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Sunday, August 18, 2019

उल्लेखनीय कार्य : 101 राजस्थानी कहानियां का हिंदी अनुवाद

पोथी-परख / राजेन्द्र जोशी
101 राजस्थानी कहानियां (संपादक : डॉ. नीरज दइया)ISBN : 978-81-938976-8-3 प्रकाशक : के.एल.पचौरी प्रकाशन, 8/ डी ब्लॉक, एक्स इंद्रापुरी, लोनी,गजियाबाद-201102  प्रकाशन वर्ष : 2019 / पृष्ठ : 504 / मूल्य : 1100/-
            प्रत्येक भाषा का अपना अलायदा मुहावरा होता है। भाषा छाटी या बड़ी नहीं होती, दुनिया के किसी भी हिस्से में बोली जाने वाली भाषा की एक संस्कृति की प्रतिनिधि पैरोकार होती है। भारतीय भाषाओं की बात करें तो यहां अनेक भाषाएं सदियों से प्रचलन में हैं। इन्हीं भाषाओं में से एक है- राजस्थानी भाषा। यह अपने अनुभव की व्यापकता को राजस्थानी संस्कृति से जोड़ने का काम निरंतर करती रही है। भारत में प्रचलन में रही भाषाओं में अपना वजूद बढ़ाती हुई राजस्थानी भाषा दुनिया के लगभग सभी क्षेत्रों में बोली और बरती जाती है।
            राजस्थानी भाषा का साहित्य-संसार भी बहुत प्राचीन है, राजस्थानी के आधुनिक साहित्य की बात करें तो इसमें विभिन्न विधाओं में लगभग समान रूप से वर्तमान में लिखा जा रहा है। साहित्य में कहानी विधा प्रारंभ से ही लोकप्रिय विधा रही है। अगर हम राजस्थानी कहानी की बात करें तो लगता है कि राजस्थानी कहानी के माध्यम से स्वयं लोक प्रकट हो रहा है। पिछले दिनों डॉ. नीरज दइया के संपादन में एक सौ एक राजस्थानी कहानियां हिंदी में एक साथ पठने को मिली। राजस्थानी कहानी को और अधिक पाठकों तक पहुंचाने का डा. नीरज दइया का यह प्रयास उल्लेखनीय एवं सराहनीय है। इससे जहां एक और राजस्थानी भाषा के मान्यता-आन्दोलन को बल मिलेगा, वहीं राजस्थानी कहानी की मठोठ, शिल्प, संवेदना और शैली को जानने का अवसर राजस्थानी से इतर पाठकों एवं ऐसे आलोचकों को मिल सकेगा जो भारतीय कहानी पर बात करना चाहते हैं।
            डॉ नीरज दइया के इस उम्दा प्रयास ‘101 राजस्थानी कहानियां’ से राजस्थानी में लिखे जा रहे साहित्य के साथ-साथ राजस्थानी-संस्कृति को समझने का भी अवसर मिलेगा। कथा साहित्य में अभिव्यक्त जीवन में लोक और लोक-संस्कृति एक दूसरे से बेहद करीब नजर आते हैं! राजस्थानी कहानी के परिवेश की बात करें तो यह अपने विविध सांस्कृतिक पक्षों को उजागर करती दिखाई देती है। ‘101 राजस्थानी कहानियां’ कृति में डॉ. नीरज दइया ने विभिन्न आयु-वर्ग और कहें पीढ़ियों के कहानीकारों को एक साथ स्थान देकर समग्र कहानी को जानने समझने का सुवसर दिया है, साथ ही साथ वे पाठकों को यह बताने में भी सफल रहे हैं कि राजस्थानी कहानी की यात्रा वर्तमान तक किस और किन किन तरह के बदलावों के साथ यहां तक पहुंची है। वर्तमान में भारतीय कहानी के समानांतर राजस्थानी में क्या कुछ बदलाव आएं हैं वे भी यहां नजर आ रहे हैं। कहानी-यात्रा के विभिन्न पड़ावों से पाठक रू-ब-रू होता है। दशकवार आकलन करें तो यहां विविध दशकों की सीधे-सीधे पड़ताल तो नहीं किंतु इस चयन में यह अंतर्निहित है कि विविध दौर में समय के साथ पहले की राजस्थानी कहानी और आज की राजस्थानी कहानी में काफी कुछ अंतर आया है!
