Monday, May 18, 2020

तूट्योड़ा सुपनां री संभाळ / डॉ. नीरज दइया

राजस्थानी उपन्यास रै विगसाव मांय कवि-संपादक सीताराम महर्षि (1932-2017) रो लूंठो जगजोग योगदान मानीजै। बरस 1974 मांय बां ‘राष्ट्रपूजा’ वार्षिक पत्रिका काढ़ी। उण बगत उपन्यासां री कमी नै विचारतां संपादक महर्षि जी खुद उपन्यास लिखण लाग्या अर पैलड़ै अंक में ‘लालड़ी एक फेरूं गमगी’ अर दूजै अंक में ‘कुण समझै चंवरी रा कौल’ उपन्यास एकमुश्त छाप्या। ‘राष्ट्रपूजा’ रै तीजै अंक मांय कोई उपन्यास नीं हो, पण चौथे अंक सारू बां रै उपन्यास री घोषणा ही, पण पत्रिका बंद हुयगी। प्रकासक- हरकचंद सरावगी चैरिटेबल ट्रस्ट, गुवाहाटी रै मारफत बरस 2006 मांय दूजै उपन्यास रो दूजो संस्करण अर बां रो गीत संग्रै ‘मछली मन म्हारो’ एकठ पोथी रूप साम्हीं आयो। चोखो तो ओ रैवतो कै इण पोथी मांय बां रा दोनूं उपन्यास साम्हीं आवता। क्यूं कै बां रा दोनूं उपन्यास इण बात री साख भरै कै कवि रूप ख्यात महर्षि जी लूंठा गद्यकार ई हा।
सुतम री बात कै ऊमर रै आधेटै उपन्यास रो काम संभाळ’र बां छोड़ क्यूं दियो? जद कै बां रै दोनूं उपन्यासां मांय गजब री पठनीयता अर कथा कैवण रो साव निरवाळो जोरदार आंटो निगै आवै। म्हनै बां रै कवि रूप सूं सवायो उपन्यासकार रूप लखावै। जद लोककथावां रै साम्हीं घर-गळी-गवाड़ अर देस-दुनिया री बातां ऊभी हुय रैयी ही उण बगत ‘लालड़ी एक फेरूं गमगी’ रै मारफत सीताराम महर्षि एक इसै विसय नै उठावै जिण मांय घणो जोखम हो। सूरज अर नंदा री इण कथा मांय कथा-नायक सूरज परणीज्योड़ो है। आ कथा राजस्थानी रै परंपरागत कथा-साहित्य रै गळै उतरण आळी कोनी ही। इण नै रचता थकां बां रो कवि अर दार्शनिक रूप ई देख्यो जाय सकै। उपन्यास री नायिका रेणु एक ठौड़ कैवै- ‘मिनख आपरै हाथां मांय प्रीत री जिकी लालड़ी ल्हुकायोड़ी राखै, बा दुनिया री निजर सूं जरूर ओळै रैय जावै, पण काळ री आंख तो उणनै देख ई लेवै। काळ री बाळणजोगतोड़ी निजर पड़तां ई मिनख री हथेळी आपूं-आप खुल जावै अर पछै प्रीत री बा लालड़ी हमेसा-हमेसा खातर गम जाया करै। इण भांत गम्योड़ी प्रीत री बा लालड़ी एकर गम्यां पछै किणी नै पाछी को लाध्या करै नीं। इणरै उपरांत भी मिनख जींवतो रैवै अर एक बणावटी मुळक नै आपरै होठां उपरां सजायां जूण रा कोड-चाव करतो-सो लखायीजै।’
दूजो दाखलो-
- क्यूं? जूण मांय जे सुपनां नीं रैवै तो बा रीती-जिंदगानी एक मोटो भार बणनै रैय जावै।
-ना। सुपनां लेवणियां री जूण ई भार बण जावै है! जिका किणी भांत रा सुपनां नीं लेवै, बै घणा सुखी रैवै। पण जिका सुपनां लेवै अर बै पूरा नीं होवै तो बां री आखी जूण ई आंसुवां मांय गळ जावै।
- पण कोई मिनख सुपनां नीं लेवै, आ कियां होवण सकै।
‘लालड़ी एक फेरूं गमगी’ अर ‘कुण समझै चंवरी रा कौल’ असल मांय मिनख रै इणी कीं सुपनां रो बहीखातो खोल’र दिखावै। उपन्यासकार सीताराम महर्षि आं दोनूं उपन्यासां रै मारफत मिनखा जूण रै इणी तूट्योड़ा सुपनां री संभाळ करता निजर आवै। सूरज अर नंदा री मुलाकात सिमला मांय हुवै अर बां री जूनी सैंध रै सागै केई-केई कहाणियां निकळै। अठै आधुनिकता आ कै दोय खुलै विचारां रा मिनख-लुगाई सूरज-नंदा आपरै अंतस नै खोल’र एक दूजै साम्हीं राखै जद बै जाणै चकवै-चकवी दांई आपू-आप री घरबीती मांड’र सुणावै। ओ कथा नै कैवण अर कथा नै खोलण रो भाव उपन्यासकार भासा मांय रचै कै बांचणियां नै सोचणो पड़ै आगै कांई हुवैला। केई वेळा कथा रो अंजाम ई आपां नै मालम हुवै पण उण रै कैवणगत मांय बिचाळै इण ढाळै री केई बातां हुवै जिण नै छोड़ी नीं जाय सकै। बुणगट री आ झीणी कारीगरी कविता भेळै नूंवै विचारां रा धारा सूं केई सवालां कानी लेय’र जावै। ऐ बै बातां अर सवाल है जिण सूं मिनख बचणो चावै।
बा छिणेक चुप रैयनै कैयो हो : लोग कैवै है क आपां आपसरी प्रेम करां हां
- तो इण मांय झूठ भी के है? आपणै बिचाळै प्रेम रो ई तो एकलो सगारथ है। प्रेम नी होंवतो तो आपां नित-हमेस मिलता ई क्यूं?
-पण थारो तो ब्याव होयोड़ो है।
रेणु आपरी आंख्यां नै खोल लीनी ही अर म्हारै मूंडै कानी जोंवती बा कैयो हो : लोगां रै प्रेम रो बो मतलब कोनी है, जिको थे कर राख्यो है। लोगां रै प्रेम रो अरथ आपणा डीलां सूं है।
दूजो दाखलो : जिकी पवित्रताई री बात समाज करै है, बा तो सरीर री है अर सरीर तो दोवां रै ईज होवै है। फेरूं एकली लुगाई रो ईज सरीर क्यूं अपवित्र बण जावै?
प्रेम अर अपारै संबंधां री इण गाथा मांय सिमला रै हिंदू होटल मांय रतनगढ़ रो सूरज अर दिल्ली री नंदा दोनू आपरा विगत बखाणै। सूरज आपरी घर-गिरथसी अर रेणु सूं हुयै प्रेम नै मांड’र कैवै। नंदा ई जयगोपाल सूं हुयै प्रेम री कहाणी सुणावै। बा कैवै- ‘सुण जमना, जे एकर जयगोपाल नै म्हारी प्रीत परस लेसी तो बो कदै भूल’र भी सुरसती रो नांव मूंडै नीं घासली। मनै बांध’र राखणो आवै है।’ आ बांध’र राखणो आवै री बात कैवण वाळी नंद ही है जिकी आपरी प्रीत री लालड़ी गम्यां पछै ओ ने’चो करै कै बा कदैई ब्याव नीं करैला। उपन्यासकार कैवणी चावै कै प्रेम सूं इनकार करणो अर एकर तूट्यां पछै फेर इण मारग नीं चालण रो फैसलो करिया पछै ई ओ मारग मिनख-लुगाई नै हेला देय देय’र बुला लेवै। ‘प्रीत नी तो सुख जाणै अर नीं जाणै दुख। प्रीत रा पगां तो हर छिण उछाव री रिमझोळां बाजती रैवै। प्रीत री चाल मांय नंदियां रो वेग र झरणां री चंचलताई किलोळां करै। उणरै कोई बांधणो बंधीज जावै तो दरद पळण लागै। प्रीत नै पालतू बणावण रो अरथ होवै उणरी हित्या। प्रीत तो एक आजाद पंछी होवै, अर उणरी आजाद-उडारां मांय ईज उणरै हियै री सांच रा सुर गुंजारै।’
उपन्यास मांय किणी फिल्म री भांत स्सौ कीं है अर नायिका नंदा सेवट एक ठौड़ सूरज नै भाभी सूं मिलण री बात कैवै। प्रेम अर मन रै साम्हीं समाज री मरजावां जद नंदा सूरज रै प्रेम मांय झिल जावै। ओ बो टैम है जद किणी लेखक सूं भगवान रा भजन लिखण री उमीद रो समाज हो। नंदा रै पिता जी अर सूरज री बंतळ देखो-
- ऐ ई गीत-कवितावां, कहाणी-उपन्यास अर छोटा-मोटा मोटा लेख।
- भगवान रा भजन भी लिखो हो के?
- ना, भजन आद तो कदे कोनी लिख्या।
- आ तो ठीक कोनी। थानै भगवान रा भजन तो लिखणा ई चाइजै। भगवान री किरपा सूं ईज आ धरती इत्ती चोखी अर फूटरी दीसै है।
लखावै सीताराम महर्षि जी री असल जिंदगी मांय बां नै उपन्यास लिखण खातर बिडदावणियो कोई कोनी हो, इणी खातर बां रा फगत दोय उपन्यास साम्हीं आया। विसय अर उण रो पसराव बोल्ड हुवतै थकै घणै ध्यान सूं करीज्यो है। अठै एक बात भळै कै घणाखर राजस्थानी लेखकां नै राजस्थानी सूं अणमाप हेत है कै बै भूल जावै कै ‘राजस्थानी’ अजेस राज-काज री भासा कोनी। हुय सकै कोई अंग्रेजी रो प्रोफसर आपरै कॉलेज मांय अंग्रेजी पढ़ावतो राजस्थानी बोलतो हुवै, पण इण उपन्यास मांय अंग्रेजी प्रोफेसर डॉ. गांगुली रो आपरी क्लास मांय छोरा-छोरियां सूं राजस्थानी बोलणो-बतळावणो सवाल ऊभा करै।
दूजो उपन्यास ‘कुण समझै चंवरी रा कौल’ नायिका प्रधान सामाजिक उपन्यास है। इण मांय गांव रै चौधरी खेताराम री छोरी लाडां अर पुजारी परसाराम रो छोरो चन्नण बाळपणै रा साथी। उपन्यास री नायिका लाडां रो ब्यांव सुगनाराम सूं हुवै अर बो पैली रात सूं ई लाडां अर चन्नण रै संबंधां माथै सक करै। उपन्यास एक छोरी री ब्यांव पछै री जूझ नै जबरदस्त तरीकै सूं साम्हीं राखै। अठै लुगाई री खिमता अर धीजै रो रूप प्रगट हुवै। सीताराम महर्षि री उपन्यास कला मांय बुणगट अर दीठ दोनूं उपन्यास मांय एक ई जोड़ री कैयी जाय सकै। अठै विगत जूण री बात लाडां मांड’र चन्नण नै कथै। ओ कथा-कथण रो भाव ठीमर है। पैलै उपन्यास मांय नायक नायिका दिल्ली हा अर अबै गांव मांय फेर ई बां री बातां अर सवालां मांय मिनखाजूण रा केई केई सवाल महर्षि जी री कलम सूं घणै आगै रा साम्हीं आया। कैवण रो अरथ ओ कै बरस 1971-72 रै पछै जिको कथा-साहित्य मांय बदळाव अर आधुनिकता री रंगत नै स्वीकार करण री बात साम्हीं आवै, उण परंपरा मांय आं दोनूं उपन्यासां नै ई राख्या जाय सकै।
‘कुण समझै चंवरी रा कौल’ मतलब ब्यांव रा बचन लाडां रो परण्यो सुगनाराम नीं समझै। बीं रा विचार है- ‘लुगाई पग री जूती होवै। एक फाटी तो दूजी नूंवी आयगी।’ अर साची ई बो लाडां नै छोड़’र कनक सूं ब्यांव कर लेवै।’ उपन्यासकार चन्नण रै मारफत नायिका नै आगै बधण रो मारग देवै। लाडां अर चन्नण विचाळै अंतस रो मेळ ग्यान रै कारण है। बा चन्नण सूं सवाल करै- ‘नैण जका सुपनां पाळै, काया उण रो साथ क्यूं नीं निभावण सकै! सुपना अर काया नै अळगै गैलां क्यूं चालणो पड़ै?’ सीताराम महर्षि रै उपन्यासां मांय गैरा संवादां सूं आपां साम्हीं जूण रा केई-केई रंग अर सवालां प्रगट हुवै। जियां-
- रोटी री भूख विचारां सूं मिट जवै के?
- रोटी री भूख रोटी सूं तो मिट जावै कै?
- हां, मिट जावै।
- फेरूं लोग भरियै पेट थकां दूजां री रोटी क्यूं खोसै?
- आ खोसण री बात थां जिसी गांव री गंवार रै समझ मांय नीं आसी।
- गांव री गंवार कैय नै चुप करण री मनस्या सहर री चतराई है म्हारी समझ मांय।
लाडां नै सूरज री सीख जरूर मिलै पण संकळप री बा पक्की है। लाडो कैवै- ‘भावै सूरज आथूणो उग जावै, बा जीवण नै सांच रै गेलै उपरां राखसी’ सेवट बा आठवी पास कर नरस बण जावै। इत्तो ई नीं लाडां कंपाउंडर राजाराम सूं हेत करण लगै। प्रेम पेटै जिकी भावनावां अर विचार लेखक का पैलै उपन्यास मांय हा, बां रो विगसाव इण उपन्यास तांई देख सकां। चन्नण ई खेतै काकै नै मनावै क्यूं कै बां रो मानणो हो इण ब्यांव सूं ‘गिंगरथ’ हुसी। सेवट खेतै काका रा ठाडा बोल- ‘लाडां खातर मैं सगळी दुनिया सूं लड़ण खातर त्यार हूं।’ अठै कथा रै बिचाळै उपन्यास ‘आभै पटकी’ याद आवै। उपन्यास बांचतां कणाई-कणाई इयां पण लखावै कै सेवट मांय चन्नण अर लाडां रो मेळ हुय जावैला। पण आ बात गळत साबत हुवै अर हुवणी ई चाइजै क्यूं कै जे ओ मेळ हुवै तो सुगनाराम रो सक पोखीज जावै। उपन्यासकार इणी खातर लाडां री जिंदगानी नै नूंवो मोड़ राजाराम सूं मेळ सूं देवै। इण छोटै सै उपन्यास रा लाडां अर चन्नण दोनूं यादगार पात्र है। आधुनिक विचार-संवेदना पेटै संवाद-पख अर भासा री समरूपता दोनूं उपन्यासां री खासियत। उपन्यास री विकास-जातरा मांय श्रीलाल नथमलजी जोशी, यादवेंद्र शर्मा ‘चंद्र’ अर अन्नाराम ‘सुदामा’ भेळै सीताराम महर्षि ई आगीवाण मानीजैला।
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श्री सीताराम महर्षि - रतनगढ़ (23 जुलाई 1932- 08 मई 2017)
लालड़ी एक फेरूं गमगी 1974
कुण समझै चंवरी रा कौल 1975


