Saturday, May 28, 2022

राजस्थानी कहानी- धरती कब तक घूमेगी / मूल : सांवर दइया

इस महीने को पूरा होने में दो चार दिन शेष है। सीता ने सोचा और उसांस भरी। कुछ स्मरण हो आया तो वह रुआंसी हो गई। डबडबाई हुई आंखें पोंछ कर उसने आकाश की तरफ देखा। फिर जमीन कुरेदने लगी। उसे लगा कि आकाश और धरती के बीच घना सूनापन फैला हुआ है। ठीक वैसा ही सूनापन जैसा कि उसके हृदय में भरा हुआ है। सब कुछ है और कुछ भी नहीं है। भरा पूरा हंसता-खेलता घर है। बेटे-बहुएं हैं। पोते-पोतियां हैं। नाती-नातिनें हैं। मिलने को दिन में दो बार समय पर खाने को भोजन भी है। पर फिर भी पता नहीं क्यों कुछ अजीब अजीब सा लगता रहता है। लगता है कि जैसे कहीं कोई कम जरूर है। पकड़ में भले ना आए। दो बार भरपेट भोजन करना और सोना ही तो सब कुछ नहीं होता है। रोटी के अतिरिक्त भी तो मनुष्य को कुछ चाहिए होता है। यह अतिरिक्त वाली इच्छाएं ही कृष्टकारक होती हैं।
सीता अपना काला ओढ़ना देखकर फिर रुआंसी हो गई। वे जिंदा थे तब तक तो सब कुछ ठीक ही था। घर, घर जैसा ही लगा करता था। आंगन में खेलते-कूदते लड़ते-झगड़ते बच्चों का शोर-शराबा कितना सुहाबना लगा करता था। उस चिल्लम-पो में संगीत जैसा आनंद होता था। पर अब तो बेचारे बच्चे शोर-शराबा भी नहीं करते हैं। यदि कभी करते भी हैं तो उनकी मांएं चटाक करती तीन नंबर वाली डांट मारती है। पकड़ बाजू को घसीटते हुए कमरे में ले जाती हैं। फिर उनका वही रिकार्ड बजने लगता है। कितनी बार समझाया है कि यहां मत खेला करो। गाली गलोच सीखने के अलावा यहां दूसरा क्या है... किसी को बोलने तक की तमीज नहीं है... चाहे जैसे बोलते हैं फूहड गंवार।
सीता विचार करती है कि इस घर को क्या हो गया है। बच्चे यदि घर के आंगन में नहीं खेलेंगे तो क्या पड़ौस के आंगन में खेलेंगे? बच्चे तो परिवावालों के साथ ही खेलेंगे-कूदेंगे। पर नहीं! इनको तो घर के बच्चे आंखों देखे भी नहीं सुहाते हैं। खुद के बच्चे बहुत प्यारे दुलारे लगते हैं। उनको चौबीसों घंटों खिलाएंगे-हंसाएंगे। खुद खेलेंगे-कूदेंगे। फिर चुम्मा अलग से लेते हैं। पर छोटे या बड़े भाई के बच्चों को देखते ही इनको बदबू सी आने लगती है। जबान भले ही यह भेद ना खोले पर आंखों से तो सब कुछ साफ दिखाई देता ही है। खीर-पूरी खाते समय यदि कोई कुता गली का नाली से उठकर कभी आ जाए तो उस समय जो गुस्सा और घ्रणा और पता नहीं क्या क्या जो आता है बस वही सब कुछ इनके चेहरों पर पुता हुआ नजर आता है!
सीता अपने ही बारे में सोचने लगी। वह कौन है? कहने को तो इनकी मां ही है, पर मां और बेटों के बीच जो लगाव होता है, वह कहां है? कोई क्षण भर के लिए भी पास नहीं बैठता है। हालचाल कैसे हैं... तबियत कैसी है... मन लगता है या... किसी चीज की कोई आवश्यकता है क्या...। क्या पड़ी है इन सबकी इनको। यह क्यों पूछेंगे। दोनों समय खाने को देते हैं यह क्या कम बात है क्या? पर यह दोनों समय खाना खाना भी क्या हंसी-खुशी है? जबरदस्ती गले बंधा हुआ यह बस फर्ज है! नहीं तो इन तीनों में से ऐसा कमजोर गया गुजरा कौन है कि जो मुझे अपने पास नहीं रख सकता है... जो मेरा खर्च नहीं उठा सकता हो? चाहिए ही क्या है मुझे? रोटी ये खाते हैं और रोटी मैं खाती हूं! पांच-सात सदस्यों की रोटी जहां बनती है वहां एक मेरा तो गुजारा ऐसे ही हो जाए। चिकनी-चुपड़ी या काजू-बिदाम मिष्ठान्न मांगती हूं वैसी भी बात नहीं है। ये रुखी-सूखी जैसी खाते हैं तो क्या मैं कौनसी धी में लिथड़ी मांगती हूं? पर फिलहाल तो ये चुपड़ी हुई खाते हैं और मुझे लुक्खी सरकाते हैं तो भी मैं कुछ कह नहीं सकती हूं। एक शब्द निकालते ही जैसे ये तो जली-भुनी तैयार बैठी रहती हैं- हां, हां... हम भेदभाव करते हैं। हमारी तो ऐसे औकात नहीं है चिकनी-चुपड़ी हर दिन खिलाते रहे। हम गरीब आदमी हैं। बड़ी मुश्किल से गुजर बसर करते हैं। पर जो अपाको हमेशा छप्पन भोग खिला सके उसके पास चले जाएं। देखते हैं कि वे भी कितने दिन रोटियां डालते हैं। वे अमीर और भाग्यवान होंगे तो अपने घरों में होंगे। उनकी अमीरी हमारे किस काम आती है। हमारे तो हमारी भूख ही गुजारा कराएगी!
सीता याद करती है कि वह दिन कितना मनहूस था जब बड़े बेटे कैलाश ने सुबह सुबह ही चाय पीते समय नारायण और बिरजू को बुलाकर कहा था कि मां को रखने का ठेका केवल मेरा ही नहीं लिया हुआ है। तुम लोगों का भी तो कोई फर्ज होगा। तुमने कौनसा घर का हिस्सा नहीं लिया है? तुम क्या मां के बेटे नहीं हो?
उसकी बात सुनकर नारायण बोला- ‘आप कहें वैसे ही कर लेते हैं।’
‘मैं क्या कहूं? तुमको दिखाई नहीं देता है क्या?’ कैलाश के भीतर गुस्से के बवंडर उठ रहे थे।
बिरजू चुप रहा। वह हमेशा चुप ही रहता है। बस, केवल देखता रहता है कि कौन क्या करता-कहता है।
और सीता...? वह अर्धविछिप्त सी देख रही थी। देखो, अब क्या होता है? एक मां... तीन बेटे... दो समय की रोटी... तीन बेटे, एक मां... एक मां, तीन बेटे। ... मां ... रोटी... बेटे...। मां... बेटे... रोटी...! और फिर बहस में घूमते मां, बेटे और रोटी में से केवल रोटी ही महत्त्वपूर्ण बची। मां और बेटे कहीं अलग जा कर गिर गए- गुलेल में डाल कर फेंके जाने वाले पत्थर की तरह! रोटी का अकार और भार इतना बढ़ गया कि उसे संभाल लेना किसी एक के बस-बूते की बात नहीं रही है। फैसला हो गया- तीनों भाई बारी-बारी से मां को एक एक महीना रखेंगे।
सीता को कुछ कहने का अवसर ही नहीं मिला। तीनों में से किसी ने नहीं पूछा कि यह फैसला उसे मंजूर भी है या नहीं। उसकी अपनी इच्छा क्या है? उसने उसांस ली- खैर कोई बात नहीं! यदि वे आज होते और यह तमाशा देखते तो क्या कहते? उनसे इतना सहन हो पाता। वे तो आग बबूला होकर गालियां निकालने लग जाते। थप्पड़ या लात अलग से मारते! क्या समझ रखा है मुझे! मैं तुम्हारी मां दो रोटियों के भरोसे बैठी हूं क्या... ! अभी तो इतनी पहुंच है कि तुम जैसे बीस भिखारियों को रोटी डाल सकता हूं। एक लंबी उसांस! पर उनके रहते हुए तो कभी ऐसे बात उठी भी नहीं थी। उन्हें क्या खबर थी कि दो समय की रोटी के लिए ऐसा करेंगे!
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सीता को अच्छी तरह याद है कि वे श्रवण मास के दिन थे। तीन चार दिनों बाद होली थी। तब यही हुआ था कि होली के बाद मां बारी बारी से सब के पास रहेगी। होली के बाद नाहर सिंहजी वाले दिन खाना खाते समय उसे महसूस हुआ कि लापसी एकदम फीकी है। कौर गिटती तो लगता जैसे कौर गले में अटक रहा है। होली वाले दिन भी वह गुमसुम और उदास थी। होली पर लापसी ही बना करती थी, पर उस दिन कैलाश की बहू ने दाल का हलवा बनाया। दाल को सिकते हुए देखकर उसे लगा जैसे वह खुद सेकी जा रही है।
बच्चे उस से कहने लगे- दादी मां... दादी मां... बाई (मां) कह रही थी कि कल से आप नारायण काको सा के हिस्से में खाना खाएंगे। दादी मां क्या सच में आप वहीं खाना खाएंगे क्या? और शाम को जब वह खाना खाने बैठी तो कैलाश की पत्नी राधा कहने लगी- दाल का हलवा आपके लिए बनाया है। अच्छे से भरपेट खा लेना, ठीक!
वह सोचने लगी कि दाल का हलवा हो या फिर लूखी रोटी, थाली पर बैठने के बाद तो पेट का गड्डा तो भरना ही होता है। इच्छा हो तो दो कौर अधिक, नहीं तो चार कौर कम। उसने विचार किया- आज के बाद मुझे यहां से विदाई। कल से नारायण के हिस्से में खाना-पीना। फिर क्या यहां के पानी में भी सीर नहीं रहेगा क्या? बच्चों के पास आना जाना भी बंद हो जाएगा क्या? नहीं, नहीं... यह बात नहीं हो सकती है।
एक के बाद वह दूसरे और दूसरे के बाद तीसरे के हिस्से में वह लुढकने लगी। कैलाश के हिस्से से नारायण के हिस्से में और नारायण के हिस्से से बिरजू के हिस्से में! यह हिसाब बदलते ही बच्चे खुशी खुशी उसके पास आते और कहते- दादी जी, कल से आप हमारे हिस्से में खाना खाएंगे! हम साथ-साथ खाना खाएंगे- एक ही थाली में! ठीक है ना दादी सा?
वह रोने जैसी हालत में पहुंच जाती। इन नासमझ बच्चों को भी इस बात का विश्वास हो चला है कि वह बारी बारी से खाना खाएगी। एक महीने से ऊपर एक दिन भी नहीं रखता कोई। महीना पूरा होते ही जैसे टिकट कटाओ। अब दो महीने तक तो छुटकारा मिल गया, यही सोचते होंगे।
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बच्चे शाम होने पर सरावगियों के पाटे पर खेलते। वे जब कभी ‘माई माई रोटी दे’ वाला खेल खेलते तो उसे लगता जैसे यह कहानी आज भी सोलाह आने खरी है। बच्चों में से एक बच्चा भिखारी बन कर बारी-बारी से एक दूसरे के पास जाकर एक ही बात कहता- माई माई रोटी दे...। उसे उत्तर मिलता- यह घर छोड़, अगले घर जा!
वह सोचती- एकदम यही तो हालत है मेरी। मैं इस भिखारी-भिखारिन जैसी ही तो हूं। महीना होते ही बेटा कह देता है- माई, यह घर छोड़ कर अगले घर जा! और मैं रवाना हो जाती हूं। अगले घर तक। वहां महीना होते ही वही आदेश सुनाई देता है- यह घर छोड़ अगले घर जा!
यह घर छोड़ अगले घर जाते और वह घर छोड़ अगले घर जाते-जाते करीब पांच वर्ष बीत गए। ये पांच वर्ष सुख से बीते हो ऐसा कहां! इन पांच वर्षों में पच्चीसों बार फजीहत हुई है। बिरजू के हिस्से में थी तब नारायण की बहू भंवरी ने लड़के का जन्मदिन था तो कटोरी में डालकर रसमलाई भेज दी। रसमलाई का एक कौर ही मुंह में लिया था कि ऊपर से शोर सुनाई दिया। बिरजू की बहू पुष्पा बोल रही थी- अरे अमीरी दिखाने के लिए रसमलाई का टुकड़ा भेजा है क्या! तुम्हारे हिस्से में थे तब तो इनको लूखे रोटे खिलाए थे। आज महाराणी रसमलाई का नाटक दिखा रही है। देखे तुम्हारे चौंचले। मेरे हिस्से में हो तब यह तुम्हारा खेल-तमाशा अपने पास ही रखा करो। हमारी जैसी औकात होगी वैसा हम अपने आप ही खिला-पिला देंगे।
सीता को फिर स्मरण हुआ- उन दिनों वह नारायण के हिस्से में थी। राधा को बुखार आ गया था। कैलाश नौकरी के सिलसिले में कहीं बाहर गया हुआ था। उसने दो-तीन दिन तक उसके बच्चों के लिए खाना-पानी किया। थोड़े दिनों बाद बच्चों की लड़ाई को लेकर भंवरी और राधा के बीच लड़ाई हो गई। राधा ने कहा कि बच्चों की लड़ाई हुई तब सासू जी वहीं थे। उनसे पूछ ले भले। इतने में भंवरी ने जैसे जहर से भरा हुआ तीर मारा- ‘अरे जा जा! पूछ लिया तुमको और उनको, दोनों को। उन्हें क्या पूछना है? वे नौकरानी जैसे सारे काम करते रहते हैं तुम्हारे और खाना खाते हैं हमारे हिस्से में। अरे जब इतना काम कराती रही हो तो तो खाना भी तो खिलाना था।’
उसकी आंखें गीली हो गई। इनके बाक्‌-युद्ध का कोई अंत नहीं है। यह प्रतिदिन लड़ाई करती हैं। लड़ाई है इनकी खुद की और कांटों में घसीटती हैं मुझे। अब मरना तो मेरे बस की बात नहीं है। यदि बस में हो कल ही प्राण त्याग दूं। भगवान के घर से जितनी सांसें हिस्से में आई है वह तो लेनी ही होगी! यह सोचते-सोचते सीता की आंखें डबडबा रही थी।
सीता को महसूस होने लगा है कि आकाश अनंत नहीं है। वह सिकुड़ गया है। यह धरती लंबी चौड़ी नहीं है। यह सिकुड़ गई है। घर भी सिकुड़ गया है। यहां सिर छिपाने को भी जगह नहीं है। कहने को तो यह घर है। यह घर इस गली का अच्छा इज्जतदार खाता-पीता घर कहा जाता है। पर इस खाते-पीते इज्जतदार घर में खाने-पीने की ही लड़ाई है! एक पेट के लिए इतना कोहराम! ये लोग सुबह शाम को गाय-कुत्ते को भी रोटी देते हैं। फिर मेरी रोटी में ऐसा क्या है कि इनको हर दिन कुछ नया विचार करना पड़ता है।
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आज तो हद ही हो गई! कैलाश ने कहा- ‘यह बात अच्छी नहीं लगती है कि मां महीने दर महीने इधर-उधर लुढकती रहती है। मेरे विचार से यह ठीक रहेगा कि हम तीनों ही हर महीने मां को पचास-पचास रुपये दे दिया करें। मां को डेढ़ सौ रुपये पर्याप्त ही हैं। चाय तो हम पिलाते ही हैं। और फिर पिलाते रहेंगे। बाकी रही रोटी, जो अपनी खुद मर्जी से बनाएंगी-खाएंगी...।
नारायण ने कहा- ‘जैसी तुम्हरी इच्छा। मुझे मंजूर है। आज तो बिरजू भी चुप नहीं बैठा। वह बोला- ‘रोज इधर उधर लुढ़कने से तो यह ठीक ही है। अपनी एक जगह तो पड़ी रहेगी...।’
इतनी बातें होने के बाद उस कमरे में मौन के तीखे तेज कीलों का जैसे खेत ऊग आया। इधर-उधर जरा सा हिले कि कीले चुभे। सभी जैसे थे वैसे ही मौन बैठे रहे। थोड़ी देर बाद कीलों से बींधे हुए स्वर आरंभ हुए- ‘मां को पूछ लेते...। बिरजू की आवाज थी यह।
‘मां आजकल किसी बात के लिए मना नहीं करती है। उसके भले कुछ भी हो यहां। असली बात तो यह हमारे पसंद आने की है।’ कैलाश कहे जा रहा था- ‘आप सभी को बात ठीक लगी हो मां से बात करता हूं।’
जब सीता ने यह सुना तो वह कुछ नहीं बोली। बारी बारी से तीनों बेटों की तरफ देखने लगी। उसकी आंखों के आगे अंधेरा छाने लगा। डबडबाई हुई आंखों को पौंछते हुए उसने अपना भर्राया हुआ गला चुपचाप पी गई। रोने की आवाज होंठों के बाहर नहीं निकली। हृदय का एक एक हिस्सा रो रहा था। उसके भीतर आंसुओं का समंदर भर गया था।
सीता सोचने लगी कि यहां अगर रोटी खाती हूं तो कौनसी मुफ्त की खाती हूं। इनके बच्चों के कितने काम करती हूं। हाथ पैर चलते है जितने दो चार बर्तन भी मांज देती हूं। कौनसे हाथ घिसते हैं मेरे। पर ये क्या मुझे इस काम के लिए पचास पचास रुपये मजदूरी दे रहे हैं क्या? जब मुझे मजदूरी ही करनी है तो कहीं भी कर लूंगी। दुनिया में काम की कौनसी कमी है? और नहीं तो किसी के घर जूठे बर्तन साफ कर के रोटी खा लूंगी। सवाल तो बस रोटी का ही है।
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अगले दिन सीता अपने दो चार कपड़े लत्तों की गठरी बांध मुह अंधेरे ही घर से निकल गई। अभी उसकी आंखों के आगे ना तो अंधेरा था और ना ही धरती और आकाश के बीच सूनापन लगा।
आज आकाश अनंत था। धरती बहुत बड़ी थी। वह रास्ता बहुत चौड़ा था, जिस पर वह चल निकली थी। और सबसे बड़ी बात यह थी कि उसके चारों तरफ खुली हवा थी।
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(वर्ष 1980 में प्रकाशित राजस्थानी कहानी संग्रह ‘धरती कद तांई घूमैली’ से अनूदित)

