Thursday, December 31, 2020

पुस्तक समीक्षा / डॉ. नीरज दइया

 ईश्वर : हां, ना... नहीं’ : अतिसंवेदनशीलता में कविता का प्रवेश

सुधीर सक्सेना समकालीन कविता के विशिष्ट कवि हैं। विशिष्ट इस अर्थ में कि वे अपने आरंभिक लेखन से ही प्रयोगधर्मी और नवीन विषयों के प्रति मोहग्रस्त रहे हैं। कहा जा सकता कि वे भाषा, शिल्प और कथ्य के स्तर पर अन्य कवियों से अलहदा हैं, उनके यहां सामान्य और औसत से भिन्न विशिष्टता का पूर्वाग्रह है। संभवतः उनके प्रभावित और स्मरणीय बने रहने का कारण ही उनकी नवीनता और प्रयोगधर्मिता है। उनके हर नए संग्रह के साथ ऐसा लगता है कि जैसे वे विषयों का हर बार अविष्कार करते हैं। या यूं कहें कि उनकी कविताओं के विषय अपनी ताजगी और नवीन दृष्टिकोण के कारण नवीन अहसासों, मनःस्थितियों में ले जाने में सक्षम हैं। उनके यहां किसी सामान्य अनुभव अथवा दिनचर्या को कविताओं में रूपांतरित करते का हुनर विशेष परिस्थितियों में सांकेतिक रूप में होता है, किंतु व्यापक रूप में उनका सामान्य किसी विशिष्टता में घुलमिल कर विशिष्ट रूप में ही प्रस्तुत हुआ है। उनकी कविताओं में यह भी लगातार हुआ है कि वे इतिहास और वर्तमान को जैसे किसी धागे से जोड़ते हुए, उन्हें मंथर गति करते हुए हमारे सामने ला खड़ा करते हैं। उनकी कविताएं कोरा भूत और वर्तमान का ब्यौरा मात्र नहीं वरन वे हमारे भविष्य की संभावित अनेक व्यंजनाएं लिए हुए है। कहीं सांकेतिकता है तो कहीं खुलकर उनका कवि-मन अपने विमर्श में हमें शामिल कर लेता है। यहां रेखांकित करने योग्य तथ्य यह है कि इन कविताओं में कवि के सवाल हमारे अपने सवाल बन जाते हैं, द्वंद्व में कवि के साथ हम भी द्वंद्वग्रस्त हो जाते हैं। यह भी कहना चाहिए कि सुधीर सक्सेना की कविताओं का केंद्र-बिंदु बदलता रहा है, किंतु यह भी उल्लेखनीय है कि कवि के चिंतन के मूलाधार लक्ष्यबद्ध रहे हैं। वे हर बार कुछ अभिनव विषयों से मुठभेड़ करते हुए अपने चिंतन-मनन का वातायान प्रस्तुत कर हमारे आकर्षण का केंद्र रहे हैं। उनका नए नए विषयों के प्रति मूलतः आकर्षण है जिसे समकलीन हिंदी अथवा भारतीय कविता के अन्य कवियों और कविताओं में वरेण्य है।
उदाहरण के लिए यदि हम कवि सुधीर सक्सेना के कविता संग्रह ‘ईश्वर : हां, नहीं... तो’ की बात करें, तो सर्वप्रथम यह कि ‘ईश्वर’ विषयक कविताएं आधुनिक कविता के केंद्र में इस रूप में कहीं नहीं है। वैसे भी यह क्षेत्र अथवा काव्य-विषय अतिसंवेदनशील है। यह शीर्षक अपने आप में किसी काव्य-युक्ति की भांति अनेक आयामों को लिए हमारी उत्सुकता को दिशा देने वाला है। यह भी सत्य है कि ईश्वर विषयक ‘हां’ और ‘ना’ के दो पक्षों के अतिरिक्त यहां जो ‘तो’ का अन्य पक्ष है, वह कवि का इजाद किया हुआ नहीं है। लेकिन इन तीनों पक्षों को एक साथ में इस रूप में किसी कविता संग्रह का केंद्रीय विषय बनाना कवि का इजाद किया हुआ है। हमें इस संग्रह से गुजरते हुए लगता है कि इन तीनों पक्षों को एक साथ कविताओं में नए विकल्प के रूप में प्रस्तुत करना हमारे आकर्षण का विषय है। हिंदी साहित्य में भक्तिकाल को स्वर्ण-युग कहा जाता है और वहां ईश्वर के संबंध में ‘हां’ की बहुलता और एकनिष्टता है। आधुनिक काल और वैज्ञानिक दृष्टिकोण के रहते बीसवीं शताब्दी में ईश्वर के विषय में साहित्य और कविताओं में ‘ना’ का बाहुल्य है। यह यह भी सच है कि सुधीर सक्सेना अपने काव्यात्मक विमर्श में जिस ‘तो’ को संकेतित करते हैं वह बीसवीं शताब्दी के उतरार्द्ध का सच है। कवि के अनुभव और चिंतन में जहां तार्किता है वहीं निर्भिकता भी है। शायद यही कराण है कि इक्कीसवीं शताव्दी में डॉ. सुधीर सक्सेना जैसा एक कवि जो निसंदेह उत्तर-आधुनिक कवि है, ‘ईश्वर’ विषयक अपनी इन छत्तीस कविताओं में जैसे ‘छत्तीस का आंकड़ा’ भले जानबूझ कर उपस्थित नहीं भी करता हो किंतु यह संयोग भी निसंदेश एक बड़ा संकेत है। भारतीय संस्कृति में ‘आराध्य के लिए बनाए छत्तीस व्यंजनों’ का भी बड़ा महत्त्व है तो संग्रह की छत्तीस कविताएं बेशक अपने आराध्य के लिए है। जैसे कवि का यह हठ योग है कि वह बारंबार ईश्वर का आह्वान करता है और उसे अपने शब्दों से आहूतियां देता है।
यह अनायास नहीं हुआ है कि कवि सुधीर सक्सेना की इन कविताओं में निहित ‘ईश्वर’ संज्ञा में राम-रहीम के साथ वाहे गुरु, ईशु आदि सभी केंद्रों को जैसे मिश्रित कर उपस्थित किया गया है। इन कविओं की सबसे बड़ी सार्थकता यह है कि कवि के तर्क हमारे अपने तर्क हैं, जिनसे हम रोजमर्रा के जीवन में रू-ब-रू होते हैं। कवि के सवालों में हमारे अपने सवालों का होना इन कविताओं की सहजता हैं। यहां ईश्वर का गुणगान अथवा महिमा-मंडन नहीं है। साकार और निराकार सत्ताओं के बीच उस ईश्वर से साक्षात्कार होता है जो कवि का ही नहीं हमारा अपना ईश्वर है। कवि के द्वारा यह लिखना- ‘ईश्वर नहीं जानता हमारी भाषा तो दुख कैसे पढ़ेगा’ असल में सुख-दुख से धिरे सांसारिक प्राणियों की आत्माभिव्यक्ति है, वहीं ‘ईश्वर यदि सिर्फ देवभाषा जानता है/ और इतनी दूर है हमसे’ में पूर्व निर्मित ज्ञान के आभा मंडल में उसके होने और नहीं होने पर प्रश्न है।
ईश्वर के लिए अंतरिक्षवासी होना पूर्व धारण है वहीं बहुभाषी होने और आधुनिक युग की भाषाओं को जानने की शर्त हमारे मन का द्वंद्व है। ईश्वर के प्रति यह कवि का प्रेम है कि वह उसके दुख विचलित होता है, उसके एकाकीपन से द्रवित होता है।
फर्ज कीजिए कि वह सूई के छेद से निकल सकता है या कि उसके कद के बराबर कोई विवर ही नहीं जैसे काव्य-उद्गार में कबीर और अन्य भक्तिकालीन कवियों की अवधारणाएं परिक्षित होती हैं। ईश्वर की लीलाओं में उसके मानवीय़ रूप से हमारा साक्षात होता है, कवि सुधीर सक्सेना भी अपनी कविताओं के माध्यम से उसके मानवीय आचारण की अपेक्षा रखते हैं। रूप अर अरूप के दो बिंदुओं के बीच गति करती इन कविताओं में निसंदेह किसी एक ठिकाने की कवि को तलाश है। ‘कितना कुछ शको-शुबहा है/ तुम्हें लेकर/ सदियों की मुंडेर पर’ अथवा ‘तुम्हारी भौतिकी के बारे में कहना कठिन/ मगर तुम्हारा रसायन भी मेल नहीं खाता/ किसी और से, ईश्वर!’ जैसी अभिव्यक्ति में पाप और पुण्य से परे हमारे आधुनिक जीवन के संताप देखे जा सकते हैं। कवि की दृष्टि असीम होती है और वह इसी दृष्टि के बल पर जान और समझ लेता है कि इस संसार में माया का खेल विचित्र है- ‘कभी भी सर्वत्र न अंधियारा होता है/ न उजियारा’।
समय के साथ बदलती विचारधारों के बीच कवि कल्पना करता है- ‘अचरज नहीं/ कि उत्तर आधुनिक समय में ईश्वर/ गोलिसवाली पतलून पहले/ सिर पर हैट धर नजर आये/ नयी फब और नये ढब में/ किसी इंटरनेट कैफे या पब में!’ यह पंक्तियां इसका प्रमाण है कि कवि यहां अतिसंवेदनशील क्षेत्र में हमें ले जाता है और हम सोचने पर विवश होते हैं कि हां इस बदलते युग में यह भी हो सकता है। विभिन्न संदर्भों और ब्यौरों से लेस इन कविताओं में जहां विचार है वहीं सघन अनुभूतियां भी हैं। जहां धर्म है वहां दर्शन भी है। इन कविताओं की ज़द में एक व्यापक संसार है और कवि की व्यथा-कथा केवल उसकी अपनी नहीं है। यहां कुछ शब्द, पंक्तियां ऐसी भी है जिनको हम अपने भीतर के रसायन में बनता तो पाते रहे हैं किंतु वे किसी आकार में ढलने से पूर्व ही ध्वस्त हो जाती रही हैं। इन कविताओं से हमें किंचित साहस मिलता है और हम स्वयं को एक दायरे से बाहर लाकर सोचते-समझते हुए कवि के ‘ईश्वर : हां, नहीं... तो’ के मर्म में जैसे गहरे डूबते जाते हैं। संभवतः यही इन कविताओं का उद्देश्य भी है।
यहां यह भी रेखांकित किया जाना चाहिए कि सुधीर सक्सेना की काव्य-भाषा में प्रयुक्त शब्दावली एक विशेष प्रकार के चयन को साथ लेकर चलती है। यह उनका शब्दावली चयन उन्हें भाषा के स्तर पर जहां अन्य कवियों से विलगित करता है वहीं विशिष्ट भी बनाता है। भले पहले कविता ले अथवा अंतिम कविता या कोई बीच की कविता प्रत्येक कविता में कुछ शब्द ऐसे प्रयुक्त होते हैं जो जैसे उनके अपने हैं और केवल यह उनके यहीं देखने को मिलते हैं। जैसे- पहली कविता में ‘दुखों का खरीता’ अंतिम कविता में ‘हमारी फेहरिस्त’ उनकी निजी शब्दावली है जो उनकी कविताओं की पहचान बनती है। यह भी कहा जा सकता है कि उनके यहां कुछ अप्रचलित शब्द जिस ढंग से प्रयुक्त होते हैं कि लगता है उनके यहां उस काव्य-पंक्ति में इसके अतिरिक्त दूसरा कोई शब्द नहीं आ सकता है। सरलता, सहजता के साथ यह कवि की भाषागत विशिष्टता है।
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पुस्तक का नाम - ‘ईश्वर : हां, नहीं... तो’ (कविता संग्रह)
कवि - सुधीर सक्सेना 
 

 

