Saturday, June 04, 2022

दीठ साम्हीं सांस लेवती अेक अदीठ दुनिया / डॉ. नीरज दइया

             राजस्थान सूं जिण हिंदी रचनाकारां नै आखै भारत मांय ओळखीजै बां मांय सूं चावो-ठावो अेक हरावळ नांव- पद्मजा शर्मा रो मानीजै। आपरा दस नैड़ा कविता-संग्रै साम्हीं आयोड़ा। कवितावां मांय सहजता-सरलता सूं मन नै परस करती, हियै ढूकती बातां अर जूण रा न्यारा-न्यारा लखावां नै नवी दीठ सूं राखणो पद्मजा जी री कवितावां री लूंठी खासियत कैय सकां। आपरो मूळ विसय लुगाई-जूण रैयो है अर ‘धरती पर औरतें’ कविता-संग्रै इणी खातर खास रूप सूं ओळखीजै। घणै हरख री बात कै इणी संग्रै रो राजस्थानी उल्थो आपां साम्हीं चावा-ठावा रचनाकार बसंती पंवार जी रै मारफत आयो है।

            राजस्थानी अर हिंदी दोनूं भासावां मांय न्यारी न्यारी विधावां मांय बसंती पंवार री केई पोथ्यां साम्हीं आयोड़ी अर निरा मान-सम्मान ई मिल्योड़ा। उल्थाकार खुद चावी-ठावी रचनाकार रूप आपरी सांवठी ओळख राखै। आज चेतै करूं तो लखावै कै लगैटगै पच्चीस बरसां पैली री बात हुवैला जद म्हैं बसंती पंवार रै पैलै उपन्यास ‘सोगन’ नै बांच्यो। उणी दिनां ठाह लाग्यो कै आप शिक्षक विभाग मांय काम करै अर आपरी जलमभोम बीकानेर है। ‘सोगन’ उपन्यास नै राजस्थानी भाषा, साहित्य अेवं संस्कृति अकादमी बीकानेर रो ‘सांवर दइया पैली पोथी पुरस्कार’ 1998 अरपण करीज्यो, तद बसंती जी सूं पैली दफै मिलणो ई हुयो। अठै आं सगळी बातां नै गिणावण रो मकसद ओ है कै बसंती जी लगोलग संजीदा रचनाकार रूप लिखता-पढता रैया है। राजस्थानी री बात करूं तो इण ढाळै रा महिला रचनाकार आंगळियां माथै गिण सकां जिका लगोलग राजस्थानी साहित्य नै विकसित करणै री हूंस दरसावता रैया है। 

            अेक रचनाकार रूप बसंती पंवार मानै कै मिनखां करता लुगायां मांय संवेदनशीलता कीं बेसी हुवै अर इणी सारू बै सवाई हुवै। साहित्य रो मूळ आधार संवेदना ई हुवै अर न्यारी न्यारी विधावां मांय कोई रचनाकार संवेदना नै किण ढाळै परोटै इणी मांय उण री कला अर खासियत हुवै। उपन्यास अर कहाणी साथै साथै बसंती जी री कवि रूप रचनात्मकता राजस्थानी-हिंदी दोनूं भासावां मांय देख सकां। ‘जोवूं अेक विस्वास’ राजस्थानी कविता संग्रै अर ‘कब आया बसंत!’ हिंदी कविता-संग्रै छप्योड़ा। इण पोथी रै मारफत आपां बसंती पंवार जी नै सिरजण रै भेळै अनुसिरजण रै लेखै ई देखां-परखां।

            अनुवाद अर उल्थो सबद करता अनुसिरजण सबद म्हनै बेसी अरथावू इण रूप मांय लखावै कै इण सबद मांय मूळ सबद सिरजण बिराजै। अनुसिरजण री सगळा सूं लांठी खासियत उण रो मूळ सिरजण अर सिरजक रै सबदां री भावनावां नै सिरै मानणो समझणो-समझावणो मानीजै। जिण ढाळै कोई अभिनेता किणी किरदार नै निभावै उणी ढाळै अनुसिरजक मूळ सिरजक रै किरदार नै खुद री भासा मांय साकार करै। इण पोथी री कवितावां बांचता घणी दफै आपां नै इयां लागै कै जाणै आपां मूळ राजस्थानी री कवितावां ई बांच रैया हां, आ किणी पण अनुसिरजण री सखरी बात हुवै। आपां आ बातां ई जाणा कै अनुसिरजण बो ई सफल अर सारथक मानीजै जिको खुद सिरजण दांई गुणवान हुय जावै।

