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Friday, November 23, 2018

सहगल के कहानी-साहित्य का पूरा परिदृश्य / डॉ. नीरज दइया








हरदर्शन सहगल का कथा साहित्य और समकालीन विमर्श (शोध) डॉ. बबीता काजल; 
प्रकाशक- बोधि प्रकाशन, जयपुर; संस्करण- 2018; पृष्ठ-104; मूल्य-120/-
 पुस्तक-समीक्षा -
सहगल के कहानी-साहित्य का पूरा परिदृश्य / डॉ. नीरज दइया

    समकालीन हिंदी कथा-साहित्य के परिदृश्य में राजस्थान से हरदर्शन सहगल की प्रभावी उपस्थिति रही है। मियांवाली (पाकिस्तान) के कुंदिया गांव में 26 फरवरी, 1936 को जन्में सहगल का पहला कहानी संग्रह- ‘मौसम’ 1980 में प्रकाशित हुआ और तब से अब तक एक दर्जन से अधिक कथा-साहित्य की पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है। आपको कथा-साहित्य के लिए राजस्थान साहित्य अकादेमी से रांगेय राघव पुरस्कार गत वर्ष अर्पित किया गया। डॉ. बबीता काजल का ‘हरदर्शन सहगल का कथा साहित्य और समकालीन विमर्श’ शोध का पुस्तकाकार आना उनकी साहित्य-साधना का सम्मान है। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग से स्वीकृत इस शोध-प्रोजेक्ट में छह अध्याय हैं। लेखक की कलम से में अपनी बात स्पष्ट करते हुए लेखिका ने कहानी के प्रति आकर्षण, बीकानेर और सहगल की आत्मीयता के साथ शोध-प्रस्ताव की रूपरेखा-विचारधारा को स्पष्ट किया है।
    शोध के आरंभ में आधुनिक हिंदी कहानी की यात्रा पर प्रकाश डालते हुए समकालीन विमर्शों की अवधारणाओं और अभिव्यक्ति के प्रश्न पर विभिन्न मतों के आलोक में चर्चा की गई है। शोध का प्रथम अध्याय स्त्री, दलित, सत्ता/ राजनीति, विखंडन, विघटन, बाजार, बाल तथा अन्य विमर्शों पर एक सीमा-रेखा का निर्धारण है जिनके मानदंडों पर हरदर्शन सहगल के कथा साहित्य में समकालीन विमर्शों का अध्ययन किया गया है। यह बहुत समीचीन है कि द्वितीय अध्याय में उनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर विस्तार से जानकारियां उपलब्ध करवाने के साथ ही सभी रचनाओं का संक्षेप में परिचय भी दिया गया है। इस अध्याय में उल्लेखित नौ कहानी संग्रहों के विषय में विमर्शों के धरातल पर विस्तार आकलन लेखिका ने आगे के अध्यायों में किया है। यह अतिरिक्त अपेक्षा नहीं है और यहां यह प्रश्न स्वभाविक रूप से किया जाना चाहिए कि जब शोध विषय में ‘कथा-साहित्य’ पद प्रयुक्त किया गया है, तो इसमें सहगल के उपन्यास-साहित्य को शामिल क्यों नहीं किया गया है?
    तृतीय अध्याय ‘हरदर्शन सहगल की कहानियां : एक परिचय’ में संग्रहवार कहानियों की भावभूमि और परिचयात्मक-समीक्षात्मक टिप्पणियां हैं। चतुर्थ अध्याय- ‘हरदर्शन की सहगल की कहानियों में समकालीन विमर्श’ शीर्षक में एक अतिरिक्त ‘की’ प्रयुक्त हुआ है वहीं इस अध्याय की प्रथम पंक्ति- ‘अध्याय तीन में हरदर्शन सहगल द्वारा रचित लगभग 10 कथा संग्रहों में रचित लगभग 50 कहानियों का विषद अध्ययन करने से स्पष्ट होता है कि विषय का वैविध्य होते हुए भी आपकी अधिकांश कहानियों में मध्यवर्गीय जीवन को केन्द्र में रखकर लिखी गई है।’ खेद के साथ लिखना पड़ता है कि इस पंक्ति में दो बार ‘लगभग’ प्रयुक्त होना, अध्ययन की गंभीरता को कमतर सिद्ध करने वाला है। पूर्व में उल्लेखित कहानी और कथा का विभेद भी यहां आवश्यक जान पड़ता है। इस अध्याय की एक पंक्ति देखें- ‘बहरहाल राजस्थान के सुप्रसिद्ध कथाकार हरदर्शन सहगल द्वारा रचित कहानियों में अगर विमर्श या विचारों की तलाश करें तो वह विविधता से भरा है यद्यपि कुछ एक विषयों पर उन्होंने बहुत अधिक लेखनी नहीं चलई है तथापि वर्तमान में बहने वाली अनेक साहित्यिक धाराएं उनके साहित्य में अपनी प्रासंगिकता को सिद्ध करती है।
    प्रत्येक शोध की अपनी सीमाएं और संभावनाएं होती है। जाहिर है इस शोध की भी अपनी सीमाएं हैं किंतु संभावनाएं असीमित है। विषय के सांचे में किसी रचनाकार की कृतियों का मूल्यांकन उस कृति की इतर अनेक संभावनाओं का अंत होता है। इसके उपरांत भी विदुषी डॉ. बबीता काजल ने अपनी शोध-परक सूक्ष्म दृष्टि का परिचय अनेक स्थलों पर देते हुए कहानियों में विमर्शों की न्यूनता-अधिकता को स्पष्ट किया है। शोध का प्रमुख और प्रभावशाली अध्याय पांचवा है- ‘समकालीन कहानी : संवेदना के स्तर’ जिसमें समकालीन कहानियों और कहानीकारों का तुलनात्मक अध्यय प्रस्तुत करते हुए सहगल के कहानी लेखन को रेखांकित किया गया है। अनेक कहानियों को उदाहरण के रूप में प्रस्तुत करते हुए लेखिका ने हरदर्शन सहगल को जीवन में साहित्य के माध्यम से सद्गुणों को बचाने वाले सजक सृजक के रूप में पाया है।
    पुस्तक के अंतिम अध्याय- ‘नव विमर्श में निहित संभावनाएं’ का निष्कर्ष है कि अनेक-अनेक धाराओं के मध्य ‘मानव विमर्श ही परम विमर्श और अंगी विमर्श है, जो मानव की समस्त संवेदनाओं व अनुभूतियों को बनाए रखने का पक्षधर है और सहगल के कहानी साहित्य का उद्देश्य मानव धर्म की प्रतिस्थापना करना है। मानवीय संवेदनाओं का रक्षण और दुष्प्रवृत्तियों का क्षर करने वाले कहानीकार सहगल पहले साहित्यकार हैं जिनकी कहानियों पर ऐसा शोध प्रकाश में आया है, इसलिए लेखिका को बहुत बहुत साधुवाद। उपसंहार में लेखिका के व्यक्त विचार से सहमत हुआ जा सकता है कि सहगल द्वारा रचित कहानियां उनकी मौन साधना और खामोशी में अपना धर्म निभाती बिना किसी खेम का ढोल पीटे मौन साधक की साधना है। बबीता काजल के इस शोध ग्रंथ में सहगल के कहानी-साहित्य का पूरा परिदृश्य हम देख सकते हैं।
    पुस्तक के सुंदर मुद्रण और प्रकाशन के लिए बोधि प्रकाशन को बधाई और कहना होगा कि इस प्रकार के शोध विभिन्न रचनाओं-रचनाकारों के संबंध में भी होते रहेंगे। 

