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Sunday, April 05, 2020

छूटे और बचे हुए रंगों के आस-पास ० डॉ. नीरज दइया

मैंने एक कागज पर
एक लाइन खींची
और साथ में ही कुछ फूल
कुछ पत्ते कुछ कांटे बना दिए
उसने देखा और हँसा
क्या यही कविता है
मैंने कहा- हां यह एक खूबसूरत कविता है।

(...खेतों में रची जाती कविता : ‘रंग जो छूट गया था’, पृष्ठ-87)
कुँअर रवीन्द्र जाना-पहचाना एक नाम है। वे स्वयं को मूलतः चित्रकार मानते हैं किंतु रंगों-रेखाओं के साथ-साथ शब्दों की दुनिया में भी उनकी समान सक्रियता रही हैं। उनके चित्र समोहित करते हुए हमें कला-अनुरागी बनाते हैं। कला के प्रति गहन जानकारी के बिना भी हम उनके प्रति मुगधता के भाव से भर जाते हैं। उनकी कूची और कलम की सतत साधना का यह परिणाम है कि चित्र चित्ताकर्षक और कविताएं बेहद मर्मस्पर्शी हैं। सीधे सरल शब्दों में कहें तो उनका कोई शानी नहीं है। उनकी कविताओं में जीवनानुभवों के साथ अनेक रंगों से सज्जित चित्र देखे जा सकते हैं। हिंदी आलोचना में रेखाचित्र विधा के लिए विद्वानों ने ‘शब्दचित्र’ उपयुक्त शब्द माना, वहीं रवीन्द्र जी के यहां ऐसी सीमाएं ध्वस्त होती हैं। उनकी कविताएं पढ़ते हुए हम बारंबार अनुभूत करते हैं कि उनके यहां शब्दचित्रों और रेखाचित्रों की सीमाओं का समन्वय है, वे काफी उभयनिष्ठ होती हुई हमारा दायरा विस्तृत करती हैं। कहा जा सकता है कि वे अपने चित्रों में कविताएं रचते हैं और कविताओं में चित्र लिखते हैं। कलाओं के लोक में यह ऐसा आलोक है जहां रंगों, रेखाओं और शब्दों के समन्वय से जीवन के रंगों को बेहतर बनाने की एक मुहिम है। बदरंग और दागदार होती इस दुनिया के रंगों को बचाने के लिए वे समानांतर अपनी दुनिया सृजित करते हैं। जहां आशा-विश्वास और रंगों से भरी एक दुनिया नजर आती है। जो बेशक हमारे जैसी ही अथवा कहे बेहतर दुनिया इस अर्थ में है कि वहां कुछ रंग और सपनों के साथ जीवन है।
कुँअर रवीन्द्र के दो कविता संग्रह ‘रंग जो छूट गया था’ (2016) और ‘बचे रहेंगे रंग’ (2017) प्रकाशित हुए हैं। कहना होगा कि इनकी कविताएं रंग से रंग की एक विराट यात्रा है जिसमें छूटे हुए रंगों के साथ रंगों के बचे रहने का विश्वास और उम्मीद है। देश और दुनिया के आवरण चित्र बनाने वाले कवि रवीन्द्र के दोनों संग्रहों पर उन्हीं के बनाएं अवारण हैं। दोनों को हम चाहे देर तक देखते रहें, तो भी मन नहीं भरता है। क्या यह कवि अथवा उनकी कला के प्रति मेरा अतिरिक्त अनुराग है, ऐसा कहा भी जाए तो मुझे स्वीकार है। रचना और रचनाकार के प्रति स्नेह और सम्मान ही श्रेष्ठ मूल्यांकन का आधार होता है। इसे आलोचना का प्रवेश द्वारा कहा जाए तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। यहां यह अंतःप्रसंग इसलिए भी जरूरी है कि मेरी और मेरे अनेक मित्रों की पुस्तकों के आवरण चित्र कुँअर रवीन्द्र द्वारा सहर्ष प्रदान किए गए हैं। मैं उनकी कविताओं से प्रभावित रहा और कुछ कविताओं का मैंने राजस्थानी में अनुवाद भी किया है।