            पोथी री कवितावां री बात करण सूं पैली भासा री बात करणी जरूरी लखावै। राजस्थानी भासा मानकीकरण अर अेकरूपता सूं बेसी जरूरी बात आज सबदां री समरूपता री मानणी चाइजै। औकारांत अर ओकारांत भासा रा दोय रूप आपां रै अठै मानीजै पण अरथ मांय जे कोई बदळाव नीं निगै आवै तो आं दोनूं रूपां नै लेखक आपरै विवेक सूं बरत सकै। अनुसिरजण रै मामलै मांय मूळ सिरजक री बात नै अनुसिरजक किण ढाळै समझी उणी माथै उण रै सबदां रो चुनाव हुया करै। किणी अेक सबद खातर अनुसिरजक किसो सबद बरतै आ उण री समझ अर खिमता री बात हुवै। ‘धरती’ खातर राजस्थानी मांय केई केई सबद मिलैला, जे बसंती पंवार जी ‘धरणी’ सबद बरतै तो ओ बां रो लखाव अर फैसलो है कै कवितावां री भावनावां सूं ओ सबद बेसी जुड़ैला। इणी खातर अेक अनुसिरजण हुया पछै उणी पोथी रो अनुसिरजण कोई दूजो रचनाकार भळै करै।

            पैली कविता ‘अपछरा’ री आज री लुगायां पेटै कैयोड़ी आं ओळ्यां नै देखां-

                        वै कोई चीजबस्त नीं है

                        मोलावौ बरतौ अर फेंक देवौ

                        लुगायां मांय ई जीव हुवै

            इण पूरी पोथी मांय ठौड़ ठौड़ इण ढाळै री ओळ्यां मिलैला जिण मांय आपां नै लुगायां मांयलै जीव री ओळख हुवैला। कवितवां मांयली लुगायां किणी दूजै लोक का परदेस री लुगायां कोनी। आपां रै आसै पासै री दुनिया मांय अठै तांई कै आपां रै घर-परिवार अर समाज मांय इण ढाळै री केई केई लुगायां न्यारै न्यारै रूपां अर संबंधां मांय आपां देखता रैया हां। पण खाली देखण अर ओळखण मांय आंतरो हुवै। अठै आ बात ई जोर देय’र कैवणी चाइजै कै कवयित्री री आंख सूं सागी दुनिया अर लुगाई जात नै ओळखणो कीं न्यारो हुया करै।

            राजस्थानी समाज मांय जिका बदळाव आया है उण मांय सगळा सूं मोटो बदळाव बगत साम्हीं सवाल करती लुगाई मान सकां अर ओ कविता संग्रै उण सवाल करती लुगाई जात री मनगत री पुड़ता नै होळै होळै खोलै। लुगाई नै दूजां करता घणो सुणणो-सैवणो पड़ै। बां कीं करै तो उण नै सुणणो पड़ै अर कीं नीं करै तो ई सुणण री बारी उण री ई हुवै। समाज किणी पण गत मांय लुगाई जात नै कीं न कीं कैवतो रैयो है अर इण कवितावां मांय ठीमर रूप लुगाई जात री अलेखू बातां होळै होळै साम्हीं आवै। ‘खुद री पांख्यां सूं उडूंला’ कविता री आं ओळ्यां नै देखो-