Sunday, December 27, 2020

स्त्री की आंख से देखी गई दुनिया / डॉ. नीरज दइया


हिंदी की प्रतिष्ठित कवयित्री सुमन केशरी के बहुचर्चित कविता संग्रह को राजस्थानी में "मोनालिसा री आंख्यां" नाम से ललिता चतुर्वेदी ने अनूदित किया है। यह इसलिए भी स्वागत योग्य है कि राजस्थानी में महिला लेखन कम हुआ है और जो हुआ है उसमें सुमन केशरी की यह कविताएं एक प्रेरणा और दिशा का काम कर सकती हैं। किसी भी भाषा में एक स्त्री की आंख से देखी-समझी और परखी गई दुनिया का अपना महत्व होता है। क्योंकि उसके घर बनाने और घर को बचाने का सपना जीवन पर्यंत चलता रहता है। इस संसार में बसे हुए या कहें बने हुए किसी भी घर से बहुत सुंदर एक ऐसा घर है जिस का चित्रण कवयित्री ने किया है -
मरुधर री तपती रेत माथै
आपरी चूनड़ी बिछा'र
बीं माथै एक लोटो पाणी
अर बीं माथै ई रोटियां राख'र
हथाळी सूं आंख्यां आडी छियां करती
लुगाई
ऐन सूरज री नाक रै नीचै
एक घर बणाय लियो।
घर परिवार और जीवन का इससे सुंदर चित्रण अन्यत्र दुर्लभ है।
मोनालिसा एक ऐसी नायिका है जो सर्वकालिक और सर्वदेशीय है। वैसे इस संग्रह में मोनालिसा नाम से तीन कविताएं हैं और साथ ही एक शीर्षक कविता भी। इनके माध्यम से संग्रह केंद्रीय संवेदना को दिशा मिली है। इसमें जीवन का व्यापक यथार्थ, मौलिकता और अंतर्निहित एक व्यंग दृष्टि भी देखी जा सकती है। यहां बिना किसी आवेग अथवा नारों के इन कविताओं में एक स्त्री का संघर्ष विभिन्न बिंबों और प्रतीकों के माध्यम से मुखरित होता है। राजस्थानी के इस शब्दानुवाद के माध्यम से ललिता चतुर्वेदी ने कवयित्री सुमन केशरी की कविताओं के मर्म को छूने का पहला पहला प्रयास किया है। यह अनुवाद इसलिए एक सफल अनुवाद कहा जा सकता है कि इससे गुजरने के बाद पाठक के मन में कवयित्री सुमन केशरी की अन्य रचनाओं को पढ़ने जानने की उत्सुकता जाग्रत होती है। संग्रह बोधि प्रकाशन जयपुर से प्रकाशित हुआ है।
(आभार : उमा जी और संपादकीय टीम डेली न्यूज  )

Sunday, December 13, 2020

चिकित्सा जगत का विद्रूप चेहरा : लाइलाज

डॉ. रवींद्र कुमार यादव पेशे से एक चिकित्सक हैं और उन्होंने चिकित्सा जगत पर केंद्रित लाइलाज उपन्यास में अपने आसपास का विद्रूप चेहरा बहुत प्रमाणिक ढंग से अंकित किया है। डॉ यादव का इससे पहले एक कहानी संग्रह "बड़ा अस्पताल और अन्य कहानियां" भी प्रकाशित हो चुका है। दोनों कृतियों के शीर्षक से जैसा के स्पष्ट है लेखक अपने आसपास के भोगे हुए यथार्थ को रचना के केंद्र में रखते हुए अपनी बात कहते हैं।
लाइलाज उपन्यास का मुख्य पात्र इंद्राज पूरे उपन्यास में लोक मान्यता को पोषित करता है कि जड़ से इलाज तो देशी दवा ही करती है, अंग्रेजी दवा रोग को दबा भर देती हैं। इसी केंद्रीय सूत्र के पीछे लेखक ने धीरे-धीरे उपन्यास का विस्तार किया है जिसमें न केवल लोग मान्यताएं, लोक विश्वास, रूढ़ियां, व्यक्ति के मानसिक सामाजिक द्वंद, भ्रष्टाचार, क्षीण होती संवेदनशीलता अपने पुरजोर यथार्थ के साथ सहज सरल भाषा में अंकित होती चली जाती है वरन यह पूरा उपन्यास चिकित्सा जगत के विद्रूप चेहरे का प्रमाणिक दस्तावेज भी बनता चलता है। हमारे देश में चिकित्सक को भगवान के समकक्ष मानने वाले लोग भी हैं, यह उपन्यास असल में उसी भगवान के चेहरे को बचाए जाने का एक जतन है। आज के बदलते दौर में जब मूल्यों का पतन चारों तरफ दिखाई देता है तब यह उपन्यास किसी छोर से उन्हीं मूल्यों के बचाव की पैरवी करता है। यह लेखक की इमानदारी है कि वह सच्चाई का दामन अंत तक थामे रखता है। कहीं-कहीं उपन्यास में लगता है लेखक अतिशयोक्ति पूर्ण वर्णन कर रहा है किंतु लाइलाज होती इस व्यवस्था जो कि खुद इलाज करने वाली है के विषय में यह एक शानदार विमर्श है। ग्रामीण और शहरी समाज के बीच जहां अब भी अशिक्षा है वहीं शिक्षा के बाद भी चरमराती देश की व्यवस्था भी यहां देखने को मिलती है। विकास के मार्ग पर दौड़ते हुए देश के एक साधारण इंसान इंद्राज के घुटने का इलाज जरूरी है क्योंकि ऐसे अनेक इंद्राज इस देश में हैं जो कभी खुद के अज्ञान के कारण तो कभी ज्ञान के कारण ठगे जा रहे हैं। इस उपन्यास में व्यंग्यात्मक शैली और यथार्थ चित्रण के बीच लेखक रवींद्र कुमार यादव ने सुंदर समन्वय स्थापित किया है। इस उपन्यास का पाठ हमारे अनदेखे अथवा बहुत कम देखे जाने विषय को प्रामाणिकता के साथ जानना और समझना भी है। यह किताब कलमकार मंच से प्रकाशित हुई है।

 

 

Monday, December 07, 2020

सूफी काव्य धारा का विस्तार : साठ पार

 

राजस्थान पत्रिका में 06-12-2020

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डॉ. नीरज दइया
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"साठ पार" कवि कथाकार सत्यनारायण का सद्य प्रकाशित तीसरा कविता संग्रह है। इससे पूर्व "अभी यह धरती", "जैसे बचा है जीवन" संग्रहों की कविताएं समकालीन कविता में पर्याप्त चर्चा का विषय रही हैं। तुलनात्मक रूप से डॉ. सत्यनारायण कविता की तुलना में अपने बेजोड़ गद्य लेखन से अधिक जाने जाते हैं, किंतु उनकी कविताएं भी अपनी व्यंजना और शिल्प-शैली के कारण विशिष्ट हैं। असल में कवि का यह संग्रह 60 पार अभिधा में उनकी उम्र को व्यंजित करता है पर असल में व्यंजना में इसके अनेक अर्थ घटक समाहित है जो संग्रह की कविताओं में देखें जा सकते हैं। 
प्रेम कभी पुराना नहीं होता और डॉ सत्यनारायण के यहां प्रेम भी एक कविता अथवा किसी गीत की तरह है जिसे बार-बार गाया जाना जरूरी है क्योंकि इसी में जीवन का सार है। सात खंडों में विभक्त इस कविता संग्रह के पहले खंड को साठ नहीं आठ पार की आवाज नाम दिया गया है, जिसमें कवि अपनी छोटी-छोटी कविताओं के माध्यम से अपने छोटे से किंतु बहुत बड़े प्रेम की स्मृति को उजागर करता है। यहां कभी का आत्म संवाद और विभिन्न मन: स्थितियों में जैसे एक पुराना राग फिर फिर साधता चला जाता है -
दुख यह नहीं कि/ तुम नहीं मिली/ अफसोस यह कि/ शब्द जुटा नहीं पा रहा हूं/ साठ के पार भी/ यदि मिल जाती तो/ क्या कहता। (कविता - अफसोस यही की)
असल में जीवन अथवा प्रेम अपनी उम्र अथवा समय अवधि में नहीं वरन वह किसी अल्प अवधि अथवा क्षण विशेष में धड़कता रह सकता है इसका प्रमाण है संग्रह की कविताएं। जीवन में स्मृतियों का विशेष महत्व होता है और यह संग्रह विशिष्ट स्मृतियों का विशिष्ट कोलॉज है। अभी बची है/ एक याद/ बचे हैं/ कुछ सपने/ क्या इतना बहुत नहीं है/ जीने के लिए/साठ पार भी। (कविता - जीने के लिए)
बेशक कभी अपनी प्रेयसी उर्मि के लिए जितना मुखर होकर यहां प्रस्तुत हुआ है उस मुखरता में कहीं ना कहीं पाठक हृदय भी न केवल झंकृत होता है वरन वह भी इस एकालाप में अपना सुर मिलाकर साथ गाने लगता है यही इन कविताओं की सार्थकता है। 
कहां हो प्रिय खंड मैं मृत्यु विषयक पंद्रह कविताओं को संकलित किया गया है। यहां भी कवि का जीवन से प्रेम और स्पंदित उपस्थिति प्रस्तुत होती है, वह जीवन के सुर में बजाता हुआ जीना चाहता है उसकी कामना है कि कहीं यदि वह रड़के तो मृत्यु उसे अजाने नींद में स्वीकार कर ले। 
इच्छा थी तुम्हारी अथवा दुख कहां सीती होंगी अब मांएं खंडों में भी धड़कती हुई स्मृतियां और जीवन की आशा निराशा के बीच खोए अथवा खोते जा रहे प्रेम और जीवन की उपस्थिति दिखाई देती है। बहुत कम शब्दों में बहुत गहरी बात कह देना कभी का विशेष हुनर है। इच्छा कविता को उदाहरण के रूप में देखा जा सकता है - "इच्छा थी तुम्हारी/ तुम/ इच्छा ही रह गयी।" अथवा हर सांस में याद - "हर सांस में/ घुली है याद/ नहीं तो/ मैं कैसे ले पाता सांस/ बिना याद के/ तुम्हारी।" 
इन कविताओं में जहां एक और जीवन, प्रेम और संबंध धड़कते हैं वहीं दूसरी ओर राजस्थान की मिट्टी, यहां का परिवेश और जन जीवन अभिव्यक्त हुआ है। संग्रह के अंतिम खंड में कवि अपने मित्र रचनाकार रघुनंदन त्रिवेदी और रामानंद राठी का काव्यात्मक स्मरण भी करते हैं। संग्रह के अंत में दो गद्य कविताएं भी संकलित है। समग्र रूप से इन छोटी छोटी कविताओं में जिस सहजता सरलता के साथ हम जीवन की सूक्ष्म अनुभूतियों का अवलोकन करते हैं वह काल्पनिक और यांत्रिक होती जा रही हिंदी कविता का एक दुर्लभ क्षेत्र है। कहा जाना चाहिए कि साठ पार संग्रह का कवि सत्यनारायण मलिक मोहम्मद जायसी से चली आ रही प्रेमाश्रयी अथवा सूफी काव्य धारा का विस्तार अथवा आधुनिक संस्करण है। 
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पुस्तक का नाम : साठ पार (कविता संग्रह)
कवि : सत्यनारायण
प्रकाशक : बोधि प्रकाशन जयपुर
संस्करण : 2019 
मूल्य : 150/-
पृष्ठ  : 120
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जब भी देह होती हूँ (कविता संग्रह)


पुस्तक समीक्षा
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डॉ. नीरज दइया
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पुस्तक का नाम - जब भी देह होती हूँ (कविता संग्रह)
कवि - नवनीत पाण्डे
प्रकाशक - सर्जना, शिवबाड़ी रोड, बीकानेर
पृष्ठ- 80
संस्करण - 2020
मूल्य- 100/-
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स्त्री देह के अनेक रूपों पर केंद्रित कविताएं  
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            राजस्थान की समकालीन हिंदी कविता में एक प्रमुख नाम है- नवनीत पाण्डे। हाल ही में आपका पांचवां कविता-संग्रह ‘जब भी देह होती हूँ’ प्रकाशित हुआ है, इससे पूर्व ‘सच के आसपास’, ‘छूटे हुए संदर्भ’, ‘जैसे जिनके धनुष’ तथा ‘सुनो मुक्तिबोध एवं अन्य कविताएँ’ संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। इस संग्रह की कविताओं में जीवन के अनेक चित्र-घटना-प्रसंग स्त्री केंद्रित अनुभूतियों का बड़ा कोलाज है। समकालीन कविता के विषयों में स्त्री-पुरुष संबंध, परस्पर मनःस्थितियों पर तरल अनुभूतियों की अनेक कविताएं पहले से मौजूद हैं, किंतु नवनीत पाण्डे के यहां स्त्री देह के अनेक रूपों में केंद्रित किए कविताओं के इस समुच्चय में संजोते हुए उसे देह से इतर देखने-समझने-समझाने के सघन प्रयास हुए हैं।
    पुरुष समाज में स्त्री को केवल देह और उसके भोग के रूप में देखने और बरतने की बात नई नहीं है किंतु उसे बहुत कम शब्दों में कह देना कवि की विशेषता है- ‘काम चाहिए/ जरूर मिलेगा/ भरपूर मिलेगा/ पर!/ पर!/ इतना भी नहीं समझती/ जब भी बुलाऊँ/ आना होगा/ काम कराना होगा.... (काम चाहिए : पृष्ठ-56) कवि नवनीत पाण्डे एक जगह लिखते हैं- ‘सवाल करने का हक/ सिर्फ हमें है/ और तुम्हें हमारे/ हर सवाल का जवाब देना होगा/ समझी!/ या अपनी तरह समझाएँ....’ (पृष्ठ-57) इन कविताओं में पुरुष समाज का स्त्री और उसकी देह को अपने ढंग से समझने और समझाने का भरपूर अहम्‌ भयावह रूप में मौजूद है। कवि स्त्री-पुरुष संबंधों में व्याप्त अव्यवस्थाओं को बहुत सहजता से खोलते हुए अपने पाठकों को सोचने पर मजबूर कर देता है कि यह क्या हो रहा है?
    संग्रह की भूमिका में प्रख्यात कवयित्री सुमन केसरी ने लिखा है- ‘नवनीत पाण्डे के इस संग्रह की कविताएँ स्त्री को समर्पित हैं, किंतु वे अनेक सवाल उठाती हैं- वे स्त्री समाज द्वारा प्रदत्त कर्तव्यों को ही अंतिम सत्य मान लेने से इनकार करती कविताएँ हैं।’ संग्रह की कविताओं में स्त्री को उसकी अलग अलग अवस्थाओं में लक्षित कर देखने-परखने अथवा मुखरित करने के अनेक बिंब मौजूद हैं, जिनसे इनकी केंद्रीय चेतना किसी भी अंतस को प्रकाशवान बनने में अपनी भूमिका रखती है। शिल्प के स्तर पर अपनी लय को साधती इन कविताओं का कैनवास इक्कीसवीं शताब्दी के पूरे परिदृश्य को प्रस्तुत करते हुए हमारे विकास और सभ्यता के संदर्भों पर एक बड़ा प्रश्नचिह्न भी अंकित करती हैं। यही नहीं इन कविताओं को गुजरने के बाद हमारे भीतर संवेदनाओं की लहरें उठती हैं जो बड़े परिवर्तन की मांग है। संभवतः किसी रचना का यही बड़ा उद्देश्य होना चाहिए।      
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डॉ. नीरज दइया 

