Sunday, July 04, 2021

राजस्थानी साहित्य का व्यापक परिदृश्य : सृजन संवाद / डॉ. मंगत बादल

नीरज दइया की नई पुस्तक आई है ‘सृजन संवाद। इस पुस्तक में उनके द्वारा लिए गए कुल दस राजस्थानी साहित्यकारों के साक्षात्कार हैं जो केंद्रीय साहित्य अकादमी नई दिल्ली द्वारा पुरस्कृत हो चुके हैं। श्री कन्हैया लाल सेठिया, श्री मोहन आलोक, श्री यादवेंद्र शर्मा चंद्र’, अर्जुनदेव चारण, डॉ. कुंदन माली, मंगल बादल, श्री अतुल कनक, डॉ. आईदान सिंह भाटी, श्री मधु आचार्य, श्री बुलाकी शर्मा के साक्षात्कार समाहित हैसाथ ही सात रचनाकारों द्वारा समय-समय पर लिए गए डॉ. नीरज दइया के साक्षात्कार एवं उनका आत्मकथा भी प्रकाशित है जिससे पुस्तक की उपादेयता कुछ और बढ़ जाती है।

साक्षात्कार विधा का विकास हिंदी भाषा में अंग्रेजी भाषा से हुआ है। हालांकि संस्कृत में गुरु-शिष्य संवाद, शुक-शुकी संवाद, रामचरित मानस में की राम कथा चार वक्ताओं और चार श्रोताओं के माध्यम से आगे बढ़ती है किंतु इससे पाठक को रचनाकार के विषय में कुछ भी मालूम नहीं पड़ता जबकि साक्षात्कार के माध्यम से साक्षात्कार कर्ता रचनाकार की उन सच्चाइयों से भी रू--रू कराता है जो रचना एवं रचनाकार की पृष्ठभूमि में रह जाती है। साक्षात्कार कर्ता अपने बेधडक प्रश्नों के माध्यम से उन धुंधलके को प्रकाश में परिवर्तित कर देता है जो रचनाकार के व्यक्तित्व एवं रचना पर छाया होता है। वह अपनी बेबाक टिप्पणियों एवं निर्मम प्रश्नों के माध्यम से लेखक के भीतर उसी भांति गहरे उतर कर सत्य को तलाश कर लेता है जिस प्रकार कोई गोताखोर समुद्र से मोती। अन्य विधाओं की अपेक्षाकृत यह विधा राजस्थानी भाषा के लिए नई है। यद्यपि पत्र-पत्रिकाओं में राजस्थानी भाषा के साहित्यकारों के साक्षात्कार प्रकाशित होते रहे हैं किंतु पुस्तक रूप में यह पहला प्रयास है। यहां यह भी ध्यातव्य है कि यह पुस्तक राजस्थानी भाषा में ना होकर हिंदी में क्यों है? इसका सीधा सा मतलब है जो पाठक राजस्थानी नहीं पढ़ समझ सकते उन तक इन लेखकों का अवदान पहुंचाने का प्रयास किया गया है। कम से कम हिंदी भाषा भाषी क्षेत्रों तक इन रचनाकारों के साहित्य की जानकारी तो पहुंचे। इस दृष्टि से इस प्रयास को स्तुत्य कहा जा सकता है।

साक्षात्कार करती बार डॉ. नीरज दइया इस बात का पूरा ध्यान रखा है कि रचनाकार अपनी रचनाओं के विषय में खुलकर बतला सके तथा अपनी रचना-प्रक्रिया पर प्रकाश डाल सके। कन्हैया लाल सेठिया हों या मोहन आलोक, कुंदन माली हों या अर्जुन देव चारण सभी से बेबाकी से प्रश्न पूछे हैं। सेठिया जी से तो पुरस्कार ग्रहण न करने और फिर ग्रहण करने के प्रश्न बड़ी निर्ममता से पूछ कर यह जता दिया कि जो आलोचक संबंधों को मध्य नजर रखकर समीक्षा या आलोचना करेगा वह सफल नहीं हो सकता। हां एक बार वाह-वाही अवश्य प्राप्त कर लेता है। इसी प्रकार राजस्थानी भाषा का रचनाकार राजस्थानी के अतिरिक्त हिंदी अथवा किसी इत भाषा में भी लेखन करता है इसके प्रत्युत्तर में प्रायः सभी रचनाकारों ने प्रकाशन की अपनी-अपनी चिंता की है राजस्थानी भाषा की मान्यता को लेकर भी सवाल पूछे गए हैं तथा मान्यता मिलने के बाद की संभावनाओं पर विचार किया गया है इस प्रकार इन साक्षात्कारों से जो एक दृष्टि बनती है, वह यही कि आज राजस्थानी का रचनाकार रचना करने और भाषा की मान्यता संबंधी दो मर्चों पर एक साथ लड़ रहा है। राजस्थानी का रचनाकार अपने अस्तित्व की इस लड़ाई में साहित्य के प्रत्येक क्षेत्र की न्यूनता को पूर्णता में बदलने के लिए कटिबद्ध है तथा इसके लिए अपनी जेब से पैसे खर्च करके पुस्तकें पुस्तकें प्रकाशित करता है तथा पाठकों तक मुफ्त पहुंचाता है।

पुस्तक का प्रथम भाग अपने आस-पास शीर्षक से प्रकाशित है जबकि दूसरा भाग भीतर-बाहर और तीसरा भाग आत्मकथ्य शीर्षक से। दूसरे भाग में डॉ. नीरज दइया के सात साक्षात्कार हैं जो समय-समय पर वरिष्ठ लेखकों यथा सर्वश्री देवकिशन राजपुरोहित, नवनीत पांडे, डॉ. लालित्य ललित, राजेंद्र जोशी, डॉ. मदन गोपाल लढ़ा, डॉ. लहरी राम मीणा और राजू राम बिजारणिया द्वारा लिए गए हैं इन साक्षात्कारों में डॉ. नीरज दइया ने केवल अपने रचना-कर्म पर प्रकाश डाला है बल्कि अपने आलोचकीय दृष्टिकोण को भी साफ कर दिया है उन्होंने जता दिया है कि आलोचना कर्म में अपने-पराए की बात जो लोग करते हैं, वे बकवास करते हैं यदि आप वास्तव में साहित्यकार हैं तो आपकी नजर में साहित्य ही रहेगा, पारस्परिक संबंध नहीं आत्मकथ्य के अंतर्गत उन्होंने अपने उन दो भाषणों को प्रकाशित किया है जो बाल साहित्य की पुस्तक ‘जादू रो पेन’ और आलोचना की पुस्तक बिना हासिलपाई पर पुरस्कार ग्रहण करते हुए दिए थे इनमें उनकी ईमानदारी और मेहनत तो झलकती ही है साथ ही साथ ही अपने साहित्यकार पिता श्री सांवर दइया के प्रति प्रेम और समर्पण का भाव भी छलक-छलक पड़ता है सृजन-संवाद के लिए डॉ. नीरज दइया को शुभकामनाएं

पुस्तक का नाम : सृजन संवाद

विधा – साक्षात्कार ; संस्करण – 2020 पृष्ठ संख्या – 128 ; मूल्य – 300/- रुपए

प्रकाशक – किताबगंज प्रकाशन, सवाई माधोपुर

Wednesday, June 16, 2021

हमसफ़र : यात्राओं पर केंद्रित जीवनानुभवों का महत्त्वपूर्ण दस्तावेज

 

जीवन स्वयं में एक यात्रा है और हम जीवनपर्यंत विभिन्न माध्यमों से बाहर और भीतर अनेक यात्राएं करते हैं। ऐसी ही कुछ बाहर-भीतर की यात्राओं पर केंद्रित जीवनानुभवों का महत्त्वपूर्ण दस्तावेज है- ‘हमसफ़र’, जिसे लघुकथाओं का दस्तावेज कहा गया है। कहानीकार मुकेश पोपली ने इसे अपनी हमसफ़र कवयित्री कविता मुकेश को समर्पित किया है। भूमिका के रूप में लिखे अग्रलेख ‘मुझे कुछ कहना है...’ में लेखक का कहना है- ‘बहुत सी घटनाओं को अपनी आंखों से देखा और बहुत सी बातों, घटनाओं और रोचक किस्सों को मैंने इन छोटी-बड़ी कहानियों में समेटने की कोशिश की है।’ संग्रह की छोटी-बड़ी कहानियों को छह खंडों में व्यवस्थित रूप से प्रस्तुत किया गया है और प्रत्येक खंड में किसी न किसी यात्रा का विशेष संदर्भ है। संग्रह के आरंभिक खंड की रचनाओं में लेखक का गीत-संगीत के प्रति आकर्षण भी यहां प्रभावी रूप से देखा जा सकता है।

