Sunday, March 21, 2021

Monday, March 15, 2021

कविताओं में ईश्वर होने के मायने की तलाश / डॉ मदन गोपाल लढ़ा

सुप्रसिद्ध कवि एवं संपादक सुधीर सक्सेना अपनी रचनात्मकता के साथ-साथ यायावरी के लिए भी जाने जाते हैं। उन्होंने एक यायावर के रूप में दुनिया को जोड़ने का कार्य किया है। डॉ. नीरज दइया ने अनुवाद के माध्यम से उनकी कविताई को राजस्थानी भाषा से जोड़ दिया है। सुधीर सक्सेना की प्रतिनिधि कविताओं के संग्रह ’अजेस ई रातो है अगूण’ के बाद अब उनके कविता संग्रह ’ईश्वर: हां, नीं...तो’ का राजस्थानी अनुवाद के रूप में आना बहुत सुखद है। यह राजस्थानी मिट्टी की तासीर ही है कि अब सुधीर सक्सेना किसी दूसरी भाषा के कवि नहीं लगते बल्कि ठेठ राजस्थानी कवि के रूप अपनी उपस्थिति दर्ज करवाते हैं। एक कवि का भाषायी दायरों को लांघकर इस तरह पाठक-मन में जगह बनाना अनुवाद व कविताई की साख बढ़ाने वाला है।

ईश्वर को लेकर दुनिया भर की भाषाओं में इतना कुछ लिखे जाने के बाद भी वह अज्ञात-अगोचर है। यह दुनिया किसने बनाई है तथा इसका संचालन करने वाला कौन है? वह कौन है जो अनगिनत जीवों में जीवन-ऊर्जा भरता है? वह कौन है जो फूल-पत्तियों में विभिन्न रंगों के रूप में खिलता है। जन्म से पहले व मृत्यु के बाद के जीवन व सृष्टि के गूढ़ रहस्यों को जानने की आदिम आकांक्षा अनादिकाल से मानव-मन को मथती रही है। इसी जिज्ञासा की काव्यात्मक अभिव्यक्ति है आलोच्य कविता संग्रह ’ईस्वरः हां, नीं...तो’। इन कविताओं में कवि ने परम सत्ता के साथ सीधा संवाद स्थापित किया है। कभी वह ईश्वर से सवाल करता है तो कभी ईष्वरीय सत्ता की चिन्ताओं में सहभागी बनता है। कहीं ईश्वर के तौर-तरीकों से नाराज हो जाता है तो कहीं उससे प्रार्थना करने लगता है। खास बात यह है कि सुधीर सक्सेना का ईश्वर किसी पंथ विशेष या कर्मकाण्ड के बंधनों में बंधा हुआ नहीं है। वह इन सबसे ऊपर व सर्वव्यापक है। ईश्वर के दुखों का हिसाब संभवत- हिन्दी की समकालीन कविता में पहली बार ही लिखा गया होगा- “माई लाई मांय थे ई नापाम सूं दागीज्या/हिरोशिमा में हिवाकुशा दांई/रेडियोधर्मिता सूं घायल/ईस्वर/आजै तांई थांरै दुखां रो छेड़ो कोनी / कै हिंसाळू अर अराजक बगत है ओ“। यहाँ कभी कवि ईश्वर के अथाह दुखों के निवारण की अरदास करता है तो कभी उसके अकेलेपन को तोड़ने की चिंता करता है। इससे भी आगे बढ कर वह ईश्वर के लिए एक आचार-संहिता लिखी जाने को जरुरी समझता है। कहना न होगा, इन कविताओं का आत्मीयतापूर्ण पाठ पाठक को एक ऐसे भाव-लोक में ले जाता है जहाँ ईश्वर अपनी अलौकिकता से बाहर निकलकर उसके बराबर खड़ा महसूस होता है। कविताओं से गुजरने के बाद भी उनकी अनुगूँज पाठक के मन में बनी रहती है जो किसी भी काव्य-रचाव की सफलता का एक निकष कहा जा सकता है। निष्चय ही यह गूँज ही कवि के बहाने हर संवेदनशील व्यक्ति के मन में उठने वाले ऐसे सवालों का उत्तर खोजने का मार्ग प्रशस्त करती है।
एक अनुवादक के लिए यह सबसे बड़ी चुनौती होती है कि वह मूल रचना की आत्मा को ठेस पहुँचाए बिना इतनी खूबसूरती के साथ भाषांतर करें कि पाठक को पता ही न चलें। इन कविताओं को पढ़ते समय लगता कि हम राजस्थानी में मौलिक रचाव को बांच रहे हैं। निश्चित रूप से इसके लिए अनुवादक के साथ डॉ.नीरज दइया का समर्थ कवि-मन श्रेय का हकदार है। प्रसिद्ध कथाकार बुलाकी शर्मा की यह बात सोलह आना खरी है कि जो कवि और अनुवादक है वह उन रचनाओं को अपनी भाषा के पाठकों तक पहुँचाना जरूरी समझता है जो उस भाषा के कथ्य, बुणगट व चिंतन आदि के स्वरूप के बारे में नए तरीके से सोचने के लिए विवष करें। मायड़ भाषा के चर्चित कथाकार-पत्रकार मनोज कुमार स्वामी को समर्पित इस कविता संग्रह से राजस्थानी अनुवाद का सफरनामा दो फलांग आगे बढ़ा है इसमें संदेह नहीं है। प्रफुल्ल पळसुलेदेसाई के मनमोहक आवरण चित्र व गौरीशंकर आचार्य की लाजवाब साज सज्जा के साथ बेहतरीन छपाई-बंधाई वाली इस कृति को पाठकों तक पहुंचाने के लिए सूर्य प्रकाशन मंदिर साधुवाद का अधिकारी है।
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'ईस्वर: हां, नीं..तो' (सुधीर सक्सेना की कविताओं का राजस्थानी अनुवाद) अनुवादक: नीरज दइया, सूर्य प्रकाशन मंदिर, बीकानेर, प्रथम संस्करण 2021, पृष्ठ 80, मूल्य 200₹
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डॉ मदन गोपाल लढ़ा