अनुवाद : डॉ. नीरज दइया 

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सांवर दइया रचनाओं के लिए संपर्क : डॉ. नीरज दइया

साहित्य अकादेमी की नजर ‘रेत समाधि’ पर नहीं गयी / डॉ. नीरज दइया


 गीतांजलि श्री को उनके उपन्यास ‘रेत समाधि’ के लिए अंतरराष्ट्रीय बुकर पुरस्कार की बधाई और ढेरों शुभकामनाएं देते समय हमें यह भी विचार करना चाहिए कि साहित्य अकादेमी द्वारा उन्हें वर्ष 2020 अथवा 2021 पुरस्कार अर्पित क्यों नहीं किया गया है। इस सवाल का यहां यह किंचित भी अभिप्राय नहीं है कि अनामिका के कविता संग्रह ‘टोकरी में दिगन्त’ अथवा दया प्रकाश सिन्हा के ‘सम्राट अशोक’ पर पुरस्कार सही नहीं दिया गया अथवा उन्हें क्यों दिया गया है। मेरा यह मानना है कि इस अवसर पर हमें यह विचार करना चाहिए कि प्रतिष्ठित बुकर सम्मान से पुरस्कृत  गीतांजलि श्री का उपन्यास ' रेत समाधि ' साहित्य अकादेमी से उपेक्षित कैसे रहा?  बुकर पुरस्कार के बहाने हम साहित्य अकादेमी पुरस्कारों के लिए विचारणीय पुस्तकों के वहां तक पहुंचने अथवा नहीं पहुंचने के कारणों की तलाश करें। साहित्य अकादेमी पुरस्कार सवालों के घेरे में इसलिए है कि ऐसे क्या कारण रहे कि हमारे देश में ‘रेत समाधि’ जैसे महत्त्वपूर्ण उपन्यास को दोनों वर्षों में अकादेमी पुरस्कार के लिए विचारणीय़ पुस्तकों की सूची में शामिल ही नहीं किया गया है। ऐसे कौनसे कारण है कि यह किताब वहां तक नहीं पहुंच सकी है। ‘रेत समाधि’ नई भाषा और शिल्प में हिंदी का एक महत्त्वपूर्ण उपन्यास है जिसमें निराला कहन अंदाज है और साथ ही साथ स्त्रियों के एक बड़े तबके की बात को स्थानीय रंगों के साथ उठाया गया है। साहित्य अकादेमी की पत्रिका ‘समकालीन भारतीय साहित्य’ में रेत समाधि की समीक्षा के प्रकाशन और बड़े प्रकाशक द्वारा प्रकाशित होने पर भी यदि कोई किताब साहित्य अकादेमी के पुरस्कारों की सूची में शामिल नहीं हो पाती है तो यह विचारणीय मुद्दा जरूर है। इसका अभिप्राय यह भी है कि देश के अनेक अपरिचित और कम पहचान वाले प्रकाशकों योग्य लेखकों की किताबों का वहां पहुंचना फिर कैसे संभव होगा? इस बात पर खासकर साहित्य अकादेमी से जुड़े हमारे विद्वान साहित्यकार समाज को विचार-मंथन करना ही चाहिए।
    पूरे देशवासियों और खासकर साहित्य समाज में आज जिस बात से हम उत्साहित होकर खुशी का अनुभव कर रहे हैं वह किसी भी मायने में गलत अथवा असंगत नहीं है। यह पुरस्कार भारत ही नहीं समूचे एशिया महाद्वीप के लिए गर्व का विषय है। उल्लेखनीय है कि इस रचना को वैश्विक पहचान अंग्रेजी अनुवाद के कारण मिली। इसका अंग्रेजी में वैश्विक समाज द्वारा स्वागत हर्षित करने वाला है किंतु वहीं हमारा हिंदी समाज क्या इसे हिंदी में पढ़कर इसके महत्त्व से अवगत नहीं हो सका है। मुक्तिबोध, मोहन राकेश, धर्मवीर भारती, राजेंद्र यादव जैसे अनेक नाम हिंदी साहित्य में हैं, जिन्हें साहित्य अकादेमी पुरस्कार नहीं मिला है। वहीं बाबा नागार्जुन को हिंदी में नहीं, उनकी मातृभाषा मैथिली में बाद में पुरस्कार मिला तो रामदरश मिश्र जैसे हमारे वरिष्ठ रचनाकार उम्र के लंबे पड़ाव के बाद ही साहित्य अकादेमी पुरस्कार के दर्शन कर सके। जिसे रचनाकार को जिस समय सम्मान मिलना चाहिए वह समय पर नहीं मिलता है। अब गीतांजलि श्री के संदर्भ में यह भी संभव है कि जैसे विष्णु प्रभाकर को साहित्य अकादेमी ने ‘आवारा महीसा’ पर साहित्य अकादेमी पुरस्कार प्रदान नहीं कर ‘अर्द्धनारीश्वर’ पर अर्पित किया वैसे ही अगले वर्ष इसी पुस्तक ‘रेत समाधि’ पर अथवा भविष्य में उन्हें अन्य पुस्तक पर यह सम्मान प्रादन करे।
    वर्ष 2018 में प्रकाशित इस उपन्यास के विषय में अब यह कहा जाएगा कि घर का जोगी जोगड़ा आन गांव का सिद्ध वाली बात है। यह निर्विवादित सत्य है कि उपन्यास ‘रेत समाधि’ एक महत्त्वपूर्ण उपन्यास है जिसे वैश्विक परिदृश्य में बड़ी स्वीकृति मिली है तो अब घर के लोग भी इसे सिद्ध मान रहे हैं। यह सच में बड़े आश्चर्य की बात का है कि इस कृति को हिंदी साहित्य समाज अब भले कितना ही श्रेष्ठ और उच्च कोटि का कहे किंतु यह एक अपराध बोध जगाने जैसा भी है। साहित्य अकादेमी नई दिल्ली द्वारा वर्ष 2020 और 2021 के अकादेमी पुरस्कार के लिए विचारणीय पुस्तकों में इसका शामिल नहीं होने के कारणों पर की विवेचना की जानी चाहिए। हिंदी साहित्य में साहित्य अकादेमी द्वारा किसी कृति को पुरस्कार मिलने अथवा नहीं मिलने के अनेक नियम बने हुए हैं, साथ ही नियमों से इतर जो बातें कही-सुनी जाती है वह भी अपना कुछ अस्थित्व रखती है। साहित्य अकादेमी और उससे जुड़े हमारे साहित्य समाज के बुद्धिजीवियों के लिए बुकर पुरस्कार प्रसंग अनेक सवाल खड़े कर रहा है।
    साहित्य अकादेमी के एक लाख राशि के प्रतिष्ठित मुख्य पुरस्कार हेतु वर्ष 2020 के लिए 1 जनवरी, 2014 से 31 दिसम्बर, 2018 तक प्रकाशित पुस्तकों पर विचार किया गया है। इसके लिए जो विचारणीय पुस्तकों की सूची अकादेमी द्वारा जारी की गई है उसमें अनामिका की पुरस्कृत कृति के अलावा 12 पुस्तकें पुष्पा भारती, सूर्यवाला, ममता कालिया, श्रीप्रकाश मिश्र, रमेश पोखरियाल ‘निशंक’, ज्ञान चतुर्वेदी, दयाप्रकाश सिन्हा, जानकीप्रसाद शर्मा, नीरजा माधव, विजय बहादुर सिंह, मदन कश्यप रचित शामिल हैं। इसी प्रकार अगले वर्ष 2021 पुरस्कार हेतु 1 जनवरी, 2015 से 31 दिसम्बर, 2019 तक प्रकाशित पुस्तकों पर विचार किया गया है। गत वर्ष पुरस्कारों की दौड़ में शामिल कृति ‘सम्राट अशोक’ (दया प्रकाश सिन्हा) को इस बार बहुमत से यह पुरस्कार घोषित किया गया है। इस बार विचारणीय कृतियों के लेखकों के नाम सामने आए हैं-  मेनेजर पाण्डे, बद्री नारायण, ज्ञान चतुर्वेदी, सूर्यनाथ सिंह, गगन गिल, अष्टभुजा शुक्ल, श्योराज सिंह बेचैन, सूर्यबाला, ओम निश्चल, श्रीराम परिहार और नीरजा माधव। दोनों वर्ष की कृतियों में ‘रेत समाधि’ का नाम नहीं होना अथवा गीतांजलि श्री को हिंदी साहित्य समाज द्वारा साहित्य अकादेमी द्वारा नामित तक नहीं करना निसंदेह इस प्रक्रिया पर बहुत संदेह के साथ खेद प्रकट करने वाला है।   
    यहां यह भी उल्लेखनीय है कि केंद्रीय साहित्य अकादेमी में नियम है कि अध्यक्ष द्वारा तीन स्वतंत्र निर्णायक निश्चित किए जाते हैं, उनके साथ मूक भूमिका में भाषा परामर्श समिति का संयोजक भी बैठक में विराजित रहता है। अनामिका को जिस पैनल ने सर्वसम्मिति से पुरस्कार निश्चित किया उसमें चित्रा मुद्गल, प्रो. के एल. वर्मा और डॉ. रामावचन रॉय शामिल रहें हैं। इसी प्रकार जो पुरस्कार दया प्रकाश सिन्हा को अर्पित किया गया है उसमें प्रो. चमनलाल गुप्त, प्रो. (डॉ.) दिविक रमेश और प्रो. जयप्रकाश शामिल रहे। यहां यह भी स्पष्ट कर देना उचित होगा कि इस पुरस्कार में दो निर्णयाकों की सहमति के साथ एक निर्णायक की अहसमति साहित्य अकादेमी में अंकित है। साहित्य अकादेमी से जुड़े साहित्य समाज के लिए यह बड़ा सवाल है कि गीतांजलि श्री का नाम दोनों वर्षों की विचारणीय पुस्तकों में शामिल क्यों नहीं है?
    वर्तमान में साहित्य अकादेमी जैसे बड़ी संस्था में पुरस्कारों और विभिन्न कार्यक्रमों को लेकर अनेक विवादास्पद प्रकरण सामने आ रहे हैं। साहित्य अकादेमी द्वारा बहुत व्यवस्थित ढंग से सभी पुरस्कारों के नियम निर्धारित है, किंतु इस अकादेमी में जो हिंदी भाषा परामर्श मंडल है उसमें लगता है बहुत खामियां हैं। अकादेमी द्वारा परामर्श मंडल के संयोजक को न्याय का देवता मानते हुए सब कुछ उसी के हाथों सौंप दिया गया है। जिसके रहते अनेक हिंदी में पुरस्कारों के लिए प्रक्रिया निर्धारित मानकों के अनुरूप पूर्ण ही नहीं हो रही है, तब हमारी प्रांतीय भाषाओं में तो क्या कुछ गलत नहीं हो रहा होगा। जानकार सूत्रों के अनुसार ग्राउंड लिस्ट और पैनल के लिए जो नाम भाषा समिति द्वारा मनमाने ढंग से दिए जाते हैं, अकादेमी की सीमा है कि उन्हें उनमें से चयन करना होता है। यहां यह त्रासदी भी देखी जा सकती है कि पुरस्कारों के निर्णय हेतु पहुंचने वाले विद्वान लेखक स्वयं इस योग्य नहीं हैं कि वे निर्णयक की भूमिका निभा सके। पुरस्कारों के लिए चयनित पुस्तकों और लेखकों में ऐसे अनेक बड़े नाम है। विभिन्न विधाओं में किसी एक सर्वश्रेष्ठ कृति का चयन सच में बेहद श्रमसाध्य जटिल कार्य है। हिंदी विषय और साहित्य को पढ़ना-पढ़ाना अलग बात है किंतु जो निर्णायक है वह यदि सृजनात्मक साहित्य से पूर्णतय परिचित नहीं है तो निर्णय कैसे होगा हम सहज अंदाजा लगा सकते हैं। निर्णायक यह सोचता है कि उसे संयोजक ने निमंत्रण दिया है किंतु सच तो यह है कि स्वयं संयोजक को अकादेमी पता नहीं लगने देती है कि कौन-कौन निर्णायक है। संयोजक और परामर्श मंडल द्वारा जो दस-दस नाम पुरस्कारों के लिए दिए जाते हैं उसमें से अध्यक्ष स्वयं गोपनीय ढंग से चयन करता है। किंतु जब पहुंचे हुए नामों में ऐसे नाम पहुंच गए हैं जो विश्वविद्यालयों और संस्थानों में सेवारत आदरणीय बंधु हैं, तब कोई क्या करे। साहित्य अकादेमी के पुरस्कारों में पहुंचने वाले निर्णायक अथवा उनके पूर्व में रहे निर्णायकों में कहीं कोई दोष अथवा त्रुटियां अवश्य है। जिनका स्वयं का कोई साहित्य सृजन और साहित्य समाज में कोई विशेष अवदान नहीं है वे पुरस्कार का निर्णय कैसे करेंगे और क्या करेंगे।
    अकादेमी द्वारा अंतिम रूप से चयनित पुस्तकों को अकादेमी क्रय कर अपने अंतिम तीन निर्णायकों को गोपनीय ढंग से भेजती हैं और फिर उनकी बैठक होती है, जिसमें अंतिम निर्णय होता है। यहां यह भी देखा गया है कि निर्णायक महोदय जिनको पुरस्कृत करने पधार रहे हैं वे स्वयं न केवल इतने अपरिचित होते हैं वरन उनसे स्वयं भी साहित्य अपरिचित होता है। किसी व्यक्ति विशेष का नामोल्लेख नहीं करते हुए यहां केवल इस बात पर चिंता भर है कि साहित्य अकादेमी एक गरिमामय संस्था है और उसके पुरस्कारों की गरिमा बनी रहनी चाहिए। अकादेमी से जुड़े हमारे मित्रों के लिए यह बुकर पुरस्कार आत्मचिंतन और विश्लेषण का एक अवसर उपलब्ध करा रहा है। हमें विचार करना चाहिए कि क्यों साहित्य अकादेमी की कार्यप्रणाली इतनी लचर और ढीलीढाली है कि इसमें असाहित्यिक बंधुओं का प्रवेश जमावड़ा हो रहा है। अकादेमी में चाहिए कि जिस किसी को जो भी कार्य सौंपा जाए, उसका साहित्यिक विवरण, योग्यता और अवदान अपने कार्यालय स्तर पर जांच-परख ले। यह अकादेमी का उत्तरदायित्व है कि वह कुछ ऐसे जांच बिंदु, मानक और मानदंड निर्धारित करें जिससे इस प्रकार की स्थितियों को भविष्य में टाला जा सके। 

Thursday, May 26, 2022

व्यंग्यकार बुलाकी शर्मा की व्यंग्य-यात्रा / डॉ. नीरज दइया

 

