Sunday, March 21, 2021
Monday, March 15, 2021
कविताओं में ईश्वर होने के मायने की तलाश / डॉ मदन गोपाल लढ़ा
3/15/2021 | No comments |
सुप्रसिद्ध कवि एवं संपादक सुधीर सक्सेना अपनी रचनात्मकता के साथ-साथ यायावरी के लिए भी जाने जाते हैं। उन्होंने एक यायावर के रूप में दुनिया को जोड़ने का कार्य किया है। डॉ. नीरज दइया ने अनुवाद के माध्यम से उनकी कविताई को राजस्थानी भाषा से जोड़ दिया है। सुधीर सक्सेना की प्रतिनिधि कविताओं के संग्रह ’अजेस ई रातो है अगूण’ के बाद अब उनके कविता संग्रह ’ईश्वर: हां, नीं...तो’ का राजस्थानी अनुवाद के रूप में आना बहुत सुखद है। यह राजस्थानी मिट्टी की तासीर ही है कि अब सुधीर सक्सेना किसी दूसरी भाषा के कवि नहीं लगते बल्कि ठेठ राजस्थानी कवि के रूप अपनी उपस्थिति दर्ज करवाते हैं। एक कवि का भाषायी दायरों को लांघकर इस तरह पाठक-मन में जगह बनाना अनुवाद व कविताई की साख बढ़ाने वाला है।
Sunday, March 14, 2021
प्यास के मरुथल का इतिहास / डॉ. नीरज दइया
3/14/2021 | No comments |
Saturday, March 13, 2021
Thursday, March 11, 2021
समकालीन राजस्थानी साहित्य का विहंगम परिदृश्य
3/11/2021 | No comments |
पुस्तक परिचय डॉ. सत्यनारायण सोनी
'राजस्थानी साहित्य का समकाल' समकालीन राजस्थानी साहित्य पर केंद्रित हिंदी में आलोचनात्मक पुस्तक है। डॉ. नीरज दइया कृत इस पुस्तक में गत वर्षों में आधुनिक राजस्थानी साहित्य और भाषा मान्यता के संबंध में बारह आलेखों को संकलित किया गया है। राजस्थानी भाषा की मान्यता के सवाल से लेखक नीरज दइया ने अपनी बात आरंभ करते हुए समकालीन राजस्थानी साहित्य की विविध विधाओं के विकास को व्यापकता से रेखांकित करते हुए एक विहंगम परिदृश्य प्रस्तुत किया है।
पुस्तक के तीन आरंभिक आलेखों में राजस्थानी भाषा के मान्यता मुद्दे को बहुत सुंदर ढंग से प्रस्तुत करते हुए विद्वान लेखक ने राजस्थानी के चाहने वालों के समक्ष ठोस आधार भूमि प्रस्तुत की है। इन आलेखों में बहुत विनम्र भाषा में सटीक तर्क के साथ भाषा विज्ञान को आधार बनाते हुए अनेक महत्त्वपूर्ण जानकारियां और अपना पक्ष लेखक ने रखा है। राजस्थानी एक संपूर्ण और समृद्ध भाषा है, इसके साक्ष्य को अनेक बिंदुओं में इस कृति में प्रस्तुत किया गया है।
प्रस्तुत पुस्तक के लेखक नीरज दइया की यह विशेषता है कि वे अपने आलोचनात्मक आलेखों में इस बात का विशेष आग्रह रखते हैं कि उनके उदाहरण और पक्ष-विपक्ष की तमाम बातें हमारे आस-पास के और अपनी ही भाषा के साहित्य से प्रस्तुत की जाए। अन्य विद्वान समालोचकों की भांति अनेक प्रख्यात देशी-विदेशी लेखकों के कथनों की भरमार नहीं प्रस्तुत कर लेखक ने केवल और केवल अपने मुद्दे की बात अपने अंदाज में की है जो प्रभावित करता है और संप्रेषित भी अधिक होता है। लेखक ने अपने समकाल और समकालीन साहित्य को सम्यक दृष्टि से देखने-समझने और परखने का महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। इस कृति में मुख्य रूप से साहित्य की केंद्रीय विधाओं को विमर्श का विषय बनाया गया है।