 


डेली न्यूज में 06-12-2020

Tuesday, November 10, 2020

‘ईश्वर : हां, ना... नहीं’ : अतिसंवेदनशीलता में कविता का प्रवेश / डॉ. नीरज दइया

  

सुधीर सक्सेना समकालीन कविता के विशिष्ट कवि हैं। विशिष्ट इस अर्थ में कि वे अपने आरंभिक लेखन से ही प्रयोगधर्मी और नवीन विषयों के प्रति मोहग्रस्त रहे हैं। कहा जा सकता कि वे भाषा, शिल्प और कथ्य के स्तर पर अन्य कवियों से अलहदा हैं, उनके यहां सामान्य और औसत से भिन्न विशिष्टता का पूर्वाग्रह है। संभवतः उनके प्रभावित और स्मरणीय बने रहने का कारण ही उनकी नवीनता और प्रयोगधर्मिता है। उनके हर नए संग्रह के साथ ऐसा लगता है कि जैसे वे विषयों का हर बार अविष्कार करते हैं। या यूं कहें कि उनकी कविताओं के विषय अपनी ताजगी और नवीन दृष्टिकोण के कारण नवीन अहसासों, मनःस्थितियों में ले जाने में सक्षम हैं। उनके यहां किसी सामान्य अनुभव अथवा दिनचर्या को कविताओं में रूपांतरित करते का हुनर विशेष परिस्थितियों में सांकेतिक रूप में होता है, किंतु व्यापक रूप में उनका सामान्य किसी विशिष्टता में घुलमिल कर विशिष्ट रूप में ही प्रस्तुत हुआ है। उनकी कविताओं में यह भी लगातार हुआ है कि वे इतिहास और वर्तमान को जैसे किसी धागे से जोड़ते हुए, उन्हें मंथर गति करते हुए हमारे सामने ला खड़ा करते हैं। उनकी कविताएं कोरा भूत और वर्तमान का ब्यौरा मात्र नहीं वरन वे हमारे भविष्य की संभावित अनेक व्यंजनाएं लिए हुए है। कहीं सांकेतिकता है तो कहीं खुलकर उनका कवि-मन अपने विमर्श में हमें शामिल कर लेता है। यहां रेखांकित करने योग्य तथ्य यह है कि इन कविताओं में कवि के सवाल हमारे अपने सवाल बन जाते हैं, द्वंद्व में कवि के साथ हम भी द्वंद्वग्रस्त हो जाते हैं। यह भी कहना चाहिए कि सुधीर सक्सेना की कविताओं का केंद्र-बिंदु बदलता रहा है, किंतु यह भी उल्लेखनीय है कि कवि के चिंतन के मूलाधार लक्ष्यबद्ध रहे हैं। वे हर बार कुछ अभिनव विषयों से मुठभेड़ करते हुए अपने चिंतन-मनन का वातायान प्रस्तुत कर हमारे आकर्षण का केंद्र रहे हैं। उनका नए नए विषयों के प्रति मूलतः आकर्षण है जिसे समकलीन हिंदी अथवा भारतीय कविता के अन्य कवियों और कविताओं में वरेण्य है।
    उदाहरण के लिए यदि हम कवि सुधीर सक्सेना के कविता संग्रह ‘ईश्वर : हां, नहीं... तो’ की बात करें, तो सर्वप्रथम यह कि ‘ईश्वर’ विषयक कविताएं आधुनिक कविता के केंद्र में इस रूप में कहीं नहीं है। वैसे भी यह क्षेत्र अथवा काव्य-विषय अतिसंवेदनशील है। यह शीर्षक अपने आप में किसी काव्य-युक्ति की भांति अनेक आयामों को लिए हमारी उत्सुकता को दिशा देने वाला है। यह भी सत्य है कि ईश्वर विषयक ‘हां’ और ‘ना’ के दो पक्षों के अतिरिक्त यहां जो ‘तो’ का अन्य पक्ष है, वह कवि का इजाद किया हुआ नहीं है। लेकिन इन तीनों पक्षों को एक साथ में इस रूप में किसी कविता संग्रह का केंद्रीय विषय बनाना कवि का इजाद किया हुआ है। हमें इस संग्रह से गुजरते हुए लगता है कि इन तीनों पक्षों को एक साथ कविताओं में नए विकल्प के रूप में प्रस्तुत करना हमारे आकर्षण का विषय है। हिंदी साहित्य में भक्तिकाल को स्वर्ण-युग कहा जाता है और वहां ईश्वर के संबंध में ‘हां’ की बहुलता और एकनिष्टता है। आधुनिक काल और वैज्ञानिक दृष्टिकोण के रहते बीसवीं शताब्दी में ईश्वर के विषय में साहित्य और कविताओं में ‘ना’ का बाहुल्य है। यह यह भी सच है कि सुधीर सक्सेना अपने काव्यात्मक विमर्श में जिस ‘तो’ को संकेतित करते हैं वह बीसवीं शताब्दी के उतरार्द्ध का सच है। कवि के अनुभव और चिंतन में जहां तार्किता है वहीं निर्भिकता भी है। शायद यही कराण है कि इक्कीसवीं शताव्दी में डॉ. सुधीर सक्सेना जैसा एक कवि जो निसंदेह उत्तर-आधुनिक कवि है, ‘ईश्वर’ विषयक अपनी इन छत्तीस कविताओं में जैसे ‘छत्तीस का आंकड़ा’ भले जानबूझ कर उपस्थित नहीं भी करता हो किंतु यह संयोग भी निसंदेश एक बड़ा संकेत है। भारतीय संस्कृति में ‘आराध्य के लिए बनाए छत्तीस व्यंजनों’ का भी बड़ा महत्त्व है तो संग्रह की छत्तीस कविताएं बेशक अपने आराध्य के लिए है। जैसे कवि का यह हठ योग है कि वह बारंबार ईश्वर का आह्वान करता है और उसे अपने शब्दों से आहूतियां देता है।  
    यह अनायास नहीं हुआ है कि कवि सुधीर सक्सेना की इन कविताओं में निहित ‘ईश्वर’ संज्ञा में राम-रहीम के साथ वाहे गुरु, ईशु आदि सभी केंद्रों को जैसे मिश्रित कर उपस्थित किया गया है। इन कविओं की सबसे बड़ी सार्थकता यह है कि कवि के तर्क हमारे अपने तर्क हैं, जिनसे हम रोजमर्रा के जीवन में रू-ब-रू होते हैं। कवि के सवालों में हमारे अपने सवालों का होना इन कविताओं की सहजता हैं। यहां ईश्वर का गुणगान अथवा महिमा-मंडन नहीं है। साकार और निराकार सत्ताओं के बीच उस ईश्वर से साक्षात्कार होता है जो कवि का ही नहीं हमारा अपना ईश्वर है। कवि के द्वारा यह लिखना- ‘ईश्वर नहीं जानता हमारी भाषा तो दुख कैसे पढ़ेगा’ असल में सुख-दुख से धिरे सांसारिक प्राणियों की आत्माभिव्यक्ति है, वहीं ‘ईश्वर यदि सिर्फ देवभाषा जानता है/ और इतनी दूर है हमसे’ में पूर्व निर्मित ज्ञान के आभा मंडल में उसके होने और नहीं होने पर प्रश्न है।
    ईश्वर के लिए अंतरिक्षवासी होना पूर्व धारण है वहीं बहुभाषी होने और आधुनिक युग की भाषाओं को जानने की शर्त हमारे मन का द्वंद्व है। ईश्वर के प्रति यह कवि का प्रेम है कि वह उसके दुख विचलित होता है, उसके एकाकीपन से द्रवित होता है।
    फर्ज कीजिए कि वह सूई के छेद से निकल सकता है या कि उसके कद के बराबर कोई विवर ही नहीं जैसे काव्य-उद्गार में कबीर और अन्य भक्तिकालीन कवियों की अवधारणाएं परिक्षित होती हैं। ईश्वर की लीलाओं में उसके मानवीय़ रूप से हमारा साक्षात होता है, कवि सुधीर सक्सेना भी अपनी कविताओं के माध्यम से उसके मानवीय आचारण की अपेक्षा रखते हैं। रूप अर अरूप के दो बिंदुओं के बीच गति करती इन कविताओं में निसंदेह किसी एक ठिकाने की कवि को तलाश है। ‘कितना कुछ शको-शुबहा है/ तुम्हें लेकर/ सदियों की मुंडेर पर’ अथवा ‘तुम्हारी भौतिकी के बारे में कहना कठिन/ मगर तुम्हारा रसायन भी मेल नहीं खाता/ किसी और से, ईश्वर!’ जैसी अभिव्यक्ति में पाप और पुण्य से परे हमारे आधुनिक जीवन के संताप देखे जा सकते हैं। कवि की दृष्टि असीम होती है और वह इसी दृष्टि के बल पर जान और समझ लेता है कि इस संसार में माया का खेल विचित्र है- ‘कभी भी सर्वत्र न अंधियारा होता है/ न उजियारा’।
    समय के साथ बदलती विचारधारों के बीच कवि कल्पना करता है- ‘अचरज नहीं/ कि उत्तर आधुनिक समय में ईश्वर/ गोलिसवाली पतलून पहले/ सिर पर हैट धर नजर आये/ नयी फब और नये ढब में/ किसी इंटरनेट कैफे या पब में!’ यह पंक्तियां इसका प्रमाण है कि कवि यहां अतिसंवेदनशील क्षेत्र में हमें ले जाता है और हम सोचने पर विवश होते हैं कि हां इस बदलते युग में यह भी हो सकता है। विभिन्न संदर्भों और ब्यौरों से लेस इन कविताओं में जहां विचार है वहीं सघन अनुभूतियां भी हैं। जहां धर्म है वहां दर्शन भी है। इन कविताओं की ज़द में एक व्यापक संसार है और कवि की व्यथा-कथा केवल उसकी अपनी नहीं है। यहां कुछ शब्द, पंक्तियां ऐसी भी है जिनको हम अपने भीतर के रसायन में बनता तो पाते रहे हैं किंतु वे किसी आकार में ढलने से पूर्व ही ध्वस्त हो जाती रही हैं। इन कविताओं से हमें किंचित साहस मिलता है और हम स्वयं को एक दायरे से बाहर लाकर सोचते-समझते हुए कवि के ‘ईश्वर : हां, नहीं... तो’ के मर्म में जैसे गहरे डूबते जाते हैं। संभवतः यही इन कविताओं का उद्देश्य भी है।
    यहां यह भी रेखांकित किया जाना चाहिए कि सुधीर सक्सेना की काव्य-भाषा में प्रयुक्त शब्दावली एक विशेष प्रकार के चयन को साथ लेकर चलती है। यह उनका शब्दावली चयन उन्हें भाषा के स्तर पर जहां अन्य कवियों से विलगित करता है वहीं विशिष्ट भी बनाता है। भले पहले कविता ले अथवा अंतिम कविता या कोई बीच की कविता प्रत्येक कविता में कुछ शब्द ऐसे प्रयुक्त होते हैं जो जैसे उनके अपने हैं और केवल यह उनके यहीं देखने को मिलते हैं। जैसे- पहली कविता में ‘दुखों का खरीता’ अंतिम कविता में ‘हमारी फेहरिस्त’ उनकी निजी शब्दावली है जो उनकी कविताओं की पहचान बनती है। यह भी कहा जा सकता है कि उनके यहां कुछ अप्रचलित शब्द जिस ढंग से प्रयुक्त होते हैं कि लगता है उनके यहां उस काव्य-पंक्ति में इसके अतिरिक्त दूसरा कोई शब्द नहीं आ सकता है। सरलता, सहजता के साथ यह कवि की भाषागत विशिष्टता है।