कुँअर रवीन्द्र की कविताओं का केंद्रीय विषय रंग के अतिरिक्त अन्य कुछ कहा नहीं जाना चाहिए। उनके दोनों कविता संग्रहों के शीर्षक में रंग शब्द समाहित है। ‘रंग जो छूट गया था’ अर्थात जिस रंग को उनके रंगों में स्थान नहीं मिला उसे उन्होंने शब्दों में कविताओं के माध्यम से अभिव्यक्त किया है। रंग ही जीवन है। यह पूरा जगत ही अनेक रंगों का संकाय है। ‘रंग’ अपने आप में बहुत बड़ा विषय है और वे चित्रकार-कवि के रूप में सदैव रंगों के निकट रहे हैं अथवा रहना चाहते हैं और उनकी ही नहीं हम सब की यही अभिलाषा है कि ‘बचे रहेंगे रंग’ हमारी इस दुनिया के हम सब के लिए। इन रंगों के बचे रहने से हम भी बचे रहेंगे, इसलिए भी रंगों को बचाया जाना बेहद जरूरी है। रंग ही हमारी अभिलाषा, आकांक्षा और इच्छाओं को गतिशील बनाते हैं।
‘रंग जो छूट गया था’ संग्रह में प्रत्येक कविता को शीर्षक दिया गया है, जबकि ‘बचे रहेंगे रंग’ में कविताएं बिना शीर्षक से है। यह कवि का व्यक्तिगत फैसला है कि किसी कविता को वह शीर्षक दे अथवा ना दे। किसी अन्य कवि के विषय में तो मैं नहीं पर कुँअर रवीन्द्र की कविताओं के विषय में कह सकता हूं कि इनकी सभी कविताओं को शीर्षक भले दिए गए हो अथवा नहीं दिए गए हो, वे सभी कविताएं खंड-खंड जीवन के विविध रंगों को प्रस्तुत करती हैं। अस्तु सभी कविताएं ‘रंग’ शीर्षक की शृंखलाबद्ध कविताएं हैं। दोनों संग्रहों की कविताएं प्रकाशन के लिए एक क्रम में रखी गई हैं किंतु यह रंगों की ऐसी इन्द्रधनुषी माला है कि इसको जहां चाहे, वहीं से आरंभ किया जा सकता है और इसकी इति कहीं नहीं है। इन कविताओं के द्वारा रंगों का जीवन में सतत प्रवाह होता है। जहां रंग नहीं है अथवा कम रंग हैं वहां भी कवि की दृष्टि से हम छूटे हुए रंगों को देख सकते हैं। कवि जीवन में रंग भरने का आह्वान भी करता है- ‘आओ रचें/ एक नया दृश्य/ एक नया आयाम/ एक नई सृष्टि/ एक बिंब तुम्हारा/ और हो एक बिंब मेरा/ हां/ इन बिंबों में/ रंग भी भरना होगा’ (...सार्वभौम बिंब : ‘रंग जो छूट गया था’ पृष्ठ- 72)
‘रंग जो छूट गया था’ संग्रह की कविताओं के शीर्षकों के साथ एक अन्य कलाकारी भी देखी जानी अनिवार्य है कि प्रत्येक कविता के शीर्षक से पहले तीन बिंदु खूंटियों जैसे टांगने के लिए बनाएं गए हैं जहां शीर्षक को अटकाया गया है। जैसा कि पहले कहा गया है कि दूसरे संग्रह में यह सब नहीं होकर कविताएं केवल गणितय अंकों के क्रम में व्यवस्थित की गई हैं और उसमें भी उनका होना बस उनके आरंभ भर की सूचना है। दोनों संग्रहों की कविताओं के अंत में कविताओं को जैसा कि बंद करने अथवा उनके पूर्ण होने पर कोई संकेत होता है, वह यहां नहीं है। यह उनके अनंत होने का संकेत हैं और आरंभ अथवा क्रम भी कहीं से भी हो सकता है। यह सूचना या विकल्प अंकित नहीं किया गया है। यहां यह सब आवश्यक अथवा अनावश्यक बातें इसलिए भी होनी जरूरी है कि कवि केवल कवि नहीं है, वरन एक चित्रकार भी है और वह दोनों माध्यमों के समन्वय हेतु सक्रिय है। वह नए दृश्य रचकर रंग भरना चाहता है।