            कहानी के पाठकों को यह राजस्थानी कहानियों का समुच्चय नया पाठक वर्ग भी दे सकेगा। बहरहाल इस तरह के आंशिक और छोटे स्तर पर प्रयास पहले भी होते रहे है। किंतु 101 कहानियों का यह एक साथ पहला और उल्लेखनीय प्रयास है। राजस्थानी कहानियों के संपादन की बात करें तो डॉ. नीरज दइया से पहले 1976 में रावत सारस्वत और रामेश्वर दयाल श्री माली के संपादन में मूल राजस्थानी में आज रा कहाणीकारपुस्तक साहित्य अकादेमी से प्रकाशित हुई थी। इन संपादकों के विचारों और डॉ. नीरज दइया के संपादकीय में अभिव्यक्त विचारों का तुलनात्मक अध्ययन किया जा सकता है। दोनों ही पाठकों को अपने अपने स्तर पर कुछ सोचने-समझने के अवसर के साथ पाठक की दृष्टि को मांजते हैं। इस साझा संकलन की भूमिका में रतन सारस्वत का मानना है कि उन्नीसवी शताब्दी के बाद और हिंदी के प्रवेश के साथ राजस्थानी की रचनाएं दीन-हीन अवस्था में पहुंचने लगी थी, डेढ सौ वर्षों की इस दीन-हीन दशा ने राजस्थानी भाषा-साहित्य के स्वरूप को समाप्त करने का काम किया। कारण था कि आज की राजस्थानी कहानी को दूसरी विधाओं के साहित्य की तरह अपनी पुरानी परिपाटी से अलग नया मार्ग बनाना पड़ा। यह मार्ग राजस्थान की घटती जा रही पहचान रखने वाले पावों से नहीं बना... बल्कि विचित्र पांवों की विचित्र चाल से बना। और अपने साथी सम्पादक जैसे विचार रखते हुए अपनी टिप्पणी में रामेश्वरदयाल श्रीमाली ने लिखा- आज हम जिस कहानी की बात करते हैं और आज की कहानी के आस-पास प्रत्याशा से हिंदी और हिंदी में भी प्रेमचंद की कहानी के प्रभाव से राजस्थानी कहानी आस-पास पसरी हुई है। इसी जमीन की हवा के मुताबिक आजादी की लड़ाई के जन-जागरण के साथ-साथ देश की सारी भाषाओं के साहित्य की तरह राजस्थानी भाषा और इसके कथा साहित्य ने भी आलस्य तोड़ा था, इसके बावजूद वह अगले कई वर्षों तक उनींदा-सा ही पड़ा रहा।
            इसी भांति ठीक 39 वर्षों बाद के एन बी टी से 32 राजस्थानी कहानियों का संकलन ‘तीन बीसी पार’ नंद भारद्वाज के संपादन में 2015 में प्रकाशित हुआ, जिसमें बहुत करीने से नंद भारद्वाज ने हिंदी के आलचकों की तरह इन कहानियों का मूल्यांकन पाठकों के भरोसे छोड़ दिया। वैसे किसी भी रचना का मूल्यांकन पाठक ही किया करते हैं परंतु आलेचक की राय साहित्य में बहुत महत्त्व रखती है। 39 वर्षों पूर्व रावन सारस्वत और रामेश्वर दयाल श्रीमाली के जो टिप्पणी अपनी भूमिका में अपने तरीके से लिखी है। उसका ‘तीन बीसी पार’ में नंद भारद्वाज अपनी टिप्पणी में उल्लेख देते हुए लिखा है कि इस तीसरी बीसी के जिन समर्थ और प्रतिभाशाली कथाकारों की कहानियां इस संकलन में शामिल की गई हैं, उनकी कथा-यात्रा और कहानियों के बारे में अभी कोई मूल्य निर्णय देने की जल्दीबाजी मुझे उचित नहीं लगती है। उनकी रचनाशीलता के अन्तस्त्रों को समझना बेहद जरूरी है। मेरी यही राय है कि फिलहाल ऐसी प्रतिनिधि कथाओं का चयन करना और उन्हें पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत कर देना पर्याप्त है। यह निर्णय पाठक की सुरूचि और उसके पर ही छोड देना बेहतर है कि वे दूसरी भारतीय भाषाओं की कथा-यात्रा में उन्हें कहा खड़ा पाते है। यह ठीक वैसा है कि साथ ले जाकर बीच सडक में छोड़ देना की वह अपना मुकाम खुद तय करें। तीन बीसी पार का महत्त्व इसलिए अधिक है कि इसका मूल राजस्थानी के बाद हिंदी अनुवाद भी एन बी टी ने इसी नाम से पुस्तकाकार प्रकाशित किया है।