Wednesday, May 13, 2020

आधुनिक उपन्यास लेखन री थरपणा / नीरज दइया

राजस्थानी विद्वान मुरलीधर व्यास एक दिन श्रीलाल नथमलजी जोशी सूं बोल्या- ‘मरुवाणी रै संपादक धारावाहिक रूप में छापण खातर कोई उपन्यास मांग्यो है, पण भेजा कठैसूं, उपन्यास तो राजस्थानी में है ई कोनी।’ इण बात सूं श्रीलाल नथमलजी जोशी (1922-2010) रै काळजै गैरी चोट पूगी। पण बां उण बगत तो कांई नीं दरसायो पण इण रो पड़ूत्तर ‘आभै पटकी’ (1956) पैलो उपन्यास लिख’र दियो। इण उपन्यास रै मुखपानै माथै ‘राजस्थानी भाषा रो पैलड़ो उपन्यास’ लिख्योड़ो हो। पण इण सूं पैली कथाकार शिवचंद्र भरतिया रो ‘कनक सुंदर’ (पैलो भाग-1903) अर श्रीनारायण अग्रवाल रो 'चम्पा' (1925) उपन्यास साम्हीं आय चुक्या हा। आं दोनूं उपन्यासां रा रचनाकार प्रवासी राजस्थानी हा। इण खातर कैय सकां कै राजस्थान सूं पैलो उपन्यास ‘आभै पटकी’ साम्हीं आयो। इण उपन्यास पछै ई उपन्यास लिखीजणा सरु हुया का कैवां आधुनिक उपन्यास जातरा नै मारग मिल्यो।
दूजै उपन्यास पेटै संजोग इण ढाळै बण्यो कै बरस 1956 में श्रीलाल नथमलजी जोशी नै टैसीटोरी बाबत जाणकारी हुई अर बां घणी सोध-खोज पछै दूजो उपन्यास ‘धोरां रो धोरी’ बरस 1962 मांय पूरो करियो, जिको छव बरस पछै राजस्थानी साहित्य अकादमी (संगम) उदयपुर सूं छप’र बरस 1968 मांय साम्हीं आयो। राजस्थानी विद्वान टैसीटोरी खातर जोशी जी रै काळजै अणमाप सरधा ही। बै आपरी एक कहाणी ‘कमला रो बाप’ मांय एक प्रसंग पेटै लिखै- ‘एक दिन हूं कमला नै लियां इटलीवासी राजस्थानी भासा रै धुरंधर विद्वान स्व. डाक्टर टैसीटोरी री समाधी देखन नै गयो परो। पब्लिक बाग सूं निकळतै ई डावै हाथ खानी बीकानेर में टैसीटोरी री समाधी है। कमला नै म्हैं टैसीटोरी बाबत केई बातां बताई जद बीं री इटली रै विद्वान खातर घणी सरधा हुयगी।’ (श्रीलाल नथमलजी जोशी रचना संचयन : पेज-468)
जोशी जी रो मानणो हो कै राजस्थानी भासा दस हजार घोड़ा री सगती सम्पन्न भासा है। बै चावतां तो हिंदी-अंग्रेजी में लिख सकता हा पण बां आखी जूण राजस्थानी री सेवा करी। राजस्थानी पेटै बां री भावना कहाणी ‘मंगळ बेळा में आंसू’ मांय इण ढाळै प्रगट हुवै- ‘देख रामा, तूं जद जावै तो हरनाथ नै एक बात और अखरायै, म्हारै नांव सूं कै पैली तो तूं कागद राजस्थानी में लिख्या करतो अर अबै तूं कागद हिंदी अर कदेई अंग्रेजी में लिखै। गांव भूलग्यो, बाप भूलग्यो, पण अबै तूं थारी मातभासा नै ई भूलग्यो। रामा तूं साफ कैय देईजै कै मनै कागद लिखै तो राजस्थानी में लिखै, नई तो हूं बिना कागद ई सार लेसूं, तू थारै है जठै राजी खुसी रै।’ (पेज-496) इणी ढाळै जोशी जी उपन्यास ‘धोरां रो धोरी’ मांय बीकानेर रै महाराजा गंगासिंह अर टैसीटोरी रै संवाद मांय महाराज सूं कैवावै- ‘थांनै मालम है म्हारी कचेड़्यां में भी सगळो काम राजस्थानी अथवा मारवाड़ी भासा में हुवै। म्हारो इसो विचार है कै राजस्थानी री पोथ्यां त्यार हुवते पाण हूं इणां नै इस्कूलां रै कोर्स में राखदूं।’ (श्रीलाल नथमलजी जोशी रचना संचयन : पेज- 259)
‘धोरां रो धोरी’ उपन्यास पछै बां तीजो उपन्यास ‘सरणागत’ ई लिख्यो पण छपण नै चौथो उपन्यास ‘एक बीनणी दो बीन’ (1973) साम्हीं आयो। ओ एक उल्लेखजोग दाखलो है कै ‘सरणागत’ उपन्यास बरस 2004 मांय साम्हीं आयो। उपन्यासकार आपरी बात उपन्यास मांय ‘ओळखाण’ सिरैनांव सूं मांडी- ‘इयां तो आ पोथी 1964 में लिखीजगी ही अर ओजूं ताईं इणरी पांडुलिपि अलमारियां में बंध पड़ी रैयी। साहित्यकार खातर पोथी बेटी ज्यूं हुवै। चाळीस बरसां री बेटी जे घर में कंवारी बैठी हुवै तो माईतां नै नींद कियां आवै, आप सोच सको हो। दो बरसां पैली जद बीकानेर रै रामपुरिया ट्रस्ट सूं इण पांडुलिपि माथै पुरस्कार अर शब्दर्षि सम्मान मिल्यो तो सोच्यो अबै छोरी रा हाथ पीळा कर देवणा चाइजै।’
घणै रचनाकारां साथै इण ढाळै रा बात देख सकां कै उणां री रचनावां रो टैमसर प्रकासन नीं हुयो। प्रकासन हुवै तो कूंत कोनी हुवै। हुवणो ओ चाइजै कै चावा-ठावा रचनाकारां री जूनी पोथ्यां दूसर छपणी चाइजै, बां री ग्रंथावली साम्हीं आवणी चाइजै। श्रीलाल नथमलजी जोशी रो सौभाग कै बां रै कांता पारीक अर प्रभा पारीक सरीखी बेटियां है। दोनां नै घणो-घणो जस अर रंग कै वां रै हुयां ‘श्रीलाल नथमलजी जोशी रचना-संचयन’ रै मारफत पांच पोथ्यां पाठकां तांई दूसर पूगी। इण संचयन मांय जोशी जी रा तीन उपन्यास, एक रेखाचित्र संगै ‘सबड़का’ अर एक कहाणी संग्रै ‘परण्योड़ी-कंवारी’ आपां एकठ देख सकां। इण आलेख मांय उपन्यास पेटै दाखला इणी रचना-संचयन सूं लिया है।
एक वाजिब सवाल- ‘श्रीलाल नथमलजी जोशी फगत चार उपन्यास ई क्यूं लिख्या?’ रो उथलो-‘राजस्थानी मांय उपन्यास छपण रो सुभीतो कोनी।’ दूजो- ‘कूंत-आलोचना री कमी।’ स्यात इणी कारण जोशी जी रो उपन्यास लेखन सूं मोहभंग हुयग्यो। नतीजो- बां ऊमर रा लारला लगैटगै चाळीस बरसां तांई कोई उपन्यास नीं लिख्यो। लेखक रै सबदां मांय- ‘सरणागत उपन्यास रो आधार हम्मीरायण है। जे हम्मीर महाकाव्य नै आधार बणावतो तो उपन्यास रो कलेवर टणको बण जावतो अर राजस्थानी में मोटी पोथ्यां सारू ओजूं वातावरण त्यार हुयो कोनी। हम्मीरायण में प्रसंग तो एक ई है, फेर भी अनेक विषयां रो सांगोपांग चित्रण हुयो है।’
मुरलीधर व्यास री भोळावण सूं उपन्यास लिखणो चालू करणिया जोशी जी रा च्यार उपन्यास असल मांय च्यार औपन्यासिक धारावां का कैवां च्यार न्यारा-न्यारा रूपाळा रंग है। विधवा ब्यांव नै लेय’र सामाजिक, ‘हम्मीरायण’ काव्य-ग्रंथ नै आधार बणा’र ऐतिहासिक, डॉ. टैसीटोरी रै जीवण माथै जीवनीपरक अर महाकवि टेनीसन री जगचावी कविता ‘ईनक आरडन’ बाबत कलात्मक उपन्यास लिखणो एक बेजोड़ इतिहास रचणो है। अबै ओ पण सवाल कै उपन्यास ‘सरणागत’ जद पैली लिखीजग्यो फेर उण सूं पैली जोशी जी ‘एक बीनणी दो बीन’ उपन्यास साम्हीं क्यूं लाया? विचार करिया ठाह लागै कै ओ इण बात रो परतख प्रमाण मानीजैला कै बै आपरै टैम मांय राजस्थानी पेटै घणै आगै री सोच राखणिया हा। जोशी जी मुजब- ‘ईनक आरडन री आं विसेसतावां अर राजस्थानी में विदेसी साहित्य-कथा नै लावण रै ख्याल सूं एक बीनणी दो बीन रो राजस्थानी में जलम हुयो अर आ पोथी आपरै हाथ में आई।’ (एक बीनणी दो बीन : घर विध री)
अगीवाण रचनाकार श्रीलाल नथमलजी जोशी रै मन मांय राजस्थानी भासा अर साहित्य रै बधापै नै लेय’र घणो लगाव हो। बै हिंदी-अंग्रेजी रै अलावा गुजराती, बंगाली, असमिया आद केई भारतीय अर विदेसी भाषावां रै आधुनिक साहित्य सूं जुड़ाव राखता थका लूंठो सोच राख्यो कै राजस्थानी गद्य साहित्य रो विगसाव हुवै। ‘सरणागत’ री भूमिका में बां लिख्यो- ‘वास्तविक कविता कोरणी रो सोरो काम कोनी, पण फेर भी गद्य री तुलना में पद्य लिखण कानी साहित्यकारां रो ध्यान बेसी है। आ बात राजस्थानी नईं, सगळी भासावां माथै लागै। हकीकत आ है कै जे आपां किणी भासा रै साहित्य नै समृद्ध बणावणो चावां तो आपांनै उणरै गद्य रो भंडार भरणो पड़सी।’ बां रो मानणो हो सवधानी सूं किणी सबद रो प्रयोग करणो चाइजै। इणी खातर जोशी जी लोककथात्मक भासा-सैली रै साम्हीं आधुनिक जीवण-सैली सूं जुड़ी भासा नै ओळख परा उण रै विगसाव सारू घणो काम करियो। इणी भासा रो रूप आगै पांगरतो अर आवतै साहित्य नै प्रभावित करतो निजर आवै।
