Friday, November 23, 2018

तहलका में नीरज दइया पुरस्कार के बारे में आलेख


रेतीले राजस्थान के बीकानेरी साहित्यकार डॉ. नीरज दइया की पुरस्कृत आलोचना कृति ‘बिना हासलपाई’ उनके अपने सरोकारों, प्रतिबद्धताओं तथा प्रतिश्रुचियों का सुचिंतित पाठ है। इसमें भाषा के संयमित, सौंदर्यवाद के बावजूद उनमें सख्ती का स्वर भी सुनाई पड़ता है। इसकी प्रतिध्बनि एक साक्षात्कार में सुनाई पड़ती है कि, ‘मेरा काम तो आलोचना का सृजन जैसे रचना है। रचना प्रक्रिया में उन्होंने बहुत सारे पहलुओं को खोलती हुई टिप्पणियां भी की हैं, ’आलोचना में किसी लेखक के आत्म सम्मान पर चोट न हो, इस बात के प्रति सजग रहता हूं साथ ही अपने लेखक को बड़ा मानकर उसके पीछे-पीछे चलने का प्रयास करता हूं। डॉ. नीरज दइया ने अपने सृजन चिंतन के बूते समकालीन साहित्य को भी गहराई से प्रभावित करने का प्रयास किया है कि, ‘मैं मूल रूप से रचनाकार हूं और आलोचना का काम भी उसे रचना मानकर करता हूं। डॉ. दइया सार्थक रचनात्मकता के कर्ता हैं तो अपने आपको सखा आलोचक की भूमिका से अलग करते हुए स्पष्ट कहते हैं कि, ‘बिना हासलपाई आलोचना पुस्तक की एक सीमा है। हर पुस्तक की होती है और मेरा मानना है कि, आलोचना में कोई मित्र नहीं होता।” डॉ. दइया अपने आलोचनात्मक भाव में विचारधार के साथ दृढ़ता से जुड़े हुए चिंतक नजर आते हैं, जब वे कहते हैं कि, ‘बिना हासलपाई में उन कहानीकारों को लिया गया है जिन पर पर्याप्त ध्यान आलोचना ने नहीं दिया है। किंतु कुछ ऐसे कहानीकारों को छोड़ दिया गया है, जिन्होंने कहानियां तो कम लिखी हैं, लेकिन बातें बहुत की अथवा अपने कहानीकार होने को बहुत प्रचारित करवाया। उनका वाचिक विमर्श जयकार के अतिरेक से बोझिल आत्ममुग्ध कथाकारों की पांत को बेबाकी से परिभाषित करता है। डॉ. दइया की यह विचार दृष्टि उन्हें सदाबाहर आलोचकों और रचनाकार रिझाऊ आलोचकों की भीड़ से अलग करती है।
डॉ. दइया का लेखन ठिठका हुआ नहीं है। लेकिन अपनी आलोचना प्रविधि के बारे में स्पष्ट कहते हैं कि आलोचना का कोई तयशुदा फार्मूला नहीं होता। मैं लिखते समय बस लिखता हूं। किसी दिन क्या और किन... किन पर ध्यान बंटने लगेगा तो मेरा लेखन अवरुद्ध हो जाएगा। उन्होंने अपने आलोचना कर्म में लिखने का कारण और अंर्तप्रेरणा का परिचय देते हुए अपनी वैचारिक सामर्थ्य का भी खुलासा कर दिया है कि, ‘वैचारिक प्रवाह में घिरने के बाद लेखन में कोई अबरोध नहीं रह जाता।