            यादवेंद्र शर्मा ‘चंद’ ने राजस्थानी कहानियों को हिंदी पाठकों के लिए ‘कालजयी कहानियां’ 20 कहानियों और राजस्थानी की ‘प्रतिनिधि कहानियां’ में 17 कहानियों के साथ प्रकाशित किया। नंद भारद्वाज के संपादन से पहले 2007 में तथा 2015 में हिंदी में तीन बोसी पार आया था और अब 2019 में संख्यात्मक दृष्टि से इन दोनों संकलनो को आगे बढ़ाने की बात करते हुए डॉ. नीरज दइया ‘101 राजस्थानी कहानियां’ का वृहत संकलन तैयार किया है, हालांकि अधिकतर कहानीकार डॉ. नीरज दइया के इस 101 कहानीकारों में शामिल दिखायी देते हैं परंतु नीरज अपनी टिप्पणी में लिखते हैं- मेरी कोशिश रही है कि राजस्थानी की उल्लेखनीय एवं विशिष्ट कहानियां हिंदी के विशाल पाठक समुदाय तक पहुंचे। साथ ही आलोचकों का ध्यान भी उन पर जाए ताकि उन पर सार्थक चर्चा और विमर्श हो सके। डॉ. नीरज का आश्य इस सकंलन के माध्यम से राजस्थानी कहानी को हिंदी और भारतीय भाषाओं की कहानी के बीच खड़ा करने का रहा है। डॉ. नीरज 101 राजस्थानी कहानियों के हिंदी अनुवादों के माध्यम से भारतीय कहानी के मध्य कहानी के विकास में राजस्थानी कहानी का अवदान और सामर्थ्य साथ रखना चाहते हैं, मूल्यांकन की स्थितियां ऐसे प्रयासों से ही संभव हो सकेंगी। संभव है कि इस प्रयास से राजस्थानी की अनेक कहानियां अन्य भारतीय भाषाओं में अनुवाद के द्वारा पहुंच कर राजस्थानी की महक को गुलजार करे। बिना किसी संस्थागत सहयोग से 101 कहानियों का 504 पेज का संकलन हिंदी पाठकों के समुख रखना अपने आप में महत्त्वपूर्ण और प्रेरक है। इसमें विभिन्न कहानीकारों के साथ महिला कहानी लेखक को भी उचित प्रतिनिधित्व दिया गया है तथा सभी पीढ़ी के रचनाकारों पर व्यवस्थित रूप से चर्चा करने का ईमानदार प्रयास है।
डॉ. नीरज दइया हिंदी और राजस्थानी के समर्थ और प्रतिभाशाली रचनाकार हैं। सृजन और अनुसृजन में उनकी समान गति है। इक्कीसवीं सदी के शुरुआती दौर में वह मौलिक लेखन के सशक्त हस्ताक्षर के साथ-साथ सहोदरा भाषाओं- हिंदी और राजस्थानी के मध्य सेतु बनकर उभरे हैं।
            दुनिया इन दिनों के प्रधान संपादक और कवि-आलोचक डॉ.सुधीर सक्सेना की फ्लैप पर लिखी इन बातों से सहमत हुआ जा सकता है कि नीरज ऐसे आलोचक हैं, जो संकोच या लिहाज में यकीन नहीं रखते। वह खूबियां गिनाते हैं, तो खामियां भी बताते हैं। उनका यकीन खरी-खरी अथवा दो टूक है। उनके लिए थीमभी मायने रखती है और सलूक भी। वह रचनाकार के सलीके को भी नजरअंदाज नहीं करते। वह अपनी बीनाई (दृष्टि) से चीजों को परखते हैं। उनके लिए शिल्प और संवेदना मायने रखते हैं, तो प्रयोगधर्मिता भी समय के यथार्थ से जुड़ना और उससे मुठभेड़ के साथ-साथ प्रासंगिकता को वे महत्त्वपूर्ण मानते हैं। गौरतलब है कि हिंदी की पहली और राजस्थानी की प्रथम कहानी लगभग असपास ही लिखी गई। शिवचंद भरतिया की 1904 में लिखी पहली कहानी के बाद लगभग एक सदी में राजस्थानी की कहानी ने बहुत कुछ सार्थक अर्जित किया है। सरकारी या गैर सरकारी संरक्षण की न्यूनता के बावजूद उसने गतिरोधों से उबरकर अपना रास्ता तलाशा और पहचान अर्जित की। नीरज दइया की यह कृति राजस्थानी कहानी को जानने-बूझने के लिए राजस्थानी समेत तमाम भारतीय पाठकों के लिए अर्थगर्भी है। नीरज बधाई के पात्र हैं कि अपनी माटी के ऋण को चुकाने के इस प्रयास के जरिए उन्होंने राजस्थानी कहानी को वृहत्तर लोक में ले जाने का सामयिक और श्लाघ्य उपक्रम किया है।