‘आभै पटकी’ पछै जोशी जी रै रेखाचितरामां री पोथी- ‘सबड़का’ साम्हीं आवै। पण बां रो व्यंग्यकार अर रेखाचितराम लेखक रो रूप उपन्यास मांय खास तौर सूं देख-परख सकां। किसना अर मोवन री इण कथा मांय खास पात्र रामचंदजी, समाज सुधारक, तीजां आद रा चरित्रां नै किणी रेखाचितराम दांई रचता थका जाणै बांचणिया रै साम्हीं ऊभा कर देवै। ठौड़ ठौड़ सामाजिक पाखंड-ढोंग मांय व्यंग्य रा सांतरा सुर ई ओळख सकां। आजादी पछै रै समाज मांय तो घणी रूढियां ही। उण बगत समाज मांय विधवा-व्यांव कोई सरल काम कोनी हो अर आज ई कोनी। ओ बो टैम हो जद सिरपंचां रा विचार हा- ‘आपां री जात में इसो ब्याव आज तईं नईं हुयो। ओ धाप’र हळको काम है अर सासतरां रै विरूद्ध है।’ ’ (आभै पटकी : पेज-86) उण दौर मांय नूंवी पीढी रा विचारा सरावणजोग हा। बात रो काट बात सूं हुवै, सावळ पैरवी बिना कोई बात आगै नीं बध सकै। किसगोपाल रा जसजोग विचार उपन्यास मांय मिलै- ‘एक आदमी री जद लुगाई मर जावै है तद कांई आपां आ बात मान’र धीरज राखां कै करमां में रंडवो रैवणो लिख्योड़ो है अबै ब्याव ना करो। या आ भी कोई जरूरी कोनी कै जिको दूसर ब्याव करै उण री दूसरी लुगाई भी मर जावै। इसा घणा ई दूजवर है जिका आणंद सूं आपरो जीवण बिता रया है। फेर कांई कारण कै लुगाई नै ओ अधकार नईं।’ (आभै पटकी : पेज-82)
उपन्यास केई रूढियां रो खंडन करतो थको विधवा-ब्यांव रा अलेखू पंपाळ बखाणै। ‘देवीलालजी घोर दुखी हुयग्या। पिरथम तो बै किसना रै दूसर ब्याव सूं ई सैमत नईं हा, श्रीवल्लभ रै घणै समझावणै सूं, खंच करण सूं, हंकारो भर लियो। अबै भतमालजी रो रुख सुण’र तो उणां रो विचार पाछो फुरण लागग्यो- क्यूं फालतू ब्याव रो टंटो कर’र भूंड रो ठीकरो माथै ऊपर धरूं, अर जणै जणै सूं माथो लगावणो पड़ै जिको पाखती में।’ (आभै पटकी : पेज-85) लेखक उपन्यास री नायिका किसना रै मामलै मांय बाबो जी री अग्गमवाणी नै बिचाळै बखाणै अर सेवट उण नै सांच बता’र जाणै ‘हस्तरेखा-विज्ञान’ माथै खुद री आस्था दरसावै। बखाण मांय भावुकता ई केई ठौड़ देख सकां। एक ठौड़ किसना तुळछी नै रोवती-रोवती कैवै- ‘काढलो, जचै जित्ती गाळ्यां। विधवायां देराण्यां-जेठाण्यां री गाळ्यां सुणन खातर ई हुवै। आभै पटकी अर धरती झाली कोनी। बारै थकां कदेई होट रो फटकारो ई दियो हुसी, पण जिकै रो धणी धोरी नईं हुवै उण पर सगळा सेर हुय जावै। एक खसम नई हुवै जद सैंस खसम हुय जावै।’ (आभै पटकी : पेज-67) ऐ ओळ्यां विधवा-जूण रो साच है जिण मांय लुगाई री लाचारी भेळै लोकाचार ई खास उल्लेखजोग कैयो जाय सकै। कैयो जाय सकै कै ‘आभै पटकी’ उपन्यास आपरै जुग मुजब घणै आगै री सोच राखणियो उपन्यास हो।
दूजै उपन्यास ‘धोरां रो धोरी’ रै सिरैनांव री बात करां तो इण पोथी मांय खुद टैसीटोरी री आत्मा री आवाज बोल’र लेखक लिखै- ‘राजस्थान रै धोरां री धरती में बूरियोड़ै अमोलख रतनां नै बारै काढर प्ररकास में लावणियो तूं है, तूं है, तूं रात-दिन काम कर। जे तैं ओ काम अधूरो छोड़ दियो, तो फेर पाछो कद सरू करियो जासी, आ अनिस्चित है। तूं राजस्थान रै धोरां रो धोरी है, तूं धोरां रो धोरी है।’ (धोरां रो धोरी : पेज-285) टैसीटोरी रै चरित्र नै उपन्यास रो विसय बणावणो लेखक री आस्था नै उजागर करै। लेखक श्रीलाल नथमलजी जोशी टैसीटोरी रै मिस राजस्थानी री खिमता अर अणमोल खजानै रो बखाण करै। उपन्यास मांय एक ठौड़ टैसीटोरी कैवै- ‘डोरोथी! सुण, हूं तनै समझाऊं- हूं आपेई कैवतो तो कोझो लागूं, पण फेर भी कैवणो पड़ै- भगवान मनै दूर देखणी निजर दी है। मनै अठै बैठै नै, हथाळी में आंवळो दीसै ज्यूं, साफ-साफ दीसै है कै भारत रै राजस्थान प्रांत में डिंगळ-भासा में अणगिणती रा ग्रंथ-रतन धरती रै गरभ में पड़्या है, अथवा रेत में रगदोळीजै है। एक लिखार अथवा कवि रै हाथ-लिख्यै ग्रंथ री रिच्छया करणी कवि नै मरण सूं बचावण रै बराबर है, अर मालम हुवतां थकां ग्रंथ रो नास हुवण देवणो कवि री हित्या बराबर है।’ (धोरां रो धोरी : पेज- 245) आ सगळी बातां मांय टैसीटोरी रै मारफत राजस्थानी रो बखाण हुवै।
‘धोरां रो धोरी’ उपन्यास मांय लेखक ठेठ तांई खुद रो उपन्यासकार रूप बणायो राखण रा जतन करै फेर ई कठैई-कठैई भासा-बुणगट मांय जीवनी-लेखक री मिलीभगत निजर अवै- ‘जोधपुर रै देवकरणजी बारठ नै टैसीटोरी आपरै कनै काम करण सारू राख्या, पण टैसीटोरी कनै आदमी बौत कम टिकता। देवकरण जी भी छोड़नै गया परा। उणां नै फेर बुलावण री बात लिखतै टैसीटोरी लारै जावते लिख्यो है- मनै जित्तो प्रेम म्हारी देस-भासा इटलियन सूं है, उण सूं भी इधको मारवाड़ी सूं है। अण में बळ नै तेज है, अर बोहळै परवार री तथा मीठी है।’ (धोरां रो धोरी : पेज- 255), ‘पब्लिक बाग सूं अगूणै छेड़ै जठै पैली धोळै दुपारै रोही रा जिनावर टैल्या करता, बठै माथां ऊपर रंग-रंगीला, भांत-भांत सूं बांध्योड़ा फैंटा अर बगलबद्यां तथा अचकनां पेरै, डागां लियां, खांधां माथै बंदूकां सजायां, ऊंठां नै अनेक भांत सिणगारे, गैणा पैराये च्यारूंमेर रा राजपूत सिरदार बीकानेर पूग्या भाई कठै ई इसी नईं हुवै कै रजपूत घराणै री डावड़ी जाटड़ो ले जावै।’ (धोरां रो धोरी : पेज-276) अर ‘1919 रे 27 सितम्बर नै टैसीटोरी भारत खातर पाछो टुरग्यो। उदासी छायोड़ै टैसीटोरी सूं समुद्री-जात्रा रो भार झल्यो कोनी, अर बो जाज में ई, बेमार पड़ग्यो। 5 नवम्बर नै बीकानेर पूग्यो जित्तै डाक्टर री हालत खासा खराब हुयगी। गळै में पीड़ बधगी अर फेफड़ां में पाणी भरीजग्यो। फेर भी इसी हालत में डाक्टर आपरी डायरी में लिख्यो- इण कमरै में बित्योड़ा थोड़ा-सा’क क्षण म्हारै खातर बरस बण जावै।’ (धोरां रो धोरी : पेज-305)
ओ उपन्यास आपरै घटना-प्रसंगां रै पाण आ बात पण बतावै कै इटली रा धुरंधर विद्वान टैसीटोरी राजस्थानी रीत-रिवाज अर संस्कारां री लूंठी जाणकारी अर समझ रखता हा। बै दयावान अर कंवळै हियै रा मिनखपणै सूं भरियोड़ा बेजोड़ विदेसी मानवी जरूर हा, पण एक संकळप पेटै आखी जूण होम दीवी। ऊमर कम लिखा’र लाया अर बीकानेर मांय ई छेकड़ली सांस लीवी। टैसीटोरी री समाधी रो जिकर जोशी आपरै कथा-साहित्य मांय ठौड़-ठौड़ करियो है। उपन्यास री छेहली ओळ्यां है- ‘इण मौकै 15-15 बरसां रा तीन टाबर हाजर हा। बै एक-दूजै रै सामा झाक्या। मन में संकळप लियो कै आपांनै ओ काम करणो चाईजै। फेर टैसीटोरी री समाधी मथै जायर माथो टेक्यो। काम री सगती अर खिमता मांगी, अर चौगड़दै राजस्थानी री जोत जगावण रो व्रत लेयर बारै आयग्या।’ (धोरां रो धोरी : पेज-306) अठै इण ओळी मांय जोशी जी रो अरथाव 15-15 बरसां री किणी गणित सूं नीं हुय’र इयां लखावै कै राजस्थानी रै कामां मांय आगीवाणी जिका तीन नांव गिणाइजै, उण त्रिमूति सूं हुय सकै। ओ एक संकेत ई मान सकां कै नूंवी पीढी नै इण ढाळै रै कामां नै संभाळणा चाइजै।
