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Sunday, June 14, 2020

राजस्थानी कविता का विहंगम आकाश / डॉ. मदन गोपाल लढ़ा

’रेत में नहाया है मन’ वरिष्ठ कवि-आलोचक डॉ नीरज दइया द्वारा चयनित एवं अनूदित राजस्थानी के इक्यावन कवियों की चुनिंदा कविताओं का संग्रह है जो हिंदी के माध्यम से साहित्य जगत को राजस्थानी कविता के वस्तु-विन्यास से अवगत होने का स्वर्णिम अवसर प्रदान करता है।
भौगोलिक व सामाजिक रूप से राजस्थान की धरती विविधताओं से भरी हुई है। यहां एक और रेत के समंदर हिलोरे भरते हैं तो दूसरी तरफ नदियों व पहाड़ों की दृश्यावली मन मोह लेती हैं। एक बड़े भूभाग में अकाल जीवन का अभिन्न हिस्सा है तो कुछेक अंचल ऐसे भी हैं जो अपनी खनिज संपदा, उद्योग धंधों, पर्यटन व अन्य आर्थिक संसाधनों के बल पर बड़े-बड़े औद्योगिक नगरों की होड़ करते हैं। कहीं पशुपालन जीविका का एकमात्र आधार है तो कहीं कोचिंग सेंटर दुनिया भर के विद्यार्थियों को आकर्षित कर रहे हैं। धार्मिक दृष्टि से भी यहां अनेक पंथ-सम्प्रदायों के विश्व विख्यात स्थल हैं जहां संतों-भक्तों ने ज्ञान-साधना करके परम तत्व को जानने व आम लोगों के लिए सरल शब्दों में कहने का कार्य प्रेरक किया है। यहां का लोक साहित्य जगत विख्यात रहा है। राजस्थानी समाज ने अतीत में तलवारों और भालों की टकराहट को देखा है तो रावण हत्थे, इकतारे और मृदंग की कर्णप्रिय धुनों को भी सुना है। चित्रकला, मूर्तिकला, कठपुतली कला व लोकनाट्य के विविध रूप आज भी राजस्थानी समाज की स्मृतियों का हिस्सा है। राजस्थानी कविता ने सामंती जीवन के अत्याचारों के खिलाफ आवाज उठाई है तो अंग्रेजों के आतंक के खिलाफ भी यह कलम मुखरित रही है। दलित, स्त्री व अन्य तमाम जरूरी विषयों पर राजस्थानी कवियों की कलम ने खुलकर अपनी बात रखी है। गणेशी लाल व्यास, रेवंतदान चारण, कन्हैया लाल सेठिया, चंद्रसिंह बिरकाली, नानूराम संस्कर्ता, सत्य प्रकाश जोशी, नारायण सिंह भाटी, हरीश भादानी, किशोर कल्पनाकांत, सांवर दइया जैसे कवियों की रचनाएं राजस्थानी कविता यात्रा को एक अलग मुकाम देती है। उनकी परंपरा को आगे बढाने व विविध धाराओं में महत्वपूर्ण रचाव करने वाली तीन-तीन पीढियां एक साथ राजस्थानी कविता के आकाश में निरंतर रंग भर रही हैं। डॉ नीरज दइया ने इस संकलन के माध्यम से राजस्थानी कविता की एक भरी-पूरी झलक दिखलाने की सफल कोशिश की है जिसकी बहुत जरूरत महसूस की जा रही थी। संवैधानिक मान्यता के अभाव में एक हजार वर्षों से अधिक पुरानी और समृद्ध साहित्यिक विरासत वाली भाषा की काव्य यात्रा से हिंदी जगत अभी तक पूर्णतया परिचित नहीं है। हालांकि इससे पहले भी राजकीय संस्थानों द्वारा राजस्थानी कविताओं के हिंदी अनुवाद के संग्रह सामने आए हैं लेकिन निजी स्तर पर किसी प्रकाशक द्वारा यह अत्यंत गंभीर और महत्त्वपूर्ण काम मील का पत्थर माना जा सकता है।
’रेत में नहाया है मन’ संग्रह की कविताओं में राजस्थानी मिट्टी की सौंधी महक को सहजता से महसूस किया जा सकता है। ये कविताएं इस बात का प्रमाण है कि राजस्थानी कवि अपने समय और समाज की ज्वलंत चिंताओं के प्रति पूर्णतया सजग है। वक्त से कदमताल करते हुए राजस्थानी कवि अपनी कविता के माध्यम से जग जीवन के यथार्थ को पूरी ईमानदारी से उजागर कर रहे हैं। प्रकृति और मानव जीवन के सौंदर्य के साथ राजस्थानी कविता में श्रम के सौंदर्य को बड़ी सूक्ष्मता से अभिव्यक्त किया गया है, जो इस काव्य धारा को एक अलग पहचान देता है।
