Wednesday, January 08, 2020

सच की ओर इशारा करती डॉ. नीरज दइया की व्यंग्य रचनाएं / नदीम अहमद ‘नदीम’

डॉ. नीरज दइया विभिन्न साहित्यिक विधाओं और भाषाओं में रचाव के साथ विशेष रूप से साहित्यिक आलोचना कर्म के लिए विशिष्ट पहचान रखते हैं। डॉ. दइया स्वयं आलोचना के मर्म से बखूबी वाकिफ है अतः जाहिर है कि जब अव्यवस्थाओं से सामना होता है और हर तरफ उदासी और निष्क्रियता देखते हैं तो इनका आक्रोश क़लम के माध्यम से व्यक्त होता है और इनके लिए अभिव्यक्ति का सार्थक माध्यम बनता है- व्यंग्य।
    व्यंग्य संग्रह ‘टांय टांय फिस्स’ में शामिल नीरज दइया की व्यंग्य रचना ‘फन्ने खां लेखक नहीं’ हमारे साहित्य-संसार के कुछ तुर्रम खां रूपी तथाकथित लेखकों की पोल खोलता है। इस व्यंग्य से गुजरते हुए पाठक जान पाता है कि कैसे साहित्य की दुनिया में लेखक अपने भक्तों के साथ साहित्यिक मठ संचालित करते हैं। डॉ. दइया का उद्देश्य केवल पाठक को गुदगुदाना नहीं वरन् चुटीले अंदाज में विसंगतियों की तह में जाकर अपने भाषायी कौशल से तीखे प्रहार करते हुए पाठकों में वैचारिक उद्धेलन करना है। ‘मीठी आलोचना का मीठा फल’ भी इनकी ऐसी ईमानदार रचना है, जो साहित्यिक आलोचना के खोखलेपन से पाठकों को परिचित करवाती है। पंच काका का ये कथन- “जब भी कोई किसी कि आलोचना लिखे साथ में रसगुल्ले और भुजिया लेकर ही बैठना चाहिए। कलम चलते-चलते ग़लत दिशा में जाने लगे तो झट से एक रसगुल्ला मुंह में डाला और कलम को संभाला और कभी लगे कि मीठे से जी उकता रहा हो भुजिया फांक के स्वाद को पटरी पर ले आओ।” अनकहे सच को इशारों-इशारों में बयां करता है। इशारों-इशारों में व्यंग्य के प्रहार से घायल करने की इनकी कलमी ताकत पर एक शेअर कलीम आज़िज़ का याद आता है- ‘दामन पे कोई छींट न, खंजर पे कोई दाग़ / तुम कत्ल करो हो के करामात करो हो।’ डॉ. दइया दरअसल करामात ही करते है कि कुव्यवस्था के दोषी इनके व्यंग्य तीरों से घायल भी होते परन्तु ऐसे घायलों के लिए न उगलते बनता, ना निगलते बनता है।
    व्यंग्य संग्रह “टांय-टांय फिस्स” की ख़ासियत ये है कि अधिकतर रचनाएं साहित्यिक दुनिया से संबंधित है। इस नज़रिये से हम अपने घर की थाह लेना भी सीखे। आलोचना, व्यंग्य और चुटीलेपन का कॉकटेल डॉ. नीरज दइया की भाषा में वो पैनापन ला देता है कि पाठक के मानस पटल पर शब्द चित्र से उभरने लगते हैं। व्यंग्य रचना ‘सेल्फी लेने के नए आइडिये’ जहां लेखक की समसायिकता से वाबस्तगी को जाहिर की है वहीं ‘जुगाडू लेखक का सम्मान’ में जुगाडूओं की नगंई को आईना दिखाया है। आईना इस खूबसूरती से कि पाठक सहज ही नज़र घुमाकर अपने आस-पास देखता हुआ बरबस कह उठता है- ‘अच्छा तो यह भी जुगाडू लेखक है।’ शीर्षक रचना ‘टांय टांय फिस्स’ में भी यही तेवर है। पंच काका के माध्यम से महान लेखकों की रचना को भी व्यंग्य बाणों की बौछार की जद में लिया गया है। एक समर्थ व्यंग्यकार कभी भी ग़रीबों और वंचितों पर तंज नहीं करता वरन् वह तमाम तरह की समस्याओं के मूल पर गहरी चोट करता है ऐसा करने पर ही व्यंग्य की प्रासंगिकता बरक़रार रह पाती है।