आलोचक डॉ. नीरज दइया की इस कृति का महत्त्व दो दृष्टियों से किया जा सकता है, जिसमें पहला साहित्य के विकास और प्रवाह के महत्त्वपूर्ण आयामों को सहेजते हुए सम्यक रूप प्रस्तुत करना, वहीं दूसरा और अधिक महत्त्वपूर्ण विधाओं के तकनीकी पक्षों को रचनाओं के माध्यम से प्रस्तुत करते हुए रचनात्मक आरोह-अवरोह को रेखांकित करना। उपन्यास और कहानी में अंतर को दर्शाने वाले आलेख के अंतर्गत दोनों विधाओं के तात्विक अंतर को जहां सूक्ष्मता से स्पष्ट किया गया है, वहीं इस आलेख में न केवल राजस्थानी साहित्य वरन इसकी परिधि में संपूर्ण साहित्य के समकाल को देखने-परखने के आयाम भी उद्घाटित होते हैं। किसी भी रचना में भाषा का अवदान महत्त्वपूर्ण होता है, भाषा की सहूलियत और सहूलियत की भाषा आलेख में उपन्यासों पर अपनी बात को केंद्रित करते हुए लेखक ने राजस्थानी उपन्यास विधा में भाषिक-तत्व को गहनता से विवेचित किया है। राजस्थानी कहानी के संबंध में इस कृति में तीन आलेख संकलित किए गए हैं, जिनमें राजस्थानी कहानी के कदम दर कदम विकास के साथ उसमें होने वाले शिल्प और संवेदना के स्तर पर बदलावों और उनके अनेक पक्षों का सुंदर विवेचन भी किया गया है।
आधुनिक समकालीन कविता के साथ ही युवा कविता स्वर का भी सम्यक विश्लेषण दो आलेखों में प्रस्तुत किया गया है। इन आलेखों में अपने समकालीन लेखकों पर लिखते हुए लेखक ने जहां निर्ममता दिखाई है, वहीं रचनात्मक सबल पक्षों के प्रस्तुतीकरण में अपने साथी और पूर्ववर्ती पीढ़ी के रचनाकारों की भरपूर सराहना भी पुस्तक में देख सकते हैं। अंतिम आलेख के रूप में उस अभिभाषण को संग्रह में स्थान दिया गया है जो आलोचक डॉ. नीरज दइया ने साहित्य अकादेमी मुख्य पुरस्कार को ग्रहण करने के बाद नई दिल्ली में दिया था। इसमें उन्होंने अपनी साहित्यिक यात्रा और आलोचनात्मक दृष्टि के बारे में उदाहरणों के साथ अपनी आत्मीयता और भाषा के प्रति लगाव को अभिव्यंजित किया है। पुस्तक के फ्लैप पर डॉ. मदन गोपाल लढ़ा के इस मत से सहमत हुआ जा सकता है- 'भारतीय भाषाओं के बीच राजस्थानी साहित्य की समालोचना की यह पहल नई होने के साथ सार्थक भी है।'
यह पुस्तक न केवल राजस्थानी में रुचि रखने वाले पाठकों-शोधार्थियों के उपयोगी एवं महत्त्वपूर्ण है, वरन भारतीय भाषाओं के तुलनात्मक अध्ययन के लिए भी पर्याप्त महत्त्व रखती है। लेखन नीरज दइया का मानना है कि भारतीय साहित्य का पूरा परिदृश्य भारत की सभी भाषाओं के समकालीन साहित्य से निर्मित होता है और इस क्रम में यदि समकालीन राजस्थानी साहित्य को किसी एक पुस्तक के जरिए जानना हो तो यह पुस्तक जरूरी है।
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राजस्थानी साहित्य का समकाल (आलोचना) डॉ. नीरज दइया
संस्करण : 2020; मूल्य : 200/-; पृष्ठ : 128
प्रकाशक : सूर्य प्रकाशन मंदिर, दाऊजी रोड, बीकानेर।
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डॉ. सत्यनारायण सोनी, प्रधानाचार्य, राउमावि, टोपरियां,
तहसील : नोहर, जिला : हनुमानगढ़ (राजस्थान) 335523
मो. 7014967603
Sunday, March 07, 2021
मात खा गए हैं मियां / नीरज दइया
3/07/2021 | No comments |
मियां, तुम जरा भोले हो...
