Saturday, January 11, 2020

कुंवर रवीन्द्र के रंगों में सजी मेरी कविताएं

कुंवर रवीन्द्र
डॉ. नीरज दइया

22-09-2011
 
22-09-2012 
22-09-2013
22-09-2014
22-09-2015
22-09-2016

22-09-2017
श्री खेमचंद 2016
22-09-2014 श्री मनीष कच्छावा

हिन्‍दी पाठकों के बीच राजस्‍थानी कहानियों की बेहतर प्रस्‍तुति / नन्‍द भारद्वाज

आधुनिक राजस्‍थानी कथा-यात्रा की शुरूआत ठीक वहीं से होती है, जहां से हिन्‍दी कहानी की यात्रा आरंभ होती है, लेकिन दोनों के क्रमिक विकास और उपलब्धियों में काफी अंतर है। कमोबेश यही बात अन्‍य भारतीय भाषाओं की कहानी पर भी लागू होती है। यद्यपि लोकवार्ता की दृष्टि से राजस्‍थानी का कथा साहित्‍य पर्याप्‍त समृद्ध रहा है और यहां की वाचिक परंपरा में‍लोक कथाएं सर्वाधिक लोकप्रिय रही हैं। यही कारण है कि आधुनिक कथा लेखन के दौर में भी रानी लक्ष्‍मीकुमारी चूंडावत, विजयदान देथा, नानूराम संस्‍कर्ता, मनोहर शर्मा, मुरलीधर व्‍यास जैसे आधुनिक भावबोध वाले समर्थ कथाकारों ने इन लोक कथाओं के लेखन और संग्रहण में विशेष रुचि ली। उल्‍लेखनीय बात ये कि‍यही कथाकार इसी दौर में अपनी मौलिक कहानियां भी लिखते रहे, जिससे आधुनिक राजस्‍थानी कहानी की बेहतर संभावनाएं विकसित हो सकीं। 
     राजस्‍थानी भाषा के साथ एक बड़ी विडंबना यह रही कि आजादी के बाद जहां हिन्‍दी सहित देश की चौदह भारतीय भाषाओं को तो संवैधानिक मान्‍यता देकर उनके विकास का रास्‍ता खोल दिया गया, लेकिन देश के बड़े प्रान्‍त राजस्‍थान की समृद्ध भाषा राजस्‍थानी और कुछ अन्‍य भारतीय भाषाओं‍को इस प्रक्रिया से बाहर ही छोड़ दिया गया। इरादा शायद यही था कि राजकीय मान्‍यता और संरक्षण के अभाव में ये भाषाएं धीरे धीरे व्‍यवहार से बाहर हो जाएंगी और उनके स्‍थान पर लोग हिन्‍दी या उस क्षेत्र विशेष की मान्‍यता प्राप्‍त भाषा को ही अपनी मातृभाषा के रूप में कुबूल कर लेंगे, जबकि‍यह सोच अपने आप में ही अवैज्ञानिक और अव्‍यावहारिक थी। इन वंचित भाषा-भाषियों ने अपनी भाषा की मान्‍यता के लिए लंबी लड़ाइयां लड़ीं और उसी की बदौलत अब तक दस और भारतीय भाषाओं को संविधान की आठवीं सूची में शामिल किया जा चुका है, लेकिन राजस्‍थान के आठ करोड़ शान्तिप्रिय वाशिन्‍दों की मातृभाषा राजस्‍थानी आश्‍वसनों और दिलासों के बावजूद आज तक उस मान्‍यता से वंचित है। वह लोगों के जीवन-व्‍यवहार की भाषा है, इसलिए उसे मिटा पाना तो किसी सत्‍ता व्‍यवस्‍था के वश की बात नहीं है, लेकिन संवैधानिक मान्‍यता के अभाव में न वह प्राथमिक स्‍तर पर शिक्षा का माध्‍यम बन सकी और न सरकारी काम-काज की प्रक्रिया में उसको कोई तवज्‍जो दी जाती। अपनी भाषा और संस्‍कृति से लगाव रखने वाले हजारों लाखों संस्‍कृतिकर्मी और जागरूक लोग आज भी उसे अपने जीवन-व्‍यवहार का आवश्‍यक अंग बनाए हुए हैं, उन्‍हीं में वह लेखक समुदाय भी आता है, जो ग्‍यारहवीं शताब्‍दी से चली आ रही साहित्यिक विरासत से जुड़कर आज भी अपनी भाषा में साहित्‍य सृजन की परंपरा को सजीव बनाए हुए है। डॉ नीरज दइया के संपादन में आधुनिक राजस्‍थानी कहानियों के हिन्‍दी अनुवाद के रूप में प्रकाशित कथा संकलन ‘101 राजस्‍थानी कहानियां’ को मैं राजस्‍थानी भाषा की अस्मिता के इसी संघर्ष और उसकी सृजन परम्‍परा के विस्‍तार से जोड़कर ही देखता हूं।   
     इस ऐतिहासिक प्रक्रिया पर बात करते हुए डॉ नीरज दइया ने इस संकलन की भूमिका में भारतीय कहानी के भविष्‍य पर बहुत सटीक टिप्‍पणियां की हैं। वे प्रादेशि‍क भाषाओं और हिन्‍दी कहानी के अंतर्संबंध की ओर इशारा करते हुए सही कहते हैं कि “भारतीय कहानी का भविष्‍य हमारी क्षेत्रीय भाषाओं की कहानी से निर्मित होगा। हरेक भाषा में कहानी की अपनी परंपरा और विकास के आयाम रहे हैं। अपनी समृद्ध साहित्यिक विरासत विकास के कारण आधुनिक राजस्‍थानी कहानियों का भारतीय कहानी में विशेष महत्‍व है।" और इसी महत्‍व को रेखांकित करने के लिए उन्‍होंने आधुनिक राजस्‍थानी के 101 कथाकारों की चुनिन्‍दा कहानियों के पांच सौ पृष्‍ठ के इस वृहद संकलन को मूर्त रूप दिया है। 
    हिन्‍दी प्रकाशन जगत में आजादी के कुछ वर्ष बाद तक शोध और पाठ्यक्रम की मांग के अनुसार राजस्‍थानी के प्राचीन और मध्‍यकालीन साहित्‍य को उसके मूल पाठ और उन पर हिन्‍दी टीकाओं के प्रकाशन में जरूर कुछ दिलचस्‍पी रही, लेकिन राजस्‍थानी के नये मौलिक लेखन के प्रति आमतौर पर उदासीनता ही देखने को मिलती है। प्रदेश में यह जिम्‍मा कुछ हद तक राजस्‍थानी साहित्‍य और संस्‍कृति से जुड़ी संस्‍थाओं और शोध संस्‍थानों ने जरूर संभाला, लेकिन उनकी भी नये लेखन को सामने लाने में कम ही रुचि रही। इस स्थिति में कुछ सुधार तब हुआ, जब राजस्‍थानी के सृजनशील लेखकों ने अपने निजी प्रयत्‍नों से पत्रिकाओं और पुस्‍तकों का प्रकाशन अपने हाथ में लिया। मरुवाणी, जाणकारी, ओळमों, हरावळ, राजस्‍थली, चामळ, जलमभोम, हेलो, दीठ जैसी पत्रिकाओं के माध्‍यम से एक पूरी पीढ़ी सामने आने लगी। उसी दौर में भाषा की मान्‍यता के लिए बढ़ते दबाव में साहित्‍य अकादमी ने राजस्‍थानी भाषा के साहित्‍य को मान्‍यता देते हुए सन् 1972 से राजस्‍थानी कृतियों को साहित्‍य अकादमी पुरस्‍कार की प्रक्रिया में शामिल किया। उसी दौर में बीकानेर में राजस्‍थानी भाषा साहित्‍य और संस्‍कृति की स्‍वतंत्र अकादमी बनी और प्रदेश के हिन्‍दी प्रकाशकों ने राजस्‍थानी की नयी कृतियों को प्रकाशित करने में रुझान दर्शाया। सन् 1960 में जोधपुर से सौ किलोमीटर दूर स्थित बोरूंदा गांव में विजयदान देथा और कोमल कोठारी ने जिस रूपायन संस्‍थान की नींव रखी, उसके आरंभिक संकल्‍प तो काफी व्‍यापक रहे, लेकिन कालान्‍तर में यह संस्‍थान अपने ही कलेवर में सिमटता गया। उस संस्‍थान के माध्‍यम से राजस्‍थानी लोक कथाओं के संग्रहण और प्रकाशन की योजना आरंभ हुई, जिसके तहत ‘बातां री फुलवाड़ी’ का श्रृंखलाबद्ध प्रकाशन आरंभ हुआ। इस योजना के साथ इस संस्‍थान ने राजस्‍थानी के नवलेखन को भी प्रकाशित करने का बीड़ा उठाया और नारायण सिंह भाटी, सत्‍यप्रकाश जोशी, गजानन वर्मा, रेवतदान चारण, कल्‍याणसिंह राजावत, जनकवि उस्‍ताद आदि के कुछ काव्‍य-संकलन पहली बार प्रकाश में आए। लेकिन यह योजना जल्‍दी ही बंद हो गई और रूपायन संस्‍थान बिज्‍जी (विजयदान देथा) के साहित्‍य लेखन को प्रकाशित करने तक सीमित हो गया। इस बीच साहित्‍य अकादमी, दिल्‍ली और राजस्‍थानी भाषा साहित्‍य अकादमी के समर्थन से नये लेखन को प्रकाशित करने की योजनाएं भी सामने आईं। इन संस्‍थानों ने मूल राजस्‍थानी में कृतियां प्रकाशित कीं।
      पिछले एक अरसे से साहित्‍य अकादमी और हिन्‍दी की राष्‍ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं की सक्रियता और समर्थन से जहां राजस्‍थानी कृतियों के हिन्‍दी, अंग्रेजी और दूसरी भारतीय भाषाओं में अनुवाद प्रकाशित होने लगे हैं, वहीं हिन्‍दी और अन्‍य भाषाओं की श्रेष्‍ठ कृतियों के राजस्‍थानी अनुवाद भी प्रकाशित होकर सामने आने लगे हैं। इसी क्रम में राजकमल प्रकाशन जैसे राष्‍ट्रीय प्रकाशन संस्‍थान ने पहली बार सन् 1979 में बिज्‍जी की राजस्‍थानी लोक कथाओं का संकलन ‘दुविधा और अन्‍य कहानियां’ तथा ‘उलझन’ (सन् 1982) हिन्‍दी अनुवाद के रूप में प्रकाशित किये। इतना ही नहीं सन् 1984 में इसी प्रकाशन संस्‍थान ने बिज्‍जी की मौलिक राजस्‍थानी कहानियों का संकलन ‘अलेखूं हिटलर’ मूल भाषा में प्रकाशित कर राष्‍ट्रीय स्‍तर पर राजस्‍थानी कृतियों के प्रकाशन का रास्‍ता खोला। इसके बाद तो भारतीय ज्ञानपीठ और हिन्‍दी के अन्‍य प्रकाशन संस्‍थानों ने भी राजस्‍थानी की अनेक कृतियां मूल और अनुवाद के रूप में प्रकाशित की हैं। राष्‍ट्रीय पुस्‍तक न्‍यास ने भी अपनी भारतीय पुस्‍तक माला श्रृंखला के अंतर्गत राजस्‍थानी भाषा के लेखन को शामिल करते हुए आधुनिक राजस्‍थानी की प्रतिनिधि कहानियों और कविताओं के संकलन मूल राजस्‍थानी में प्रकाशित किये हैं, जिनके हिन्‍दी अनुवाद भी सामने आ चुके हैं। इसी तरह कुछ और हिन्‍दी प्रकाशकों ने इस दिशा में बेहतर रुझान दिखाया है। डॉ नीरज दइया के संपादन में गाजियाबाद के के एल पचौरी प्रकाशन से आए इस ताजे संकलन ‘101 राजस्‍थानी कहानियां’ को मैं इसी श्रृंखला के विस्‍तार के रूप में देखता हूं और निश्‍चय ही इससे राजस्‍थानी के नवलेखन को हिन्‍दी के व्‍यापक पाठक समुदाय के बीच पहंचने की बेहतर संभावनाएं विकसित हो रही हैं। 
     नीरज दइया ने इधर राजस्‍थानी आलोचना के क्षेत्र में काफी सराहनीय कार्य किया है। उन्‍होंने ‘आलोचना रै आंगणै’ और ‘बिना हासलपाई’ जैसी आलोचना कृतियों के माध्‍यम से राजस्‍थानी कथा साहित्‍य के विवेचन का व्‍यापक काम अपने जिम्‍मे लिया है। इसी क्रम में इस कहानी संकलन के प्रारंभ में उनकी बीस पेज लंबी भूमिका राजस्‍थानी कहानी यात्रा के सभी पक्षों का गहराई से अध्‍ययन और विश्‍लेषण प्रस्‍तुत करती है। यह भूमिका न केवल राजस्‍थानी कहानी के इतिहास और उसके विकास-क्रम का ब्‍यौरा पेश करती है, बल्कि राजस्‍थानी कहानी के बहुआयामी रचना-संसार और कहानियों की अंतर्वस्‍तु का बारीक विवेचन प्रस्‍तुत करते हुए उसकी प्रयोगधर्मिता और रचना-कौशल की खूबियों को भी रेखांकित करती है। नीरज की इस भूमिका की बड़ी खूबी यह है कि उन्‍होंने राजस्‍थानी कथा यात्रा की चार पीढ़ियों के उल्‍लेखनीय कथाकारों की रचनाशीलता की वैयक्तिक खूबियों को उनकी प्रमुख कहानियों को हवाले में रखकर विस्‍तार से समझाने का प्रयत्‍न किया है, जो अपने आप में अच्‍छे खासे अध्‍यवसाय और श्रम की मांग करता है।
    राजस्‍थानी के कई महत्‍वपूर्ण कथाकारों ने हिन्‍दी के कथा साहित्‍य में भी अपनी अलग पहचान अवश्‍य बनाई है, लेकिन पिछले पांच दशक में जो कहानियां हिन्‍दी में अनुदित होकर पाठकों के बीच पहुंची हैं, उनके भीतर का देशज रचना-संसार, उनकी अंतर्वस्‍तु और बयानगी हिन्‍दी या किसी भी भारतीय भाषा की कहानी से नितान्‍त नयी और भिन्‍न किस्‍म की है। वह राजस्‍थानी कहानी की अपनी ज़मीन से उपजी हैं।
    यों तो नीरज ने अपनी भूमिका में संकलन के लिए कथकारों और उनकी कहानियों के चयन को लेकर अपनी सीमाओं का भी हवाला दिया है, लेकिन इस महत्‍वपूर्ण प्रतिनिधि चयन में मुरलीधर व्‍यास, मूलचंद प्राणेश, रामकुमार ओझा, रामनिवास शर्मा, पुष्‍पलता कश्‍यप, हरमन चौहान जैसे जाने-पहचाने कथाकारों का न होना थोड़ा अचरज जरूर पैदा करता है, क्‍योंकि‍ये अपने समय के महत्‍वपूर्ण कथाकार के रूप में चर्चित रहे हैं, और उनकी कहानियों के संग्रह भी उपलब्‍ध रहे हैं, बल्कि मूलचंद प्राणेश तो साहित्‍य अकादमी पुरस्‍कार से भी सम्‍मानित कथाकार रहे हैं। कुल मिलाकर ‘101 राजस्‍थानी कहानियां’ संकलन का प्रकाशन हिन्‍दी पाठकों के बीच  राजस्‍थानी कहानी की बेहतर प्रस्‍तुति की दृष्टि से एक उल्‍लेखनीय उपलब्धि है। 
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⦁    चर्चित कृति : 101 राजस्‍थानी कहानियां, संपादक : नीरज दइया, प्रकाशक : के एल पचौरी प्रकाशन, गाजियाबाद (उ प्र), पष्‍ठ 504, मूल्‍य : 1100/- रुपये।   
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“आधुनिक राजस्थानी कहानियों के हिन्दी अनुवाद के रूप में डॉ नीरज दइया के संपादन में प्रकाशित कथा संकलन ‘101 राजस्थानी कहानियां’ राजस्थानी भाषा की अस्मिता के संघर्ष और उसकी सृजन परम्परा को प्रभावशाली ढंग से रेखांकित करता है। राजस्थानी कथा परंपरा की ऐतिहासिक प्रक्रिया पर बात करते हुए नीरज दइया ने संकलन की भूमिका में भारतीय कहानी के भविष्य पर टिप्पणी करते हुए यह सही कहा है कि भारतीय कहानी का भविष्य हमारी क्षेत्रीय भाषाओं की कहानी से ही निर्मित होगा। अपनी समृद्ध साहित्यिक विरासत विकास के कारण आधुनिक राजस्थानी कहानियों का भारतीय कहानी में विशेष महत्व है।" इसी कथा संकलन पर हिन्दी की चर्चित पत्रिका ‘दुनिया इन दिनों’ में मेरी समीक्षा --
इसे मेरे ब्‍लॉग 'हथाई' पर भी पढ़ सकते हैं - https://nandkihathai.blogspot.com/