आलोच्य संग्रह में नारायण सिंह भाटी, सत्य प्रकाश जोशी और पारस अरोड़ा से लेकर मोहन आलोक, अर्जुन देव चारण, चंद्रप्रकाश देवल, वासु आचार्य, ओम पुरोहित कागद, आईदान सिंह भाटी, भगवती लाल व्यास, नंद भारद्वाज, शारदा कृष्ण एवं नई पीढ़ी के ओम नागर, जितेन्द्र कुमार सोनी, कुमार अजय, राजूराम बिजारणिया आदि एक साथ शामिल किए गए हैं। इन कविताओं में विषयगत विविधता है और शिल्पगत प्रयोग भी। ये कविताएं केवल जीयाजूण के विविध आयामों के वर्णन तक सीमित नहीं है बल्कि अपने समय व समाज की विसंगतियों व विद्रुपताओं को लेकर तीखे सवाल भी खड़े करती है। अंबिका दत्त की एक कविता को बानगी के रूप में लेकर हम राजस्थानी कविता की तासीर को समझने की कोशिश करते हैं- ‘‘धिक्कार है इस कठफोड़वा जिंदगी को/ पूरी उमर/ठक ठक करते ही बीत जाती है/ पता ही नहीं चलता/ आवाज ठूंठ से आ रही है/ या की चोंच से।’’
संख्या के लिहाज से राजस्थानी में महिला कवयित्रियां कम तो हैं मगर भाव व विचार की दृष्टि से आश्वस्त करती है। उदाहरण के तौर पर कवयित्री मोनिका गौड़ की कविता ’चरखा’ को लिया जा सकता है जो नारी जीवन के अनछुए पहलुओं को उजागर करती है-‘‘जीवन चरखे पर/ कातती हूं/ सांसो का सूत/छूट जाते हैं कभी/तकली, पूनी कभी/ उतर जाता है ताना/ पर चलता रहता है/ चरखा।’’
प्रसिद्ध कवि कुंदन माली ’घर छोड़ने के बाद’ कविता में विस्थापन की पीड़ा को कुछ इस तरह उजागर करते हैं- ‘‘छूट जाती है/मिट्टी की मुस्कान/मांडे के गीत/होठों की हंसी/तीज और त्योहार/एक का बिणज/दूजे का व्यापार/फिर फिर लौटता/आता है याद/ बचपन में जो सुना/ मां ने जो गाया गीत/गीत के बोल-/ बन्ना ओ.../ दीपावली के दीप जले/और रेल गई गुजरात।’’
विधा के रूप में कविता अन्य भाषाओं की तरह राजस्थानी की भी सबसे लोकप्रिय विधा है। पढ़ाई-लिखाई का माध्यम नहीं होने व प्रकाशन-विक्रय की तमाम चुनौतियों के बावजूद कवियों की बढ़ती तादाद उम्मीदों को जगाने वाली है। अवसरों की अनुपलब्धता के चलते जब-तब कच्ची कविताएं भी पढने को मिल जाती हैं मगर सतत अभ्यास व सार्थक चर्चा से कवियों का कहन निखरता है, इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। वस्तुतः राजस्थानी की कविता उन उबड़ खाबड़ रास्तों से भी गुजरी है जहां अन्य भाषाओं की कविताओं को अभी तक पहुंचना है। संवेदना की सघनता राजस्थानी कविता की ताकत है। आलोचना के मानकों पर परख करें तो यह निर्विवाद कहा जा सकता है कि संवैधानिक मान्यता नहीं होने के बावजूद राजस्थानी कवियों ने कवि धर्म का पूरी निष्ठा और लगन के साथ निर्वहन किया है। विश्व कविता के परिदृश्य में राजस्थानी कविता का अपना जुदा रूप और रंग है जिस पर व्यापक चर्चा की जानी चाहिए। पूर्वाग्रहों को दूर करने व राजस्थानी कविता की सम्यक पहचान के लिए ’रेत में नहाया है मन’ के माध्यम से डॉ नीरज दइया ने दुनियाभर के पाठकों को एक अनमोल अवसर सुलभ करवाया है। डॉ दइया खुद एक नामचीन कवि हैं, इसीलिए कविताओं के चयन व स्तरीय अनुवाद में सफल रहे हैं। किताब के शुरुआती पृष्ठों में ’समय के भाल पर राजस्थानी कविता’ शीर्षक से एक विस्तृत आलेख में मनीषी संपादक ने राजस्थानी कविता की शुरुआत से लेकर इसके विभिन्न पड़ावों का व समकालीन परिदृश्य का सम्यक विवेचन किया है। प्रासंगिक उदाहरणों से यह आलेख अत्यंत उपयोगी बन पड़ा है। उम्मीद की जानी चाहिए कि हिंदी के माध्यम से देश-दुनिया के पाठक राजस्थानी कविता के समृद्ध संसार से न केवल अवगत होंगे बल्कि अनुवाद के माध्यम से यह दुनिया की अन्यान्य भाषाओं तक भी पहुंचेगी। कुंवर रवीन्द्र के चित्ताकर्षक आवरण से सुसज्जित यह संकलन प्रख्यात कवि-गीतकार हरीश भादानी को समर्पित किया गया है।
सार रूप में नामी कवि-कहानीकार डॉ सत्यनारायण के शब्दों में कहा जा सकता है कि ‘रेत में नहाया है मन’ संग्रह की तमाम कविताएं जीवन के पक्ष में खड़ी हैं। वे उस संघर्ष में शामिल हैं जो आदमी को आदमी बनाए रखने के लिए लड़ा जा रहा है।’ इस स्तुत्य प्रयास के लिए संपादक के साथ ज्ञान गीता प्रकाशन भी बधाई का हकदार है।
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रेत में नहाया है मन, संपादक डॉ. नीरज दइया, ज्ञान गीता प्रकाशन, दिल्ली, पृष्ठ 256, मूल्य 375 रुपये
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(आभार- ‘विकल्प’ : जून, 2020)