अैड़ौ ई हुवै जणैं थांरा फैसला कोई दूजा लेवै

म्हैं तै कर लियौ हूं

म्हैं दूजां री पांख्यां सूं नीं

खुद री पांख्यां सूं उड़ूला

खुद रै पगां सूं आगै पूगूंला

खुद री जुबान सूं खुद री बात आपौआप कैऊंला

कांई हुयग्यौ जे होळै-होळै ठैर-ठैर नै कैऊंला

            आं हूंस जसजोग हियै ढूकती कैय सकां। संग्रै मांय घणै सरल अर सीधै सबदां मांय जूण री अबखायां अर आंकी बांकी हुयोड़ी बातां समझ मांय आवै। लुगाई अर मिनख जूण-गाड़ी रा दोय पहिया मानीजै आं मांय समानता अर आपसी समझ घणी जरूरी हुवै। ‘म्हैं’ कविता नै अठै दाखलै रूप लेय सकां हां जिण मांय लुगाई जात रो मिनखां री दुनिया मांय छोटी हुय’र बरताव करणो बां नै लगोलग ओ भरम देय रैयो है कै बै उण सूं मोटा घणा मोटा हुयग्या है जद कै समझण री बात है कै असलियत दूजी हुया करै। आं कवितावां री मूळ संवेदना आ ई है कै आपां रै अठै लुगाई नै सगती रो रूप मानता रैया हां तो इण मानीजती बात बिचाळै झोळ कठै है कै समाज मांय उण री बेकदरी देखी जावै।

            संग्रै मांय घणी कवितावां है जिकी बांचता आपनै लागैला इण कविता रो जिकर म्हैं म्हारी बात लिखती वेळा क्यूं नीं करियो, अठै म्हारै लिखण री सींव रै कारण बै कवितावां छोड़णी पड़ी। सेवट मांय संग्रै री कविता ‘इणरौ मरणौ तै है’ री अै ओळ्यां आपरी निजर करता म्हैं म्हारी बात पूरी करूंला-

अै छोरियां जितरी हंसैला

उतरी ई हित्यारां री निजरां मांय आवैला

क्यूंकै हंसण रौ कानून संविधान मांय नीं है

अर संविधान री रक्सा रौ ठेकौ

इण दिनां में ले राख्यौ है ‘वै’

            ओ संग्रै जे आप अेकर बांच लेवो तो दीठ साम्हीं सांस लेवती अेक अदीठ दुनिया उजागर हुवैला। ओ आं कवितावां रो असर कैयो जावैला कै अेकर हाथ मांय लिया पछै आं सूं छूटणो का बचर निकळ जावणो आपां रै हाथ री बात नीं रैवै। मानीता बसंती पंवार जी नै मोकळा मोकळा रंग कै बां ओ जसजोग काम करियो। 

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‘जय हो’ की नाराजगी / डॉ. नीरज दइया