Thursday, January 09, 2020

राजस्थानी कहानी का पूरा परिदृश्य / सत्यदेव सवितेंद्र

राजस्थानी में कहानी कहने-सुनने की परंपरा बहुत पुरानी है। बातपोसी और लोककथा कागद पर उतर कर राजस्थानी भाषा और संस्कृति के समृद्ध चित्र बहुत सी भाषाओं में अनुवाद कर देश ही नहीं समूची दुनिया में पहुंची और सराहना हुई।
आजादी के साथ ही राजस्थानी कहानी में भी आधुनिक काल के बदलाव दृष्टिगोचर होने लगे। वैसे तो पहली कहानी का श्रेय शिवचंद भरतिया को दिया जाता है पर असल यात्रा मुरलीधर व्यास से आरंभ होती है। सांवर दइया की राजस्थानी कहानी को आधुनिक कहानी का प्रस्थान बिंदु माना जाता है। राजस्थानी के विद्वान आलोचक डॉ. नीरज  दइया के संपादन में आए नए संग्रह ‘101 राजस्थानी कहानियां’ में राजस्थानी कहानी के इतिहास और विकास यात्रा को एक स्थान पर संकलित करने का पुरजोर प्रयास है। इसमें राजस्थानी के नए पुराने 101 कहानीकारों की राजस्थानी कहानियों के हिंदी अनुवाद सामिल हैं। इस संग्रह में रानी लक्ष्मी कुमारी चूंडावत, अन्नाराम सुदामा, नृसिंह राजपुरोहित, रामेश्वर दयाल श्रीमाली आदि जैसे पुराने कहानीकार हैं तो इक्कीसवीं शताब्दी के युवा कहानीकार दुलाराम साहरण, कुमार अजय, अरविंद सिंह आशिया, वाजिद हसन काजी, रीना मेनारिया, किरण राजपुरोहित ‘नितिला’, हरीश बी. शर्मा आदि भी है।
इन कहानियों के माध्यम से न केवल राजस्थानी कहानी के विकास को समझा जा सकता है बल्कि राजस्थानी समाज की सामाजिक स्थिति को, उसकी विडरूपताओं को भी अंगीकार किया जा सकता है। स्त्री चेतना की नंद भारद्वाज की ‘आसान नहीं है रास्ता’, बुलाकी शर्मा की कहानी ‘हिलौर; है तो बाजारवाद के इस दौर की संवेदनाओं के क्षरण को दरसाने वाली रामस्वरूप किसान की कहानी ‘तार तार संवेदना’, ओमप्रकाश भाटिया की कहानी ‘हाथ से निकला सुख’, मधु आचार्य ‘आशावादी’ की ‘प्रेम का कांटा’ है। उम्मेद धानिया की ‘नीची जात’ दलित चेतना की प्रतिनिधि कहानी है।
नीरज दइया ने 101 कहानीकारों की प्रतिनिधि कहानियों को संकलित कर महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। इसकी भूमिका में कहानीकारों और उनके प्रकाशित संग्रहों के संदर्भअ दिए गए हैं, वे शोधार्थियों के लिए बहुत उपयोगी हैं। यह संकलन राजस्थानी कहानी का एक ऐसा परिदृश्य प्रस्तुत करता है जिससे एक नजर में राजस्थानी कहानी का हर पहलू समझा जा सकता है। यह संग्रह एक दस्तावेज और संदर्भ ग्रंथ है। बहुत धैर्यपूर्वक अपनी विद्वता और निर्पेक्ष दृष्टि से इसे तैयार कर हिंदी जगत के समक्ष राजस्थानी कहानी का पूरा परिदृश्य लाने के लिए भाई नीरज दइया को बहुत बधाई और शुभकामनाएं।
-सत्यदेव सवितेंद्र

विविध पक्षों की परख नूंतता संचयन / डॉ. राजेश व्यास

राजस्थानी कहानियों की बड़ी सीमा यह रही है कि लंबे समय तक वह लोक कथाओं की बुनघट लिये रही। पर पिछले कई दशकों की राजस्थानी कहानी पर जाएंगे तो पाएंगे शैली, परिवेश और किस्सागोई में राजस्थानी कहानी ने अपनी मौलिक पहचान बनायी है। डॉ. नीरज दइया द्वारा संपादित एक सौ एक कहानियों को पढ़ते हुए यह भी लगता है कि राजस्थानी कहानी किसी भी दृष्टि से भारतीय भाषाओं से कमतर नहीं है। ‘एक सौ एक कहानियां’ का यह संचयन राजस्थानी कहानी की गौरवमयी परंपरा के साथ ही आधुनिक दृष्टि और बदलते परिवेश का शिल्प समृद्ध संसार है। गांव, किसान और अकाल से जूझती जूण के साथ ही राजस्थान के बदले परिवेश, मान्यताओं और आधुनिक दीठ संजोने वाले इस संग्रह में यादवेंद्र शर्मा ‘चंद्र’, विजयदान देथा, श्रीलाल नथमल जोशी, सांवर दइया, मोहन आलोक, चेतन स्वामी, मदन सैनी, मधु आचार्य, किरण राजपुरोहित, चंद्रप्रकाश देवल, जनकराज पारीक, नवनीत पांडे, नानूराम संस्कर्ता, भरत ओला, भंवरलाल ‘भ्रमर’, मदन गोपाल लढ़ा, माधव नागदा, रामस्वरूप किसान, हरीश बी. शर्मा, उम्मेद धानिया आदि कहानीकारों की वह कहानियां हैं, जिनसे राजस्थानी कहानी के ओज और नए तेवर से साक्षात हुआ जा सकता है।
इस मायने में भी यह संग्रह महत्त्वपूर्ण है कि इसके जरिए राजस्थानी कहानी के आज को गहरे से गुना गया है। राजस्थानी भाषा की समृद्ध शब्दावली के साथ ही धोरों की धरा का अतीत और बदलते परिवेश की अनुगूंज इन कहानियों में है तो दलित चेतना के साथ जीवनानुभूतियों का राग-अनुराग इसमें बांचा जा सकता है। राजस्थानी कहानी के संचयन इससे पहले भी निकले हैं पर वृहद रूप में प्रयास इसलिए भी सराहनीय है कि संग्रह के आरंभ में डॉ. नीरज दइया ने राजस्थानी कहानी के आरंभ से लेकर उसके विकास से जुड़ी पगडंडियों को अपनी सूक्ष्म आलोचकीय सूझ से अंवेरा है। इस सूझ में राजस्थानी कहानी का आलोचना पक्ष है तो आधुनिकता के बदलाव से जुड़े समय संदर्भों का लेखा-जोखा भी है। राजस्थानी कहानी की परंपरा और वर्तमान के विविध पक्षों की परख नूंतता यह संचयन भारतीय भाषाओं में लिखी जा रही कहानी की भी एक तरह से विरल दीठ है।
- डॉ. राजेश व्यास
(राजस्थान पत्रिका वार्षिकी 2020)

Wednesday, January 08, 2020

प्रख्यात साहित्यकार डॉ. अर्जुनदेव चारण से डॉ. नीरज दइया की बातचीत

मेरी आत्मा राजस्थानी से जुड़ी है : डॉ. चारण   
अर्जुनदेव चारण (10 मई, 1954) को ‘धरमजुद्ध’ नाट्य-कृति के लिए साहित्य अकादेमी पुरस्कार-1992 से सम्मानित किया गया। राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी द्वारा भी इसी कृति के लिए सर्वोच्च पुरस्कार। नाट्य निर्देशक, नाटककार, राजस्थानी कवि-आलोचक के रूप में व्यापक पहचान। आपने राजस्थानी लोकनाट्यों पर विशेष शोध कार्य किया है। आपकी प्रमुख राजस्थानी कृतियां हैं - रिंधरोही, घर तौ अेक नाम है भरोसै रौ, अगनसिनांन (कविता संग्रह), मुगतीगाथा, विरासत, बलिदान (नाटक)। आप साहित्य अकादेमी में राजस्थानी भाषा परामर्श मंडल के संयोजक रहे हैं तथा वर्तमान में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, नई दिल्ली के अध्यक्ष हैं।