उपन्यास ‘एक बीनणी दो बीन’ री केई खासियतां ही। पैली तो आ ई कै किणी विदेसी कविता री तरज माथै उपन्यास लिखणो। हरेक अध्याय रो न्यारो-न्यारो सिरैनांव राखणो। राजस्थानी समाज हुवै भलै देस दुनिया रो कोई पण समाज हुवो सगळी ठौड़ मिनख अर लुगाई जात रो मन कंवळो हुवै अर उण मांय प्रेम किण ढाळै आपरा रंग उजागर करै। छोरी किणी पण देस री हुवो बा कीं संस्कारां सूं बंध्योड़ी हुवै। इणी ढाळै कोई लुगाई भलाई बा कठैई री हुवो उण खातर आपरै पैलै प्रेम नै भूलणो संभव कोनी हुवै। जैड़ी केई-केई बातां इण उपन्यास सूं घणै सांतरै रूप मांय साम्हीं आवै। ‘.... पण हूं एक बात पूछूं- एक लुगाई दूसर प्यार कर सकै? तूं आ सोचै कै म्हैं ईनक नै प्यार करियो, ज्यूं ई हूं तनै प्यार कर सकूंली?’ (एक बीनणी दो बीन : पेज- 375) ऐनी अर फिलिप बिचाळै इण ढाळै री बात केई केई बातां अर सवालां नै आपां साम्हीं राखै। ऐनी ईनक री उडीक करती करती थकै कोनी अर दूजै पासी फिलिप ई आखी जूण उडीक ई तो करतो रैयो है। बाळपणै रो खेल जाणै जूण मांय फेर फेर बां नै दोधाचींती मांय घाल देवै। ऐनी फिलिप सूं ब्याव करण री मियाद बधावती जावै। साल पछै ई उण महीनां रा कोल करिया अर फेर ई लगोलग बा दोधाचींत मांय रैयी। आ इण बात री साख मान सकां कै बा ईनक सूं अणथाग प्रेम तो करै ई करै, पण एक लुगाई खातर असल मांय दूजै प्रेम नै स्वीकार पेटै काया नै रोसणो ई दरसावै। साथै ई साथै इण कथा मांय तकदीर रो हाथ ई केई जागा देख सकां।
उपन्यास मांय राजस्थानी समाज साम्हीं विदेस संस्कार-विचारां रो खुलोपण दरसावण रो ई एक जतन है। ऐनी आपरी मा नै कैवै- ‘म्हां आपस में गळबाखड़ी घालर चूमा लिया।’ तद मा कैवै- ‘आ तो साधारण बात है बेटी। इण सूं कोई ईनक सूं थारो ब्याव थोड़ी ई हुयग्यो।’ (एक बीनणी दो बीन : पेज- 336) कथारस सूं भरपूर जोशी जी रै हरेक उपन्यास मांय बांचणियां नै बांधण री खिमता है। इंग्लैंड रा ईनक, आर्डन अर फिलिप री प्रेम-तिकड़ी नै राजस्थानी रंग देवणो कालजयी बात मान सकां। सगळा पात्र अर आखो वातावरण इसाई परिवार हो दरसावतां थकां इण उपन्यास मांय केई ठौड़ चर्च मांय बिराज्या गॉड (ईसा मसीह) नै ‘भगवान’ सबद सूं प्रगट करण री बात ठीक कोनी लखावै। ‘भगवान’ सबद मांय हिंदू समाज अर लेखक रो उणियारो आवै जद कै सेवट मांय ईनक जिण रो बदळियोड़ो नांव नेटिव हो, बो मरियम नै उणरी बात गुपत राखण खातर ‘बाइबिल’ री सौगन दिरावै। इण ढाळै बात केई सबदां पेटै ई करी जाय सकै।
‘सरणागत’ रो मूळ कथा तो बस इत्ती-सी’क है कै दिल्ली रै बादस्या अलाउद्दीन अर रणथंभोर रै राजा हम्मीर बिचाळै जबरो जुध हुयो। इण जुध रो कारण हो मुगल सिरदार मोहम्मद साह अर मीर कामरू जिका बादस्या रा कोप-भाजन हा, उणां नै हमीर रो सरण देवणो। ओ उपन्यास लिखीज्यो जद छप जावतो तो बात न्यारी हुवती। उण बगत गिणती रा उपन्यास अर उपन्यासकार हा। इतिहास नै विसय बणा’र उपन्यास लिखणो बगत री मांग ही। पण होणी नै नमस्कार, ओ संजोग कोनीं बैठ्यो। अठै अबै ओ सवाल ई करीजै सकै कै इण उपन्यास नै चाळीस बरसां पैली री दीठ सूं देख्यो-परख्यो जावै का इक्कीसवीं सईकै मांय राखता थकां। बियां जोशी जी री उपन्यास-जातरा नै जाणण-समझण पेटै ओ एक महतावू उपन्यास मान सकां। इण मांय मध्यकालीन गद्य री ओळ आवै तो साथै ई चाळीस बरसां पैली री आधुनिक गद्य री जमीन।
उपन्यास मांय ‘सरणागत’ रै घरम रो सांगोपांग बखाण मिलै, साथै-साथै हिंदू-मुसळमान समन्वय-सदभाव, एकता आद केई बात ई मिलै। इक्कीसवै सईकै मांय ई लुगाई री आजादी अजेस अधूरी मानीजै। बा बंधणां मांय जकड़ीज्योड़ी है। आदू असूलां री बात करां तो ओ उपन्यास जोहर रै मारफत लुगाई जात रै मान-सम्मान अर स्वाभिमान रो दाखलो है। उपन्यास मांय बादस्या री राणी रो एक ठौड़ ओ कैवणो- ‘बादस्या म्हारै सरीर नै जीत सकै, म्हारो मन जीत सकै कोनी।’ (सरणागत : पेज-21) लुगारै रै हक अर अधिकारां पेटै घणी मोटी बात रो साम्हीं आवणो है। राणी ई अंतपंत एक लुगाई हुवै अर उपन्यास राणी रै मरफत एक लुगाई री ई नीं, आखी लुगाई-जात री बात कर रैयी है। मूळ कथा बिचाळै केई-केई संकेत अर छोटी-छोटी कथावां उपन्यासकार बिचाळै दिया करै जिण माथै बांचणियां नै सोचणो हुवै।
उपन्यास री विगतवार बात करां तो इण रै पैलै अध्याय मांय बाबो जी जिका राजा हम्मीर दे रा राजपुरोहित हा, उणा रै मारफत सरणागतां रो बचाव अर सरण जावण री सीध करीजी है। बाबो जी रो चितराम अर कथा रो विगसाव बांचणियां नै बांध लेवै। उपन्यास मांय राजा हम्मीर अर जाजदेव रो चरित्र ई प्रभावित करै। छेकड़लै आध्याय मांय सुलतान अर भाट री बंतळ जसजोग कैयी जाय सकै। पूरी कथा नै दस अध्याय मांय उपन्यासकार राखै पण पैलो, दूसरो अर सातवो अध्याय तो खासो लंबो हुयग्यो अर बाकी रा छोटा-छोटा। उपन्यास रै पेज 48 माथै उपन्यासकार लिखै- ‘इयां कैय’र राणी खाली म्यान-म्यान पेई में धरदी अर चमेली री निजर बचाय’र कटार बारै राखली। पेई री चाबी चमेली नै देय दी।’ इण पछै जद चाबी चमेली नै देय दी तो पेज 50 माथै ‘राणी कटार नै म्यान में घालदी। राणोजी बोल्या- लावो, म्हांनै ई देखाळो तो सरी कटार।’ अटपटी ओळी आवै। इण पछै- ‘चमेली बारणो खड़कयो।’ बांच’र लखाबै कै पेई राणी बिना चाबी रै कियां खोली।
किणी रचना मांय कथ्य री विविधता अर न्यारी न्यारी दीठ सूं उपन्यास रा खाना भरण पेटै श्रीलाल नथमलजी जोशी रो पूरो काम जसजोग मानीजै। कैवणो पड़ैला कै बै राजस्थानी उपन्यास री न्यारी-न्यारी धारावां नै पोखता थका नूंवी गद्य-भासा अंगेज’र उण नै नूंवा रंग देवै। बां री भासा मांय बीकानेरी लोक भासा अर हिंदी भासा रै केई सबदां नै जरूरत मुजब राजस्थानी रंग मांय ढाळण रा जतन ई देख सकां। बां रा च्यारू उपन्यास इण बात री साख भरै कै बै आपरै समकालीन रचनाकारां सूं सवाई दीठ राख्या करता हा। बां पाखती देस-दुनिया रै बदळतै साहित्य-संसार री जाणकारी ही अर बै राजस्थानी नै लेय’र खुद नै उण दौड़ मांय भेळै कर राख्यो हो। बां रो कथा-साहित्य इण बात रो प्रमाण है कै देस-दुनिया रो कोई पण रंग अर संवेदना अंगेजण-उकेरण खातर राजस्थानी एक भरी-पूरी अर सिमरध भासा है।
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• श्रीलाल नथमलजी जोशी रचना संचयन
संपादक- कांता पारीक, प्रभा पारीक
संस्करण- 2018; पाना- 528 ; मोल- 900/-
प्रकाशक- केसर प्रकाशनालय, बीकानेर
• सरणागत (उपन्यास) श्रीलाल नथमलजी जोशी