Saturday, June 01, 2019

‘रेत में नहाया है मन’ (राजस्थानी कविताओं का हिंदी-अनुवाद)

आज की राजस्थानी कविता अपने समय की कविता है। जब हम माटी की गंध और उसके संघर्ष की बात करते हैं, विशेषकर स्वतंत्रता के बाद, तो देखते हैं कि राजस्थानी भाषा के कवियों ने बदलते समय और समाज को उसके यथार्थ के साथ अपनी कविता में अभिव्यक्त किया है।
                इस काव्य-यात्रा में वरिष्ठ कवियों नारायणसिंह भाटी, सत्यप्रकाश जोशी, हरीश भादानी से लेकर अर्जुनदेव चारण, आईदानसिंह भाटी, अंबिका दत्त व ठेठ युवा कवि ओम नागर, मदन गोपाल लढ़ा, राजूराम बिजारणिया तक की पीढ़ियां एक साथ सतत रचनाशील है। रेत की किरकिर, सूखते खेत, जीवन के लिए जूझते लोगों के अतिरिक्त एक ऐसी सौंधी गंध जो सिर्फ यहीं की धरती की उपज है, को इस कविता-यात्रा में साफ देखा जा सकता है।
जीवन के चौफेर संघर्ष को उकेरती ‘रेत में नहाया है मन’ की कविताएं मानवीय संवाद की कविताएं हैं। इनमें श्रम की बूंदें हैं तो रेत का उत्सव भी। आदमी की पीड़ है तो मुखौटे बदलता उसका चेहरा भी। आज के इस मुखौटे की आहट सत्यप्रकाश जोशी ने बहुत पहले सुन ली थी- “ला, मेरा मुखौटा दे थोड़ा बाहर जाता हूं।/ अंग्रेजी के कुछ शब्द डाल दे बटुवे में/ ... मुझे आदमी का भ्रम बना दे, मैं बाहर जाता हूं।” और शारदा कृष्ण की ये पंक्तियां- “क्या होगा उस दिन/ जब किसी आई-डी प्रूफ के बिना/ आदमी आदमी न गिना जाएगा।”
जीवन के हर पक्ष का संघर्ष है राजस्थानी कविता में। स्त्री, दलित, रेत, हेत व शोषण। रामस्वरूप किसान यथार्थ को कुछ इस तर देखते हैं- ‘‘पशुओं का गोबर-मूत्र/ बुहारता है आदमी/ क्योंकि/ उनके हाथ नहीं/ आदमी का मल-मूत्र/ उठाता है आदमी/ क्योंकि हाथ और दिमाग वाले/ पशु भी बहुत हैं यहां।’’ मुकुट मणिराज की कविता उस दलित का आत्मकथ्य है जो आहिस्ता से दृढ़ता के साथ शोषण के खिलाफ खड़ा हो रहा है। और स्त्री? मदन गोपाल लढ़ा के शब्दों में- “तुरपाई करती औरत/ जीवन के पक्ष में/ एक बड़ा सत्याग्रह है।”
‘रेत में नहाया है मन’ संग्रह की तमाम कविताएं जीवन के पक्ष में खड़ी कविताएं हैं। वे उस संघर्ष में शामिल है जो आदमी को आदमी बनाए रखने के लिए लड़ा जा रहा है। कविता संघर्ष में भागीदार ही नहीं  चेताती भी है- ‘‘चेतो/ चेतो कि तुम्हारी छाती पर कुंडली मार नथुनों के पास/ फन साधे/ बैठा है पीवणा सांप/ पी रहा- भाषा, भरोसा और सांस।” (तेजसिंह जोधा)
राजस्थानी कविता की अपनी एक गंध है जो इस संग्रह में देखी जा सकती है। इसके कारण यह हिंदी ही नहीं अन्य भारतीय भाषाओं से भी अलग है।
सजग कवि, आलोचक व अनुवादक डॉ. नीरज दइया ने आधुनिक राजस्थानी के सभी महत्त्वपूर्ण कवियों की श्रेष्ठ कविताओं का चयन कर बेहतरीन अनुवाद किए हैं। निश्चत रूप से हिंदी में इसकी गूंज गहरे तक जाएगी।
- डॉ. सत्यनारायण

