Saturday, October 10, 2020

असैंधी गळी री सुवास / डॉ. अर्जुन देव चारण


    गळी जिसी गळी। लोगां जिसा लोग। आदतां जिसी आदतां। बासती पड़ी हुवै तो माथै आली घास न्हाखणी। सावळ बळै तो लोगां रो जी सोरो हुवै अर किणी रो जी सोरो आपां सूं देखीजै कोनी। इण खातर धूंवो करणो आपां रो धरम। धूंवे सूं धांसी आवै। आंख्यां में पाणी आवै। बळत लागै। गळे में खरास लखावै। औ सो कीं देखर आपां नै मजो आवै।
    मिनख रै मन री थाह लेवती अै ओळियां सांवर दइया री चावी कहाणी ‘गळी जिसी गळी’ री है। सांवर स्यात् राजस्थानी रो पैलो कहाणीकार है जको कहाणी में मिनख रै मन नै समझण सारूं आफलै। सांवर दइया खुद कहाणियां में कम सूं कम बोलै। वरणन रै खिलाफ ऊभो औ रचनाकार राजस्थानी कहाणी नै अेक नुंवी सैली अर अेक नुंवी जमीन दी। सांवर रो पूरो जोर वरणन री ठौड़ दरसाव नै पकड़ण माथै रैवै। आपरी कहाणियां में वो इण चतुराई सूं परिवेस नै रचै कै पूरो परिवेस ई कहाणी बण जावै।
    जे कोई राजस्थान रै स्कूलां रा हालात जांणणी चावै तौ उणनै अठी उठी जावण री बजाय सांवर दइया री अै कहाणियां बांचणी चाइजै जकी सांवर मास्टरां रै चरित नै बखाणण सारू लिखी। स्यात् अै हालात पूरे देस री सिक्सा व्यवस्था रा होवे पण सांवर दइया जद कहाणी लिखै तौ पक्कायत रूप सूं वे आपरी जमीन सूं जुडऩै ईज लिखै। अेक जैड़ी कहाणियां समाज रो भविस् बणावणिया ठेकेदारां री असलियत परगट करै वांरौ कहाणी संग्रै ‘अेक दुनिया म्हारी’ (1984) तो पूरो स्कूल रै आखती पाखती घूमै। अै कहाणियां सांवर रै अन्तद्र्वन्द्व री कहाणियां है। वे खुद भणाई रै महकमै सूं जुडिय़ोड़ा हा अर इण सारूं जद वे आपरा सपना अर जथारथ रै बिच्चै पसरियोड़ो सुन्याड़ नै देखता तद वांरो रचनाकार मन अैड़ी कहाणियां रचण लागतो। ‘अेक दुनिया म्हारी’ रो समरपण लिखता वे लिखै —
    वी दिन नांव
    जद आपणी स्कूलां ‘शिक्षा मन्दिर’ बणसी
    अर / शिक्षक श्री गज्जूभाई दांई ‘मूंछाळी मां’
    वी रात रै नांव
    जद म्हनै अै काळा सपना आया
    अर / म्हंै अै कूड़ी कथावां लिखी।
    बी घड़ी रै नांव
    जद अंधारो छंटसी
    अर / आस्था रो उजास पसरसी।’’
    औ समरपण सांवर री पीड़ परगट करै। इणमें उणरो खुद सूं जूंझणौ बोलै, इण जथारथ नै मांडता थकां ई वो अेक ‘आदर्स’ री तलास में है। अै कहाणियां उणरै आदर्स अर जथारथ रै संघर्स सूं उपजियोड़ी है। आं में पात्र दूजां रै मिस खुद सूं ई जूंझ रैया है। आ लड़ाई पूरी व्यवस्था  नै बदळण री है।
‘पण साब! आ बात तो मास्टरां नै सोभा देवै है नीं कै वै आपरो पढावण रो काम छोड’र गळी-गळी खुरिया रगड़ता फिरै। घर-घर जाय’र डांगरा गिणै, रासन कार्ड बणावै... घरां माथै नम्बर लगावै... अैई काम जे आपनै भोळावै तो आप कर देवो कांई साब?’                               (अेक दुनिया म्हारी-पेज 50)
    अै सवाल जथारथ सूं आदर्स रा पूछियोड़ा सवाल है, पण दुख इण बात रो है कै औ ‘आदर्स’ अेकलो पडिय़ोड़ो है। उणरै इण संघर्स में कोई उणरै साथै नीं है...
    ‘...म्हैं तो हाल ई कैवूं कै औ काम मास्टरां रो कोनी। आं फालतू कामां खातर म्हे कोनी। आपणो काम टाबरां नै भणावणो है। आपां नै आं फालतू कामां रो विरोध करणो चाइजै।
