय में प्रकाशन के इंतजार में छपी पुस्तकों की सूची में चार हिंदी कविता संग्रह- चूं, मैं पेड़ लगा रहा हूं, इस तरह आती है मृत्यु, ईश्वर अप्रकाशित होने की जानकारी मिलती है।
    प्रयोगवाद की चर्चा जब भी राजस्थानी साहित्य में होगी, पहला नाम प्रयोग की विपुलता और सफलताओं का मोहन आलोक याद किया जाएगा। उन्होंने सानेट को पहले ‘चउदशा’ की संज्ञा दी जो उनके संग्रह ‘चित मारो दुख नै’ (1987) में 11 छपे, किंतु फिर ‘सौ सानेट’ जिसमें 102 सानेट संग्रहित में संभवतः अपने मित्र सांवर दइया का आग्रह रखते हुए उन्होंने इसे सानेट ही कहा है। यह भी सुखद है कि अंग्रेजी साहित्य में ‘लिमरिक’ जैसे चर्चित छंद को राजस्थानी में ‘डांखळा’ बनाने के बाद पंजाबी में मोहन आलोक ने उसे ‘डक्कै’ नाम से प्रस्तुत किया, जो हास्य-व्यंग्य की ऐतिहासिक कविताएं है। ‘डांखळा’ के कारण उनका नाम विश्व साहित्य कोष में भी दर्ज है।
    मोहन आलोक ने उमर खैय्याम की रूबाइयों, धम्मपद, जफरनामा, चेखव की कहानियों का राजस्थानी में अनुवाद किया है। गुरु गोविंद सिंह के औरंगजेब को फारसी में लिखे ऐतिहासिक लंबे पत्र ‘जफरनामा’ का हिंदी अनुवाद करना और साहित्य में आनंद से इतर इतर विषय पर पढ़ना उनकी मेधा को निखारता गया। वर्ष 1981 में राजस्थान साहित्य अकादमी (संगम) और 1983 में साहित्य अकादमी नई दिल्ली से पुरस्कृत कवि मोहन आलोक का ‘अभनै रा किस्सा’ (2015) और ‘मोहन आलोक री कहाणियां (2010) संचयन- नीरज दइया द्वारा राजस्थानी गद्य के क्षेत्र में भी अद्वितीय योगदान माना जाता है।
    किसी रचनाकार के विषय में चर्चा करते समय उसके रचना-संसार से उदाहरण भी दिए जाने चाहिए किंतु यहां विस्तार-भय से केवल चार पंक्तियां प्रस्तुत है जो मोहन आलोक ने इस संसार की नस्वता और ईश्वर के विषय में रूबाई के रूप में प्रस्तुत की थी-
म्हारी नस्वर निःसार आंख्यां सूं
नीं होवण मैं सुमार आंख्यां सूं
दोय आंख्यां रो माजणो के है?
थे नीं दीखो हजार आंख्यां सूं।

    आंखों से देखने-दिखाने की इस प्रक्रिया में अत्यधिक विकास के बाद भी हमारी सीमाओं की अभिव्यंजना इससे बेहतर नहीं हो सकती है। मोहन आलोक की कविता में अध्यात्म, दर्शन और लोक जीवन का जिस सहजता से निर्वाहन मिलता है वह अन्यत्र दुर्लभ है। फिराक गोरखपुरी की पंक्तियां हैं- ‘‘आने वाली नस्लें तुम पर फ़ख़्र करेंगी हम-असरो/ जब भी उन को ध्यान आएगा तुम ने 'फ़िराक़' को देखा है।’’ की तर्ज पर हम मोहन आलोक के विषय में कह सकते हैं कि आने वाली नस्लें हम पर फ़ख़्र करेंगी हमने ‘मोहन आलोक’ को देखा है।  
    मोहन आलोक के विषय में लिखना मेरे लिए हरि अनंत हरिकथा अनंता जैसा है क्योंकि उनके साहित्य और स्वयं उनके साथ मेरा लंबा संबंध-संपर्क रहा है और मैंने उनके कहानी संग्रह की लंबी भूमिका के अतिरिक्त भी उनकी अनेक कृतियों के विषय में लिखा है। उनकी साहित्य अकादेमी से पुरस्कृत कृति ‘ग-गीत’ के अलावा भी अनेक नई कविताओं का हिंदी अनुवाद भी किया है। आलोक जी मेरे प्रिय रचनाकारों में से एक हैं उनके विषय में लिखना अब बेहद कठिन प्रतीत होता है क्योंकि जब तक वे थे तब उनसे संवाद द्वारा अपने किसी प्रश्न का उत्तर पाना सरल था। इच्छाएं बनी रहती है तो कभी फलीभूत भी होती है और मैं जल्दी ही एक समग्र पुस्तक मोहन आलोक के विषय में दे सकूं यह मेरा प्रयास है। अस्तु इस आलोक को एक विषय प्रवेश के रूप में प्रस्तुत करते हुए मैं उनको शत-शत प्रणाम करता हूं जिनसे न केवल मैंने वरन हमारी पीढ़ी के अनेक लेखकों कवियों ने बहुत कुछ सीखा-समझा। हम उनकी प्रेरणा और उनके दिखाए मार्ग पर चलते हुए कुछ बेहतर कर सकेंगे तो उनको हमारी सच्ची श्रद्धांजलि होगी। 

 


Sunday, March 19, 2023

लारलै दो दसक रै उपन्यासां में कथ्य अर सिल्प रो सरूप/ डॉ. नीरज दइया

साहित्य री आधुनिक विधावां मांय उपन्याससिरै मानीजै। इण विधा रा बडेरा शिवचंद्र भरतिया रै कनक-सुंदर’ (1903) नैं राजस्थानी रो पैलो उपन्यास मानण पेटै अेक राय कोनी। दूजो उपन्यास श्रीनारायण अग्रवाल रो चम्पा’ (1925) छप्यो। प्रवासी राजस्थानी लेखकां रा आं दोनूं उपन्यासां पछै बीकानेर रा श्रीलाल नथमल जोशी नैं उपन्यासकार हुवण रो जस जावै। आपरो आभै पटकीबरस 1956 मांय साम्हीं आयो। असल चिंता इण बात री करीजै कै जे आभै पटकीसूं उपन्यास-जातरा री विधिवत सरुआत मानां तो आपां पचास बरस लारै हुय जावां।

