साहित्यकार के कर्मवीर होने का आदर्श / नीरज दइया
किसी भी कवि के लिए अनिवार्य होता है कि वह अपने मनोजगत और मनोस्थितियों को कविता के माध्यम से प्रस्तुत करने से पूर्व प्रचलित कविता के विभिन्न रूपों और स्वरों का गहनता से अध्ययन मनन-चिंतन भी करे। कविता की रचना-प्रक्रिया जितनी सहजता-सरलता की कामना रखती है, वही उसमें उतनी ही मात्रा में जटिलता भी उपस्थित रहती है। कविता सिर्फ और सिर्फ किसी दर्द का इतिहास नहीं वरन खुशी का गीत भी होती है। अस्तु कविता को इस प्रकार मूलतः दो भागों में देखा जा सकता है। एक वह स्वर जो स्वतः प्रस्फुटित होता है। इसका स्वागत होना चाहिए। इसमें कविता की बड़ी संभावनाएं निहित है। किंतु कविता अपने जिस किसी प्रारूप में जैसी भी प्रस्फुटित होती है उसका निरंतर परिष्कार ही कविता को अपनी परंपरा में स्थिर और स्थाई बनता है। कविता जहां आत्मा की अभिव्यक्ति है वहीं शायद कवि-कर्म और अभ्यास उसके निखार के लिए जरूरी होता है।
कविता-संग्रह ‘यादें’ व ‘पूजाग्नि’ के बाद निरंतर कविता में स्वय को अभिव्यक्त करने वाले ‘ख्वाहिशे’ के कवि बृजेन्द्र अग्निहोत्री सहज-सरल और स्वच्छद मन के कवि हैं। वे अपनी काव्य-भाषा में जिन सत्यों को उजागर करते अथवा करना चाहते हैं वे युवा-मन की विभिन्न प्रतीतियां कहे जा सकते हैं। यह कवि मन जहां स्वच्छंद है वहीं अपनी धुन में अलबेला-निराला और जिद्दी किस्म का भी है। इसकी हठधर्मिता यहां तक है कि वह आलोचना को संभावना के प्रतिपक्ष में मानने का दुराग्रह लिए हुए है। कवि अपनी कवित ‘परिवर्तन नहीं सह सकता?’ में जिस घटना को कविता के माध्यम में साधने का प्रयास करता है, वह विचारणीय है। किसी भी कवि के लिए जीवन की प्रत्येक घटना-विचार अथवा क्रिया-कलाप कविता हो यह आवश्यक नहीं। साहित्य में अनेक विधाएं कविता से इतर उस रचनाशीलता का माध्यम बनाई जा सकती है। जब हम कहते है कविता नहीं तो साथ ही यह प्रतिप्रश्न भी उपस्थित होता है कि कविता क्यों नहीं? इस संदर्भ में यहां बस इतना ही कि कवि बृजेन्द्र अग्निहोत्री को अपने भूमिका लेखक डॉ. बाल कृष्ण पाण्डेय की इन पंक्तियों पर सूक्ष्मता से विचार करने की आवश्यकता है- “कविता सिर्फ तुकबंदी, सपाट बयानी और स्थूलता की अति सामान्यीकृत प्रक्रिया भर नहीं है। वह किसी मौलिक या प्रासंगिक विचार बिंदु की संकेतात्मक या लाक्षणिक-व्यंजना प्रस्तुति के साथ नितांत सहज व कलात्मक रेखांकन भी है। वह भिन्न-भिन्न या एक साथ ढेर सारे विचारों को समग्रता में रूपायित करने की ईमानदार कोशिश भर है, जो मन-मस्तिष्क को सम्मोहित कर हृदय में अभूतपूर्व हलचल पैदा करती है और सुषुत्प मनोवृत्तियों को गतिशील बनाती हुई आनंद की प्राप्ति कराती है।”
कवि नितांत निजी भावों में कविताएं रचता है और अपने आस-पास के घटना-प्रसंगों के साथ जहां विभिन्न स्थियों में देस-घर-परिवार की चिंता करता है वहां वह नए-पुराने मूल्यों के द्वंद्व को देखता और भोगता हुआ विचार करता है, किसी विकल्प की तलाश में स्थितियों से जूझता है। सामाजिक यर्थाथ और युवा सोच का बेहतरीन नमूना जिसमें कवि की अपनी भाषा, साहित्य, संस्कृति और सभ्यता के संदर्भ में हमारी भूमिका पर कविता ‘भूख’ की काव्य-पंतियों में प्रश्नाकुलता के साथ विचाराभिव्यक्ति देता है-