- अपनी सृजन-यात्रा का आरंभ आप कब से मानते हैं?
- यदि लेखन घटनाओं के प्रति एक प्रकार का रियेक्शन है, तो मैं सोचता हूं कि बचपन से ही इस यात्रा का आरंभ हुआ। जब मैं स्कूल में पढ़ता था तब चीन युद्ध हुआ और मैंने कुछ कविताएं लिखीं, जो एक प्रकार का रियेक्शन था। तब मुझे ना तो इतिहास की जानकारी थी ना फिलोस्फी की, लेकिन एक राष्ट्रभक्ति थी... जिसने मुझ से राजस्थानी में कुछ लिखवाया। 
- आपके पिता रेंवतदान चारण राजस्थानी के बड़े कवि हैं, आपको यह बात कब पता चली?
- उसी दौर में मुझे मालूम चला कि मेरे पिता देश के नामी कवि हैं। उनसे मिलने उस समय सत्यप्रकाश जोशी, विजयदान देथा, नारायणसिंह भाटी, कोमल कोठारी, गजानंद वर्मा जैसे नामचीन रचनाकार आते थे। किसी को नहीं मालूम था कि मैं लिखता हूं। सब के लिए मैं उनके दोस्त का लड़का था।
- आपकी कविताओं के प्रकाशन का क्या सिलसिला रहा?
- उन दिनों प्रकाशित होने वाले हिंदी साप्ताहिक-पाक्षिक जैसे - अभयदूत, ललकार आदि में राजस्थानी रचनाओं को भी प्रकाशित किया जाता था। मैंने अपनी रचनाएं भेजी और प्रकाशित होने लगी। इन सब के बाद राजस्थानी पत्रिकाएं हरावळ, हेलो आदि में भी मेरी कविताएं प्रकाशित हुई।
- आप कविता के रास्ते चलते-चलते नाटक की दिशा में कैसे पहुंच गए?
- दरसल यह विचार कभी नहीं था कि मैं नाटक के क्षेत्र में जाऊंगा। मुझे लगता है कि दैवीय कृपा से संयोग बनते हैं। मैं जब एम.ए. पूर्वाद्ध में था, तब अकादमी का एक कैंप जोधपुर में हुआ और मुझे जोड़ा गया। फिर विजय माथुर जी ने एन.एस.डी. के सहयोग से होने वाले एक नाटक में मुझे मुख्य भूमिका में लिया। एक अभिनेता के रूप में मुझे मदनमोहन माथुर, सरताज माथुर ने कास्ट किया। फिर यह बात निकली कि राजस्थानी में आधुनिक संवेदना के नाटक कहां है? 
- और तब आपने नाटक लिखे। नाटक ‘हेलो’ में छपे और पहली नाट्य कृति?
- हां, ‘संकरियो’ और ‘गवाड़ी’ नामक दो नाटकों की कृति बीकानेर से वर्ष 1979 में प्रकाशित हुई। जिसे राजस्थान साहित्य अकादमी (संगम) उदयपुर ने पुरस्कृत भी किया। एम.ए. के बाद नाटकों में रुचि थी तो डॉ. नित्यानंद शर्मा के निर्देशन में लोक-नाटकों पर शोध किया और कठपुतली, पाबूजी की पड़, कुचामण ख्याल आदि का विवेचनात्मक अध्ययन किया। जब लेखक पुरस्कृत हो जाता है तो उसे लगता है कि वह ठीक लाइन पर है, मेरा मानना है कि पुरस्कार-सम्मान से लेखक की जिम्मेदारी बढ़ती है। मां करणी की कृपा से मैं नाटकों से लगातार जुड़ा रहा। 
- लेखन व्यक्तिगत कर्म है या किसी दैवीय शक्ति से संभव होता है?
- कविता मां की कृपा से ही लिखी जाती है। बहुत लोगों को यह बात ठीक नहीं लगेगी और कह सकते हैं कि आधुनिक काल का एक कवि यह कह रहा है कि कविता तो ईश्वरीय कृपा से ही संभव होती है, पर मैं तो यही मानता हूं।
- कविता में मंचीय कविता और आधुनिक संवेदना के बीच बड़ा अंतर क्यों है?
- मैं बहुत समृद्ध कविता-परंपरा का वारिस हूं। साहित्य के सिलसिलेवार अध्ययन में देखें - हर दौर के रचनाकारों का अपना-अपना वैशिष्टय रहा है। आरंभ में मैंने छंद में खूब लिखा और बाद में नई कविताएं लिखीं। आरंभिक कविताओं को पुस्तकाकार प्रकाशित नहीं किया है। कविता नई हो या पुरानी उसमें आंतरिक लय और छंद का होना जरूरी मानता हूं। मात्राओं को आप भले छोड़ दें, किंतु लय तो अनिवार्य रूप से रहनी चाहिए। हमें हमारी परंपरा में गहराई से झांकना होगा। वहां साहित्य-कला की परिभाषाओं के अध्ययन को आधुनिक संदर्भों में देखना मुझे जरूरी लगता है। ऋग्वेद में पहली बार ऋषि अत्रि द्वारा कला की परिभाषा में कौशल और छंद को जरूरी घटकों के रूप में स्वीकार किया गया है। इतिहास में लय, अनुपात और संतुलन के अनेक संदर्भ मिलते हैं। 
- किंतु आपकी कविताएं छंद-मुक्त है? ‘रिंधरोही’ के बारे में बताएं?
- छंद को जानकार-समझकर छोडऩा ठीक हैं, किंतु बिना जाने छोडऩा गलत। आरंभ में मैंने छंद में खूब लिखा। मीटर में लिखना आसान नहीं है। दूहा छंद में दूहाकार दो पंक्ति में अपना कलेजा निकाल कर रख देता है। आधुनिक कविता ने छंद के बंधनों को त्याग दिया। जीवन में जब दूसरे क्षेत्रों में बंधन नहीं, तो फिर कविता में बंधन क्यों? मैं 1974 से कविता लेखन में हूं और मेरी पहली कृति ‘रिंधरोही’ प्रकाशित हुई, उसमें कुछ अलग तरह की कविताओं का संचयन है। शृंखला और प्रकृति-प्रेम की कविताओं के साथ गांव के विछोह की पीड़ा है। एक ही विषय को लेकर अलग-अलग ऐंगल से कविताएं लिखी। यदि मैं कहूं कि आधुनिक कविता को ‘रिंधरोही’ एक टरनिंग पोइंट देता है, तो बहुत लोगों को लग सकता है कि मैं घमंड कर रहा हूं... पर 1986 के बाद की राजस्थानी कविताएं देखें तो यह बात समझी जा सकती है।
- आपने सत्यप्रकाश जोशी की कविता ‘मुडज़ा फौजां नै पाछी मोड़ ले’ और  ‘राजस्थानी-एक’ संपादक तेजसिंह जोधा से कविता में बड़ा बदलाव माना है? राजस्थानी की भारतीय भाषाओं में क्या स्थिति मानते हैं?
- आज की कविता किसी भी आधुनिक भारतीय भाषा से पीछे नहीं है, एक कदम आगे ही है राजस्थानी। मैं पिछले काफी वर्षों से ऐसी जिम्मेदारियों में रहा कि मुझे भारतीय भाषाओं की कविताओं-नाटकों को जानने-समझने के अनेक अवसर मिले हैं। राजस्थानी के कवि भारतीय भाषाओं में श्रेष्ठ कविता के वाहक कहे जा सकते हैं। चंद्रप्रकाश देवल, मोहन आलोक, पारस अरोड़ा, तेजसिंह जोधा, नंद भारद्वाज से पहले के कवि गणेशीलाल व्यास ‘उस्ताद’, रेंवतदान चारण, सत्यप्रकाश जोशी, नारायणसिंह भाटी, चंद्रसिंह बिरकाली, कन्हैयालाल सेठिया जैसे अनेक कवि राजस्थानी की थाती हैं। इनकी कविताएं व्यापक और विशद धरातल पर श्रेष्ठतम कही जा सकती है, किंतु इन कवियों और कविताओं का सम्यक विवेचन कहीं नहीं हुआ है। यह गर्व की बात है कि ऐसी काव्य-परंपरा को हम लोग आगे बढ़ा रहे हैं।
- फिर हमारी भाषा राजस्थानी की अवमानना क्यों हो रही है?
- इसके दो-तीन स्पष्ट कारण है। भाषा के लिए जनता और आमजन का संघर्ष नहीं है। यह लेखकों और संगठनों तक सिमट गया। लेखक जन-मानस को यह बात समझाने में सफल नहीं हुए हैं कि भाषा की लड़ाई हमारी नहीं, आने वाली पीढिय़ों और हमारे बच्चों के लिए जरूरी है। दूसरे आजादी से पहले उत्तर भारत की प्रमुख भाषाओं जैसे - भोजपुरी, अवधी, ब्रज, बुंदेली आदि को हिंदी के तथाकथिक लोग खारिज करने में लग गए। राजस्थानी की बात करेंगे तो हमारे जैसे वीरता, भक्ति और शृंगार का विपुल साहित्य अन्य किसी भाषा में नहीं है। गांधी जी कीसोच में आजादी के आंदोलन में अपनी भाषा का मोह त्याग कर, एक भाषा के निर्माण की भावना में बहेतो हुआ क्या? आजादी मिलते ही भाषाएं खारिज कर दी गई। हिंदी के प्रेम में पागल हमारी जनता यह जान ही नहीं सकी कि हमारे साथ क्या कर दिया गया है। संविधान की धारा 346-47 में स्पष्ट प्रावधान के बाद भी राजकीय मान्यता राजस्थानी को नहीं है। भारत सरकार अगर मान्यता नहीं देती है, तो राजस्थान सरकार क्यों नहीं दे रही है? यदि राजस्थानी बोलने वालों की संख्या 15 करोड़ से कम है तो खारिज कर दिया जाए, अन्यथा मान्यता देनी चाहिए।
- कुछ का मानना है कि राजस्थानी को मान्यता देने से हिंदी कमजोर हो जाएगी।
- अगर हिंदी इतनी ही कमजोर है तो भविष्य में हिंदी भी नहीं रहेगी। प्रो. अमरनाथ जैसे कुछ हिंदी का झंडा उठाए हुए, ऐसी आधारधीन बातें करते हैं। वर्तमान हिंदी एक कृत्रिम भाषा है। यह मेरा नहीं, महाकवि निराला जी का कहना था। यह केवल गांधी जी का आग्रह था - राष्ट्रीय आंदोलन से पहले हिंदी कितने राज्यों की भाषा थी, यह जानकरी कर लें। यह ऐतिहासिक आकंड़े और सत्य है। एक दूसरी बात कि यू.एन.ओ. में हिंदी का संख्या-बल दिखाने के लिए भोजपुरी और राजस्थानी की अवहेलना कहां तक न्याय संगत है। हम तो अपने ही घर में हमारी पहचान के संकट को रो रहे हैं और आप विदेशों में हिंदी की बात के लिए बेवजह चिंतित हैं। राजस्थानी और भोजपुरी को लेकर वर्तमान राजनीति अन्याय कर रही है।
- अपने लेखन के आरंभ में, आपने एक संपादक के रूप में भी कार्य किया है?
- यह सब संयोग रहा कि राजस्थानी के प्रख्यात कवि पारस अरोड़ा का मेरे प्रति प्रेम रहा। मेरी चढ़ती उम्र का तकाजा और साहित्य के प्रति विवेचनात्मक दृष्टिकोण के रहते ‘अपरंच’ ऐसी पहली पत्रिका थी, जिसमें दो-दो संपादकीय प्रकाशित होते थे। मुझ पर मेरे वरिष्ठ रचनाकारों का बहुत प्रेम रहा।
- आपने लोककथा का नाट्य-रूपांतरण - ‘बोल म्हारी मछली कित्तो पाणी’ किया, जबकि आप आधुनिक संवेदना के पक्षधर रहे हैं?
- नाटक ‘बोल म्हारी मछली कित्तो पाणी’ असल में लोककथा से जुड़ा है, किंतु उसकी संवेदना इतर है। विजयदान देथा ने बुखार उतारने वाली लोककथा को अपने ढंग से लिखा और मैंने अपने ढंग ने नाटक में दिखाया है। नाटक में चोर को कैद करने लिए जिस बाल-गीत का प्रयोग हुआ है, वह बहुत लोकप्रिय है। इस नाटक को अब भी पसंद किया जाता है। उसी पुस्तक में दूसरा नाटक - ‘म्हैं राजा, थे प्रजा’ था। जो राजनीति से जुड़ा एक व्यंग्य है। उसमें सत्ता की मूर्खताओं को उजागर किया है। मेरा प्रयास अलग-अलग एप्रोच के नाटक लिखने का रहा। नाटक- ‘धरमजुद्ध’, ‘जेठवा-उजळी’ को देखेंगे तो नारी-विमर्श और प्रेम का एक अलग अंदाज है। वहीं ‘मुक्तिगाथा’ में तीन अलग-अलग ऐंगल है।
- आपकी सभी रचनाएं राजस्थानी में है, आपने हिंदी में क्यों नहीं लिखा?
- मेरी मातृभाषा राजस्थानी है और मैं राजस्थानी में ही लिखता हूं। हिंदी राष्ट्रभाषा है उसका सम्मान है, किंतु लेखन में दैवीय कृपा और आत्मिक भाव होता है। मेरी आत्मा राजस्थानी से जुड़ी है और इसके लिए मैं वचनबद्ध हूं।
- राजस्थानी लोककथा और आधुनिक कहानी के बारे में आपके विचार?
- आधुनिक कहानी कहीं-न-कहीं परंपरागत लोककथाओं से विकसित होती दिखाई देती है। हमारे आरंभिक कहानीकारों का शिल्प वही है। बाद के कहानीकारों ने सचेत होकर उस शिल्प को तोड़ा। नई धारा वर्ष 1970 के बाद नए मानकों के साथ आधुनिक संदर्भों से जुड़ती है। यहां के जनजीवन, सामाजिक समस्याओं, बदलावों, मूल्य-बोध और वैचारिकता को रेखांकित करती कहानियां सामने आती है। विजयदान देथा की ‘अलेखू हिटलर’ नए संदर्भों में एक ग्रामीण किसान के भीतर जाग्रत होते हिटलर को सूक्ष्मता से प्रस्तुत करती है। नृसिंह राजपुरोहित, रामेश्वरदयाल श्रीमाली, सांवर दइया जैसे अनेक कहानीकारों ने कहानी को आधुनिक बनाने में योगदान दिया। श्रीलाल नथमल जोशी आधुनिक संवेदना का एक अलग रंग लिए हुए सामने आए, किंतु दुखद स्थिति यह रही कि इन सब का विवेचन लंबे समय तक आरंभ नहीं हुआ। हमें हमारी विरासत को ईमानदारी से परखने के प्रयास करने चाहिए। बाद के कहानीकारों में रामस्वरूप किसान, अरविंद आशिया, मालचंद, बुलाकी शर्मा और मधु आचार्य ‘आशावादी’ तक भरोसा जगाते हैं कि मान्यता मिले, भले ना मिले... पर आधुनिक रचनाकर्म की यह बेजोड़ विरासत संभाल कर रखेंगे।
- हमने कविता-कहानी की बात की, अब उपन्यास के बारे में विचार करें? क्या राजस्थानी के पहले उपन्यासकार शिवचंद भरतिया का ‘कनक सुंदर’ पहला उपन्यास है? या लोक उपन्यास ‘कुंवरसी सांखलो’ पर विचार किया जाना चाहिए?
- अब हमारी आवश्यकता है कि हम निर्मम होकर अपनी विरासत का मूल्यांकन करें। हजार सालों की हमारी परंपरा में अब फैसला हो जाना चाहिए कि यह सिक्के हैं, यह कोडिय़ां हैं और यह जो कुछ भी है। आलोचना एक दुष्कर कार्य है। आलोचक के सामने खतरा होता है कि वह किसे नहीं कहे। रचनाकार नाराज हो जाते हैं। रचनाकार यह मानने को तैयार नहीं होते कि उनकी रचना मानदंड पर खरी नहीं है। जरूरत इस बात की है कि किसी अच्छी रचना की अच्छाइयां और पैमानों पर खरी नहीं उतरने वाली रचनाओं के बारे में विस्तार से खुलासा हो। ऐसे प्रयास हमारे यहां बहुत कम हुए हैं।
- आप का कहना है कि राजस्थानी में आलोचना साहित्य नहीं है?
- जब तक आलोचना और समीक्षा में अंतर नहीं समझा जाएगा, यह धुंधलका रहेगा। किसी किताब की समीक्षा करने वाला भी खुद को आलोचक समझने लगता है। तात्विक दृष्टि से किसी भी भाषा में आलोचना रचना का समग्र आकलन होता है। हिंदी में भी आलोचना बहुत बाद में विकसित हुई है। किंतु आश्चर्य कि सौ सालों की भाषा हिंदी में आलोचना विकसित हो गई और हजार सालों की भाषा राजस्थानी में समग्र रूप से आलोचक नहीं है। सृजनात्मक दृष्टि और आलोचनात्मक दृष्टि दो भिन्न-भिन्न दृष्टियां हैं। यह जरूरी नहीं है कि कोई अच्छा कवि-कहानीकार अच्छा आलोचक भी हो सकता है और आलोचक के लिए जरूरी नहीं कि वह अच्छा कवि-कहानीकार भी हो।
- आप ने कहानी और कविता के क्षेत्र में आलोचना के प्रयास किए, फिर नाटक को क्यों छोड़ दिया?
- पहली बात पहले उतने नाटक तो हो। नाटक कहां है, मेरे अलावा जिद से नाटक लिखने वाले बेहद कम है। एक निर्मोही व्यास को छोड़ दिया जाए तो दूसरा कोई नाम नहीं है। हमारे यहां सुविधानुसार लिखने वाले हैं। सुविधा हो तो हिंदी में और सुविधा हो तो राजस्थानी में। सुविधा से भाषा की लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती है। वैसे मैंने नाटकों पर लंबा आलेख लिखा है और दो शोध कार्य राजस्थानी नाटक और रंगमंच को लेकर करवाए हैं। नाटक के क्षेत्र में पूरे देश में आलोचना का अभाव है। हिंदी जैसी बड़ी भाषा में भी नाट्य आलोचना परंपरा का पर्याप्त विकास नहीं हुआ है। नाटक का अभिप्राय प्रयोग करना समझा जाने लगा है। हमारे यहां दो हजार पांच सौ वर्षों पहले नाटक का शास्त्र विकसित हुआ है। हिंदुस्तान के साहित्य का यह बेजोड़ पक्ष है। रस शास्त्र पर बहुत बात हुई, किंतु अभिनय का जो शास्त्र है... उस पर बहुत कम चर्चा की गई है। भरत के नाट्य-शास्त्र के पहले अध्याय को छोड़ कर, दूसरे और छठे अध्याय पर बात होती है। साथ ही जोर केवल और केवल रस पर रहा है। पूरी प्रक्रिया को जानना-समझना जरूरी है। नाट्य-शास्त्र के पहले अध्याय में अद्भुद चीजें है, जिन्हें जानना चाहिए। चार वेदों से चार चीजों ली गई हैं- ऋग्वेद से पाठ्य, सामवेद से गान, यजुर्वेद से अभिनय और अथर्ववेद से रस। हजार सालों पहले जो अभिनव गुप्त ने माना, हम आज वही मान रहे हैं। उनके पांडित्य पर संदेह नहीं है, किंतु कोई ऐसा स्कॉलर ही नहीं हुआ जो इन सभी धारणाओं और धाराओं पर किसी बात का विचार करता। आलोचना के लिए बंधे-बंधाए पैटर्न से निकलना पड़ता है। नाटक वालों का मानना है कि उनका भला वेदों से क्या सरोकार, जबकि ऐसा नहीं है। आप जिस क्षेत्र में हैं उसका विशद और व्यापक ज्ञान अध्ययन जरूरी है।
- राजस्थानी भाषा की मान्यता में एकरूपता की समस्या कहां तक सही है?
- भाषा की अलग-अलग बोलियां उसकी कमजोरी नहीं, ताकत होती है। उदाहरण के लिए - हिंदी मानक स्वरूप और हिंदी की बोलियों में भेद नहीं है क्या? गुजरात में जिस गुजराती को मान्यता है, क्या कच्छी भाषा उससे भिन्न नहीं है क्या? ऐसा हर भाषा में होता है, यह राजस्थानी भाषा की मान्यता के मुद्दे को टालने के लिए केवल राजनैतिक बातें हैं। आजादी से पहले राजस्थान में राजस्थानी राजकाज की भाषा रही है।
- राजस्थानी भाषा की मान्यता से सीधा-सीधा क्या लाभ होगा?
- नौकरी के लिए प्रत्येक राज्य के नियम है कि उस विशेष राज्य की भाषा आपको आनी चाहिए। राजस्थान में गैर राजस्थानी लोग नौकरियों में आने से हमारे यहां के युवाओं के लिए रोजगार में संघर्ष बढ़ता जा रहा है। मान्यता की बात केवल भाषा और साहित्य तक नहीं, वरन हमारी रोटी-रोजी का जरूरी सवाल है। इसे राजस्थान की जनता को समझना जरूरी है। 
 






राजस्थानी मिट्टी की सौंधी महक / डॉ. मदन गोपाल लढ़ा

कहानी सुनना एक बच्चे की इच्छा भर नहीं है, मूल मानवीय-स्वभाव है। कहानी की शुरुआत संभवत: तब से हुई जब आदमी ने बोलना सीखा। लोककथाओं के रूप में एक समृद्ध विरासत विश्व भाषाओं की धरोहर है जिसे हम कहानी के प्रति हजारों सालों से इंसानी प्रेम का प्रमाण मान सकते हैं। इस मामले में राजस्थानी भाषा की संपन्नता सर्वविदित है। राजस्थानी लोक-साहित्य में हजारों लोककथाएं मौजूद हैं, जिनमें परंपरा, इतिहास, भूगोल और धर्म सहित जीवन के तमाम पक्षों का अंकन मिलता है। सदियों से श्रुति परंपरा से लोग के कंठों में रची-बसी ये कथाएं अपने समय-समाज की आकांक्षाओं एवं अवरोधों का प्रमाणिक दस्तावेज है। यह कहना तर्कसंगत नहीं होगा कि राजस्थानी की आधुनिक कहानी का विकास सीधे तौर पर लोककथाओं से हुआ है, मगर आधुनिक कहानी के बीज को पुष्पित-पल्लवित होने के लिए लोककथाओं ने उर्वर जमीन अवश्य तैयार की है। राजस्थानी कहानी का इतिहास मोटे तौर पर सौ साल से ज्यादा पुराना है। राजस्थानी की पहली कहानी का श्रेय शिवचंद्र भरतिया की 'विश्रांत प्रवासी' को दिया जाता है। आधुनिक कहानी के विकास के पीछे कमोबेश वही कारण रहे हैं जिनसे विदेशी व देशी साहित्य में शार्ट स्टोरी विधा का विकास हुआ। राजस्थानी कहानी का वर्तमान स्वरूप तो आजादी के बाद उन्नीसवीं सदी के छठे-सातवें दशक में ही बन पाया जब मुरलीधर व्यास व नानूराम संस्कर्ता के कहानी-संग्रह प्रकाश में आए।
    विगत छह-सात दशकों की यात्रा के बाद राजस्थानी कहानी जगत आज भरा-पूरा है। प्रदेश के विस्तृत भूभाग में सैकड़ों कहानीकार जग-जीवन के सच को कहानियों में विविध रूपों में ढाल रहे हैं। वरिष्ठ कवि-आलोचक डॉ. नीरज दइया के संपादन में प्रकाशित ग्रंथ "101 राजस्थानी कहानियां" कहानी विधा के सामर्थ्य का प्रमाण हैं। पांच सौ से ज्यादा पृष्ठों में 101 कहानियों के हिंदी अनुवाद की यह प्रस्तुति हिंदी जगत को राजस्थानी कहानी की विविधता एवं वैभव से साक्षात करवाती है। भूमिका के रूप में विद्वान संपादक का "राजस्थानी कहानी : कदम-दर-कदम" शीर्षक से शोध-आलेख कहानी की दशा-दिशा जाने के लिए अत्यंत उपयोगी और महत्त्वपूर्ण है। राजस्थानी की आधुनिक कहानी-यात्रा के विकास को चार काल-खंडों में वर्गीकृत करते हुए डॉ. दइया ने लिखा है कि कहानी के वैश्विक परिदृश्य में राजस्थानी के अनेक हस्ताक्षरों ने भारतीय कहानी को पोषित किया है। राजस्थानी कहानी भी भारतीय कहानी के विकास में कदम-दर-कदम साथ चल रही है। कहना न होगा, भारतीय कहानी का रूप-रंग भारतवर्ष की क्षेत्रीय भाषाओं की कहानियों से ही निर्मित होता है। राजस्थानी सहित देश की अन्यान्य भाषाओं की कथा-यात्रा को जाने समझे बगैर भारतीय कहानी के संप्रत्यय का सही रूप में आकलन करना संभव नहीं है।
    इसमें संदेह नहीं है कि अनुवाद-पुल के माध्यम से भाषाओं के मध्य आवाजाही हो सकती है। अनुवाद असल में दो भाषाओं के मार्फत दो विविधतापूर्ण संस्कृतियों को नजदीक लाकर जोड़ता है। राजस्थानी से हिंदी में अनूदित ये कहानियां हिंदी के माध्यम से देशभर की हिंदी-पट्टी के करोड़ों पाठकों के साथ अन्य भाषाओं के कहानी प्रेमियों को राजस्थानी कहानी के आस्वादन का अवसर एवं मूल्यांकन दृष्ति प्रदान करती है। वरिष्ठ कवि-संपादक डॉ. सुधीर सक्सेना का इस संग्रह के आरंभ में अभिमत देखा जा सकता है- "यह कृति राजस्थानी कहानी को जानने-बूझने के लिए राजस्थानी समेत तमाम भारतीय पाठकों के लिए अर्थ-गर्भी है। नीरज बधाई के पात्र हैं कि अपनी मिट्टी के ऋण को चुकाने के इस प्रयास के जरिए उन्होंने राजस्थानी कहानी को वृहत्तर लोक में ले जाने का सामयिक और साध्य उपक्रम किया है।"
    संग्रह में शामिल 101 कहानीकारों में राजस्थानी की भौगोलिक विविधता का समुचित प्रतिनिधित्व हुआ है। ये कहानियां राजस्थान की सांस्कृतिक समृद्धि की परिचायक तो है ही, राजकीय सरंक्षण के बिना संघर्षरत भाषा के कलमकारों के जीवट का भी प्रमाण है।  किताब के रचनाकारों की सूची देखें तो इसमें राजस्थानी कहानी को अपने पैरों पर खड़ा करने वाले यशस्वी कहानीकारों में यथा नानूराम संस्कर्ता, रानी लक्ष्मी कुमारी चूंडावत, नृसिंह राजपुरोहित, अन्नाराम सुदामा, विजयदान देथा, करणीदान  बारहठ, यादवेंद्र शर्मा 'चंद्र', बैजनाथ पंवार, श्रीलाल नथमल जोशी आदि की कहानियां शामिल हैं, वहीं कहानी को आधुनिकता के मार्ग अग्रसर करने वाले प्रमुख कहानीकारों में सांवर दइया, भंवरलाल ‘भ्रमर’, मनोहर सिंह राठौड़, रामस्वरूप किसान, बुलाकी शर्मा, मालचंद तिवाड़ी आदि की कहानियां संग्रह में संकलित है। राजस्थानी के समकालीन महत्त्वपूर्ण कहानीकारों में चेतन स्वामी, भरत ओला, सत्यनारायण सोनी, मनोज कुमार स्वामी, प्रमोद कुमार शर्मा, मधु आचार्य 'आशावादी' आदि भी पुस्तक का हिस्सा बने हैं तो महिला कहानीकारों में चूंडावत के अलावा जेबा रशीद, बसंती पंवार, सावित्री चौधरी, आनंद कौर व्यास, सुखदा कछवाहा, रीना मेनारिया की चयनित कहानियां किताब में शामिल की गई हैं।
    राजस्थानी कहानी के व्यापक और विस्तृत भवबोध को प्रस्तुत करती संग्रह में अनेक यादगार कहानियां देखी जा सकती है। ऐसा नहीं है कि यह राजस्थानी कहानी को हिंदी में ले जाने का पहला प्रयास हो, इससे पूर्व भी राजस्थानी कहानियों के हिंदी अनुवाद हेतु कतिपय प्रयास हुए हैं मगर एकसाथ शताधिक  कहानियों को हिंदी जगत के माध्यम से विश्व साहित्य के समक्ष रखने का यह पहला प्रयास है। निश्चय ही इस ग्रंथ से राजस्थानी कहानी की वैश्विक उपस्थिति दर्ज होगी और सेतु भाषा हिंदी के माध्यम से अनूदित होकर राजस्थानी कहानी देश-दुनिया की अन्य भाषाओं में पहुंचेगी। कहना न होगा यह दुष्कर कार्य योग्य संपादक डॉ. नीरज दइया की कुशलता व समर्पित अनुवादकों के सद्प्रयासों का सुफल है। असल में ऐसे प्रयास अकादमियों व अन्य संसाधनों से युक्त संस्थानों को करने चाहिए, क्योंकि ऐसे कामों में अत्यंत श्रम व अर्थ की आवश्यकता होती है। इस ग्रंथ को पाठकों तक पहुंचाने के लिए के. एल. पचौरी प्रकाशन वाकई बधाई के हकदार हैं जिसने राजस्थानी मिट्टी की महक को हिंदी के माध्यम से देश-दुनिया में फैलाने का बीड़ा उठाया है। कुंवर रवीन्द्र के सुंदर आवरण से सुसज्जित यह संग्रह निश्चय ही कहानी प्रेमियों के लिए संकलन योग्य उपहार है।
डॉ. मदन गोपाल लढ़ा
प्रधानाचार्य,
144 लढ़ा निवास, महाजन, बीकानेर
मोबाइल 9982502969
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101 राजस्थानी कहानियां (कहानी संग्रह) संपादक : डॉ. नीरज दइया
प्रकाशक : विकास प्रकाशन, जुबली नागरी भंडार, स्टेशन रोड़, बीकानेर (राज.)
पृष्ठ : 504 ; मूल्य : 1100 रुपये ; संस्करण : 2019