कहानीकार मुकेश पोपली के पास संवेदना से लबरेज भाषा के साथ कहानी कहने का अपना अंदाज है। वे यथार्थ को रोचक ढंग से प्रस्तुत करते हुए डायरी और संस्मरण विधा के करीब जाते हैं जो उन्हें कथेतर श्रेणी का लेखक भी बनाता है।कहानी और लघुकथा विधा के शास्त्रीय मानकों से इतर कुछ रचनाओं को प्रयोग के रूप में उनके साथ यात्रा संदर्भ होने से संग्रह में शामिल किया गया है।  दिल्ली, जयपुर और बीकानेर के विशेष संदर्भों से सजी इन रचनाओं में लेखक की अनेक व्यक्तिगत अनुभूतियों को आंशिक परिवर्तित कर संजोया गया है। नगर और महानगर के बीच दौड़ती भागती जिंदगी में यहां मानव मन की अनेक दुविधाओं-दुष्चिंताओं के साथ प्रेम, हर्ष, उल्लास, आशा-निराशा, संदेह-विश्वास और जीवन के प्रति प्रश्नाकुलता हमें प्रभावित करती है। कहना होगा कि ‘हमसफ़र’ संग्रह विभिन्न यात्राओं के आस-पास और साथ-साथ जन्मी कुछ खरी और सच्ची घटनाओं पर केंद्रित रचनाओं का संग्रह है। इसमें निर्भया हत्या कांड का हवाला भी है तो साथ ही सामाजिक जड़ताएं, रूढ़ियां और पिछड़पन को भी लेखक समय के प्रतिबिंबों के रूप में रेखांकित करता है।  मुकेश पोपली की पहली पुस्तक 'कहीं ज़रा सा....' (कहानी संग्रह) के प्रकाशन के एक लंबे अंतराल के पश्चात उनके इस लघुकथा संग्रह का स्वागत किया जाना चाहिए।  इस सुरुचिपूर्ण और पठनीय संग्रह को कलमकार मंच जयपुर ने प्रकाशित किया है।

डॉ. नीरज दइया


 