मोबाइल टनाटनाया तो स्क्रीन पर नाम चमकने लगा। मन में सोचा यह क्यों फोन कर रहा है? बिना काम के और बिना मतलब के फोन उठाने में मेरी रुचि नहीं रहती। मेरी इस रुचि और अरुचि का संभवत उन्हें मालूम नहीं था, फिर से फोन बज रहा था और नाम भी वहीं था। आर. के. जोशी आखिर क्या बात करना चाहते हैं? कुछ लोग गजब की पिंडी पकड़ होते हैं, हमें सोचना चाहिए कि सामने वाले ने एक बार फोन नहीं उठाया, दोबारा फोन नहीं उठाया... तो फिर तीसरी बार फोन क्यों कर रहे हैं? मैंने फोन उठाया और बहुत मधुर स्वर में कहा- भाई साहब प्रणाम। कहिए...
- कब से फोन किए जा रहा हूं, आप फोन क्यों नहीं उठा रहे हैं? फोन उठाने का भी कोई खर्चा आता है क्या...? ऐसे अवसरों पर झूठ हमारी बड़ी सहायता करता है। दूर बैठे आदमी को बस सुनाई सुनाई देता है, दिखाई नहीं देता है। इसलिए मैंने कहा- भाई साहब मैं ड्राइविंग कर रहा था और ट्रैफिक बहुत था। क्षमा चाहता हूं इसलिए फोन नहीं उठा पाया। हुकुम करिए आप क्या कह रहे थे?
- नहीं पहले यह बताओ, अब भी गाड़ी चला रहे हो या रुके हो कहीं पर...?
कहने वाले ने झूठ थोड़े ही कहा है- एक झूठ को सच बनाने के लिए हजार झूठ बोलने पड़ते हैं। मैंने कहा- गाड़ी को साइड में लगा कर रोक लिया है, आपसे बात करने के लिए...।
- चलो तो फिर कोई बात नहीं, फिर बात करेंगे। जब आप फ्री हो तो फोन कर लेना...।
- ऐसा भी क्या है भाई साहब, अब बता भी दीजिए... गाड़ी रोक ली है और साइड में लगा ली है। मुझे गुस्सा आ रहा था कि जब इतना जरूरी काम नहीं था तो फिर घंटी पर घंटी क्यों किए जा रहे थे।
जोशी भाई साहब ने कहा- मैंने तो इसलिए फोन किया था कि मैं जानना चाह रहा था कि मैंने ऐसी क्या गलती कर दी, जिससे आप नाराज हो गए हैं।
इसे कहते हैं किसी की शराफत पर लट्ठ मारना। मुझे बातों में ऐसी जलेबिया पसंद नहीं है। अपने गुस्से को काबू में रखते हुए मैंने उत्तर दिया- मैं भला आपसे क्यों नाराज हूं। मैं नाराज हूं, ऐसा आपको किसने कहा? आपके और हमारे संबंध तो बरसों पुराने हैं और घर जैसे हैं। आप दूसरों की बातों में नहीं आए।
- दूसरे किसी ने नहीं कहा है यह तो साफ-साफ दिखती बात है!
- भाई साहब ऐसे समझ में नहीं आ रहा है, आप सीधे-सीधे बताइए बात क्या है?
- पिछले तीन-चार दिनों से देख रहा हूं कि आप फेसबुक में मुझे टैग नहीं कर रहे हैं।
मैंने मन ही मन कहा- खोदा पहाड़ निकली चूहिया। पर प्रत्यक्ष में बोला- तो यह जरूरी बात है...।
- हां तो मुझे टेंशन हो गयी कि ऐसा मैंने क्या कर दिया, कह दिया या कहीं कुछ लिख दिया कि आपने मुझे टैग करना बंद कर दिया है!
- ठीक है भाई साहब मैं आपको घर जाकर सभी पोस्ट में टैग कर दूंगा। अब मैं उनको समझाने की स्थिति में नहीं था कि फेसबुक आदि अपने तो रोज के धंधें हैं, कोई टैग हो गया तो ठीक नहीं हुआ तो ठीक। अपने दोस्ती दुश्मनी देखकर टैग नहीं करते जी। जो हाथ में जाए उसे ही टैगिया देते हैं। ये जोशी भाई साहब मेरी हर पोस्ट पर केवल एक ही बात लिखते हैं- जय हो। मैं किसी के मरने की खबर लगा दूं या जन्मदिन की बस इनका कॉपी-पेस्ट हर जगह ‘जय हो’ ही होता है। मैंने तो इनका नाम ही जय हो निकाल दिया है। तो जनाब जय हो ने सवाल किया- वह तो ठीक है। नहीं, पर कारण तो बताओ ना ऐसा क्या हुआ? पहले तो ऐसा कभी नहीं हुआ।
- तो ठीक है भाई साहब फोन अब रखें। मैं अभी यहीं रुका हुआ तो हूं, अपने काम पर बाद में जाऊंगा। आपको फेसबुक पर सभी पोस्टों पर पहले टैग कर देता हूं।
- नहीं मेरा मतलब यह नहीं है, आपको जहां जाना है वहां पहले जाओ। बाद में जब फ्री हो तो मेरी बात पर सोचना।
- जी भाई साहब फोन रखता हूं। और मैंने फोन काट दिया। मन ही मन एक गंदी सी गाली निकाली। जिसे यहां लिखना ठीक नहीं।.... कितना खून पी गाया। फोन मेरा, फेसबुक मेरी, डाटा पैक मेरा, पोस्ट मेरी, तो मैं किसी टेग करूं और किसे नहीं करूं... यह मर्जी भी मेरी चलेगी या तुम्हारी।
कुछ लोग टैग करने पर परेशान हो जाते हैं और यह जनाब है कि टैग नहीं करने पर इतने परेशान हो लिए। समझदार लोग ठीक कहते हैं कि फेसबुक, व्हाट्सएप, टि्वटर और सोशल मीडिया के दूसरे विकल्प आदमी का समय बहुत खाते हैं। इनकी चकरी चढ़े तो फिर दो घड़ी सुख चैन से बैठ नहीं सकते हैं। कब कहां से किस की घंटी बज जाए कहा नहीं जा सकता। यह घंटियां और बिप-विप दिन देखती है, ना रात और ना ही दोपहर। कोई सो रहा है, कोई पढ़ रहा है, कोई कुछ खा रहा है, कोई कुछ भी कर रहा है, कोई कुछ बात कर रहा है या किसी काम में व्यस्त हैं... पर साहब यह सब कुछ फ्री है। यह हमारी आजादी है कि हम इनके बंधनों में बंध कर इनके गुलाम हो चुके है। बिना इन सब के अब तो सांस भी अच्छे से नहीं आती है। इस फ्री सेवा में कोई टेंशन ले तो टेंशन सर्वाधिक फ्री है।
जोशी भाई साहब टेंशन ले रहे हैं इसलिए मैं अपनी सभी फेसबुक पोस्ट को पहले उन्हें टेग कर देता हूं। फिर आपसे आगे की बात कभी करूंगा क्योंकि पहले तो टैग करने में समय लगेगा और उसके बाद टैग करके ‘जय हो’ को सूचित भी करना पड़ेगा कि भाई साहब आपको टैग कर दिया है। लिख दो अब आप ‘जय हो’।
मेरा निवेदन है कि आपको भी यदि टैग करवाने में रुचि हो तो प्लीज फोन नहीं करें, इस काम के लिए बस मैसेज ही काफी है।