    पण बीं रै साथै विरोध करण नै लोग तैयार कोनी हा। अैड़ो लागै हो जांणै रीस खाली बीं रै मांय ई भरियोड़ी है।’      (अेक दुनिया म्हारी - पेज 51)
    कहाणीकार री पीड़ा आ ई है कै इण सड़ती गिधावती व्यवस्था रै खिलाफ कोई क्यूं नीं बोल रैयो है। अै कहाणियां पाठकां नै जगावण री कहाणियां है। स्यात् इणी सारूं वो घड़ी-घड़ी अैड़ी कहाणियां लिखी। केई लोगां नै औ लाग सकै कै सांवर अेक ई बात नै घड़ी-घड़ी कैई-अैड़ो क्यूं? इणरो कारण फगत औई हो कै वो पाठक री चेतना नै जगावणी चावतो अर उणनै ठा हो कै जुगां-जुगां सूं सूतो औ समाज अेक बार कैयां सूं नीं जागैला, सांवर री अै कहाणियां आस्था रै उजास अर टाबर री कंवळास नै बचावण री अरदास करती लागै —
    हां तो सुणो भाई बांचणिया।
    आ सच्ची बात जिसी सच्ची बात। अैस्कूलां जिसी स्कूलां। अर छोरा जिसा छोरा। ठौड़-ठौड़ चमचेड़ां जिसी चमचेड़ां... कैपसूल जिसा कैपसूल... आक्टोपस जिसा ऑक्टोपस...
    आं री जकड़ में है कंवळी सांसा जिसी कंवली सांसा, नुवां सपना जिसा नुंवा सपना... चौफेर फैलतो औ रोग जिसो रोग।
है थां कनै कोई इलाज जिसो इलाज? हुवै तौ बताया म्हनै ई।
(पोथी जिसी पोथी - पेज 68)
    सांवर दइया रा कुल पांच कहाणी संग्रै छपियोड़ा है। ‘असवाड़ै-पसवाड़ै, धरती कद तांई घूमैली, अेक दुनिया म्हारी, अेक ही जिल्दी में अर पोथी जिसी पोथी।’ अै संकलन सांवर रै कहाणी खेतर रै पसराव नै परगट करै। वंारै अठै स्कूली जीवन री कहाणियां तो है ई पण उणरै अलावा रिस्तां रै बीच आयोड़ी कड़वास, मरद अर लुगाई रा सम्बन्ध, सामाजिक कुरीतियां ई आंरी कहाणियां रो हिस्सो बणियोड़ी है। आं कहाणियां रा पात्र सामाजिक दबावां नै झेलता लाचार पात्र है तो जृूंंझण री खिमता धारण करियोड़ा जुंझारू पात्र ई। ‘मुआवजो’, ‘सुळती भीतां’, ‘सुरंग सूूं बारै’ या ‘जूंझती जिन्दगाणी’ अैड़ी ई कीं कहाणियां है जिणमें मिनख री लाचारी अर जूंझ रा धरातल साफ-साफ दीखै।
    ‘म्हनैं लखायो कै ओळा पड़ रैया है। सगळो घर ओळां सूं भरीजग्यो है। च्यारूंमेर बरफ ई बरफ जमगी है। म्हारो खून जम रैयो है। डील री सेंग नाड़ा में सून वापर रैयी है।’                      
(अेक ही जिल्द में-पेज 97)
    आ सून्याड़ समाज में चोफैर पसरियोड़ी है। सांवर री कहाणियां राजस्थानी कहाणी रै खेतर में इणी सारू अेक छलांग लागै कै अठै आपरै बगत रो प्रतम दीखै। मध्यमवर्गीय परिवार री अबखायां, वांरी र्ईच्छावां, वांरो स्वार्थीपणो स्सै आं कहाणियां में परगट होवै। आं कहाणियां में परिवेस रै रूप में बगत रो बोलणौ-सुणीजै। आं कहाणियां रा पात्र बगत  रै दबाव नै झेलता बगत सूं आगे निकळ जावण री हूंस सूं भरियोड़ा लागै —
‘नई, म्हनै अबै ई अंधारी अर अंतहीण सुरंग में नई रैवणो चाइजै। अठै अमूजो है..., अंधारो है... ठोकरां है। कांई मिल्यो म्हनै अठै? आज तांई जिकी भूल हुई बा हुई। जे अबै ईआ नई चेत्यो तो पछे औ जीवण नरक बणतां जेज नीं लागैला। नरक सूं घाट तो अबार ई कोनी, पण आंख खुलै जद ई दिन ऊग्यो समझो नीं।’’
(अेक ही जिल्द में-पेज 35)
    स्वारथ री आपाधापी में लीर-लीर होवता तनु रिस्तां नैं अै कहाणियां छांनै-छांनै पकड़ै। इणी सारूं वां रिस्ता नै घेरियां ऊभो दोगलापणो पाठक नै साफ-साफ दीखै। रिस्ता बणाया राखण री कोसिस में लागोड़ा पात्रां नै आर्थिक अर मानसिक स्तर माथै तकलीफां भोगणी पड़ै। वे आपरी इण तकलीफ रो कारण जाणे है अर चावै कै कीं करियां अै रिस्तां आपरै अबोट रूप में बचियोड़ा रैवै पण कांई किणी अेक रै कीं करिया स्वारथ रा घेरा बिखरै —