Thursday, May 06, 2021

प्रयोगधर्मिता रो दूजो नांव मोहन आलोक / डॉ. नीरज दइया

    डॉ. अर्जुनदेव चारण आपरी आलोचना पोथी ‘बगत री बारखड़ी’ मांय लिखै- ‘आधुनिक राजस्थानी कविता खेतर में तीन कवि कविता रै स्तर माथै कियोड़ा प्रयोगां सारू ओळखीझै। पैला प्रेमजी प्रेम, दूजा मोहन आलोक अर तीजा सांवर दइया। यूं तो ऐ कवि सन 1976 रै ऐड़ै गैड़ै राजस्थानी कविता में आपरी ओळखांण करावण लाग गिया हा पण वांरी ओळख वांरै कियोड़ा प्रयोगां सारू कीं बेसी मानीजैला।’ (पेज-133) तीनूं ई कवि आज संसार में कोनी पण बां री रचनावां रै पाण कविता जातरा मांय काव्य-प्रयोग पेटै कीरत अखंड रैवैला। 
    इणी आलेख में डॉ. चारण सवाल करै कै राजस्थानी काव्य परंपरा में छंदां री लूंठी हेमांणी रै होवता ऐ कवि उण परंपरा नै छोड परदेसी छंद क्यूं अपणाय रैया है? कांई वांरी अभिव्यक्ति री अपूरणता सूं जुडिय़ोड़ी तलास है? या वे राजस्थानी कविता नै एक नुंवौ संस्कार देवण सारू आफळ रैया है? दोनूं कारणां नै स्वीकारतां डॉ. चारण मानै कै ‘वां री आफळ सरावण जोग मानीजणी चाइजै क्यूं कै इण सूं राजस्थानी कविता रै सामाजिक सांम्ही रचनात्मकता री नुंवी बणगट परगट होई। उण कव्यानुभव नै एक नुंवै सरूप में ढळियोड़ौ देखियौ।’ (पेज-133)
    कविता रै हरेक दौर मांय काव्यानुभव न्यारा-न्यारा छंदा मांय राखीजता रैया। हरेक कवि आपरी जमीन सोधै अर परंपरा मांय कीं नवो करण री हूंस पाळै।  डॉ. पुरुषोत्तम आसोपा मुजब- ‘नूवी जमीं री तलाश सारू प्रयोग री अनिवार्यता आंकीजण लागी। आपरी परंपरावां नै जींवतो राखणो एक जुदा बात ही अर नूवी सिरजणा नै आगीनै लावणो सफा दूजी तरां री बात है। यूं भी साहित्य रै मांय परंपरावां रो निभाव प्रयोग री शर्ता माथै हीज तय हुया करै। प्रयोग रै नूवा पणां सूं हीज एक परंपरा सूं विद्रोह हुवै अर दूजी परंपरावां रो समारंभ व्हैया करै। हर टेम री नूवी काव्य चेतना बदळियोड़ी हालातां रै मांय नूवोपण लावणी चावै। ऐ कसमसीजती अनुभूत्यां प्रयोग री आधारभूमि सूं हीज अंकुरित व्हैया करै।’ (जागती जोत : सितम्बर 1987)  
    राजस्थानी आधुनिक कविता मांय जे गिणती करां तो सगळा सूं बेसी प्रयोग मोहन आलोक रै खातै।     जनकराज पारीक मुजब- ‘मोहन आलोक रै समूद सृजन संसार नै एकै साथै देखां तो ठाह पड़ै कै वै एक विराट मेधा रा असाधारण कवि है, जिण मांय नवादू अनै प्राचीन रो इसौ अद्भुत संगम है कै कोई वांनै नवीन पुरोधा कैवै, तो कोई पुरातन रो प्रबळ पखपाती।’ कवि आलोक अेक दिव्य काव्यपुरुष हा, जिण री परख महानतम कवि रै रूप में होवैला। बां आखी जूण नवी-जूनी सगळी काव्य पोथ्यां फिरोळी, बां री कविता री परिभासा ई नीं खेतर ई घणो लांबो-चौड़ो हो। वां रै करियोड़ा अनुवाद ग्रंथ इण बात री साख भरै। जुदा जुदा काव्य-रूप कवि अर अनुवाद रै रूप राजस्थानी नै सूंपणिया कवि आलोक वेळियै छंद मांय आपरै घर-परिवार री ओळखाण इण भांत करावै-
‘माया’ आण प्रथम बांध्यो ‘मुझ’,
‘चिन्ता’ जलमी तणै चित।
अति चिन्तन ‘आनन्द’ उपज्यो,
हुई तणै ‘सन्तोष’ हित॥
    अभिधा मांय आ ओळख- मुझ (कवि), माया (कवि-पत्नी), चिन्ता (बड़ी बेटी), आनन्द (बेटो) अर सन्तोष (बेटी) साम्हीं आवै। इणी छंद नै व्यंजना मांय देखां तो कवि नीति काव्य-परंपरा सूं जुड़ जावै। बरस 2003 में छप्यै कवि मोहन आलोक (1942-2021) रै कविता-संग्रै ‘चिड़ी री बोली लिखौ’ मांय लारलै पानां माथै ‘रिपियो पियो हुयो प्रथ उपर’ खंड मांय 51 वेळियो छन्द देख सकां। वेळियो छन्द पत्रिका ‘मरूगंगा’ में छप्या अर संपादक मनोहर शर्मा री टीप ही- ‘राजस्थानी भासा रो डिंगळ शैली प्रख्यात है। इण भासा शैली में प्रभूत रचनावां हुई है। ध्यान राखणो चाइजै कै आ काव्य-परम्परा आज भी प्रचलित अर लोकप्रिय है। उण लब्ध प्रतिष्ठित राजस्थानी कवी री प्रस्तुत रचना इणी शैली में विरचित है।’
    राजस्थानी साहित्य में वेलि काव्य परंपरा 11 वीं सदी रै कवि रोडा रचित ‘राउलवेल’ मानीजै। प्रिथीराज री ‘क्रिसन रुकमणी री वेलि’ घणी चावी मानीजै। आधुनिक काल मांय कवि मोहन आलोक जठै जूनै छंद-विधान माथै रचनावां करी बठै ई केई नवा छंद- डांखळा, सानेट ई राजस्थानी में थापित करिया। नवगीत रै सीगै  राजस्थानी में कवि मोहन आलोक रो काम जसजोग। बां रै नवगीतां री पैली पोथी ‘ग-गीत’ (1981) नै साहित्य अकादेमी रो मुख्य पुरस्कार ई मिल्यो। इण पोथी रो नीरज दइया रै करियोड़ो हिंदी अनुवाद साहित्य अकादेमी सूं बरस 2004 मांय साम्हीं आयो। उण पछै अकादेमी सूं बांगला भासा में अनुवाद ई छप्यो।
    आज डांखळा राजस्थानी मांय अेक काव्य-रूप थरपीज चुक्यो। मोहन आलोक आधुनिक कविता रै रसिका नै डांखळा जिसी विधा सूं पकड़्या अर सानेट जिसी गंभीर विधा तांई लेय’र गया। डांखळा नै आधुनिक कविता रो सांवठो काव्य-रूप अर धारा रूप विगसावण मांय मोहन आलोक रो मोटो नांव। अबै केई कवि डांखळा लिखै अर केई कवियां री डांखळा पोथ्यां ई छपी। खुद मोहन आलोक री तीन पोथ्यां डांखळा री आपां साम्हीं है- ‘डांखळा’ (1983), डांखळा (2012) डांखळा नॉट आउट (2021)। इत्तो ई नीं इणी डांखळा छंद नै बां पंजाबी में डक्के नांव सूं चावो करियो अर इणी नांव सूं बरस 2001 में पंजाबी में एक पोथी छप्योड़ी है। डक्के राजस्थानी पोथी रो अनुवाद कोनी। अठै आ बात ई उल्लेखजोग है कै कवि आलोक जिण विधा रा प्रणेता बणिया उण विधा नै काळजै चेप’र राखी अर डांखळो तो बां रो प्रिय छंद हो। नोनसेंस अभिव्यक्ति रै डांखळा (लिमरिक) छंद रो एक दाखलो देखां-
गादड़ै नै लूंकड़ी बावड़’र पाछी
बोली- तेरी मेरी सिकल मिलै है साची ;
गादड़ बोल्यो- चाल परै
क्यूं डी-ग्रेड करै
भेडिय़ो सो बतावती तो लागती आछी।
    डॉ. मदन गोपाल लढ़ा डांखळा बाबत लिखै- ‘आपरै मूळ में हास्य नैं अंवेरतां थकां डांखळां जीवण री विसंगतियां-विडम्बनावां नैं इण ढब चवड़ै लावै कै उणरी गूंज बिसरायां ई नीं बिसरै अर लाम्बै बगत तांई मन-मगजी में गूंजती रैवै। डांखळो बांचण रै सागै हियै रम जावै अर उणरो अरथ-अनुभव उणियारै मुळक-रूप सांचर जावै। इण दीठ संू डांखळा लोक सम्पृक्त विधावां में सै संू सिरै कथीज सकै।’ हास्य अर व्यंग्य माथै कवि मोहन आलोक री पकड़ सगळा स्वीकार करी। ‘बकरी’ कविता रो व्यंग्य-बोध जबरदस्त है।
    किण पण विधा री परंपरा मांय उण रचनाकार रो बेसी माण हुया करै जिको उण विधा रै विगसाव सारू लगोलग लिखै अर प्रयोग करै। उण री एकरसता नै बदळ’र नवा भाव अर बुणगट सारू नित नवी खेचळ करै। जे आपां कवि रै न्यारा-न्यारा छंद रूपां री बात छोड’र फगत नवी कविता पेटै ई बात करां तो आलोक री कविता मांय भाव-बुणगट रा केई प्रयोग साम्हीं आवै। विसयां री हद सूं बै बारै निसरता थका जूण सूं जुड़ी हरेक बात नै कविता मांय लावै।
    नवी कविता री रेंज मांय जिकी बात फिट नीं हुवै उण सारू जूनै काव्य-रूपां नै परोटता परहेज कोनी करै तो बात कैवण सारू बांनै किणी देसी-विदेसी छंद नै राजस्थानी में घणो लावणो रुचै। म्हैं उण सूं बंतळ करता सवाल करियो कै सानेट क्यूं लिख्या? तद बां कैयो कै जीवण रै एक छोटै से सरल अर सामान्य अनुभव नै जिकी बात नै कविता मांय कोनी कैय सकां बा सानेट मांय लिखी और कैयी जाय सकै। पैली बां आपरी पोथी ‘चित मारो दुख नै’ में सानेट खातर नांव ‘चउदसा’ राख्यो पण बरस 1991 में बां सौ सानेट पोथी रो सिरैनांव राखता उण नै छोड़ दियो। ‘सौ सानेट’ रै 67 सानेट मांय कवि री ओळ्यां देखो-
‘नवो बखत है, नया छन्द सोधणा पड़ैला
पीड़ नई है, नया बन्ध सोधणा पड़ैला।’
      कवि आलोक नवा छंद अर बंध राजस्थानी खातर कविता, कहाणी अर अनुवाद खातर सोध्या। कहाणीकार-कवि सांवर दइया सौ सानेट री भूमिका में लिख्यो- ‘कवि मोहन आलोक रा सौ सानेट जिंदगाणी रै न्यारै-न्यारै पखां रा साच उजागर करै। अठै कवि री मांयली दुनिया (रचना प्रक्रिया) अर बारली दुनिया (प्रकृति अर सामाजिक परिवेश) रा साच लाधैला।’
    आधुनिक राजस्थानी साहित्य मांय जसजोग काम करणियां हरावळ नांवां माथै बात करां तो मोहन आलोक रो लूंठो काम निगै आवै। डॉ. मंगत बादल मुजब- ‘श्री आलोक एक प्रयोगधरमी कवि है। रोज नवां प्रयोग करै। उण री कवितावां रो तर-तर विगसाव हुयो है। कठैई ठहराव या दुहराव कोनी। सत्तर बरसां री उमर में भी आज बै पूरी तरां सक्रिय है। उण रो कविता प्रेम दीवानगी री हद तांई है। जद तांई बै पूरी तरां संतुष्ट नीं हुवै कविता नै प्रकासित कोनी करै। हर बारी उण री आगली पोथी नवैं तेवर अर नवैं भाव-बोध साथै आवै।’ (राजस्थानी भाषा साहित्य एवं संस्कृति अकादमी सूं प्रकासित विनिबंध ‘मोहन आलोक’, पेज- 8)
    कवि मोहन आलोक म्हारै एक सवाल रै जबाब में कैयो- ‘कविता लिखणो म्हारो धंधो कोनी। म्हैं कोई नियमित लेखक-कवि कोनी। अेक दिन में दस-बारै रुबाइयां लिखी अर अेक दिन में दस सानेट ई लिख्या। केई केई बार तो म्हैं दो-तीन बरसां तांई कीं कोनी लिख्यो, जाणै म्हैं कीं लिखीजण नै उडीकतो होवूं। ‘रुत बसंत भाव बहे बाहळा। क्यूं कळ-कळ कवियां कवित्त। पृथ उतरै बसंत छवि परखण। गत कवियां आत्म पवित’ सो म्हैं बसंत रुत में ई प्रयोग करिया करूं जे अेक बसंत टिपग्यो तो फेर दूजै बसंत नै उडीकतो रैवूं।’
    आलोचना अर रचना रै संबंधां नै लेय’र मोहन आलोक रो ओ सानेट घणो चावो हुयो-
ऐ आजकाल रा आलोचक श्री, ऐ छोरा
कोई कविता री, कहाणी री, एकाध मांड
’र ओळी, अर अब बणियोडा साहित्य सांड
पग चोडा कर-कर चालै जिका घणा दो’रा
आंनै बूझो जे थे साहित रो अरथ, बैठ
अर बूझौ भई! समीक्सा कांई चीज हुवै
तो ऐ कै’सी साहित्यकार री खीज हुवै
एक दूजै पर, आंरी लाधैली आ ही पैठ
ऐ इणी पैठ पर करिया करै है, गरज-गरज,
आपरी परख नूंई-सी कोई फि़ल्म देख
रात नै, दिनूगै गाणा गा-गा लिखै लेख
अर ढूंढै थारी कवितावां रै मांय तरज ।
जे आप इण री मितर-मंडळी रा सदस्य
नीं हो तो नहीं आपरै लेखन रो भविस्य ।
    महाकवि अपणै आप मांय घणो मोटो खिताब हुवै अर महाकवि उण नै कैयो जाय सकै जिको कोई महाकाव्य रचै। आधुनिक कविता री हेमाणी रूप आपां मोहन आलोक रै महाकाव्य- ‘वनदेवी : अमृता’ (2002) नै चेतै कर सकां। खेजड़ली बलिदान माथै रचीज्यै इण ग्रंथ नै सुंदरलाल बहुगुणा पर्यावरण पुराण कैयो तो राजस्थानी रै किणी कवि री पोथी में पैली बार मूळ पाठ रै साथै अंग्रेजी अनुवाद पाठ ई अठै देख सकां। प्रयोग महाकाव्य रै लक्षणां नै साधता थका भासा, भाव अर बुणगट रै स्तर माथै देख सकां।  
    ‘गोरबंद’ पत्रिका रै बरस 1988 अंक मांय ‘एकर फेरू राजियै’ नै सिरै नांव सूं कवि मोहन आलोक रो सोरठा सतक साम्हीं आयो। वैणसगाई अलंकर री सोवणी मनमोवणी छटा साथै कवि वरतमान नै लिखै-
मांणस हुयौ मसीन, कळ संगत सूं आजकल।
दुनिया हुयगी दीन, राम रयौ नीं राजिया॥
    ‘बानगी’ संग्रै रै रचना-खंड ‘खेत खेत खेजड़ी’ में खेजड़ी अर रोहिड़ै रै माहातम नै बखाणता इक्यावन परंपराऊ कुंडलिया छंदां री बानगी देखी जाय सकै। किणी छंद सूं मोहन आलोक मोहित हुय जावता। डूब’र लिखणो बां री आदत ही। जद ईस्वर नै केंद्र मांय राख’र रुबाइयां लिखण लाग्या तो ‘आप’ (2001) नांव सूं न्यारै न्यारै रूपां मांय उण निराकार नै सबदां मांय जाणै साकार करियो। एक छोटी सी पोथी फोल्डर रूप छापी। इणी पोथी री रुबाइयां नै केई नवी रुबाइयां साथै पोथी ‘बानगी’ (2011) में देख सकां। 
    बरस 2010 में छपी पोथी- ‘मोहन आलोक री कहाणियां’ (संचै : नीरज दइया) इण बा री साख भरै कै मोहन आलोक कवि जित्ता लूंठा  है उण रो बरोबर का इक्कीस कहाणीकार रूप ई काम है। बरस 1973 सूं कहाणियां लिखणी चालू करी पण पोथी नीं आवण सूं बां रै कहाणीकार रूप री चरचा कोनी हुई। संस्कृत मांय कैयो जावै- ‘गद्यं कवीनां निकषं वदन्ति’ तो आ पोथी अर ‘अभनै रा किस्सा’ (2015) मांय कवि री कसौटी गद्यकार रूप करा तो कवि री दिव्यता रो लखाव हुवै।
    ‘आप जे चावो/ कै म्हारी कविता रो/ जिको आप चावो/ बो अरथ नीसरै/ अर आप री दीठ/ म्हारी दीठ सूं/ हरभांत सूं समरथ नीसरै/ ..../ तो माफ करिया भाई!/ आप म्हारी कविता नै नई/ म्हनै बांचणो चावो हो,/ म्हारो आप सूं हळको हुवणो/ तो आप धार ई राख्यो है,/ आप तो फगत/ आपरै भारी हुवण नै/ जांचणो चावो हो।’ (बानगी : ‘म्हारी कविता’, पेज-138)
    कवि आलोक रो मानणो है कै कविता रो असर तन माथै नीं होय’र मन माथै हुवै अर कविता ई है जिकी मन री जंग खायोड़ी तलवार नै पाणी देय देय’र धार देवै। उण नै धो-पूंछ’र नवा संस्कार देवै। बां रै मुजब कविता मिनख री मा हुवै। बै कविता नै मा मान’र आखी जूण हेत करता रैया। इण हेताळू रै संसार सूं विदा हुया आज कविता री आंख्यां गीली लखावै, जाणै कविता कैवती हुवै- फेर इसो कवि कुण हुवैला।
    मोहन आलोक मरसिया परंपरा मांय चंद्रसिंह बिरकाळी अर सांवर दइया माथै आपरै मन रै भावां खातर कीं मुक्तक ई लिख्या। सांवर दइया खातर लिख्यै मोहन आलोक री आं ओळ्यां नै आज आपां खुद कवि खातर कैय सकां-
‘भासा री, थारी रवानी पिसन आई,
अर वा ही थारी-जुबानी पिसन आई।
तेड़ बुला लिन्धा, सुरगां रै स्वामी, नै
आपरी कवितावां, कहाणी, पिसन आई।’
(चिड़ी री बोली लिखो : ओळ्यूं ‘भाई सांवर दइया’ पेज-84)