व्यंग्य विधा में बुलाकी शर्मा विगत चालीस-पैंतालीस वर्षों से निरंतर सक्रिय है। उन्हें राजस्थानी कहानीकर के रूप में साहित्य अकादेमी के मुख्य पुरस्कार (2016) और राजस्थानी भाषा साहित्य एवं संस्कृति अकादमी के गद्य पुरस्कार (1996) से सम्मानित किया गया है, वहीं व्यंगकार के रूप में वे राजस्थान साहित्य अकादेमी (1999) से सम्मानित हुए हैं। वैसे वे बाल साहित्य, अनुवाद, संपादन और समीक्षा के क्षेत्र में भी सक्रिय रहे हैं। ‘बजरंग बली की डायरी’ व्यंग्य के माध्यम से चर्चा में आए बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी बुलाकी शर्मा (1957) की व्यंग्य विधा में सक्रियता का ही परिणाम है कि उनके हिंदी और राजस्थानी भाषा में अब तक दस व्यंग्य संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं-
1. कवि, कविता अर घरआळी (राजस्थानी) 1981
2. दुर्घटना के इर्द-गिर्द 1997
3. इज्जत में इजाफो (राजस्थानी) 2000
4. रफूगीरी का मौसम 2008
5. चेखव की बंदूक 2015
6. आप तो बस आप ही हैं! 2017
7. टिकाऊ सीढ़िया उठाऊ सीढ़िया 2019
8. बेहतरीन व्यंग्य 2019
9. पांचवां कबीर 2020
10. आपां महान (राजस्थानी) 2020
राजस्थानी भाषा को तीन और हिंदी को सात व्यंग्य-संग्रह देने वाले बुलाकी शर्मा हमारे समय के मौन साधक हैं। वे अपने मित्रों के विषय में बहुत और अपने विषय में बहुत कम कहते-बतियाते हैं। चुटीली व्यंग्य-मुद्रा वाले बुलाकी शर्मा के विषय में माना जाता है कि उनके व्यंग्य एक गहरी सामाजिक करुणा-दृष्टि से पोषित होते हैं। वरिष्ठ कथा-शिल्पी यादवेंद्र शर्मा का कहना था- ‘व्यंग्य विधा में बुलाकी शर्मा की विशिष्ट पहचान है। आम आदमी की स्थितियां, उसके सुख-दुख, उसकी लाचारी एवं उसका संघर्ष उनकी व्यंग्य रचनाओं में मार्मिकता से उद्घाटित हुआ है।’ यहां यह भी उल्लेख करना आवश्यक है कि बुलाकी शर्मा ने अनेक समाचार-पत्रों में लंबे समय तक स्तंभ लेखन भी किया है और व्यंग्य विधा में उनका विपुल लेखन है। वे अपने सभी व्यंग्य जो स्तंभ के रूप में यत्र-तत्र लिखे गए हैं, संग्रह के रूप में संकलित करना जरूरी नहीं मानते हैं। उन्होंने केवल चयनित व्यंग्य ही अपने विभिन्न संग्रहों में प्रस्तुत किए हैं। स्व-चयन का यह जरूरी घटक हम सभी व्यंग्यकारों में नहीं पाते हैं। बहुत से व्यंग्य तत्कालीन स्थितियों पर समय की आवश्यकता को ध्यान में रख कर लिखे जाते हैं अथवा अखबार और खास अवसर की जरूरत के मध्यनजर लिखे जाते हैं। साथ ही व्यंग्य व्यंग्यकार को अपनी यात्रा के विकास के रूप में भी चिंतन करना चाहिए कि वह समय के साथ किसी विधा को क्या कुछ दे रहा है। अनेक घिसे-पिटे और बार बार दोहराए जाने वाले विषयों पर निरंतर लिखा तो जा सकता है किंतु वे व्यंग्य विधा अथवा स्वयं व्यंग्यकार के विकास के ग्राफ को कहां ले जाते हैं? इसका आकलन भी जरूरी होता है। जाहिर है इन सब से बचना कठिन है किंतु इसको ध्यान में रख कर आगे बढ़ने वाले व्यंग्यकारों में बुलाकी शर्मा का नाम प्रमुख है। संग्रहों के संख्यात्मक आंकड़ों की बाजय सदा गुणवत्ता में विश्वस करने वाले शर्मा के लेखन पर मैंने ‘बुलाकी शर्मा के सृजन-सरोकार’ पुस्तक में उन्हें राजस्थानी व्यंग्य विधा के परसाई कहा है तो इसलिए कि वे राजस्थानी भाषा में पहले ऐसे व्यंग्यकार है जिनके प्रथम संग्रह से स्वतंत्र रूप से व्यंग्य पुस्तकों का आरंभ होता है।
वरिष्ठ व्यंग्यकार अरविंद तिवारी ने बुलाकी शर्मा के विषय में लिखा है- ‘राजस्थान के चर्चित व्यंग्यकार बुलाकी शर्मा का लेखन आम आदमी के इर्द-गिर्द घूमता है। राजस्थान के जिन व्यंग्यकारों ने राष्ट्रीय स्तर पर अपनी विशिष्ट पहचान बनाई है, बुलाकी शर्मा उनमें से एक हैं। बुलाकी शर्मा के व्यंग्य में जहां विषय की विविधता है, वहीं प्रहार करने की क्षमता देखते बनती हैं।’ उनकी व्यंग्य-यात्रा में प्रमुख पात्र सुखलाल जी ने उनका बहुत सहयोग किया है। स्वयं बुलाकी शर्मा अपने व्यंग्य आलेखों में भोले और मासूम बनते हुए अपने प्रिय पात्र सुखलाल जी के माध्यम से बहुत-सी बातें कहते और कहलवाते हैं। उनकी प्रमुख शैली प्रश्न-प्रतिप्रश्न रही है, साथ ही अब तक की व्यंग्य-यात्रा में उनका कहानीकार होना भी व्यंग्य में उनको बारबार कहानी के शिल्प की तरफ आकर्षित करता रहा है। व्यंग्य में कथा-रस ही वह घटक है जो उनके पठनीय से और अधिक पठनीय बनाता है। बकौल व्यंग्यकार सुभाष चंदर- ‘बुलाकी शर्मा हिंदी व्यंग्य का एक महत्त्वपूर्ण नाम है। उन्होंने व्यंग्य के सभी रूपों में अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज करवाई है पर उनके रचनाकार का सर्वश्रेष्ठ रूप व्यंग्य कथा में देखने को मिलता है। वे प्रसंग वक्रता का बेहतरीन निर्वाह करते हैं।’
बुलाकी शर्मा के भाषा पक्ष की बात करें तो छोटे-छोटे वाक्यों और संवादों के माध्यम से वे मार्मिकता और चुटिलेपन के साथ विविधता को साधते हुए हमें हमारे आस-पास की अनेक समस्याओं के भीतर-बाहर ले जाते हुए विद्रूपताओं को उजागर करते हैं। वरिष्ठ व्यंग्यकार सुरेश कांत उनके विषय में लिखा है- ‘बुलाकी शर्मा ने अपने व्यंग्य संग्रह चेखव की बंदूक में राजनीतिक छद्मों, सामाजिक प्रपंचों, आर्थिक विसंगतियों, दफ्तरी दावपेंचों, वैचारिक दो-मुंहपने आदि विभिन्न पहलुओं को अपनी व्यंग्य की जद में लिया है, किंतु जहां उनका मन सर्वाधिक समा है वह है भाषा और साहित्य जगत की विसंगतियों का क्षेत्र।’ यह सही भी है कि उनकी व्यंग्य यात्रा में यह भी रेखांकित किए जाने योग्य है कि वे बार-बार व्यंग्य की धार से स्वयं को भी लहू-लूहान करने से नहीं चूकते हैं। जहां कहीं अवसर मिलता है वे स्वयं व्यंग्य में घायल सैनिक की भांति हमारे सामने तड़फते हुए हमें स्वचिंतन के लिए विवश करते हैं। ‘पांचवां कबीर’ व्यंग्य संग्रह साहित्य और समाज के दोहरे चरित्रों को खोलते हुए व्यंग्य-बाणों से भरपूर प्रहार करने में समर्थ है। साहित्य और साहित्यकारों पर केंद्रित शीर्षक व्यंग्य में साहित्यिक नामों की फतवेबाजी से हो रही पतनशीलता के साथ दोहरे चरित्रों को केंद्र में रखते हुए निशाना साधा गया है। व्यंग्य का अंश है- ‘अगले सप्ताह ही तुम्हारी पुस्तक पर मैं स्वयं चर्चा रखवाता हूं। अपने खर्चे पर। कबीर तो बिचारे राष्ट्रीय कवि हैं। तुम्हारी प्रतिभा अंतरराष्ट्रीय है। इसलिए मैं तुम्हें शहर का इकलौता कवि कीट्स अवतरित करके अंतरराष्ट्रीय कवि स्थापित कर दूंगा। अब तो गुस्सा छोड़ो।’ व्यंग्यकार बुलाकी शर्मा स्थितियों का चित्रण करते हुए बहुत कुछ अनकहा भी अपने पाठकों तक पहुंचाने में जैसे सिद्धहस्त है। साहित्य और भाषा क्षेत्र उनका अपना क्षेत्र है। व्यंग्य-यात्रा के संपादक प्रेम जनमेजय ने लिखा है- ‘बुलाकी शर्मा में आत्मव्यंग्य की प्रतिभा है। उनके पास व्यंग्य-दृष्टि और व्यंग्य भाषा का मुहावरा है।’