संस्करण- 2004; पाना- 96; मोल- 80/-
प्रकाशक- केसर प्रकाशनालय, बीकानेर

Wednesday, May 06, 2020

ओळूं अर सुपनां रै सरोवर में

राजस्थान री जनता मांय राजस्थानी भासा, साहित्य अर संस्कृति खातर अणमाप हरख-हेत हियै उजास है। हेताळू मिनख न्यारै-न्यारै सीगा इण जमीन सूं जुड़ै अर आपरी परंपरावां नै धकै बधावै। इण ओळ मांय केई दाखला दिया जाय सकै, पण अठै बात करां कवि-कथाकार देवदास रांकावत (1934- 2014) री। जिणा री सिरजणा पचपन बरस लियां पछै समाज साम्हीं प्रगट हुई। बै रेलवे में नौकरी करता हा अर घणा पढ्योड़ा-लिख्योड़ा ई कोनी हा। भासाई मानता री जबर हूंस रा घणी देवदास रांकावत साहित्य समाज सूं जुड़्या। साहित्यकार माणक तिवाड़ी ‘बंधु’ रै सैयोग सूं बां री मनचींती पूरी हुई। वचनिका सैली मांय ‘जोरावर पदमा’ (1989) छ्प्यो तो घणो चावो हुयो। आ एक इतिहासू घटना कैयी जावैला कै पांचवी भण्योड़ा देवदास जी उमर रै आधेटै पछै लेखन री दुनिया मांय पगलिया करिया।
‘जोरावर-पदमा री कथा लिखती वेळा, म्हारै सामैं, कहाणी कैवणआळी अर उण में रस भरणआळी बात ही खास रैयी। सो आ कथा आज रै उपन्यासां री लीकआळी पोथी कोनी रैय सकी, अर पुराणा बातपोस जिण भंत आखी आखी रात बात सुणाय’र, सुणणिया नै रस में डुबोयां राखता, उणीज ढाळै पर कथा नै ढाळीजी। केई गांवां में अर केई जागां, आ कथा उणीज भांत, केई-केई रातां जाग’र मैं खुद सुणायी है।’ ( हियै री बात : जोरावर-पदमा)
लोक अर लोक साहित्य सूं जुड़ाव रै पाण लेखक घणी सरलता सूं खासी बड़ी बात कैय दी, जिण माथै लोक उपन्यास री बात करणियां नै कान देवणा चाइजै। निरमळ हियै रा लेखक देवदास जी इण बात भेळै साफ-साफ सबदां में आ पण लिखी- ‘आपणी इणी मातृभाषा राजस्थानी री कीरत नै, जे म्हारी आ पोथी सूई री अणी बरोबर ही बधा सकसी तो म्हारी मैनत सफळ मानसूं।’ बै चार बीसी उमर लिखा’र लाया हा अर बरस 1992 में राज री नौकरी सूं फारिग हुयां उपन्यास विधा मांय उल्लेखजोग काम करियो। बां रै सिरजण रो मूळ आधार धोरां री धरती रो रंग-रूड़ो जूनो रूप, माटी री महक, आसै-पासै री दुनिया अर बीकानेर रो लोकरंग मान सकां। ‘समै किणी रै बांध्योड़ो नीं रैवै। बो तो आवै अर ठोका मना जावै, बो ई जा, बो ई जा।’ (होम करतां हाथ बळै, पेज-102) बीकानेर री रंगत सूं रजी इण भासा रो रस पूरी उपन्यास जातरा मांय ठौड़ ठौड़ देख्यो जाय सकै।
देवदास राकांवत मुजब- ‘ख्याति अर लिछमी सगळां नै चाहीजै, आ बात भी सोळै आनां खरी है पण ऐ चीजां सास्वत नीं है। सास्वत है- रचना रो आनंद। जे इण कसौटी माथै आपां आपणै लेखन नैं कस’र देखां तो आपांनै ठा पड़ैला कै आपां कित्तोक-कांई लिख्यो है? जिण सूं आपांनै रचना रो संतोख हासल होवै।’ (अंतस रा आखर : मुळकती मौत कळपती काया) आपां देख सकां कै रांकावत जी री पैली रचना बरस 1989 मांय साम्हीं आवै अर इण पछै बै कहाणी, गीत अर कवितावां मांय रम जावै। साहित्यकार माणक तिवाड़ी ‘बंधु’ पछै शंकरसिंह राजपुरोहित लेजर सैटिंगकार रूप जुड़ै तद बरस दर बरस एक पछै एक उपन्यास आवता गया। ‘गाव! थारै नांव’ (2006), ‘मुळकती मौत कळपती काया’ (2007) ‘धरती रो सुरग (2008) ‘होम करतां हाथ बळै’ (2010) उपन्यास राजस्थानी-साहित्य री कीरत नै बधावणवाळा मानीजै। ‘जुलम री जड़’ उपन्यास अजेस अप्रकासित।
उपन्यास ‘जोरावर-पदमा’ सूं सरु हुई उपन्यासकार री सिरजण-जातरा मांय बात में रस भरण बुणगट ठेठ तांई खास रैयी। दूजै उपन्यास ‘गाव! थारै नांव’ मांय लेखक आपरी बात ‘हियै रो साच’ सिरैनांव सूं इण ढाळै राखै- ‘इणरै पछै ग्राम्य जनजीवण सूं जुड़्योड़ी आ सांवठी कथा म्हैं गांवआळा रै मूढ़ै सावळसर सुणी अर कल्पना रै सागै रळ’र मांडी जकी ‘गांव! थारै नांव’ सिरैनामै सूं उपन्यास रै रूप में सुधी पाठकां रै हाथां में है।’
‘गाय और गोरी’ नांव सूं फिल्म बणी बरस 1973 मांय अर ‘गाव! थारै नांव’ उपन्यास साम्हीं आयो बरस 2006 मांय। जया बच्चन री फिल्म देवदास जी जरूरी देखी हुवैला अर बां रै अचेतन मांय कठैई आ फिल्मी गाय घर करियोड़ी ही। फेर इण उपन्यास रा संवाद ई म्हारी इण बात री साख भरै-
‘इण बिचाळै नंदराम उणनै भळै अखराई- देख छोरी! तूं मानजा। औ थरो सोवणो अर कवळो सरीर बोली-बोली म्हनै सूंपदै। आज तूं म्हारै हाथां सूं बच को सकै नीं।
पेमल ई रीस में भांभड़ा भूत होयोड़ी दांत पीसती बोली- म्हारै जीवता थनै सपना आसी, जद तांई सांस है म्हारै में, थनै सरीर नीं सूंपूंली। मरियां पछै माटी नै भवै गंडकड़ै ज्यूं खायै।’ (गाव! थारै नांव, पेज-76)
गांव, गाय, खेत, मिंदर, हथाई, चिलम, भजन, लोकगीत भेळ नायक रूप छोरी पेमल अर खलनायक रूप कुमाणस नंदराम स्सौ की है पण इण उपन्यास मांय असल मांय गांव रै नांव सेवट कांई है... साच-कूड री बात जुदा पण आ एक जूनी ओळूं है अर लेखक आपरै सुपनां रै सरोवर मांय पाठकां नै लेय’र जावै। ‘पेमल भी उणनैं चूंगती देख’र आपरै होठां माथै जीभ फेरती। उण रो मन भी करतो कै उणरै सागै-सागै म्हैं ई इण गाय रा हांचळ चूंगूं तो किसो’क। पेमल ई बाछड़की रै मूढै कनैं आपरो मूंढो भिड़ा लियो अर साची बा तो गाय रै हांचळ रै मूंढो लगा’र आपरी जीभ रो आंटो लगायो हांचळ रै अर चसड़कै सागै खैंचण लागी हांचळ सूं दूध। गाय ई कणैई तो आपरी बाछड़की नै चाटै अर कणैई छोरी पेमल नै।’ (गाव! थारै नांव, पेज-14-15) एक हकीकत ही सो उण बगत पूग’र उपन्यास री दादी रै सुर मांय मन रमावणो चाइजै- ‘आपां नै तो राजी होवणो चाहीजै। ऐड़ी गाय अर ऐड़ी डावड़की आपणै आंगणै ऊभी है। आ तो उण द्वारकाधीश री मेहर है आपां पर।’ (पेज-15)