Sunday, March 14, 2021

प्यास के मरुथल का इतिहास / डॉ. नीरज दइया

मनुष्य-जीवन किसी तिलस्मी पहेली की भांति अनादिकाल से चुनौतीपूर्ण विषय रहा है। जीवन की महायात्रा कब से चल रही है? जीवन का गूढ़ रहस्य क्या है? इसके अनेक उतार-चढ़ाव और झंझावात हैं तो यह कितने यथार्थ और काल्पनिकता का मिश्रण है। सच-झूठ और सुख-दुख का लंबा इतिहास है फिर से यह मन किससे पूछे और यह पूछना भी कितना सार्थक है। निर्थकता के बीच असार जीवन में सार की दिशा हमें ज्ञात भी है अथवा हम अज्ञात दिशाओं में जीवन भर भ्रमित होते रहते हैं। ऐसी ही कुछ पृष्ठभूमि लिए और अपने पूरे विषय को गहना से समेटती हुई डॉ. मंगत बादल की यह काव्य-कृति- ‘साक्षी रहे हो तुम’ अनुपम रचना है। इस में कवि ने अनंत जीवन के गूढ़ रहस्य को बहुत सधी हुई भाषा में जानने-समझने का पुनः पुनः काव्यात्मक उपक्रम किया है। इसे एक काव्य-प्रयोग कहना अधिक उचित होगा। आरंभिक पंक्तियां देखें-
हे अनंत! हे काल!
महाकाल हे!
हे विराट!
यह महायात्रा चल रही कब से
नहीं है जिसका प्रारंभ
मध्य और अंत
केवल प्रवाह...
प्रवाह!
यह रचना इसी प्रवाह और निरंतर प्रवाह में स्वयं कवि के साथ अपने पाठकों को भी प्रवाहित और प्रभावित करते हुए चलती है। इसे एक संबोधन काव्य कहना उचित होगा। यह निसंदेह अनंत, काल, महाकाल और विराट को संबोधित है किंतु इन सभी के अंशी आत्म रूपा हमारी आत्मा को भी प्रकारांतर से संबोधित काव्य है। कवि ने ज्ञान, विज्ञान और इतिहास की विभिन्न अवधारणाओं का न केवल स्पर्श किया है वरन उन विराट अवधारणाओं को विराट रूप में ग्रहण करते हुए हमें इस संबंध में अनेक विकल्पों के साथ अपने उत्स के प्रश्न से जूझने और जानने की अकुलाहट-बेचैनी और गहन त्रासदी के भंवर में खड़े होने और खड़े रहने का आह्वान किया है। यह एक भांति से हमारा आत्म-साक्षात्कार है। इसमें प्रकृति के विविध अंगों-उपांगों में कवि के साथ पाठक भी अपने परिचय और पहचान को ढूंढ़ते हुए अपनी महायात्रा में उमड़ते हुए जैसे बरसने लगता है। इस महायात्रा के विषय में यह पंक्ति इसके विस्तार को जैसे शब्दबद्ध करतीं हुई भले हमारी गति के विषय में संदेह देती है किंतु विचार को एक दिशा देती है। यह रचना एक प्यास है और जो प्यास के मरुस्थल का इतिहास अपनी समग्रता-सहजता में अभिव्यक्त करती है।
गगन, पावक, क्षिति, जल
और फिर
चलने लगे पवन उनचास
निःशब्द से शब्द
आत्म से अनात्म
सूक्ष्म से स्थूल
अदृश्य से दृश्य
भावन से विचार की ओर।
निशब्द से शब्द, आत्म से अनात्म, सूक्ष्म से स्थूल, दृश्य से अदृश्य अथवा भावना से विचार का यह एक लंबा गीत है। पाठक प्रश्नाकुल होकर इस दिशा में विचार करने लगता है कि वास्तव में जीवन का रहस्य क्या है? आत्मीय स्पर्श से भरपूर यह एक कवि का आत्मा-संवाद है और इसमें कवि की स्थिति में पाठक का पहुंचना इसकी सार्थकता है। यह छोटे मुंह से बहुत बड़ा सवाल है कि पृथ्वी को गति कौन देता है? हमारी गति और पृथ्वी की गति के मध्य सापेक्षता के विषय में विचार होना चाहिए। असीम के बीच हमारी मानव जाति की सीमाओं के संबंध में यह भले नया विचार ना हो किंतु इस कठिन डगर पर चलना भी बेहद कठिन है। एक आदिम प्रश्न को लेकर उसको नई कविता के शिल्प में पाठकों को बांधते हुए निरंतर किसी दिशा में प्रवाहित होना अथवा प्रवाहित किए रखना एक कौशल है जिसे कवि डॉ. मंगत बादल की निजी उपलब्धि कहना होगा। कवि कहता है-
साक्षी रहे हो तुम
इन सब के होने के
पुनः लौट कर
बिंदु में सिंधु के
तुम ही तो हो
ब्रह्मा, स्रष्टा, प्रजापति, रचयिता
पालन कर्त्ता विष्णु
तुम ही आदिदेव
देवाधिदेव! शिव!
त्रिदेव! हे प्रणवाक्षर!