कविताओं में रंगों की उपस्थिति स्थूल और सूक्ष्म दोनों स्तरों और रूपों में अभिव्यंजित हुई है। कवि के कविता समय में कवि का पूरा पर्यावरण समाहित है। वे घर-परिवार, गांव-देस, मौहल्ले-बाजार से दिल्ली पुस्तक मेले तक के प्रसंगों को कविता की दुनिया में प्रस्तुत करते हैं। उनके विविध वर्णी समय और बहुरंगी दुनिया से हमारा सीधा साक्षात्कार होता है। अनेक विषयों को जीवन के विरोधाभासों के साथ कविताओं में पिरोया गया गया है या कहें कि कुछ ऐसा हुआ और वे इस रूप में ढल गई हैं। यहां कवि अच्छाई-बुराई, सच-झूठ, सुख-दुख, प्रेम-घृणा जैसे अनेक युग्म शब्दों को प्रचलित अर्थों से इतर नए अर्थों-रंगों में सज्जित करता है- ‘तुमने पूछा है मुझसे/ रोटी का स्वाद?/ नहीं/ तुमने किया है/ मेरी निजता पर/ मेरी अस्मिता पर प्रहार/ क्या तुम जानते हो/ भूख की परिभाषा...।’ (...तुमने पूछा है मुझसे : ‘रंग जो छूट गया था’ पृष्ठ- 73) अथवा ‘जब अच्छे दिनों में/ कुछ भी अच्छा न हो/ सिवाय अच्छा शब्द के/ तब/ बुरे दिनों की यादें/ सुख देती हैं।’ (...बुरे दिनों की याद : ‘रंग जो छूट गया था’ पृष्ठ- 78)
समाज में स्त्रियों की भूमिका पर कवि चिंतित हैं वहीं पुरुष मानसिकता से त्रस्त। वह दुनिया के रंगों को बनाएं रखने की पैरवी इस अर्थ में अभिव्यक्त करता है कि विचारों का आदान-प्रदान और विमर्श जारी रहे। यह प्रतिक्रिया कभी एक तरफा नहीं होनी चाहिए। संवाद की स्थिति हर हाल में बनी रहनी चाहिए। हरेक स्थिति में सभी के लिए खुलापन और आजादी अनिवार्य है। दुनिया को सहकारिता और सहभागिदारी से चलया जा सकता है। तभी उसकी सुंदरता रहेगी। कवि सरहदें मिटाने की बात करता है और एक ऐसी दुनिया की कल्पना करता है जहां किसी भी प्रकार की दीवारें नहीं हो। वह इन विरोधाभासों को भी जानता है कि दीवारों के बिना घर नहीं होता और घर होता है तो दीवारें भी होती हैं। वह लिखता है- ‘दरअसल/ मैं अब सरहदों के पार जाना चाहता हूं/ जिस तरह दीवारें गिरायी/ सरहदें भी तो/ मिटाई जा सकती है।’ (...सरहदें भी तो मिटाई जा सकती हैं : ‘रंग जो छूट गया था’ पृष्ठ- 82) इतनी बड़ी अभिलाषा का आरंभ घर से होना चाहिए- ‘औरतें!/ बहुत भली होती है/ जब तक वे/ आपकी हां में हां मिलाती है/ औरतें!/ बहुत बुरी होती है/ जब वे सोचने-समझने/ और/ खड़ी होकर बोलने लगती हैं।’ (...औरतें : ‘रंग जो छूट गया था’ पृष्ठ- 101) औरतों का बोलना जरूरी है। उनके बोलने से ही जीवन और रंग बोलते हैं। वे प्रत्येक सृजन का आधार और प्रेरणा हैं।
रंगों की आब कवि के दूसरे संग्रह में सघन से सघनतर होती देखी जा सकती है। कवि का विश्वास है कि वह उजाले को देश और दुनिया के लिए बचाएगा इसलिए वह उजाले को अपने हाथ में लेकर चलता है। वह उजाले की बाड़ बनाकर अंधेरे को घुसने नहीं देगा ठीक वैसे ही जैसे एक किसान अपने गन्ने के खेत को जंगली सूअरों से बचता है वह भी हमारे पास अंधेरे को फटकने नहीं देगा क्यों कि उसने उजाले को पहचान लिया है और उसी उजाले की हमारी पहचान, कविताओं के माध्यम से वह कराता है। कवि का मानना है कि हम हमारी स्थिति से अपनी नियति की तरफ अग्रसर होते हैं। नियति के लिए फैसला जरूरी है कि हम क्या तय करते हैं। कवि के शब्दों में देखें- ‘जहां पर तुम खड़े हो/ हां वहीं पर क्षितिज है/ उदय भी/ और अस्त भी वहीं होता है/ बस एक कदम आगे अंधेरा/ या फिर उजाला/ और यह तय तुम्हें ही करना है/ कि/ जाना किधर है।’ (बचे रहेंगे रंग : पृष्ठ- 74) कविताओं में सभ्यता के संकटों को भी समाहित किया गया है। कवि शहर और गांव में फैलते बाजारीकरण से चिंतत है और वह आदमी की तलाश में है, जो स्थितियों से जूझ सके। जो स्थितियों को बदलने के लिए हरावल बन सके। इस लड़ाई में इंसानों के मारे जाने पर कवि को दुख भी होता है किंतु वह धर्म-जाति और बंधनों से परे हमारे समक्ष ऐसी जमीन तैयार करता है जहां बिना संघर्ष से कुछ भी हासिल नहीं होता है। और वह संघर्ष के लिए प्रेरित भी करता है- ‘लड़ना है/ लड़ना ही पड़ेगा/ अपने लिए/ अपने खेतों के लिए/ अपने जंगलों के लिए/ लड़ना है/ अपने आकाश, अपनी नदियों के लिए/ अपने विचारों के लिए/ अपने आपको जीवित रखने के लिए।’ (बचे रहेंगे रंग : पृष्ठ- 46) इस लड़ाई में ‘समय के साथ सब कुछ बदलता है’ और अंततः निर्णायक स्थितियों में कवि को कविता का सहारा है- ‘बेशक! यदि तुम तब भी नहीं मरे/ और गुनगुनाते रहे/ कविता की कोई पंक्ति/ तो वे हत्यारे हथियार डाल तुम्हारे पैरों पर लौटेंगे/ हत्यारे सिर्फ कविता से डरते हैं।’ (बचे रहेंगे रंग : पृष्ठ- 80) यह कवि का विश्वास-सहारा ही इन कविताओं की पूंजी है।
वरिष्ठ कवि सुधीर सक्सेना का मानना है- ‘कुँवर रवीन्द्र की कविता को लेकर अवधारणा ठोस और सुचिंत्य है। वह ऐसी कविता के हिमायती नहीं है, जो प्रारब्ध में लिपटी हो या उसे दरख्तों के साये में धूप लगे या जो ऐसी छुईमुई हो कि उसे हौले से छूना पड़े या इत्ती गेय हो कि कोई भी गा सके या इतनी अतुकांत हो कि किसी के जेहन में भी न बैठे।’ (बचे रहेंगे रंग : पृष्ठ- 6)
मूर्त-अमूर्त और कल्पना-यथार्थ के अनेक रेशों से निर्मित कविताओं के संग्रह- ‘बचे रहेंगे रंग’ की पहली कविता है- ‘बचे हुए रंगों में से/ किसी एक रंग पर/ उंगली रखने से डरता हूं/ मैं लाल, नीला, केसरिया या हरा/ नहीं होना चाहता/ मैं इंद्रधनुष होना चाहता हूं/ धरती के इस छोर से/ उस छोर तक फैला हुआ। (पृष्ठ- 9) यह कविता स्वयं में प्रमाण है कि कवि किसी एक रंग अथवा जीवन की स्थिति में ठहर नहीं सकता, वह विविध वर्णों और रंगों से बना इंद्रधनुषी कवि हैं। सारे रंग उसमें समाहित है। ऐसा और यह सब प्रेम संभव करता है। इसके साथ कवि का जमीन पर रहकर ऊंचाई छूने का सपना- ‘मैं सीढ़ियां नहीं चढ़ता/ कि उतरना पड़े/ जमीन पर आने के लिए/ मैं जमीन पर ही अपना कद/ ऊंचा कर लेना चाहता हूं/ ऊंचाई छूने के लिए।’ (बचे रहेंगे रंग : पृष्ठ- 65) कुँवर रवीन्द्र ने बेशक अपनी कविताओं को भूमिका में अनगढ़ कहा हो, किंतु इनकी अनगढ़ता में जो गढ़ने का शिल्प और कौशल है वह प्रौढ़ प्रतीत होता है। यह कवि की सहजता-सरलता और तटस्थता से संभव हुआ है। कवि का रंगों और शब्दों की दुनिया में निरंतर जुड़ाव बना रहेगा।
@ डॉ. नीरज दइया
@ डॉ. नीरज दइया