सच की ओर इशारा करती डॉ. नीरज दइया की व्यंग्य रचनाएं / नदीम अहमद ‘नदीम’

डॉ. नीरज दइया विभिन्न साहित्यिक विधाओं और भाषाओं में रचाव के साथ विशेष रूप से साहित्यिक आलोचना कर्म के लिए विशिष्ट पहचान रखते हैं। डॉ. दइया स्वयं आलोचना के मर्म से बखूबी वाकिफ है अतः जाहिर है कि जब अव्यवस्थाओं से सामना होता है और हर तरफ उदासी और निष्क्रियता देखते हैं तो इनका आक्रोश क़लम के माध्यम से व्यक्त होता है और इनके लिए अभिव्यक्ति का सार्थक माध्यम बनता है- व्यंग्य।
    व्यंग्य संग्रह ‘टांय टांय फिस्स’ में शामिल नीरज दइया की व्यंग्य रचना ‘फन्ने खां लेखक नहीं’ हमारे साहित्य-संसार के कुछ तुर्रम खां रूपी तथाकथित लेखकों की पोल खोलता है। इस व्यंग्य से गुजरते हुए पाठक जान पाता है कि कैसे साहित्य की दुनिया में लेखक अपने भक्तों के साथ साहित्यिक मठ संचालित करते हैं। डॉ. दइया का उद्देश्य केवल पाठक को गुदगुदाना नहीं वरन् चुटीले अंदाज में विसंगतियों की तह में जाकर अपने भाषायी कौशल से तीखे प्रहार करते हुए पाठकों में वैचारिक उद्धेलन करना है। ‘मीठी आलोचना का मीठा फल’ भी इनकी ऐसी ईमानदार रचना है, जो साहित्यिक आलोचना के खोखलेपन से पाठकों को परिचित करवाती है। पंच काका का ये कथन- “जब भी कोई किसी कि आलोचना लिखे साथ में रसगुल्ले और भुजिया लेकर ही बैठना चाहिए। कलम चलते-चलते ग़लत दिशा में जाने लगे तो झट से एक रसगुल्ला मुंह में डाला और कलम को संभाला और कभी लगे कि मीठे से जी उकता रहा हो भुजिया फांक के स्वाद को पटरी पर ले आओ।” अनकहे सच को इशारों-इशारों में बयां करता है। इशारों-इशारों में व्यंग्य के प्रहार से घायल करने की इनकी कलमी ताकत पर एक शेअर कलीम आज़िज़ का याद आता है- ‘दामन पे कोई छींट न, खंजर पे कोई दाग़ / तुम कत्ल करो हो के करामात करो हो।’ डॉ. दइया दरअसल करामात ही करते है कि कुव्यवस्था के दोषी इनके व्यंग्य तीरों से घायल भी होते परन्तु ऐसे घायलों के लिए न उगलते बनता, ना निगलते बनता है।
    व्यंग्य संग्रह “टांय-टांय फिस्स” की ख़ासियत ये है कि अधिकतर रचनाएं साहित्यिक दुनिया से संबंधित है। इस नज़रिये से हम अपने घर की थाह लेना भी सीखे। आलोचना, व्यंग्य और चुटीलेपन का कॉकटेल डॉ. नीरज दइया की भाषा में वो पैनापन ला देता है कि पाठक के मानस पटल पर शब्द चित्र से उभरने लगते हैं। व्यंग्य रचना ‘सेल्फी लेने के नए आइडिये’ जहां लेखक की समसायिकता से वाबस्तगी को जाहिर की है वहीं ‘जुगाडू लेखक का सम्मान’ में जुगाडूओं की नगंई को आईना दिखाया है। आईना इस खूबसूरती से कि पाठक सहज ही नज़र घुमाकर अपने आस-पास देखता हुआ बरबस कह उठता है- ‘अच्छा तो यह भी जुगाडू लेखक है।’ शीर्षक रचना ‘टांय टांय फिस्स’ में भी यही तेवर है। पंच काका के माध्यम से महान लेखकों की रचना को भी व्यंग्य बाणों की बौछार की जद में लिया गया है। एक समर्थ व्यंग्यकार कभी भी ग़रीबों और वंचितों पर तंज नहीं करता वरन् वह तमाम तरह की समस्याओं के मूल पर गहरी चोट करता है ऐसा करने पर ही व्यंग्य की प्रासंगिकता बरक़रार रह पाती है।
    डॉ. नीरज दइया का व्यंग्यकार बड़े नामधारी फन्ने खानों पे व्यंग्य के नुकीले बाण छोड़ने में गुरेज नहीं करता तभी तो इनका व्यंग्यकार पंच काका की सिफारिश पर भी फन्ने खां की किताब पर लिखने से स्पष्ट मना कर देता है। डॉ. नीरज के व्यंग्य एक साथ कई शिकार करते हैं जिसमें एक यह भी कि कहीं खुले में कहीं इशारों में पाठकों को वस्तुस्थिति से अवगत करवा देते हैं। ‘उठा पटक लेखक संघ’ शीर्षक रचना लेखकों के मुखौटे धीरे से नहीं वरन् नोंच कर उतारती है ताकि पाठकों को असली चेहरा देख सके।
    नोटबंदी जैसे विषयों पर लिखे व्यंग्य भी इस किताब की सामयिकता और प्रासंगिकता में अभिवृद्धि करते हैं। व्यंग्य रचना ‘साहित्य माफिया’ साहित्य जगत् की विसंगतियों विडम्बनाओं को बखूबी उजागर करती है। साहित्य में तानाशाही चलाने वाले नामाकूलों को ‘साहित्य-माफिया’ कह भी सम्बोधित किया गया है।     संग्रह ‘टांय टांय फिस्स’ के दीगर तंजिया कलाम में ‘ये मन बड़ा ही पंगा कर रहा’, ‘बिना विपक्ष का एक पक्ष’, ‘रचना की तमीज’, ‘पांच लेखकों के नाम’, ‘कहां है उल्लू’, ‘ठग जाने ठग की भाषा’, ‘कागज के दुश्मन’, आदि भी उल्लेखनीय हैं। ये कुछ ऐसी रचनाएं हैं जो आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के कथन- ‘व्यंग्य वह है जहां कहने वाला होठों ही होठों में हंस रहा हो और सुनने वाला या पढ़ने वाला तिलमिला उठा हो’ का स्मरण कराती हैं। यही बात तरकीब हमें डॉ. दइया की इन रचनाओं में प्रमुखता से मिलती है।
     दूसरी किताब ‘पंच काका के जेबी बच्चे’ में ख़ास किरदार पंच काका अपने जोश खरोश के साथ हैं। इन व्यंग्य रचनाओं में स्थाई पात्र पंच काका की अपनी अहमियत है। वे समाज, देश और राजनीति में व्याप्त भ्रष्टाचार, मूल्यहीनता के दौर में बेरोक-टोक जैसे रचनात्मक आक्रोश व्यक्त करते हैं। इस किरदार ने लेखक के काम को आसान कर दिया है। संग्रह की पहली रचना ‘व्यंग्य की ए.बी.सी.डी.’ में लोग लेखक से सवाल करते हैं कि व्यंग्य क्या है? इससे पहले ही लेखक ने लोगों की जिज्ञासा का समाधान ‘पंच काका’ के माध्यम चुटीले अंदाज में किया है। ‘बजट की गड़बड़-हड़बड़’ में व्यंग्यकार प्रारंभ में आर्थिक आंकड़ों में उलझा दिखई देता है, मगर पंच काका के श्रीमुख से निकले चंद अल्फ़ाज़ अवाम के असली दर्द को बयां करते हैं।
    ‘लोक देवता का देवत्व’ व्यंग्य रचना समझने वाले समझ गए जो न समझे वो अनाड़ी है की तर्ज़ पर इशारों में रची ऐसी शानदार रचना है जो ख़ास तौर पर उन पाठकों को ज़्यादा चिंतन पर मजबूर करेगी जो रचना की पृष्ठभूमि से परिचित है। कल्पना के घोड़ों की रफ्तार इस रचना में देखने लायक है। व्यंग्य रचना ‘हां कहने के हजार दुःख’ ख़ालिस व्यंग्य रचना नहीं है वरन् ये रचना व्यंग्य और दर्शन का ऐसा अनूठा संगम है जहां हां और ना कहने के सुख-दुःख के मनोविज्ञान को दर्शन के सहारे पाठकों तक सम्प्रेषित करने में व्यंग्यकार क़ामयाब रहा है। ‘एक नंबर बनाम दो नंबर’ व्यंग्य में पंच काका की पंक्ति आज के माहौल का ऐसा सच है जिससे इनकार नहीं किया जा सकता, काका कहते है- ‘नकल को असल जैसा प्रस्तुत करना ही वर्तमान समय में सबसे बड़ी कला है।’ दरअसल यही तो हो रहा है हर क्षेत्र में बनावटी और दिखावटी लोगों का वर्चस्व बढ़ता जा रहा है ऐसे लोगों को व्यंग्य आईना दिखाता है।
    डॉ. नीरज दइया अगर ‘मास्टर जी का चोला’ व्यंग्य रचना नहीं लिखते तो शायद उन पर ये इल्जाम आयद हो जाता कि शिक्षा जगत् पर इनके व्यंग्य बाण नहीं चले। सामाजिक सरोकारों से वाबस्तगी रखते व्यंग्य इस किताब की जीनत बने है। जैसे ‘संपर्कों का है बोलबाला’, पिताजी के जूते, नियम वहां जहां कोई पूछे, बच्चों के संग शिक्षक की सेल्फी, नमक नमकीन हो गया, शुद्ध चीजों का गणित, आदि ऐसे व्यंग्य है जिनमें हल्के-फुल्के चुटीले अंदाज में बहुत प्यार से व्यंग्यकार पाठक का रिश्ता सामाजिक सरोकारों से जोड़ने में कामयाब होता है। पाठक जब पढ़ता है- ‘एक टोपी को दूसरे के सिर पर रखने में जो आनंद है वह कोई हुनरचंद या भुक्तभोगी ही जान समझ  सकता है।’ तो मुस्कुराते हुए चेहरे का भूगोल ही बदल जाता है।
    भूगोल बदलते हुए डॉ. नीरज दइया अपने पंच काका के साथ पाठक को कब इतिहास में ले जाते है। पाठक को जब पता चलता है तो वह भी विस्मित हुए नहीं रहता, मगर तुरन्त ही जब ‘पंच काका के जेबी बच्चे’ आस पास के परिवेश में लाने लगते हैं तो वह सहज हो जाता है। एक बेहतरीन गंभीर व्यंग्यकार पाठक के दृष्टिकोण को रचनात्मक ढंग से बदलने का कार्य करता है। पाठक के सामने एक शब्द चित्र होता है जो मस्तिष्क में फिल्म की भांति चलता हुआ उसे वैचारिक आधार प्रदान करता है इस नज़रिऐ से हम कह सकते है कि डॉ. नीरज दइया की व्यंग्य रचनाएं भी सामाजिक सरोकारों के ताने बाने को ठीक रखने की जद्दोजहद में पाठक का साथ देती है।
नदीम अहमद ‘नदीम’  
जैनब कॉटेज, बड़ी कर्बला मार्ग, चौखूंटी, बीकानेर
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टांय टांय फिस्स (व्यंग्य संग्रह) डॉ. नीरज दइया ; संस्करण : 2017 ; पृष्ठ : 96 ; मूल्य : 200/- ;
प्रकाशक : सूर्य प्रकाशन मन्दिर, दाऊजी रोड (नेहरू मार्ग), बीकानेर- 334003
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पंच काका के जेबी बच्चे (व्यंग्य संग्रह) डॉ. नीरज दइया ; संस्करण : 2017 ; पृष्ठ : 96 ; मूल्य : 200/- ; 
प्रकाशक : सूर्य प्रकाशन मन्दिर, दाऊजी रोड (नेहरू मार्ग), बीकानेर- 334003