      डॉ. आईदानसिंह भाटी आपरै आलेख- आज रो राजस्थानी उपन्यास लेखन : वखत सूं लारैमांय लिखै- घणा खाडा खोचरा 1903 अर 1950 रै बिच्चै। प्रारंभिक दो-तीन उपन्यासां पछै पूरै पचास बरस रौ गैपअर ऐ पैलड़ा दो-तीन उपन्यास ई राजस्थानी समाज री चेतना सूं घणा अळगा लिखिजिया।’ (जागती जोत : अगस्त, 1995) डॉ. सुखदेव राव मुजब- आज उपन्यास साहित्य आपरी 95 बरसां री जातरा पूरी करली पण 95 बरसां में फगत 58 उपन्यास ही देखण में आया। मासिक माणकरै सितंबर, ..... अंक में 34 उपन्यासां, 10 विवादित उपन्यसां अर 8 बाल-उपन्यासां रा नांव गिणाइज्या पण तीन उपन्यास उण पछै ओरू छपगा।’ (जागती जोत : सितंबर, 1998) इणी दिस डॉ. मंगत बादल री आ बात ई देखां। बै लिखै- आजादी रै इतरै बरसां पछै भी राजस्थानी उपन्यासां री संख्या अेक सैंकडै रै नेड़ै ई कोनी पूगी तो चिंता करणो सुभाविक है। इण रो पैलो अर अखारी कारण तो ओ ईज राजस्थानी नै हाल तक आठवीं अनुसूची में ई कोनी जोड़ी।’ (जागती जोत : जनवरी, 2008)

      अब ओ दीठाव बदळग्यो अर बदळतो जाय रैयो है। लारलै दोय दसकां रो अरथाव आपां जे इक्कीसवीं सदी रै दोय दसकां सूं मानां तो म्हारी जाणकारी मुजब पैलै दसक 2001 सूं 2010 तांई 28 उपन्यास अर दूजै दसक 2011 सूं 2020 तांई 36 उपन्यास साम्हीं आय चुक्या... अर अजेस 2020 पूरो हुयां उम्मीद करां कै कीं भळै उपन्यास प्रकासित हुवैला। लगैटगै बीस बरसां मांय तीन बीसी सूं बेसी उपन्यासां रो आवणो राजस्थानी खातर मोटी बात इण सारू कैयी जावैला कै बीसवीं सदी करता ओ आंकड़ो खासा गीरबैजोग लखावै। खाली संख्यात्मक रूप सूं उपन्यासां रै बेसी हुया ई बात बणै कोनी, आपां नैं देखणो पड़ैला कै कथ्य अर सिल्प री दीठ सूं उपन्यास-जातरा कित्ती सवाई-सांवठी निगै आवै।

      आज रै उपन्यास मांय घर, परिवार, समाज, देस अर दुनिया रा केई-केई रंग बोलता दीसै। इण विधा मांय किणी उपन्यासकार री खासियत इण बात मांय मानीजै कै वो आपरै बगत नैं किण भांत अरथावै। किणी उपन्यास मांय गौर करण री बात है कै बदळती जूण-जातरा रो आखो चितराम बो किण रूप साम्हीं राखै अर आपरी परंपरा नैं किण भांत अरथावतो धकै बधावै। इक्कीसवीं सदी में देस अर दुनिया रै बदळावां नैं अंगेजता विगत बणावां कै कांई-कांई फरक आयग्यो। फरक री बात करां तो आपां नैं आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक अर सांस्कृतिक सीगा माथै गौर करणो पड़ैला। आ देखण अर विचारण री बात है कै कांई देस अर दुनिया भेळै साचाणी राजस्थान ई आं बदळावां री चपेट मांय बदळग्यो है, का स्सौ कीं पैली हो जियां रो जियां सागण है।     अठै अरविंदसिंह आशिया रै उपन्यास सिंझ्या’ (2018) री ओळ्यां काम में लेवां- ‘.........  ’ (पेज- ) बदळाव कदैई-कदैई इत्तो होळै हुवै कीं झट करतो कीं दीसै ई कोनी... अर केई बार हालत आ हुवै कै ओ बदळाव इत्ती फुरती सूं हुवै कै हालात अेक झटकै रै सागै पूरा बदळ जावै। रात नैं रोज नींद लेयर जागां तद दिनूगै नवी दुनिया सूं आपां रा भेटा हुवै। कोई भोळो मिनख आ सगळी माया कियां समझ सकै। फेर देस मांय वोटां अर नोटां री न्यारी-न्यारी पारटियां रा चक्कर। जनता भोळी अर आपणै राजस्थान री भोळप रो तो कैवणो ई कांई! खुद रै फायदै खातर आपाणै देस रा रुखाळा कियां-कियां कांई-कांई कर जावै, इण रा दाखला अर दीठाव आंख्यां सूं बुद्धू बगसै रै पड़दै माथै सगळा देखां ई हां। कानां सुणी अर आंख्यां देखी सूं नित नवी खबरां सूं भरियोड़ो अखबार जाणै घर-घर आ ई हांती बांटै। कांई साचाणी देस अर आपां री दुनिया इत्ती बदळ चुकी, भरोसो कोनी हुवै। अबै तो ओ फैसलो करणो ई ओखो हुयग्यो कै कुण साच कैवै अर कुण कूड़ बोलै।

      आपणै मोटै देस भारत माथै करजै रो मोटो भारो बतावै। आपां किणी सूं करजो लेयर जियां आखी जूण दबता रैवां, उणी भांत विदेसां सूं करजो लियां कीं तो भार भोळी अर बोळी जनता माथै ई हुवैला। देस रा करणहार बावळी जनता नैं सुपनां देखा-देखार बगत भेळै टोरियां राखै। भोळां भगतां नैं ठगण खातर बै उतर भीखा म्हारी बारीरो खेल खेलता केई-केई अचूक मंतर जाणग्या। जियां- जात-पांत अर हिंदू-मुसळमान भेळै हिंदुस्तान-पाकिस्तान रो रोळो, मंदिर-मसजिद रो झौड़, राज्यां बिचाळै सीवां अर पाणी री पांती, भासावां री बात, अपराध अर अपराधियां री दुनिया, बाबावां री करामात अर अपसंस्कृति रै चाळै मांय चूंधा हुयोड़ा लोग, किसानां रो आतमघात, अंबानी बंधुवां रो फ्री-जीयो रो चक्कर अर चसका मांय डूब्योड़ी जवान पीढी, रुजगार री अबखायां, मीडिया रो चक्कर, जर-जमीन अर जोरू सूं जुड्या बेकाबू हालात... इत्ता-कित्ता खेल है!