    ‘पत्तो नी कांई हुयो कै म्हनै च्यारूंमेर अंधारो निजर आवण लाग्यो। म्हनै लखावतो कै सै लोग कीं कीं बदळ रैया है। मां, बाप अर भायां री बात ई कांई कैवूं। बे तो सुरु सूं ई हुवतां थकां ई नीं हुवण रै बरोबर हा। पण म्हारी लुगाई, जिणनै म्हैं जी जान सूं बत्ती चावतो हो, बा तकात बदळयोड़ी लखायी।’
(धरती कद तांई घूमैली-पेज 80)
    ‘अचाणचक वी री आंख्यां आगै घरवाळा रा चेहरा घूमण लाग्या। वे सैंग चेहरा उदेई में बदळग्या अर ठीक उणी बगत बींनै खुद रो चेहरो ई उदेई रै ढिगलै में बदळयोड़ो दिस्यो। घर री भीतां धुड़ती सी दीखी।’
(धरती कद तांई घूमैली-पेज 91)
    अचाणचक बीं नै लखायो कै वो लम्बे अरसै सूं ल्हासां ढोय रैयो है। जीतवी जागती ल्हासां... चालती-फिरती ल्हासां... अर बी री दीठ सामै कई चेहरा घूमण लागा... वे जीवती ल्हासां भख मांगै ही, लावो... लावो... लावो...
(धरती कद तांई घूमैली-पेज 94)
    अैड़ी अबखी दुनिया में जीवण नै विवस आं पात्रां रै साम्ही तद ई आपरा ध्येय निस्चित है। वांनै ठा है कै वे साम्हलै री लूट रा सिकार है। रिस्ता री व्यर्थता वांरी आंखियां आगै उघड़ चुकी है। पण तो ई वे आपरी जिद नीं छोड़ै। आ जिद दुनिया नै बचाया राखण री जिद है। औ व्यवहार पात्र रो खुद नै ओळखणो है। औ ओळखणो अेक आदर्स नै जलम देवै पण बिना इण हूंस अर हिम्मत रै आ दुनियां आपरो अस्तित्व नी बचाय सकै। इणी सारू औ आदर्स अेक सनातन साच में बदळ जावै अर पाठक उण साच रै साथै ऊभो दीखै। स्यात् इणी कारण वो जथारथ ई लागे...
‘म्हनै साफ-साफ लखावै-आ लड़ाई है। आ लड़ाई म्हनैं ई लड़णी है। लड़णी है जणा पूरै दमखम सूं क्यूं नीं लडूं। म्हारी आंगळियां तेजी सूं चालण लागै-खट्, खट्, खटाक्... खट्, खट्, खटाक्...’
(अेक ही जिल्द में-पेज 45)
    ‘अगलै दिन सीता आपरै दो च्यार पूर-पल्लां री गांठड़ी बांध’र अंधारै मूंडै घर सूं निकळगी। अबार बी री आंख्यां आगै अर ना ई बी नै धरती आभै बिच्चै अमूजो लखायो।
    आज आभो अणंत हो। धरती घणीज बड़ी ही। बो रस्तो घणो ई चवड़ो हो। जिकै माथै बा टुरी ही। अर सैं नाऊं बड़ी बात आ ही कै बीं रैं च्यारूंमेर खुली हवा ही।’                           (धरती कद तांई घूमैली-पेज 100)
    सांवर नै कहाणी रै बदळतै सरूप री ओळख है। वो राजस्थानी कहाणी री सीवां अर संभावनावां नै जाणण वाळो कहाणीकार है। ‘धरती कद तांई घूमैली’ री भूमिका मांडतो वो लिखै —
    ‘पण अबै बे दिन कोनी रैया कै राजस्थानी कहाणी (किणी भी विधा) रो दायरो इत्तो छोटो राख’र बात करी जावै... बीं नै आंकी परखी जावै। आंकण परखण री बगत तो देसी-विदेसी भासावां री कहाणी जातरां सूं जुड़णो ई पड़सी। बां सूं जुड़ण रो मतलब औ कोनी कै बां रा खोज दावण लागां, का वां रै देखा-देखी खोड़ खुड़ावण लागां। वां सूं जुड़ण रो मतलब इतो ई है कै बठै अे बदळाव क्यूं अर कियां हुया-इणरी इतिहासू समझ विगसावां। दूजां री दुनियां सूं जुड़णो इण कारण भी जरूरी कै आज दुनिया भोत छोटी हुयगी। छोटी हुयोड़ी दुनिया में आपां कित्ता छोटा हुय’र रैसां? बाकि आपणी जमीन, हवा अर पाणी सूं कट’र रैवण री बात म्हैं नीं कर रैयौ हूं। बीं सूं कट्यां पछै तो लारै रैसी ई कांई? बीं सूं जुड़’र दूजां सूं जुडूं जणां ई म्हारै काम री सारथकता है।’