कहानी विधा पर केंद्रित आलोचना कृति ‘बिना हासलपाई’ को परिभाषित करते हुए समीक्षक देवकिशन राजपुरोहित कहते हैं, ‘बिना हासलपाई का मतलब है बिना कुछ जोड़ या कम किए जैसी रचनाएं हैं, उनके गुण-दोष सप्रभाव अंकित कर दिए हैं, मतलब ज्यों की त्यों धर दीनी.... । पूरी पुस्तक में उन्होंने चर्चित और चुनिंदा 25 रचनाकारों की रचनाओं की परख की है। कई कहानीकारों की विधागत कमियों को गिनाया है तो पुर्नलेखन की गई रचनाओं को भी नहीं छोड़ा है। समीक्षक राजपुरोहित के अनुसार डॉ. नीरज दइया ने एक इशारा कवि से कहानीकार बने कहानीकारों की कहानियों और दूसरी भाषा से राजस्थानी में आए कहानीकारों की कहानियों की कमजोरी की तरफ भी किया है। कृति के आरंभ में कहानी आलोचना और कहानी विधा पर खुलकर बात की है तो कहानी के शिल्प और संवेदना पर भी अपना नजरिया स्पष्ट किया है। डॉ. दइया की लेखकीय समग्रता में समीक्षक का मूल्यांकन एक खास तरीके से उनकी पहचान कराता है। इस पुस्तक से कथाकार हसन जमाल की कृति ‘यह फैसला किसका था?’ पर की गई समीक्षक टिप्पणी ताजा हो जाता है कि, ‘राजस्थानी भाषा का प्रयोग कथा-भाषा और वातावरण को जीवंत कर देता है।”
समीक्षक भवानी शंकर व्यास आलोचना के प्रस्थान बिंदु के रूप में उनके ‘साहस’ को स्थापित करते हैं। उनकी टिप्पणी पुस्तक को प्रासंगिक बनाती है कि,‘डॉ. दइया ने साहस के साथ कहानी-साहित्य को कथा साहित्य कहने का विरोध किया है, क्यों कि कथा शब्द में कहानी और उपन्यास दोनों का समावेश होता है। उसे कथा शब्द से संबोधित करना भ्रम उत्पन्न करता है। यह टिप्पणी कई सवाल छोड़ती नजर आती है कि, ‘फिर साहित्य अपने समय के प्रश्नों से मुठभेड़ नहीं कर पा रहा? अपनी आलोचकीय दृष्टि में डॉ. दइया, ‘आधुनिक होने का अर्थ समय के यथार्थ से जुड़ना मानकर चलते हैं.... तो साहित्य की बढ़ती प्रासंगिकता और साहित्य के बढ़ते दायित्व को भी रेखांकित करते हैं। साहित्य में बढ़ते दायित्व को भी रेखांकित करते हैं। शैक्षणिक पत्रिका ‘शिविरा’ के नवम्बर 2015 के अंक में डॉ. दइया के बारे में सटीक टिप्पणी की गई थी कि, ‘उनके पास एक आलोचना दृष्टि है तथा कसावट के साथ बात कहने का हुनर भी। वे कलावादी आलोचना, मार्क्सवादी आलोचना या भाषाई आलोचना के चक्कर में ना पड़कर किसी कृति का तथ्यों के आधार पर कहानीकार के समग्र अवदान को रेखांकित करते चलते हैं। डॉ. दइया के पास वांछित शब्द और सच दोनों ही है। डॉ. दइया ने सभी कहानीकारों के प्रति सम्यक दृष्टि रखी है, न तो ठाकुर सुहाती की है और न ही जानबूझकर किसी के महत्त्व को कम करने की चेष्टा की है।
प्रसंगवश यहा मशहूर समालोचक नामवर सिंह की टिप्पणी का उल्लेख आवश्यक है। उनका कहना था, आलोचना केवल अपने समकालीन साहित्य का क्लीयरिंग हाऊस नहीं है। आज जो लिखा जा रहा है, उसमें क्या सार्थक है, क्या निरर्थक है और अच्छा है, उसकी छानबीन आवश्यक है तभी आलोचना और रचना विकसित होगी। डॉ. दइया आलोचना को रचना धर्म से अलग नहीं करते, किंतु नामवर सिंह का कहना था, ‘आलोचना रचना के साथ-साथ चलती है, पर एक कदम आगे। यद्यपि उन्होंने आलोचकों की कोटियों का दिलचस्प निर्धारण करते हुए उन आलोचकों की खबर ली है जो बराबर रचना के साथ ही चलते हैं पर रचना से एक कदम आगे चलने की हिम्मत नहीं रखते।
० तहलका (31 जनवरी 2018)