डॉ. नीरज दइया की प्रकाशित पुस्तकें :

हिंदी में-

कविता संग्रह : उचटी हुई नींद (2013), रक्त में घुली हुई भाषा (चयन और भाषांतरण- डॉ. मदन गोपाल लढ़ा) 2020
साक्षात्कर : सृजन-संवाद (2020)
व्यंग्य संग्रह : पंच काका के जेबी बच्चे (2017), टांय-टांय फिस्स (2017)
आलोचना पुस्तकें : बुलाकी शर्मा के सृजन-सरोकार (2017), मधु आचार्य ‘आशावादी’ के सृजन-सरोकार (2017), कागद की कविताई (2018), राजस्थानी साहित्य का समकाल (2020)
संपादित पुस्तकें : आधुनिक लघुकथाएं, राजस्थानी कहानी का वर्तमान, 101 राजस्थानी कहानियां, नन्द जी से हथाई (साक्षात्कार)
अनूदित पुस्तकें : मोहन आलोक का कविता संग्रह ग-गीत और मधु आचार्य ‘आशावादी’ का उपन्यास, रेत में नहाया है मन (राजस्थानी के 51 कवियों की चयनित कविताओं का अनुवाद)
शोध-ग्रंथ : निर्मल वर्मा के कथा साहित्य में आधुनिकता बोध
अंग्रेजी में : Language Fused In Blood (Dr. Neeraj Daiya) Translated by Rajni Chhabra 2018

राजस्थानी में-

कविता संग्रह : साख (1997), देसूंटो (2000), पाछो कुण आसी (2015)
आलोचना पुस्तकें : आलोचना रै आंगणै(2011) , बिना हासलपाई (2014), आंगळी-सीध (2020)
लघुकथा संग्रह : भोर सूं आथण तांई (1989)
बालकथा संग्रह : जादू रो पेन (2012)
संपादित पुस्तकें : मंडाण (51 युवा कवियों की कविताएं), मोहन आलोक री कहाणियां, कन्हैयालाल भाटी री कहाणियां, देवकिशन राजपुरोहित री टाळवीं कहाणियां
अनूदित पुस्तकें : निर्मल वर्मा और ओम गोस्वामी के कहानी संग्रह ; भोलाभाई पटेल का यात्रा-वृतांत ; अमृता प्रीतम का कविता संग्रह ; नंदकिशोर आचार्य, सुधीर सक्सेना और संजीव कुमार की चयनित कविताओं का संचयन-अनुवाद और ‘सबद नाद’ (भारतीय भाषाओं की कविताओं का संग्रह)

नेगचार 48

नेगचार 48
संपादक - नीरज दइया

स्मृति में यह संचयन "नेगचार"

स्मृति में यह संचयन "नेगचार"
श्री सांवर दइया; 10 अक्टूबर,1948 - 30 जुलाई,1992

डॉ. नीरज दइया (1968)
© Dr. Neeraj Daiya. Powered by Blogger.

आंगळी-सीध

आलोचना रै आंगणै

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