    आपरै इण सोच नै सांवर आपरी कहाणियां में परोटै। वे कहाणियां इणी सारूं ‘न्यारी’ होवता थकां ई परम्परा रो हिस्सो लागै। औ जुड़ाव रो भाव अंडर करेन्ट रै रूप में सांवर री सगळी कहाणियां में दीखै। वां री तो पीड़ा ई आ है कै औ जुड़ाव धीरे-धीरे अलोप होवतो जाय रैयो है। बदळाव रो सरूप वांरी कहाणी री सुरूआत में ई परगट होयजावै। कहाणी सरू होवता ई कहाणीकार जाणै किणी रहस लोक री सिरजणा करै है। औरा तरीको परम्परागत रूप सूं जुदा होंवता थकां ई पाठक नै आपरै साथै बाधियोड़ौ राखै।
    ‘खून लगोलग बैवतो ई जा रैयो है। बार-बार कपड़ै री पाट्यां बदळणी पड़ती। नुंवी पाटी थोड़ीज ताळ पछै पाछी खून सूं लाल हुय जावती। सगळां रा चेहरा धौळा हुवण लागग्या हा।’             (धरती कद तांई घूमैली-पेज 29)
    ‘तकियै नैं हाल तांई मुट्ढयां में भींच राख्यो है। जदपि अबै पैलां आळी स्थिति कोनी। जिकै तूफान रै आवण रो डर हो, बो निकळ चुक्यो हो। बीं बगत कमरे री छात कांप’र पड़ती-सी लागी। भींतां भी हालती-सी लागी। तूफान आयो, भींतां रै सागै छात पडग़ी। मळबो हटा’र फैंक दियो। अबै सब बातां ठीक है। जो कीं भी हुवणो हो, हुय चुक्यो।’      (धरती कद तांई घूमैली-पेज 29)
    ‘इत्ती मोटी दुनिया, मोटी दुनिया रो मोटो देस। मोटै देस रो मोटो प्रान्त, मोटो प्रान्त रो मोटो सैर। मोटै सैर री मोटी तहसील। मोटी तहसील री मोटी स्कूल मोटी स्कूल रो मोटो इन्तजाम। मोटो इन्तजाम अेक आदमी रै बूतै परबारो, इण खातर राज थरप्या बठै दो हैडमास्टर। अेक मोटो हैडमास्टर, दूजो छोटो हैडमास्टर।’
(अेक दुनिया म्हारी-पेज 27)
    ‘ओफ्फ! आ तो बेजां हुई नीं। म्हैं थांरो नांव ई भूलग्यो। पण खेरसल्ला, नांव में कांई पड्यो है। अर थांररे अेक नांव थोड़ी है। असल में तो थांरो कोई नांव ई कोनी। थे तो रंग-रूप आकार विहूणा हो। थे आंख्यां सूं दिखो कोनी, पण तो ई म्हांरे बिच्चै चोइसूं घंटा मौजूद लाधा।’’          (अेक ही जिल्द में-पेज 75)
    व्यंग्य करण री तो अद्भुत खिमता है सांवर में। वांरी घणकरी कहाणियां अर खासकर संवाद सैली में लिखियोड़ी सगळी कहाणियां फगत दो चीजां रै मेळ माथै ऊभी है अेक व्यंग्य अर दूजी नाटकीयता। व्यंग्य अर नाटकीयता नै अेक साथै साधणो घणो अबखो काम है। औ अबखो काम सांवर दइया आपरी कहाणियां में करै। तो सुणो भाई वांचणिया औ कैवणौ उणी नाटकीयता रो हिस्सो है। अेक रूप में तो अठै कहाणीकार आपरी परम्परा में छिपियोड़ै उणी हांकारै वाळै नै सोध रैयौ है जकौ राजस्थानी लोक कथावां रो जरूरी हिस्सो बणियोड़ो है। इण रूप सांवर आपरी परम्परा नै ईज पाछी उथैलै। आ नाटकीयता अेक प्रस्तुती रो रूप धारण कर लेवै अर कहाणी ‘नाट्य’ में ढळण लागै। औ कहाणीकार रो लगायोड़ो लास्ट स्ट्रोक है जठै सूं कहाणी आपरा अरथ खोलण लागै अर अेक री पीड़ पूरी समस्टि नै आपरै घेरे में लेय लेवै। अठै पूगियां पाठक नै चांणचक लागै कै वो अबार तांई जिणनै बंतळ या हथाई जांणतो हो वा गैरै अरथा में उणरी पीड़ ईज है, अर आईज आं कहाणियां री विसेसता है।
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परिचय
