व्यंग्य विधा में बुलाकी शर्मा विगत चालीस-पैंतालीस वर्षों से निरंतर सक्रिय है। उन्हें राजस्थानी कहानीकर के रूप में साहित्य अकादेमी के मुख्य पुरस्कार (2016) और राजस्थानी भाषा साहित्य एवं संस्कृति अकादमी के गद्य पुरस्कार (1996) से सम्मानित किया गया है, वहीं व्यंगकार के रूप में वे राजस्थान साहित्य अकादेमी (1999) से सम्मानित हुए हैं। वैसे वे बाल साहित्य, अनुवाद, संपादन और समीक्षा के क्षेत्र में भी सक्रिय रहे हैं। ‘बजरंग बली की डायरी’ व्यंग्य के माध्यम से चर्चा में आए बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी बुलाकी शर्मा (1957) की व्यंग्य विधा में सक्रियता का ही परिणाम है कि उनके हिंदी और राजस्थानी भाषा में अब तक दस व्यंग्य संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं-
1. कवि, कविता अर घरआळी (राजस्थानी) 1981
2. दुर्घटना के इर्द-गिर्द 1997
3. इज्जत में इजाफो (राजस्थानी) 2000
4. रफूगीरी का मौसम 2008
5. चेखव की बंदूक 2015
6. आप तो बस आप ही हैं! 2017
7. टिकाऊ सीढ़िया उठाऊ सीढ़िया 2019
8. बेहतरीन व्यंग्य 2019
9. पांचवां कबीर 2020
10. आपां महान (राजस्थानी) 2020
राजस्थानी भाषा को तीन और हिंदी को सात व्यंग्य-संग्रह देने वाले बुलाकी शर्मा हमारे समय के मौन साधक हैं। वे अपने मित्रों के विषय में बहुत और अपने विषय में बहुत कम कहते-बतियाते हैं। चुटीली व्यंग्य-मुद्रा वाले बुलाकी शर्मा के विषय में माना जाता है कि उनके व्यंग्य एक गहरी सामाजिक करुणा-दृष्टि से पोषित होते हैं। वरिष्ठ कथा-शिल्पी यादवेंद्र शर्मा का कहना था- ‘व्यंग्य विधा में बुलाकी शर्मा की विशिष्ट पहचान है। आम आदमी की स्थितियां, उसके सुख-दुख, उसकी लाचारी एवं उसका संघर्ष उनकी व्यंग्य रचनाओं में मार्मिकता से उद्घाटित हुआ है।’ यहां यह भी उल्लेख करना आवश्यक है कि बुलाकी शर्मा ने अनेक समाचार-पत्रों में लंबे समय तक स्तंभ लेखन भी किया है और व्यंग्य विधा में उनका विपुल लेखन है। वे अपने सभी व्यंग्य जो स्तंभ के रूप में यत्र-तत्र लिखे गए हैं, संग्रह के रूप में संकलित करना जरूरी नहीं मानते हैं। उन्होंने केवल चयनित व्यंग्य ही अपने विभिन्न संग्रहों में प्रस्तुत किए हैं। स्व-चयन का यह जरूरी घटक हम सभी व्यंग्यकारों में नहीं पाते हैं। बहुत से व्यंग्य तत्कालीन स्थितियों पर समय की आवश्यकता को ध्यान में रख कर लिखे जाते हैं अथवा अखबार और खास अवसर की जरूरत के मध्यनजर लिखे जाते हैं। साथ ही व्यंग्य व्यंग्यकार को अपनी यात्रा के विकास के रूप में भी चिंतन करना चाहिए कि वह समय के साथ किसी विधा को क्या कुछ दे रहा है। अनेक घिसे-पिटे और बार बार दोहराए जाने वाले विषयों पर निरंतर लिखा तो जा सकता है किंतु वे व्यंग्य विधा अथवा स्वयं व्यंग्यकार के विकास के ग्राफ को कहां ले जाते हैं? इसका आकलन भी जरूरी होता है। जाहिर है इन सब से बचना कठिन है किंतु इसको ध्यान में रख कर आगे बढ़ने वाले व्यंग्यकारों में बुलाकी शर्मा का नाम प्रमुख है। संग्रहों के संख्यात्मक आंकड़ों की बाजय सदा गुणवत्ता में विश्वस करने वाले शर्मा के लेखन पर मैंने ‘बुलाकी शर्मा के सृजन-सरोकार’ पुस्तक में उन्हें राजस्थानी व्यंग्य विधा के परसाई कहा है तो इसलिए कि वे राजस्थानी भाषा में पहले ऐसे व्यंग्यकार है जिनके प्रथम संग्रह से स्वतंत्र रूप से व्यंग्य पुस्तकों का आरंभ होता है।