राजेन्द्र जोशी




Sunday, July 10, 2016

आत्मा के आलोक से आलोकित कविताएं

    “आलोचकों को/ खबर न लगे/ रचनाकार का नाम”
    कवि राजेन्द्र जोशी के नए कविता संग्रह ‘एक रात धूप में’ की ये पंक्तियां उनकी कविता- ‘कवि या कविता’ के अंतर्गत व्यक्त- रचना-मूल्यांकन एवं समकालीन आलोचना के अंतर्संबंधों पर असल में एक टिप्पणी है । ‘क्या रखा है कवि के नाम में’ किसी रचना का मूल्यांकन किसी नाम से नहीं वरन पाठ की अंतर्वस्तु में निहित संभावनाओं से होना चाहिए। राजेन्द्र जोशी की कविताओं में प्रवेश करते समय नाम पृथक कर दिया जाएगा, पर रचनाकार और रचना-यात्रा का भी अपना ऐतिहासिक महत्त्व होता है। अपने पहले कविता संग्रह ‘सब के साथ मिल जाएगा’ [2011] में राजेन्द्र जोशी जिस समग्रता के प्रति समर्पित दृष्टिकोण लिए उपस्थित होते हैं, वहीं वे अपने दूसरे कविता संग्रह ‘मौन से बतकही’ [2014] में अपनी एकनिष्ठता के बहुआयामी विविध वर्णी रंग-रूप समाहित करते हुए बाहरी व भीतरी मौन में बतियाते हैं। उनका मौन में बतियाना या कहें मौन से बतियाना ही, उनके कवि को एक नवीन वितान- ‘एक रात धूप में’ तक पहुंचता है। ऐसे में किसी कविता अथवा संग्रह में कवि-दृष्टि के विकसित होने का आकलन बिना नाम के संभव नहीं। राजेन्द्र जोशी का नाम विविधता पूर्ण अनेक कार्य-व्यवहार में संलग्न है, ऐसे में मेरी आकांक्षा केवल उन्हें कवि रूप में देखने की है।
    ‘एक रात धूप में’ नाम में जिस विरोधाभास का आभास है उस में दृष्टि विकास की आवश्यकता है। संकुचित भाव से देखा जाए तो रात और धूप दोनों परस्पर विपरीत स्थितियां है। कविता विपरीत ध्रुवों को आमने-सामने अथवा साथ-साथ रख कर देखने-परखने का काम करती रही है। हम बहुत पुरानी उक्ति का सहारा लेकर इस दृष्टि-विकास का आकलन करें- जहां न पहुंचे रवि, वहां पहुंचे कवि। यह कवि जोशी के सृजक-मन का उस बिंदु तक पहुंचना है, जहां रात और धूप को साथ-साथ धरा-धाम से देखने-परखने का आयाम वह प्राप्त करता है। कविता संग्रह का नाम खुद अपनी कहानी बताने में सक्षम है। “आलोचकों को/ खबर न लगे/ रचनाकार का नाम।” एवं कवि के शब्दों में- ‘क्या रखा है कवि के नाम में।’ नाम विस्मृत कर पाठ पर दृष्टि केंद्रित करें।
     ‘एक रात धूप में’ कविता-संग्रह में तीन खंड़ों में विन्यस्त कविताएं ‘बात, जो बात है’, ‘सूखी पत्तियां’ व ‘मेरे हिस्से का आकाश’ उपशीर्षकों में मिलती है। जाहिर है तीसरे खंड की कविता ‘एक रात धूप में’ से बात, जो बात है उसका आगाज़ होना चाहिए।
    ठहरना चाहती है/ एक रात/ धूप में।
    चांदनी रात/ के साये में/ पूनम के चांद/ के घर में।
    एक रात/ बिताना चाहती है/ धूप में।
    अंतिम पहर की/ धूप में/ रात के पहले/ पहर से भोर तक।
    चांद की चौखट को भी/ सांझा करना चाहती है/ एक रात/ धूप में। [पृ. 79]