      कैयो जावै कै उपन्यास मांय कथाकार किणी कथा नैं उण पूरै परिवेस साथै साम्हीं राखै। आज रै उपन्यास मांय खातर बात आज रै बखाण री कैयी जावै। आज आपां साम्हीं केई-केई बातां अर चुनौतियां है। कुंदन माली रो मानणो है- मुट्ठी भर अपवाद छोड़नै कैवां तो राजस्थानी उपन्यासकार घुमाय-फिराय नै पांच-दसेक थीम सूं आगै नीं बध सक्या है अर नारी-जूण रो कथानक इण रो स्थाई भाव बणग्यो है।’ (जागती जोत : फरवरी, 2008) उपन्यास विधा मांय घणै धीजै साथै घणी खेचळ करणी पड़ै। उपन्यास लिखणो ओखो काम अर लिख दियो तो छपणो ओखो काम। अर जे छपग्यो तो उण नैं बांचैला कुण कुण? लारलै लांबै बगत सूं म्हैं उपन्यास बांच रैयो हूं अर पूरी उपन्यास-जातरा माथै आलोचना-पोथी आंगळी सीधइणी बरस छपैला।

      इण भूमिका पछै म्हैं मूळ मुद्दै माथै आवूं। ओ अजब संजोग कैयो जावैला कै बरस 2001 मांय नंद भारद्वाज रै उपन्यास रो नांव साम्हीं खुलतौ मारगहै। असल मांय इणी बरस सूं राजस्थानी उपन्यासां रो मारग खुलै। इण उपन्यास नैं बरस 2004 रो साहित्य अकादेमी पुरस्कार अरपित करीज्यो। अठै ओ अखरावणो जरूरी लागै कै बरस 1974 सूं 2018 तांई रै 45 साहित्य अकादेमी पुरस्कारां मांय फगत छव उपन्यासकारां नै सम्मान मिल्यो। उपन्यासकार अन्नाराम सुदामा, शांति भारद्वाज राकेशअर अब्दुल वहीद कमलनै बीसवीं सदी मांय माना तो लारलै बीस बरसां री इण जातरा रा फगत तीन नांव आपां साम्हीं रैवै- नंद भारद्वाज, अतुल कनक अर मधु आचार्य आशावादी। अब्दुल वहीद कमलनैं साहित्य अकादेमी घराणोउपन्यास खातर अरपित करीज्यो अर उण पछै बांरो रूपाळीउपन्यास बरस 2003 मांय साम्हीं आयो। उपन्यासकार कमल री सगळां सूं लांठी खासियत आ है कै बां आपरै समाज रो जिको सांतरो चितराम सबदां रै मारफत राख्यो बो मुसळमान समाज रै जुदा-जुदा रूप-रंग नै राखै साथै ई उण मांयला दुख-दरद अर सांच नैं पुखता ढंग सूं अंवेरै। राजस्थानी उपन्यास-जातरा मांय अे. वी. कमल सूं पैली किणी रचनाकार इण ढाळै री रचनावां कोनी लिखी अर इण नैं राजस्थानी उपन्यासां रै कथ्य रो विस्तार मान सकां।

      उपन्यासकार नंद भारद्वाज सांम्ही खुलतो मारगरै मारफत राजस्थान रै लोक-जीवण नैं घणै ठीमर रूप मांय साम्हीं राखै। उपन्यास री कथा रो मूळ मसकद जूण रै अरथ नैं आंख्यां सांम्ही करणो है। जाणकारी रै रूप तो आ बात सगळा जाणै कै कथा-नायिका सत्यवती दांई हरेक रै जीवण मांय अबखा हालात आवै अर हालातां सूं बारै आवण रो मारग खुद नैं आपरी आफळ अर सूझ-बूझ सूं सोधणो पड़ै। भारद्वाज रो ओ उपन्यास आपरी रळियावणी भास-सैली, महागाथात्मक कथानक, नवी बुणगट अर केई खास चरित्रां रै पाण आखै राजस्थान नैं अेक सफीट बदळाव साथै साकार करतो अठै रै विकास अर आधुनिक हुवतै समाज री लांबी कहाणी कैवै। इण उपन्यास बाबत साहित्य अकादेमी पुरस्कार रै मौकै दियै अभिभाषण में उपन्यासकार कैयो- कीं ठावा चरितां रै जीवण-संघर्ष अर वांरी जीवण-दीठ रै बुनियादी फरक नै दरसावण वाळा घटणा-परसंगां री मारफत वांरै अंतस री पीड़, मनोभाव अर मांयली अमूंज नैं तौ सांम्ही लावै ई, आं बदळता हालात में जिनगाणी री डोर आपरै हाथ में राखण री मनगत वाळा माईतां अर समाज रा आगीवाणां रै सांम्ही कीं अैड़ा अबखा अर आकरा सवाल ई ऊभा करै के वांरौ आपौ अर आमूळ आचरण खुद वांरी निजरां में ई अेक लूंठौ सवाल बण जावै।

      अतुल कनक आपरै दोय उपन्यासां- जूणजातराअर छेकड़लो रासरै मारफत राजस्थानी उपन्यास-जातरा नै नवै कथ्य अर सिल्प सूं आगै बधावै। पुरस्कृत उपन्यास जूण जातरअबोट कथानक नै अंवेरै तो आज री सगळा सूं लांठी जरूरत पाणी खातर आपरै पाठकां नैं सावचेत ई करै। छेकड़लो रासमांय प्रेम त्याग अर समरण नैं नवी बानगी रूप देख सकां। अतुल कनक रा उपन्यास कथ्य र सिल्प दोनू दीठ सूं उल्लेखजोग कैया जावै। कोटा अंचल महक लियां गिरधारी लाल मालव रो ओर एक भगीरथ उपन्यास ई उल्लेखजोग कैयो जाय सकै इण मांय लोकजीवण रो सांगोपांग चितराम मिलै।

      मधु आचार्य आशावादीनैं साहित्य अकादेमी पुरस्कार गवाड़उपन्यास खातर अरपित करीज्यो जिको उत्तर आधुनिकता रो पैलो उपन्यास मान्यो जावै। घणी जसजोग बात कै आशावादी लगोलग उपन्यास विधा मांय सक्रिय है अर अबार तांई अपारा छव राजस्थानी उपन्यास साम्हीं आ चुक्या- भूत भूत रो गळो मोसै, अवधूत, आडा-तिरछा लोग, आस री अमावस, डोकरी। छोटी-छोटी ओळ्यां मांय उपन्यासकार जाणै जीवण रा केई केई अरथां नैं आपां साम्हीं खोलर राखै। गवाड़रै मोटै फलक माथै जाणै उपन्यासकार साव नजीक सूं इणी सूं किणी अवधूत री कथा आपां साम्हीं रचै। भूत सबद रो नवो मायनो भूत भूत रो गळो मोसै उपन्यास मांय मिलै तो इण दुनिया रा आडा-तिरछा लोग उणी उत्तर आधुनिक समाज सूं जुड़ियोड़ा चरित्र है। आ उपन्यासां मांय बदळतै समाज रो असली चैरो मिलै। उपन्यासकार आपरी कथा मांय बात मांय सूं बात निकाळतो संवाद सूं केई मारग निकाळै जिण री परख बगत करैला। समाज री सजगता आं उपन्यासां मांय हरेक रो ध्यान खींचै। 