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श्री सांवर दइया (1948-1992)
जलम : 10 अक्टूबर, 1948 बीकानेर
निधन : 31 जुलाई, 1992 बीकानेर
आधुनिक राजस्थानी साहित्य के प्रमुख हस्ताक्षर। राजस्थानी कहानी को नूतन धारा एवं प्रवाह देने वाले सशक्त कथाकार। राजस्थानी काव्य में जापानी हाइकू का प्रारम्भ करने वाले कवि। राजस्थानी भाषा में व्यंग्य को विद्या के रूप में प्रतिष्ठित करने वाले व्यंग्य लेखक। विविध विद्याओं में 18 से अधिक कृतियों का प्रणयन।
भणाई : एम. ए., बी. एड., गुजराती भाषा मांय डिप्लोमो
कहाणी संग्रै-
1. असवाड़ै-पसवाड़ै 1975
2. धरती कद तांई घूमैली 1980 : राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी, बीकानेर सूं गद्य पुरस्कार
3. एक दुनिया म्हारी 1984 : साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली सूं सर्वोच्चय पुरस्कार
4. एक दुनिया मेरी भी : एक दुनिया म्हारी रो हिंदी अनुवाद, साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली सूं प्रकाशित
5. एक ही जिल्द में 1987
6. पोथी जिसी पोथी (निधनोपरांत)
7. छोटा-छोटा सुख-दुख (प्रेस मांय)
8. उकरास (संपादन) 1991 राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी, बीकानेर रो प्रतिनिधि कहाणी संकलन, स्नातक पाठ्यक्रम री पोथी बरसां सूं
अनेक कहानियों के गुजराती, मराठी, तमिल, अंग्रेजी आदि भाषाओं में अनुवाद।
व्यंग्य संग्रै-
1. इक्यावन व्यंग्य (निधनोपरांत)
कविता संग्रै-
1. मनगत (लघु कवितावां) 1976
2. काल अर आज रै बिच्चै 1977 & 1982
3. आखर री औकात (हाइकू संग्रै) 1983
4. आखर री आंख सूं 1988 & 1990
5. हुवै रंग हजार (निधनोपरांत) राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी, बीकानेर सूं “गणेशीलाल व्यास उस्ताद” पद्य पुरस्कृत 1993
6. आ सदी मिजळी मरै (निधनोपरांत) पंचलड़ी कवितावां
अनुवाद-
1. स्टेच्यू (अनुवाद) अनिल जोशी रै गुजराती निंबंधां रो राजस्थानी उल्थो साहित्य अकादेमी सूं प्रकाशित 2000 (निधनोपरांत)
हिंदी में कविता संग्रै-
1. दर्द के दस्तावेज (ग़ज़ल संग्रह)
2. उस दुनिया की सैर के बाद (निधनोपरांत) 1995
हिंदी में बाल साहित्य-
1. एक फूल गुलाब का 1988
पुरस्कार-
1. नगर विकास न्यास, बीकानेर कांनी सूं टैस्सीटोरी गद्य पुरस्कार
2. राजस्थान साहित्य अकादमी(संगम), उदयपुर
3. मारवाड़ी सम्मेलन, मुम्बई
4. राजस्थानी ग्रेजुएट्स नेशनल सर्विस एसोसियेशन, मुम्बई
5. राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी, बीकानेर सूं “गणेशीलाल व्यास उस्ताद” पद्य पुरस्कार
6. केंद्रीय साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली 1985
अन्य : डेकन कॉलेज, पूना सूं गुजराती भाषा मांय डिप्लोमो ई कर्‌यो नै केई रचनावां रो राजस्थानी, हिंदी अर गुजराती अनुवाद ई घणो चावो रैयो। शिक्षाविद्‌ रै रूप मांय केई शैक्षिक आलेख ई लिख्या।
जिया-जूण : शिक्षा विभाग मांय शिक्षक रै रूप मांय काम करता थकां व्याख्याता (हिंदी), प्रधानाध्यापक पछै जीवण रै लारलै बरसां शिक्षा निदेशालय प्राथमिक एवं माध्यमिक शिक्षा विभाग रै प्रकाशन अनुभाग मांय उपजिला शिक्षा अधिकारी, संपादक- शिविरा (मासिक) अर नया शिक्षक (त्रैमासिक) पद माथै रैवतां फगत 44 बरस री उमर मांय सरगवास ।