सहगल के कहानी-साहित्य का पूरा परिदृश्य / डॉ. नीरज दइया








हरदर्शन सहगल का कथा साहित्य और समकालीन विमर्श (शोध) डॉ. बबीता काजल; 
प्रकाशक- बोधि प्रकाशन, जयपुर; संस्करण- 2018; पृष्ठ-104; मूल्य-120/-
 पुस्तक-समीक्षा -
सहगल के कहानी-साहित्य का पूरा परिदृश्य / डॉ. नीरज दइया

    समकालीन हिंदी कथा-साहित्य के परिदृश्य में राजस्थान से हरदर्शन सहगल की प्रभावी उपस्थिति रही है। मियांवाली (पाकिस्तान) के कुंदिया गांव में 26 फरवरी, 1936 को जन्में सहगल का पहला कहानी संग्रह- ‘मौसम’ 1980 में प्रकाशित हुआ और तब से अब तक एक दर्जन से अधिक कथा-साहित्य की पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है। आपको कथा-साहित्य के लिए राजस्थान साहित्य अकादेमी से रांगेय राघव पुरस्कार गत वर्ष अर्पित किया गया। डॉ. बबीता काजल का ‘हरदर्शन सहगल का कथा साहित्य और समकालीन विमर्श’ शोध का पुस्तकाकार आना उनकी साहित्य-साधना का सम्मान है। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग से स्वीकृत इस शोध-प्रोजेक्ट में छह अध्याय हैं। लेखक की कलम से में अपनी बात स्पष्ट करते हुए लेखिका ने कहानी के प्रति आकर्षण, बीकानेर और सहगल की आत्मीयता के साथ शोध-प्रस्ताव की रूपरेखा-विचारधारा को स्पष्ट किया है।
    शोध के आरंभ में आधुनिक हिंदी कहानी की यात्रा पर प्रकाश डालते हुए समकालीन विमर्शों की अवधारणाओं और अभिव्यक्ति के प्रश्न पर विभिन्न मतों के आलोक में चर्चा की गई है। शोध का प्रथम अध्याय स्त्री, दलित, सत्ता/ राजनीति, विखंडन, विघटन, बाजार, बाल तथा अन्य विमर्शों पर एक सीमा-रेखा का निर्धारण है जिनके मानदंडों पर हरदर्शन सहगल के कथा साहित्य में समकालीन विमर्शों का अध्ययन किया गया है। यह बहुत समीचीन है कि द्वितीय अध्याय में उनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर विस्तार से जानकारियां उपलब्ध करवाने के साथ ही सभी रचनाओं का संक्षेप में परिचय भी दिया गया है। इस अध्याय में उल्लेखित नौ कहानी संग्रहों के विषय में विमर्शों के धरातल पर विस्तार आकलन लेखिका ने आगे के अध्यायों में किया है। यह अतिरिक्त अपेक्षा नहीं है और यहां यह प्रश्न स्वभाविक रूप से किया जाना चाहिए कि जब शोध विषय में ‘कथा-साहित्य’ पद प्रयुक्त किया गया है, तो इसमें सहगल के उपन्यास-साहित्य को शामिल क्यों नहीं किया गया है?
    तृतीय अध्याय ‘हरदर्शन सहगल की कहानियां : एक परिचय’ में संग्रहवार कहानियों की भावभूमि और परिचयात्मक-समीक्षात्मक टिप्पणियां हैं। चतुर्थ अध्याय- ‘हरदर्शन की सहगल की कहानियों में समकालीन विमर्श’ शीर्षक में एक अतिरिक्त ‘की’ प्रयुक्त हुआ है वहीं इस अध्याय की प्रथम पंक्ति- ‘अध्याय तीन में हरदर्शन सहगल द्वारा रचित लगभग 10 कथा संग्रहों में रचित लगभग 50 कहानियों का विषद अध्ययन करने से स्पष्ट होता है कि विषय का वैविध्य होते हुए भी आपकी अधिकांश कहानियों में मध्यवर्गीय जीवन को केन्द्र में रखकर लिखी गई है।’ खेद के साथ लिखना पड़ता है कि इस पंक्ति में दो बार ‘लगभग’ प्रयुक्त होना, अध्ययन की गंभीरता को कमतर सिद्ध करने वाला है। पूर्व में उल्लेखित कहानी और कथा का विभेद भी यहां आवश्यक जान पड़ता है। इस अध्याय की एक पंक्ति देखें- ‘बहरहाल राजस्थान के सुप्रसिद्ध कथाकार हरदर्शन सहगल द्वारा रचित कहानियों में अगर विमर्श या विचारों की तलाश करें तो वह विविधता से भरा है यद्यपि कुछ एक विषयों पर उन्होंने बहुत अधिक लेखनी नहीं चलई है तथापि वर्तमान में बहने वाली अनेक साहित्यिक धाराएं उनके साहित्य में अपनी प्रासंगिकता को सिद्ध करती है।
    प्रत्येक शोध की अपनी सीमाएं और संभावनाएं होती है। जाहिर है इस शोध की भी अपनी सीमाएं हैं किंतु संभावनाएं असीमित है। विषय के सांचे में किसी रचनाकार की कृतियों का मूल्यांकन उस कृति की इतर अनेक संभावनाओं का अंत होता है। इसके उपरांत भी विदुषी डॉ. बबीता काजल ने अपनी शोध-परक सूक्ष्म दृष्टि का परिचय अनेक स्थलों पर देते हुए कहानियों में विमर्शों की न्यूनता-अधिकता को स्पष्ट किया है। शोध का प्रमुख और प्रभावशाली अध्याय पांचवा है- ‘समकालीन कहानी : संवेदना के स्तर’ जिसमें समकालीन कहानियों और कहानीकारों का तुलनात्मक अध्यय प्रस्तुत करते हुए सहगल के कहानी लेखन को रेखांकित किया गया है। अनेक कहानियों को उदाहरण के रूप में प्रस्तुत करते हुए लेखिका ने हरदर्शन सहगल को जीवन में साहित्य के माध्यम से सद्गुणों को बचाने वाले सजक सृजक के रूप में पाया है।
    पुस्तक के अंतिम अध्याय- ‘नव विमर्श में निहित संभावनाएं’ का निष्कर्ष है कि अनेक-अनेक धाराओं के मध्य ‘मानव विमर्श ही परम विमर्श और अंगी विमर्श है, जो मानव की समस्त संवेदनाओं व अनुभूतियों को बनाए रखने का पक्षधर है और सहगल के कहानी साहित्य का उद्देश्य मानव धर्म की प्रतिस्थापना करना है। मानवीय संवेदनाओं का रक्षण और दुष्प्रवृत्तियों का क्षर करने वाले कहानीकार सहगल पहले साहित्यकार हैं जिनकी कहानियों पर ऐसा शोध प्रकाश में आया है, इसलिए लेखिका को बहुत बहुत साधुवाद। उपसंहार में लेखिका के व्यक्त विचार से सहमत हुआ जा सकता है कि सहगल द्वारा रचित कहानियां उनकी मौन साधना और खामोशी में अपना धर्म निभाती बिना किसी खेम का ढोल पीटे मौन साधक की साधना है। बबीता काजल के इस शोध ग्रंथ में सहगल के कहानी-साहित्य का पूरा परिदृश्य हम देख सकते हैं।
    पुस्तक के सुंदर मुद्रण और प्रकाशन के लिए बोधि प्रकाशन को बधाई और कहना होगा कि इस प्रकार के शोध विभिन्न रचनाओं-रचनाकारों के संबंध में भी होते रहेंगे। 