बुलाकी शर्मा के आरंभिक व्यंग्य और उसके विकास के आकलन को करते हुए हम देख सकते हैं कि उन्होंने अपनी अलाहदा शैली का विकास करते हुए व्यंग्य को बेहद बारीक और मारक बनाने की दिशा में बहुत से रास्तों को पार कर लिया है। वे अंतर्मन में अंधकार और द्वंद्व को भी उजागर करते हुए ‘आप तो बस आप ही हैं !’ जैसी व्यंग्य रचना में व्यवहार में वाक्पटुता और उधार लेने वाले चालबाजों पर बेहद उम्दा व्यंग्य करते हैं। वरिष्ठ व्यंग्यकार सुशील सिद्धार्थ का मानना था- ‘बुलाकी शर्मा छोटे-छोटे अनुभवों, सहज भाषा (मैं इसे बतरस कहूंगा) और मनोरंजन रचना पद्धति से अपने व्यंग्य को विशिष्ट बना देते हैं। वे पाठकों के लेखक हैं। सप्रेषण इतना सधा हुआ है कि अन्य लेखक उनसे सीख सकते हैं।’ इस सधे हुए संप्रेषण के आगाज की बात बकौल बुलाकी शर्मा करें तो उन्होंने वर्ष 1978 में ‘मुक्त्ता’ पत्रिका में ‘बजरंगबली की डायरी’ से इस विधा में विधिवत प्रवेश किया। बाद में वे साप्ताहिक हिन्दुस्तान, कादम्बिनी, आजकल, अमर उजाला, ट्रिब्यून, सन्मार्ग आदि अनेक पत्र-पत्रिकाओं में व्यंग्य समेत विविध विधाओं में प्रकाशित होते चले गए और यह सिलसिला निरस्तर विस्तार पा रहा है। बुलाकी शर्मा ने छद्म नामों से भी लिखा है। दैनिक भास्कर बीकानेर में अफलातून नाम से वे लंबे समय तक ‘उलटबांसी’ लिखते रहे हैं। वहीं बीकानेर के ‘विनायक’ समाचार पत्र में ‘तिर्यक की तीसरी आंख’ से लिखा है। प्रसिद्ध व्यंग्यकार हरीश नवल का मानना है- ‘बुलाकी शर्मा का लेखन बहुत आश्वस्त करता है। जैसा स्तरीय लेखन व्यंग्यकार का होना चाहिए, उनका वैसा ही है। उपहास, कटाक्ष, विनोद, हास्य को वे ब्यंजना के प्रभाव से बढ़ाने के लिए भी उपयोग करते हैं।’ यदि हम अन्य व्यंग्यकारों और बुलाकी शर्मा के मध्य तात्विक अंतर करेंगे तो पाएंगे कि उनके व्यंग्य की व्यापकता प्रवृत्तिगत केंद्रीय बिंदु को थामते हुए सधी हुई भाषा में आगे बढ़ा ले जाने में हैं। उन्होंने लोकभाषा और जनभाषा के महत्त्व को अंगीकार करते हुए व्यंग्य में शिल्प में भाषा पर विशेष ध्यान दिया है। व्यंग्यकार लालित्य ललित का कहना है- ‘व्यंग्य के सुपरिचित हस्ताक्षर बुलाकी शर्मा के पास भाषा का ऐसा शिल्प है जो उन्हें अपने समकालीनों से विशिष्ट बनाता है।’
बुलाकी शर्मा हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के अध्येयता रहे हैं, इसलिए उन्हें परंपरा और आधुनिकता का बोध है। किसी भी व्यंग्यकार के लिए जरूरी होता है कि वह अपनी परंपरा को शक्ति के रूप में स्वीकार करते हुए निरंतर आधुनिकता की दिशा में अग्रसर रहते हुए समकालीन साहित्य से सतत परिचय बनाए रखे। यहां उनके नए व्यंग्य संग्रह ‘पांचवां कबीर’ में संकलित व्यंग्य ‘पिता की फ्रेंड रिक्वेस्ट’ की चर्चा करें तो पाएंगे कि व्यंग्य में आधुनिक विषय के साथ बहुत छोटी सी और छद्म सी चिंता पिता और पुत्र के संबंधों के बीच उजागर करते हुए व्यंग्यकार ने रोचकता के साथ हमारी यांत्रिकता और आधुनिक समय की त्रासदी पर प्रकाश डाला है। जिस ढंग से फेसबुक मित्रता आग्रह के एक छोटे से प्रसंग से कथात्मक रूप से संजोया है वह अपने आप में असाधारण व्यंग्य इस लिहाज से बनता है कि आज उत्तर आधुनिकता के समय पीढ़ियों का अंतराल, सभ्यता और संस्कार आदि सभी कुछ उनके इस व्यंग्य से पाठक के सामने केंद्र में आकर खड़े हो जाते हैं। व्यंग्यकार का सबसे बड़ा कौशल यही होता है कि वह अपना निशाना साधते हुए ऐसे पर्खचे उड़ाए कि जब तक पाठक उस अहसास और अनुभूति तक पहुंचे तो उसे भान हो जाए कि बड़ा धमाका हो चुका है। उसे कुछ करना है, यह कुछ करने का अहसास करना ही व्यंग्य की सफलता है। व्यंग्यकार शर्मा के लिए व्यंग्य हमारे समय की विद्रूपताओं को रेखांकित करते हुआ मानव मन में बदलावों के बीजों को अंकुरित करने का एक माध्यम है।
व्यंग्यकार के रूप में बुलाकी शर्मा ने अनेक सामाजिक कुरीतियों पर प्रहार किए हैं। राजनीति हो अथवा समाज-व्यवस्था में उन्हें जहां कहीं गड़बड़-घोटाला नजर आया वे अपनी बात कहने से नहीं चूके हैं। उनके व्यंग्य में उनके अनुभवों का आकर्षण भाषा और शिल्प में देख सकते हैं। वे अपने पाठ में कब अभिधा से लक्षणा और व्यंजना शब्द शक्ति का कमाल दिखाने लगते हैं पता ही नहीं चलता। और जब पता चलता है तब तक हम उसमें इतने आगे निकल आए होते हैं कि पिछली सारी बातें किसी कथा-स्मृति जैसे हमें नए अर्थों और अभिप्रायों की तरफ संकेत करती हुई नजर आती है। ऐसे में विसंगतियों के प्रति संवेदनशीलता और करुणा से हम द्रवित होते हैं। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि वे किसी भी विषय के प्रति बहुत उत्साहित अथवा एकदम निराशा से भरे हुए नहीं हैं। उनके लिए व्यंग्य का विषय उनके स्वयं के व्यवहार जैसा कुशल और मंजा हुआ होता है और उसके निर्वाहन में कोई कमी नजर नहीं आती है। वे अपने आस-पास की कमियों को भी बहुत बार किसी कीर्ति की भांति उल्लेखित करते हैं कि पाठक को सोचने पर विवश होना पड़ता है।
बुलाकी शर्मा के व्यंग्य लेखन के विषय में यह भी उल्लेखनीय है कि उनकी कुछ रचनाएं राजस्थानी से हिंदी और कुछ हिंदी से राजस्थानी में मौलिक रचनाओं के रूप में प्रस्तुत हुई है। जैसे ‘संकट टळग्यो’ राजस्थानी व्यंग्य उनके हिंदी व्यंग्य ‘दुर्घटना के इर्द-गिर्द’ का अनुवाद है और मौलिक रूप से संकलित किया गया है। इसी भांति ‘ज्योतिष रो चक्कर’ व्यंग्य का हिंदी में ‘अंकज्योतिष का चक्कर’ के रूप में प्रस्तुत करना है। किंतु अव उन्होंने विपुल मात्रा में व्यंग्य लिखें है और ऐसे आदान-प्रदान की संख्या बहुत कम है। इसी क्रम में यहां प्रसंगवश उल्लेखनीय है कि उनकी प्रसिद्ध व्यंग्य-कथा ‘प्रेम प्रकरण पत्रावली’ उनके व्यंग्य-संग्रह और कहानी-संग्रह में भी संकलित है। कहानी और व्यंग्य दो विधाएं हैं तो दोनों के अपने-अपने अनुशासन भी हैं, किंतु बुलाकी शर्मा इन दोनों के मध्य के सहयात्री हैं। वे अक्सर कहानी में व्यंग्य लिखते हैं और व्यंग्य में कहानी। इसका एक अनुपम उदाहरण उनका प्रसिद्ध राजस्थानी भाषा में रचित व्यंग्य ‘पूंगी’ है। वे आरंभ तो इसका निबंध के रूप में करते हैं- ‘साब अर सांप री रासी एक है, बियां ई दोनां री तासीर ई एकसरीखी हुवै।’ किंतु बहुत जल्द वे इसे साहब और उनके चापलूस कर्मचारी की कहानी में बदल देते हैं। कहना चाहिए कि कहानी उनके अनुभव में है और व्यंग्य उनके विचार में है। उनका यह शैल्पिक बदलाव अथवा पटरियों को बदलने का उपक्रम कहीं किसी भी स्तर पर पाठक को अखरता नहीं है।
बुलाकी शर्मा सरकारी नौकरी के समय अनेक कार्यालयों से जुड़े रहे। उनकी रचनाओं में दफ्तर के अनेक चित्र प्रस्तुत किए गए हैं। ‘दफ्तर’ नामक व्यंग्य में नए अफसर को काबू में करने की एक कहानी है तो ‘दफ्तर-गाथा’ में चार लघुकथाओं के माध्यम से चार चित्रों की बानगी कार्यालय में होने वाली अनियमितताओं की तरफ संकेत करती है। बुलाकी शर्मा के व्यंग्य में समय, समाज और देश से जुड़ी छोटी-छोटी घटनाओं-प्रसंगों के माध्यम से अपने बदलते रूप और समय से साक्षात्कार किया जा सकता है। ‘नेतागिरी रो महातम’ में बदलती राजनीति और राजनीति से पोषित होते छोटे-बड़े नेताओं को लक्षित किया है तो ‘मिलावटिया जिंदाबाद’ में जैसा कि व्यंग्य के शीर्षक से ही स्पष्ट है कि मिलावट पर राजस्थानी भाषा में व्यंग्य लिखा है। यहां मिलावट पर व्यंग्य लिखते हुए उन्होंने जिस पाचक घी को लक्षित किया है उससे भी सधे हुए शिल्प में उन्होंने हिंदी में एक व्यंग्य लिखते हुए पाचक दूध को लेते हुए मिलावट और बदलते समय पर करारा प्रहार किया है। बुलाकी शर्मा के व्यंग्यकार को यदि किसी एक पुस्तक से जानना हो तो हमें ‘बेहतरीन व्यंग्य’ पुस्तक को पढ़ना होगा जिसमें उनकी अब तक की यात्रा के चयनित और बेहतरीन व्यंग्य संकलित हैं। राजस्थानी के प्रख्यात कवि-संपादक नागराज शर्मा का कहना है- ‘बुलाकी शर्मा व्यंग्य विधा के महारथी, राजस्थानी के सारथी और मानव-मनोविज्ञान के पारखी हैं।’ प्रख्यात व्यंगयकार ज्ञान चतुर्वेदी जी के शब्दों के साथ मैं अपनी बात समाप्त करता हूं- ‘बुलाकी शरम व्यंग्य के उन इने-गिने समकालीन हस्ताक्षरों में से हैं जो चाहें तो भी बेहतरीन के अलावा कुछ लिख नहीं पाते।’
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Sunday, May 01, 2022