Sunday, March 21, 2021

Monday, March 15, 2021

कविताओं में ईश्वर होने के मायने की तलाश / डॉ मदन गोपाल लढ़ा

सुप्रसिद्ध कवि एवं संपादक सुधीर सक्सेना अपनी रचनात्मकता के साथ-साथ यायावरी के लिए भी जाने जाते हैं। उन्होंने एक यायावर के रूप में दुनिया को जोड़ने का कार्य किया है। डॉ. नीरज दइया ने अनुवाद के माध्यम से उनकी कविताई को राजस्थानी भाषा से जोड़ दिया है। सुधीर सक्सेना की प्रतिनिधि कविताओं के संग्रह ’अजेस ई रातो है अगूण’ के बाद अब उनके कविता संग्रह ’ईश्वर: हां, नीं...तो’ का राजस्थानी अनुवाद के रूप में आना बहुत सुखद है। यह राजस्थानी मिट्टी की तासीर ही है कि अब सुधीर सक्सेना किसी दूसरी भाषा के कवि नहीं लगते बल्कि ठेठ राजस्थानी कवि के रूप अपनी उपस्थिति दर्ज करवाते हैं। एक कवि का भाषायी दायरों को लांघकर इस तरह पाठक-मन में जगह बनाना अनुवाद व कविताई की साख बढ़ाने वाला है।

ईश्वर को लेकर दुनिया भर की भाषाओं में इतना कुछ लिखे जाने के बाद भी वह अज्ञात-अगोचर है। यह दुनिया किसने बनाई है तथा इसका संचालन करने वाला कौन है? वह कौन है जो अनगिनत जीवों में जीवन-ऊर्जा भरता है? वह कौन है जो फूल-पत्तियों में विभिन्न रंगों के रूप में खिलता है। जन्म से पहले व मृत्यु के बाद के जीवन व सृष्टि के गूढ़ रहस्यों को जानने की आदिम आकांक्षा अनादिकाल से मानव-मन को मथती रही है। इसी जिज्ञासा की काव्यात्मक अभिव्यक्ति है आलोच्य कविता संग्रह ’ईस्वरः हां, नीं...तो’। इन कविताओं में कवि ने परम सत्ता के साथ सीधा संवाद स्थापित किया है। कभी वह ईश्वर से सवाल करता है तो कभी ईष्वरीय सत्ता की चिन्ताओं में सहभागी बनता है। कहीं ईश्वर के तौर-तरीकों से नाराज हो जाता है तो कहीं उससे प्रार्थना करने लगता है। खास बात यह है कि सुधीर सक्सेना का ईश्वर किसी पंथ विशेष या कर्मकाण्ड के बंधनों में बंधा हुआ नहीं है। वह इन सबसे ऊपर व सर्वव्यापक है। ईश्वर के दुखों का हिसाब संभवत- हिन्दी की समकालीन कविता में पहली बार ही लिखा गया होगा- “माई लाई मांय थे ई नापाम सूं दागीज्या/हिरोशिमा में हिवाकुशा दांई/रेडियोधर्मिता सूं घायल/ईस्वर/आजै तांई थांरै दुखां रो छेड़ो कोनी / कै हिंसाळू अर अराजक बगत है ओ“। यहाँ कभी कवि ईश्वर के अथाह दुखों के निवारण की अरदास करता है तो कभी उसके अकेलेपन को तोड़ने की चिंता करता है। इससे भी आगे बढ कर वह ईश्वर के लिए एक आचार-संहिता लिखी जाने को जरुरी समझता है। कहना न होगा, इन कविताओं का आत्मीयतापूर्ण पाठ पाठक को एक ऐसे भाव-लोक में ले जाता है जहाँ ईश्वर अपनी अलौकिकता से बाहर निकलकर उसके बराबर खड़ा महसूस होता है। कविताओं से गुजरने के बाद भी उनकी अनुगूँज पाठक के मन में बनी रहती है जो किसी भी काव्य-रचाव की सफलता का एक निकष कहा जा सकता है। निष्चय ही यह गूँज ही कवि के बहाने हर संवेदनशील व्यक्ति के मन में उठने वाले ऐसे सवालों का उत्तर खोजने का मार्ग प्रशस्त करती है।
एक अनुवादक के लिए यह सबसे बड़ी चुनौती होती है कि वह मूल रचना की आत्मा को ठेस पहुँचाए बिना इतनी खूबसूरती के साथ भाषांतर करें कि पाठक को पता ही न चलें। इन कविताओं को पढ़ते समय लगता कि हम राजस्थानी में मौलिक रचाव को बांच रहे हैं। निश्चित रूप से इसके लिए अनुवादक के साथ डॉ.नीरज दइया का समर्थ कवि-मन श्रेय का हकदार है। प्रसिद्ध कथाकार बुलाकी शर्मा की यह बात सोलह आना खरी है कि जो कवि और अनुवादक है वह उन रचनाओं को अपनी भाषा के पाठकों तक पहुँचाना जरूरी समझता है जो उस भाषा के कथ्य, बुणगट व चिंतन आदि के स्वरूप के बारे में नए तरीके से सोचने के लिए विवष करें। मायड़ भाषा के चर्चित कथाकार-पत्रकार मनोज कुमार स्वामी को समर्पित इस कविता संग्रह से राजस्थानी अनुवाद का सफरनामा दो फलांग आगे बढ़ा है इसमें संदेह नहीं है। प्रफुल्ल पळसुलेदेसाई के मनमोहक आवरण चित्र व गौरीशंकर आचार्य की लाजवाब साज सज्जा के साथ बेहतरीन छपाई-बंधाई वाली इस कृति को पाठकों तक पहुंचाने के लिए सूर्य प्रकाशन मंदिर साधुवाद का अधिकारी है।
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'ईस्वर: हां, नीं..तो' (सुधीर सक्सेना की कविताओं का राजस्थानी अनुवाद) अनुवादक: नीरज दइया, सूर्य प्रकाशन मंदिर, बीकानेर, प्रथम संस्करण 2021, पृष्ठ 80, मूल्य 200₹
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डॉ मदन गोपाल लढ़ा