डॉ. नीरज दइया



 

राजस्थान की सहृदय टाइम मशीन : डॉ. महेन्द्र खड़गावत / डॉ. नीरज दइया

 बीकानेर स्थित राजस्थान राज्य अभिलेखागार देश और दुनिया का अद्वितीय अभिलेखागार है। वर्तमान समय की मांग को समझते हुए इसे डिजिटल कर दिया गया है कि हम घर बैठे सवा करोड़ से अधिक नायाब ऐतिहासिक-प्रशासनिक दस्तावेजों से रू-ब-रू हो सकते हैं। यहां ना केवल इतिहास की धरोहर को संजोए दस्तावेज ऑनलाइन किए गए हैं वरन पुस्तकालय की करीब 50 हजार से अधिक पुस्तकों को भी हम अंतराजल पर देख सकते हैं। इन दिनों सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण बात इस अभिलेखागार का अभिलेख म्यूजियम है, जिसे देख कर हर कोई अभिभूत हो जाता है। ‘अभिभूत’ शिष्ट शब्द है, इसके स्थान पर सामान्य भाषा में कहें तो कहें तो यह ‘पागल’ बना देने वाला संग्रहालय है। यहां सब कुछ इतने करीने से प्रस्तुत किया गया है कि यकीन करना कठिन है। यह सब धोरों की धरती राजस्थान के बीकानेर में स्थिति राजस्थान राज्य अभिलेखागार ने संभव कर दिखाया है। इस संग्राहल में प्रवेश करते ही जैसे यह अपनी जुबान खुद बोलता हुआ हमसे बतियाता है। इसकी बेहतरीन कार्य-योजनाओं व्यवस्थाओं को देखकर अच्छे-भले पढ़े-लिखे चकित होकर हर एक स्थल पर बस निहारने की मुद्रा में मूक मंत्र-मुग्ध रह जाते हैं। ऐसा ही कुछ हुआ मेरे साथ। अपने शहर में इतना विशाल अभिलेख संग्राहलय जिसे आश्चर्यलोक कहा जा सकता है को निर्मित किया गया है कि हैरत होती है।
    मैं अपने पुराने दिनों में लौटता हूं तो मुझे अनेक दिनों-अवसरों का स्मरण होता है। जब मैं यहां आया और अभिलेखागार के निदेशक डॉ. महेन्द्र खड़गावत जी से मिला। वे बातों-बातों में उनके यहां हो रहे कार्यों की चर्चा अकसर किया करते थे। मैं कल्पना करता था कि यह बंदा इस ठंडे ऐतिहासिक विभाग में आराम से क्यों नहीं बैठ जाता है। कभी कुछ और कभी कुछ में लगा ही रहता है। जैसे खाली नहीं बैठने की सौगंध उठा रखी हो। कभी कोई योजना पर काम चल रहा है, तो कभी कोई कार्य पूर्ण होने को है। क्या यह एक सपना नहीं है कि अभिलेखागार की वेबसाइट पर अब एक क्लिक के साथ 55 लाख से अधिक रियासतकालीन ऐतिहासिक दस्तावेज देखे जा सकते हैं। रियासतकालीन ऐतिहासिक और प्रशासनिक दस्तावेजों को ऑनलाइन करना और मुगलकालीन फरमानों को हिंदी में अनुवाद कर पुस्तकाकार करवाना कोई सरल काम नहीं है।  
    मैंने 4.12 करोड़ की राशि से निर्मित अभिलेख म्यूजियम के बारे में अब तक सुना-सुना ही था और उसे देखने के बाद अहसास हुआ कि इसके निदेशक डॉ. महेंद्र खड़गावत के पास एक अभिनव दृष्टि है, जिससे वे भूत और भविष्य को एक साथ देख सकते हैं। वे इतिहास की इन धरोहरों को जिस दूरदर्शिता से सहेज कर हमें उपलब्ध करवाने के उपक्रम में वर्षों से लगे रहे हैं। ‘अभिलेख संग्रहालय’ देखकर तो ऐसा ही लगता है कि यदि अभिलेखागार के डॉ. खड़गावत को राजस्थान की सहृदय टाइम मशीन कहें तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। वे ऐसे अधिकारी हैं जो अभिलेखागार में पहुंचने वाले हर आगंतुक का भरपूर स्वागत करते हैं और साथ ही अनेक विशिष्ट जनों को बहुत उत्साह के साथ आमंत्रित भी करते रहते हैं। बीकानेर में कोई बाहर से विशिष्ट आगंतुक आए तो उसकी खबर हमें अगले दिन पता चलती है कि अमुख श्रीमान ने अभिलेखागार देखा। उन्हें मशीन कहना भी शायद बेमानी होगा, क्यों कि जिस उत्साह और गर्म जोशी से हमें प्रभावित करते हैं ऐसा प्रभाव और कर्य-निष्ठा तो किसी मशीन में मिलना नामुमकिन ही हैं, इसलिए ‘सहृदय’ टाइम मशीन विशेषण अनुकूल है। वे सरल, सहज, मिलनसार और विलक्ष्ण व्यक्तित्व के धनी हैं। अपने अध्ययन-चिंतन-ममन से वे अपना अमिट प्रभाव बनाने में सक्षम हैं। बहुत बार तो मैंने देखा है कि वे स्वयं अभिलेखागार के कोने-कोने में अवलोकन कराते हुए इतनी सूक्ष्मताओं  से ऐतिहासिक तथ्यों को व्याख्यायित करते हमें मोहित करते हैं।
    इतिहास में मानव जाति का मूक वजूद घड़कता है। इसकी धड़कनों को सुनना इतना सहज-सरल और हर किसी के वश की बात नहीं है। मुगलकालीन इन साक्ष्यों की भाषा फारसी होना एक बड़ा भारी प्रतिरोध हो सकता है। इसको ध्यान में रखते हुए 327 फरमानों को फारसी से हिंदी में अनुवाद करवा ‘मुगलकालीन भारत एवं राजपूत शासक’ जैसी महत्त्वपूर्ण पुस्तक को चार खंड़ों से यहां से प्रकाशित करवाया गया है। इतना ही नहीं 65 लाख अभिलेखों की माइक्रोफिल्मिंग और 240 से अधिक स्वतंत्रता सेनानियों के दर्लभ ऑडियो संग्रह का अनुपम कार्य भी ऑनलाइन किया जा चुका है। राजस्थानी भाषा की तत्कालीन बोलियों में अनेक दस्तावेज ई-अभिलेखागार में रखें हुए हैं जो निसंदेह विस्मयकारी दस्तावेज और धरोहर है। फरमान, निशान, मंशूर, बही, पट्टा-परवाना की धरोहर सहेजने वाले इस अभिलेखागार की बसावट की बात करें तो यह 1934 में बीकानेर के महाराजा गंगासिंह द्वारा बनाया गया था। उनकी रुचि के रहते इस इमारत में तत्कालीन समय में अनेक नवाचार किए गए हैं।
    अभिलेख संग्राहलय में हमारे विस्मय की सीमा नहीं रहती जब हम मुगल साम्राज्य के सेनापति राजपूत शासक जयसिंह प्रथम और मराठा छत्रपति शिवाजी महाराज के बीच 11 जून, 1665 को हुई पुरन्दर की संधि का 22 फीट (670.56 सेंटीमीटर) लंबे विशालकाय लिखित प्रारूप को सुसज्जित देखते हैं। हमारे अतीत के अवलोकन का यह राजकीय उपक्रम राज्य अभिलेखागार 1955 में राजस्थान के जयपुर में स्थापित हुआ और इसे 1963 में बीकानेर में स्थानांतरित किया गया था। तब से इसका क्रमिक विकास हुआ और इस शताब्दी में यह विकास चरम पर है। यहां बीकानेर, जयपुर, जोधपुर, सिरोही आदि रियासतों के समृद्ध इतिहास श्रोतों का प्रबंधन व्यक्तिगत रुचि लेकर किया गया है। हम 17 वीं शताब्दी से आरंभ हुए भारत की अनेक ऐतिहासिक धरोहरों और खासकर राजपूताना की धरोहरों को इतनी बड़ी संख्या में विविध आयामों के साथ केवल यहीं पाते हैं।
    यहां शिवाजी, महाराणा प्रताप और टेस्सीटोरी जैसे अनेक स्थल अभिलेखागार की महती धरोहर हैं। यहां विपुल मात्रा में अनेक दस्तावेजों को न केवल ऑनलाइन कर दुनिया भर के लिए सुलभ कर दिया गया है, वरन मुगलकालीन बादशाहों के मूल पत्रों, विभिन्न दस्तावेजों, प्रमाणों को भी अत्याधुनिक तकनीकों द्वारा सहेजा का उपक्रम हुआ है। अभिलेख म्यूजियम निसंदेह एक नवाचार है। विश्व के शीर्ष डिजिटल अभिलेखगार की श्रेणी में स्थान पाने का अभिप्राय यहां दूर दूर से अनेक शोधार्थी विशद शोध के लिए आएंगे। इतालवी भाषाविद एल.पी. टेस्सीटोरी दीर्घा इस बात का प्रमाण है कि एक शोधार्थी अपने कार्यों से स्वयं कितना महान बन सकता है। दस्तावेज दीर्घा, टेस्सीटोरी दीर्घा, ताम्रपत्र दीर्घा, प्रदर्शनी दीर्घा और संरक्षण प्रयोगशाला यहां के प्रमुख आकर्षण हैं। जैसे यहां हर दीर्घा में हमें मुग्ध और मोहित करने का कोई मंत्र सिद्ध किया गया है कि जब हम एक से दूसरी में प्रवेश करते हैं तो यह फैसला करना कठिन हो जाता है कि कौनसी अधिक महत्त्वपूर्ण है।
    जिस कार्य को करने में पहले बहुत समय लगता था उसे अब जल्द से जल्द किए जाने में सक्षमता प्राप्त हो चुकी है। प्रदेश के स्वतंत्रता संग्राम और प्रजा मंडल के अभिलेख के साथ ही आम जन को अपनी जमीन के पट्टे, नक्सा, बही आदि खोजने में सुगमता हुई है। यहां अभिलेखों को निशुल्क देखने की आम जन को सुविधा दी गई है। यहां हमें हमारे वर्तमान से इतिहास में जाने का, उसे देखने-समझने-परखने का सुगम और मनभावन मार्ग मिल रहा है।

डॉ. नीरज दइया





 

 