राजस्थानी कविता में लोक / डॉ. नीरज दइया

‘सोने री धरती जठै, चांदी रो आसमान ।/रंग रंगीलो रस भरियो, म्हारो राजस्थान।’ स्वर्णिम धोरों की धरती राजस्थान की कीर्ति का लोक-स्वर का ना जाने कब से चला आ रहा है। वर्तमान में राजस्थान भूभाग की दृष्टि से भारत का सबसे बड़ा राज्य है। राजस्थान अपने साहस, वीरता, शौर्य, त्याग और भक्ति के अनेक उदाहरणों से परिपूर्ण और विशिष्ट माना जाता रहा है। अपनी मातृभूमि का यशोगान करते हुए राजस्थानी और हिंदी के महाकवि कन्हैयालाल सेठिया ने लिखा- ‘आ तो सुरगां नै सरमावै,/ ईं पर देव रमण नै आवै,/ ईं रो जस नर नारी गावै,/ धरती धोरां री!’ यही वह धरा है जहां मांड गायिका पद्मश्री अल्लाह जिलाई बाई के स्वर में ‘केसरिया बालम! आओ नीं पधारो म्हारै...’ गीत विख्यात है। यह गीत दुनिया भर को राजस्थान का एक प्रकार का न्योता बन गया है।
राजस्थान की प्रमुख भाषा राजस्थानी है, जो लंबे समय तक हिंदी-अध्येयताओं द्वारा हिंदी की उपभाषा और बोलियों के रूप में वर्णित की जाती रही है और आज भी इसके स्वतंत्र अस्थित्व पर संवैधानिक मान्यता प्रदत्त भाषा नहीं होने से प्रश्नचिह्न बना हुआ है। हिंदी साहित्य का विशाल भवन भाषा-वैज्ञानिक मानकों पर खरी राजस्थानी भाषा की नींव पर खड़ा हुआ है। रासो काव्य परंपरा इसका अकाट्य प्रमाण है। ‘पथ्वीराज रासो’ के मूल में राजस्थानी भाषा का ग्रंथ है और इसको अगर हिंदी भाषा से अलग कर दिया जाए तो हिंदी का आदिकाल कितना क्या रह जाएगा, यह कहने की आवश्यकता नहीं है।
समस्या यह है कि प्रांतीय भाषाओं की भांति हिंदी भाषा का अपना लोक साहित्य है ही नहीं। भारत के समृद्ध, व्यापक और विस्तृत लोक साहित्य में क्षेत्रीय भाषाओं की प्रमुख भूमिका है, जिसमें राजस्थानी का विशिष्ट योगदान है। लोककथा और लोकगीतों की सांस्कृतिक विरासत को सहेजे राजस्थानी कविता अपने आरंभिक काल से ही लोक-जुड़ाव से विकसित हुई है और वर्तमान काल की कविता में यह लोक जुड़ाव अबाध गति से गतिशील और विकसित होते हुए देखा जा सकता है।
राजस्थान के इतिहास को देखेंगे तो हमारे यहां के कवियों ने वीरों के साथ अपनी कर्मस्थली युद्ध के मैदान को माना है। यहां के कवियों ने जहां राज्याश्रय में काव्य और ग्रंथों की रचनाएं की हैं तो साथ ही उन्होंने युद्ध के मैदान में भी उनका साथ निभाते हुए न केवल योद्धाओं का उत्साहवर्द्धन किया है, वरन उनको दिशा भी प्रदान करते रहे हैं। राजस्थान के चारण कवियों को तो कविता के लिए देवी का वरदान रहा है। लोक में अवधारणा है कि चारण कवियों के कंठों पर स्वयं सरस्वती विराजती थी। यहां यह भी रेखांकित किया जाना चाहिए कि डिंगळ काव्य परंपरा अपने नाद-सौंदर्य और शैली के लिए विश्व विख्यात रही है। छंद को साधना और शक्ति-भक्ति के साथ लोक-कल्याण राजस्थानी कविता का उद्देश्य रहा है।
राजस्थान यानी राजाओं और रजवाड़ों की भूमि। राजपूता में राजपूत जाति के साथ विभिन्न उपजातियां रही हैं। वैसे भारतीय उपमहाद्वीप में राजस्थानी लोगों के लिए ‘मारवाड़ी’ अर्थात मारवाड़ क्षेत्र के लोग शब्द प्रयुक्त होता रहा है। मारवाड़ी लोग देश में बुद्धि और व्यापार के लिए विश्व-विख्यात हैं।
राजस्थानी भाषा के संदर्भ में यहां की कविता के लोक जुड़ाव और शब्दावली का एक अनुपम उदाहरण देखें- ‘चार बांस चौबीस गज अंगुल अष्ट प्रमाण, ता उपर सुलतान है मत चूके चौहान!’ यह पंक्तियां राजा प्रथ्वीराज चौहान के दरबारी कवि और मित्र चन्द्र बरदाई की हैं। यह शब्दों का कमाल अथवा उसमें अंतर्निहित गणित कहें कि बंदी राजा पृथ्वीराज चौहान ने अपने शब्दभेदी बाण से सुलतान का वध कर दिया था।
दूसरा उदाहरण मुगलकालीन देखें- जहां कवि पीथल के शब्दों से महाराणा प्रताप का शौर्य पुनः जाग्रत हुआ। ‘पातल जो पतसाह, बोलै मुख हुँता बयण/ मिहर पछम डिसमाह, ऊगे कासप राव उत/ पटकूँ मूंछां पाण, कै पतकुं निज तन करद/ दीजे लिख दीवाण, इण दो महली बात इक।’ भावार्थ यह है कि यदि पातल (महाराणा प्रताप) अपने मुख से अकबर को बादशाह कह दे तो कश्यप का पुत्र सूर्य पश्चिम दिशा में उदय होगा। हे दीवान! मैं गर्व के साथ अपनी मूंछों पर ताव दूं अथवा शर्म से अपने शरीर को तलवार से काटकर मर जाऊं। और हुआ चमत्कार- जिसे हम शब्दों का शौर्य कह सकते हैं। पीथल का पत्र पाते ही महाराणा प्रताप का शौर्य जाग उठा और उन्होंने जबाव में चार पंक्ति कही- ‘तुरक कहासी मुख पतौ, इण तनसूं एकलिंग।/ उगै जांहि ऊगसी, प्राची बीच पतंग।/ खुसी हून्त पीथल कमथ, पटको मूंछां पाण/ पछटंन है जेतै पतौ, कलमां सिर के बाण।/ सांग मुंड सहसी सको, समंजस जहर सवाद।/ भड़ पीथल जीतो भलां, बैण तुरक सूं बाद। भावार्थ यह है कि एकलिंग जी की कृपा से जब तक यह मेरा शरीर है मैं अपने मुख से अकबर को तुरक ही कहूंगा। सूर्य पूर्व दिशा में ही ऊगेगा और हे वीर राठौड़ पृथ्वीराज (पीथल)! तुम प्रसन्नता के साथ अपनी मूंछों पर ताव देते रहो, क्यों कि मेरी तलवार हमेशा शत्रुओं के सिरों को काटती रहेगी।
यहां यह भी उल्लेखनीय है कि कवि और कला की यह कीर्ति है कि अकबर की व्यथा इस दोहे के रूप में देख सकते हैं- ‘पीथल सूं मजलिस गई तानसेन सूं राग।/ हंसबो रमिबो बोलबो गयो बीरबर साथ॥’
राजस्थान में रूठी रानी के नाम से विख्यात उमादे के विषय में एक प्रसंग चर्चित रहा है कि कवि आशानंद के साथ जब रूठी रानी उमादे अपने पति राजा मालदेव के पास जोधपुर चलने हेतु हठ त्याग कर प्रस्थान कर चुकी होती है तो जोधपुर के रास्ते में एक जगह रानी कवि आशानंद से मालदेव और दासी भारमली के बारे में पूछती है तो कवि का दो पंक्तियों का यह दोहा पासा पलट देता है। ‘माण रखै तो पीव तज, पीव रखै तज माण।/ दो दो गयंद न बंधही, हेको खम्भु ठाण।।’ भावार्थ यह कि मान-सम्मान रखना है तो पति को त्याग दे और पति को रखना है तो मान-सम्मान को त्याग देना होगा। किंतु दो-दो हाथियों को एक ही स्थान पर बांधना असंभव है। यहां कवि ने अपना कवि धर्म निभाया वह रूठी रानी को मना कर जोधपुर ले कर जा रहा था कि बीच रास्ते उसी के शब्दों का असर यह हुआ कि रानी उमादे पुनः रोषाग्नि से भर उठी और पुनः रूठ कर सदा के लिए लौट गई।
यहां कविता के इन दोनों प्रसंगों और संदर्भों के साथ यह वर्णित किया जाना बेहद जरूरी है कि आधुनिक काल के प्रमुख कवि कन्हैयालाल सेठिया ‘पातल’र पीथल’ कविता में महाराणा प्रताप और पीथल के प्रसंग को वाणी देते हैं, सत्यप्रकाश जोशी ‘बोल भारमली’ काव्य कृति के माध्यम से रूठी रानी के साथ उसी की सहेली-दासी भारमली के माध्यम से नारी चेतना और अस्मिता का प्रश्न उठाते हैं। कवि-नाटककार अर्जुनदेव चारण भी अपनी काव्य कृति ‘अगनसिनान’ में रूठी रानी ‘उमादे’ पर उसकी व्यथा और कवि के प्रसंग को नवीन संदर्भों में अपनी कविता का विषय बनाते हैं।
राजस्थानी कविता में लोक विषय में गहरे प्रवेश से पूर्व हम लोक शब्द पर किंचित विचार करें तो डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार- “‘लोक’ शब्द का अर्थ ‘जनपद’ या ‘ग्राम्य’ नहीं है, बल्कि नगरों और ग्रामों में फैली हुई वह समूची जनता है, जिनके व्यावहारिक ज्ञान का आधार पोथियां नहीं हैं।” इसी प्रकार डॉ. कृष्णदेव उपाध्याय का मानना है- ‘‘जो लोग संस्कृत या परिष्कृत वर्ग से प्रभावित न होकर अपनी पुरातन स्थितियों में ही रहते हैं, वे ‘लोक’ होते हैं।’’ डॉ. श्याम परमार ने कहा है- ‘‘आधुनिक साहितय की नूतन प्रवृत्तियों में ‘लोक’ का प्रयोग गीत, वार्ता, कथा, संगीत, साहित्य आदि से युक्त होकर, साधारण जन-समाज जिसमें पूर्व संचित परंपराएं, भावनाएं, विश्वास और आदर्श सुरक्षित हैं तथा जिसमें भाषा और साहित्यगत सामग्री ही नहीं, अपितु अनेक विषयों के अनगढ़ किंतु ठोस रत्न छिपे हैं, के अर्थ में होता है।’’ वहीं डॉ. श्री राम शर्मा का कहना है- ‘‘‘लोक’ शब्द उस विशेष जनसमूह का वाचक है, जो साज-सज्जा, सभ्यता, शिक्षा, परिष्कार आदि से दूर आदिम मनोवृत्तियों के अवशेषों से युक्त परिधि को समाविष्ट करता है।’’ विद्यानिवास मिश्र के अनुसार- ‘लोक शब्द की उत्पत्ति ‘लुच’ धातु से हुई है, जिसका अर्थ है प्रकाशित होना एवं प्रकाशित करना। जो सामने प्रकाशित हो रहा है और जो सामने दिख रहा है।’ (लोक और लोक का स्वर : पृष्ठ- 11)