Sunday, March 14, 2021

प्यास के मरुथल का इतिहास / डॉ. नीरज दइया

मनुष्य-जीवन किसी तिलस्मी पहेली की भांति अनादिकाल से चुनौतीपूर्ण विषय रहा है। जीवन की महायात्रा कब से चल रही है? जीवन का गूढ़ रहस्य क्या है? इसके अनेक उतार-चढ़ाव और झंझावात हैं तो यह कितने यथार्थ और काल्पनिकता का मिश्रण है। सच-झूठ और सुख-दुख का लंबा इतिहास है फिर से यह मन किससे पूछे और यह पूछना भी कितना सार्थक है। निर्थकता के बीच असार जीवन में सार की दिशा हमें ज्ञात भी है अथवा हम अज्ञात दिशाओं में जीवन भर भ्रमित होते रहते हैं। ऐसी ही कुछ पृष्ठभूमि लिए और अपने पूरे विषय को गहना से समेटती हुई डॉ. मंगत बादल की यह काव्य-कृति- ‘साक्षी रहे हो तुम’ अनुपम रचना है। इस में कवि ने अनंत जीवन के गूढ़ रहस्य को बहुत सधी हुई भाषा में जानने-समझने का पुनः पुनः काव्यात्मक उपक्रम किया है। इसे एक काव्य-प्रयोग कहना अधिक उचित होगा। आरंभिक पंक्तियां देखें-
हे अनंत! हे काल!
महाकाल हे!
हे विराट!
यह महायात्रा चल रही कब से
नहीं है जिसका प्रारंभ
मध्य और अंत
केवल प्रवाह...
प्रवाह!
यह रचना इसी प्रवाह और निरंतर प्रवाह में स्वयं कवि के साथ अपने पाठकों को भी प्रवाहित और प्रभावित करते हुए चलती है। इसे एक संबोधन काव्य कहना उचित होगा। यह निसंदेह अनंत, काल, महाकाल और विराट को संबोधित है किंतु इन सभी के अंशी आत्म रूपा हमारी आत्मा को भी प्रकारांतर से संबोधित काव्य है। कवि ने ज्ञान, विज्ञान और इतिहास की विभिन्न अवधारणाओं का न केवल स्पर्श किया है वरन उन विराट अवधारणाओं को विराट रूप में ग्रहण करते हुए हमें इस संबंध में अनेक विकल्पों के साथ अपने उत्स के प्रश्न से जूझने और जानने की अकुलाहट-बेचैनी और गहन त्रासदी के भंवर में खड़े होने और खड़े रहने का आह्वान किया है। यह एक भांति से हमारा आत्म-साक्षात्कार है। इसमें प्रकृति के विविध अंगों-उपांगों में कवि के साथ पाठक भी अपने परिचय और पहचान को ढूंढ़ते हुए अपनी महायात्रा में उमड़ते हुए जैसे बरसने लगता है। इस महायात्रा के विषय में यह पंक्ति इसके विस्तार को जैसे शब्दबद्ध करतीं हुई भले हमारी गति के विषय में संदेह देती है किंतु विचार को एक दिशा देती है। यह रचना एक प्यास है और जो प्यास के मरुस्थल का इतिहास अपनी समग्रता-सहजता में अभिव्यक्त करती है।
गगन, पावक, क्षिति, जल
और फिर
चलने लगे पवन उनचास
निःशब्द से शब्द
आत्म से अनात्म
सूक्ष्म से स्थूल
अदृश्य से दृश्य
भावन से विचार की ओर।
निशब्द से शब्द, आत्म से अनात्म, सूक्ष्म से स्थूल, दृश्य से अदृश्य अथवा भावना से विचार का यह एक लंबा गीत है। पाठक प्रश्नाकुल होकर इस दिशा में विचार करने लगता है कि वास्तव में जीवन का रहस्य क्या है? आत्मीय स्पर्श से भरपूर यह एक कवि का आत्मा-संवाद है और इसमें कवि की स्थिति में पाठक का पहुंचना इसकी सार्थकता है। यह छोटे मुंह से बहुत बड़ा सवाल है कि पृथ्वी को गति कौन देता है? हमारी गति और पृथ्वी की गति के मध्य सापेक्षता के विषय में विचार होना चाहिए। असीम के बीच हमारी मानव जाति की सीमाओं के संबंध में यह भले नया विचार ना हो किंतु इस कठिन डगर पर चलना भी बेहद कठिन है। एक आदिम प्रश्न को लेकर उसको नई कविता के शिल्प में पाठकों को बांधते हुए निरंतर किसी दिशा में प्रवाहित होना अथवा प्रवाहित किए रखना एक कौशल है जिसे कवि डॉ. मंगत बादल की निजी उपलब्धि कहना होगा। कवि कहता है-
साक्षी रहे हो तुम
इन सब के होने के
पुनः लौट कर
बिंदु में सिंधु के
तुम ही तो हो
ब्रह्मा, स्रष्टा, प्रजापति, रचयिता
पालन कर्त्ता विष्णु
तुम ही आदिदेव
देवाधिदेव! शिव!
त्रिदेव! हे प्रणवाक्षर!
यह एक प्रार्थना गीत भी है जो स्वयं की तलाश में जैसे भटकते भटकते कहीं पहुंचने को व्याकुल और आतुर है। हमारे धार्मिक मिथकों और विश्वासों के बीच अपने होने और न होने के विषय पर चिंतन करते हुए यहां कवि की निरंतर अभिलाषा अभिव्यक्त हुई है कि वह किसी बिंदु पर स्थिर हो जाए। अनेक बिंदुओं और अनेक धाराओं के बीच किसी एक दिशा में कोई कैसे प्रवाहित रह सकता है। प्रकृति के एक अंश के रूप में यह किसी अनाम और नाम के जाल में उलझे एक वनफूल का अपने पूरे रहस्यमयी पर्यावरण से प्रश्न है।
कौन है मेरे होने
या नहीं हूंगा तब
कारण दोनों का
साक्षी हो तुम, बोलो!
रहस्य पर पड़े आवरण खोलो!
यहां कर्म और भाग्य फल के साथ मनुष्य जीवन के अनेक स्मरण है जिसमें आत्मा और अनात्मा के बीच अस्थित्ववाद और चेतन-अचेतन के द्वारों को खटकाते हुए अनेक रंग बिखरे हुए हैं। यह अपने अर्थ को अर्थ की दीवारों की परिधि से बाहर झांकने का सबल प्रयास है।
आत्मा भी क्या
आकार कर धारण
शब्द का कहीं
बैठी है
अर्थ की दीवारों के पार?
इस कृति की आत्मीयता और विशिष्टता का प्रमाण यह भी है कि कवि ने अध्ययन-मनन-चिंतन द्वारा विभिन्न अवधारणाओं से ना केवल परिचित करते हुए अपने द्वंद्व व्यंजित किए है वरन उन सब में हमारे भी प्रश्नाकुलित मन को शामिल किया है। यहां परंपरा और मिथकों की साक्षी में कर्म और भाग्य के अनेक प्रश्न बहुत सुंदर ढंग से प्रस्तुत हुए हैं। आत्मा-परमात्मा, विनाश-महाविनाश के बाद फिर-फिर जीवन की अवधारणा के विभिन्न स्तर यहां प्रभावित करने वाले हैं। आत्मा और शरीर के मध्य क्या और कैसा संबंध है इसकी झलक देखना जैसे कवि का एक उद्देश्य रहा है। यह पग-पग पर संदेह और भटकाव का अहसास भी है तो कुछ पाने की छटपटाहट भी, इसलिए कवि ने कहा है-
मृत्यु-भीत मानव का
बैद्धिक-विलास
कोरा वाग्जाल मृगजल...
या प्रयास यह उसे जानने का
समा गया जो
गर्भ में तुम्हारे
छटपटा रहा किंतु
मनुष्य के
ज्ञान के घेरों में आने को।
जीवन और मृत्यु के दो छोरों के बीच यह गति अथवा किसी ठहराव, भटकन को उल्लेखित करती पूरी कविता जैसे नियति और जीवन को बारंबार परिभाषित करती है। यहां कवि की कामना है कि प्रत्येक जीवन अपने आप में परिपूर्ण और उद्देश्यपूर्ण हो।
अस्तु यह कृति जाग और नींद के मध्य एक पुल निर्मित कर जड़ और चेतना के बीच बिलखती काव्य-आत्मा का ही प्रलाप और हाहाकार है। यह अपनी हद में अनहद की यात्रा है। यह प्रकाश और अंधकार के बीच अपनी नियति की तलाश है- ‘अंधकार का अंश होना ही / क्या अंतिम नियति है मेरी?’ अथवा ‘बदल जाएंगी भूमिकाएं / हम सब की / बदल जाएगा यह रंगमंच / नहीं बदलोगे केवल तुम!’
यह जीवन हमारा जागरण है अथवा पूरा जीवन ही एक निद्रा है। यह रहस्य वह सर्वज्ञ ही जानता है जिसने इस जटिल मार्ग पर चलने की कवि को प्रेरणा दी है। अकूत संभावनाओं से भरे इस पूरे इतिवृत्त को ‘काल महाकाव्य’ के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। हमारे रचयिता के संबंध में यह एकालाप अथवा प्रलाप ‘मनुष्य’ को जानने-समझने का अनूठा उपक्रम है। किसी तयशुदा निकस पर कवि हमें नहीं ले कर जाता वरन वह जीवन के रहस्य को पहचानने का अलग अलग बिंदुओं दृष्टिकोणों से आह्वान करता है। इस रूप में यह काव्य-रचना एक आह्वान-गीत भी है कि हम स्वयं को जाने, हम क्या हैं? इसका पाठ अपने आत्म और उत्स के अनेक आयामों को खोजना और सांसारिक सत्यों के साथ आत्म-साक्षात्कार करना तो है ही, साथ ही साथ जन्म-मरण और पुनर्जन्म की अबूझ पहेली में उतराना-डूबना, फिर-फिर उतराना-डूबना भी है। निसंदेह यह रचना दीर्घ कविता के क्षेत्र में अपनी विषय-वस्तु, शिल्प-संरचना और भाषा-पक्ष के लिए लंबे समय तक एक उपलब्धि के रूप में स्मरण की जाएगी।
- डॉ. नीरज दइया 