    सरल-सहज भाषा में जिस विरोधाभास में समन्वय की अभिलाषा यहां अभिव्यक्त होती है वह प्रचलित मुहावरे में असंभव-सी प्रतीत होती है। इस असंभव की यात्रा में अगर  हम हमारी दृष्टि-विस्तार और विकास कर परंपरागत विचार-वैभव त्याग कर इतर सोचेंगे तो पाठ में निहित आकांक्षा को देख-परख सकेंगे। यहां कवि हमें रवि की हदों से दूर उस बिंदु तक पहंचने का संकेत देता है- जहां ‘एक रात धूप में’ का वितान हमारी प्रतीक्षा कर रहा है। जनसत्ता के संपादक मुकेश भारद्वाज ने इस पुस्तक के फ्लैप पर लिखा है- ‘‘कई बार नितांत अभिधात्मक दिखने वाली ये कविताएं असल में सादगी के शिल्प की कविताएं हैं और यही इनकी सबसे बड़ी खूबी है।’’
    संग्रह की कविताओं में प्रेम के विविध रूप हैं, तो व्यंग्य की तीखी धारा भी। यहां प्रश्नाकुलता, द्वंद्व, अंतर्विरोध, स्वप्न और यर्थाथ का अद्वितीय लोक है। सर्वाधिक उल्लेखनीय अगर कुछ है तो वह राजेन्द्र जोशी की काव्य-भाषा एवं शिल्प है। अपनी काव्य-यात्रा के इस तीसरे पड़ाव में कविता की भाषा जैसे करवट ले रही है। इन कविताओं में प्रचलित एवं बंधे-बंधाए रूढ़ आग्रहों-रूपों से इतर भाषा को एक ऐसे शिल्प में पिरोया गया जहां पाठ में हम बार-बार ठहर-ठहर जाते हैं। यदि कवि का नाम साथ रहता है, तो हमारे संबंध, रूढ़ अर्थों में हमारी अभिलाषाएं-आकांक्षाएं और कविता को बंधी-बंधाई लीक में देखे जाने का दृष्टिकोण भी हमारे साथ रहेगा। यह अतोश्योक्ति नहीं कि इस नवीन सृजन-लोक में आत्मा के आंतरिक आलोक से आलोकित ऐसी कविताएं है, जिन्हें बिना कवि के नाम से पढ़ा जाना चाहिए।
    ‘बात, जो बात है’ खंड की कविताओं में इसी शीर्षक से कविता है, जो पुस्तक के अंतिम आवरण पर भी मुद्रित है।
    बात की स्मृति/ जिंदा होती है/ बात गुजरती नहीं/ तकदीर बदल देती है-/ बात।
    सदा के लिए/ सदारत करती है/ बहाना नहीं बनाती/ काम की होती है-/ हर एक बात की कीमत/ कीमती होती है हर बात।
    बीती नहीं/ बो बात है/ घात नहीं करती/ तभी तो सच्ची बात है-/ बात, जो बात है।                                                            [पृ.17]
    अपने पूर्ववर्ती संग्रहों से अलग यहां कविता में अभिधा के साथ-साथ व्यंजना तो है पर कविता में बात को कह कर भी बहुत-सी बात को पाठक पर छोड़ देने का कौशल भी है। अपने पाठकों पर यह भरोसा ही इन कविताओं और कवि को इस मुकाम पर पहुंचता है। इन कविताओं से पहले भूमिका के रूप में कवयित्री डॉ. वत्सला पाण्डेय ने लिखते हुए इसका संकेत भी किया है- ‘‘कहना अतिशोयक्ति न होगा कि राजेन्द्र जोशी ने एक रचनाकार के रूप में कुछ देर से ही सही अपने लिए राह निर्मित करनी सीख ली है।’’ एक कविता ‘आधी शताब्दी’ की पंक्तियां यहां इसी संदर्भ में उल्लेखनीय है- ‘अब भरोसा है/ जूझती जिंदगी पर/ दोस्ती हो गई/ पेचीदा रास्तों से/ बची हुई तू सुन !/ आधी शताब्दी !!’
    प्रथम खंड में जिन कविताओं को उल्लेखनीय कहा जाएगा, उन में एक है- ‘शब्द- 3' जिसमें कवि शब्द के अजेय-अमर होने के उद्घोष के साथ ही, शब्द की अपरिमितता और सर्वव्यापकता प्रस्तुत करते हुए उपलब्धियों में अव्यक्त को शामिल कर व्यंजित करता है। अनेकानेक जीवन सत्यों को इस खंड में अपनी सधी हुई काव्य-भाषा के साथ कवि ने प्रस्तुत किया है। एक उदाहरण कविता ‘बूढ़ा जो हो गया’ से, जिसमें बहुत कम शब्दों में कवि ने बहुत गहरी बात कही है। हमें ‘बात, जो बात है’ उसे देखने का ज्ञात यर्थाथ भाषा में  नए शब्द-क्रम से यहां नया-सा लगने लगता है- ‘बूढ़ा जो हो/ गया वह/ जिंदा रहकर भी/ जिंदा नहीं जो !’