नासमझ हो...
जरा-जरा-सी बात पर
सोचते बहुत हो
जो हुआ सो हुआ
उसे लेकर नहीं बैठते
चलो सब भूल जाओ...
सुना तुमने, क्या कह रहे हैं हम?
तुम्हें पहले भी समझाया था,
अब भी कहते हैं-
मियां, दिल से जुड़ने की जरूरत नहीं
बस ‘हां-हां’ किया करो
कभी ‘हूं-हां’ से चलाया करो काम
हमें नहीं देखते...
हम भी तो यही करते हैं।
सुन रहे हो मियां....?
सुन रहे हो हम क्या फरमा रहे हैं?
मियां, अब कैसे कहे-
मियां को प्रोब्लम है-
बेदिल होना नहीं जानते !
मियां के पास
बहुत कुछ है- कहने-सुनाने को
अब सारी कहानियां दबाए
मियां गुमसुम और उदास है
कुछ सोचते हुए-
‘हां-हां’ और ‘हूं-हां’ की दुनिया में
मात खा गए हैं मियां।
०००
राजस्थानी साहित्य का व्यापक परिदृश्य : सृजन संवाद / डॉ.. मंगत बादल
3/07/2021 | No comments |
‘साक्षात्कार’ विधा का विकास हिंदी भाषा में अंग्रेजी भाषा से हुआ है। हालांकि संस्कृत में गुरु-शिष्य संवाद, शुक-शुकी संवाद, रामचरित मानस में की राम कथा चार वक्ताओं और चार श्रोताओं के माध्यम से आगे बढ़ती है किंतु इससे पाठक को रचनाकार के विषय में कुछ भी मालूम नहीं पड़ता जबकि साक्षात्कार के माध्यम से साक्षात्कार कर्ता रचनाकार की उन सच्चाइयों से भी रू-ब-रू कराता है जो रचना एवं रचनाकार की पृष्ठभूमि में रह जाती है। साक्षात्कार कर्ता अपने बेधडक प्रश्नों के माध्यम से उन धुंधलके को प्रकाश में परिवर्तित कर देता है जो रचनाकार के व्यक्तित्व एवं रचना पर छाया होता है। वह अपनी बेबाक टिप्पणियों एवं निर्मम प्रश्नों के माध्यम से लेखक के भीतर उसी भांति गहरे उतर कर सत्य को तलाश कर लेता है जिस प्रकार कोई गोताखोर समुद्र से मोती। अन्य विधाओं की अपेक्षाकृत यह विधा राजस्थानी भाषा के लिए नई है। यद्यपि पत्र-पत्रिकाओं में राजस्थानी भाषा के साहित्यकारों के साक्षात्कार प्रकाशित होते रहे हैं किंतु पुस्तक रूप में यह पहला प्रयास है। यहां यह भी ध्यातव्य है कि यह पुस्तक राजस्थानी भाषा में ना होकर हिंदी में क्यों है? इसका सीधा सा मतलब है जो पाठक राजस्थानी नहीं पढ़ समझ सकते उन तक इन लेखकों का अवदान पहुंचाने का प्रयास किया गया है। कम से कम हिंदी भाषा भाषी क्षेत्रों तक इन रचनाकारों के साहित्य की जानकारी तो पहुंचे। इस दृष्टि से इस प्रयास को स्तुत्य कहा जा सकता है।