भूख, सबसे पहले / भाषा को खाती है / ‘हिंदी’ को बिना डकार लिए / हजम कर चुकी है, भूख / क्षेत्रीय भाषाओं की कौन कहे /
‘भूख’ का दूसरा शिकार / होती है संस्कृति / भारतीय संस्कृति को भी / आधा से अधिक / गटक चुकी है, भूख /
भूख का तीसरा और अंतिम आक्रमण / होता है सभ्यता पर / संस्कृति के साथ-साथ / सभ्यता को भी जकड़ चुकी है, भूख /
यदि इस भूख को / अनियंत्रित छोड़ा गया / तो भारतीयता की कौन कहे / भारत को ही निगल जाएगी, भूख (पृष्ठ-20)
जिंदगी के सतत प्रवाह में जीवन के अविराम अविरल चलते रहने को कवि अपनी आंख से देखता परखता है और इसीलिए - ‘ख्वाहिशें’ कविता (जिस पर संग्रह का नाम रखा गया है) में कहता है-
ख्वाहिशें, इंसान की / सब पूरी नहीं होती /
सब खोकर भी, जिंदगी / अधूरी नहीं होती /
इस जिस्म-रूह पर / हक होता है, बहुतों का /
केवल अपने लिए, जिंदगी / जरूरी नहीं होती (पृष्ठ-21)
सहजता-सरलता के साथ लोकविश्वास की अभिव्यक्ति इन कविताओं में अनेक स्थलों पर देखी जा सकती है। कविता ‘अपनी परेशानी’ में मां के दुलार का मार्मिक चित्रण है वहीं कविता ‘...सबमें नहीं होता’ में सुभाषितानि जैसी अर्थ-गंभीता को सहेजा गया है। शब्द के महत्त्व को वर्णित करती कविता ‘शब्द’ है-
कहां से मिल जाते हैं / आपको ऐसे शब्द /
दिल को झकझोर जाते हैं, शब्द / शांत रहकर भी, /
सब कह जाते हैं, शब्द / मन को भावों को /
छू जाते हैं शब्द (पृष्ठ-57)
लोक विश्वास के परिपेक्ष्य में यर्थाथ और द्वंद्व की कविता है- मुराद। जिसमें टूटते तारे को देखकर मुराद मांगने के प्रचलन पर व्यंग्य है वहीं श्रुति में चली आ रही उक्ति- भूत के उलटे पांव होते हैं को भी अपने दादा और पीढ़ियों के संदर्भ देखने-समझने का प्रयास कविता के माध्यम से किया गया है। कविता और नई कविता की बात जब हम इक्कीसवी सदी के इस वर्ष में करना चाहते हैं तो हमारे सामने एक भरा-पूरा इतिहास और अनेकानेक विमर्श हैं। काव्य-भाषा और कविता के संदर्भ में अनेकानेक चिंतकों और आलोचकों ने अपने मत विभिन्न पुस्तकों आलेखों में प्रस्तुत किए हैं। ऐसे में भी किसी भी कवि के लिए कविता रचना कोई मुश्किल काम नहीं, मुश्किल है अपनी कविता और कथन को समय-सापेक्ष प्रस्तुत कर लंबे समय तक टिक पाना। किंतु गीत-गजल में कवि ‘अपनी बात’ कहते हुए लिखता है, जो प्रसंगाकूल प्रतीत होती है। जैसे-
आज अपनी बात, कहना चाहता हूं। / दुनिया के दुःख, सहना चाहता हूं॥ /
लोग कहते कुछ है, करते हैं वो कुछ। / कथनी-करनी एक करना चाहता हूं॥ / आखिर आदमी है नंगा आज भी। / उसके तन को ढकना चाहता हूं॥ (पृष्ठ-27)
संग्रह में मुक्त छंद की कविताओं के साथ कुछ गीत-गजल और नज़्मनुमा कविताओं को भी स्थन दिया गया है। भाषा में उर्दू शब्दों का प्रयोग सहजता के साथ हुआ है वहीं कविता को अनेक स्थलों पर गद्य-भाषा का प्रस्तुतीकरण देखा जा सकता है। समग्रतः ‘ख्वाहिशें’ मिली-जुली ख्वाहिशें हैं, जिसमें कवि मन और कविता के स्तर कुछ-कुछ आशा-निराश हमारे हाथ लगती है। उम्मीद की जानी चाहिए कि कवि बृजेन्द्र अग्निहोत्री आलोचना को संभावनाओं के अंत करने के हेतु के रूप में नहीं वरन कविता के होने और होते रहने की प्रबल संभावनाओं के रूप में लेंगे।
- डॉ. नीरज दइया
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