वरिष्ठ व्यंग्यकार अरविंद तिवारी ने बुलाकी शर्मा के विषय में लिखा है- ‘राजस्थान के चर्चित व्यंग्यकार बुलाकी शर्मा का लेखन आम आदमी के इर्द-गिर्द घूमता है। राजस्थान के जिन व्यंग्यकारों ने राष्ट्रीय स्तर पर अपनी विशिष्ट पहचान बनाई है, बुलाकी शर्मा उनमें से एक हैं। बुलाकी शर्मा के व्यंग्य में जहां विषय की विविधता है, वहीं प्रहार करने की क्षमता देखते बनती हैं।’ उनकी व्यंग्य-यात्रा में प्रमुख पात्र सुखलाल जी ने उनका बहुत सहयोग किया है। स्वयं बुलाकी शर्मा अपने व्यंग्य आलेखों में भोले और मासूम बनते हुए अपने प्रिय पात्र सुखलाल जी के माध्यम से बहुत-सी बातें कहते और कहलवाते हैं। उनकी प्रमुख शैली प्रश्न-प्रतिप्रश्न रही है, साथ ही अब तक की व्यंग्य-यात्रा में उनका कहानीकार होना भी व्यंग्य में उनको बारबार कहानी के शिल्प की तरफ आकर्षित करता रहा है। व्यंग्य में कथा-रस ही वह घटक है जो उनके पठनीय से और अधिक पठनीय बनाता है। बकौल व्यंग्यकार सुभाष चंदर- ‘बुलाकी शर्मा हिंदी व्यंग्य का एक महत्त्वपूर्ण नाम है। उन्होंने व्यंग्य के सभी रूपों में अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज करवाई है पर उनके रचनाकार का सर्वश्रेष्ठ रूप व्यंग्य कथा में देखने को मिलता है। वे प्रसंग वक्रता का बेहतरीन निर्वाह करते हैं।’
बुलाकी शर्मा के भाषा पक्ष की बात करें तो छोटे-छोटे वाक्यों और संवादों के माध्यम से वे मार्मिकता और चुटिलेपन के साथ विविधता को साधते हुए हमें हमारे आस-पास की अनेक समस्याओं के भीतर-बाहर ले जाते हुए विद्रूपताओं को उजागर करते हैं। वरिष्ठ व्यंग्यकार सुरेश कांत उनके विषय में लिखा है- ‘बुलाकी शर्मा ने अपने व्यंग्य संग्रह चेखव की बंदूक में राजनीतिक छद्मों, सामाजिक प्रपंचों, आर्थिक विसंगतियों, दफ्तरी दावपेंचों, वैचारिक दो-मुंहपने आदि विभिन्न पहलुओं को अपनी व्यंग्य की जद में लिया है, किंतु जहां उनका मन सर्वाधिक समा है वह है भाषा और साहित्य जगत की विसंगतियों का क्षेत्र।’ यह सही भी है कि उनकी व्यंग्य यात्रा में यह भी रेखांकित किए जाने योग्य है कि वे बार-बार व्यंग्य की धार से स्वयं को भी लहू-लूहान करने से नहीं चूकते हैं। जहां कहीं अवसर मिलता है वे स्वयं व्यंग्य में घायल सैनिक की भांति हमारे सामने तड़फते हुए हमें स्वचिंतन के लिए विवश करते हैं। ‘पांचवां कबीर’ व्यंग्य संग्रह साहित्य और समाज के दोहरे चरित्रों को खोलते हुए व्यंग्य-बाणों से भरपूर प्रहार करने में समर्थ है। साहित्य और साहित्यकारों पर केंद्रित शीर्षक व्यंग्य में साहित्यिक नामों की फतवेबाजी से हो रही पतनशीलता के साथ दोहरे चरित्रों को केंद्र में रखते हुए निशाना साधा गया है। व्यंग्य का अंश है- ‘अगले सप्ताह ही तुम्हारी पुस्तक पर मैं स्वयं चर्चा रखवाता हूं। अपने खर्चे पर। कबीर तो बिचारे राष्ट्रीय कवि हैं। तुम्हारी प्रतिभा अंतरराष्ट्रीय है। इसलिए मैं तुम्हें शहर का इकलौता कवि कीट्स अवतरित करके अंतरराष्ट्रीय कवि स्थापित कर दूंगा। अब तो गुस्सा छोड़ो।’ व्यंग्यकार बुलाकी शर्मा स्थितियों का चित्रण करते हुए बहुत कुछ अनकहा भी अपने पाठकों तक पहुंचाने में जैसे सिद्धहस्त है। साहित्य और भाषा क्षेत्र उनका अपना क्षेत्र है। व्यंग्य-यात्रा के संपादक प्रेम जनमेजय ने लिखा है- ‘बुलाकी शर्मा में आत्मव्यंग्य की प्रतिभा है। उनके पास व्यंग्य-दृष्टि और व्यंग्य भाषा का मुहावरा है।’
बुलाकी शर्मा के आरंभिक व्यंग्य और उसके विकास के आकलन को करते हुए हम देख सकते हैं कि उन्होंने अपनी अलाहदा शैली का विकास करते हुए व्यंग्य को बेहद बारीक और मारक बनाने की दिशा में बहुत से रास्तों को पार कर लिया है। वे अंतर्मन में अंधकार और द्वंद्व को भी उजागर करते हुए ‘आप तो बस आप ही हैं !’ जैसी व्यंग्य रचना में व्यवहार में वाक्पटुता और उधार लेने वाले चालबाजों पर बेहद उम्दा व्यंग्य करते हैं। वरिष्ठ व्यंग्यकार सुशील सिद्धार्थ का मानना था- ‘बुलाकी शर्मा छोटे-छोटे अनुभवों, सहज भाषा (मैं इसे बतरस कहूंगा) और मनोरंजन रचना पद्धति से अपने व्यंग्य को विशिष्ट बना देते हैं। वे पाठकों के लेखक हैं। सप्रेषण इतना सधा हुआ है कि अन्य लेखक उनसे सीख सकते हैं।’ इस सधे हुए संप्रेषण के आगाज की बात बकौल बुलाकी शर्मा करें तो उन्होंने वर्ष 1978 में ‘मुक्त्ता’ पत्रिका में ‘बजरंगबली की डायरी’ से इस विधा में विधिवत प्रवेश किया। बाद में वे साप्ताहिक हिन्दुस्तान, कादम्बिनी, आजकल, अमर उजाला, ट्रिब्यून, सन्मार्ग आदि अनेक पत्र-पत्रिकाओं में व्यंग्य समेत विविध विधाओं में प्रकाशित होते चले गए और यह सिलसिला निरस्तर विस्तार पा रहा है। बुलाकी शर्मा ने छद्म नामों से भी लिखा है। दैनिक भास्कर बीकानेर में अफलातून नाम से वे लंबे समय तक ‘उलटबांसी’ लिखते रहे हैं। वहीं बीकानेर के ‘विनायक’ समाचार पत्र में ‘तिर्यक की तीसरी आंख’ से लिखा है। प्रसिद्ध व्यंग्यकार हरीश नवल का मानना है- ‘बुलाकी शर्मा का लेखन बहुत आश्वस्त करता है। जैसा स्तरीय लेखन व्यंग्यकार का होना चाहिए, उनका वैसा ही है। उपहास, कटाक्ष, विनोद, हास्य को वे ब्यंजना के प्रभाव से बढ़ाने के लिए भी उपयोग करते हैं।’ यदि हम अन्य व्यंग्यकारों और बुलाकी शर्मा के मध्य तात्विक अंतर करेंगे तो पाएंगे कि उनके व्यंग्य की व्यापकता प्रवृत्तिगत केंद्रीय बिंदु को थामते हुए सधी हुई भाषा में आगे बढ़ा ले जाने में हैं। उन्होंने लोकभाषा और जनभाषा के महत्त्व को अंगीकार करते हुए व्यंग्य में शिल्प में भाषा पर विशेष ध्यान दिया है। व्यंग्यकार लालित्य ललित का कहना है- ‘व्यंग्य के सुपरिचित हस्ताक्षर बुलाकी शर्मा के पास भाषा का ऐसा शिल्प है जो उन्हें अपने समकालीनों से विशिष्ट बनाता है।’