Saturday, October 10, 2020

असैंधी गळी री सुवास / डॉ. अर्जुन देव चारण


    गळी जिसी गळी। लोगां जिसा लोग। आदतां जिसी आदतां। बासती पड़ी हुवै तो माथै आली घास न्हाखणी। सावळ बळै तो लोगां रो जी सोरो हुवै अर किणी रो जी सोरो आपां सूं देखीजै कोनी। इण खातर धूंवो करणो आपां रो धरम। धूंवे सूं धांसी आवै। आंख्यां में पाणी आवै। बळत लागै। गळे में खरास लखावै। औ सो कीं देखर आपां नै मजो आवै।
    मिनख रै मन री थाह लेवती अै ओळियां सांवर दइया री चावी कहाणी ‘गळी जिसी गळी’ री है। सांवर स्यात् राजस्थानी रो पैलो कहाणीकार है जको कहाणी में मिनख रै मन नै समझण सारूं आफलै। सांवर दइया खुद कहाणियां में कम सूं कम बोलै। वरणन रै खिलाफ ऊभो औ रचनाकार राजस्थानी कहाणी नै अेक नुंवी सैली अर अेक नुंवी जमीन दी। सांवर रो पूरो जोर वरणन री ठौड़ दरसाव नै पकड़ण माथै रैवै। आपरी कहाणियां में वो इण चतुराई सूं परिवेस नै रचै कै पूरो परिवेस ई कहाणी बण जावै।
    जे कोई राजस्थान रै स्कूलां रा हालात जांणणी चावै तौ उणनै अठी उठी जावण री बजाय सांवर दइया री अै कहाणियां बांचणी चाइजै जकी सांवर मास्टरां रै चरित नै बखाणण सारू लिखी। स्यात् अै हालात पूरे देस री सिक्सा व्यवस्था रा होवे पण सांवर दइया जद कहाणी लिखै तौ पक्कायत रूप सूं वे आपरी जमीन सूं जुडऩै ईज लिखै। अेक जैड़ी कहाणियां समाज रो भविस् बणावणिया ठेकेदारां री असलियत परगट करै वांरौ कहाणी संग्रै ‘अेक दुनिया म्हारी’ (1984) तो पूरो स्कूल रै आखती पाखती घूमै। अै कहाणियां सांवर रै अन्तद्र्वन्द्व री कहाणियां है। वे खुद भणाई रै महकमै सूं जुडिय़ोड़ा हा अर इण सारूं जद वे आपरा सपना अर जथारथ रै बिच्चै पसरियोड़ो सुन्याड़ नै देखता तद वांरो रचनाकार मन अैड़ी कहाणियां रचण लागतो। ‘अेक दुनिया म्हारी’ रो समरपण लिखता वे लिखै —
    वी दिन नांव
    जद आपणी स्कूलां ‘शिक्षा मन्दिर’ बणसी
    अर / शिक्षक श्री गज्जूभाई दांई ‘मूंछाळी मां’
    वी रात रै नांव
    जद म्हनै अै काळा सपना आया
    अर / म्हंै अै कूड़ी कथावां लिखी।
    बी घड़ी रै नांव
    जद अंधारो छंटसी
    अर / आस्था रो उजास पसरसी।’’
    औ समरपण सांवर री पीड़ परगट करै। इणमें उणरो खुद सूं जूंझणौ बोलै, इण जथारथ नै मांडता थकां ई वो अेक ‘आदर्स’ री तलास में है। अै कहाणियां उणरै आदर्स अर जथारथ रै संघर्स सूं उपजियोड़ी है। आं में पात्र दूजां रै मिस खुद सूं ई जूंझ रैया है। आ लड़ाई पूरी व्यवस्था  नै बदळण री है।
‘पण साब! आ बात तो मास्टरां नै सोभा देवै है नीं कै वै आपरो पढावण रो काम छोड’र गळी-गळी खुरिया रगड़ता फिरै। घर-घर जाय’र डांगरा गिणै, रासन कार्ड बणावै... घरां माथै नम्बर लगावै... अैई काम जे आपनै भोळावै तो आप कर देवो कांई साब?’                               (अेक दुनिया म्हारी-पेज 50)
    अै सवाल जथारथ सूं आदर्स रा पूछियोड़ा सवाल है, पण दुख इण बात रो है कै औ ‘आदर्स’ अेकलो पडिय़ोड़ो है। उणरै इण संघर्स में कोई उणरै साथै नीं है...
    ‘...म्हैं तो हाल ई कैवूं कै औ काम मास्टरां रो कोनी। आं फालतू कामां खातर म्हे कोनी। आपणो काम टाबरां नै भणावणो है। आपां नै आं फालतू कामां रो विरोध करणो चाइजै।
    पण बीं रै साथै विरोध करण नै लोग तैयार कोनी हा। अैड़ो लागै हो जांणै रीस खाली बीं रै मांय ई भरियोड़ी है।’      (अेक दुनिया म्हारी - पेज 51)
    कहाणीकार री पीड़ा आ ई है कै इण सड़ती गिधावती व्यवस्था रै खिलाफ कोई क्यूं नीं बोल रैयो है। अै कहाणियां पाठकां नै जगावण री कहाणियां है। स्यात् इणी सारूं वो घड़ी-घड़ी अैड़ी कहाणियां लिखी। केई लोगां नै औ लाग सकै कै सांवर अेक ई बात नै घड़ी-घड़ी कैई-अैड़ो क्यूं? इणरो कारण फगत औई हो कै वो पाठक री चेतना नै जगावणी चावतो अर उणनै ठा हो कै जुगां-जुगां सूं सूतो औ समाज अेक बार कैयां सूं नीं जागैला, सांवर री अै कहाणियां आस्था रै उजास अर टाबर री कंवळास नै बचावण री अरदास करती लागै —
    हां तो सुणो भाई बांचणिया।
    आ सच्ची बात जिसी सच्ची बात। अैस्कूलां जिसी स्कूलां। अर छोरा जिसा छोरा। ठौड़-ठौड़ चमचेड़ां जिसी चमचेड़ां... कैपसूल जिसा कैपसूल... आक्टोपस जिसा ऑक्टोपस...
    आं री जकड़ में है कंवळी सांसा जिसी कंवली सांसा, नुवां सपना जिसा नुंवा सपना... चौफेर फैलतो औ रोग जिसो रोग।
है थां कनै कोई इलाज जिसो इलाज? हुवै तौ बताया म्हनै ई।
(पोथी जिसी पोथी - पेज 68)
    सांवर दइया रा कुल पांच कहाणी संग्रै छपियोड़ा है। ‘असवाड़ै-पसवाड़ै, धरती कद तांई घूमैली, अेक दुनिया म्हारी, अेक ही जिल्दी में अर पोथी जिसी पोथी।’ अै संकलन सांवर रै कहाणी खेतर रै पसराव नै परगट करै। वंारै अठै स्कूली जीवन री कहाणियां तो है ई पण उणरै अलावा रिस्तां रै बीच आयोड़ी कड़वास, मरद अर लुगाई रा सम्बन्ध, सामाजिक कुरीतियां ई आंरी कहाणियां रो हिस्सो बणियोड़ी है। आं कहाणियां रा पात्र सामाजिक दबावां नै झेलता लाचार पात्र है तो जृूंंझण री खिमता धारण करियोड़ा जुंझारू पात्र ई। ‘मुआवजो’, ‘सुळती भीतां’, ‘सुरंग सूूं बारै’ या ‘जूंझती जिन्दगाणी’ अैड़ी ई कीं कहाणियां है जिणमें मिनख री लाचारी अर जूंझ रा धरातल साफ-साफ दीखै।
    ‘म्हनैं लखायो कै ओळा पड़ रैया है। सगळो घर ओळां सूं भरीजग्यो है। च्यारूंमेर बरफ ई बरफ जमगी है। म्हारो खून जम रैयो है। डील री सेंग नाड़ा में सून वापर रैयी है।’                      
(अेक ही जिल्द में-पेज 97)
    आ सून्याड़ समाज में चोफैर पसरियोड़ी है। सांवर री कहाणियां राजस्थानी कहाणी रै खेतर में इणी सारू अेक छलांग लागै कै अठै आपरै बगत रो प्रतम दीखै। मध्यमवर्गीय परिवार री अबखायां, वांरी र्ईच्छावां, वांरो स्वार्थीपणो स्सै आं कहाणियां में परगट होवै। आं कहाणियां में परिवेस रै रूप में बगत रो बोलणौ-सुणीजै। आं कहाणियां रा पात्र बगत  रै दबाव नै झेलता बगत सूं आगे निकळ जावण री हूंस सूं भरियोड़ा लागै —
‘नई, म्हनै अबै ई अंधारी अर अंतहीण सुरंग में नई रैवणो चाइजै। अठै अमूजो है..., अंधारो है... ठोकरां है। कांई मिल्यो म्हनै अठै? आज तांई जिकी भूल हुई बा हुई। जे अबै ईआ नई चेत्यो तो पछे औ जीवण नरक बणतां जेज नीं लागैला। नरक सूं घाट तो अबार ई कोनी, पण आंख खुलै जद ई दिन ऊग्यो समझो नीं।’’
(अेक ही जिल्द में-पेज 35)
    स्वारथ री आपाधापी में लीर-लीर होवता तनु रिस्तां नैं अै कहाणियां छांनै-छांनै पकड़ै। इणी सारूं वां रिस्ता नै घेरियां ऊभो दोगलापणो पाठक नै साफ-साफ दीखै। रिस्ता बणाया राखण री कोसिस में लागोड़ा पात्रां नै आर्थिक अर मानसिक स्तर माथै तकलीफां भोगणी पड़ै। वे आपरी इण तकलीफ रो कारण जाणे है अर चावै कै कीं करियां अै रिस्तां आपरै अबोट रूप में बचियोड़ा रैवै पण कांई किणी अेक रै कीं करिया स्वारथ रा घेरा बिखरै —
    ‘पत्तो नी कांई हुयो कै म्हनै च्यारूंमेर अंधारो निजर आवण लाग्यो। म्हनै लखावतो कै सै लोग कीं कीं बदळ रैया है। मां, बाप अर भायां री बात ई कांई कैवूं। बे तो सुरु सूं ई हुवतां थकां ई नीं हुवण रै बरोबर हा। पण म्हारी लुगाई, जिणनै म्हैं जी जान सूं बत्ती चावतो हो, बा तकात बदळयोड़ी लखायी।’
(धरती कद तांई घूमैली-पेज 80)
    ‘अचाणचक वी री आंख्यां आगै घरवाळा रा चेहरा घूमण लाग्या। वे सैंग चेहरा उदेई में बदळग्या अर ठीक उणी बगत बींनै खुद रो चेहरो ई उदेई रै ढिगलै में बदळयोड़ो दिस्यो। घर री भीतां धुड़ती सी दीखी।’
(धरती कद तांई घूमैली-पेज 91)
    अचाणचक बीं नै लखायो कै वो लम्बे अरसै सूं ल्हासां ढोय रैयो है। जीतवी जागती ल्हासां... चालती-फिरती ल्हासां... अर बी री दीठ सामै कई चेहरा घूमण लागा... वे जीवती ल्हासां भख मांगै ही, लावो... लावो... लावो...
(धरती कद तांई घूमैली-पेज 94)
    अैड़ी अबखी दुनिया में जीवण नै विवस आं पात्रां रै साम्ही तद ई आपरा ध्येय निस्चित है। वांनै ठा है कै वे साम्हलै री लूट रा सिकार है। रिस्ता री व्यर्थता वांरी आंखियां आगै उघड़ चुकी है। पण तो ई वे आपरी जिद नीं छोड़ै। आ जिद दुनिया नै बचाया राखण री जिद है। औ व्यवहार पात्र रो खुद नै ओळखणो है। औ ओळखणो अेक आदर्स नै जलम देवै पण बिना इण हूंस अर हिम्मत रै आ दुनियां आपरो अस्तित्व नी बचाय सकै। इणी सारू औ आदर्स अेक सनातन साच में बदळ जावै अर पाठक उण साच रै साथै ऊभो दीखै। स्यात् इणी कारण वो जथारथ ई लागे...