डॉ. नीरज दइया की प्रकाशित पुस्तकें :

हिंदी में-

कविता संग्रह : उचटी हुई नींद (2013), रक्त में घुली हुई भाषा (चयन और भाषांतरण- डॉ. मदन गोपाल लढ़ा) 2020
साक्षात्कर : सृजन-संवाद (2020)
व्यंग्य संग्रह : पंच काका के जेबी बच्चे (2017), टांय-टांय फिस्स (2017)
आलोचना पुस्तकें : बुलाकी शर्मा के सृजन-सरोकार (2017), मधु आचार्य ‘आशावादी’ के सृजन-सरोकार (2017), कागद की कविताई (2018), राजस्थानी साहित्य का समकाल (2020)
संपादित पुस्तकें : आधुनिक लघुकथाएं, राजस्थानी कहानी का वर्तमान, 101 राजस्थानी कहानियां, नन्द जी से हथाई (साक्षात्कार)
अनूदित पुस्तकें : मोहन आलोक का कविता संग्रह ग-गीत और मधु आचार्य ‘आशावादी’ का उपन्यास, रेत में नहाया है मन (राजस्थानी के 51 कवियों की चयनित कविताओं का अनुवाद)
शोध-ग्रंथ : निर्मल वर्मा के कथा साहित्य में आधुनिकता बोध
अंग्रेजी में : Language Fused In Blood (Dr. Neeraj Daiya) Translated by Rajni Chhabra 2018

राजस्थानी में-

कविता संग्रह : साख (1997), देसूंटो (2000), पाछो कुण आसी (2015)
आलोचना पुस्तकें : आलोचना रै आंगणै(2011) , बिना हासलपाई (2014), आंगळी-सीध (2020)
लघुकथा संग्रह : भोर सूं आथण तांई (1989)
बालकथा संग्रह : जादू रो पेन (2012)
संपादित पुस्तकें : मंडाण (51 युवा कवियों की कविताएं), मोहन आलोक री कहाणियां, कन्हैयालाल भाटी री कहाणियां, देवकिशन राजपुरोहित री टाळवीं कहाणियां
अनूदित पुस्तकें : निर्मल वर्मा और ओम गोस्वामी के कहानी संग्रह ; भोलाभाई पटेल का यात्रा-वृतांत ; अमृता प्रीतम का कविता संग्रह ; नंदकिशोर आचार्य, सुधीर सक्सेना और संजीव कुमार की चयनित कविताओं का संचयन-अनुवाद और ‘सबद नाद’ (भारतीय भाषाओं की कविताओं का संग्रह)

नेगचार 48

नेगचार 48
संपादक - नीरज दइया

स्मृति में यह संचयन "नेगचार"

स्मृति में यह संचयन "नेगचार"
श्री सांवर दइया; 10 अक्टूबर,1948 - 30 जुलाई,1992

डॉ. नीरज दइया (1968)
© Dr. Neeraj Daiya. Powered by Blogger.

आंगळी-सीध

आलोचना रै आंगणै

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