डॉ. नीरज दइया की प्रकाशित पुस्तकें :

हिंदी में-

कविता संग्रह : उचटी हुई नींद (2013), रक्त में घुली हुई भाषा (चयन और भाषांतरण- डॉ. मदन गोपाल लढ़ा) 2020
साक्षात्कर : सृजन-संवाद (2020)
व्यंग्य संग्रह : पंच काका के जेबी बच्चे (2017), टांय-टांय फिस्स (2017)
आलोचना पुस्तकें : बुलाकी शर्मा के सृजन-सरोकार (2017), मधु आचार्य ‘आशावादी’ के सृजन-सरोकार (2017), कागद की कविताई (2018), राजस्थानी साहित्य का समकाल (2020)
संपादित पुस्तकें : आधुनिक लघुकथाएं, राजस्थानी कहानी का वर्तमान, 101 राजस्थानी कहानियां, नन्द जी से हथाई (साक्षात्कार)
अनूदित पुस्तकें : मोहन आलोक का कविता संग्रह ग-गीत और मधु आचार्य ‘आशावादी’ का उपन्यास, रेत में नहाया है मन (राजस्थानी के 51 कवियों की चयनित कविताओं का अनुवाद)
शोध-ग्रंथ : निर्मल वर्मा के कथा साहित्य में आधुनिकता बोध
अंग्रेजी में : Language Fused In Blood (Dr. Neeraj Daiya) Translated by Rajni Chhabra 2018

राजस्थानी में-

कविता संग्रह : साख (1997), देसूंटो (2000), पाछो कुण आसी (2015)
आलोचना पुस्तकें : आलोचना रै आंगणै(2011) , बिना हासलपाई (2014), आंगळी-सीध (2020)
लघुकथा संग्रह : भोर सूं आथण तांई (1989)
बालकथा संग्रह : जादू रो पेन (2012)
संपादित पुस्तकें : मंडाण (51 युवा कवियों की कविताएं), मोहन आलोक री कहाणियां, कन्हैयालाल भाटी री कहाणियां, देवकिशन राजपुरोहित री टाळवीं कहाणियां
अनूदित पुस्तकें : निर्मल वर्मा और ओम गोस्वामी के कहानी संग्रह ; भोलाभाई पटेल का यात्रा-वृतांत ; अमृता प्रीतम का कविता संग्रह ; नंदकिशोर आचार्य, सुधीर सक्सेना और संजीव कुमार की चयनित कविताओं का संचयन-अनुवाद और ‘सबद नाद’ (भारतीय भाषाओं की कविताओं का संग्रह)

नेगचार 48

नेगचार 48
संपादक - नीरज दइया

स्मृति में यह संचयन "नेगचार"

स्मृति में यह संचयन "नेगचार"
श्री सांवर दइया; 10 अक्टूबर,1948 - 30 जुलाई,1992

डॉ. नीरज दइया (1968)
© Dr. Neeraj Daiya. Powered by Blogger.

आंगळी-सीध

आलोचना रै आंगणै

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