मध्यकालीन राजस्थानी जनजीवण रै एक प्रसंग नै लेय देवदास रांकावत रो तीजो उपन्यास- ‘मुळकती मौत, कळपती काया’ साम्हीं आयो। लेखक नाथू नांव रै धत्तरवाळ जाट री खोज-खबर खातर ठौड़-ठौड़ भटकतो रैयो अर इणी घुमाफिरी मांय एक डोकरी सूं मुलाकात बाबत लेखक लिखै- ‘म्हैं उणनैं साची बात बताई जणा उण रो कीं जी जम्यो। फेर उण बतायो कै हां, म्हारा दादी सासूजी इण तरै री बात बताया करता हा। अठै रा ऐ बारै गांव नाथू नाम रै धत्तरवाळ जाट रै बसायोड़ा है अर उणीं री चार-पांच पीढ़ी रै पछै उणरै टाबरां इण पाणी री पूर्ति खातर खासी जगां कुंड-बावड़्यां, का’स पछै ऐ कुइयां अर छोटा-मोटा नाडी-नाडिया खिणाया। अबै तो थे खुद ई देखो हो कै आं गांवां में राम रमण लाग रैयो है।’ (अंतस रा आखर : मुळकती मौत, कळपती काया) गांव अर जूनै जन-जीवण खातर लेखक री प्रीत बेसी देख सकां। लेखक डॉ. किरण नाहटा री मुलाकात अर सीख रो जिकर ई उपन्यासकार करै। ‘किरणजी बोल्या- थे तो साव भोळा हो। रचनाकार नैं किणी प्रमाण री दरकार कोनी। थे तो थांरी कल्पना रै आधार पर ही लिख सको हो। आप जकी पाणी रै बारै में म्हनैं बताई उण बात री तो आज रै जमानै नैं दरकार है।’ ओ सूत्र ही आधुनिकता रो सूत्र है। रचना में जथारथ अर कल्पना रळ’र ई कीं सांगोपांग रचाव करिया करै। लेखक पाखती बात कैवण रो आंटो है अर किणी घटना-प्रसंग नै बातपोस दांई मठार-मठार नाथू नाम रै धत्तरवाळ जाट री सांगोपांग कथा कैवै। जूनी बातां दांई नाथू ई आपरी भाभी रै मोसै माथै घर छोड़’र निकळै अर बूकिया रै बळ सूं केई नूंवा गांव बसावै। लोकजीवण, सांस्कृतिक झलक अर रळियावणी भासा मनमोवै। इण दुखांत उपन्यास रो नायक भगती भाव वाळो। उपन्यास रो नांव उपन्यास रै छेकड़लै दरसाव सूं लियो गयो है- ‘आ सुण’र उण आंख खोली अर जोत रा दरसण कर’र थोड़ो मुळक्यो, जाणै उणरै मूढ़ै पर सांप्रत मौत मुळकती होवै पण उणरी जोड़ायत अर छोरा सागै आखै गांव रै लोगां री काया कळपै ही। मुळकती मौत अर कळपती काया रै बिचाळै नाथू रै प्राणां री जोत, मा भवानी री उण जोत रै भेळी समायगी। (मुळकती मौत, कळपती काया : पेज-104)
लेखक घरबीती अर परबीती सूं प्रेरणा लेवै। ‘धरती रो सुरग’ उपन्यास देवदास जी आपरै रेलवाई नौकरी रै संगी-साथी मेघराज रै जीवण नै परोटतां थका लिख्यो। बो इण उपन्यास रो खास पात्र है, हो सकै असल जीवण मांय उण रो कोई दूजो नांव हुवै। मेघराज रै बेटै री बहू मीरां उपन्यास री नायिका है। राकांवत जी रै उण संगी-साथी जिण रो नांव मेघराज लिख्यो है री मनोकामना रैयी कै एक दिन उण रो घर ई सरग बणसी। संजोग ई जूण मांय गजब रा खेल खेलै। सेवट असल जूण मांय जाणै मा भवानी रै रूप में उणा नै तूठण नै उपन्यास री नयिका मीरां आवै। उण सुपातर बीनणी मीरां सूं उपन्यास रचण खातर लेखक देवदास जी बंतळ ई करी। लेखक ‘मन री गिंगरथ’ मांय आ बात पूरी मांड’र कैवै- ‘म्हैं थारै मांय कीं गुण निजर आया है, जणै ई तो म्हैं अठै आयो हूं, नींतर इत्ती दूर म्हारै बडकां नैं रोवण नै आवतो कांई? म्हैं थारो नांव अर ठिकाणो कीं नीं मांडूंला, खाली थारै घर-घराणै रा चोखा संस्कार अर थारा आं सांवठा गुणां रो खुलासो ई करसूं, पण लिखसूं जरूर।’ आ लिखण री पक्की सोच रै पाण ई बै उपन्यास लिख सक्या। उपन्यास मांय असल जीवण री झलक मिलै। उपन्यास मांय देवदास राकांवत रो नांव हरियो है।
उपन्यास ‘धरती रो सुरग’ में नायिका मीरां रै चरित्र रो विगसाव एक खास तरै सूं हुवै। जाणै उण पाखती मा भगवती रो कोई जादू का सगती है। उण रै चलायां ई उण रै आसै-पासै री दुनिया चालै। एक कंवारी छोरी जिण रो बाप दुकानदार है बा नामी सेठ अर नामी डाक्टर री कीं बेसी ई लाडली उपन्यासकार दरसावै। इत्तो ई नीं उण रै ब्यांव पछै ई उपन्यास मांय केई-केई बातां असलियत सूं जुदा लखावै। कैय सकां कै असल जूण मांय नायिका मीरा जैड़ी कोई नायिका रैयी हुवैला पण उपन्यास सूं जिकी छिब साम्हीं आवै उण सूं तो बा अवतारी का जादूगरणी लखावै। बा एक मोटै परिवार नै ई गळी-गवाड़ अर खल पात्र नैं ई आपरै बस मांय कर लेवै, जिण घरै भूवाजी भूख सूं बाथेडा करता हा उण घरै जाणै लिछमी अर सम्मपत रो अखूट बासो कर देवै। एक ठौड़ करनल सा’ब कैवै- ‘अरे म्हैं तो तनैं भिड़तलै भचकै ई एक बात साफ कैय दी ही नीं कै आपां कनैं पईसां री कमी कोनी। तूं डर ना, ओ भी होय जासी, बो ई फेर साव मुफत में। ऐड़ा घणा ई डॉक्टर म्हां दोनूं रा संगळिया है, जका आज आपरी सेवा मुफत में देवण नै त्यार बैठ्या है।’ (धरती रो सुरग, 136) नायिका रो चरित्र अमानवीय इण खातर कैयो जावैला कै बा एक इसी छोरी अर लुगाई रै रूप में साम्हीं राखीजै जाणै कोई बा जादूगारी हुवै। बा सगळी बातां नै आपरै ढंग-ढाळै सूं परोटै अर आगै आगै बधती जावै। पैली बाप रै घरै खुद रै आसै-पासै री दुनिया नै सरग बणावै अर ब्यांव पछै सासरै नै अर सासरै रै आसै-पासै री दुनिया नै सरग बणावै।
देवदास रांकावत जिण उमर मांय हा बै बडेरा हा। बां री दीठ मांय भूडो अर भलै रो झौड़ आज जित्तो उळझाड़ लियोड़ो कोनी हो। जूनै बगत सबदां रो मोल हुया करतो। आदमी कैयी दी जिकी बात भाटै माथै लकीर हुवती आजकाळै तो मिनख कैवै कांई अर करै कांई। चामड़ी री जीभ ठाह नीं कित्ता पलटा खावै अर कांई कांई कैवै। आज ई राजस्थानी अखबार साव कमती छपै अर छपै जिको घर-घर कोनी पूगै। ओ लेखक राकांवत जी रो राजस्थानी रै खातै अणमाप प्रेम रैयो कै उपन्यास मांय बै राजस्थानी खबर नै अखबार रै फ्रंट पेज माथै इण ढाळै दरसावै- ‘‘रामू तो न्हा-धोय’र अखबार बांचण नैं बैठग्यो, तो ऊपरलै पानै पर एक जाग्यां नूंवी खबर छप्योड़ी ही, ‘नबाबां रै स्हैर में एक औरूं मीरां’। आपरी बेटी मीरां रै नांव सूं जुड़्योड़ी खबर रामू नीं पढ़ै, आ किंया हो सकै। खबर इण भांत ही, ‘लखनऊ, 6 अप्रैल। डॉक्टर स्नेहलता राजपूत री रविवार री रात अठै भगवान श्रीकृष्ण सागै सगाई संपन्न होयगी। स्नेहलता री योजना नंवर में ब्याव करण री है।’ आ खबर पढ़तां ई रामू सोच्यो कांई कृष्णजी पाछा अवतार लेय लियो?’ (धरती रो सुरग, पेज-47)