    ‘सूखी पत्तियां’ खंड की कविताओं में जीवन-मृत्यु के क्रम में जहां जीवन का प्यार के साथ स्वागत और स्वीकार का भाव है, वहीं मृत्यु को भी जीवन के अभिन्न अंग के रूप में स्वीकारते हुए कवि ने लिखा है- ‘उडीक रहती है-/ मुझको/ पतझड़ की।’ यहां जीवन की सम्पूर्णता और समग्रता में फिर फिर हरे हो जाने का विश्वास भी अभिव्यक्त हुआ है। राजेन्द्र जोशी की काव्य-भाषा में ‘उडीक’ जैसे शब्दों से आंचलिकता की महक है, वहीं हिंदी के अनुशासन का निर्वाह एक नई और मौलिक भाषा को गढ़ने का उपक्रम भी यहां है। जिसका उदाहरण इसी खंड की कविता- ‘पतझड़ से पहले’ की इन पंक्तियां में देखें-
    कितने ही बूढ़े हों/ नहीं बदलते/ वे अपना रंग।
    वे हरे रहते हैं/ पतझड़ से पहले तक।
    लगते हो भले फल/ किसी भी रंग के/ और न लगे/ तब भी/ वे हरे ही रहते हैं।
    दरख्तों पर/ वे नहीं बदलते/ अपना रंग ! [पृ.51]
    उत्तर आधुनिकता के इस दौर में भी यह प्रतीक्षा, धैर्य, आत्मीयता का भाव किसी भी जीवन के लिए अनुकरणीय है, वहीं अपनी भाषा को बूढ़ी होने से बचाने के उपक्रम में हरी बनाए रखने की वह एक यात्रा भी है।
    ‘मेरे हिस्से का आकाश’ खंड की कविताएं कुछ निजता में कवि के घर-परिवार, रिस्तों और विचारों के साथ मान्यताओं के काव्य-बिंब हैं। कहीं बेहद सीधे और सरलीकृत रूप में कुछ काव्यांश अभिधा में अपनी कहानियां कहते हैं तो कुछ स्थलों पर वे प्रतीकों के माध्यम से व्यष्टि से समष्टि की दिशा में अग्रसर होते हैं। यहां यह अनायस नहीं है कि अग्रज कवि हरीश भादानी की काव्य-पंक्ति 'राज बोलता सुराज बोलता' की अनुगूंज कविता ‘शहर नीलाम होने को है’ में ‘हर शख्स बोलता है’ के स्थाई अंतरे से प्रगट होती है, वहीं नंदकिशोर आचार्य के काव्य-शिल्प में भाषा के क्रम के कुछ साम्य भी धैयवान पाठक जान सकते हैं। यह अपनी काव्य-परंपरा में नई परंपरा का पोषण एवं विकास है।  
    अंत में बस इतना ही कि कवि राजेन्द्र जोशी जिस काव्यालोक में पहुंचे हैं वह सघन से सघनतर हो। उनका कवि-रूप हिंदी कविता-प्रांगण में अपनी कविताओं व नाम के साथ पढ़े जाने वाले कवियों में शामिल हो, यही आकांक्षा व प्रार्थना है।
    राजेन्द्र जोशी की इन पंक्तियों को आप सभी को समर्पित करता हूं- ‘दिए की लौ/ चूल्हे की आग/ चिंगारी की आंच/ सूरज की तपिश/ और लाल होती आंखें।/ मौन रहकर/ कहती हैं-/ बहुत कुछ।’ [लाल होती आंखें, पृ. 56] इस बहुत कुछ कहे को सहेजने की आवश्यकता है, जिससे कविता की लौ दूर तक रोशन रहे। इन्हीं शब्दों के साथ कवि राजेन्द्र जोशी को बधाई और मुक्ति संस्था का आभार कि मुझे इस अवसर पर अपनी बात कहने का सम्मान दिया।
•    एक रात धूप में/ कविता संग्रह/ राजेन्द्र जोशी
प्रकाशक- सूर्य प्रकाशन मंदिर, बीकानेर/ संस्करण- 2016/ पृष्ठ- 96/ मूल्य- 200/-