Saturday, March 13, 2021

Thursday, March 11, 2021

समकालीन राजस्थानी साहित्य का विहंगम परिदृश्य

पुस्तक परिचय  डॉ. सत्यनारायण सोनी


'राजस्थानी साहित्य का समकाल' समकालीन राजस्थानी साहित्य पर केंद्रित हिंदी में आलोचनात्मक पुस्तक है। डॉ. नीरज दइया कृत इस पुस्तक में गत वर्षों में आधुनिक राजस्थानी साहित्य और भाषा मान्यता के संबंध में बारह आलेखों को संकलित किया गया है। राजस्थानी भाषा की मान्यता के सवाल से लेखक नीरज दइया ने अपनी बात आरंभ करते हुए समकालीन राजस्थानी साहित्य की विविध विधाओं के विकास को व्यापकता से रेखांकित करते हुए एक विहंगम परिदृश्य प्रस्तुत किया है।
पुस्तक के तीन आरंभिक आलेखों में राजस्थानी भाषा के मान्यता मुद्दे को बहुत सुंदर ढंग से प्रस्तुत करते हुए विद्वान लेखक ने राजस्थानी के चाहने वालों के समक्ष ठोस आधार भूमि प्रस्तुत की है। इन आलेखों में बहुत विनम्र भाषा में सटीक तर्क के साथ भाषा विज्ञान को आधार बनाते हुए अनेक महत्त्वपूर्ण जानकारियां और अपना पक्ष लेखक ने रखा है। राजस्थानी एक संपूर्ण और समृद्ध भाषा है, इसके साक्ष्य को अनेक बिंदुओं में इस कृति में प्रस्तुत किया गया है।
प्रस्तुत पुस्तक के लेखक नीरज दइया की यह विशेषता है कि वे अपने आलोचनात्मक आलेखों में इस बात का विशेष आग्रह रखते हैं कि उनके उदाहरण और पक्ष-विपक्ष की तमाम बातें हमारे आस-पास के और अपनी ही भाषा के साहित्य से प्रस्तुत की जाए। अन्य विद्वान समालोचकों की भांति अनेक प्रख्यात देशी-विदेशी लेखकों के कथनों की भरमार नहीं प्रस्तुत कर लेखक ने केवल और केवल अपने मुद्दे की बात अपने अंदाज में की है जो प्रभावित करता है और संप्रेषित भी अधिक होता है। लेखक ने अपने समकाल और समकालीन साहित्य को सम्यक दृष्टि से देखने-समझने और परखने का महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। इस कृति में मुख्य रूप से साहित्य की केंद्रीय विधाओं को विमर्श का विषय बनाया गया है।
आलोचक डॉ. नीरज दइया की इस कृति का महत्त्व दो दृष्टियों से किया जा सकता है, जिसमें पहला साहित्य के विकास और प्रवाह के महत्त्वपूर्ण आयामों को सहेजते हुए सम्यक रूप प्रस्तुत करना, वहीं दूसरा और अधिक महत्त्वपूर्ण विधाओं के तकनीकी पक्षों को रचनाओं के माध्यम से प्रस्तुत करते हुए रचनात्मक आरोह-अवरोह को रेखांकित करना। उपन्यास और कहानी में अंतर को दर्शाने वाले आलेख के अंतर्गत दोनों विधाओं के तात्विक अंतर को जहां सूक्ष्मता से स्पष्ट किया गया है, वहीं इस आलेख में न केवल राजस्थानी साहित्य वरन इसकी परिधि में संपूर्ण साहित्य के समकाल को देखने-परखने के आयाम भी उद्घाटित होते हैं। किसी भी रचना में भाषा का अवदान महत्त्वपूर्ण होता है, भाषा की सहूलियत और सहूलियत की भाषा आलेख में उपन्यासों पर अपनी बात को केंद्रित करते हुए लेखक ने राजस्थानी उपन्यास विधा में भाषिक-तत्व को गहनता से विवेचित किया है। राजस्थानी कहानी के संबंध में इस कृति में तीन आलेख संकलित किए गए हैं, जिनमें राजस्थानी कहानी के कदम दर कदम विकास के साथ उसमें होने वाले शिल्प और संवेदना के स्तर पर बदलावों और उनके अनेक पक्षों का सुंदर विवेचन भी किया गया है।
आधुनिक समकालीन कविता के साथ ही युवा कविता स्वर का भी सम्यक विश्लेषण दो आलेखों में प्रस्तुत किया गया है। इन आलेखों में अपने समकालीन लेखकों पर लिखते हुए लेखक ने जहां निर्ममता दिखाई है, वहीं रचनात्मक सबल पक्षों के प्रस्तुतीकरण में अपने साथी और पूर्ववर्ती पीढ़ी के रचनाकारों की भरपूर सराहना भी पुस्तक में देख सकते हैं। अंतिम आलेख के रूप में उस अभिभाषण को संग्रह में स्थान दिया गया है जो आलोचक डॉ. नीरज दइया ने साहित्य अकादेमी मुख्य पुरस्कार को ग्रहण करने के बाद नई दिल्ली में दिया था। इसमें उन्होंने अपनी साहित्यिक यात्रा और आलोचनात्मक दृष्टि के बारे में उदाहरणों के साथ अपनी आत्मीयता और भाषा के प्रति लगाव को अभिव्यंजित किया है। पुस्तक के फ्लैप पर डॉ. मदन गोपाल लढ़ा के इस मत से सहमत हुआ जा सकता है- 'भारतीय भाषाओं के बीच राजस्थानी साहित्य की समालोचना की यह पहल नई होने के साथ सार्थक भी है।'
यह पुस्तक न केवल राजस्थानी में रुचि रखने वाले पाठकों-शोधार्थियों के उपयोगी एवं महत्त्वपूर्ण है, वरन भारतीय भाषाओं के तुलनात्मक अध्ययन के लिए भी पर्याप्त महत्त्व रखती है। लेखन नीरज दइया का मानना है कि भारतीय साहित्य का पूरा परिदृश्य भारत की सभी भाषाओं के समकालीन साहित्य से निर्मित होता है और इस क्रम में यदि समकालीन राजस्थानी साहित्य को किसी एक पुस्तक के जरिए जानना हो तो यह पुस्तक जरूरी है।

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राजस्थानी साहित्य का समकाल (आलोचना) डॉ. नीरज दइया
संस्करण : 2020; मूल्य : 200/-; पृष्ठ : 128
प्रकाशक : सूर्य प्रकाशन मंदिर, दाऊजी रोड, बीकानेर।
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डॉ. सत्यनारायण सोनी, प्रधानाचार्य,  राउमावि, टोपरियां,
तहसील : नोहर, जिला : हनुमानगढ़ (राजस्थान) 335523
मो. 7014967603


Sunday, March 07, 2021

मात खा गए हैं मियां / नीरज दइया

मियां, तुम जरा भोले हो...

नासमझ हो...

जरा-जरा-सी बात पर

सोचते बहुत हो

जो हुआ सो हुआ

उसे लेकर नहीं बैठते

चलो सब भूल जाओ...

सुना तुमने, क्या कह रहे हैं हम?

तुम्हें पहले भी समझाया था,

अब भी कहते हैं-

मियां, दिल से जुड़ने की जरूरत नहीं

बस ‘हां-हां’ किया करो

कभी ‘हूं-हां’ से चलाया करो काम

हमें नहीं देखते...

हम भी तो यही करते हैं।

सुन रहे हो मियां....?

सुन रहे हो हम क्या फरमा रहे हैं?

 

मियां, अब कैसे कहे-

मियां को प्रोब्लम है-

बेदिल होना नहीं जानते !

मियां के पास

बहुत कुछ है- कहने-सुनाने को

अब सारी कहानियां दबाए

मियां गुमसुम और उदास है

कुछ सोचते हुए-

‘हां-हां’ और ‘हूं-हां’ की दुनिया में

मात खा गए हैं मियां।

०००

 