साक्षात्कार करती बार डॉ. नीरज दइया इस बात का पूरा ध्यान रखा है कि रचनाकार अपनी रचनाओं के विषय में खुलकर बतला सके तथा अपनी रचना-प्रक्रिया पर प्रकाश डाल सके। कन्हैया लाल सेठिया हों या मोहन आलोक, कुंदन माली हों या अर्जुन देव चारण सभी से बेबाकी से प्रश्न पूछे हैं। सेठिया जी से तो पुरस्कार ग्रहण न करने और फिर ग्रहण करने के प्रश्न बड़ी निर्ममता से पूछ कर यह जता दिया कि जो आलोचक संबंधों को मध्य नजर रखकर समीक्षा या आलोचना करेगा वह सफल नहीं हो सकता। हां एक बार वाह-वाही अवश्य प्राप्त कर लेता है। इसी प्रकार राजस्थानी भाषा का रचनाकार राजस्थानी के अतिरिक्त हिंदी अथवा किसी इतर भाषा में भी लेखन करता है। इसके प्रत्युत्तर में प्रायः सभी रचनाकारों ने प्रकाशन की अपनी-अपनी चिंता की है। राजस्थानी भाषा की मान्यता को लेकर भी सवाल पूछे गए हैं तथा मान्यता मिलने के बाद की संभावनाओं पर विचार किया गया है। इस प्रकार इन साक्षात्कारों से जो एक दृष्टि बनती है, वह यही कि आज राजस्थानी का रचनाकार रचना करने और भाषा की मान्यता संबंधी दो मर्चों पर एक साथ लड़ रहा है। राजस्थानी का रचनाकार अपने अस्तित्व की इस लड़ाई में साहित्य के प्रत्येक क्षेत्र की न्यूनता को पूर्णता में बदलने के लिए कटिबद्ध है तथा इसके लिए अपनी जेब से पैसे खर्च करके पुस्तकें पुस्तकें प्रकाशित करता है तथा पाठकों तक मुफ्त पहुंचाता है।
पुस्तक का प्रथम भाग ‘अपने आस-पास’ शीर्षक से प्रकाशित है जबकि दूसरा भाग ‘भीतर-बाहर’ और तीसरा भाग ‘आत्मकथ्य’ शीर्षक से। दूसरे भाग में डॉ. नीरज दइया के सात साक्षात्कार हैं जो समय-समय पर वरिष्ठ लेखकों यथा सर्वश्री देवकिशन राजपुरोहित, नवनीत पांडे, डॉ. लालित्य ललित, राजेंद्र जोशी, डॉ. मदन गोपाल लढ़ा, डॉ. लहरी राम मीणा और राजू राम बिजारणिया द्वारा लिए गए हैं। इन साक्षात्कारों में डॉ. नीरज दइया ने केवल अपने रचना-कर्म पर प्रकाश डाला है बल्कि अपने आलोचकीय दृष्टिकोण को भी साफ कर दिया है। उन्होंने जता दिया है कि आलोचना कर्म में अपने-पराए की बात जो लोग करते हैं, वे बकवास करते हैं। यदि आप वास्तव में साहित्यकार हैं तो आपकी नजर में साहित्य ही रहेगा, पारस्परिक संबंध नहीं। ‘आत्मकथ्य’ के अंतर्गत उन्होंने अपने उन दो भाषणों को प्रकाशित किया है जो बाल साहित्य की पुस्तक ‘जादू रो पेन’ और आलोचना की पुस्तक ‘बिना हासिलपाई’ पर पुरस्कार ग्रहण करते हुए दिए थे। इनमें उनकी ईमानदारी और मेहनत तो झलकती ही है साथ ही साथ ही अपने साहित्यकार पिता श्री सांवर दइया के प्रति प्रेम और समर्पण का भाव भी छलक-छलक पड़ता है। सृजन-संवाद के लिए डॉ. नीरज दइया को शुभकामनाएं।
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पुस्तक का नाम : सृजन संवाद
विधा – साक्षात्कार ; संस्करण – 2020 पृष्ठ संख्या – 128 ; मूल्य – 300/- रुपए
प्रकाशक – किताबगंज प्रकाशन, सवाई माधोपुर
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राजस्थानी भाषा में अनुवाद की नई लीक
3/07/2021 | No comments |
