उपन्यास ‘अपने हिस्से का रिश्ता’ को एक विचार प्रधान कथा कहना अधिक उपयुक्त होगा, क्यों कि यह रचना परंपरागत औपन्यासिक ढांचे का विचलन है। मधु आचार्य अपने पूर्ववर्ती उपन्यासों में भी प्रयोग करते रहे हैं और इसमें भी प्रयोग किया गया है। यहां कथानक का विकास नाटकीय ढंग से किया गया है, जो किसी चित्रपट की भांति पाठकों को अपने पाठ में मुग्ध किए रखता है। मुझे लगता है कि निरंतर कथा-विधा में सृजनरत रहते हुए मधु आचार्य ने अपनी शैल्पिक संचरना को निर्मित कर लिया है। यहां रचना-घटकों में संवाद-भाषा के रूप में उनकी निजता को रेखांकित किया जाना चाहिए। उनका किसी कथा के प्रति संरचनात्मक कौशल जिस शिल्प और भाषा में अभिव्यंजित होते हुए रूढ़ता को प्राप्त होता जा रहा है, यह एक विशिष्टता भी है। फ्लैप पर कवि-कहानीकार डॉ. सत्यनारायण सोनी ने लिखा है- ‘एक ही सरल रेखीय दिशा में बहती हुई यह कथा लम्बी-कहानी की शक्ल लिए हुए है। पाठक को बांधने में सक्षम तथा एक ही बैठक में पढ़ी जाने लायक। कहूं तो- लेखक कमाल का किस्सागो।’
किसी रचना के विधागत स्वरूप पर विचार करने के साथ-साथ उसके उद्देश्य को भी देखा-समझा और निर्ममता से परखा जाना चाहिए। उद्देश्य-पूर्ति के पूर्वनिर्धारण से कथा दौड़ती हुई चलती है और पाठक को अंत तक बांधे भी रखती है, किंतु इस गति में आस-पास की अनेक संभावनों को भी देखा-समझा जाना अनिवार्य है। अस्तु कहा जाना चाहिए कि उपन्यास की महाकाव्यात्मक अपेक्षाओं से भिन्न मधु आचार्य ‘आशावादी’ अपनी भाषा, संवाद और चरित्रों के मनोजगत द्वारा कथा में एक त्वरा का निर्माण करते हैं। अगर कोई ऐसी त्वरा अपने पाठकों को संवेदित करे और मानवता के लिए उनके अंतस में कुछ करने की भावना का बीजारोपण करे तो इसे रचना और रचनाकार की बड़ी सफलता के रूप में आंका जाना चाहिए।
यह मेरा व्यक्तिगत मत है किसी भी साहित्यिक-रचना को बंधे-बंधाए प्रारूप में देखने-समझने के स्थान पर नवीन रचना के लिए नए आयुधों पर विचार किया जाना चाहिए। अब पुराने आयुधों को विदा कहने का समय आ गया है। ‘अपने हिस्से का रिश्ता’ की बात करें तो उपन्यास की नायिका को उसके बाल्यकाल में स्वजनों द्वारा मनहूस की संज्ञा दे दी जाती है। उन परिस्थियों और घटनाओं के क्रम में यह कोई नई बात नहीं लगती। वह अपने माता-पिता के विछोह के बाद निरंतर संघर्ष करती है। संवेदनाओं से भरी इस मार्मिक कथा में जो संवादों के माध्यम से नाटकीयता द्वारा जीवन के यर्थाथ को उभारने का कौशल प्रकट हुआ है वह प्रभावित करता है। बालिका जीना चाहती है, वह पढ़ना-लिखना चाहती है। उसका परिवार उससे जैसे किनारा करता चलता है। इच्छाओं के दमन के दौर उस बालिका को मौसी की अंगुली थामने का सु-अवसर मिलता है, यहां मिलता शब्द के स्थान पर लिखा जाना चाहिए कि वह अपने विवेक से उसे हासिल करती है और हर असंभव को संभव बनाती है। संभवत इसी कारण उसे उचित परवरिश में मौसी के घर पलने-बढ़ने के अवसर से वह डॉक्टर बनती है। एक संवेदनशील युवती के रूप में वह मावनता को अपना धर्म समझती हुई एक इतिहास रचती है।
आज जब समाज में धन की अंधी-दौड़ चल रही है। चिकित्सा पेशे में सेवा के भाव और भावना से अधिक कुछ कमा कर निरंतर आगे बढ़ जाने की होड़ लगी हो, ऐसे दौर में यह कथा प्रेरणा देती है। आधुनिक और बदलते सामाज के बीच यह एक ऐसा अलिखित इतिहास है, जो किसी भी इतिहास में कहीं दर्ज नहीं होगा पर मधु आचार्य ने इसे दर्ज कर दिया है। ‘आशावादी’ अपनी पूर्ववर्ती रचनाओं में भी अनेक मार्मिक विषय को लिपिबद्ध कर चुके हैं, उसी शृंख्ला में ‘अपने हिस्से का रिश्ता’ को देखा जाएगा।
उपन्यास की नायिका सीमा अंधे भिखारी में अपने खोए हुए रिश्ते को जैसे तलाश करती है, उसके कार्य-व्यवहार और विचार झकझोर देते हैं। इस मर्म को उद्धाटित करते हुए डॉ. सत्यनारायण सोनी ने लिखा है- ‘जिस दौर में जातिवाद और सांप्रदायिकता जैसे विष तेजी से फैलाए जा रहे हैं, उसी दौर में मानवता का संदेश देने वाली यह अनूठी कथा बताती है कि महज धन कमा लेना ही जीवन का मकसद नहीं होता।'
समग्र रूप से कहना चाहता हूं कि मधु आचार्य ‘आशावादी’ हमारे यांत्रिक होते समय-समाज और पूरे तंत्र के बीच जिस संवेदनशीलता को बचाने की मुहिम में अपनी पूरी रचनात्मकता के साथ जुटे हैं, जुटे रहें। आपका निरंतर सृजन सदा सक्रिय बने रहें और हर बार नवीन रंगों की मोहक छटा प्रगट होती रहे। अंत में सुरुचि प्रकाशन के लिए सूर्य प्रकाशन मंदिर के भाई श्री प्रशांत बिस्सा एवं मनमोहक आवरणों के लिए भाई श्री मनीष पारीक को बहुत-बहुत बधाई।
-नीरज दइया
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अपने हिस्से का रिश्ता (उपन्यास) मधु आचार्य ‘आशावादी’
प्रकाशक- सूर्य प्रकाशन मन्दिर, बीकानेर ; संस्करण- 2016; पृष्ठ- 96 ; मूल्य- 200/-
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