राजस्थानी कहानी : कदम दर कदम / डॉ. नीरज दइया

जीवन जब से आरंभ हुआ तब से कहानियों की परंपरा चली आ रही है। जीवन अपने आप में एक कहानी है और इस जीवन में अनेक कहानियां घटित होती हैं। अनेक कहानियों की परिकल्पनाएं हमारे भीतर चलती रहती है। इस परंपरा को लोक-भाषा ने एक आधार दिया। ‘पठनीयता’ कहानी-कला की प्रमुख विशेषता रही है। कहानी के पठनीय होने की शर्त को सभी स्वीकारते हैं। कहानी अपने पहले वाक्य से पाठक-श्रोता को बांध लेती है। उसका पहला परिच्छेद हमें अपने जादू से प्रभावित कर देना चाहिए। यह भाषा और भावों का जादू नहीं तो भला क्या है? हमारी इतनी प्रगति के बाद भी शब्दों और कहानी का यह जादू कायम है और सदा कायम रहेगा। वैसे सभी कलाओं और कला-माध्यमों का ध्येय होता है- रसिकों को जोडऩा और जोड़े रखना। भारत की तमाम भाषाओं में कहानी ने अपने पाठकों को जोड़े रखा है। हर भाषा और समय का अपना-अपना महत्त्व है।
    इक्कीसवीं शताब्दी की आधुनिकता में बीसवीं शताब्दी की आधुनिकता से काफी बदलाव आया है। समयानुसार आधुनिकता परिवर्तित-परिवद्र्धित होती है। कुंदन माली के अनुसार- ‘आधुनिक के काल सापेक्ष अर्थ से यह पता चलता है कि आधुनिकता की गति समय के साथ बढ़ती रहती है। इस दृष्टि से देखें तो क्या यह नहीं कहा जा सकता कि गुजरे समय के आधुनिक के समक्ष आज का आधुनिक अधिक ‘आधुनिक’ है, या फिर जो कल आधुनिक था, वह आज आधुनिक नहीं रहा, क्योंकि हम ऐतिहासिक समय-चक्र पर खड़े होकर प्राचीन-आधुनिक पर विचार करते होंगे।’ (समकालीन राजस्थानी काव्य : संवेदना अर शिल्प, पष्ठ-7)
    आने वाले कल के बारे में भविष्यवक्ता भले सकारात्मक अथवा नकारात्मक बातें करते रहें। लोग उन्हें सच-झूठ मानते रहें। किंतु यह निर्विवादित सत्य है कि भविष्य में जो कुछ घटित होता है, वह हमारे वर्तमान का प्रतिफलन होता है। हमारा वर्तमान भी बीते कल का प्रतिफलन है। हम भूतकाल से सबक सीखते हुए वर्तमान को गढ़ते हैं। अपने वर्तमान से भविष्य को संवारते हैं। भारतीय कहानी का भविष्य हमारी क्षेत्रीय भाषाओं की कहानियों से निर्मित होगा। हरेक भाषा में कहानी की अपनी परंपरा और विकास के आयाम रहे हैं। अपनी समृद्ध-साहित्यिक विरासत और विकास के कारण आधुनिक राजस्थानी कहानियों का भारतीय कहानी में विशेष महत्त्व है। 
    राजस्थानी भाषा और समकालीन साहित्य के बारे में बात करते हुए हमें इतिहास के अनेक पन्ने पलटने होंगे। आचार्य शुक्ल ने आदिकाल को जिन रचनाओं के आधार पर वीरगाथाकाल नाम दिया, वे अधिकांश राजस्थानी की हैं। हम शेष रचनाओं को यदि छोड़ भी दें तो केवल ‘पृथ्वीराज रासो’ के बल पर राजस्थानी भाषा-साहित्य की प्राचीनता, विशालता और समृद्धि के विषय में कोई संशय नहीं रहता है। भक्तिकाल में ‘मीरा पदावली’ और ‘वेलि क्रिसन रूकमणी री’ भी राजस्थानी भाषा-साहित्य के पक्ष में अकाट्य प्रमाण है। इसके अतिरिक्त भी अनेक अप्रकाशित, प्रकाशित रचनाएं इस संदर्भ में उल्लेखित की जा सकती है।
    डिंगळ की श्रेष्ठ रचनाओं में पृथ्वीराज राठौड़ (पीथल) की कृति ‘वेलि क्रिसन रूकमणी री’ की चर्चा ‘मुंहणोत नैणसी की ख्यात’ में मिलती है। पीथल और अकबर के संबंधों को इन पंक्तियों में देखा जा सकता है- ‘पीथल सूं मजलिस गई, तानसेन सूं राग/ रीझ बोल हंस खेलबो, गयो बीरबल साथ।’ डॉ. एल.पी. तैस्सितोरी ने राजस्थानी भाषा-साहित्य के विषय में बहुत कार्य किया। राजस्थानी की प्राचीन पांडुलिपियों से सिद्ध होता है कि यहां का अतीत गौरवशाली रहा है। जैन साहित्य और विभिन्न संप्रदायों के साहित्य का आकलन भी राजस्थानी की समृद्धि के पक्ष में जाता है। राजस्थानी के पास लोक साहित्य के विपुल भंडार में लोककथाओं की समृद्ध परंपरा रही है।
    लोककथाओं में चकोर पक्षियों का प्रसिद्ध संवाद है- ‘कह रे चकवा बात, कटै ज्यूं रात।’, ‘कै घरबीती कैवूं, कै परबीती?’ लोक में यह एक मिथक है- चकवा-चकवी दिन में प्रेमपूर्वक साथ विचरण करते हैं किंतु सूर्यास्त के साथ बिछुड़ जाते हैं और रात भर अलग-अलग रहते हैं। कहने का अभिप्राय यह है कि हमारी कहानियों में ‘घरबीती’ और ‘परबीती’ के जो संदर्भ विकसित होते हैं वे लोककथाओं में वर्षों पहले सूत्र के रूप में विकसित हुए।
    ‘बात में हुंकारो, फौज में नगारो’ अथवा अन्य भांति आरंभ होने वाली लोककथाएं बेहद रसमय होती थीं। श्रुति परंपरा में लोककथाओं का अपना निराला अंदाज रहा है। लोककथाओं के कहे जाने के साथ-साथ ‘हूंकारिये’ का ‘हूं’-‘हां’ कहना, क्या क्रिया-प्रतिक्रिया के सिद्धांत अथवा दुनिया के प्रत्येक कार्य-व्यवहार में प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा का हमारा जन्मजात स्वभाव है। सिद्धांतत: मनुष्य प्रजाति शब्द की सत्ता इसलिए स्वीकारती है कि वह एकांत और मौन से बाहर आने को सदैव लालायित रही है। मौन में भी बिना शब्दों के संवाद और एकांत में भी शब्द की सत्ता का सिलसिला, हमारी इसी आदिम लालसा का परिणाम है। हमारा प्रतिक्रियावादी और संवादी होना मूलत: ‘घरबीती’ और ‘परबीती’ की चर्चा से जुड़ा है।
    प्रकारांतर से हमारी परंपरा में जो ‘कहन’ का भाव है कहानी लिखने-पढऩे से जुड़ता चला गया है। राजस्थानी लोककथाओं में निरंतर उत्सुकता का भाव उनके रस का प्राण है। यह शब्द की सत्ता का लोककथाओं में एक उत्सव है, जिसे प्रतिदिन की दिनचर्या में शामिल रखा गया था। अंधेरे और रात के विरूद्ध यह मनुष्य जाति की सामूहिकता, एकजुटता और सामाजिकता का प्रमाण है। लोककथाओं के विपुल भंडार को सहजेने-संवारने का काम राजस्थानी में राणी लक्ष्मीकुमारी चूड़ावत, विजयदान देथा, नानूराम संस्कर्ता, डॉ. मनोहर शर्मा जैसे अनेक अनेक साहित्य-साधकों ने किया। लोककथाओं के अथाह भंडार से हमारी आधुनिक कहानी ने कितना कुछ ग्रहण किया, यह शोध का विषय है। किंतु लंबे अर्से तक राजस्थानी कहानी में लोककथा की व्याप्ति अनेक रूपों में रही।
    ऐतिहासिक साक्ष्यों के आधार देखें तो राजस्थानी में प्राचीन और मध्यकालीन गद्य की समृद्ध परंपरा रही है। राजस्थान में राजस्थानी भाषा राजकाज की भाषा थी। तब यह राजपूताना कहलाता था और इसकी अनेक रियासतें थीं। देश की एकता और अखंडता के लिए राजभाषा हिंदी के पक्ष में राजस्थानी भाषा ने अपना बलिदान दिया। संविधान की आठवीं अनुसूचि में शामिल होने का उसने बड़ा त्याग किया। जो तत्कालीन परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए समीचीन था, किंतु हमारे पूर्वजों को यह ज्ञात नहीं था कि आजादी के इतने वर्षों बाद भी हमारी भाषा को उसका वाजिब अधिकार नहीं मिलेगा। सूर्यमल्ल मीसण (1815-1868) की रचना ‘वंश भास्कर’ (भाग 1-9) में आधुनिक गद्य का पहला प्रारूप देखा जा सकता है। इस विशालकाय ग्रंथ का प्रकाशन साहित्य अकादेमी ने किया है। रामधारीसिंह ‘दिनकर’ ने उन्हें राष्ट्रीयता की दृष्टि से उन्नीसवीं सदी का बेजोड़ कवि और अपने सारे समकालीन कवियों से आगे माना।
    आधुनिक काल में प्रथम कहानी का श्रेय शिवचंद भरतिया की ‘विश्रांत प्रवासी’ (1904) को दिया गया है। हिंदी कहानी के साथ आरंभ हुई राजस्थानी कहानी लंबे समय तक ठहरी और ठिठकी रही। अन्य भारतीय भाषाओं के समान राजस्थानी में कहानियों का विकास आजादी के बाद हुआ। यह बड़ा दुर्भाग्य है कि लगभग पचास वर्षों तक कहानी के क्षेत्र में उदासीनता रही। प्रवासी लेखकों की कुछ कहानियां हैं किंतु इस कालखंड का कहानी विकास में योगदान बेहद न्यून रहा। आजादी के बाद कहानी लेखन में सक्रियता देखी गई। बीकानेर के मुरलीधर व्यास ‘राजस्थानी’ का संग्रह ‘बरसगांठ’ (1956) और नानूराम संस्कर्ता के ‘ग्योही’ (1957) का प्रकाशित होना इस दिशा में एक सार्थक हस्तक्षेप था। आधुनिक कहानी का वण्र्य-विषय समाज अथवा व्यक्ति का भीतर-बाहर ही है। यथार्थ और कल्पना के सम्मिश्रण से वर्णित घरबीती और परबीती के अनेक साक्ष्य कहानियों में मिलते हैं। डॉ. अर्जुनदेव चारण का मानना है- ‘आधुनिक राजस्थानी कहानी की शुरुआत उत्साह-वर्धक नहीं रही। वर्ष 1935 से 1965 तक का कालखंड कहानी की रेखा को बनाते हुए दिखाई देता है किंतु वह कहानी विधा के प्रति भरोसा उपजाने वाली दृष्टि नहीं दे पाया था।’ (राजस्थानी कहाणी : परंपरा-विकास, पृष्ठ-34)
    वर्ष 1976 में साहित्य अकादेमी से प्रकाशित ‘आज रा कहाणीकार’ में रावत सारस्वत ने संपादक के रूप में लिखा- ‘उन्नसवीं शताब्दी के खत्म होते होते अंग्रेजी और हिंदी के प्रवेश के साथ राजस्थानी साहित्यिक रचनाएं दीन-हीन अवस्था में पहुंचने लगी। पिछले डेढ़ सौ वर्षों की इस हीन दशा ने राजस्थानी के भाषा रूप को समाप्त करने का कार्य किया। यही कारण है कि आज की राजस्थानी कहानी को अन्य विधाओं के साहित्य जैसे अपनी पुरानी धारा से अलग नया रास्ता अपनाना पड़ा।’ इसी स्वर में स्वर मिलते संग्रह के दूसरे संपादक रामेश्वरदयाल श्रीमाली ने संपादकीय टिप्पणी में लिखा- ‘आज हम जिस कहानी की चर्चा करते हैं और आज की कहानी नाम से जिसे विधा के रूप में पहचानते हैं, वह कहानी राजस्थानी में भारत की आजादी के आस-पास प्रत्यक्ष रूप से हिंदी और हिंदी में भी प्रेमचंदीय कहानियों के प्रभाव के इर्द-गिर्द फैली हुई है। इसी समय जनमानस के अनुसार आजादी की लड़ाई के जन-जागरण के साथ-साथ देश की सभी भाषाओं के साहित्य की तरह राजस्थानी भाषा और इसके कहानी साहित्य ने भी एक बार आलस्य त्यागा किंतु फिर बहुत वर्षों तक सोया रहा।’
    यहां शब्द जरूर कुछ कठोर है किंतु राजस्थानी कहानी के बारे में विचार करेंगे तो दो बातें स्पष्ट होती हैं। पहली राजस्थानी की आधुनिक कहानी भी हिंदी और भारतीय भाषाओं के समानांतर गतिशील-विकसित हुई है। दूसरी बात यह कि हम कहने को भले कहानी को लगभग सौ वर्षों की कहें, किंतु असल में आजादी के बाद और खासकर वर्ष 1970-71 के बाद के कहानीकारों ने आधुनिकता की दिशा में कहानी को गतिशील बनाया।
    यादवेन्द्र शर्मा ‘चन्द्र’ के अनुसार- ‘वास्तव में देखा जाए तो राजस्थानी कहानी ने नए तेवर के साथ अपना विकास स्वतंत्रता के पश्चात ही किया। प्रारंभ में उसमें पारंपरिक आदर्शवाद का गहरा सम्मिश्रण था जो लोक-साहित्य से काफी प्रभावित था, लेकिन उन कथाओं में जीवन और मनुष्य की उपस्थिति दर्ज होने लगी। शिल्प-शैली तथा भाषा में कसाव आने लगा था, पर उनमें गहरी पैठ और सूक्ष्मता का अभाव था। अन्य भाषाएं जहां काफी विकास कर चुकी थीं, वहां राजस्थानी का सूर्य उदय होकर चमकने लगा था।’ (राजस्थानी की प्रतिनिधि कहानियां, भूमिका, पृष्ठ-5-6)
    डॉ. अर्जुनदेव चारण का मानना है- ‘आधुनिक राजस्थानी कहानी लोककथा के दवाब से जहां मुक्त होती प्रतीत हुई वह कालखंड 1972-74 का है। विजयदान देथा, सांवर दइया, भंवरलाल ‘भ्रमर’ और रामेश्वर दयाल श्रीमाली की इस काल-खंड की कहानियां इसकी साक्षी हैं। (राजस्थानी कहाणी : परंपरा-विकास, पृष्ठ-35)
    सांवर दइया का मानना है- ‘कहानी को अपने परिवेश और आस-पास की जिंदगी से उठाने की कोशिश 1971-75 के आस-पास जोर मारने लगी थी, यह शुरुआत अचानक नहीं हुई। इस हेतु जो जमीन मुरलीधर व्यास ने अपनी कृति ‘बरसगांठ’ (1956) से हमारे सामने रखी वही आगे चलकर मनोहर शर्मा की ‘करड़ी आंच’ और श्रीलाल नथमल जोशी की ‘पगोथिया’ जैसी कहानियों में भी मिलती है और बैजनाथ पंवार की ‘नैणा खूट्यो नीर’ जैसी कहानियों में भी मिलती है।’ (‘उकरास’ कहानी-संकलन की भूमिका, पृष्ठ-20)
    डॉ. गोरधनसिंह शेखावत ने लिखा है- ‘यहां यह भी देखना है कि राजस्थानी कहानी का इतिहास अधिक लंबा नहीं है, फिर भी बहुत कम समय में कहानी बात-ख्यात और लोककथा से मुक्ति पा कर कहानी के मौलिक स्वरूप में आई है।’ (जागती जोत, फरवरी-मार्च 1994, पृष्ठ-69)
    कहानी के मौलिक स्वरूप में देरी से आने का एक कारण यह भी मान सकते हैं कि आलोचना का विकास देरी से हुआ। कहानी आलोचना के क्षेत्र में समीक्षाएं और आलेख लिखे गए। व्यवस्थित प्रयासों में डॉ. अर्जुनदेव चारण की ‘राजस्थानी कहानी : परंपरा-विकास’ (1998) और डॉ. नीरज दइया की ‘बिना हासलपाई’ (2014) पुस्तकें प्रकाश में आई हैं। राजस्थानी कहानी के बदलते और निरंतर विकसित होते स्वरूप को देखने-परखने का ‘राजस्थानी कहानी का वर्तमान’ (2018) भी एक प्रयास है, जिसमें राजस्थानी कहानी की चुनिंदा दस कहानी-संग्रहों पर दस-दस टिप्पणियों को प्रस्तुत किया गया है।
    दूसरा और बड़ा कारण शासन द्वारा इसे भाषा के रूप में नहीं स्वीकार करना भी है। स्थितियां आज भी कहां बदली है? भाषा विज्ञान के सभी मानकों को पूरा करने वाली राजस्थानी भाषा की मान्यता का प्रस्ताव अब भी विचाराधीन है। यहां यह उल्लेखनीय है कि विश्वविद्यालयों और उच्च कक्षाओं के पाठ्यक्रम में राजस्थानी है। देश-विदेश में इसे मान्यता मिल चुकी है। साहित्य अकादेमी ने भी इसे स्वतंत्र भाषा की मान्यता वर्ष 1974 में विजयदान देथा के संग्रह ‘बातां री फुलवाड़ी, भाग-10’ को सम्मानित कर प्रदान की है। तब से अब तक अनेक राजस्थानी साहित्यकार सम्मानित हो चुके हैं। यदि कहानीकारों की बात करें तो मूलचन्द ‘प्रणेश’ (चश्मदीठ गवाह, 1982), सांवर दइया (एक दुनिया म्हारी, 1985), यादवेन्द्र शर्मा ‘चन्द्र’ (जमारो, 1989), नृसिंह राजपुरोहित (अधूरा सुपना, 1993), करणीदान बारहठ (माटी री महक, 1994), भरत ओळा (जीव री जात, 2002), चेतन स्वामी (किस्तूरी मिरग, 2005), दिनेश पंचाल (पगरवा, 2008), रतन जांगिड़ (माई ऐड़ा पूत जण, 2009), रामपाल सिंह राजपुरोहित (सुन्दर नैण सुधा, 2014) और बुलाकी शर्मा (मरदजात अर दूजी कहाणियां, 2016) कहानीकार के रूप में सम्मानित हो चुके हैं।
    राजस्थानी कहानी के विषय में हम चर्चा करें तब इस सिलसिले में एक महत्त्वपूर्ण तथ्य ध्यान रखना होगा कि इसके उत्थान के लिए सरकारी और गैर-सरकारी संरक्षण बेहद न्यून रहे हैं। इस न्यूनता के उपरांत भी रचनाकार साहित्य-सृजन के प्रति अपना निराला प्रेम बचाए हुए हैं। रचनाकारों का यह निराला प्रेम नहीं तो भला क्या है कि वे अपनी सीमाओं के रहते हुए, स्वयं प्रकाशन का कार्य करते हुए निरंतर इस साहित्यिक अनुष्ठान में आहूतियां दे रहे हैं। हमारा यह यज्ञ अपनी भाषा, साहित्य और संस्कृति को बचाने के लिए वर्षों से चला आ रहा है। एक बड़ी चुनौती मातृ-भाषा राजस्थानी और हमारे संस्कारों के संरक्षण की है। जो कुछ किया जाना संभव है, हमारे लेखक-समुदाय द्वारा किया जा रहा है। निजी स्तर पर साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन किया जा रहा है। अनेक पत्रिकाएं आरंभ हुई और अर्थाभाव में बंद हो गई। कुछ पत्रिका अब भी जूझारू संपादकों की लगन से नियमित प्रकाशित हो रही है। यह यात्रा रुकी नहीं है, इस यात्रा को रुकना नहीं चाहिए। कुछ हिंदी और अन्य भाषाओं की पत्रिकाओं ने राजस्थानी साहित्य पर केंद्रित अंक भी प्रकाशित किए हैं। इस दिशा में जयपुर से पत्रिका ‘कुरजां संदेश’ (मार्च, 2016 ; संपादक- ईशमधु तलवार, अतिथि संपादक- दुष्यंत) ने राजस्थानी कहानी पर केंद्रित अंक ‘रेत में उपजी कहानियां’ निकालकर सराहना कार्य किया है।
    मेरा मानना है कि किसी एक ही पैमाने या प्रविधि से सभी भाषाओं के साहित्य और कार्यों का सही मूल्यांकन नहीं हो सकता। जैसे- कहानी को कालखंडों में बांट कर देखने की एक प्रविधि दशकवार आकलन रही है। राजस्थानी के संदर्भ में एक दूसरा विकल्प मैंने प्रस्तावित किया था, जिसे मेरी राजस्थानी आलोचना पुस्तकों ‘आलोचना रै आंगणै’ (2011) और ‘बिना हासलपाई’ (2014) में विस्तार से विवेचना के साथ प्रस्तुत किया है- ‘यदि वर्ष 1956 से लगातार 15-15 वर्षों के कालखंड करें तो आधुनिक कहानी हमारे समक्ष चार अध्ययों में अपनी प्रतिष्ठा दर्शाती है-
1. वर्ष 1956 से 1970        2. वर्ष 1971 से 1985
3. वर्ष 1986 से 2000        4. वर्ष 2001 से आज तक
    यह विभाजन समग्र कहानी-यात्रा को समझने में मददगार हो सकता है।’
    कहानीकार बुलाकी शर्मा के अनुसार- ‘मेरी दृष्टि में राजस्थानी कहानी का काल-निर्धारण सिर्फ और सिर्फ सांवर दइया के नाम से होना चाहिए, जैसे कि हिंदी में प्रेमचंद के नाम से है। सांवर दइया पूर्व कहानी काल, सांवर दइया कहानी काल और सांवर दइया उत्तर कहानी काल। क्योंकि सांवर दइया के जाने के बाद भी राजस्थानी कहानी उनकी कहानियों से सीख-समझ और दृष्टि लेकर आज तक आगे का रास्ता तय कर रही है।’ (जागती जोत, जून-जुलाई, 2018, पृष्ठ-70)