डॉ. नीरज दइया की प्रकाशित पुस्तकें :

हिंदी में-

कविता संग्रह : उचटी हुई नींद (2013), रक्त में घुली हुई भाषा (चयन और भाषांतरण- डॉ. मदन गोपाल लढ़ा) 2020
साक्षात्कर : सृजन-संवाद (2020)
व्यंग्य संग्रह : पंच काका के जेबी बच्चे (2017), टांय-टांय फिस्स (2017)
आलोचना पुस्तकें : बुलाकी शर्मा के सृजन-सरोकार (2017), मधु आचार्य ‘आशावादी’ के सृजन-सरोकार (2017), कागद की कविताई (2018), राजस्थानी साहित्य का समकाल (2020)
संपादित पुस्तकें : आधुनिक लघुकथाएं, राजस्थानी कहानी का वर्तमान, 101 राजस्थानी कहानियां, नन्द जी से हथाई (साक्षात्कार)
अनूदित पुस्तकें : मोहन आलोक का कविता संग्रह ग-गीत और मधु आचार्य ‘आशावादी’ का उपन्यास, रेत में नहाया है मन (राजस्थानी के 51 कवियों की चयनित कविताओं का अनुवाद)
शोध-ग्रंथ : निर्मल वर्मा के कथा साहित्य में आधुनिकता बोध
अंग्रेजी में : Language Fused In Blood (Dr. Neeraj Daiya) Translated by Rajni Chhabra 2018

राजस्थानी में-

कविता संग्रह : साख (1997), देसूंटो (2000), पाछो कुण आसी (2015)
आलोचना पुस्तकें : आलोचना रै आंगणै(2011) , बिना हासलपाई (2014), आंगळी-सीध (2020)
लघुकथा संग्रह : भोर सूं आथण तांई (1989)
बालकथा संग्रह : जादू रो पेन (2012)
संपादित पुस्तकें : मंडाण (51 युवा कवियों की कविताएं), मोहन आलोक री कहाणियां, कन्हैयालाल भाटी री कहाणियां, देवकिशन राजपुरोहित री टाळवीं कहाणियां
अनूदित पुस्तकें : निर्मल वर्मा और ओम गोस्वामी के कहानी संग्रह ; भोलाभाई पटेल का यात्रा-वृतांत ; अमृता प्रीतम का कविता संग्रह ; नंदकिशोर आचार्य, सुधीर सक्सेना और संजीव कुमार की चयनित कविताओं का संचयन-अनुवाद और ‘सबद नाद’ (भारतीय भाषाओं की कविताओं का संग्रह)

नेगचार 48

नेगचार 48
संपादक - नीरज दइया

स्मृति में यह संचयन "नेगचार"

स्मृति में यह संचयन "नेगचार"
श्री सांवर दइया; 10 अक्टूबर,1948 - 30 जुलाई,1992

डॉ. नीरज दइया (1968)
© Dr. Neeraj Daiya. Powered by Blogger.

आंगळी-सीध

आलोचना रै आंगणै

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