हरेक लेखक रो आपरो मोह हुया करै अर देवदास राकांवत रो मोह आपरी दुनिया सूं हुवणो वाजिब है। राजस्थान री रळियावणी संस्कृति जूनै टैम मांय जित्ती अर जिण ढाळै ही बा आज बित्ती उण रूप मांय नीं मिलै। इण खातर ओ घनो जरूरी है कै जूनी बातां अर यादां नै किणी नै किणी रूप मांय सबदां सूं अंवेर लेवां। जूनै मिनख पखती जूनी बातां री पोटळी बेसी हुवै अर उण नै खुद रै बगत री हर ई आवै। ‘बां दिनां सस्तीवाड़ो हो। एक रुपयै री ढाई सेर कणक मिलती। तीस-पैंतीस रुपियां भरी सोनो हो।’ (पेज-110) बीकानेर रै पुराणै बगत अर जीया-जूण नै साकार करती पोथी ‘होम करतां हाथ बळै’ है जिण मांय जूनी बातां अर यादां री हेमाणी मिलै। इण पोथी लेखक आपरी बात कैवतां लिखै- ‘बात आयां जद बां दादीजी रै कीरत रा कमठाण म्हैं बास-गळी अर जाण-पिछाण रा मिनख-लुगायां अर टाबर-मोट्यारां रै आगै बणावतो-बतावतो तो बां मांय सूं घणकरां री आ ई मनसा रैयी कै आं सगळी बातां नै एकठ कर’र बांरी ओळूं में एक पोथी लिखो, जिणसूं ऐड़ै बडेरां रा ओपता उणियारां कदैई अलोप नीं हुवैला अर बै आवण वाळी पीढ़ी सारू प्रेरणा रा स्रोत बण जावैला। आं सुभचिंतकां री मनसा अर दादी री चितार तो नितार है- होम करता हाथ बळै।’ (अंतस री दो ओळ्यां : होम करतां हाथ बळै)
होम करतां हाथ बळै पोथी रो सिरै नांव पूरै कथानक सूं मेळ नीं खावै। उपन्यासकार आपरी बात मांय तो खास चरित्र दादीसा रो कैवता थका उपन्यास रचण री बात कैवै। पण सिरैनांव सार बात करां तो बो जिण होम री बात उपन्यास री छेहली ओळ्यां मांय संकेत रूप करै बो अकारथ मान सकां। उपन्यास तो इण ओळी माथै ई पूरो हुय जावै- ‘लै बैन, म्हैं थारै जीव री सौगन खाय’र कैऊं हूं, थारो कैवणो जीवूंला जित्तै नीं लोपूंला।’ (पेज-159) इण पछै री आं ओळ्यां नै फगत सिरैनांव नै साचो करण खातर लेखक मांडै- ‘इण पछै बं दोनां एक सागै कैयो- प्रेम! देख, म्हां तनै कैयो हो नीं होम करतां हाथ बळ जावैल। बळग्या नीं हाथ।/ आ बात सुण्यां प्रेम नैं थोड़ो चेतो बापरियो। बा थोड़ी मुळक’र कैयो- हाथ बळता रैसी, ऐड़ा होम होवतां आया है अर आगै ही होवता रैसी।... ऐ होम होता रैसी, हाथ बळता रैसी.... कैंवती थकी प्रेम आपरी आंख्यां मींचली।’ (पेज-160)
अठै सवाल ओ पण साम्हीं आवै कै उण उपन्यास रो नायक कुण है तो मोटै रूप मांय दादी रो चरित्र साम्हीं आवै पण उण नै नायक नीं कैय सकां। गवाड़ी मांय दादी खूब चावी ही अर उण नै करता-धरता तो कैय सकां, जिण सूं उपन्यास रो नायक हरियो अर नायिका प्रेम नै सगती मिलै। ओ होम असल मांय एक बांझड़ी नै बीजदान रो है। इण बात री सरावणा करी जावणी चाइजै कै घणै फूटरै तरीकै सूं लेखक इण काम नै ‘नियोग’ प्रथा दांई उपन्यास मांय दरसावै। नायक हरियै रो बाळपणै रो प्रेम गोरकी नांव री छोरी सूं हुवै अर उण कथा नै ई फिल्मी अंदाज मांय लेखक दरसावै। लेखक गोरकी रै ब्याव री टैम उण अर हरियो रै पावन प्रेम रो दरसाव जिण ढाळै राखै बो पाछै हरियै रै ब्याव पछै भळै राखै। जाणै गोरकी री आत्मा हरियै री नूंवी परणी प्रेम मांय रळ जावै। आदमी अर लुगाई खातर समाज रै दोगलै बरताव पेटै हरियै नै प्रेम उण सुहागण रात री एकर भळै उपन्यास मांय हर करावै। होम करतां हाथ बळै रो नारी चरित्र प्रेम जाणै धरती रो सुरग री मीरा दांई सवायो है।
जूनी रीत अर रिवाज सूं झिल परा ई देवदास राकांवत रै उपन्यासां मांय केई क्रांतिकारी विचार मिलै। जियां होम करतां हाथ बळै मांय किणी लुगाई रो आपरै आदमी सूं किणी दूजी लुगाई खातर ‘बीजदान’ करणो अर उण जमानै मांय बिना दायजै रै व्याव री आ बात देखो- ‘मारजा थोड़ी ताळ सोच्यो- मांग तो सैं सूं सैंठी आई है कै दायजो लेवां कोनी। म्हैं तो बीनणी नै खाली एक बेस में ई लेय’र आवांला। जांन में आदमी सौ सूं बत्ता एक भी नीं आवैला अर बेस-बागा री रीत ई हटा दो। आपां नैं तो ब्याव साव सादै ढालै सूं करणो है सा।’ (पेज-111)
देवदास राकांवत री उपन्यास कला मांय सवळ पख भासा नै मान सकां। बै लोककथा रै अंदाज नै ठेठ तांई निभावै अर बडेरै दांई बात नै मांड’र विगतवार उपन्यासां मांय बतावै। बुणगट मांय कथा रो रस अर संजोग सूं चरित्रां रो विकास देखणजोग कैयो जाय सकै। परंपरा मांय जिको सवायो है उण नै बै बचावण रा जतन करै अर सळयै-गळयै नै समाज सूं बारै करै। अठै आधुनिकता नै अंगेजण री बात तो है पण चोखै संस्कारां अर सवाई सीख भेळै। इण बात री खुलै मन सूं सरावणा हुवणी चाइजै कै देवदास राकांवत रा केई-केई चरित्र बेजोड़ है। बै उपन्यास साहित्य नैं जोरावर, पदमा, गाय-चंवरा, छोरी पेमल, नाथू जाट, मीरां, दादीसा, हरियो, प्रेम, पूजा, सेठजी जैड़ा ठाह नीं कित्ता-कित्ता सांठवा चरित्र दिया, जिका सूं एकर जे आपां अरू-भरू हुय जावां तो बिसराया बै कोनी बिसरै। आ केई खासियतां रै पाण उपन्यास-साहित्य मांय उपन्यास री लीकआळी पोथ्यां रै बरोबर आ पोथ्यां रो जस जमानो बखाणैला।
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• जोरावर-पदमा (उपन्यास) देवदास राकांवत
संस्करण- 1989, 2006; पाना- 160 ; मोल- 125/-
प्रकाशक- श्री भैंरूंदान छलानी स्मृति प्रन्यास, दियातरा (कोलायत, बीकानेर)
• गाव! थारै नांव’ (उपन्यास) देवदास राकांवत
संस्करण- 2006; पाना- 80 ; मोल- 75/-
प्रकाशक- प्रख्यात प्रकाशन, बीकानेर
• मुळकती मौत कळपती काया (उपन्यास) देवदास राकांवत
संस्करण- 2007; पाना- 104 ; मोल- 50/-
प्रकाशक- राजस्थानी साहित्य एवं संस्कृति जनहित प्रन्यास, बीकानेर
• धरती रो सुरग (उपन्यास) देवदास राकांवत
संस्करण- 2008; पाना- 200 ; मोल- 150/-
प्रकाशक- स्वामी रांकावत युवा मंच, बीकानेर
• होम करतां हाथ बळै (उपन्यास) देवदास राकांवत
संस्करण- 2010; पाना- 160 ; मोल- 150/-
प्रकाशक- राजस्थानी ग्रंथागार, जोधपुर