राजस्थानी साहित्य का व्यापक परिदृश्य : सृजन संवाद / डॉ.. मंगत बादल

नीरज दइया की नई पुस्तक आई है ‘सृजन संवाद’। इस पुस्तक में उनके द्वारा लिए गए कुल दस राजस्थानी साहित्यकारों के साक्षात्कार हैं जो केंद्रीय साहित्य अकादमी नई दिल्ली द्वारा पुरस्कृत हो चुके हैं। श्री कन्हैया लाल सेठिया, श्री मोहन आलोक, श्री यादवेंद्र शर्मा ‘चंद्र’, अर्जुनदेव चारण, डॉ. कुंदन माली, मंगल बादल, श्री अतुल कनक, डॉ. आईदान सिंह भाटी, श्री मधु आचार्य, श्री बुलाकी शर्मा के साक्षात्कार समाहित है। साथ ही सात रचनाकारों द्वारा समय-समय पर लिए गए डॉ. नीरज दइया के साक्षात्कार एवं उनका आत्मकथा भी प्रकाशित है। जिससे पुस्तक की उपादेयता कुछ और बढ़ जाती है।
‘साक्षात्कार’ विधा का विकास हिंदी भाषा में अंग्रेजी भाषा से हुआ है। हालांकि संस्कृत में गुरु-शिष्य संवाद, शुक-शुकी संवाद, रामचरित मानस में की राम कथा चार वक्ताओं और चार श्रोताओं के माध्यम से आगे बढ़ती है किंतु इससे पाठक को रचनाकार के विषय में कुछ भी मालूम नहीं पड़ता जबकि साक्षात्कार के माध्यम से साक्षात्कार कर्ता रचनाकार की उन सच्चाइयों से भी रू-ब-रू कराता है जो रचना एवं रचनाकार की पृष्ठभूमि में रह जाती है। साक्षात्कार कर्ता अपने बेधडक प्रश्नों के माध्यम से उन धुंधलके को प्रकाश में परिवर्तित कर देता है जो रचनाकार के व्यक्तित्व एवं रचना पर छाया होता है। वह अपनी बेबाक टिप्पणियों एवं निर्मम प्रश्नों के माध्यम से लेखक के भीतर उसी भांति गहरे उतर कर सत्य को तलाश कर लेता है जिस प्रकार कोई गोताखोर समुद्र से मोती। अन्य विधाओं की अपेक्षाकृत यह विधा राजस्थानी भाषा के लिए नई है। यद्यपि पत्र-पत्रिकाओं में राजस्थानी भाषा के साहित्यकारों के साक्षात्कार प्रकाशित होते रहे हैं किंतु पुस्तक रूप में यह पहला प्रयास है। यहां यह भी ध्यातव्य है कि यह पुस्तक राजस्थानी भाषा में ना होकर हिंदी में क्यों है? इसका सीधा सा मतलब है जो पाठक राजस्थानी नहीं पढ़ समझ सकते उन तक इन लेखकों का अवदान पहुंचाने का प्रयास किया गया है। कम से कम हिंदी भाषा भाषी क्षेत्रों तक इन रचनाकारों के साहित्य की जानकारी तो पहुंचे। इस दृष्टि से इस प्रयास को स्तुत्य कहा जा सकता है।
साक्षात्कार करती बार डॉ. नीरज दइया इस बात का पूरा ध्यान रखा है कि रचनाकार अपनी रचनाओं के विषय में खुलकर बतला सके तथा अपनी रचना-प्रक्रिया पर प्रकाश डाल सके। कन्हैया लाल सेठिया हों या मोहन आलोक, कुंदन माली हों या अर्जुन देव चारण सभी से बेबाकी से प्रश्न पूछे हैं। सेठिया जी से तो पुरस्कार ग्रहण न करने और फिर ग्रहण करने के प्रश्न बड़ी निर्ममता से पूछ कर यह जता दिया कि जो आलोचक संबंधों को मध्य नजर रखकर समीक्षा या आलोचना करेगा वह सफल नहीं हो सकता। हां एक बार वाह-वाही अवश्य प्राप्त कर लेता है। इसी प्रकार राजस्थानी भाषा का रचनाकार राजस्थानी के अतिरिक्त हिंदी अथवा किसी इतर भाषा में भी लेखन करता है। इसके प्रत्युत्तर में प्रायः सभी रचनाकारों ने प्रकाशन की अपनी-अपनी चिंता की है। राजस्थानी भाषा की मान्यता को लेकर भी सवाल पूछे गए हैं तथा मान्यता मिलने के बाद की संभावनाओं पर विचार किया गया है। इस प्रकार इन साक्षात्कारों से जो एक दृष्टि बनती है, वह यही कि आज राजस्थानी का रचनाकार रचना करने और भाषा की मान्यता संबंधी दो मर्चों पर एक साथ लड़ रहा है। राजस्थानी का रचनाकार अपने अस्तित्व की इस लड़ाई में साहित्य के प्रत्येक क्षेत्र की न्यूनता को पूर्णता में बदलने के लिए कटिबद्ध है तथा इसके लिए अपनी जेब से पैसे खर्च करके पुस्तकें पुस्तकें प्रकाशित करता है तथा पाठकों तक मुफ्त पहुंचाता है।
पुस्तक का प्रथम भाग ‘अपने आस-पास’ शीर्षक से प्रकाशित है जबकि दूसरा भाग ‘भीतर-बाहर’ और तीसरा भाग ‘आत्मकथ्य’ शीर्षक से। दूसरे भाग में डॉ. नीरज दइया के सात साक्षात्कार हैं जो समय-समय पर वरिष्ठ लेखकों यथा सर्वश्री देवकिशन राजपुरोहित, नवनीत पांडे, डॉ. लालित्य ललित, राजेंद्र जोशी, डॉ. मदन गोपाल लढ़ा, डॉ. लहरी राम मीणा और राजू राम बिजारणिया द्वारा लिए गए हैं। इन साक्षात्कारों में डॉ. नीरज दइया ने केवल अपने रचना-कर्म पर प्रकाश डाला है बल्कि अपने आलोचकीय दृष्टिकोण को भी साफ कर दिया है। उन्होंने जता दिया है कि आलोचना कर्म में अपने-पराए की बात जो लोग करते हैं, वे बकवास करते हैं। यदि आप वास्तव में साहित्यकार हैं तो आपकी नजर में साहित्य ही रहेगा, पारस्परिक संबंध नहीं। ‘आत्मकथ्य’ के अंतर्गत उन्होंने अपने उन दो भाषणों को प्रकाशित किया है जो बाल साहित्य की पुस्तक ‘जादू रो पेन’ और आलोचना की पुस्तक ‘बिना हासिलपाई’ पर पुरस्कार ग्रहण करते हुए दिए थे। इनमें उनकी ईमानदारी और मेहनत तो झलकती ही है साथ ही साथ ही अपने साहित्यकार पिता श्री सांवर दइया के प्रति प्रेम और समर्पण का भाव भी छलक-छलक पड़ता है। सृजन-संवाद के लिए डॉ. नीरज दइया को शुभकामनाएं।

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पुस्तक का नाम : सृजन संवाद
विधा – साक्षात्कार ; संस्करण – 2020 पृष्ठ संख्या – 128 ; मूल्य – 300/- रुपए
प्रकाशक – किताबगंज प्रकाशन, सवाई माधोपुर
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राजस्‍थानी भाषा में अनुवाद की नई लीक


21 फरवरी को दोपहर 2-00 से 3-00 बजे पीएलएफ के सत्र मेें मातृभाषा दिवस पर 'राजस्थानी भाषा में अनुवाद की  नई लीक' विषय पर राजस्थानी के वरिष्ठ लेखक नंद भारद्वाज, श्याम जांगिड़ और शंकरसिंह राजपुरोहित के साथ मैंने भी चर्चा में भाग लिया। इसके लिए पीएलएफ आयोजकों केे प्रति आभार।



 


Monday, March 01, 2021

डॉ. आईदानसिंह भाटी का स्मृति संसार

साहित्य संसार में आज डॉ. आईदानसिंह भाटी एक प्रमुख और जाना-पहचाना नाम है। अनेक पुरस्कारों और सम्मानों से सम्मानित लब्धप्रतिष्ठित यह कवि-आलोचक अपनी मित्र-मंडली में आईजी के नाम से विख्यात है। साद्य कृति ‘स्मृतियों के गवाक्ष’ में ना केवल आपके विगत जीवनानुभवों का सुंदर संयोजन है वरन यहां हमें स्मृतियों में अभिव्यक्त होता आईजी का आत्मीय संसार भी दृष्टिगोचर होता है। इस कृति के माध्यम से हम यह भी जान सकते हैं कि किसी लेखक के रचना-संसार के समानांतर उसकी स्वयं की दुनिया में कितनी-कैसी आशाएं-निराशाएं, संबंध-संपर्क और साथी रचनाकारों से अपनापा होता है।
‘स्मृतियों के गवाक्ष’ में सत्राह संस्मरणों को संकलित किया गया है, इनके संदर्भ में लेखन ने पुस्तक के पूर्व स्पष्ट किया है- ‘ये संस्मरण डेढ़ से तीन दशक पुराने हैं। यादों की पगड़ंडियां तो बचपन की है, जिसमें मेरी ढाणी ठाकरबा गांव नोख और बाप गांव तक सीमित है, किंतु यादों के गवाक्ष जोधपुर की सड़कों पर आने के बाद खुलते हैं।’ संस्मरण विधा की अन्य पुस्तकों की भांति यहां भी आईजी की लेखकीय दुनिया की सुनहरी यादें हैं, जिनमें उनके जोधपुर, बाड़मेर, जैसलमेर जैसे कर्मस्थलों की सुवास महकती है तो साथ ही यहां एक गांवाई विद्यार्थी अपने जीवन में कैसे सफल हुआ, वह कैसे अपने संसार में स्वयं को गढ़ता है या उसकी दुनिया उसे बनाती है इसके भी अनेक सूत्र यहां मौजूद हैं।
यह पुस्तक हमें लेखक डॉ. आईदान सिंह भाटी के हवाले बाबा नागार्जुन, डॉ. नामवर सिंह, डॉ. विमल, नेमीचंद भावुक, हरीश भादानी, शिवरतन थानवी, बिज्जी, दीनदायल ओझा, विभूतिनारायण राय, शिवमूति, सत्यनारायण, डॉ. शाहिद मीर, प्रो. नईम, रघुनंदन त्रिवेदी आदि प्रख्यात हिंदी, राजस्थानी और उर्दू भाषा के विद्वानों, रचनाकारों-आलोचकों से मिलवाने का सुंदर उपक्रम करती है। अपने छात्र-जीवन के संघर्षों-कठिनाइयों के साथ यहां आईजी अपने ‘रस-प्रसंग’ को भी उजागर करने से गुरेज नहीं करते हैं। अपने स्नेहिल गुरुजनों, मित्रों और साथी रचनाकारों का स्मरण करते हुए कहीं कहीं उनका आलोचक रूप मुखरित होकर कृतियों और रचनाओं से भी हमारा परिचय करवाता है, तो कहीं इन प्रसंगों के सुंदर वार्तालाप के साथ पत्र-संवाद से भी हमें आनंदित करता है। बेशक आईजी की पहचान श्रुति परंपरा के वरेण्य कवि के रूप में होती रही हैं, किंतु यहां उनके गद्य में उनका आलोचक और बेहद आत्मीय चेहरा दिखाई देता है जिससे संबंधों को निभाने और गुणगान का हुनर सीखा जा सकता है। किसी भी बेहतर संस्मरण कृति की प्रमुख विशेषता होती है कि वह जिस जिस को उल्लेखित करे, उसे पूरी ऊर्जा के साथ रेखांकित करते हुए स्वयं को गौण रखे और यही विशिष्टता ‘स्मृतियों के गवाक्ष’ कृति को प्रमुख बनाती है। इस कृति के पाठ से हम अपने प्रिय लेखक-कवि आईजी के अनछुए, अज्ञात अथवा अल्पज्ञात अनेक पहलुओं को जान सकते हैं।
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डॉ. नीरज दइया
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पुस्तक का नाम – स्मृतियों के गवाक्ष (संस्मरण संग्रह)
कवि – आईदानसिंह  भाटी
प्रकाशक – रॉयल पब्लिकेशन, जोधपुर
पृष्ठ- 144
संस्करण - 2020
मूल्य- 300/-
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आभार : राजस्थान पत्रिका टीम