      वरिष्ठ उपन्यासकार श्रीलाल नथमल जोशी रो सरणागतउपन्यास बियां तो घणो पैली लिखीज्यो पण छप्यो 2004 मांय। श्रीलाल नथमल जोशी, अन्नाराम सुदामा, यादवेंद्र शर्मा चंद्रआद पछै जिण उपन्यासकारां उपन्यास विधा मांय पूरै मनोयोग सूं काम करियो उण मांय जसजोग नांव देवकिशन राजपुरोहित अर देवदास रांकावत रो मानीजै। देवकिशन राजपुरोहित राजस्थानी रा मानीता उपन्यास मानीजै अर लारलै दोय दसक मांय आपरी ग्रंथावळी अर अभिनंदन ग्रंथ रै मारफत पांच उपन्यास साम्हीं आया- किरण’, ‘किसन’, ‘गवरी’, ‘संथारोअर खेजड़ी। उण पछै `बैकुंठीउपन्यास आयो। सिल्प पेटै बात करां तो राजपुरोहित आपरी बाण मुजब उपन्यास रो नांव तीन आखरां रो राख्या करै, अर बै होटल मांय हत्या सूं जुड़ियै कथानक नैं पैली बार राजस्थानी मांय किरण उपन्यास मांय परोटै। पांच उपन्यासां मांय सूं संथारोरी बात करणी चावूं। धरम रै नांव माथै बडेरा अर मायतां री जिण ढाळै घर-परिवार मांय गत बिगड़ रैयी है उण रो काळजो हिलावै जिसो चितराम इण उपन्यास मांय घणो जसजोग कैयो जावैला। `बैकुंठीउपन्यासा री आ खायिसत कैवां कै ग्रंथावली मांय एक व्यंग्य छ्प्यो इणी नांव सूं, इणी व्यंग्य नैं उपन्यास रो पैलो अध्याय बणार ओ उपन्यास लिखणो एक प्रयोग कैयो जावैला। ओ व्यंग्य उपन्यास बण सकतो हो पण भासा मांय बातपोसी रो अंदाज अर सिल्प सूं ओ एक सामाजिक उपन्यास री गिणती बधावै। खेजड़ीउपन्यास इतिहास नैं परोटै।

      देवदास रांकावत आपरै जोरावर पदमा सूं नांव कमायो अर उण पछै बै उपन्यास विधा में पूरै समरण सूं जसजोग काम करियो। गांव ! थारै नांव, मुळकती मौत कळपती काया, धरती रो सुरग आद सूं समाज मांय अलोप हुवतै संस्कारां री बात बै उठावै। बातपोस दांई बै रंजकता साथै कथा कैवै। बी.अेल.माली अशांतरो अबोली अर ताऊ शेखावाटी रो बिदामी मौसी नारी जूण री अबखायां नैं ऊंडै तांई अंगेजै। साहित्य अकादेमी सूं सम्मानित रचनाकारां मांय कहाणीकार मेजर रतन जांगिड़ रो नांव ई अठै लियो जावणो जरूरी समझूं, कारण कै लारलै दोय दसक मांय आपरा दोय उपन्यास- फूली देवीअर सींवां री पीड़साम्हीं आया। चरित्र प्रधान उपन्यास री आफळ मांय फौजी जूण री मनगत सींवां री मांय घणै मारमिक रूप मांय साम्हीं आवै। नवनीत पाण्डे रै दोय उपन्यासां माटी जूणअर दूजो छैड़ोरी नायिकावां आधुनिकता अर परंपरा रा केई सांधां नै अेकैसाथै देखण रा जतन करै। कलेक्टर महिला चरित्र री कथा सूं राजस्थानी उपन्यासां रो मूळ कथ्य नारी जूण मांय की नुंवा रंग जुड़ जावै।

      उपन्यास रै पेटै अबै कीं भरोसैमंद नुवा नांवा मांय भरत ओळा, रामेसर गोदारा, प्रमोद कुमार शर्मा, अरविंद सिंह आशिया, जितेन्द्र निर्मोही, श्याम जांगिड़ आद रा नांव मान सकां। भरत रै दोनूं उपन्यासां- घुळगांठअर घुळगांठ माथै घुळगांठमांय कहाणियां रै कोलाज सूं उपन्यास नै साधण री खेचळ हुई। उपन्यास मांय न्यारै-न्यारै अध्ययां रा सिरैनांव राखण री दीठ सूं गवाड अर मधु आचार्य रा बीजा उपन्यास ई सिरै कैया जाय सकै। न्यारै न्यारै अध्यायां मांय घुळगांठ रो कथानक नवै जमानै री हवा नै सबदां मांय बांधै। तीन भाइल्यां- प्रतिभा अग्रवाल, प्रीति आडवाणी अर मनीषा मेघवाळ अर च्यार भायला- इण्डू चौधरी, किसन मेघवंसी, पंकज भारद्वाज अर विपिन गुप्ता री सींव मांय रचीजी घुळगांठ री कथा मांय भाषण, कविता अर गीत रो पूरो-पूरो पाठ देवणो सिल्प री कमजोरी मान सकां। सवाल ओ पण करियो जासी कै कांई युवा पीढी रै हुवतै नैतिक पतन नैं दरसाण खातर भरत ओळा सामाजिक सद्भाव रै नांव माथै च्यार जणा नैं छांटर माडाणी भाइला बणा दिया है? घुळगांठ असल मांय नवजवानां रै खूटतै लूण-लखण री घंटी बाजावै। आ रचना बगत रैवतां सावचेत करण री रचना है। लेखक री आ दमदार कोसिस है, सो इण नैं जातिय गांठ रूप नीं दोस्ती रै गंठजोड़ै रूप संबंधां नैं बणावण अर निभावण री जसजोग कथा जाणा तो ठीक रैवैला।