यह एक प्रार्थना गीत भी है जो स्वयं की तलाश में जैसे भटकते भटकते कहीं पहुंचने को व्याकुल और आतुर है। हमारे धार्मिक मिथकों और विश्वासों के बीच अपने होने और न होने के विषय पर चिंतन करते हुए यहां कवि की निरंतर अभिलाषा अभिव्यक्त हुई है कि वह किसी बिंदु पर स्थिर हो जाए। अनेक बिंदुओं और अनेक धाराओं के बीच किसी एक दिशा में कोई कैसे प्रवाहित रह सकता है। प्रकृति के एक अंश के रूप में यह किसी अनाम और नाम के जाल में उलझे एक वनफूल का अपने पूरे रहस्यमयी पर्यावरण से प्रश्न है।
कौन है मेरे होने
या नहीं हूंगा तब
कारण दोनों का
साक्षी हो तुम, बोलो!
रहस्य पर पड़े आवरण खोलो!
यहां कर्म और भाग्य फल के साथ मनुष्य जीवन के अनेक स्मरण है जिसमें आत्मा और अनात्मा के बीच अस्थित्ववाद और चेतन-अचेतन के द्वारों को खटकाते हुए अनेक रंग बिखरे हुए हैं। यह अपने अर्थ को अर्थ की दीवारों की परिधि से बाहर झांकने का सबल प्रयास है।
आत्मा भी क्या
आकार कर धारण
शब्द का कहीं
बैठी है
अर्थ की दीवारों के पार?
इस कृति की आत्मीयता और विशिष्टता का प्रमाण यह भी है कि कवि ने अध्ययन-मनन-चिंतन द्वारा विभिन्न अवधारणाओं से ना केवल परिचित करते हुए अपने द्वंद्व व्यंजित किए है वरन उन सब में हमारे भी प्रश्नाकुलित मन को शामिल किया है। यहां परंपरा और मिथकों की साक्षी में कर्म और भाग्य के अनेक प्रश्न बहुत सुंदर ढंग से प्रस्तुत हुए हैं। आत्मा-परमात्मा, विनाश-महाविनाश के बाद फिर-फिर जीवन की अवधारणा के विभिन्न स्तर यहां प्रभावित करने वाले हैं। आत्मा और शरीर के मध्य क्या और कैसा संबंध है इसकी झलक देखना जैसे कवि का एक उद्देश्य रहा है। यह पग-पग पर संदेह और भटकाव का अहसास भी है तो कुछ पाने की छटपटाहट भी, इसलिए कवि ने कहा है-
मृत्यु-भीत मानव का
बैद्धिक-विलास
कोरा वाग्जाल मृगजल...
या प्रयास यह उसे जानने का
समा गया जो
गर्भ में तुम्हारे
छटपटा रहा किंतु
मनुष्य के
ज्ञान के घेरों में आने को।
जीवन और मृत्यु के दो छोरों के बीच यह गति अथवा किसी ठहराव, भटकन को उल्लेखित करती पूरी कविता जैसे नियति और जीवन को बारंबार परिभाषित करती है। यहां कवि की कामना है कि प्रत्येक जीवन अपने आप में परिपूर्ण और उद्देश्यपूर्ण हो।
अस्तु यह कृति जाग और नींद के मध्य एक पुल निर्मित कर जड़ और चेतना के बीच बिलखती काव्य-आत्मा का ही प्रलाप और हाहाकार है। यह अपनी हद में अनहद की यात्रा है। यह प्रकाश और अंधकार के बीच अपनी नियति की तलाश है- ‘अंधकार का अंश होना ही / क्या अंतिम नियति है मेरी?’ अथवा ‘बदल जाएंगी भूमिकाएं / हम सब की / बदल जाएगा यह रंगमंच / नहीं बदलोगे केवल तुम!’
यह जीवन हमारा जागरण है अथवा पूरा जीवन ही एक निद्रा है। यह रहस्य वह सर्वज्ञ ही जानता है जिसने इस जटिल मार्ग पर चलने की कवि को प्रेरणा दी है। अकूत संभावनाओं से भरे इस पूरे इतिवृत्त को ‘काल महाकाव्य’ के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। हमारे रचयिता के संबंध में यह एकालाप अथवा प्रलाप ‘मनुष्य’ को जानने-समझने का अनूठा उपक्रम है। किसी तयशुदा निकस पर कवि हमें नहीं ले कर जाता वरन वह जीवन के रहस्य को पहचानने का अलग अलग बिंदुओं दृष्टिकोणों से आह्वान करता है। इस रूप में यह काव्य-रचना एक आह्वान-गीत भी है कि हम स्वयं को जाने, हम क्या हैं? इसका पाठ अपने आत्म और उत्स के अनेक आयामों को खोजना और सांसारिक सत्यों के साथ आत्म-साक्षात्कार करना तो है ही, साथ ही साथ जन्म-मरण और पुनर्जन्म की अबूझ पहेली में उतराना-डूबना, फिर-फिर उतराना-डूबना भी है। निसंदेह यह रचना दीर्घ कविता के क्षेत्र में अपनी विषय-वस्तु, शिल्प-संरचना और भाषा-पक्ष के लिए लंबे समय तक एक उपलब्धि के रूप में स्मरण की जाएगी।
- डॉ. नीरज दइया 