‘म्हनै साफ-साफ लखावै-आ लड़ाई है। आ लड़ाई म्हनैं ई लड़णी है। लड़णी है जणा पूरै दमखम सूं क्यूं नीं लडूं। म्हारी आंगळियां तेजी सूं चालण लागै-खट्, खट्, खटाक्... खट्, खट्, खटाक्...’
(अेक ही जिल्द में-पेज 45)
    ‘अगलै दिन सीता आपरै दो च्यार पूर-पल्लां री गांठड़ी बांध’र अंधारै मूंडै घर सूं निकळगी। अबार बी री आंख्यां आगै अर ना ई बी नै धरती आभै बिच्चै अमूजो लखायो।
    आज आभो अणंत हो। धरती घणीज बड़ी ही। बो रस्तो घणो ई चवड़ो हो। जिकै माथै बा टुरी ही। अर सैं नाऊं बड़ी बात आ ही कै बीं रैं च्यारूंमेर खुली हवा ही।’                           (धरती कद तांई घूमैली-पेज 100)
    सांवर नै कहाणी रै बदळतै सरूप री ओळख है। वो राजस्थानी कहाणी री सीवां अर संभावनावां नै जाणण वाळो कहाणीकार है। ‘धरती कद तांई घूमैली’ री भूमिका मांडतो वो लिखै —
    ‘पण अबै बे दिन कोनी रैया कै राजस्थानी कहाणी (किणी भी विधा) रो दायरो इत्तो छोटो राख’र बात करी जावै... बीं नै आंकी परखी जावै। आंकण परखण री बगत तो देसी-विदेसी भासावां री कहाणी जातरां सूं जुड़णो ई पड़सी। बां सूं जुड़ण रो मतलब औ कोनी कै बां रा खोज दावण लागां, का वां रै देखा-देखी खोड़ खुड़ावण लागां। वां सूं जुड़ण रो मतलब इतो ई है कै बठै अे बदळाव क्यूं अर कियां हुया-इणरी इतिहासू समझ विगसावां। दूजां री दुनियां सूं जुड़णो इण कारण भी जरूरी कै आज दुनिया भोत छोटी हुयगी। छोटी हुयोड़ी दुनिया में आपां कित्ता छोटा हुय’र रैसां? बाकि आपणी जमीन, हवा अर पाणी सूं कट’र रैवण री बात म्हैं नीं कर रैयौ हूं। बीं सूं कट्यां पछै तो लारै रैसी ई कांई? बीं सूं जुड़’र दूजां सूं जुडूं जणां ई म्हारै काम री सारथकता है।’
    आपरै इण सोच नै सांवर आपरी कहाणियां में परोटै। वे कहाणियां इणी सारूं ‘न्यारी’ होवता थकां ई परम्परा रो हिस्सो लागै। औ जुड़ाव रो भाव अंडर करेन्ट रै रूप में सांवर री सगळी कहाणियां में दीखै। वां री तो पीड़ा ई आ है कै औ जुड़ाव धीरे-धीरे अलोप होवतो जाय रैयो है। बदळाव रो सरूप वांरी कहाणी री सुरूआत में ई परगट होयजावै। कहाणी सरू होवता ई कहाणीकार जाणै किणी रहस लोक री सिरजणा करै है। औरा तरीको परम्परागत रूप सूं जुदा होंवता थकां ई पाठक नै आपरै साथै बाधियोड़ौ राखै।
    ‘खून लगोलग बैवतो ई जा रैयो है। बार-बार कपड़ै री पाट्यां बदळणी पड़ती। नुंवी पाटी थोड़ीज ताळ पछै पाछी खून सूं लाल हुय जावती। सगळां रा चेहरा धौळा हुवण लागग्या हा।’             (धरती कद तांई घूमैली-पेज 29)
    ‘तकियै नैं हाल तांई मुट्ढयां में भींच राख्यो है। जदपि अबै पैलां आळी स्थिति कोनी। जिकै तूफान रै आवण रो डर हो, बो निकळ चुक्यो हो। बीं बगत कमरे री छात कांप’र पड़ती-सी लागी। भींतां भी हालती-सी लागी। तूफान आयो, भींतां रै सागै छात पडग़ी। मळबो हटा’र फैंक दियो। अबै सब बातां ठीक है। जो कीं भी हुवणो हो, हुय चुक्यो।’      (धरती कद तांई घूमैली-पेज 29)
    ‘इत्ती मोटी दुनिया, मोटी दुनिया रो मोटो देस। मोटै देस रो मोटो प्रान्त, मोटो प्रान्त रो मोटो सैर। मोटै सैर री मोटी तहसील। मोटी तहसील री मोटी स्कूल मोटी स्कूल रो मोटो इन्तजाम। मोटो इन्तजाम अेक आदमी रै बूतै परबारो, इण खातर राज थरप्या बठै दो हैडमास्टर। अेक मोटो हैडमास्टर, दूजो छोटो हैडमास्टर।’
(अेक दुनिया म्हारी-पेज 27)
    ‘ओफ्फ! आ तो बेजां हुई नीं। म्हैं थांरो नांव ई भूलग्यो। पण खेरसल्ला, नांव में कांई पड्यो है। अर थांररे अेक नांव थोड़ी है। असल में तो थांरो कोई नांव ई कोनी। थे तो रंग-रूप आकार विहूणा हो। थे आंख्यां सूं दिखो कोनी, पण तो ई म्हांरे बिच्चै चोइसूं घंटा मौजूद लाधा।’’          (अेक ही जिल्द में-पेज 75)
    व्यंग्य करण री तो अद्भुत खिमता है सांवर में। वांरी घणकरी कहाणियां अर खासकर संवाद सैली में लिखियोड़ी सगळी कहाणियां फगत दो चीजां रै मेळ माथै ऊभी है अेक व्यंग्य अर दूजी नाटकीयता। व्यंग्य अर नाटकीयता नै अेक साथै साधणो घणो अबखो काम है। औ अबखो काम सांवर दइया आपरी कहाणियां में करै। तो सुणो भाई वांचणिया औ कैवणौ उणी नाटकीयता रो हिस्सो है। अेक रूप में तो अठै कहाणीकार आपरी परम्परा में छिपियोड़ै उणी हांकारै वाळै नै सोध रैयौ है जकौ राजस्थानी लोक कथावां रो जरूरी हिस्सो बणियोड़ो है। इण रूप सांवर आपरी परम्परा नै ईज पाछी उथैलै। आ नाटकीयता अेक प्रस्तुती रो रूप धारण कर लेवै अर कहाणी ‘नाट्य’ में ढळण लागै। औ कहाणीकार रो लगायोड़ो लास्ट स्ट्रोक है जठै सूं कहाणी आपरा अरथ खोलण लागै अर अेक री पीड़ पूरी समस्टि नै आपरै घेरे में लेय लेवै। अठै पूगियां पाठक नै चांणचक लागै कै वो अबार तांई जिणनै बंतळ या हथाई जांणतो हो वा गैरै अरथा में उणरी पीड़ ईज है, अर आईज आं कहाणियां री विसेसता है।
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परिचय
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श्री सांवर दइया (1948-1992)
जलम : 10 अक्टूबर, 1948 बीकानेर
निधन : 31 जुलाई, 1992 बीकानेर
आधुनिक राजस्थानी साहित्य के प्रमुख हस्ताक्षर। राजस्थानी कहानी को नूतन धारा एवं प्रवाह देने वाले सशक्त कथाकार। राजस्थानी काव्य में जापानी हाइकू का प्रारम्भ करने वाले कवि। राजस्थानी भाषा में व्यंग्य को विद्या के रूप में प्रतिष्ठित करने वाले व्यंग्य लेखक। विविध विद्याओं में 18 से अधिक कृतियों का प्रणयन।
भणाई : एम. ए., बी. एड., गुजराती भाषा मांय डिप्लोमो
कहाणी संग्रै-
1. असवाड़ै-पसवाड़ै 1975
2. धरती कद तांई घूमैली 1980 : राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी, बीकानेर सूं गद्य पुरस्कार
3. एक दुनिया म्हारी 1984 : साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली सूं सर्वोच्चय पुरस्कार
4. एक दुनिया मेरी भी : एक दुनिया म्हारी रो हिंदी अनुवाद, साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली सूं प्रकाशित
5. एक ही जिल्द में 1987
6. पोथी जिसी पोथी (निधनोपरांत)
7. छोटा-छोटा सुख-दुख (प्रेस मांय)
8. उकरास (संपादन) 1991 राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी, बीकानेर रो प्रतिनिधि कहाणी संकलन, स्नातक पाठ्यक्रम री पोथी बरसां सूं
अनेक कहानियों के गुजराती, मराठी, तमिल, अंग्रेजी आदि भाषाओं में अनुवाद।
व्यंग्य संग्रै-
1. इक्यावन व्यंग्य (निधनोपरांत)
कविता संग्रै-
1. मनगत (लघु कवितावां) 1976
2. काल अर आज रै बिच्चै 1977 & 1982
3. आखर री औकात (हाइकू संग्रै) 1983
4. आखर री आंख सूं 1988 & 1990
5. हुवै रंग हजार (निधनोपरांत) राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी, बीकानेर सूं “गणेशीलाल व्यास उस्ताद” पद्य पुरस्कृत 1993
6. आ सदी मिजळी मरै (निधनोपरांत) पंचलड़ी कवितावां
अनुवाद-
1. स्टेच्यू (अनुवाद) अनिल जोशी रै गुजराती निंबंधां रो राजस्थानी उल्थो साहित्य अकादेमी सूं प्रकाशित 2000 (निधनोपरांत)
हिंदी में कविता संग्रै-
1. दर्द के दस्तावेज (ग़ज़ल संग्रह)
2. उस दुनिया की सैर के बाद (निधनोपरांत) 1995
हिंदी में बाल साहित्य-
1. एक फूल गुलाब का 1988
पुरस्कार-
1. नगर विकास न्यास, बीकानेर कांनी सूं टैस्सीटोरी गद्य पुरस्कार
2. राजस्थान साहित्य अकादमी(संगम), उदयपुर
3. मारवाड़ी सम्मेलन, मुम्बई
4. राजस्थानी ग्रेजुएट्स नेशनल सर्विस एसोसियेशन, मुम्बई
5. राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी, बीकानेर सूं “गणेशीलाल व्यास उस्ताद” पद्य पुरस्कार
6. केंद्रीय साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली 1985
अन्य : डेकन कॉलेज, पूना सूं गुजराती भाषा मांय डिप्लोमो ई कर्‌यो नै केई रचनावां रो राजस्थानी, हिंदी अर गुजराती अनुवाद ई घणो चावो रैयो। शिक्षाविद्‌ रै रूप मांय केई शैक्षिक आलेख ई लिख्या।
जिया-जूण : शिक्षा विभाग मांय शिक्षक रै रूप मांय काम करता थकां व्याख्याता (हिंदी), प्रधानाध्यापक पछै जीवण रै लारलै बरसां शिक्षा निदेशालय प्राथमिक एवं माध्यमिक शिक्षा विभाग रै प्रकाशन अनुभाग मांय उपजिला शिक्षा अधिकारी, संपादक- शिविरा (मासिक) अर नया शिक्षक (त्रैमासिक) पद माथै रैवतां फगत 44 बरस री उमर मांय सरगवास ।