      दूजै उपन्यास घुळगांठ माथै घुळगांठमांय ई युवा वर्ग री लापरवाही, दारू री लत भेळै मौज-मस्ती री जूण नैं ले डूबण री चिंता है। घुळगांठ हाल ई समाज मांय अंधविश्वास अर साधु-मोड़ा रा झाडा-झपेटा री बानगी है। कानून-कायदा रै मिस समाज मांय गांठां अर घुळगांठ प्रेम अर पतियारै नैं खांडो करण री करुण-कहाणी ओ उपन्यास आपां साम्हीं ओ सवाल साम्हीं राखै कै कांई अंत सदीव पूरो कथ्य रो खातमो हुवै का जठै कोई कहाणी-उपन्यास संपूर्ण हुवै, बठै ई उण रै नवै जलम रो सुपनो जलमै।

      नौरंगजी री अमर कहाणी में श्याम जांगिड़ नवै सिल्प मांय प्रयोग करै। कथ्य मांय नायक नायिका रै प्रेम री ठौड स्वामी भक्ति है जिण नै नवीं आंख्यां देख नीं सकै। टूण्डौ मूण्डी मांय रामेसर गोदारा आपां साम्हीं एक नवो चरित्र राखै तो गोटी मांय प्रमोद कुमार शर्मा आज रै बेकाबू हलातां रा केई जसजोग चितराम राखै। अरविंद सिंह आशिया सिंझ्या रै मारफत नवी भासा अर सिल्प सूं नायिका रै जूण री सिंझ्या रो जसजोग चितराम राखै। जितेन्द्र निर्मोही रै नुगरी मांय लुगाई जूण री न्यारी निरवाळी कथा मिलै जिकी आज रै बदळतै बगत नैं बखाणै। गिरिजा शंकर शर्मा रै क्रांति रा जोरावर मांय ऐतिहासिकता प्रभावित करै तो मनमोहन सिंह यादव रै उपन्यास कुदरत सूं कुचमाद मांय ग्रामीण जूण रा मनमोवणा चितराम मिलै साथै ई बदळतै ग्रामीण समाज री बानगी सूं आज रै मोटै सवाल नै उपन्यासकार राखै। शहीद री जिया जूण माथै अर कारगिल नैं केंद्र मांय राखता उपन्यासकार गोरधनसिंह शेखावत रो एक शहीद फौजी उपन्यास नवै कथ्य सारू अठै याद कर सकां।

      उपन्यास जातरा मांय सरदार अली पड़िहार रा उपन्यास- सोनल अर उडग्या पंख पसार समाज मांय शिक्षा रै महतम नैं बतावै। मोहन थानवी रा उपन्यास कैलेंडर सूं बारै अर कुसुम संतो धार्मिक पाखंडा माथै चोट करै तो भंवरलाल महरिया रा दोय उपन्यास- लीरां लीरां है जमारो अर बिणजारो लोकरंग मांय न्यारी न्यारी छिब राखता राजस्थान रै मिनखां री जूझ नैं उजागर करै। माणक तुलसीराम गौड़ रा जीत रो सेवरो, पीड़ री पांती अर हेत रो हेलो तीनूं उपन्यासां मांय घर परिवार अर समाज रा बदळावां नैं संस्कारां री दीठ सूं देखण-परखण रो प्रयास है। करड़कू नांव सूं मनोज कुमार स्वामी रो उपन्यास आयो जिण नैं बां री आत्मकथा रो दूजो खंड मान सकां। जूण री जूझ रै इण चितराम मांय मिनख री बणती बिगडती साख साम्हीं आवै। विधावां मांय आंतरो साव कमती रैयग्यो है। आत्मकथात्मक उपन्यासां री दीठ सूं ओ जसजोग काम कैयो जावैला।

      महिला उपन्यासकारां री बात करां तो मून रा चितराम (आनंदकौर व्यास), राधा (कमला कमलेश’), नेह रौ नातौ (जेबा रशीद), कितरी दूर पड़ाव, मिट्ठू (सुखदा कछवाह) अर अैड़ो क्यूं ? (बसंती पंवार) री कलमां पाखती जिया-जूण रा लांबा नैं लूंठा अनुभव रैया, जिण सूं आं उपन्यासां मांय लुगाई जूण री अबखायां-अवळायां नैं सबद मिल्या। दूजै पासी नवी कलमां रा उपन्यास- पोतीवाड़ (रीना मेनारिया), जीवाजूंण रा कापा (अनुश्री राठौड़), आठवीं कुण? (मनीषा आर्य सोनी), (सन्तोष चौधरी) अर हेत री हूंस (सीमा भाटी) इणी परंपरा नैं आगै बधावै।

म्हैं म्हारी बात भवानी शंकर व्यास विनोदरै सबदां सूं पूरी करूं, बै लिखै- उपन्यासां रो भविष्य ऊजळो है काळ रा झपेटा खायर उपन्यासां रै नांव माथै टिकायोड़ा केई काचा, मामूली अर गैर जरूरी उपन्यास आपौआप झड़ जासी अर काळ सूं बंतळ करण वाळा काळ री सींव लांघणवाळा अर काळ माथै छाप छोडणिया उपन्यास ई कायम रैसी।’ (राजस्थली : मार्च, 2009)  

 

डॉ. नीरज दइया

28 जुलाई, 2019 रायसिंहनगर में साहित्य अकादेमी परिसंवाद में पठित आलेख- डॉ. नीरज दइया

रायसिंहनगर में साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली द्वारा आयोजित परिसंवाद- ‘पिछले दो दशक में राजस्थानी उपन्यास’ के दूसरे सत्र में वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. मंगत बादल और डॉ. सत्यनारायण सोनी के साथ मुझे भी अपनी बात साझा करने का अवसर मिला। 

 

Sunday, March 12, 2023

सांवर दइया सूं बात-बतळावण करता कन्हैयालाल भाटी

बगत रै सागै भाषा परिष्कृत होवै : सांवर दइया

• राजस्थानी गद्य री मौजूदा हालत कांई है? लोग रेखाचितराम तो घणाई लिख्या, पण चोखी कहाणियां अर उपन्यासां री कमी है। थांरी कांई राय है?
- आज रै दिन राजस्थानी गद्य में जिको कीं लिखीज रैयो है, वो कोई माड़ो कोनी। अनेकूं लोग कहाणियां लिख रैया है अर सांतरी कहाणियां लिख रैया है। उपन्यास री बात करतां ई सुदामाजी री नांव चेतै आवै। कहाणी रै क्षेत्र में आदरजोग बिज्जी (श्री विजयदान देथा) रो नाम सिरै। दूजै कथाकारां में नृसिह जी राजपुरोहित, श्री. न. जोशी, रामेश्वर दयाळ श्रीमाली पर भ्रमर तांई अअछी कहाणियां लाधै।
    अबै रेखाचितरामां री बात करां। रेखाचितराम खूब लिखीज्या। आ तो लेखकां रै जुड़ाव री बात है के बै कांई लिखै। हो सके, आं लोगां नै आपरै नेड़ै रैवणियां में कीं खास बातां निजर आई हुवैला, बांरै व्यक्तित्व री खासियतां ई लेखकां रै मन-मगज में ऊंडै तांई रही हुवैला अर बांनै दूजां तक संप्रेषित करण री बाध्यता लखाई हुवैली।