    सांवर दइया के नाम से काल निर्धारण को तार्किक रूप से सिद्ध करते हुए अपने आलेख में कहानीकार बुलाकी शर्मा ने लिखा है- ‘राजस्थानी के विद्वान साहित्यकार यादवेन्द्र शर्मा ‘चन्द्र’, रामेश्वरदयाल श्रीमाली, डॉ. गोरधनसिंह शेखावत, डॉ. तेजसिंह जोधा और श्याम जांगिड़ ने सांवर दइया के कहानी अवदान की अच्छी समालोचना की है। इन विद्वानों, आलोचकों और कहानीकारों की एक राय है कि लोककथाओं से राजस्थानी कहानी को मुक्त कर उसे नवीन स्वरूप देने वाले सांवर दइया ही हैं। उन्होंने राजस्थानी कहानी को कथ्य, शिल्प, भाषा, भाव-भंगिमा, कहनपन आदि हरेक दृष्टि से नए आयाम दिए, तभी उनके समकालीन कहानीकार रामेश्वरदयाल श्रीमाली ने माना कि सांवर दइया जैसा दूसरा कोई राजस्थानी कहानीकारों में दिखाई नहीं देता।’ (जागती जोत, जून-जुलाई, 2018, पृष्ठ-69)
    कहानीकार श्याम जांगिड़ के इसी संदर्भ में विचार हैं- ‘राजस्थानी कहानी विधा को पूर्णत: लोककथा से मुक्त करने का श्रेय सांवर दइया को ही जाता है। अत: वर्ष 1970 से 1990 का काल राजस्थानी कहानी का ‘सांवर दइया काल’ माना जाता है। सांवर दइया का काल कहानी के हिसाब से ही नहीं, संपूर्ण आधुनिक राजस्थानी साहित्य के लिए भी स्वर्ण-युग कहा जा सकता है।’ (राजस्थानी री आधुनिक कहाणियां, पृष्ठ-14)
    राजस्थानी कहानी के विकास को जानने के लिए बेहतर होगा हम प्रमुख कहानीकारों और कहानियों की चर्चा करें।
    कहानीकार नृसिंह राजपुरोहित (1924-2005) राजस्थानी कहानी के विकास के लिए आजीवन सक्रिय रहे। उनकी लंबी साहित्यिक-यात्रा और राजस्थानी मासिक ‘माणक’ के संपादन का बड़ा महत्त्व है। वर्ष 1951 में ‘पुन्न रो काम’ से आरंभ हुई उनकी कहानी-यात्रा को पांच संग्रहों- ‘रातवासौ’ (1961), ‘अमर चूंनड़ी’ (1969), ‘मऊ चाली माळवै’ (1969), ‘प्रभातियौ तारौ’ (1983) और ‘अधूरा सुपना’ (1992) में देख सकते हैं। नृसिंह राजपुरोहित ग्रंथावली भी राजस्थानी में प्रकाशित हुई है। उन्होंने राजस्थानी को अनेक यादगार कहानियां दी, जैसे- उतर भीखा म्हारी बारी, गिरजड़ा, भारत भाग्य विधाता, रजाई, विदाई, जानकी गाथा, नागपूजा आदि।
    नृसिंह राजपुरोहित और विजयदान देथा समवयस्क थे और पढ़ाई के साथ साहित्य की दुनिया में सक्रिय हुए। विजयदान देथा ‘बिज्जी’ नाम से लोकप्रिय हुए और उन्होंने 1960 में ‘बातां री फुलवाड़ी’ के माध्यम से लोककथाओं के संचयन का कार्य आरंभ किया। आरंभिक दौर में साहित्य की अग्रिम पंक्ति के अनेक रचनाकार सक्रिय हुए, जैसे- नारायणसिंह भाटी, कन्हैयालाल सेठिया, रेंवतदान चारण, श्रीलाल नथमल जोशी, सत्यप्रकाश जोशी, नानूराम संस्कर्ता, यादवेन्द्र शर्मा ‘चंद्र’, अन्नाराम सुदामा आदि। मंचीय कविता के दौर में बहुत कम रचनाकार ऐसे थे जो गद्य और खासकर कहानियां लिखते थे।    
    श्रीलाल नथमल जोशी (1922-2010) जैसे अनेक वरिष्ठ रचनाकार राजस्थानी में हुए हैं जिनके लेखन पर समय रहते आलोचना ने पर्याप्त ध्यान नहीं दिया। जोशी राजस्थानी कहानी में पहली पीढ़ी के नायाब कहानीकार रहे हैं। उनका पहला संग्रह ‘परण्योड़ी-कंवारी’ (1973) आया और संभवत: उसी दौर में लिखी कहानियों का दूसरा संग्रह ‘मैंधी, कनीर अर गुलाब’ (1997) बाद में प्रकाशित हुआ। स्थानीय लोक भाषा को कहानियों में ढालते हुए जोशी जी पहले ऐसे सजग कहानीकार हैं जिन्होंने शैल्पिक प्रयोग किए जिसे लोककथाओं से भिन्न एक नई धारा के रूप में पहचाना जा सकता है। जोशी जी का भारतीय भाषाओं से संपर्क रहा जिसके माध्यम से वे राजस्थानी कहानी को भारतीय कहानी के धरातल पर देखने की परिकल्पना कर सके। उनकी कहानियों में तत्कालीन समय और समाज की अभिव्यक्ति है, साथ ही नए विषय और परिकल्पनाएं हैं। ‘मैंधी, कनीर अर गुलाब’ कहानी प्रेम का त्रिकोणीय भेद स्पष्ट करती हुई जैसे प्रकृति के माध्यम से एक पाठ हमें पढ़ाती है। आधुनिक साहित्य को समृद्ध करने वाले वे प्रमुख गद्यकार के रूप में जाने जाते हैं।
    आधुनिक राजस्थानी गद्य-साहित्य निर्माण में जिन आरंभिक रचनाकारों का विशेष महत्त्व रहा, उनमें एक महत्त्वपूर्ण नाम अन्नाराम सुदामा (1923-2014) का है। राजस्थानी उपन्यास में अपनी विशिष्ट पहचान रखने वाले सुदामा जी के चार कहानी संग्रह- ‘आंधै नैं आंख्यां’ (1971), ‘गळत इलाज’ (1984), ‘माया रो रंग’ (1996) तथा ‘ऐ इक्कीस’ (2010) प्रकाशित हुए हैं। भाषा में हास्य और व्यंग्य के साथ अनेक व्यंजनाएं प्रस्तुत करने वाले सुदामा जी के कथा-संसार में आदर्श, जीवन-मूल्य और संस्कार महत्त्वपूर्ण रहे हैं। कर्मक्षेत्र में शिक्षक रहे सुदामा की कहानियों में जीवन के सकारात्मक पक्षों का प्रमुखता से चित्रण हुआ है। बाल-विवाह, शकुन विचार, जीव-दया, छुआछूत, स्वाभिमान, आत्म-सम्मान, ईमानदारी, अंधभक्ति, पड़ौसी-धर्म, कोल का मोल, दया, संस्कार, संबंध और स्वार्थों आदि की अभिव्यक्ति में वे हमें संस्कारवान बनाते हैं।
    आजादी के बाद किसान और गाय की बात विचारें तो मुंशी प्रेमचंद का स्मरण कर सकते हैं। राजस्थानी कहानी में गांव, किसान, अकाल, सामाजिक रूढिय़ों को ले कर अनेक कहानियां लिखी गई है। अन्नाराम सुदामा की कहानियां इन में पृथक इसलिए है कि उनके यहां सारी तकलीफों के बाद भी मनुष्य को उच्च आदर्शों पर अडिग बने रहने की प्रेरणा मिलती है। कहानी ‘सूझती दीठ’ में दूध अथवा ‘अखंड जोत’ में घी की मांग और विक्रय की बात है। वर्तमान समय अर्थ का हो चला है फिर भी समाज में अनेक ऐसे चरित्र हैं जिनकी आस्था अब भी मूल्यों के प्रति अडिग है। दूध और घी जैसे पदार्थों के विक्रय में निजी लाभ के स्थान पर मानवता का महान विचार रखने वाले विचारवान पत्र हमें प्रेरणा देते हैं। दूध-घी इंसानों के लिए है इन्हें व्यर्थ बरबाद करने से भला क्या फायदा!
    कथाकार करणीदान बारहठ (1925-2002) को वर्ष 1994 में साहित्य अकादेमी पुरस्कार उनके दूसरे कहानी संग्रह ‘माटी री महक’ (1992) के लिए अर्पित किया गया। इस संग्रह से पूर्व कहानीकार के रूप में वे ‘आदमी रो सींग’ (1974) से अपनी पहचान बना चुके थे। आजादी के बाद सामंती प्रथा की जड़ें हिलने लगी और साहूकारी व्यवस्था के सुख-दुख बारहठ की कहानियों के विषय बने। राजाओं की सत्ता के बाद ठाकुरों के जीवन के भेदों को उजागर करने वाली कहानियां ‘ठिकाणो’ हो अथवा ‘चिमनी रो चानणो’ उल्लेखनीय है। यहां मूंछों पर चावल दिखाने की जिद जिंदा है।
    सांवर दइया पूर्व कहानी काल के कहानीकारों ने कहानी को विधा के रूप में खड़ा करने का काम किया। सांवर दइया कहानी काल में कहानी समष्टि से व्यष्टि और स्थूल से सूक्ष्मता की दिशा में आगे बढ़ती लोककथा और कहानी के द्वंद्व से भी मुक्त हुई। परंपरा से विकसित होती कहानी में अनेक घटकों का समावेश होता चला गया। सूक्ष्म से सूक्ष्म अभिव्यक्ति का माध्यम कहानी बनी।
    सांवर दइया (1948-1992) के जीवन काल में उनके चार कहानी-संग्रह ‘असवाड़ै-पसवाड़ै’ (1975), ‘धरती कद तांई घूमैली’ (1980), ‘एक दुनिया म्हारी’ (1984) और ‘एक ही जिल्द में’ (1987) प्रकाशित हुए। उनके देहावसान पश्चात ‘पोथी जिसी पोथी’ (1996) और ‘छोटा-छोटा सुख-दुख’ (2018) संग्रह सामने आए।  पुरस्कृत कहानी-संग्रह हिंदी में ‘एक दुनिया मेरी भी’ (2000) साहित्य अकादेमी से प्रकाशित हुआ है। इसमें बदले समय और समाज में अध्यापकों के जीवन से जुड़ी कहानियां हैं। वे अध्यापकों के जीवन के माध्यम से राष्ट्र-निर्माताओं के बाह्य-आंतरिक दुख-दर्द को अभिव्यक्त करते हैं।  उनके द्वारा संपादित कहानी-संग्रह ‘उकरास’ (1991) चर्चित रहा।
    कवि डॉ. तेजसिंह जोधा के अनुसार- ‘सांवरजी और मैं 1972-73 के बीच आपसी खतोकिताबत। ‘हरावळ’ में छप रही उनकी कहानियां मुझे छू रही थी। महज इसलिए नहीं कि वे राजस्थानी के लिए नई थीं बल्कि उन दिनों वे राजस्थानी में होकर हिंदी के लिए भी नई थी।’
आलोचक डॉ. गोरधनसिंह शेखावत का मानना है- ‘राजस्थानी कहानी साहित्य में सांवर दइया का योगदान अविस्मरणीय है। वे प्रतिष्ठित कथाकार थे। राजस्थानी में नयी कहानियों की शुरुआत उन्हीं की कहानियों से हुई।’
    श्वेत-श्याम टेलीविजन के दौर में भारतीय कहानियों की शृंखला में राजस्थानी कहानी ‘जसोदा’ के टेलीकास्ट होने पर रामेश्वर दयाल श्रीमाली (1938-2010) चर्चा में आए। आपके दो संग्रह ‘सळवटां’ (1980) और ‘जाळ’ (2005) प्रकाशित हुए। समाज की मुख्य धारा से जुदा निम्न वर्ग के पात्रों की व्यथा-कथा प्रमुखता से इन कहानियों में उजागर होती है।
    सांवर दइया कहानी काल में आरंभ से बेहद सक्रिय और प्रमुख रहे भंवर लाल ‘भ्रमर’ के तीन कहानी संग्रह- ‘तगादो’ (1972), ‘अमूजो कद तांई’ (1976) और ‘सातूं सुख’ (1995) प्रकाशित हुए हैं। कथाकार यादवेन्द्र शर्मा ‘चंद्र’ के अनुसार ‘तगादो’ से राजस्थानी कहानी नव-युगबोध की दिशा में बढ़ती है। भ्रमर की कहानी कला पर माकूल आलोचना के अभाव में पर्याप्त ध्यान नहीं दिया जा सका। स्त्री जीवन को अपनी गरिमा के साथ व्यंजित करती भ्रमर की कहानियों में ‘अप-डाउन’, ‘सातूं सुख’, ‘बातां’, ‘अमूजो कद तांई’ आदि प्रतिनिधि कहानियां है। वर्ष 1991 में सांवर दइया के संपादित संग्रह ‘उकरास’ में संकलित कहानी ‘बातां’ से फिर से चर्चा में आए। ‘भ्रमर’ ने ‘मनवार’ और ‘मरवण’ जैसी कथा साहित्य को समर्पित पत्रिकाओं का प्रकाशन-संपादन कर राजस्थानी कहानी को आगे बढ़ाने में महत्ती भूमिका निभाई।
    मूल रूप से लंबे समय से राजस्थानी में लिखने और राजस्थानी को जीने वाले कहानीकारों में एक प्रमुख नाम मनोहर सिंह राठौड़ का लिया जा सकता है। आपके तीन कहानी संग्रह ‘रोसणी रा जीव’ (1983), ‘खिड़की’ (1989) और ‘गढ़ रो दरवाजो’ (1997) प्रकाशित हुए हैं। आपकी कहानियों में राजस्थान के गांवों के सांस्कृतिक जीवन का अंकन हुआ है। ग्रामीण समस्याओं के चित्रण से कहानीकार बिना वाचल हुए सब कुछ ऐसे कह देता है कि पढऩे वाला निराकरण की दिशा में स्वयं गतिशील होता है। राजस्थान की नारी के त्याग-तप और सहिष्णुता के कुछ दुर्लभ चित्र भी कहानियों में संचित हुए हैं। ‘सांढ’ कहानी में ग्रामीण राजनीति तो ‘गढ़ रो दरवाजा’ में वृद्धावस्था के गहरे रंग हैं। उनकी कहानियों में बदलते जीवन मूल्यों, रीति-रिवाज के साथ संस्कारों की चिंता प्रमुखता से प्रस्तुत की गई है।
    राजस्थानी कहानी और साहित्य-इतिहास लेखन के क्षेत्र में 1986 से लगभग बीस वर्षों तक जुड़े कहानीकार बी. एल. माली ‘अशांत’ ने बहुत काम किया है। उनके ‘किली-किली कटको’ (1978), ‘राई-राई रेत’ (1986) कहानी संग्रहों में समस्याओं को देखने-परखने के अलग नजरिये से उनकी कहानियां उल्लेखनीय है।
    यादवेन्द्र शर्मा ‘चन्द्र’ (1932-2009) ने हिंदी में विपुल मात्रा में लेखन किया और वे प्रख्यात कथाकार के रूप में पहचाने जाते हैं, उनके दो कहानी-संग्रह ‘जमारो’ (1987) और ‘समंद अर थार’ (2003) राजस्थानी में प्रकाशित हुए हैं। नारी पात्रों को जितनी विविधता और मुखरता के साथ चन्द्र जी ने प्रस्तुत किया है उतना किसी अन्य कहानीकर ने नहीं किया है। साहित्य अकादेमी से पुरस्कृत संग्रह ‘जमारो’ हिंदी में भी उपलब्ध है।
    राजस्थानी साहित्य में एक समस्या यह है कि किसी रचनाकार का किसी विधा विशेष में अगर संकलन प्रकाशित नहीं हुआ तो उसे धीरे-धीरे भुला दिया जाता है। किसी रचनाकार के आकलन के लिए बिना कृति के रचनाओं को ढूंढऩे-परखने का कार्य बेहद श्रमसाध्य होता है। राजस्थानी कहानी के क्षेत्र में कार्य करते करते हुए मैंने पाया कि कुछ रचनाकार जैसे मोहन आलोक, कन्हैयालाल भाटी, मुरलीधर शर्मा ‘विमल’, रामकुमार ओझा आदि ऐसे हैं, जिन्होंने अनेक उम्दा कहानियां लिखी पर उन्हें कहानीकार रूप पर ध्यान नहीं दिया गया।
    जब ‘मोहन आलोक री कहाणियां’ (2010) मेरे संपादन में प्रकाशित हुआ, तब उन्हें प्रमुख कहानीकार के रूप में आलोचना द्वारा पहचाना जाने लगा। मोहन आलोक की कहानी ‘कुंभीपाक’ में हरिजन और सवर्ण के आरक्षण मुद्दे को बारीकी से उठाया गया है। फंतासी के रूप में कहानी में शूद्र और सवर्ण दोनों ही अपनी-अपनी देह में जाने से मना करते हैं। आजादी के बाद देश में उपजी सामाजिक विद्रूपता को इस कहानी में तल्खी से उजागर किया है। बाजारवाद और भूमंडलीकरण की चर्चा साहित्य में बहुत बाद में आई उससे बहुत पहले ‘बाप’ (पिता) कहानी में मोहन आलोक ने इसका संकेत किया था। मोहन आलोक आठवें दशक में सक्रिय कहानीकार रहे हैं। उनकी ‘बुद्धिजीवी’ (1974), ‘अलसेसन’ (1974), ‘रामू काको ’ (1975), ‘एक नुंवी लोककथा’ (1973), ‘उडीक’ (1973) और कुंभीपाक (1973) कहानियां उस समय की प्रतिष्ठित पत्रिकाएं- हरावळ, मरुवाणी, हेलो और जागती जोत में प्रकाशित हुई किंतु उस समय आलोचना द्वारा संज्ञान में नहीं लिया जा सका। मोहन आलोक सांवर दइया कहानी काल के कहानीकार हैं किंतु कवि के रूप में प्रतिष्ठित मोहन आलोक को कहानीकार के रूप में प्रतिष्ठा उनके इस कहानी संग्रह के प्रकाशन के बाद मिली।
    एक ऐसा ही नाम मुरलीधर शर्मा ‘विमल’ (1936-2013) का भी है। उनकी कहानियां ‘संभाळ’ (1975, सं. विजयदान देथा), ‘चेतै रा चितराम’ (1977, सं. नारायणसिंह भाटी) और ‘लखाण’ (1978, सं. रावत सारस्वत) जैसे संग्रहों और पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी थी। कहानी संग्रह ‘काया कळपै : मुंडो मुळकै’ (1999) बाद में प्रकाशित हुआ। उन्होंने अपनी नवीन भाषा-शैली और शिल्प की दृष्टि से राजस्थानी कहानी को मजबूत किया।
    यही बात कहानीकार कन्हैयालाल भाटी (1942-2012) के बारे में कही जा सकती है। उन्हें केवल अनुवादक के रूप में जाना जाता था। उन्होंने भी सांवर दइया कहानी काल-खंड के दौरान कहानियां लिखी, किंतु कोई संग्रह प्रकाश में नहीं आया। ‘कन्हैयालाल भाटी री कहाणियां’ (2011) का प्रकाशन हुआ तो उनके अनुवादक के साथ-साथ कहानीकार रूप को स्वीकृति मिली। ऐसे अनेक कहानीकार इस विकास यात्रा में छूट गए हैं, जिनके संग्रह समय पर प्रकाशित होने थे और उन्हें निरंतर कहानी विधा में गतिशील रहना था।
छगनलाल व्यास के चार कहानी संग्रह ‘गुनैगार’ (1988), ‘तरेड़’ (2000), ‘मिनखपणौ’ (2005) तथा ‘पगफेरो’ (2015) प्रकाशित हुए हैं। छगनलाल व्यास और भीखालाल व्यास राजस्थानी कहानी में नारी चरित्रों के सुख-दुख को प्रस्तुत करते हुए घर-परिवार और राजस्थानी समाज को साकार करते हैं। अनेक कहानीकारों के कहानी-संग्रह प्रकाशित होने के बाद भी कम चर्चा हुई है जैसे विनोद सोमानी ‘हंस’ के संग्रह ‘चुप्पी’ (1999) आदि के साथ ऐसा हुआ है। इसी भांति देवकिशन राजपुरोहित के पांच कहाणी-संग्रह ‘वरजूड़ी रो तप’ (1970), ‘दांत कथावां’ (1971), ‘मौसर बंद’ (1989), ‘बटीड़’ (2003) ‘म्हारी कहाणियां’ (2007) प्रकाशित हैं, पर चर्चा कम हुई है।
    यह भी हुआ है कि अनेक कहानीकारों ने स्वयं को कहानी लेखन में लगातार सक्रिय नहीं रखा। माधव नागदा का भी एक कहानी संग्रह ‘उजास’ (1999) राजस्थानी में प्रकाशित हुआ है। उनकी कहानियों में राजस्थान का जन-जीवन और पर्यावरण के साथ उसका आत्मिक जुड़ाव दिखाई देता है। उनकी कहानी ‘नीलकंठी’ स्त्री चरित्र की सहनशीलता का बेजोड़ नमूना है।
    सांवर दइया कहानी काल के कुछ कहानीकार ऐसे हैं जिनके कहानी संग्रह देरी से प्रकाशित हुए। जैसे- मीठेस निरमोही का संग्रह ‘अमावस, अेकम अर चांद’ (2002)। उन्होंने आकार में छोटी और औसत कहानियों के दौर में लंबी-लंबी कहानियां लिखी। ‘अमूझता आखर’ और ‘हवा भांग भिळी’ दोनों कहानियां अधिकार की लड़ाई में गांधीवादी विचारधार का पोषण करती है। ‘गवाही’ और ‘बंधण’ कहानियां मोहभंग और बदलते समय में सांस्कृतिक मूल्यों को प्रस्तुत करती है।
    रामपालसिंह राजपुरोहित (1935-2017) के चार कहानी संग्रह- ‘बिखरता चितराम’ (2001), ‘परण्या री पेढी’ (2006) ‘सुंदर नैण सुधा’ (2012) तथा ‘बिना छाजा वाळौ घर’ (2014) प्रकाशित हुए हैं। वर्ष 2014 के लिए साहित्य अकादेमी से पुरस्कृत राजपुरोहित अपनी कहानियों में नई और पुरानी पीढ़ी के गणित को समझने-समझाने का प्रयास करते हैं। उनकी कहानियां राजस्थानी समाज का सुघड़ भाषा में अपने मुहावरे के साथ ऐसी अभिव्यक्त हुई है कि उसका अनुवाद हिंदी अथवा भारतीय भाषाओं में करना एक बड़ी चुनौती है। उनके पात्र अपनी जमीन और जड़ों से जुड़े पूरी ऊर्जा और संघर्ष में नए मूल्यों की स्थापना के लिए प्रेरक हैं।