 

 

Friday, October 02, 2020

बहुत कुछ बाकी है अनकहा / डॉ. नीरज दइया

    व्यंग्य, कविता और संपादन के क्षेत्र में डॉ. लालित्य ललित निरंतर आगे बढ़ रहे हैं। उनकी यह विशेषता है कि एक पहचान बन जाने के बाद भी वे निरंतर सक्रिय है। कहना होगा कि साहित्य का जुनून उनके सिर पर सवार है। रोज बहुत कुछ लिखना और पढ़ना उनकी दिनचर्या में शुमार है। नियमित कॉलम लिखना कोई सरल काम नहीं है, जिसे वे लंबे अरसे से बखूबी लिख रहे हैं। व्यंग्य और कविता की उनको लत लग गई है। जैसे किसी दौड़ में कोई सबसे आगे निकल जाने को दौड़ता है, वैसे ही उनका किताबों का सिलसिला हो रहा है। इसी जुनून में वे अब तक अनेक कीर्तिमान बना चुके हैं, और अनेक बनाने वाले हैं। यह अचंभित और हर्षित करने वाली बात है कि वे अपनी सभी जिम्मेदारियों को सफलतापूर्वक निभाते हुए, साहित्य में इतनी सक्रियता से इस बार एक साथ 25 कविता-संग्रह पाठकों को दे रहे हैं।
    किसी भी रचना के साथ आलोचना का भाव पहले पहल स्वयं लेखक-कवि के मन में रहता है, जिसके चलते वह रचना को संवारता है और नए आयाम छूने का प्रयास करता रहता है। यहां यह भी रेखांकित किया जाना चाहिए कि कवि लालित्य की कविताओं में सर्वाधिक उल्लेखनीय समकालीनता और कोरोना-काल है। वे अपने वर्तमान को जिस ढंग से देखते-समझते हुए कविता की निर्मिति करते हैं, उसमें सरलता, सहजता और संवादप्रियता व्यापक तौर पर स्थाई भाव के रूप में है। वे जिस अनुभव और जीवन को अपनी कविताओं के माध्यम से साझा करते हैं, उनका सीधा सरोकार हमारे जीवन से है। जीवन स्वयं में एक कविता है। जीवन कविता की एक बड़ी किताब है, जिसे कवि अपनी कविताओं में अंश-दर-अंश प्रस्तुत करता रहा है। यह संग्रह भी उसी समेकित जीवन की झलक है, जो कवि के चारों तरफ फैली सकारात्मकता और नकारात्मक के साथ वह पाता है और उसे अपने ढंग से देखता-परखा है। यह भी सच है कि उनका अपना एक विशाल पाठक-समुदाय है। डॉ. लालित्य को चाहने और पढ़ने वालों का बड़ा वर्ग है और इसी में कुछ ऐसे भी है जो कहीं किसी कोने से नकारने का भाव भी रखते हैं। कुछ ऐसे भी है जो बिना पढ़े भी नकार सकते हैं, कारण इतना लिखा है और अधिक लिखना उनकी नजर में अच्छा नहीं होता है। यह आवश्यकता से अधिक सावधानी पूर्वाग्रह का रूप ले लेती है तो रचना के मूल्यांकन की बात छूट जाती है।  
    जो व्यक्तिगत रूप से कवि लालित्य को जानते है और उनके द्वारा कविता पाठ का आनंद ले चुके हैं, वे इस बात पर सहमत होंगे कि कविता में आए तमाम ब्यौरे और विवरण ऐसे होते हैं कि उन्हें यदि स्वयं कवि के श्रीमुख से पाठ सुना जाए तो एक नया आस्वाद सम्मिलित होता है। कवि की मुद्राओं, आरोह-अवरोह और भाव-भंगिमाओं के साथ टिप्पणियों द्वारा इन कविताओं की रसात्मकता मूल पाठ में वृद्धि करने वाली कही जा सकती है। वैसे इन कविताओं के मूल पाठ में अनेक मार्मिक स्थल देखे जा सकते हैं। कुछ कविताओं के अंश अपने आप में स्वतंत्र कविता की गरज सारने वाले हैं। जैसे इन पंक्तियों को देखेंगे तो लगेगा- यह पूरी कविता के विन्यास में तो अपनी अभिव्यंजना के साथ व्यस्थित है ही, किंतु यह एक स्वतंत्र कविता के रूप से भी प्रभावित करती है- ‘अब प्रेम वैसा रहा नहीं/ सब समझती है ये आंखें/ कि सामने वाले के मन में कितना जल है/ और कितना सजल है वह खुद भी!’
    हिंदी कविता और खासकर इक्कीसवीं शताब्दी की कविता में काव्य-भाषा में जो बदलाव हुआ है, वह यहां भी देखा जा सकता है- ‘समय हर सवाल को अपने हिसाब से/ हल कर देता है/ तुम सवाल हो/ मैं समय हूं/ खुश रहने की आदत डालें’ कविता का सौंदर्य जो पहले विभिन्न युक्तियों के बल पर होता था, वह अब सादगी और सरलता में भी संभव होता दीखता है- ‘यही जीवन है / जहां कुछ अपने हैं/ कुछ पराए हैं/ एक उम्र में/ आदमी जी लेता है/ कई कई जिंदगी एक साथ’ इसका कोई विशेष कारण यदि हम समझना चाहे तो वह है पूर्वाग्रह सहित जीवन और सपाट बयानी। जैसे- ‘जिंदगी इत्ती बुरी भी नहीं / जित्ता हम/ सोच लिया करते हैं बाबू’ इसलिए कवि लालित्य को जीवन के लालित्य को खोजने समझने का कवि कहना चाहिए। वे कहीं कहीं तो सीधे आह्वान की मुद्रा में कहते हैं- ‘अरे!/ अभी फायदे की दुनिया से/ बाहर निकल कर देखो’ और जैसा कि मैंने महसूस किया कि कवि पूर्वाग्रह से युक्त होकर भी, वह जिस मुक्तिकामी दृष्टि से जीवन की बात करता है वह उल्लेखनीय है- ‘मन में आया तो सोचा कह दूं/ मानना न मानना तुम्हारा काम/ हमें तो कहना था कह दिया/ नमस्कार!’
    कवि लालित्य का विश्वास जीवन के सौंदर्य को कविताओं में अभिव्यंजित करने में रहा है। वे ‘गुलदस्ते’ जैसी कविता में वाट्सएप और मैसेंजर में आने वाले अनचाहे संदेशों के बारे में खीज प्रकट करते हैं। यह असल में ऐसा यथार्थ है जिससे हमारी भी भेंट होती रही है। ऐसी रचनाओं को कुछ मित्र कविता की श्रेणी में रखने से गुरेज कर सकते हैं, क्योंकि किसी घटना की सीधी सीधी प्रतिक्रिया अथवा प्रत्युत्तर कविता हो यह कठिन-साध्य है। किंतु यह कविता को लेकर अपनी-अपनी अवधारणा और कविता के क्षेत्र में स्वतंत्रता का मुद्दा भी है। असल में कविता क्या है या क्या नहीं है, इसका कोई सीधा-सीधा सूत्र अथवा जांच-उपकरण निर्मित ही नहीं किया जा सका है। यह फैसला समय का होता है और यह फैसला भी समय का ही होगा कि ‘प्रेम शब्द है ही ऐसा जो/ किसी को भी आवाज दे सकता है’ इसी तर्ज पर कहें तो कविता जब किसी को आवाज देती है और वह कवि जब उस आवाज को सुन लेता है, तब वह ऐसा फैसला लेता है- ‘ऐसा कुछ लिख दो/ जिससे अंधेरे घर में रोशनी हो जाए।’ संग्रह की अधिकांश कविताएं वर्तमान समय और समाज पर रोशनी डालती हैं।
    कोरोना-काल में लेखक और प्रकाशक के साथ कवि अपने पाठकों, घर परिवार के साथ सभी रिश्ते-नातों के गणित को खोलता हुआ हमें एक ऐसे लोक में ले जाता है जो हमारा अपना जाना-पहचाना है। अपने जाने-पहचाने को कवि की आंख से देखना निसंदेह हमें ऊर्जा और उत्साह देने वाला है। प्रेम के विविध रूप भी संग्रह में प्रभावित करने वाले हैं। कवि मित्र लालित्य को मैं बहुत-बहुत बधाई देते हुए उनके प्रति आभार प्रकट करता हूं कि बहुत कुछ बाकी है अनकहा और उस बहुत कुछ को सतत रूप से वे कविताओं में सहेजते रहेंगे। इन्हीं शुभकामनाओं के साथ आशा करता हूं कि एक साथ इतनी संख्या में कविता-संग्रह आने का यह कीर्तिमान पाठक-मित्रों को जरूर पसंद आएगा और इस उपक्रम से समेकेतिक रूप से कवि लालित्य ललित के कवि-कर्म पर चर्चा हो सकेगी।

डॉ. नीरज दइया

Sunday, September 27, 2020

तथापि / अम्बिकादत्त

नीरज दइया की राजस्थानी कविताओं का मदन गोपाल लढ़ा द्वारा हिंदी में किया गया अनुवाद रचनात्मक आस्वाद के कई अवसर उपलब्ध करवाता है। अनुवाद दो भाषाओं के बीच एक खिड़की है - इसकी सर्वार्थ  सिद्धि इसके न रहने में है। जब अनुवाद, अनुवाद न लगे। मदन गोपाल लढ़ा इस संकलन कि प्रस्तावना में पूरी तैयारी के साथ उपस्थित हैं। वे कविता और जीवन के सापेक्ष रचनाकार, उसकी रचना और रचनाधर्मिता के लगभग सभी पहलुओं की पड़ताल करते हैं। प्रसंग और संदर्भ के अनुसार समकालीन राजस्थानी के मूर्धन्य रचनाकारों की कही गई बातों का भी उल्लेख करते हैं। उनकी यह प्रस्तावना निसंदेह पाठकों के लिए संकलन की रचनाओं से मिलने में काफी मददगार साबित होगी। बेशक उन्होंने मेरे जैसों के कहने के लिए कुछ नहीं छोड़ा है। तथापि।

रक्त एक रसायन है और घुलना एक रासायनिक क्रिया। भाषा रक्त में घुले, यह साहित्य की भाषा में ही संभव है। क्या भाषा अपना सबसे व्यापक और प्रभावी स्वरूप साहित्य में ग्रहण करती है? साहित्य की भाषा में रक्त और रक्त-संदर्भ प्रसंगानुकूल अनेक स्वरूपों में प्रयुक्त किए गए हैं। किए जाते हैं। प्राय: वैयक्तिता, निजता के आत्यंतिक, आत्मिक संदर्भों संबंधों में। यहां भी यह पद भाषा के साथ आत्मीय-आत्यांतिक, प्राणवंत संबंध के संदर्भ में प्रयुक्त है - कि रचना/ रचनाकार का भाषा के साथ कैसा रिश्ता है? भाषा रक्त में घुली हुई है। रक्त-वंश, जाति, स्वभाव, स्वाभिमान सरीखे सामाजिक सांस्कृ तिक पहलुओं के परिचायक के साथ ही जीवन-मृत्यु का भी कारण है। भाषा के साथ ऐसा ही प्रगाढ़ संबंध प्रकट करता है यह कथन - रक्त में घुली हुई भाषा।

नीरज दइया की राजस्थानी कविता की बात हम कर सकते हैं। अनुवाद- काव्य रूपांतरण और अनुवाद के उपरांत नीरज दइया की कविता की बात भी कर सकते हैं। अनुवाद को लेकर इसकी कसौटी और उपादेयता आदि विवेचना के भिन्न प्रयोजनात्मक पहलुओं पर बात की जा सकती है। भिन्न भाषाओं (भारतीय/ विदेशी) से राजस्थानी में अनुवाद और राजस्थानी का दूसरी भाषाओं में अनुवाद विशेषकर हिंदी में। दोनों बातों पर अलग-अलग मत हैं। बहरहाल। यह मसला हमें रचना के उस बुनियादी सवाल के नजदीक भी ले जाता है कि एक लेखक दो या दो से अधिक भाषाओं में क्यों लिखता है? राजस्थान या किसी भी क्षेत्रीय भाषा के हिंदी जानने और उसमें कविता लिखने वाले कवि को राजस्थानी या किसी भी क्षेत्रीय भाषा में कविता लिखने की दरकार क्या है? वह कह सकता है - यह भाषा उसके रक्त में घुली है। तो फिर इन कविताओं के हिंदी अनुवाद की जरूरत क्या है? कवि स्वयं भी तो इन कविताओं को हिंदी में लिख सकता था या उनका अनुवाद कर सकता था। इन सवालों के जवाब लेखक के पास भी होंगे और अनुवादक के पास भी। कुछ जवाब मेरे पास भी हैं। लेकिन मैं उन्हें यहां  देना नहीं चाहता। बल्कि मैं चाहूंगा कि इस संकलन की रचनाओं से गुजरने वाले पाठक के जेहन में उपरोक्त या इसी सिलसिले के दूसरे  कोई सवाल हों तो वे जगे रहें, बजते रहें, वे खुद उनसे रू-ब-रू हों। जरूरी हों तो जवाब भी वे ही तलाशें। तब इन रचनाओं से गुजरने का तजुर्बा अलग होगा।

अगर पढऩे के दौरान या पढऩे के बाद कोई सवाल याद नहीं रहता - बिसर जाता है तो यह प्रस्तुत संकलन की बड़ी उपलब्धि होगी। लेखक, अनुवादक और पाठक तीनों के लिए। मेरे साथ कुछ इसी तरह का अनुभव हुआ इन रचनाओं से गुजरते हुए। लगा कई बार जवाब दे देने से - सवाल की कीमत बस उसके बराबर होकर रह जाती है। क्या अनुवाद में वह रक्त प्रवाह बचा रह सका जो मूल रचना में कहा गया है। मुझे लगता है इस संकलन की और मदन गोपाल लढा के काम की यही बड़ी चुनौती है - कसौटी है जिसमें उन्हें बहुत ही रचनात्मक कोटि की सफलता मिली है। वे स्वयं हिंदी और राजस्थानी के समर्थ रचनाकार हैं।

इस संकलन में हिंदी और राजस्थानी के बीच के भाषिक भेद को इतनी कुशलता के साथ पाट दिया गया है कि यकायक लगता नहीं यह अनुवाद की पुस्तक है। किसी भी हिंदी भाषी पाठक के लिए यह मूल हिंदी में रची गई रचनाओं जैसी है। नीरज दइया की कविताओं को पढ़ते हुए हर बार लगता है - उनकी कविताओं में संवेदनाएं अभी भी उतनी ही सद्य हैं - हरी हैं। कविताओं का चयन स्तरीय है। मुझे डर है मैं इन कविताओं की विवेचना करने लगूंगा तो शायद आवृत्ति हो या पाठकों का कविता पढ़ते समय का घनीभूत अमूर्त आस्वाद विरल न हो जाए। अस्तु।

 - अम्बिकादत्त


Saturday, September 12, 2020

डॉ. लालित्य ललित

 "सृजन-संवाद" नाम से केंद्रित पुस्तक उन रचनाकारों पर केंद्रित है जिन्हें केंद्रीय साहित्य अकादेमी,दिल्ली से सम्मान मिल चुका है,ऐसे ही साहित्य के प्रति समर्पित और आशावान लेखक भाई डॉ नीरज दइया का एक साक्षात्कार पिछले दिनों अपने बीकानेर प्रवास के दौरान लिया था, वह इस पुस्तक में प्रकाशित हुआ है।
बेहद विन्रम और सौम्य नीरज दइया जी पेशे से शिक्षक है मैंने उन्हें स्कूल में भी बच्चों को उन्मुक्त भाव से पढ़ाते हुए देखा है कि किस कदर वे अपना सौ प्रतिशत अपने स्कूल के स्टूडेंट्स को देते है,उतने ही चिर-परिचित वे साहित्यिक गलियारे में भी सक्रिय है।
पुस्तक का प्रकाशन, किताबगंज ,गंगापुर सिटी ने किया है,जिन्होंने दो वर्ष पहले मेरा भी व्यंग्य संग्रह लालित्य ललित के श्रेष्ठ व्यंग्य प्रकाशित किया था।बहरहाल यह पुस्तक मात्र 300/-में उपलब्ध है।पुस्तक के संपादक डॉ नीरज दइया है।
इस पुस्तक में अधिकांश लेखक अपने मित्र है।