•    नीरज दइया



डॉ. नीरज दइया की प्रकाशित पुस्तकें :

हिंदी में-

कविता संग्रह : उचटी हुई नींद (2013), रक्त में घुली हुई भाषा (चयन और भाषांतरण- डॉ. मदन गोपाल लढ़ा) 2020
साक्षात्कर : सृजन-संवाद (2020)
व्यंग्य संग्रह : पंच काका के जेबी बच्चे (2017), टांय-टांय फिस्स (2017)
आलोचना पुस्तकें : बुलाकी शर्मा के सृजन-सरोकार (2017), मधु आचार्य ‘आशावादी’ के सृजन-सरोकार (2017), कागद की कविताई (2018), राजस्थानी साहित्य का समकाल (2020)
संपादित पुस्तकें : आधुनिक लघुकथाएं, राजस्थानी कहानी का वर्तमान, 101 राजस्थानी कहानियां, नन्द जी से हथाई (साक्षात्कार)
अनूदित पुस्तकें : मोहन आलोक का कविता संग्रह ग-गीत और मधु आचार्य ‘आशावादी’ का उपन्यास, रेत में नहाया है मन (राजस्थानी के 51 कवियों की चयनित कविताओं का अनुवाद)
शोध-ग्रंथ : निर्मल वर्मा के कथा साहित्य में आधुनिकता बोध
अंग्रेजी में : Language Fused In Blood (Dr. Neeraj Daiya) Translated by Rajni Chhabra 2018

राजस्थानी में-

कविता संग्रह : साख (1997), देसूंटो (2000), पाछो कुण आसी (2015)
आलोचना पुस्तकें : आलोचना रै आंगणै(2011) , बिना हासलपाई (2014), आंगळी-सीध (2020)
लघुकथा संग्रह : भोर सूं आथण तांई (1989)
बालकथा संग्रह : जादू रो पेन (2012)
संपादित पुस्तकें : मंडाण (51 युवा कवियों की कविताएं), मोहन आलोक री कहाणियां, कन्हैयालाल भाटी री कहाणियां, देवकिशन राजपुरोहित री टाळवीं कहाणियां
अनूदित पुस्तकें : निर्मल वर्मा और ओम गोस्वामी के कहानी संग्रह ; भोलाभाई पटेल का यात्रा-वृतांत ; अमृता प्रीतम का कविता संग्रह ; नंदकिशोर आचार्य, सुधीर सक्सेना और संजीव कुमार की चयनित कविताओं का संचयन-अनुवाद और ‘सबद नाद’ (भारतीय भाषाओं की कविताओं का संग्रह)

नेगचार 48

नेगचार 48
संपादक - नीरज दइया

स्मृति में यह संचयन "नेगचार"

स्मृति में यह संचयन "नेगचार"
श्री सांवर दइया; 10 अक्टूबर,1948 - 30 जुलाई,1992

डॉ. नीरज दइया (1968)
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आंगळी-सीध

आलोचना रै आंगणै

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