Saturday, March 13, 2021

Thursday, March 11, 2021

समकालीन राजस्थानी साहित्य का विहंगम परिदृश्य

पुस्तक परिचय  डॉ. सत्यनारायण सोनी


'राजस्थानी साहित्य का समकाल' समकालीन राजस्थानी साहित्य पर केंद्रित हिंदी में आलोचनात्मक पुस्तक है। डॉ. नीरज दइया कृत इस पुस्तक में गत वर्षों में आधुनिक राजस्थानी साहित्य और भाषा मान्यता के संबंध में बारह आलेखों को संकलित किया गया है। राजस्थानी भाषा की मान्यता के सवाल से लेखक नीरज दइया ने अपनी बात आरंभ करते हुए समकालीन राजस्थानी साहित्य की विविध विधाओं के विकास को व्यापकता से रेखांकित करते हुए एक विहंगम परिदृश्य प्रस्तुत किया है।
पुस्तक के तीन आरंभिक आलेखों में राजस्थानी भाषा के मान्यता मुद्दे को बहुत सुंदर ढंग से प्रस्तुत करते हुए विद्वान लेखक ने राजस्थानी के चाहने वालों के समक्ष ठोस आधार भूमि प्रस्तुत की है। इन आलेखों में बहुत विनम्र भाषा में सटीक तर्क के साथ भाषा विज्ञान को आधार बनाते हुए अनेक महत्त्वपूर्ण जानकारियां और अपना पक्ष लेखक ने रखा है। राजस्थानी एक संपूर्ण और समृद्ध भाषा है, इसके साक्ष्य को अनेक बिंदुओं में इस कृति में प्रस्तुत किया गया है।
प्रस्तुत पुस्तक के लेखक नीरज दइया की यह विशेषता है कि वे अपने आलोचनात्मक आलेखों में इस बात का विशेष आग्रह रखते हैं कि उनके उदाहरण और पक्ष-विपक्ष की तमाम बातें हमारे आस-पास के और अपनी ही भाषा के साहित्य से प्रस्तुत की जाए। अन्य विद्वान समालोचकों की भांति अनेक प्रख्यात देशी-विदेशी लेखकों के कथनों की भरमार नहीं प्रस्तुत कर लेखक ने केवल और केवल अपने मुद्दे की बात अपने अंदाज में की है जो प्रभावित करता है और संप्रेषित भी अधिक होता है। लेखक ने अपने समकाल और समकालीन साहित्य को सम्यक दृष्टि से देखने-समझने और परखने का महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। इस कृति में मुख्य रूप से साहित्य की केंद्रीय विधाओं को विमर्श का विषय बनाया गया है।
आलोचक डॉ. नीरज दइया की इस कृति का महत्त्व दो दृष्टियों से किया जा सकता है, जिसमें पहला साहित्य के विकास और प्रवाह के महत्त्वपूर्ण आयामों को सहेजते हुए सम्यक रूप प्रस्तुत करना, वहीं दूसरा और अधिक महत्त्वपूर्ण विधाओं के तकनीकी पक्षों को रचनाओं के माध्यम से प्रस्तुत करते हुए रचनात्मक आरोह-अवरोह को रेखांकित करना। उपन्यास और कहानी में अंतर को दर्शाने वाले आलेख के अंतर्गत दोनों विधाओं के तात्विक अंतर को जहां सूक्ष्मता से स्पष्ट किया गया है, वहीं इस आलेख में न केवल राजस्थानी साहित्य वरन इसकी परिधि में संपूर्ण साहित्य के समकाल को देखने-परखने के आयाम भी उद्घाटित होते हैं। किसी भी रचना में भाषा का अवदान महत्त्वपूर्ण होता है, भाषा की सहूलियत और सहूलियत की भाषा आलेख में उपन्यासों पर अपनी बात को केंद्रित करते हुए लेखक ने राजस्थानी उपन्यास विधा में भाषिक-तत्व को गहनता से विवेचित किया है। राजस्थानी कहानी के संबंध में इस कृति में तीन आलेख संकलित किए गए हैं, जिनमें राजस्थानी कहानी के कदम दर कदम विकास के साथ उसमें होने वाले शिल्प और संवेदना के स्तर पर बदलावों और उनके अनेक पक्षों का सुंदर विवेचन भी किया गया है।
आधुनिक समकालीन कविता के साथ ही युवा कविता स्वर का भी सम्यक विश्लेषण दो आलेखों में प्रस्तुत किया गया है। इन आलेखों में अपने समकालीन लेखकों पर लिखते हुए लेखक ने जहां निर्ममता दिखाई है, वहीं रचनात्मक सबल पक्षों के प्रस्तुतीकरण में अपने साथी और पूर्ववर्ती पीढ़ी के रचनाकारों की भरपूर सराहना भी पुस्तक में देख सकते हैं। अंतिम आलेख के रूप में उस अभिभाषण को संग्रह में स्थान दिया गया है जो आलोचक डॉ. नीरज दइया ने साहित्य अकादेमी मुख्य पुरस्कार को ग्रहण करने के बाद नई दिल्ली में दिया था। इसमें उन्होंने अपनी साहित्यिक यात्रा और आलोचनात्मक दृष्टि के बारे में उदाहरणों के साथ अपनी आत्मीयता और भाषा के प्रति लगाव को अभिव्यंजित किया है। पुस्तक के फ्लैप पर डॉ. मदन गोपाल लढ़ा के इस मत से सहमत हुआ जा सकता है- 'भारतीय भाषाओं के बीच राजस्थानी साहित्य की समालोचना की यह पहल नई होने के साथ सार्थक भी है।'
यह पुस्तक न केवल राजस्थानी में रुचि रखने वाले पाठकों-शोधार्थियों के उपयोगी एवं महत्त्वपूर्ण है, वरन भारतीय भाषाओं के तुलनात्मक अध्ययन के लिए भी पर्याप्त महत्त्व रखती है। लेखन नीरज दइया का मानना है कि भारतीय साहित्य का पूरा परिदृश्य भारत की सभी भाषाओं के समकालीन साहित्य से निर्मित होता है और इस क्रम में यदि समकालीन राजस्थानी साहित्य को किसी एक पुस्तक के जरिए जानना हो तो यह पुस्तक जरूरी है।