• आज राजस्थानी नै भाषा रो दरजो दिरावण सारू अेक आंदोलन से जरूरत है। राजस्थानी नै ओ दरजी दिरावण सारू आधुनिक स्तर रो साहित्य सिरजल करणो पड़सी, इण बाबत आपरा, विचार कांई है?
- देखो सा, इस रै लारै जे सिरफ राजनैतिक स्तर रै आंदोलन री बात है तो म्हैं इण नै फालतू बात समझूं। अैड़ा आंदोलन पांच सात लोगां रा नाम उछाळ’र पूरा हो जावै। इण सारू तो अेक बात समझ में आवै कै राजस्थानी में कै राजस्थानी में खूब खूब लिख्यो जावै... इण रै प्रचार-प्रसार रै माध्यमां री सुविधा पांगरै... हर अेक आदमी रै आपरी रुचि रै मुजब बांचण नै मिळै... अेकर आपां नै अेकदम उत्कृष्ट री बात अेक्कानी राखणी पड़सी। अबार तो अेक ई लक्ष्य हुवणो चाइज कै आ जन-जन तांई कियां पूगै।

• केई वळा ओ आरोप लगाइजै कै राजस्थानी आधुनिक संवेदनावां व्यक्त नीं कर सकै। इण भाषा री मूळ आत्मा सामंती है?
- राजस्थानी में आज रै जुग री उळझ्योड़ी बातां भी कथीज सकै अर साव नुंवै ढंग सू कथीज सकै। श्री नारायण सिंह भाटी, सत्यप्रकाश जोशी, सेठिया जी, कल्याणसिंह राजावत री कवितावां देखो.... पछै तेजसिंह जोधा, पारस परोड़ा, चन्द्रप्रकाश देवळ, प्रेमजी प्रेम री कवितावां देखो... आपनै खुद ई लखावैला कै आधुनिक परिपेख में संवेदनावां अभिव्यक्ति करण में ई राजस्थानी कित्ती जबरदस्त अर सिमरिध भाषा है।
    राजस्थानी री मूळ आत्मा नै सामंती कैवण लारै थांरी कांई मनस्या है? किणी भाषा री आत्मा आपणी आत्मा दांई’ज अजर-अमर हुवै? जुग री बधती अबखयां सागै बींरो रूप कोनी बदळै कांई! डिंगळ री शब्दावली अर आज री राजस्थानी कवितावां री शब्दावली अेक सरखी लखावै थांनै? म्हनै तो जूनै कवियां री अर आज रै कवियां री अनुभूति में साफ छेती लखावै... आज आं कवियां री भाषा अर शिल्प री पड़ताळ करियां लखावै कै बदळतै जीवण रूप अर जटिल हुबती जिंदगाणी नै अै लोग सबळै ढंग सूं सामै लावरण में लाग्योड़ा है। थांरी बात नै इण ढंग सू उलट’र पूछ- अंगरेजी रा भगत कह सकै कै हिंदी री आत्मा गुलामां री है... अबै थे कांई कैवोला? म्हैं तो आ मानूं कै बगत रै सागै-सागै भाषा रो परिष्कार हुवै.... आदमी री जिंदगाणी ज्यूं-ज्यूं उळझती जावै बींरी अवखायां बधती जावै, त्यूं-त्यूं अभिव्यक्ति रा रूप ई बदळै अर भाषा ई बदळै...
    इण बदळती भाषा प्रकृति नै आप ‘बेलि किसन रुकमणी री', 'बोल भारमली' या 'मीरा' या तेजसिह अर चंद्रप्रकाश देवळ री कवितावां री भाषा नै मिला'र देखो, कांई आं में किणी भांत रो फरक नीं है?
    गद्य में वचनिकावां या ख्यातां-बातां नै लेवो। पछै बिज्जी पर सुदामाजी रो गद्य सामै राखो। इण रो फरक परतख निगै आवैला।

• राजस्थान में अेकरूपता री कमी रो आरोप लगाइजै। हाड़ौती, ढूंढाणी, मेवाडी, मारवाड़ी अेक दूजा खातर आपरी है? मानक रूप नीं हुवण सूं दूजी अखबायां ई लाधै।
-थांरी आ बात किसी हद तांई साची हो सकै, पण लोग अेक दूजै री बात समझ नीं सकै, आ म्हैं कोनी मानूं। प्रेमजी प्रेम री बात करां। थारै हिसाब सूं बै हाड़ौती रा कवि है, पर लोग बानै चाव सूं सुणै-बांचै आई बात सवाईसिंहजी धमोरा बाबत कह सकां। लोग बांनै ई हरख सूं सुणै-बांचै, जद कै बै ढूंढाणी पुट देवै...
    भाषा रै मानक रूप री अबखायी मेटण सारू पत्र-पत्रिकावां चाइजै... बांरो काळ है...
    किणी भाषा नै मानक रूप देवण खातर गद्य लेखकां री जिम्मेदारी लूंठी हुवै। सूझ बूझ वाळा संपादकां री जरूरत हुवै। अवार 'माणक’ रै मारफत ओ काम चालू है। केई लोग बीं सूं असहमत ई है। पर अेक पुख्ता कोशिश तो चालू है। राजस्थानी प्रचार सभा जयपुर ई इण काम नै करियो। इणी प्रसंग में अेक बात भळै, हिंदी रै परिष्कार संस्कार रो काम द्विवेदी जुग में हुयो, ठीक बै ई कोशिशां राजस्थानी खातर जरूरी है। इस्या लोग कठै? अबार तो कई लोग आपरी सगळी ताकत इणी में लगावण लाग रैया है कै ऊंट रा इत्ता नांव है। धणी खातर इत्ता शब्द है। धरवाळी खातर इत्ता शब्द है। काल रै दिन जे कोई आ खोज कर लावै कै राजस्थानी में पाद खातर इत्ता नांव है तो अचंभै री बात कोनी। इस्सै कामां री जागा जे दूजी विधावां में खूब-खूब लिख्यो जावै तो राजस्थानी रो भलो हुवै।