    राजस्थानी कहानी में एक समय था जब डूंगरगढ़ (बीकानेर) के कहानीकारों चेतन स्वामी, मालचंद तिवाड़ी, मदन सैनी आदि ने धूम मचाई और काफी बाद में एक ऐसा दौर आया जिसमें परलीका (हनुमानगढ़) ने धूम मचाई।
    चेतन स्वामी के तीन कहानी संग्रह ‘आंगणै बिचाळै भींतां’ (1987), ‘किस्तूरी मिरग’ (2003) और ‘उलटो उगमाराम’ (2017) प्रकाशित हुए हैं। राजस्थानी जनजीवन और अपने परिवेश का सजीव चित्रण इन कहानियों में मिलता है। सामाजिक चेतना और प्रगतिशील तेवर से सजी इनकी भाषा, शिल्प और कथ्य की प्रस्तुति मर्मस्पर्शी है। स्वामी ने गौर जरूरी वर्णनों से कहानी को बचाते हुए मनुष्य जाति के आंतरिक द्वंद्व और अंतर्विरोधों को गंभीरता से उजागर किया है।
    मालचंद तिवाड़ी के ‘धड़ंद’ (1986), ‘सेलीब्रेशन’ (1998) दो संग्रह राजस्थानी में प्रकाशित है। इन कहानियों में जीवन युद्ध में हारने वाले पात्रों की मनोदशा का सजीव चित्रण और उनका संघर्ष उजागर हुआ है। जटिल संवेदनाओं की अभिव्यक्ति में संबंधों में व्याप्त होता ठंडापन यथार्थवादी दृष्टिकोण के साथ कहानियों में प्रस्तुत हुआ है। वे पात्रों के आडंबर-आवरण को हटाते हुए जीवन में आए परिवर्तन को अनुभव के स्तर पर वर्णित करते हैं।
    मदन सैनी के कहानी संग्रह ‘फुरसत’ (1997) और ‘भोळी बातां’ (2003) में राजस्थानी लोक जीवन और संवेदनाओं को ‘दया’, ‘दीठ’ और ‘फुरसत’ जैसी अनेक कहानियों से अभिव्यक्ति मिली है। वे कहानी में बहुत छोटे कालखंड की मर्मस्पर्शी घटनाओं के माध्यम से अपने पात्रों को सजीव करते हैं कि उनके भोले और मासूम पात्र हमारे अंतस में घर कर लेते हैं।
    व्यंग्यकार-कहानीकार बुलाकी शर्मा की चर्चा करते हैं। शर्मा के दो राजस्थानी कहानी संग्रह ‘हिलोरो’ (1994) और ‘मरदजात अर दूजी कहाणियां’ (2013) प्रकाशित हुए। हिंदी में भी समानांतर एक महत्त्वपूर्ण लेखक के रूप में पहचाने जाने वाले शर्मा ‘हिलोरो’ और ‘लसणियो’ जैसी कहानियों से चर्चा में आए। उनके यहां कोमल भावनों को बचाने का संघर्ष भी देखा जा सकता है। ‘मरदजात अर दूजी कहाणियां’ पर उन्हें साहित्य अकादेमी पुरस्कार अर्पित किया गया। राजस्थानी में वे वर्ष 1978 से रचनाकर्म में रत हैं।
कहानीकार नंद भारद्वाज के संग्रह ‘बदळती सरगम’ (2009) में कहानी के अनेक पात्रों द्वारा विभिन्न रूपों में घरबीती का वर्णन मिलता है। कुछ कहानियों में  मरु-अंचल के अनेक चित्र, जीवन और घटना-प्रसंग इतनी प्रामाणिकता से व्यंजित हुए हैं कि वे आत्मकथा के अंश जैसे प्रतीत होते हैं। परिवेश के साथ-साथ सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन के वे चितेरे हैं। भारद्वाज की कहानियों में पारिवारिक संबंधों और रिश्तों को शानदार ढंग से पिरोया गया है।
    दिनेश पांचाल ने अपने संग्रह ‘शांति नो सूरज’ (1993) और ‘पगरवा’ (2005) के माध्यम से वागड़ अंचल का जन-जीवन और लोक संस्कृति को कहानियों में साकार किया है तो विजय जोशी  के ‘मंदर मं एक दन’ (1999) और ‘आसार’ (2004) इस यात्रा को आगे बढ़ाने वाले हैं।
    नाटककार अशोक जोशी ‘क्रांत’ (1988-13) अपने संग्रह ‘आड़ंग’ (2003) और ‘पावसी’ (2009) के माध्यम से कहानीकार के रूप में भी पहचाने जाते हैं। उनकी कहानी ‘जोड़-बाकी’ में भष्ट व्यवस्था, रिश्वत और हरामखोरी को संवाद शैली में प्रस्तुत किया गया है। उन्होंने जीवन की नाटकीय स्थितियों को उजागर करते हुए राजस्थानी कहानी में नए प्रयोग किए हैं।
    प्रमोद कुमार शर्मा ने अपने कहानी संग्रह ‘सावळ / कावळ’ (1995) और ‘राम जाणै’ में अनेक प्रयोग किए हैं। वे अपने आस-पास के जीवन की स्थूल स्थितियों से कहानी उठाते हुए उसे सूक्ष्म सवालों और बारीक विश्लेषण की हद तक ले जाते हैं। उन्होंने लोकभाषा प्रयोग से कहानियों में जीवंत भाषा से मनुष्य के भीतरी संघर्ष और जूझ को स्वर दिए हैं।
    सांवर दइया उत्तर कहानी काल के प्रमुख कहानीकार रामस्वरूप किसान अपनी कहानी ‘दलाल’ से चर्चा में आए। किसान के तीन संग्रह- ‘हाडाखोड़ी’ (2000), ‘तीखी धार’ (2009), ‘बारीक बात’ (2015) प्रकाशित हुए हैं। वे परलीका गांव के हैं और जैसा कि कहा गया है परलीका को कहानी ग्राम कहा गया है क्योंकि सांवर दइया उत्तर कहानी काल की कहानियों में वहां के कहानीकारों का महत्त्व है। पत्रकारिता के इतिहास में ‘कथेसर’ (संपादक- रामस्वरूप किसान) के माध्यम से कहानी विकास को गति मिली है। वहां से सत्यनारायण सोनी, भरत ओळा, रामस्वरूप किसान,  मेहरचंद धामू, रामेश्वर गोदारा ‘ग्रामीण’, विनोद स्वामी और संदीप धामू जैसे नाम जुड़े हैं।
    सत्यनारायण सोनी का पहला संग्रह ‘घमसाण’ वर्ष 1995 में प्रकाशित हुआ। ‘धान कथावां’ (2010) संग्रह में उनकी अनेक चर्चित कहानियां शामिल हैं। अपनी भाषा, शिल्प और संवेदना के बल पर जीवंत चरित्रों को रचते हुए वे जीवन की कठोर वास्तविकताओं से हमारा साक्षात्कार कराते हैं। दौड़भाग की जिंदगी में क्षीण होती संवेदनाओं की चिंता प्रमुखता से इन कहानियों में अभिव्यक्त होती है।
    भरत ओला के चार कहानी संग्रह- ‘जीव री जात’ (1998), ‘सेक्टर न.5’ (2004), ‘भूत’ (2013) तथा ‘कित्ती कहाणी खतम’ (2015) प्रकाशित हुए हैं। उन्हें पहले कहानी संग्रह पर साहित्य अकादेमी पुरस्कार अर्पित किया गया और वे निरंतर कहानियां लिखने वाले कहानीकार हैं। किशोर मन की यौन-उत्सुकता से जुड़ी कहानी ‘गाभाचोर’ विषय की दृष्टि से नई है। ‘भरत ओला की चुनिंदा कहानियां’ (2015) संग्रह भी प्रकाशित हुआ है।  इन दिनों वे ‘हथाई’ पत्रिका का संपादन-प्रकाशन कर रहे हैं।
    डॉ. कुंदन माली के अनुसार- ‘भरत ओला की कथा-शैली सांवर दइया का ऐक्सटेंशन या मेडीफिकेशन है? यदि इसका उत्तर हां है तो कोई आश्चर्य नहीं क्योंकि प्रेरणा ग्रहण करना प्रकृति का नियम है। अत: किसी सार्थक ट्रेंड को आगे विकसित करना महत्त्वपूर्ण है।’ (आलोचना री आंख सूं, पृष्ठ-72)
    मेहर चंद धामू भी परलीका के कहानीकार हैं लेकिन आलोचकों का इन पर ध्यान कम गया है। कहानीकार मेहर चंद धामू के दो संग्रह ‘ताळवै चिप्योड़ी जीभ’ (2005) और ‘हरी बत्ती-लाल बत्ती’ (2012) प्रकाशित हुए हैं। ग्रामीण जनजीवन के विविध रंगों से यह कहानीकार अपनी लोकभाषा में लोकरंजन के साथ जीवन और जीवन से जुड़े अनेक प्रसंगों की प्रतीकात्मक-मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति करता है। धामू की कहानियों की दुनिया गांव, गवाड़, जमीन, खेत, खेजड़ी, घर, नहर, सिंचाई, भाईचारा, पड़ौसी, आवागमन, गरीबी, दुख-दर्द, अकाल, बीड़ी, चिलम, दवा-दारू, पढ़ाई-लिखाई, भजन, तंग हालात, थानेदार, पटवारी, बीडीओ, सरपंच, दुकानदार, सगे-संबंधी, रीति-रिवाज आदि से जुड़ी है। इन और अनेक अन्य कहानीकारों के यहां बदलते और विकसित होते राजस्थान का वर्तमान ग्रामीण जन-जीवन चित्रित हुआ है।
    कमल रंगा का एक संग्रह ‘बणतो इतिहास’ (2000) प्रकाशित हुआ और वे ‘रेखा रो पुल’, ‘फिल्म दरवाजा’ जैसी कहानियों से चरित्रों के द्वंद्व को उजागर करते हैं। अरविंद सिंह आशिया के तीन संग्रह ‘कथा : अेक’ (2001), ‘कथा : दोय’ (2009) और ‘काबरचीतरा’ (2017) प्रकाशित हुए हैं। वे चरित्रों को अलहदा अंदाज से प्रस्तुत करते हैं कि चरित्र हमारे भीतर स्थाई रूप से घर कर लेते हैं। उनकी कहानी ‘हुंसरडाई’ में बीछूड़ी जैसे आभूषण द्वारा जो कथा समाने आती है उसमें प्रेम और जीवन के अनेक संदर्भ जुड़ते जाते हैं। कहानी ‘1947’ लंबी कहानी है जिसमें देश की आजादी और हिंदु-मुस्लिम दंगों के साथ मानव जाति के हृदयों में बसा अमिट प्रेम भी उजागर होता है।
    सांवर दइया उत्तर कहानी काल के बेहद संभावनाशील कहानीकार पूर्ण शर्मा ‘पूरण’ के दो संग्रह ‘डौळ उडीकती माटी’ (2004) और ‘मेटहु तात जनक परितापा’ (2012) प्रकाशित हुए है। राजस्थानी में इनकी कहानियों में पात्रों के साथ जीवंत परिवेश का चित्रण मिलता है। कहानी के साथ-साथ समानांतर अपने आस-पास के लोक को अभिव्यक्ति मिली है। यहां की सांस्कृतिक और भौगोलिक झलक से राजस्थानी कहानी समृद्ध होती है। विषयों की विविधता के साथ मानवीय संबंधों का जिस सूक्ष्मता से प्रतीकात्मक प्रस्तुतीकरण पूरण करते हैं वह निराला है। वे बहुत कम शब्दों में बड़ी और गहरी बात करने का हुनर जानते हैं इसका प्रमाण संकलित कहानी ‘कहानी की कहानी’ में भी मिलता है।
    जूझारू पत्रकार के रूप में चर्चित कहानीकार मनोज कुमार स्वामी के ‘काचो सूत’ (2006), ‘इमदाद’ (2012) और ‘किंयां...!!’ (2014) तीनों संग्रहों में अनेक मार्मिक कहानियां है। स्वामी संवेदनशील मन के रचनाकार हैं और जो कुछ समाज में घटित होता है उसे वे अपने कहानीकार की आंख से देखते हैं। अखबार में बहुत-सी घटनाएं खबर बन जाने के बाद उनके आस-पास का समग्र जीवन और संवेदनाएं अभिव्यक्त नहीं हो पाती। हमारी नजर से छूटे विषयों को बहुत बारीकी से इन कहानियों में चिंतन मिलता है। समाज के रीति-रिवाज, कुरीतियां, रूढिय़ां और छोटी-बड़ी सभी समस्याओं के साथ कहानीकार मानवता का पेरोकार रहा है।
    रामेश्वर गोदारा ‘ग्रामीण’ के कहानी संग्रह ‘मुकनो मेघवाळ अर दूजी कहाणियां’ (2007) और ‘वीरे तूं लाहौर वेखण आई’ (2011) प्रकाशित हुए हैं। इनकी ‘मुकनो मेघवाळ’ और ‘मछली’ जैसी कहानियों की व्यापक सराहना हुई है।
    लंबे समय से राजस्थानी कहानी में सक्रिय नवनीत पाण्डे का ‘हेत रा रंग’ (2012) संग्रह खास तौर पर युवा वर्ग के बदलते सोच को लेकर लिखी गई कहानियों के लिए याद किया जाएगा। यहां बदलते और आधुनिक होते जीवन में छूटते जीवन-मूल्यों और संस्कृति से जुड़े रहने का उम्दा सोच है। धन के पीछे दौड़ते अनेक पात्रों में असंतोष और निराशा है। आलोचक कुंदन माली के शब्दों में - ‘नवनीत पाण्डे अपनी कहानियों के माध्यम से वैश्वीकरण के दौर और प्रक्रिया के कारण जीवन में आनेवाले नकारात्मक और निर्थक मान्यताओं और मानवीय मूल्यों के बिखराव की प्रवृति की तरफ हमारा ध्यान दिलाने का प्रयास करते हैं।’
‘मेळौ’ (2015) के कहानीकार राजेन्द्र शर्मा ‘मुसाफिर’ ने बहुत कम समय में अपनी पहचान बनाई है। कहानी ‘मेळौ’ में सांस्कृतिक रंगों का सशक्त चित्रण है। यहां अमीरी-गरीबी का दृश्य सामने आता है, वहीं अंत में पूरी दुनिया ही किसी बड़े मेले के रूपक में खड़ी हो जाती है। कहानी ‘ओळमौ’ (उलाहना) है। जिसमें कुछ शब्दों से कहानी जो व्यक्त करती है, उससे अधिक उसका मौन प्रभावित करता है। कहानी अपने सूक्ष्म और स्थूल संकेतों के जरिए अविस्मरणीय पाठ बन जाती है।
    पत्रकार-रंगकर्मी के रूप में विख्यात मधु आचार्य ‘आशावादी’ का नाम राजस्थानी कहानी में सर्वाधिक संभावना के रूप में देखा जा रहा है। आपके चार राजस्थानी कहानी संग्रह- ‘ऊग्यो चांद ढळ्यो जद सूरज’ (2014), ‘आंख्यां मांय सुपनो’ (2015), ‘हेत रो हेलो’ (2017) और ‘दो चोट्यां आळी छोरी’ (2018) प्रकाशित हो चुके हैं। हिंदी और राजस्थानी में समान रूप से सृजनरत ‘आशावादी’ की कहानियां यादवेन्द्र शर्मा ‘चन्द्र’ और सांवर दइया का स्मरण इसलिए कराती हैं कि उन्होंने भी अनेक बेजोड़ पात्र दिए हैं और कहानी में संवाद-प्रयोग प्रमुखता के साथ किया है। यह हमारी सृजन परंपरा का विकास है।
    वर्तमान समय और समाज के अक्स को प्रस्तुत करती अनेक अच्छी कहानियां युवा कहानीकार डॉ. मदन गोपाल लढ़ा ने ‘च्यानण पख’  (2014) में दी है। डायरी शैली में लिखी कहानी ‘च्यानण पख’ यानी शुक्ल-पक्ष एक ऐसी युवती की कहानी है जो समय के साथ समझवान होती जैसे स्त्री-विमर्श को नई राह प्रदान करती है। लढ़ा ने राजस्थानी जन-जीवन के उन छोटे-छोटे पक्षों को प्रामाणिकता से उभारने का प्रयास किया गया है, जिन से हम रोजमर्रा की दिनचर्या में अपने घर-परिवार और आस-पास के जीवन में सामना करते हैं।
    राजस्थानी कहानी में दलित विमर्श का प्रखर प्रारूप युवा कहानीकार उम्मेद धानिया के संग्रह ‘आंतरो’ (2007) और ‘लेबल’ (2013) में देखा जा सकता है। लेबल को साहित्य अकादमी युवा पुरस्कार अर्पित किया गया है। धानिया की लेबल कहानी समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से बेजोड़ कहानी है। आजादी और विकास की यात्रा में दलित समाज के कुछ लोग बहुत आगे बढ़ गए हैं। प्रशासनिक और उच्च अधिकारी वर्ग में पहुंचे ये जिस दोहरी मानसिकता में जीवन जीते हैं उसका प्रामाणिक चित्रण लेबल में हुआ है। कहानी बहुत प्रभावी ढंग से सवाल उठाती है कि समाज की मुख्य धारा में आने के बाद भी उन पर दलित वर्ग का लेबल कब तक लगा रहेगा? जातिगत समीकरणों से त्रस्त समाज के एक वर्ग की पीड़ा कहानी ‘नीची जात’ में अभिव्यक्ति हुई है।
    राजेन्द्र जोशी के दो कहानी संग्रह- ‘अगाड़ी’ (2015) और ‘जुम्मै री नमाज’ (2018) आए हैं। जोशी की कहानियां अपने कथ्य और उनके प्रति बेबाक नजरिए के कारण याद की जाती है। कथ्यों में विविधता और कुछ ऐसे विषयों पर उन्होंने कहानियां लिखी हैं जो राजस्थानी के लिए नए कहे जा सकते हैं।
    निशांत के संग्रह ‘बींरो आणो अर जाणो’ (2015) में पारिवारिक और सामाजिक सच के साथ बहुत मामूली बातों पर कहानी रचने का हुनर देखा जा सकता है। ‘अखबार पानै री चोरी’ रेल-यात्रा में अखबार के पन्नेे की चोरी से आरंभ हुई कहानी देश सुधार और वर्तमान के अनेक विवरणों से जुड़ जाती है। चरित्रों को अपने मुखौटों से बाहर लाती इन कहानियों में जनसेवकों का वास्तविक चेहरा भी दिखाई देता है।
    कुमार अजय के संग्रह ‘किणी रै कीं नीं हुयौ’ (2013) में ‘भरिये सूं भारी’ जैसी मार्मिक कहानियों में एक युवा आंख की संवेदनशीलता के दर्शन होते हैं। युवाओं में अपनी आंचलिकता और नए प्रयोग के कारण सतीश छिम्पा अपने कहानी-संग्रह ‘वान्या अर दूजी कहाणियां’ (2016) से चर्चा में आए। उनके यहां वान्या के माध्यम से समाज में स्त्रियों की बदली छवि और अतिआधुनिक होते युवावर्ग के चरित्र की मार्मिक अभिव्यक्ति हुई है। आधुनिकता की चकाचौंध में सांस्कृतिक विचलन यहां हमारा ध्यान खींचता है। इसी क्रम में मंगत बादल, देवदास रांकावत, श्रीभगवान सैनी, श्याम जांगिड़, ओम नागर, दुलाराम सहारण सरीखे अनेक कहानीकारों की सक्रिय उपस्थिति से कहानी का दायरा बढ़ा है और बढ़ता जा रहा है।
    महिला लेखन के मामले में प्रगति देखी जा सकती है। महिला कहानीकारों की संख्या बढ़ती जा रही है। आज जब हिंदी और इतर भारतीय भाषाओं में स्त्री विमर्श पर चर्चा होती है, तो राजस्थानी भी पीछे नहीं है। बेशक हमारा संख्यात्मक दायरा छोटा हो, किंतु समस्याएं और सवाल उनसे जुदा नहीं है। यहां नायिकाओं के पास परंपराओं और रूढिय़ों की जकडऩ के साथ अस्मिता का सवाल है। वे भी जीवन के मूलभूत प्रश्नों और आजादी, स्त्री-पुरुष समानता, वैश्विकरण आदि पर अपनी बात रख रही हैं। आधुनिकता और खुली बयार का असर राजस्थानी कहानियों में भी है। बोल्ड कथानकों के अनेक प्रयोग कहानियां में हुए हैं। कहानी के वैश्विक परिदृश्य में राजस्थानी के अनेक हस्ताक्षरों ने भारतीय कहानी को पोषित किया है। राजस्थानी कहानी भी भारतीय कहानी के विकास में कदम-दर-कदम साथ चल रही है। हिंदी के साथ भारत की क्षेत्रीय भाषाओं के कहानीकार भारतीय कहानी की बहुआयामी छवि निर्मित कर रहे हैं।
    यादवेंद्र शर्मा ‘चंद्र’ ने राजस्थानी कहानियों को हिंदी पाठकों तक पहुंचाने का सराहनीय कार्य किया। उनके संपादन में प्रकाशित ‘कालजयी कहानियां’ और ‘राजस्थानी की प्रतिनिधि कहानियां’ (2002) हैं। जिसके माध्यम से राजस्थानी कहानी को व्यापक मंच मिला। इसी क्रम में राष्ट्रीय पुस्तक न्यास दिल्ली द्वारा प्रकाशित नंद भारद्वाज द्वारा संपादित ‘तीन बीसी पार’ (2007) कहानी संग्रह मूल राजस्थानी में और बाद में इसका हिंदी अनुवाद इसी नाम से 2015 में एन.बी.टी. द्वारा प्रकाशित किया गया। इन कहानियों के माध्यम से हिंदी पाठकों की राजस्थानी कहानी के प्रति विशेष रुचि बढ़ी। इन पंक्तियों के लेखक द्वारा संपादित ‘101 राजस्थानी कहानियां’ से राजस्थानी की उल्लेखनीय एवं विशिष्ट कहानियां हिंदी के विशाल पाठक समुदाय तक पहुंची है।   
- डॉ. नीरज दइया