डॉ. नीरज दइया की प्रकाशित पुस्तकें :

हिंदी में-

कविता संग्रह : उचटी हुई नींद (2013), रक्त में घुली हुई भाषा (चयन और भाषांतरण- डॉ. मदन गोपाल लढ़ा) 2020
साक्षात्कर : सृजन-संवाद (2020)
व्यंग्य संग्रह : पंच काका के जेबी बच्चे (2017), टांय-टांय फिस्स (2017)
आलोचना पुस्तकें : बुलाकी शर्मा के सृजन-सरोकार (2017), मधु आचार्य ‘आशावादी’ के सृजन-सरोकार (2017), कागद की कविताई (2018), राजस्थानी साहित्य का समकाल (2020)
संपादित पुस्तकें : आधुनिक लघुकथाएं, राजस्थानी कहानी का वर्तमान, 101 राजस्थानी कहानियां, नन्द जी से हथाई (साक्षात्कार)
अनूदित पुस्तकें : मोहन आलोक का कविता संग्रह ग-गीत और मधु आचार्य ‘आशावादी’ का उपन्यास, रेत में नहाया है मन (राजस्थानी के 51 कवियों की चयनित कविताओं का अनुवाद)
शोध-ग्रंथ : निर्मल वर्मा के कथा साहित्य में आधुनिकता बोध
अंग्रेजी में : Language Fused In Blood (Dr. Neeraj Daiya) Translated by Rajni Chhabra 2018

राजस्थानी में-

कविता संग्रह : साख (1997), देसूंटो (2000), पाछो कुण आसी (2015)
आलोचना पुस्तकें : आलोचना रै आंगणै(2011) , बिना हासलपाई (2014), आंगळी-सीध (2020)
लघुकथा संग्रह : भोर सूं आथण तांई (1989)
बालकथा संग्रह : जादू रो पेन (2012)
संपादित पुस्तकें : मंडाण (51 युवा कवियों की कविताएं), मोहन आलोक री कहाणियां, कन्हैयालाल भाटी री कहाणियां, देवकिशन राजपुरोहित री टाळवीं कहाणियां
अनूदित पुस्तकें : निर्मल वर्मा और ओम गोस्वामी के कहानी संग्रह ; भोलाभाई पटेल का यात्रा-वृतांत ; अमृता प्रीतम का कविता संग्रह ; नंदकिशोर आचार्य, सुधीर सक्सेना और संजीव कुमार की चयनित कविताओं का संचयन-अनुवाद और ‘सबद नाद’ (भारतीय भाषाओं की कविताओं का संग्रह)

नेगचार 48

नेगचार 48
संपादक - नीरज दइया

स्मृति में यह संचयन "नेगचार"

स्मृति में यह संचयन "नेगचार"
श्री सांवर दइया; 10 अक्टूबर,1948 - 30 जुलाई,1992

डॉ. नीरज दइया (1968)
© Dr. Neeraj Daiya. Powered by Blogger.

आंगळी-सीध

आलोचना रै आंगणै

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