 

 

Friday, October 02, 2020

बहुत कुछ बाकी है अनकहा / डॉ. नीरज दइया

    व्यंग्य, कविता और संपादन के क्षेत्र में डॉ. लालित्य ललित निरंतर आगे बढ़ रहे हैं। उनकी यह विशेषता है कि एक पहचान बन जाने के बाद भी वे निरंतर सक्रिय है। कहना होगा कि साहित्य का जुनून उनके सिर पर सवार है। रोज बहुत कुछ लिखना और पढ़ना उनकी दिनचर्या में शुमार है। नियमित कॉलम लिखना कोई सरल काम नहीं है, जिसे वे लंबे अरसे से बखूबी लिख रहे हैं। व्यंग्य और कविता की उनको लत लग गई है। जैसे किसी दौड़ में कोई सबसे आगे निकल जाने को दौड़ता है, वैसे ही उनका किताबों का सिलसिला हो रहा है। इसी जुनून में वे अब तक अनेक कीर्तिमान बना चुके हैं, और अनेक बनाने वाले हैं। यह अचंभित और हर्षित करने वाली बात है कि वे अपनी सभी जिम्मेदारियों को सफलतापूर्वक निभाते हुए, साहित्य में इतनी सक्रियता से इस बार एक साथ 25 कविता-संग्रह पाठकों को दे रहे हैं।
    किसी भी रचना के साथ आलोचना का भाव पहले पहल स्वयं लेखक-कवि के मन में रहता है, जिसके चलते वह रचना को संवारता है और नए आयाम छूने का प्रयास करता रहता है। यहां यह भी रेखांकित किया जाना चाहिए कि कवि लालित्य की कविताओं में सर्वाधिक उल्लेखनीय समकालीनता और कोरोना-काल है। वे अपने वर्तमान को जिस ढंग से देखते-समझते हुए कविता की निर्मिति करते हैं, उसमें सरलता, सहजता और संवादप्रियता व्यापक तौर पर स्थाई भाव के रूप में है। वे जिस अनुभव और जीवन को अपनी कविताओं के माध्यम से साझा करते हैं, उनका सीधा सरोकार हमारे जीवन से है। जीवन स्वयं में एक कविता है। जीवन कविता की एक बड़ी किताब है, जिसे कवि अपनी कविताओं में अंश-दर-अंश प्रस्तुत करता रहा है। यह संग्रह भी उसी समेकित जीवन की झलक है, जो कवि के चारों तरफ फैली सकारात्मकता और नकारात्मक के साथ वह पाता है और उसे अपने ढंग से देखता-परखा है। यह भी सच है कि उनका अपना एक विशाल पाठक-समुदाय है। डॉ. लालित्य को चाहने और पढ़ने वालों का बड़ा वर्ग है और इसी में कुछ ऐसे भी है जो कहीं किसी कोने से नकारने का भाव भी रखते हैं। कुछ ऐसे भी है जो बिना पढ़े भी नकार सकते हैं, कारण इतना लिखा है और अधिक लिखना उनकी नजर में अच्छा नहीं होता है। यह आवश्यकता से अधिक सावधानी पूर्वाग्रह का रूप ले लेती है तो रचना के मूल्यांकन की बात छूट जाती है।  
    जो व्यक्तिगत रूप से कवि लालित्य को जानते है और उनके द्वारा कविता पाठ का आनंद ले चुके हैं, वे इस बात पर सहमत होंगे कि कविता में आए तमाम ब्यौरे और विवरण ऐसे होते हैं कि उन्हें यदि स्वयं कवि के श्रीमुख से पाठ सुना जाए तो एक नया आस्वाद सम्मिलित होता है। कवि की मुद्राओं, आरोह-अवरोह और भाव-भंगिमाओं के साथ टिप्पणियों द्वारा इन कविताओं की रसात्मकता मूल पाठ में वृद्धि करने वाली कही जा सकती है। वैसे इन कविताओं के मूल पाठ में अनेक मार्मिक स्थल देखे जा सकते हैं। कुछ कविताओं के अंश अपने आप में स्वतंत्र कविता की गरज सारने वाले हैं। जैसे इन पंक्तियों को देखेंगे तो लगेगा- यह पूरी कविता के विन्यास में तो अपनी अभिव्यंजना के साथ व्यस्थित है ही, किंतु यह एक स्वतंत्र कविता के रूप से भी प्रभावित करती है- ‘अब प्रेम वैसा रहा नहीं/ सब समझती है ये आंखें/ कि सामने वाले के मन में कितना जल है/ और कितना सजल है वह खुद भी!’