• राजस्थानी री न्यारी लिपि कोनी। इण री लिपि नागरी है। पछै जे हिंदी में ई लिखां तो कांई हरज है? लिपि तो अेक ई है...।
- लिपि न्यारी हवै, आ बात म्हारै खातर महताऊ कोनी। राजस्थानी री लिपि नागरी है, आ मानी। पण मराठी, नेपाली नागरी लिपि में ई लिखीजै है। आ तो संस्कृत री लिपि है। तो पछै मराठी, नेपाली, हिंदी वाळां नै, सगळां नै ई संस्कृत में लिखणो चाइजै... नागरी लिपि रै गौरव री बात है नीं....कैवो बां नै आ बात।

• राजस्थानी में पत्र-पत्रिकावां री धणी कमी। दैनिक छापो है ई कोनी। आलोचना रो ई अभाव है... इण बाबत कांई कैवणी चावोला?
- राजस्थानी में रोजीना का अठवाडियै पखवाड़ियै छापां री बात करण सूं पैली थांनै ताळी बजा’र हंसणो चाइजै। देखो सा, आ ई वजह है कै आ खातर वातावरण बण्यो कोनी... जे रोजीना रो छापो छपै तो लोगां नै बांचरण रो ई अभ्यास हुवै अर अेकरूपता री समस्या ई हल हुवै।
    घणखरीक तो तिमाही पत्रिकावां निकळै आंरी पूंच कठै तांई है? अै पत्रिकावां ‘टू इन वन’ रै हिसाब सूं निकळै... पैली तो पत्रिका रो अंक छपग्यो अर पछै बो ई जिल्द बंध’र पोथी बणग्यो। अैड़ी पत्रिकावां रो रूप कांई हवैला... वां रा जोड़-तोड़ कांई हो सकै, म्हैं कांई कैवूं. थे खुद समझदार हो, बात समझ सको...
    मासिक पत्रिका रो नाव लेवां तो आगै-लारै ‘माणक’ है। ‘माणक’ रै ढंगढाळै री अनेक पत्रिकावां निकळै तो पाठक तैयार हुवै...

• इण रो तो ओ अरथ हुयो कै राजस्थानी साहित्यकार अकादमी का पछै राजकीय दया लारै जीवै?
- देखो सा, आ बात कैवण सूं पैली अकादमी रै कामां रो लेखो कर लेवां तो ठीक रैसी। बीकानेर में बण्योड़ी अकादमी कांई करै आ कैवण री जरूत है कांई? ‘जागती जोत’ मासिक सूं त्रैमासिक होगी। बाई बगतसर कोनी छपै। अकादमी पोथ्यां छापणी बंद कर दी बतावै। अबै रही प्रकाशन सहायता अर पुरस्कार री बात। इण नै जे थे सरकारी दया माथै जीवणो कैवो तो कैवो भलाई। कुण बरजै थांनै। बाकी म्हैं तो आा कोनी मानूं के राजस्थानी साहित्यकार राजकीय दया लारै जीव....
    दूजै प्रांतां रो अकादमियां कांई ठाह कित्तो-कित्तो काम करण में लाग्योड़ी है अर अेक आ घराघर अकादमी है... कांई ठाह किण रो शाप लाग्योडो है इण नै....

• राजस्थानी साहित्यकारों री तुलना जे बंगला या हिंदी साहित्यकारां सूं करां तो...
- भाई इस्सी बातां ना करो तो ठीक है। बंगला या हिंदी रो साहित्यकार लेखन रै बलबूतै सूं आपरो काम चला सकै, पण राजस्थानी में लिख’र तो थां अवार चाय-कॉफी रो खरचो ई कोनो काढ सको। राजस्थानी में पारिश्रमिक कोनी मिलै, हां, कदै कदास पुरस्कार मिल जावै।
    बंगला में कोई अेक लेखक जित्तो लिखै, खाली आकार री दीठ सूं बात करां, उत्तो तो अठै रै केई लेखकां री पोथ्यां भेळी करियां ई बात कोनी बैठै।

• राजस्थानी लेखकां री कोई प्यारी निरवाळी ओळखाण बणी है? महैं तो घा मानूं कै डिंगल में काम ज्यादा हुयो?
- राजस्थानी लेखकां री कोई न्यारी निरवाळी ओळखाण बणी है! भाषा अर मुहावरै री दीठ सूं न्यारी ओळखाण री बात करतां ई देथा जी अर सुदामा जी रा नांव चट याद आवै....
    डिंगळ में काम हुयो, ना कुण करै। पुराणी पीढी रो काम सिर माथै। बांरी तबीयत बां कामां में रमै। पण आदमी अतीत जीवी हुवै। भूतकाल हमेशा सोवणो लागै। गुलामी में रैयोड़ा आदमी आज रै दिन ई आपरै जमानै री तारीफ करता लाधै।
    आधुनिक लेखक बावना लखावै, म्हैं कोनी मानूं। आज रै लेखकां आदमी नै बीं रै साचै रूप में चित्रित करण री जोखम झेली है। जूनै साहित्य में जुझारू लोगां रा किस्सा हा, सिणगार री चासणी ही। आज जिको कीं तिखीज रैयो है, वो विश्वसनीय भी लागै। हो सके थांरी निजर में आ खास नीं हुवै, पण म्हैं तो ईमानदारी अर विश्वनीयता नै बड़ी बात मानूं।

• थांरी कहाणियां वांच्या लखावै कै अेक सरीसी कहालियां लिखो... इण सूं हट’र कोनी लिखो, इस बाबत कीं कैवोला?
- देखो जे थां इण बात नै म्हारी कहाणियां रो दोष समझो तो समझो भलाई म्हनै रत्तीभर ई अेतराज कोनी। म्हैं जिसै लोगां बिच्चै रैवूं जिकै लोगां नै देखूं-परखूं जे बां री बात नीं करूं तो आ म्हारी लेखकीय बेईमानी है। लोग प्रतिबद्धता रो रोळो करै... म्हनै तो बै दावा थोथा लागै। जिका लोग हवाई दुनियां में जीवै... आपरै बगत अर समाज कानी पीठ राख’र पाठकां नै चमत्कृत करण खातर नुंबा टोटका करै बो कूड़ो लेखन म्हारै सूं तो कोनी हुवै... जे आपां आपणी छोटी सच्चाई नै पेश करां तो आपणी सैंग जणा री सच्चाई मिल’र पूरी तस्वीर में हर अेक रो सीर हुवैता... म्हैं चावूं कै म्हारी सीर वाळी बात विश्वसनीयता री कसौटी पर खरी रैवै..
    कीं हट’र लिखण री बात है तो जूनी कहाणियां सूं आं रो ढंग मेळ कोनी खावै। पैली री कहाणियां में कठोर पयोधरा अर विकट नितंबा नायिकावां लाधती। वां री नाक सूवै री चांच-सी, आंख्यां आम री फांक-सी, होठ गुलाब री पांखड़ी सा हुया करता... आज आ बात कोती लाधै। पैली जूझारू मिनख लाधता, अबै रोजमर्रा री जरूरता पूरी करण में ई टूटतो मिनख लाधै...