बुलाकी शर्मा हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के अध्येयता रहे हैं, इसलिए उन्हें परंपरा और आधुनिकता का बोध है। किसी भी व्यंग्यकार के लिए जरूरी होता है कि वह अपनी परंपरा को शक्ति के रूप में स्वीकार करते हुए निरंतर आधुनिकता की दिशा में अग्रसर रहते हुए समकालीन साहित्य से सतत परिचय बनाए रखे। यहां उनके नए व्यंग्य संग्रह ‘पांचवां कबीर’ में संकलित व्यंग्य ‘पिता की फ्रेंड रिक्वेस्ट’ की चर्चा करें तो पाएंगे कि व्यंग्य में आधुनिक विषय के साथ बहुत छोटी सी और छद्म सी चिंता पिता और पुत्र के संबंधों के बीच उजागर करते हुए व्यंग्यकार ने रोचकता के साथ हमारी यांत्रिकता और आधुनिक समय की त्रासदी पर प्रकाश डाला है। जिस ढंग से फेसबुक मित्रता आग्रह के एक छोटे से प्रसंग से कथात्मक रूप से संजोया है वह अपने आप में असाधारण व्यंग्य इस लिहाज से बनता है कि आज उत्तर आधुनिकता के समय पीढ़ियों का अंतराल, सभ्यता और संस्कार आदि सभी कुछ उनके इस व्यंग्य से पाठक के सामने केंद्र में आकर खड़े हो जाते हैं। व्यंग्यकार का सबसे बड़ा कौशल यही होता है कि वह अपना निशाना साधते हुए ऐसे पर्खचे उड़ाए कि जब तक पाठक उस अहसास और अनुभूति तक पहुंचे तो उसे भान हो जाए कि बड़ा धमाका हो चुका है। उसे कुछ करना है, यह कुछ करने का अहसास करना ही व्यंग्य की सफलता है। व्यंग्यकार शर्मा के लिए व्यंग्य हमारे समय की विद्रूपताओं को रेखांकित करते हुआ मानव मन में बदलावों के बीजों को अंकुरित करने का एक माध्यम है।
व्यंग्यकार के रूप में बुलाकी शर्मा ने अनेक सामाजिक कुरीतियों पर प्रहार किए हैं। राजनीति हो अथवा समाज-व्यवस्था में उन्हें जहां कहीं गड़बड़-घोटाला नजर आया वे अपनी बात कहने से नहीं चूके हैं। उनके व्यंग्य में उनके अनुभवों का आकर्षण भाषा और शिल्प में देख सकते हैं। वे अपने पाठ में कब अभिधा से लक्षणा और व्यंजना शब्द शक्ति का कमाल दिखाने लगते हैं पता ही नहीं चलता। और जब पता चलता है तब तक हम उसमें इतने आगे निकल आए होते हैं कि पिछली सारी बातें किसी कथा-स्मृति जैसे हमें नए अर्थों और अभिप्रायों की तरफ संकेत करती हुई नजर आती है। ऐसे में विसंगतियों के प्रति संवेदनशीलता और करुणा से हम द्रवित होते हैं। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि वे किसी भी विषय के प्रति बहुत उत्साहित अथवा एकदम निराशा से भरे हुए नहीं हैं। उनके लिए व्यंग्य का विषय उनके स्वयं के व्यवहार जैसा कुशल और मंजा हुआ होता है और उसके निर्वाहन में कोई कमी नजर नहीं आती है। वे अपने आस-पास की कमियों को भी बहुत बार किसी कीर्ति की भांति उल्लेखित करते हैं कि पाठक को सोचने पर विवश होना पड़ता है।