डॉ. नीरज दइया की प्रकाशित पुस्तकें :

हिंदी में-

कविता संग्रह : उचटी हुई नींद (2013), रक्त में घुली हुई भाषा (चयन और भाषांतरण- डॉ. मदन गोपाल लढ़ा) 2020
साक्षात्कर : सृजन-संवाद (2020)
व्यंग्य संग्रह : पंच काका के जेबी बच्चे (2017), टांय-टांय फिस्स (2017)
आलोचना पुस्तकें : बुलाकी शर्मा के सृजन-सरोकार (2017), मधु आचार्य ‘आशावादी’ के सृजन-सरोकार (2017), कागद की कविताई (2018), राजस्थानी साहित्य का समकाल (2020)
संपादित पुस्तकें : आधुनिक लघुकथाएं, राजस्थानी कहानी का वर्तमान, 101 राजस्थानी कहानियां, नन्द जी से हथाई (साक्षात्कार)
अनूदित पुस्तकें : मोहन आलोक का कविता संग्रह ग-गीत और मधु आचार्य ‘आशावादी’ का उपन्यास, रेत में नहाया है मन (राजस्थानी के 51 कवियों की चयनित कविताओं का अनुवाद)
शोध-ग्रंथ : निर्मल वर्मा के कथा साहित्य में आधुनिकता बोध
अंग्रेजी में : Language Fused In Blood (Dr. Neeraj Daiya) Translated by Rajni Chhabra 2018

राजस्थानी में-

कविता संग्रह : साख (1997), देसूंटो (2000), पाछो कुण आसी (2015)
आलोचना पुस्तकें : आलोचना रै आंगणै(2011) , बिना हासलपाई (2014), आंगळी-सीध (2020)
लघुकथा संग्रह : भोर सूं आथण तांई (1989)
बालकथा संग्रह : जादू रो पेन (2012)
संपादित पुस्तकें : मंडाण (51 युवा कवियों की कविताएं), मोहन आलोक री कहाणियां, कन्हैयालाल भाटी री कहाणियां, देवकिशन राजपुरोहित री टाळवीं कहाणियां
अनूदित पुस्तकें : निर्मल वर्मा और ओम गोस्वामी के कहानी संग्रह ; भोलाभाई पटेल का यात्रा-वृतांत ; अमृता प्रीतम का कविता संग्रह ; नंदकिशोर आचार्य, सुधीर सक्सेना और संजीव कुमार की चयनित कविताओं का संचयन-अनुवाद और ‘सबद नाद’ (भारतीय भाषाओं की कविताओं का संग्रह)

नेगचार 48

नेगचार 48
संपादक - नीरज दइया

स्मृति में यह संचयन "नेगचार"

स्मृति में यह संचयन "नेगचार"
श्री सांवर दइया; 10 अक्टूबर,1948 - 30 जुलाई,1992

डॉ. नीरज दइया (1968)
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आंगळी-सीध

आलोचना रै आंगणै

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