• असवाड़ै-पसवाड़ै, धरती कद तांई धूमैली, अेक दुनिया म्हारी पोथ्यां लिखी। आज रो राजस्थानी समाज जिण नुवै परिवेश में जीवै, बीं बाबत आप कांई सोचो?
- आज राजस्थानी समाज जिण परिवेश में जीवै बा आधुनिकता बीं नै झटको देय रही है। आप जाणो ई ही, उठै शिक्षा री धोर कमी रही है। घणकरा परिवार, समाज कैवां तो ई गळत नीं हुवैला, नुंवैपण नै.... अेक भूंडै रूप सूं ओढ्यो है। बंगाल, आसाम अर बम्बई में रैवणिया राजस्थानी लोग खुद नै नुंवै परिवेश में ढाळ लेवै, पण उणां रा मूळ संस्कार आपरै गांव का कस्बै वाळा ई रेवै ओ ई कारण है कै गांवां में शहरां में ई लेवो नीं, नौकरी करण वाळी लुगायां खातर लोगां री धारणा सरावण जोग कोनी। बै हर बगत दाळ में कीं काळो ई सोधता रैवै...
    तकनीकी तरक्की रै कारण मिनख अर मिनख बिच्चै जिको आंतरो भावै परिवार तूटै... जूना रीति-रिवाज टूटै....स्वार्थ भावना वळवती हुई.... अै सैंग बातां शहरां में घणी अर गांवां में थोड़ी मात्रा में देखग नै लाधै...
    म्हारी तीनूं पोथ्यां में थांनै आ बदळ्योड़ी धारणा.... दूजा बाबत सोचण री सूगली आदतां अरम री मार सूं तूटता परिवार लाधसी.....

• राजस्थानी में लेखण नै आज प्रकाशन खातर जूझणो पड़ै... अैडो क्यूं?
- थारी आ बात सुण’र हंसी आवै... अठै छपण खातर पूरी पत्रिकावां कोनी तो पछै व्यासायिक रूप सूं पोथी छापण रो जोखो कुण लेवै? आज राजस्थानी में घणकरा लेखक मर-पचर आपरी पोथी खुद छापै.... जे कोई प्रकाशक भायलो हुवै तो वो आपरै हिसाब सूं बरस में दो-तीन पोथ्यां छापै। उण में अेक पोथी भायलै री ई छाप लावै.... अै दो ई ढंग है छपण-छपावण रा... जे कोई तीजो ढंग हुवै तो थे बतावो परा.... दूजां रै सागै-सागै म्हनै ई कीं फायदो हुवै...
    राजस्थानी रै नियमित प्रकाशना में शिक्षक दिवस प्रकासन री कड़ी में ‘शिक्षा विभाग’ अेक पोथी राजस्थानी री आयै वरम जरूर छापै। हां, अेकाध पोथी तिमाही पत्रिकावां रा संपादक छाप लेवै। पैली तो पत्रिका रो अंक विशेषांक निकाळ'र अर पछै उण रै जिल्द बांध’र पोथी रूप सामै लावै... म्हैं आ बात बां री निंदा रै रूप में नीं कैवूं.... खाली आ बताणी चावूं कै पोथी कियां छपै।

भेंटकर्त्ता- कन्हैयालाल भाटी, छीपां री गुवाड़, गंगाशहर रोड, बीकानेर- ३३४००१

( आमी-सामी साभार : माणक फरवरी, १९८६)


 


डॉ. नीरज दइया की प्रकाशित पुस्तकें :

हिंदी में-

कविता संग्रह : उचटी हुई नींद (2013), रक्त में घुली हुई भाषा (चयन और भाषांतरण- डॉ. मदन गोपाल लढ़ा) 2020
साक्षात्कर : सृजन-संवाद (2020)
व्यंग्य संग्रह : पंच काका के जेबी बच्चे (2017), टांय-टांय फिस्स (2017)
आलोचना पुस्तकें : बुलाकी शर्मा के सृजन-सरोकार (2017), मधु आचार्य ‘आशावादी’ के सृजन-सरोकार (2017), कागद की कविताई (2018), राजस्थानी साहित्य का समकाल (2020)
संपादित पुस्तकें : आधुनिक लघुकथाएं, राजस्थानी कहानी का वर्तमान, 101 राजस्थानी कहानियां, नन्द जी से हथाई (साक्षात्कार)
अनूदित पुस्तकें : मोहन आलोक का कविता संग्रह ग-गीत और मधु आचार्य ‘आशावादी’ का उपन्यास, रेत में नहाया है मन (राजस्थानी के 51 कवियों की चयनित कविताओं का अनुवाद)
शोध-ग्रंथ : निर्मल वर्मा के कथा साहित्य में आधुनिकता बोध
अंग्रेजी में : Language Fused In Blood (Dr. Neeraj Daiya) Translated by Rajni Chhabra 2018

राजस्थानी में-

कविता संग्रह : साख (1997), देसूंटो (2000), पाछो कुण आसी (2015)
आलोचना पुस्तकें : आलोचना रै आंगणै(2011) , बिना हासलपाई (2014), आंगळी-सीध (2020)
लघुकथा संग्रह : भोर सूं आथण तांई (1989)
बालकथा संग्रह : जादू रो पेन (2012)
संपादित पुस्तकें : मंडाण (51 युवा कवियों की कविताएं), मोहन आलोक री कहाणियां, कन्हैयालाल भाटी री कहाणियां, देवकिशन राजपुरोहित री टाळवीं कहाणियां
अनूदित पुस्तकें : निर्मल वर्मा और ओम गोस्वामी के कहानी संग्रह ; भोलाभाई पटेल का यात्रा-वृतांत ; अमृता प्रीतम का कविता संग्रह ; नंदकिशोर आचार्य, सुधीर सक्सेना और संजीव कुमार की चयनित कविताओं का संचयन-अनुवाद और ‘सबद नाद’ (भारतीय भाषाओं की कविताओं का संग्रह)

नेगचार 48

नेगचार 48
संपादक - नीरज दइया

स्मृति में यह संचयन "नेगचार"

स्मृति में यह संचयन "नेगचार"
श्री सांवर दइया; 10 अक्टूबर,1948 - 30 जुलाई,1992

डॉ. नीरज दइया (1968)
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आंगळी-सीध

आलोचना रै आंगणै

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