बुलाकी शर्मा के व्यंग्य लेखन के विषय में यह भी उल्लेखनीय है कि उनकी कुछ रचनाएं राजस्थानी से हिंदी और कुछ हिंदी से राजस्थानी में मौलिक रचनाओं के रूप में प्रस्तुत हुई है। जैसे ‘संकट टळग्यो’ राजस्थानी व्यंग्य उनके हिंदी व्यंग्य ‘दुर्घटना के इर्द-गिर्द’ का अनुवाद है और मौलिक रूप से संकलित किया गया है। इसी भांति ‘ज्योतिष रो चक्कर’ व्यंग्य का हिंदी में ‘अंकज्योतिष का चक्कर’ के रूप में प्रस्तुत करना है। किंतु अव उन्होंने विपुल मात्रा में व्यंग्य लिखें है और ऐसे आदान-प्रदान की संख्या बहुत कम है। इसी क्रम में यहां प्रसंगवश उल्लेखनीय है कि उनकी प्रसिद्ध व्यंग्य-कथा ‘प्रेम प्रकरण पत्रावली’ उनके व्यंग्य-संग्रह और कहानी-संग्रह में भी संकलित है। कहानी और व्यंग्य दो विधाएं हैं तो दोनों के अपने-अपने अनुशासन भी हैं, किंतु बुलाकी शर्मा इन दोनों के मध्य के सहयात्री हैं। वे अक्सर कहानी में व्यंग्य लिखते हैं और व्यंग्य में कहानी। इसका एक अनुपम उदाहरण उनका प्रसिद्ध राजस्थानी भाषा में रचित व्यंग्य ‘पूंगी’ है। वे आरंभ तो इसका निबंध के रूप में करते हैं- ‘साब अर सांप री रासी एक है, बियां ई दोनां री तासीर ई एकसरीखी हुवै।’ किंतु बहुत जल्द वे इसे साहब और उनके चापलूस कर्मचारी की कहानी में बदल देते हैं। कहना चाहिए कि कहानी उनके अनुभव में है और व्यंग्य उनके विचार में है। उनका यह शैल्पिक बदलाव अथवा पटरियों को बदलने का उपक्रम कहीं किसी भी स्तर पर पाठक को अखरता नहीं है।
बुलाकी शर्मा सरकारी नौकरी के समय अनेक कार्यालयों से जुड़े रहे। उनकी रचनाओं में दफ्तर के अनेक चित्र प्रस्तुत किए गए हैं। ‘दफ्तर’ नामक व्यंग्य में नए अफसर को काबू में करने की एक कहानी है तो ‘दफ्तर-गाथा’ में चार लघुकथाओं के माध्यम से चार चित्रों की बानगी कार्यालय में होने वाली अनियमितताओं की तरफ संकेत करती है। बुलाकी शर्मा के व्यंग्य में समय, समाज और देश से जुड़ी छोटी-छोटी घटनाओं-प्रसंगों के माध्यम से अपने बदलते रूप और समय से साक्षात्कार किया जा सकता है। ‘नेतागिरी रो महातम’ में बदलती राजनीति और राजनीति से पोषित होते छोटे-बड़े नेताओं को लक्षित किया है तो ‘मिलावटिया जिंदाबाद’ में जैसा कि व्यंग्य के शीर्षक से ही स्पष्ट है कि मिलावट पर राजस्थानी भाषा में व्यंग्य लिखा है। यहां मिलावट पर व्यंग्य लिखते हुए उन्होंने जिस पाचक घी को लक्षित किया है उससे भी सधे हुए शिल्प में उन्होंने हिंदी में एक व्यंग्य लिखते हुए पाचक दूध को लेते हुए मिलावट और बदलते समय पर करारा प्रहार किया है। बुलाकी शर्मा के व्यंग्यकार को यदि किसी एक पुस्तक से जानना हो तो हमें ‘बेहतरीन व्यंग्य’ पुस्तक को पढ़ना होगा जिसमें उनकी अब तक की यात्रा के चयनित और बेहतरीन व्यंग्य संकलित हैं। राजस्थानी के प्रख्यात कवि-संपादक नागराज शर्मा का कहना है- ‘बुलाकी शर्मा व्यंग्य विधा के महारथी, राजस्थानी के सारथी और मानव-मनोविज्ञान के पारखी हैं।’ प्रख्यात व्यंगयकार ज्ञान चतुर्वेदी जी के शब्दों के साथ मैं अपनी बात समाप्त करता हूं- ‘बुलाकी शरम व्यंग्य के उन इने-गिने समकालीन हस्ताक्षरों में से हैं जो चाहें तो भी बेहतरीन के अलावा कुछ लिख नहीं पाते।’
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