डॉ. लालित्य ललित

Wednesday, September 02, 2020

Sunday, August 09, 2020

रक्त में घुली हुई भाषा

राजस्थानी कविताओं के हिंदी अनुवाद पर बात-विचार
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कवि डॉ. संजीव कुमार को समर्पित कविता संग्रह ‘रक्त में घुली हुई भाषा’ के बहाने समकालीन राजस्थानी कविता, हिंदी अनुवाद और डॉ. नीरज दइया की कविता पर बात होगी। डॉ. मदन गोपाल लढा चयनित कविताओं का पाठ भी करेंगे। 

 
 

Saturday, July 25, 2020

पिता के अनकहे को सुनने-सुनाने की कविता / डॉ. नीरज दइया

चर्चित अनुवादक-कवि डॉ. संतोष अलेक्स विगत बाइस वर्षों से अनुवाद के क्षेत्र में सक्रिय हैं। वे देस-विदेस में पांच भाषाओं- तमिल, तेलगू, मलयालम, अंग्रेजी और हिंदी के परस्पर अनुवादक के रूप में ख्याति रखते हैं। एक अच्छा अनुवादक एक अच्छा रचनाकार होता है और रचनाकार यदि अनुवादक हो तो वह बेहतर अनुवाद करता है। अनुवाद भी अनुसृजन होकर भी एक रचनाकार के लिए सृजन ही होता है। संतोष अनुवाद और सृजन से भारतीय साहित्यह की सेवा कर रहे हैं। उनकी मौलिक कृतियां मातृभाषा के साथ हिंदी में भी प्रकाशित हैं। ‘पांव तले की मिटटी’ (2013) और ‘हमारे बीच का मौन’ (2017) के बाद उनका नया संग्रह ‘पिता मेरे’ (2020) आया है।
‘पिता मेरे’ एक लंबी कविता है जिसमें कवि के व्यक्तिगत जीवन की अभिव्यक्ति अंश दर अंश विभिन्न छवियों के रूप में सामने आती है। जीवन में माता-पिता का महत्त्व होता है और इसको कोई रचनाकार अथवा कहे कवि-मन अधिक संवेदनशीलता के साथ ग्रहण करता है। जो चीजें हमारे बेहद करीब होती है उन पर लिखना बेहद कठिन होता है। पिता के साथ जीवन में आगे बढ़ते हुए उनकी उपस्थिति का अहसास होता है किंतु यही अहसास उनके ना रहने पर सांद्र हो जाता है। पिता की रिक्ति में उनकी अनुपस्थिति को एक कवि हृदय जब पूर्व दीप्ति में हमें होले होले अपने साथ लेकर जाता है तो हम उसके शोक में शामिल होते जाते हैं। ‘पिता मेरे’ का पाठ असल में एक यात्रा है जिसे हम कवि संतोष के साथ कविता को पढ़ते हुए निकलते हैं। यहां किसी का शोर नहीं है और शोक में भी कोई किसी प्रकार की कोई आवाज नहीं है। रोना-चीखना-चिल्लाना-कोसना कोई सामान्य नहीं है। ‘पिता का रोना/ यूं संभव नहीं होता/ पिता चिल्लाएंगे/ रोएंगे नहीं/ पिता का रोना/ उनकी कमजोरी नहीं/ ताकत है/ इसलिए पिता का स्थानापन्न/ केवल पिता ही है।’
‘पिता मेरे’ कविता के आरंभ में समर्पण पृष्ठ पर कवयित्री गगन गिल की पंक्तियां हैं- ‘पिता ने कहा-/ मैंने तुझे अभी तक/ विदा नहीं किया/ तू मेरे भीतर है/ शोक की जगह पर।’ बेशक यह पिता-पुत्री के संदर्भ से जुड़ी कविता है किंतु इसमें जो कहा-अनकहा सत्य है उसका एक दूसरा रूप संतोष अलेक्स की कविता में मिलता है। पिता अपने अंतिम समय से पहले पुत्र संतोष को कुछ कहना चाहते थे किंतु वे कह नहीं सके अथवा उन्होंने कहा किंतु संप्रेषित नहीं हुआ अस्तु यह कविता पिता के अनकहे को सुनने-सुनाने की कविता कही जा सकती है। पिता अपने पूरे परिवार जिसमें पुत्र भी शामिल है को जीवन भर अपने कार्यों और व्यवहार से बहुत कुछ कहते रहे, इसका अहसास इस कविता में मिलता है। ‘काफी बातें समझाई/ लगा कि मेरे साथी हैं/ बड़े भाई हैं/ शुभचिंतक हैं/ गुरु हैं/ पिता मेरे।’
कवि अपने आत्मकथ्य में लिखता है- ‘मेरे लिए पिता जी की मृत्यु स्वाभाविक नहीं आकस्मिक थी। वे मेरी ताकत थे। जीवन में उन्होंने कई चुनौतियों का सामना किया। अपनी सुख-सुविधाओं को त्याग कर हमें अच्छी तालीम दी।’ इसी क्रम में उनकी इच्छा के रहते संतोष अलेक्स हिंदी अध्यापक नहीं हिंदी अधिकारी बने तो वे खुश हुए और उनके ना रहने पर मां के आग्रह पर जब उनका सूटकेस खोला गया तो उसमें दिखाई दिया कि एक पिता अपने पुत्र के लेखक और अनुवादक जीवन को सहेज रहा था। ऐसा क्यों? कवि इसे समझ नहीं पाता और उसे यह पहेली लगती है। यह जीवन है और यही कुछ ‘पिता मेरे’ कविता में रूपांतरित हुआ है। जीवन, आत्मकथा अथवा दैनिक डायरी को जब हम कविता के प्रांगण में ले जाते हैं तब पहला प्रश्न यही कि यह कविता क्यों? इसके समानांतर यह भी कि कविता क्यों नहीं? आत्मकथा, डायरी अथवा अन्य कोई भी विधा में कविता जैसा वितान अथवा फलक नहीं हो सकता है। कविता अनकहे को भी कहते हैं और अनदेखे को भी देखती-दिखाती है। इसलिए भी ‘पिता मेरे’ को पिता के अनकहे को सुनने-सुनाने की कविता कहा जा सकता है।
जीवन में जो घटित हुआ जो अनसुना अथवा समझ की परिधि से बाहर रह गया वह कविता के ग्राफ में उतरते हुए होले होले उस परिधि में समाहित होता जाता है। संतोष बिना किसी काव्य-उक्तियों और वक्रोतियों के बेहद सरल सहज ढंग से अपने मौन में अंतर्निहित अवसाद को शब्द देते हैं कि मेरे जैसे किसी पाठक जो जिसने असल जीवन में पिता को खोन का दुख दबाए रखा है वह द्रवित होने लगता है। ‘पिता मेरे’ कविता एक अहसास की कविता है जिसमें पिता के अद्वितीय अहसास को सहेजने का काव्यात्मक उपक्रम हुआ है। कवि का इस कविता में छोटी-छोटी स्मृतियों के तंतुजाल को खोलना असल में एक बड़ा रूपक रचना है। जिसमें पिता का सान्निध्य है और संबंधों की ऊष्मा में व्यष्टि का समष्टि में रूपांतरण भी। कोई भी पिता अपनी संतान को मुक्त नहीं करता अथवा यह कहें कि वह स्वयं मुक्त होता ही नहीं है। इस संसार में नहीं होकर भी वह अपनी पीढ़ियों में खुद को जिंदा रखता है। उसका चेहरा नाम और रंग-रूप बेशक बदल जाए किंतु पिता ही है पालनहार। वह अपने सृजन के अंश में सजृन को सृजनरत रहने की आकांक्षा और क्षमता भी देता है। ‘खुशी इस बात की है/ कि परिवार के सदस्यों की/ यादों में, सांसों में/ जीते हैं वह आज भी।’
भूमिका में प्रख्यात कवि लीलाधर जगूड़ी लिखते हैं- ‘किसी एक विषय पर लंबी कविता कवि को संकटापन्न स्थिति में डाल देती है। लेकिन छोटी-छोटी चिंगारियों से ही यह आग जलती है जो एक लंबे समय तक सूर्य की तरह प्रकाश देने का काम करती है।’ असल में किसी भी पाठक के मन में दबी ऐसी ही कुछ चिंगारियों को ‘पिता मेरे’ कविता हवा देने का काम करती है। ‘मेरे लिए/ दो पैरों पर चलते/ ईश्वर का नाम है पिता।’
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पिता मेरे (लंबी कविता) संतोष अलेक्स Santosh Alex
संस्करण : 2020 मूल्य : 100/- (पेपर बैक) पृष्ठ- 52
प्रकाशक : इंडिया नेटबुक्स India Netbooks, सी-122, सेक्टर-19, नोएडा- 201301 गौतमबुद्ध नगर (एन.सी.आर. दिल्ली) DrSanjeev Kumar
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Wednesday, July 15, 2020

जै जै राजस्थान

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कवि, आलोचक, व्यंग्यकार, अनुवादक और संपादक रै रूप मांय चावी ओळखाण।
जलम : 22 सितम्बर, 1968 रतनगढ़ (चूरू) राजस्थान
पिता : श्री सांवर दइया (मानीजता राजस्थानी कवि-कहानीकार)
शिक्षा : बी.अेससी., अेम.ए.(हिंदी साहित्य, राजस्थानी साहित्य), बी.एड., नेट, स्लेट, पीएच.डी., पत्रकारिता और जनसंचार में स्नातक पाठ्यक्रम (स्वर्ण पदक)
वर्तमान में : केंद्रीय विद्यालय संगठन मांय पी.जी.टी. (हिंदी)
संपर्क E-mail: drneerajdaiya@gmail.com
आपरी न्यारी न्यारी विधाता मांय बीसूं पोथ्यां छपियोड़ी है |





डॉ. नीरज दइया की प्रकाशित पुस्तकें :

हिंदी में-

कविता संग्रह : उचटी हुई नींद (2013), रक्त में घुली हुई भाषा (चयन और भाषांतरण- डॉ. मदन गोपाल लढ़ा) 2020
साक्षात्कर : सृजन-संवाद (2020)
व्यंग्य संग्रह : पंच काका के जेबी बच्चे (2017), टांय-टांय फिस्स (2017)
आलोचना पुस्तकें : बुलाकी शर्मा के सृजन-सरोकार (2017), मधु आचार्य ‘आशावादी’ के सृजन-सरोकार (2017), कागद की कविताई (2018), राजस्थानी साहित्य का समकाल (2020)
संपादित पुस्तकें : आधुनिक लघुकथाएं, राजस्थानी कहानी का वर्तमान, 101 राजस्थानी कहानियां, नन्द जी से हथाई (साक्षात्कार)
अनूदित पुस्तकें : मोहन आलोक का कविता संग्रह ग-गीत और मधु आचार्य ‘आशावादी’ का उपन्यास, रेत में नहाया है मन (राजस्थानी के 51 कवियों की चयनित कविताओं का अनुवाद)
शोध-ग्रंथ : निर्मल वर्मा के कथा साहित्य में आधुनिकता बोध
अंग्रेजी में : Language Fused In Blood (Dr. Neeraj Daiya) Translated by Rajni Chhabra 2018

राजस्थानी में-

कविता संग्रह : साख (1997), देसूंटो (2000), पाछो कुण आसी (2015)
आलोचना पुस्तकें : आलोचना रै आंगणै(2011) , बिना हासलपाई (2014), आंगळी-सीध (2020)
लघुकथा संग्रह : भोर सूं आथण तांई (1989)
बालकथा संग्रह : जादू रो पेन (2012)
संपादित पुस्तकें : मंडाण (51 युवा कवियों की कविताएं), मोहन आलोक री कहाणियां, कन्हैयालाल भाटी री कहाणियां, देवकिशन राजपुरोहित री टाळवीं कहाणियां
अनूदित पुस्तकें : निर्मल वर्मा और ओम गोस्वामी के कहानी संग्रह ; भोलाभाई पटेल का यात्रा-वृतांत ; अमृता प्रीतम का कविता संग्रह ; नंदकिशोर आचार्य, सुधीर सक्सेना और संजीव कुमार की चयनित कविताओं का संचयन-अनुवाद और ‘सबद नाद’ (भारतीय भाषाओं की कविताओं का संग्रह)

नेगचार 48

नेगचार 48
संपादक - नीरज दइया

स्मृति में यह संचयन "नेगचार"

स्मृति में यह संचयन "नेगचार"
श्री सांवर दइया; 10 अक्टूबर,1948 - 30 जुलाई,1992

डॉ. नीरज दइया (1968)
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