    हिंदी कविता और खासकर इक्कीसवीं शताब्दी की कविता में काव्य-भाषा में जो बदलाव हुआ है, वह यहां भी देखा जा सकता है- ‘समय हर सवाल को अपने हिसाब से/ हल कर देता है/ तुम सवाल हो/ मैं समय हूं/ खुश रहने की आदत डालें’ कविता का सौंदर्य जो पहले विभिन्न युक्तियों के बल पर होता था, वह अब सादगी और सरलता में भी संभव होता दीखता है- ‘यही जीवन है / जहां कुछ अपने हैं/ कुछ पराए हैं/ एक उम्र में/ आदमी जी लेता है/ कई कई जिंदगी एक साथ’ इसका कोई विशेष कारण यदि हम समझना चाहे तो वह है पूर्वाग्रह सहित जीवन और सपाट बयानी। जैसे- ‘जिंदगी इत्ती बुरी भी नहीं / जित्ता हम/ सोच लिया करते हैं बाबू’ इसलिए कवि लालित्य को जीवन के लालित्य को खोजने समझने का कवि कहना चाहिए। वे कहीं कहीं तो सीधे आह्वान की मुद्रा में कहते हैं- ‘अरे!/ अभी फायदे की दुनिया से/ बाहर निकल कर देखो’ और जैसा कि मैंने महसूस किया कि कवि पूर्वाग्रह से युक्त होकर भी, वह जिस मुक्तिकामी दृष्टि से जीवन की बात करता है वह उल्लेखनीय है- ‘मन में आया तो सोचा कह दूं/ मानना न मानना तुम्हारा काम/ हमें तो कहना था कह दिया/ नमस्कार!’
    कवि लालित्य का विश्वास जीवन के सौंदर्य को कविताओं में अभिव्यंजित करने में रहा है। वे ‘गुलदस्ते’ जैसी कविता में वाट्सएप और मैसेंजर में आने वाले अनचाहे संदेशों के बारे में खीज प्रकट करते हैं। यह असल में ऐसा यथार्थ है जिससे हमारी भी भेंट होती रही है। ऐसी रचनाओं को कुछ मित्र कविता की श्रेणी में रखने से गुरेज कर सकते हैं, क्योंकि किसी घटना की सीधी सीधी प्रतिक्रिया अथवा प्रत्युत्तर कविता हो यह कठिन-साध्य है। किंतु यह कविता को लेकर अपनी-अपनी अवधारणा और कविता के क्षेत्र में स्वतंत्रता का मुद्दा भी है। असल में कविता क्या है या क्या नहीं है, इसका कोई सीधा-सीधा सूत्र अथवा जांच-उपकरण निर्मित ही नहीं किया जा सका है। यह फैसला समय का होता है और यह फैसला भी समय का ही होगा कि ‘प्रेम शब्द है ही ऐसा जो/ किसी को भी आवाज दे सकता है’ इसी तर्ज पर कहें तो कविता जब किसी को आवाज देती है और वह कवि जब उस आवाज को सुन लेता है, तब वह ऐसा फैसला लेता है- ‘ऐसा कुछ लिख दो/ जिससे अंधेरे घर में रोशनी हो जाए।’ संग्रह की अधिकांश कविताएं वर्तमान समय और समाज पर रोशनी डालती हैं।
    कोरोना-काल में लेखक और प्रकाशक के साथ कवि अपने पाठकों, घर परिवार के साथ सभी रिश्ते-नातों के गणित को खोलता हुआ हमें एक ऐसे लोक में ले जाता है जो हमारा अपना जाना-पहचाना है। अपने जाने-पहचाने को कवि की आंख से देखना निसंदेह हमें ऊर्जा और उत्साह देने वाला है। प्रेम के विविध रूप भी संग्रह में प्रभावित करने वाले हैं। कवि मित्र लालित्य को मैं बहुत-बहुत बधाई देते हुए उनके प्रति आभार प्रकट करता हूं कि बहुत कुछ बाकी है अनकहा और उस बहुत कुछ को सतत रूप से वे कविताओं में सहेजते रहेंगे। इन्हीं शुभकामनाओं के साथ आशा करता हूं कि एक साथ इतनी संख्या में कविता-संग्रह आने का यह कीर्तिमान पाठक-मित्रों को जरूर पसंद आएगा और इस उपक्रम से समेकेतिक रूप से कवि लालित्य ललित के कवि-कर्म पर चर्चा हो सकेगी।