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राजस्थानी साहित्य का समकाल (आलोचना) डॉ. नीरज दइया
संस्करण : 2020; मूल्य : 200/-; पृष्ठ : 128
प्रकाशक : सूर्य प्रकाशन मंदिर, दाऊजी रोड, बीकानेर।
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डॉ. सत्यनारायण सोनी, प्रधानाचार्य,  राउमावि, टोपरियां,
तहसील : नोहर, जिला : हनुमानगढ़ (राजस्थान) 335523
मो. 7014967603


Sunday, March 07, 2021

मात खा गए हैं मियां / नीरज दइया

मियां, तुम जरा भोले हो...

नासमझ हो...

जरा-जरा-सी बात पर

सोचते बहुत हो

जो हुआ सो हुआ

उसे लेकर नहीं बैठते

चलो सब भूल जाओ...

सुना तुमने, क्या कह रहे हैं हम?

तुम्हें पहले भी समझाया था,

अब भी कहते हैं-

मियां, दिल से जुड़ने की जरूरत नहीं

बस ‘हां-हां’ किया करो

कभी ‘हूं-हां’ से चलाया करो काम

हमें नहीं देखते...

हम भी तो यही करते हैं।

सुन रहे हो मियां....?

सुन रहे हो हम क्या फरमा रहे हैं?

 

मियां, अब कैसे कहे-

मियां को प्रोब्लम है-

बेदिल होना नहीं जानते !

मियां के पास

बहुत कुछ है- कहने-सुनाने को

अब सारी कहानियां दबाए

मियां गुमसुम और उदास है

कुछ सोचते हुए-

‘हां-हां’ और ‘हूं-हां’ की दुनिया में

मात खा गए हैं मियां।

०००

 