डॉ. नीरज दइया की प्रकाशित पुस्तकें :

हिंदी में-

कविता संग्रह : उचटी हुई नींद (2013), रक्त में घुली हुई भाषा (चयन और भाषांतरण- डॉ. मदन गोपाल लढ़ा) 2020
साक्षात्कर : सृजन-संवाद (2020)
व्यंग्य संग्रह : पंच काका के जेबी बच्चे (2017), टांय-टांय फिस्स (2017)
आलोचना पुस्तकें : बुलाकी शर्मा के सृजन-सरोकार (2017), मधु आचार्य ‘आशावादी’ के सृजन-सरोकार (2017), कागद की कविताई (2018), राजस्थानी साहित्य का समकाल (2020)
संपादित पुस्तकें : आधुनिक लघुकथाएं, राजस्थानी कहानी का वर्तमान, 101 राजस्थानी कहानियां, नन्द जी से हथाई (साक्षात्कार)
अनूदित पुस्तकें : मोहन आलोक का कविता संग्रह ग-गीत और मधु आचार्य ‘आशावादी’ का उपन्यास, रेत में नहाया है मन (राजस्थानी के 51 कवियों की चयनित कविताओं का अनुवाद)
शोध-ग्रंथ : निर्मल वर्मा के कथा साहित्य में आधुनिकता बोध
अंग्रेजी में : Language Fused In Blood (Dr. Neeraj Daiya) Translated by Rajni Chhabra 2018

राजस्थानी में-

कविता संग्रह : साख (1997), देसूंटो (2000), पाछो कुण आसी (2015)
आलोचना पुस्तकें : आलोचना रै आंगणै(2011) , बिना हासलपाई (2014), आंगळी-सीध (2020)
लघुकथा संग्रह : भोर सूं आथण तांई (1989)
बालकथा संग्रह : जादू रो पेन (2012)
संपादित पुस्तकें : मंडाण (51 युवा कवियों की कविताएं), मोहन आलोक री कहाणियां, कन्हैयालाल भाटी री कहाणियां, देवकिशन राजपुरोहित री टाळवीं कहाणियां
अनूदित पुस्तकें : निर्मल वर्मा और ओम गोस्वामी के कहानी संग्रह ; भोलाभाई पटेल का यात्रा-वृतांत ; अमृता प्रीतम का कविता संग्रह ; नंदकिशोर आचार्य, सुधीर सक्सेना और संजीव कुमार की चयनित कविताओं का संचयन-अनुवाद और ‘सबद नाद’ (भारतीय भाषाओं की कविताओं का संग्रह)

नेगचार 48

नेगचार 48
संपादक - नीरज दइया

स्मृति में यह संचयन "नेगचार"

स्मृति में यह संचयन "नेगचार"
श्री सांवर दइया; 10 अक्टूबर,1948 - 30 जुलाई,1992

डॉ. नीरज दइया (1968)
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आंगळी-सीध

आलोचना रै आंगणै

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