डॉ. नीरज दइया

डॉ. नीरज दइया की प्रकाशित पुस्तकें :

हिंदी में-

कविता संग्रह : उचटी हुई नींद (2013), रक्त में घुली हुई भाषा (चयन और भाषांतरण- डॉ. मदन गोपाल लढ़ा) 2020
साक्षात्कर : सृजन-संवाद (2020)
व्यंग्य संग्रह : पंच काका के जेबी बच्चे (2017), टांय-टांय फिस्स (2017)
आलोचना पुस्तकें : बुलाकी शर्मा के सृजन-सरोकार (2017), मधु आचार्य ‘आशावादी’ के सृजन-सरोकार (2017), कागद की कविताई (2018), राजस्थानी साहित्य का समकाल (2020)
संपादित पुस्तकें : आधुनिक लघुकथाएं, राजस्थानी कहानी का वर्तमान, 101 राजस्थानी कहानियां, नन्द जी से हथाई (साक्षात्कार)
अनूदित पुस्तकें : मोहन आलोक का कविता संग्रह ग-गीत और मधु आचार्य ‘आशावादी’ का उपन्यास, रेत में नहाया है मन (राजस्थानी के 51 कवियों की चयनित कविताओं का अनुवाद)
शोध-ग्रंथ : निर्मल वर्मा के कथा साहित्य में आधुनिकता बोध
अंग्रेजी में : Language Fused In Blood (Dr. Neeraj Daiya) Translated by Rajni Chhabra 2018

राजस्थानी में-

कविता संग्रह : साख (1997), देसूंटो (2000), पाछो कुण आसी (2015)
आलोचना पुस्तकें : आलोचना रै आंगणै(2011) , बिना हासलपाई (2014), आंगळी-सीध (2020)
लघुकथा संग्रह : भोर सूं आथण तांई (1989)
बालकथा संग्रह : जादू रो पेन (2012)
संपादित पुस्तकें : मंडाण (51 युवा कवियों की कविताएं), मोहन आलोक री कहाणियां, कन्हैयालाल भाटी री कहाणियां, देवकिशन राजपुरोहित री टाळवीं कहाणियां
अनूदित पुस्तकें : निर्मल वर्मा और ओम गोस्वामी के कहानी संग्रह ; भोलाभाई पटेल का यात्रा-वृतांत ; अमृता प्रीतम का कविता संग्रह ; नंदकिशोर आचार्य, सुधीर सक्सेना और संजीव कुमार की चयनित कविताओं का संचयन-अनुवाद और ‘सबद नाद’ (भारतीय भाषाओं की कविताओं का संग्रह)

नेगचार 48

नेगचार 48
संपादक - नीरज दइया

स्मृति में यह संचयन "नेगचार"

स्मृति में यह संचयन "नेगचार"
श्री सांवर दइया; 10 अक्टूबर,1948 - 30 जुलाई,1992

डॉ. नीरज दइया (1968)
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आंगळी-सीध

आलोचना रै आंगणै

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