राजस्थानी साहित्य का व्यापक परिदृश्य : सृजन संवाद / डॉ.. मंगत बादल

नीरज दइया की नई पुस्तक आई है ‘सृजन संवाद’। इस पुस्तक में उनके द्वारा लिए गए कुल दस राजस्थानी साहित्यकारों के साक्षात्कार हैं जो केंद्रीय साहित्य अकादमी नई दिल्ली द्वारा पुरस्कृत हो चुके हैं। श्री कन्हैया लाल सेठिया, श्री मोहन आलोक, श्री यादवेंद्र शर्मा ‘चंद्र’, अर्जुनदेव चारण, डॉ. कुंदन माली, मंगल बादल, श्री अतुल कनक, डॉ. आईदान सिंह भाटी, श्री मधु आचार्य, श्री बुलाकी शर्मा के साक्षात्कार समाहित है। साथ ही सात रचनाकारों द्वारा समय-समय पर लिए गए डॉ. नीरज दइया के साक्षात्कार एवं उनका आत्मकथा भी प्रकाशित है। जिससे पुस्तक की उपादेयता कुछ और बढ़ जाती है।
‘साक्षात्कार’ विधा का विकास हिंदी भाषा में अंग्रेजी भाषा से हुआ है। हालांकि संस्कृत में गुरु-शिष्य संवाद, शुक-शुकी संवाद, रामचरित मानस में की राम कथा चार वक्ताओं और चार श्रोताओं के माध्यम से आगे बढ़ती है किंतु इससे पाठक को रचनाकार के विषय में कुछ भी मालूम नहीं पड़ता जबकि साक्षात्कार के माध्यम से साक्षात्कार कर्ता रचनाकार की उन सच्चाइयों से भी रू-ब-रू कराता है जो रचना एवं रचनाकार की पृष्ठभूमि में रह जाती है। साक्षात्कार कर्ता अपने बेधडक प्रश्नों के माध्यम से उन धुंधलके को प्रकाश में परिवर्तित कर देता है जो रचनाकार के व्यक्तित्व एवं रचना पर छाया होता है। वह अपनी बेबाक टिप्पणियों एवं निर्मम प्रश्नों के माध्यम से लेखक के भीतर उसी भांति गहरे उतर कर सत्य को तलाश कर लेता है जिस प्रकार कोई गोताखोर समुद्र से मोती। अन्य विधाओं की अपेक्षाकृत यह विधा राजस्थानी भाषा के लिए नई है। यद्यपि पत्र-पत्रिकाओं में राजस्थानी भाषा के साहित्यकारों के साक्षात्कार प्रकाशित होते रहे हैं किंतु पुस्तक रूप में यह पहला प्रयास है। यहां यह भी ध्यातव्य है कि यह पुस्तक राजस्थानी भाषा में ना होकर हिंदी में क्यों है? इसका सीधा सा मतलब है जो पाठक राजस्थानी नहीं पढ़ समझ सकते उन तक इन लेखकों का अवदान पहुंचाने का प्रयास किया गया है। कम से कम हिंदी भाषा भाषी क्षेत्रों तक इन रचनाकारों के साहित्य की जानकारी तो पहुंचे। इस दृष्टि से इस प्रयास को स्तुत्य कहा जा सकता है।
साक्षात्कार करती बार डॉ. नीरज दइया इस बात का पूरा ध्यान रखा है कि रचनाकार अपनी रचनाओं के विषय में खुलकर बतला सके तथा अपनी रचना-प्रक्रिया पर प्रकाश डाल सके। कन्हैया लाल सेठिया हों या मोहन आलोक, कुंदन माली हों या अर्जुन देव चारण सभी से बेबाकी से प्रश्न पूछे हैं। सेठिया जी से तो पुरस्कार ग्रहण न करने और फिर ग्रहण करने के प्रश्न बड़ी निर्ममता से पूछ कर यह जता दिया कि जो आलोचक संबंधों को मध्य नजर रखकर समीक्षा या आलोचना करेगा वह सफल नहीं हो सकता। हां एक बार वाह-वाही अवश्य प्राप्त कर लेता है। इसी प्रकार राजस्थानी भाषा का रचनाकार राजस्थानी के अतिरिक्त हिंदी अथवा किसी इतर भाषा में भी लेखन करता है। इसके प्रत्युत्तर में प्रायः सभी रचनाकारों ने प्रकाशन की अपनी-अपनी चिंता की है। राजस्थानी भाषा की मान्यता को लेकर भी सवाल पूछे गए हैं तथा मान्यता मिलने के बाद की संभावनाओं पर विचार किया गया है। इस प्रकार इन साक्षात्कारों से जो एक दृष्टि बनती है, वह यही कि आज राजस्थानी का रचनाकार रचना करने और भाषा की मान्यता संबंधी दो मर्चों पर एक साथ लड़ रहा है। राजस्थानी का रचनाकार अपने अस्तित्व की इस लड़ाई में साहित्य के प्रत्येक क्षेत्र की न्यूनता को पूर्णता में बदलने के लिए कटिबद्ध है तथा इसके लिए अपनी जेब से पैसे खर्च करके पुस्तकें पुस्तकें प्रकाशित करता है तथा पाठकों तक मुफ्त पहुंचाता है।
पुस्तक का प्रथम भाग ‘अपने आस-पास’ शीर्षक से प्रकाशित है जबकि दूसरा भाग ‘भीतर-बाहर’ और तीसरा भाग ‘आत्मकथ्य’ शीर्षक से। दूसरे भाग में डॉ. नीरज दइया के सात साक्षात्कार हैं जो समय-समय पर वरिष्ठ लेखकों यथा सर्वश्री देवकिशन राजपुरोहित, नवनीत पांडे, डॉ. लालित्य ललित, राजेंद्र जोशी, डॉ. मदन गोपाल लढ़ा, डॉ. लहरी राम मीणा और राजू राम बिजारणिया द्वारा लिए गए हैं। इन साक्षात्कारों में डॉ. नीरज दइया ने केवल अपने रचना-कर्म पर प्रकाश डाला है बल्कि अपने आलोचकीय दृष्टिकोण को भी साफ कर दिया है। उन्होंने जता दिया है कि आलोचना कर्म में अपने-पराए की बात जो लोग करते हैं, वे बकवास करते हैं। यदि आप वास्तव में साहित्यकार हैं तो आपकी नजर में साहित्य ही रहेगा, पारस्परिक संबंध नहीं। ‘आत्मकथ्य’ के अंतर्गत उन्होंने अपने उन दो भाषणों को प्रकाशित किया है जो बाल साहित्य की पुस्तक ‘जादू रो पेन’ और आलोचना की पुस्तक ‘बिना हासिलपाई’ पर पुरस्कार ग्रहण करते हुए दिए थे। इनमें उनकी ईमानदारी और मेहनत तो झलकती ही है साथ ही साथ ही अपने साहित्यकार पिता श्री सांवर दइया के प्रति प्रेम और समर्पण का भाव भी छलक-छलक पड़ता है। सृजन-संवाद के लिए डॉ. नीरज दइया को शुभकामनाएं।