21 फरवरी को दोपहर 2-00 से 3-00 बजे पीएलएफ के सत्र मेें मातृभाषा दिवस पर 'राजस्थानी भाषा में अनुवाद की नई लीक' विषय पर राजस्थानी के वरिष्ठ लेखक नंद भारद्वाज, श्याम जांगिड़ और शंकरसिंह राजपुरोहित के साथ मैंने भी चर्चा में भाग लिया। इसके लिए पीएलएफ आयोजकों केे प्रति आभार।
Monday, March 01, 2021
डॉ. आईदानसिंह भाटी का स्मृति संसार
3/01/2021 | No comments |
पुस्तक का नाम – स्मृतियों के गवाक्ष (संस्मरण संग्रह)
कवि – आईदानसिंह भाटी
प्रकाशक – रॉयल पब्लिकेशन, जोधपुर
पृष्ठ- 144
संस्करण - 2020
मूल्य- 300/-
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डॉ. नीरज दइया की प्रकाशित पुस्तकें :
हिंदी में-
कविता संग्रह : उचटी हुई नींद (2013), रक्त में घुली हुई भाषा (चयन और भाषांतरण- डॉ. मदन गोपाल लढ़ा) 2020
साक्षात्कर : सृजन-संवाद (2020)
व्यंग्य संग्रह : पंच काका के जेबी बच्चे (2017), टांय-टांय फिस्स (2017)
आलोचना पुस्तकें : बुलाकी शर्मा के सृजन-सरोकार (2017), मधु आचार्य ‘आशावादी’ के सृजन-सरोकार (2017), कागद की कविताई (2018), राजस्थानी साहित्य का समकाल (2020)
संपादित पुस्तकें : आधुनिक लघुकथाएं, राजस्थानी कहानी का वर्तमान, 101 राजस्थानी कहानियां, नन्द जी से हथाई (साक्षात्कार)
अनूदित पुस्तकें : मोहन आलोक का कविता संग्रह ग-गीत और मधु आचार्य ‘आशावादी’ का उपन्यास, रेत में नहाया है मन (राजस्थानी के 51 कवियों की चयनित कविताओं का अनुवाद)
शोध-ग्रंथ : निर्मल वर्मा के कथा साहित्य में आधुनिकता बोध
अंग्रेजी में : Language Fused In Blood (Dr. Neeraj Daiya) Translated by Rajni Chhabra 2018
राजस्थानी में-
कविता संग्रह : साख (1997), देसूंटो (2000), पाछो कुण आसी (2015)
आलोचना पुस्तकें : आलोचना रै आंगणै(2011) , बिना हासलपाई (2014), आंगळी-सीध (2020)
लघुकथा संग्रह : भोर सूं आथण तांई (1989)
बालकथा संग्रह : जादू रो पेन (2012)
संपादित पुस्तकें : मंडाण (51 युवा कवियों की कविताएं), मोहन आलोक री कहाणियां, कन्हैयालाल भाटी री कहाणियां, देवकिशन राजपुरोहित री टाळवीं कहाणियां
अनूदित पुस्तकें : निर्मल वर्मा और ओम गोस्वामी के कहानी संग्रह ; भोलाभाई पटेल का यात्रा-वृतांत ; अमृता प्रीतम का कविता संग्रह ; नंदकिशोर आचार्य, सुधीर सक्सेना और संजीव कुमार की चयनित कविताओं का संचयन-अनुवाद और ‘सबद नाद’ (भारतीय भाषाओं की कविताओं का संग्रह)
नेगचार ई-पत्रिका : लारला अंक
आंगळी-सीध
आलोचना रै आंगणै
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- Multilingual Poets’ Meet on the occasion of World ...
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- मनोहर सिंह राठौड़
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