Sunday, February 21, 2021

साहित्य मार्ग की सहयात्री- संजू श्रीमाली जी / डॉ. नीरज दइया



राजस्थान ही नहीं अगर हम भारतीय और वैश्विक स्तर पर भी बात करें तो महिलाएं अधिक कला-प्रेमी होने के उपरांत भी साहित्य में संख्यात्मक रूप से कम हैं। तुलनात्मक रूप से वे स्वयं सौंदर्य की प्रतिमूति कही गई हैं और उनकी दृष्टि निसंदेह देश-समाज और काल को देखने में पुरुष-दृष्टि से काफी भिन्न है। यह भी कहना उचित होगा कि स्त्रियां अधिक संवेदनशील होती हैं। आवश्यकता इस बात की है कि कला, सौंदर्य और संवेदना से परिपूर्ण यह वर्ग प्रथम कोटि में स्थान प्राप्त करे। साहित्य मार्ग की एक सक्रिय सहयात्री हैं- संजू श्रीमाली जी, जो विविध विधाओं में राजस्थानी और हिंदी दो भाषाओं में लगातार समान रूप से सक्रिय है।

हम कविता के विषय में अब भी कोई एक सर्वमान्य परिभाषा कुछ पंक्तियों में नहीं दे सकते हैं और यह भी रेखांकित किया जाता रहा है कि परिभाषा प्रत्येक दौर में परिवर्तनशील रहेगी। रचनाकार की अपनी अभिनव दृष्टि होती है और वह कविता ही नहीं साहित्य की विधाओं को और हर शब्द को भी अलग अलग समय अपनी दृष्टि से देखता अथवा कहें कि रचता है। कवयित्री संजू श्रीमाली जी के इस संग्रह में जीवन को देखने के साथ कुछ रचने का भाव भी प्रमुखता से देखा जा सकता है। यहां विचार के साथ सघन संवेदनाओं के बिंब हैं, जिनमें एक स्त्री का सुकोमल चेहरा झिलमिलता है। 

अपने आस-पास के जीवन और संबंधों को देखते-परखते हुए कवयित्री संजू श्रीमाली जी कहीं भी किसी पर कोई दोषारोपण नहीं करती हैं वे बस उन भावनाओं को कविता के माध्यम से हमारे अंतस में आकार देते हुए हमें विचारवान बनने का आह्वान करती हैं। कविता में बहुत कुछ कहे जाने के बाद भी अब भी बहुत कुछ अव्यक्त है, यह अव्यक्त को व्यक्त करने का एक प्रयास है।

कवयित्री संजू श्रीमाली जी की संवेदनशीलता है कि वे सामान्य जीवन स्थितियों में भी मर्म को उद्घाटित करने में सक्षम है। इस संग्रह में सर्वाधिक प्रभावित करने वाली बात इन कविताओं के रूप में किसी पूर्ववर्ती कवि के किसी चेहरा अथवा अंश का नहीं झांकना है। ये कविताएं स्वयं कवयित्री द्वारा निर्मित एक ऐसी काव्य-वीथी है जो अपनी भाषिक सरलता और सहजता से प्रभावित करती है। दुनिया की आधी आबादी के विषय को अधिक गंभीरता से देखने की आवश्यकता पर बल देती इन कविताओं का स्वागत है। संग्रह ‘खुला आसमां’ संजू श्रीमाली जी के एक संवेदनशील रचनाकार के साथ-साथ प्रयोगधर्मी कवयित्री होने का प्रमाण है।

 -      डॉ. नीरज दइया

Saturday, February 20, 2021

पुस्तक चर्चा / डॉ. श्रीलाल मोहता

 


कविताओं में ईश्वर की पहचान करवाने का उपक्रम

    हिंदी के सुप्रसिद्ध कवि, पत्रकार-संपादक, अनुवादक श्री सुधीर सक्सेना साहित्य में अपनी एक अलहदा पहचान रखते हैं। उनकी कविताओं का अपना एक अलग रंग-मिजाज है। उनके कविता संग्रह ‘ईश्वर : हां, नीं... तो’ में संग्रहित छत्तीस कविताओं को राजस्थानी के चर्चित हस्ताक्षर डॉ. नीरज दइया ने राजस्थानी में अनुसृजित किया है। किसी कविता का अनुसृजन बेहद कठिन कार्य होता है, किंतु नीरज दइया ने उसे एक चैलेंज के रूप में लिया है। उन्होंने हिंदी, पंजाबी, गुजराती और अन्य भारतीय भाषाओं से चयनित कवियों की चुनिंदा कविताओं का राजस्थानी में अनुसृजन ‘सबद-नाद’ में किया है। अनुसृजन और अनुवाद में किंचित अंतर होता है। अनुवाद में तो शब्द के समानांतर शब्द-शब्द अनुवादक रखता है किंतु अनुसृजन में शब्द के साथ-साथ उसकी भाव-भंगिमा का भी बहुत महत्त्व होता है। नीरज इस दृष्टि से एक सफल अनुसृजक है।
    इस संग्रह में सुधीर सक्सेना की विचार और दर्शनिक भाव-भंगिमाओं की कविताएं हैं। इन कविताओं में कवि और अनुसृजक जैसे ईश्वर की मानव जीवन की समस्याओं से उसके सामने खड़े होकर कभी तो किसी समस्या का प्रत्युत्तर मांगते हैं और कभी उस की लाचारी को प्रस्तुत करते हैं और कभी उसे बहुत तीखे शब्दों में उपालंभ देते हैं। संग्रह की प्रत्येक कविता के केंद्र में ईश्वर है। कविताओं से गुजरने के बाद पाठक को लगता है कि कवि ना तो आस्तिक है और ना ही नास्तिक। कविता संग्रह का शीर्षक ही जैन दर्शन के स्यादवाद का स्मरण करता है, इस दर्शन में अंध-हस्ति न्याय से एक हाथी की पहचान होती है कि हाथी ऐसा होता है। इसी प्रकार कवि का अपनी कविताओं में ईश्वर की पहचान करवाने का उपक्रम है। कविता संग्रह के शीर्षक से मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि ईश्वर है या नहीं है, इसके होने और नहीं होने के अनेक प्रसंग जो हमारे संसार से जुड़े हुए हैं, उनकी सूत्रात्मक व्याख्या इन कविताओं में हुई है। इसी प्रसंग के माध्यम से जीवन की वे सभी समस्याएं आ जाती हैं जो कवि को विचलित करती हैं। इस संग्रह में कवि मूल सुधीर सक्सेना और राजस्थानी अनुसृजक नीरज दइया को बहुत बहुत बधाई कि इस सुंदर समन्वय से राजस्थानी के पाठकों को एक नए कविता-परिदृश्य से परिचित होने का अवसर मिला है। पुस्तक को सूर्यप्रकाशन मंदिर बीकानेर ने प्रकाशित किया है।

- डॉ. श्रीलाल मोहता


 

डॉ. नीरज दइया की प्रकाशित पुस्तकें :

हिंदी में-

कविता संग्रह : उचटी हुई नींद (2013), रक्त में घुली हुई भाषा (चयन और भाषांतरण- डॉ. मदन गोपाल लढ़ा) 2020
साक्षात्कर : सृजन-संवाद (2020)
व्यंग्य संग्रह : पंच काका के जेबी बच्चे (2017), टांय-टांय फिस्स (2017)
आलोचना पुस्तकें : बुलाकी शर्मा के सृजन-सरोकार (2017), मधु आचार्य ‘आशावादी’ के सृजन-सरोकार (2017), कागद की कविताई (2018), राजस्थानी साहित्य का समकाल (2020)
संपादित पुस्तकें : आधुनिक लघुकथाएं, राजस्थानी कहानी का वर्तमान, 101 राजस्थानी कहानियां, नन्द जी से हथाई (साक्षात्कार)
अनूदित पुस्तकें : मोहन आलोक का कविता संग्रह ग-गीत और मधु आचार्य ‘आशावादी’ का उपन्यास, रेत में नहाया है मन (राजस्थानी के 51 कवियों की चयनित कविताओं का अनुवाद)
शोध-ग्रंथ : निर्मल वर्मा के कथा साहित्य में आधुनिकता बोध
अंग्रेजी में : Language Fused In Blood (Dr. Neeraj Daiya) Translated by Rajni Chhabra 2018

राजस्थानी में-

कविता संग्रह : साख (1997), देसूंटो (2000), पाछो कुण आसी (2015)
आलोचना पुस्तकें : आलोचना रै आंगणै(2011) , बिना हासलपाई (2014), आंगळी-सीध (2020)
लघुकथा संग्रह : भोर सूं आथण तांई (1989)
बालकथा संग्रह : जादू रो पेन (2012)
संपादित पुस्तकें : मंडाण (51 युवा कवियों की कविताएं), मोहन आलोक री कहाणियां, कन्हैयालाल भाटी री कहाणियां, देवकिशन राजपुरोहित री टाळवीं कहाणियां
अनूदित पुस्तकें : निर्मल वर्मा और ओम गोस्वामी के कहानी संग्रह ; भोलाभाई पटेल का यात्रा-वृतांत ; अमृता प्रीतम का कविता संग्रह ; नंदकिशोर आचार्य, सुधीर सक्सेना और संजीव कुमार की चयनित कविताओं का संचयन-अनुवाद और ‘सबद नाद’ (भारतीय भाषाओं की कविताओं का संग्रह)

नेगचार 48

नेगचार 48
संपादक - नीरज दइया

स्मृति में यह संचयन "नेगचार"

स्मृति में यह संचयन "नेगचार"
श्री सांवर दइया; 10 अक्टूबर,1948 - 30 जुलाई,1992

डॉ. नीरज दइया (1968)
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आंगळी-सीध

आलोचना रै आंगणै

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