‘लोक’ शब्द जिसके लिए अंग्रेजी में ‘FOLK’ शब्द है और जिसके अर्थ के लिए लिखा गया है- ‘‘एक विशाल समानुपाति लोगों का वैसा समूह जो समूह की विशेषताओं को निर्धारित करता है और सभ्यता के विशिष्ट रूप एवं उसकी रीति-रिवाज, कला और शिल्प, किवदंतियां, परंपराओं और विश्वासों को पीढ़ी दर पीढ़ी संरक्षित करता है।’’ सीधे और सरल शब्दों में कहे तो कविता में ‘लोक’ का अभिप्राय ‘जन साधारण’ से है। ‘लोक’ एक विशेष जनसमूह है, जो आदिकाल से ही अपने अनुभव से प्राप्त ज्ञान, परंपराओं, विश्वास, भाषा, संस्कृति, धर्म एवं आदर्शों को संरक्षित कर अपने समुदाय के बीच पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित कर रहा है।
‘लोक’ शब्द के व्युत्पत्तिमूकल और परिभाषित अर्थ के लिए अनेक विद्वानों ने अपने ग्रंथों में बहुत कुछ लिखा है, जिससे यह स्पष्ट होता है कि ‘लोक’ शब्द को किसी निश्चित अर्थ अथवा व्याख्या की परिधि में बांधा नहीं जा सकता है। शायद इसका बड़ा कारण यह भी है कि ‘लोक’ को विशेषण के रूप में प्रयुक्त करते हुए हमारे यहां गढ़े गए पदों की बहुलता है। संभवतः इसी कारण ‘लोक’ शब्द में अर्थ वैविध्य और विस्तार की अनेक दिशाएं साथ-साथ चलती रही और कहें जुड़ती जा रही हैं। वैसे ‘लोक’ के व्यापक अध्ययन, मनन और चिंतन के बाद भी इसके अध्ययन की अत्यंत आवश्यक है, इसके बिना किसी भी प्रकार के ज्ञान को परिपूर्ण नहीं कहा जा सकता है।
लोक साहित्य और शिष्ट साहित्य की श्रेणी की बात करने से पूर्व भाषा विकास की बात करनी चाहिए। ‘ऋगवेद’ को यदि लिखित साहित्य का पहला प्रमाण कहें, तो कहना होगा कि लोक शब्द उस काल और उससे पहले भी प्रचलन में रहा है। इसका प्रमाण है कि लोक शब्द वेदों में प्रयुक्त हुआ है। वेद से उपनिषद ग्रंथों, महाभारत, गीता आदि में लोक शब्द और उसके बदलते विविध रूपों को देखा जा सकता है। सम्राट अशोक के शिलालेखों में ‘लोक’ शब्द समस्त प्रजा के भाव में प्रयुक्त हुआ है। वहां ‘लोक’ और ‘जन’ शब्द समानार्थी भाव में प्रयुक्त हुए हैं। जैसा कि सर्वविदित है कि राजस्थानी कविता के खाते में ‘पृथ्वीराज रासो’ जैसे महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है तो साथ ही चारण कवि शिवदास गाडण द्वारा रचित ‘अचलदास खींची री वचनिका’ जैसा बेजोड़ और अद्वितीय ग्रंथ भी है। चंपू काव्य वचनिका में मांडू के सुल्तान हुशंगशाह व गागरौन के शासक अचलदास खींची के मध्य हुए युद्ध (1423 ई.) की जानकारी मिलती है। तुकांत गद्य और दूहा काव्य का वचनिका में सुंदर प्रयोग हुआ है। राजस्थानी में वेलि काव्य परंपरा भी मिलती है और ‘वेलि क्रिसन रुक्मणी री’ (पृथ्वीराज राठौड़) को तो पांचवा वेद कहा गया है। लोक में प्रेम के आख्यान को ‘ढोला मारू रा दूहा’ में देख सकते हैं तो ‘हाला झाला रा कुंडळिया’ के कवि ईसरदास को तो ‘ईसरा सो परमेसरा’ की संज्ञा से लोक ने विभूषित किया। कवि ईसरदास को परमेश्वर कहना राजस्थानी कविता का ही नहीं वरन भारतीय कविता का सम्मान है। मध्यकाल में कवियों के सम्मान में ‘पसाव’ होते थे जिसमें कवियों को धन-दौलत प्रदान कर राजा के साथ जनमानस अपनी भावनाओं को प्रकट करता था।
महिला स्वर की बात करें तो मीरा की तुलना किसी भी भारतीय अथवा वैश्विक कवयित्री से की जा सकती है। अपने आराध्य कृष्ण को पति के रूप में पूजते हुए मीरा ने मध्यकाल में लोक को भक्ति के मार्ग पर बढ़ने का संदेश दिया वहीं अपने जीवन चरित्र से यहां की औरत जाति के समक्ष सामाजिक स्वतंत्रता एक आदर्श उदाहरण प्रस्तुत किया। समाज की संरचना में नर और नारी का सामूहिक अनुपात होने से ही उसकी संपूर्णता हो सकती है यह रेखांकन मीरा की कविता में निहित है। राजस्थानी लोक को कविता ने संस्कारित करने का कार्य किया। शिक्षा और संस्कार के साथ समाज निर्माण में जैन साहित्य की अद्वितीय भूमिका स्वीकार की जाती है। राजस्थानी का विशाल जैन साहित्य देखते हैं तो यहां की धरा पर तप और त्याग के साथ जैन मुनियों ने जन कल्याण को केंद्रीय सूत्र के रूप में ग्रहण करते हुए अनेक रचनाएं लिखी हैं। कविता जहां स्वांत:सुखाय रही है, वहीं वह लोक कल्याण और जन-जाग्रति का उद्देश्य लेकर चली है।
राजस्थान का सांस्कृतिक जीवन ऐसा है कि जिसमें जीवन के प्रत्येक प्रसंग से जुड़े हुए लोकगीत है। यहां जन्म, मरण और विवाह के साथ जीवन के हर रंग में लोक गीतों से हर्ष और विषाद को अभिव्यक्ति मिली है। नायक नायिका का मिलन और विरह गीतों से भरा हुआ है। अपनी प्राकृति और पर्यावरण को अपने जीवन दिनचर्या में शामिल करते हुए यहां का लोक जीवन और जीजीविषा से भरा हुआ है। अकाल की मार पर मार सकते हुए भी लोग हिम्मत हार कर बैठने वाले नहीं है। जल संकट के उपरांत भी मुख्य कार्य खेती रहा है। अभावों में जीवन जीने वाले यहां के मानवी कभी काम करते हुए गीत गाते हैं तो कभी खाली बैठे बैठे गीत गाते हैं। गीत उनकी दिनचर्या और जीवन का अहम हिस्सा है। बिना गीतों के यहां के जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती है। समृद्ध लोकगीत और लोक साहित्य मन को बिलमाने के साथ-साथ जीवन को रंगों से भर देते हैं। लोक साहित्य की बात करते हुए यहां कहना चाहिए कि जिस भाषा का लोक साहित्य समृद्ध होगा उसका शिष्ट साहित्य भी निसंदेह समृद्ध और विशिष्ट ही होगा। परंपरा ही जड़ें पोषित करती हैं, जिस के बल पर आधुनिक साहित्य की संरचना होती है।
डॉ. आईदान सिंह के अनुसार- ‘‘राजस्थानी कविता का इतिहास और उसकी जड़े हमें ‘अपभ्रंश’ के दोहों में मिलती है। इसका विकास ही आधुनिक रूप में दोहा साहित्य के रूप में सामने आता है। लौकिक काव्य ‘ढोला मारू रा दूहा’ इसी अपभ्रंश के दूहा काव्य का विकास है। कालांतर में राजस्थानी का एक भाषा रूप डिंगल काव्य के रूप में विकसित हुआ, जिससे हमारी आज की हिंदी का आदिकाल विकसित हुआ। इस डिंगल के मध्यकाल की सुप्रसिद्ध कृति ‘वेलि क्रिसन रुकमणी री’ सुप्रसिद्ध है। इसी मध्यकाल में भक्त कवयित्री मीरा की वाणी ने राजस्थानी साहित्य को एक विशेष ऊंचाई प्रदान की। इस तरह चन्द्रबरदाई का ‘पृथ्वीराज रासो’, भक्त कवयित्री मीरा की वाणी और पृथ्वीराज राठौड़ की ‘वेलि क्रिसन रुकमणी री’ की त्रयी हिंदी संसार में राजस्थानी का प्रतिनिधित्व करने के लिए सुख्यात रही है।’’ (समकालीन साहित्य-दृष्टि, पृष्ठ - 129)
अगर हम भारत के स्वतंत्रता संग्राम की बात करें तो अंग्रेजी राज के विरूद्ध सर्वप्रथम लोक में अपनी वाणी से कवि बांकीदास आसिया (1771–1833) ने आह्वान किया जिसे हम एक कवि की कविता के माध्यम से ललकार कह सकते हैं। क्योंकि 1857 के गदर से 52 वर्ष पूर्व अर्थात 1805 ई. में ‘चेतावणी रो गीत’ लिखकर राजस्थान के राजाओं को जैसे फटकार लगाते हुए अंग्रेजी राज की कुचालों से सावधान किया था- ‘आयो अंगरेज मुलक रै ऊपर/ आहंस लीधी खैंच उरां।/ धणियां मरै न दीधी धरती/ धणियां ऊभा जाय धरा॥’ (भावार्थ यह है कि अंग्रेज नामक शैतान हमारे देश पर चढ़ आया है। देश रूपी शरीर की समग्र चेतना को उसने अपने खूनी अधरों से सोख लिया है। इससे पहले यह धरती स्वामियों ने मर कर भी धरती के दुशमनों के हवाले नहीं की और आज यह स्थिति आ गई है कि इस धरती के स्वामी जिंदा है और उनके हाथों से धरती चली गई है।) कविराजा बांकीदास की बेबाकी देख सकते हैं- ‘महि जातां चींचातां महलां/ ऐ दुय मरण तणा अवसाण।/ राखो रे कैहिक राजपूती/ मरदां हिंदू कै मुसळमाण।’ (भावार्थ यह है कि इस भांति मरने के अच्छे अवसर जीवन में केवल दो बार ही मिलते हैं पहला तो उस समय जब व्यक्ति का जिंदा रहना व्यर्थ हो जाता है जब देश की धरती कोई विदेशी हथियाना चाहता है और दूसरा उस समय मरना जरूरी हो जाता है जब दुख में पड़ी हुई किसी अबला की करुण चीत्कार सुनाई दे। देश और जननी की रक्षा करना किसी जाति विशेष की बपौति नहीं है। आज देश पर भयानक विपत्ति छाई हुई है। अरे तुम मनुष्य हो, कुछ तो वीरता दिखलाओ। देश की आजादी के लिए क्या हिंदू और क्या मुसलमान अर्थात सब आदमी जाति वर्ग भेद से परे देश और समाज के लिए बराबरा है।)