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पुस्तक का नाम : सृजन संवाद
विधा – साक्षात्कार ; संस्करण – 2020 पृष्ठ संख्या – 128 ; मूल्य – 300/- रुपए
प्रकाशक – किताबगंज प्रकाशन, सवाई माधोपुर
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राजस्‍थानी भाषा में अनुवाद की नई लीक


21 फरवरी को दोपहर 2-00 से 3-00 बजे पीएलएफ के सत्र मेें मातृभाषा दिवस पर 'राजस्थानी भाषा में अनुवाद की  नई लीक' विषय पर राजस्थानी के वरिष्ठ लेखक नंद भारद्वाज, श्याम जांगिड़ और शंकरसिंह राजपुरोहित के साथ मैंने भी चर्चा में भाग लिया। इसके लिए पीएलएफ आयोजकों केे प्रति आभार।



 


Monday, March 01, 2021

डॉ. आईदानसिंह भाटी का स्मृति संसार

साहित्य संसार में आज डॉ. आईदानसिंह भाटी एक प्रमुख और जाना-पहचाना नाम है। अनेक पुरस्कारों और सम्मानों से सम्मानित लब्धप्रतिष्ठित यह कवि-आलोचक अपनी मित्र-मंडली में आईजी के नाम से विख्यात है। साद्य कृति ‘स्मृतियों के गवाक्ष’ में ना केवल आपके विगत जीवनानुभवों का सुंदर संयोजन है वरन यहां हमें स्मृतियों में अभिव्यक्त होता आईजी का आत्मीय संसार भी दृष्टिगोचर होता है। इस कृति के माध्यम से हम यह भी जान सकते हैं कि किसी लेखक के रचना-संसार के समानांतर उसकी स्वयं की दुनिया में कितनी-कैसी आशाएं-निराशाएं, संबंध-संपर्क और साथी रचनाकारों से अपनापा होता है।
‘स्मृतियों के गवाक्ष’ में सत्राह संस्मरणों को संकलित किया गया है, इनके संदर्भ में लेखन ने पुस्तक के पूर्व स्पष्ट किया है- ‘ये संस्मरण डेढ़ से तीन दशक पुराने हैं। यादों की पगड़ंडियां तो बचपन की है, जिसमें मेरी ढाणी ठाकरबा गांव नोख और बाप गांव तक सीमित है, किंतु यादों के गवाक्ष जोधपुर की सड़कों पर आने के बाद खुलते हैं।’ संस्मरण विधा की अन्य पुस्तकों की भांति यहां भी आईजी की लेखकीय दुनिया की सुनहरी यादें हैं, जिनमें उनके जोधपुर, बाड़मेर, जैसलमेर जैसे कर्मस्थलों की सुवास महकती है तो साथ ही यहां एक गांवाई विद्यार्थी अपने जीवन में कैसे सफल हुआ, वह कैसे अपने संसार में स्वयं को गढ़ता है या उसकी दुनिया उसे बनाती है इसके भी अनेक सूत्र यहां मौजूद हैं।
यह पुस्तक हमें लेखक डॉ. आईदान सिंह भाटी के हवाले बाबा नागार्जुन, डॉ. नामवर सिंह, डॉ. विमल, नेमीचंद भावुक, हरीश भादानी, शिवरतन थानवी, बिज्जी, दीनदायल ओझा, विभूतिनारायण राय, शिवमूति, सत्यनारायण, डॉ. शाहिद मीर, प्रो. नईम, रघुनंदन त्रिवेदी आदि प्रख्यात हिंदी, राजस्थानी और उर्दू भाषा के विद्वानों, रचनाकारों-आलोचकों से मिलवाने का सुंदर उपक्रम करती है। अपने छात्र-जीवन के संघर्षों-कठिनाइयों के साथ यहां आईजी अपने ‘रस-प्रसंग’ को भी उजागर करने से गुरेज नहीं करते हैं। अपने स्नेहिल गुरुजनों, मित्रों और साथी रचनाकारों का स्मरण करते हुए कहीं कहीं उनका आलोचक रूप मुखरित होकर कृतियों और रचनाओं से भी हमारा परिचय करवाता है, तो कहीं इन प्रसंगों के सुंदर वार्तालाप के साथ पत्र-संवाद से भी हमें आनंदित करता है। बेशक आईजी की पहचान श्रुति परंपरा के वरेण्य कवि के रूप में होती रही हैं, किंतु यहां उनके गद्य में उनका आलोचक और बेहद आत्मीय चेहरा दिखाई देता है जिससे संबंधों को निभाने और गुणगान का हुनर सीखा जा सकता है। किसी भी बेहतर संस्मरण कृति की प्रमुख विशेषता होती है कि वह जिस जिस को उल्लेखित करे, उसे पूरी ऊर्जा के साथ रेखांकित करते हुए स्वयं को गौण रखे और यही विशिष्टता ‘स्मृतियों के गवाक्ष’ कृति को प्रमुख बनाती है। इस कृति के पाठ से हम अपने प्रिय लेखक-कवि आईजी के अनछुए, अज्ञात अथवा अल्पज्ञात अनेक पहलुओं को जान सकते हैं।
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डॉ. नीरज दइया
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पुस्तक का नाम – स्मृतियों के गवाक्ष (संस्मरण संग्रह)
कवि – आईदानसिंह  भाटी
प्रकाशक – रॉयल पब्लिकेशन, जोधपुर
पृष्ठ- 144
संस्करण - 2020
मूल्य- 300/-
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आभार : राजस्थान पत्रिका टीम

डॉ. नीरज दइया की प्रकाशित पुस्तकें :

हिंदी में-

कविता संग्रह : उचटी हुई नींद (2013), रक्त में घुली हुई भाषा (चयन और भाषांतरण- डॉ. मदन गोपाल लढ़ा) 2020
साक्षात्कर : सृजन-संवाद (2020)
व्यंग्य संग्रह : पंच काका के जेबी बच्चे (2017), टांय-टांय फिस्स (2017)
आलोचना पुस्तकें : बुलाकी शर्मा के सृजन-सरोकार (2017), मधु आचार्य ‘आशावादी’ के सृजन-सरोकार (2017), कागद की कविताई (2018), राजस्थानी साहित्य का समकाल (2020)
संपादित पुस्तकें : आधुनिक लघुकथाएं, राजस्थानी कहानी का वर्तमान, 101 राजस्थानी कहानियां, नन्द जी से हथाई (साक्षात्कार)
अनूदित पुस्तकें : मोहन आलोक का कविता संग्रह ग-गीत और मधु आचार्य ‘आशावादी’ का उपन्यास, रेत में नहाया है मन (राजस्थानी के 51 कवियों की चयनित कविताओं का अनुवाद)
शोध-ग्रंथ : निर्मल वर्मा के कथा साहित्य में आधुनिकता बोध
अंग्रेजी में : Language Fused In Blood (Dr. Neeraj Daiya) Translated by Rajni Chhabra 2018

राजस्थानी में-

कविता संग्रह : साख (1997), देसूंटो (2000), पाछो कुण आसी (2015)
आलोचना पुस्तकें : आलोचना रै आंगणै(2011) , बिना हासलपाई (2014), आंगळी-सीध (2020)
लघुकथा संग्रह : भोर सूं आथण तांई (1989)
बालकथा संग्रह : जादू रो पेन (2012)
संपादित पुस्तकें : मंडाण (51 युवा कवियों की कविताएं), मोहन आलोक री कहाणियां, कन्हैयालाल भाटी री कहाणियां, देवकिशन राजपुरोहित री टाळवीं कहाणियां
अनूदित पुस्तकें : निर्मल वर्मा और ओम गोस्वामी के कहानी संग्रह ; भोलाभाई पटेल का यात्रा-वृतांत ; अमृता प्रीतम का कविता संग्रह ; नंदकिशोर आचार्य, सुधीर सक्सेना और संजीव कुमार की चयनित कविताओं का संचयन-अनुवाद और ‘सबद नाद’ (भारतीय भाषाओं की कविताओं का संग्रह)

नेगचार 48

नेगचार 48
संपादक - नीरज दइया

स्मृति में यह संचयन "नेगचार"

स्मृति में यह संचयन "नेगचार"
श्री सांवर दइया; 10 अक्टूबर,1948 - 30 जुलाई,1992

डॉ. नीरज दइया (1968)
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