महाकवि सूर्यमल्ल मीसण (1815-1868) की राजस्थानी कविता में अमिट कीर्ति रही है। उनकी पंक्तियां है- ‘इळां नै देणी आपणी, हालरियै हुलराय।/ पूत सिखावै पालणै,/ मरण बड़ाई मांय॥’ अर्थात हमारे यहां तो बाल्यकाल से ही युद्ध की शिक्षा मां के द्वारा दी जाती रही है। जन्म के साथ ही युद्ध में लड़कर मरने और वीरता-साहस की यह अद्भुत वाणी राजस्थानी भाषा में ही संभव है। राजस्थानी कविता कपोल कल्पना और किसी वायवी दुनिया के चित्र प्रस्तुत नहीं करती है वह तो जनमानस की अभिव्यक्ति है। यहां का कवि देश और समाज की चिंता करता है। वह चाहता है कि व्यक्ति अपने व्यसनों से मुक्त हो।
राष्ट्र और समाज हित की संकल्पना यहां के कविता में अभिव्यक्त होती रही है। आधुनिक कविता का सूत्रपात कवि गणेशीलाल व्यास ‘उस्ताद’ (1907-1965) से माना जाता है। देश की आजादी के बाद के मोहभंग को कवि उस्ताद इस प्रकार प्रस्तुत करते हैं- ‘इण दिस सुख री पड़ी न झांई/ राज बदळग्यौ म्हांनै कांई’ अथवा ‘लोग कैवै सोनै रो सूरज ऊग्यो,/ पण कठै गयो परकास/ हाथ हाथ नै खावण दौड़ै/ किण री राखां आस।’ उस्ताद ने लिखा है- ‘गायक एक दिन मर जासी, पण ऐडा गीत बणासी।/ जन जन रे कंठा रमसी, पीढ़ी दर पीढ़ी गासी।।/ आ काया तो कवि री है, पण जनता री युगवाणी है।/ आ जनकवि री जुगवाणी, आ कदैई न चुप रह जाणी।’
राजस्थानी कविता-यात्रा की विशद विवेचना करते हुए डॉ. अर्जुन देव चारण ने लिखा- ‘‘आजादी के बाद राजस्थानी कविता में जहां विचारों का बदलाव देखने को मिलता है वहीं शिल्पगत बदलाव भी देखने को मिलता है। अभी तक जो राजस्थानी कविता छंद को संभाले खड़ी दिखाई देती थी उसने जल्द ही स्वयं का आवरण त्याग दिया। छंदों की लहरें कुछ वर्षों तक तो साथ चलती रही पर फिर धीरे-धीरे मंद पडऩे लगी। नारायणसिंह भाटी की ‘दुर्गादास’ और सत्यप्रकाश जोशी की ‘राधा’ दो महत्त्वपूर्ण रचनाएं हैं जिनके बल पर हम राजस्थानी कविता के इस बदलते स्वरूप को पहचान सकते हैं। आजादी के बाद इन दोनों पुस्तकों का स्थाई महत्त्व है। ‘दुर्गादास’ जहां शिल्पगत बदलाव को स्वीकारती दिखाई देती है वहीं ‘राधा’ उससे भी एक कदम आगे डग भरती शिल्प के साथ पूरी काव्य पंरपरा के भाव को बदलती दिखाई देती है।’’ (साख भरै सबद, पृष्ठ -16)
अपनी कविता में तेजसिंह जोधा ने हमें भाषा, भरोसे और सांसों के संबंध में एक चेतावनी दी थी। सर्प अब भी कुंडली साधे भाषा पर बैठा है और हमारी सांसें किसी भरोसे चल रही है-
बाद में
जब यह
पूंछ का फटकारा देकर जाएगा
तब तुम्हें देश और
आजादी का अर्थ समझ आएगा
अफसोस! कि देरी हो जाएगी
बहुत देरी हो जाएगी!
(‘पीवणा सांप’ कविता से)
जीवन को लेकर प्रत्येक व्यक्ति का अलग-अलग दृष्टिकोण होता है। एक ही वर्ण के विभिन्न शब्दों में प्रत्येक भावक का निहितार्थ और उद्देश्य भिन्न-भिन्न हो सकता है। ‘क’ वर्ण के शब्दों से जुड़ी अपनी कविता में कवि सांवर दइया ने लिखा- पिता की जिंदगी में पीड़ा-/ क से कर्ज/ मां की आंखों में सपने/ क से कमाई/ भाईयों के लिए भविष्य/ क से कमठाणा (यानी मकान बनाने का काम)/ मेरे लिए-/ क से कविता। (कविता संग्रह- ‘आखर री आंख सूं’ से) यह हमारे लोक में जहां चयन के अवसरों की अभिव्यक्ति है वहीं साहित्य से समाज के जुड़ाव को भी यहां देख सकते हैं।
राजस्थानी कविता ने अपना पारंपरिक स्वरूप भी संभाले रखा और अनेक स्तरों पर वह आधुनिक हुई। देश-काल-परिस्थितियां साहित्य को प्रभावित करती हैं। किसी आकलन के लिए जरूरी होता है कि हम अपनी दृष्टि किसी निर्धारित निश्चित बिंदु अथवा कोण पर समायोजित करें और रचना के भीतर अंत तक जाएं। स्वयं रचना और रचनाकर भी देखने-परखने की दृष्टि और नजरिया देते हैं।
नंद भारद्वाज के अनुसार- ‘‘असली सवाल लेखक की जीवन-दृष्टि का होता है कि आम लोगों और पीडि़त वर्ग के प्रति उसके सृजन का रिश्ता और असली रवैया क्या सामने आता है, जिससे उसके लेखन की दिशा और दृष्टि का खुलासा होता है।’’ (अपरंच : जनवरी-मार्च, 2012, पृष्ठ - 13)
कवि और साहित्यकार अपने लोक में जन-चेतना का संचार करते हैं। वे समाज को बौद्धिक और वैचारिक स्तर पर मजबूत बनाते हैं। राजस्थानी कविता में अनेक ऐसे कवि और कविताएं है जिनमें बिना घुमाए-फिराए सीधे मुद्दे की बात हुई है। कविता केवल मनोरंज अथवा प्रकृति के रंगों की अभिव्यक्ति का माध्यम नहीं है वह लोक में जीवन जीने और उसके विकास के अनेक आयामों से स्वयं को जोड़ती है। कवि अम्बिकादत्त लिखते हैं- आप कहते हैं-/ पैर उतने ही पसारें/ जितनी लंबी हो चादर/ मैं पूछता हूं-/ चादर इतनी लंबी क्यों नहीं बनाते/ कि पैर आराम से फैला सकें। (कविता- सावल, ‘रेत में नहाया है मन’ से)
गांव और ग्रामीण समाज को जिस ढंग से कवि नंद भारद्वाज अपनी कविताओं में लोक जीवन की शब्दावली के साथ उठाते हैं, वह अनुकरणीय है। वे देश की आजादी के बाद बदलते लोकचित्त की गहरी समझ रखते हुए अपनी कविताओं में संस्कारों और लोक मान्यताओं की बातों के साथ बदलते परिवेश को शब्द देते हैं। इन कविताओं में अपने बच्चों के भविष्य के लिए जूझते पिता की लाचारी है, तो बच्चों के मासूस सवाल भी हैं। उनकी एक कविता की पंक्तियां देखें -
उसकी आंखों के आगे घूमती है
बच्चे की इच्छाएं
और सवालों से जूझता है उसका मन
आखिरकार कांपते पैरों
वह चल पड़ता है अपने आप उसी मार्ग
जो एक अन्तहीन जंगल में खो जाता है!
सिर्फ कानों में गूंजती रहती है
बच्चे की कांपती आवाज -
- आप ऐसे अनमने किधर जा रहे हैं पिताजी।
दोपहर हमें शहर जाना है -
मुझे आजादी की परेड में हिस्सा लेना है
आप ऐसे बिना कुछ कहे कहां जा रहे हैं पिताजी?
(‘बच्चे के सवाल’ कविता से)
बहुत सहजता-सरलता से कविता में साधारण-सा विषय उठाते हुए उसे असाधारण अर्थ-बोध की दिशा में ले जाना कवि मोहन आलोक की कविताओं की विशेषता है। वे रचना को मौलिकता और अद्वितीय आधार पर परखे जाने की पैरवी करते हैं- ‘‘लेकिन वह रचना/ जैसी भी होती है/ जो भी होती है/ पूरी होती है।/ कोई भी रचना/ किसी अन्य रचना के सदृश्य/ कब जरूरी होती है?’’
कवि चंद्रप्रकाश देवल अपनी लोक भाषा के स्तर पर बेहद सजग और महत्त्वपूर्ण कवि हैं। आस-पास की अनेक चीजों को वे सर्वथा नवीन दृष्टि से देखने का उपक्रम करते हुए कविता के लोक में हमारे दृश्य-संसार को विस्तारित करते हैं। भारतीय लोक में भाल पर तिलक करने की परंपरा सर्वत्र है, किंतु साधारण से प्रतीत होने वाले इस घटनाक्रम में कुमकुम, चावल और उस डिबिया को जिस प्रेम पगी दृष्टि से कवि देवल देखते हैं उस दृष्टि से शायद ही अन्य कवि ने देखा होगा।
नित्य हमेशा अलग-अलग पड़े
अपनी-अपनी डिबिया में
करते इंतजार
अंगुली, अंगूठा, पानी और थाली का मिलना
प्रीत भी किन-किन चीजों की मोहताज है
(‘सदा रहता इंतजार’ कविता से)
भारतीय कविता के अंतर्गत प्रादेशिक भाषाओं के मामले में राजस्थानी कविता को हिंदी में केवल दो संपादित संग्रहों- ‘आधुनिक भारतीय कविता संचयन’ (राजस्थानी) संपादक नंद भारद्वाज और ‘रेत में नहाया है मन’ संपदक नीरज दइया द्वारा देखा जा सकता है। जबकि वर्तमान में राजस्थानी भाषा में अनेक कवि सक्रिय हैं जो भारतीय कविता के लोक को राजस्थानी भाषा के माध्यम से अपनी पहचान देने में सक्रिय है। राजस्थानी कविता में अंतर्निहित लोक भारतीय कविता के लोक का वह अंश है जिसके बिना भारतीय कविता के लोक की कल्पना अधूरी है। हमारे प्रांत और प्रांतीय भाषाओं की कविताओं की अपनी अलग रंगत है जिनमें उस क्षेत्र विशेष की विशिष्टताओं के साथ कुछ ऐसी झांकियां और झलकियां भी देख सकते हैं जो केवल और केवल उस क्षेत्र की अनुभूतियों से ही संभव है।
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साहित्य यात्रा के जनवरी-मार्च, 2022 अंक में ‘राजस्थानी कविता में लोक’ आलेख को स्थान देने के लिए संपादक प्रो. कलानाथ जी मिश्र का बहुत बहुत आभार।










 
 

डॉ. नीरज दइया की प्रकाशित पुस्तकें :

हिंदी में-

कविता संग्रह : उचटी हुई नींद (2013), रक्त में घुली हुई भाषा (चयन और भाषांतरण- डॉ. मदन गोपाल लढ़ा) 2020
साक्षात्कर : सृजन-संवाद (2020)
व्यंग्य संग्रह : पंच काका के जेबी बच्चे (2017), टांय-टांय फिस्स (2017)
आलोचना पुस्तकें : बुलाकी शर्मा के सृजन-सरोकार (2017), मधु आचार्य ‘आशावादी’ के सृजन-सरोकार (2017), कागद की कविताई (2018), राजस्थानी साहित्य का समकाल (2020)
संपादित पुस्तकें : आधुनिक लघुकथाएं, राजस्थानी कहानी का वर्तमान, 101 राजस्थानी कहानियां, नन्द जी से हथाई (साक्षात्कार)
अनूदित पुस्तकें : मोहन आलोक का कविता संग्रह ग-गीत और मधु आचार्य ‘आशावादी’ का उपन्यास, रेत में नहाया है मन (राजस्थानी के 51 कवियों की चयनित कविताओं का अनुवाद)
शोध-ग्रंथ : निर्मल वर्मा के कथा साहित्य में आधुनिकता बोध
अंग्रेजी में : Language Fused In Blood (Dr. Neeraj Daiya) Translated by Rajni Chhabra 2018

राजस्थानी में-

कविता संग्रह : साख (1997), देसूंटो (2000), पाछो कुण आसी (2015)
आलोचना पुस्तकें : आलोचना रै आंगणै(2011) , बिना हासलपाई (2014), आंगळी-सीध (2020)
लघुकथा संग्रह : भोर सूं आथण तांई (1989)
बालकथा संग्रह : जादू रो पेन (2012)
संपादित पुस्तकें : मंडाण (51 युवा कवियों की कविताएं), मोहन आलोक री कहाणियां, कन्हैयालाल भाटी री कहाणियां, देवकिशन राजपुरोहित री टाळवीं कहाणियां
अनूदित पुस्तकें : निर्मल वर्मा और ओम गोस्वामी के कहानी संग्रह ; भोलाभाई पटेल का यात्रा-वृतांत ; अमृता प्रीतम का कविता संग्रह ; नंदकिशोर आचार्य, सुधीर सक्सेना और संजीव कुमार की चयनित कविताओं का संचयन-अनुवाद और ‘सबद नाद’ (भारतीय भाषाओं की कविताओं का संग्रह)

नेगचार 48

नेगचार 48
संपादक - नीरज दइया

स्मृति में यह संचयन "नेगचार"

स्मृति में यह संचयन "नेगचार"
श्री सांवर दइया; 10 अक्टूबर,1948 - 30 जुलाई,1992

डॉ. नीरज दइया (1968)
© Dr. Neeraj Daiya. Powered by Blogger.

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