    डॉ. नीरज दइया का व्यंग्यकार बड़े नामधारी फन्ने खानों पे व्यंग्य के नुकीले बाण छोड़ने में गुरेज नहीं करता तभी तो इनका व्यंग्यकार पंच काका की सिफारिश पर भी फन्ने खां की किताब पर लिखने से स्पष्ट मना कर देता है। डॉ. नीरज के व्यंग्य एक साथ कई शिकार करते हैं जिसमें एक यह भी कि कहीं खुले में कहीं इशारों में पाठकों को वस्तुस्थिति से अवगत करवा देते हैं। ‘उठा पटक लेखक संघ’ शीर्षक रचना लेखकों के मुखौटे धीरे से नहीं वरन् नोंच कर उतारती है ताकि पाठकों को असली चेहरा देख सके।
    नोटबंदी जैसे विषयों पर लिखे व्यंग्य भी इस किताब की सामयिकता और प्रासंगिकता में अभिवृद्धि करते हैं। व्यंग्य रचना ‘साहित्य माफिया’ साहित्य जगत् की विसंगतियों विडम्बनाओं को बखूबी उजागर करती है। साहित्य में तानाशाही चलाने वाले नामाकूलों को ‘साहित्य-माफिया’ कह भी सम्बोधित किया गया है।     संग्रह ‘टांय टांय फिस्स’ के दीगर तंजिया कलाम में ‘ये मन बड़ा ही पंगा कर रहा’, ‘बिना विपक्ष का एक पक्ष’, ‘रचना की तमीज’, ‘पांच लेखकों के नाम’, ‘कहां है उल्लू’, ‘ठग जाने ठग की भाषा’, ‘कागज के दुश्मन’, आदि भी उल्लेखनीय हैं। ये कुछ ऐसी रचनाएं हैं जो आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के कथन- ‘व्यंग्य वह है जहां कहने वाला होठों ही होठों में हंस रहा हो और सुनने वाला या पढ़ने वाला तिलमिला उठा हो’ का स्मरण कराती हैं। यही बात तरकीब हमें डॉ. दइया की इन रचनाओं में प्रमुखता से मिलती है।
     दूसरी किताब ‘पंच काका के जेबी बच्चे’ में ख़ास किरदार पंच काका अपने जोश खरोश के साथ हैं। इन व्यंग्य रचनाओं में स्थाई पात्र पंच काका की अपनी अहमियत है। वे समाज, देश और राजनीति में व्याप्त भ्रष्टाचार, मूल्यहीनता के दौर में बेरोक-टोक जैसे रचनात्मक आक्रोश व्यक्त करते हैं। इस किरदार ने लेखक के काम को आसान कर दिया है। संग्रह की पहली रचना ‘व्यंग्य की ए.बी.सी.डी.’ में लोग लेखक से सवाल करते हैं कि व्यंग्य क्या है? इससे पहले ही लेखक ने लोगों की जिज्ञासा का समाधान ‘पंच काका’ के माध्यम चुटीले अंदाज में किया है। ‘बजट की गड़बड़-हड़बड़’ में व्यंग्यकार प्रारंभ में आर्थिक आंकड़ों में उलझा दिखई देता है, मगर पंच काका के श्रीमुख से निकले चंद अल्फ़ाज़ अवाम के असली दर्द को बयां करते हैं।
    ‘लोक देवता का देवत्व’ व्यंग्य रचना समझने वाले समझ गए जो न समझे वो अनाड़ी है की तर्ज़ पर इशारों में रची ऐसी शानदार रचना है जो ख़ास तौर पर उन पाठकों को ज़्यादा चिंतन पर मजबूर करेगी जो रचना की पृष्ठभूमि से परिचित है। कल्पना के घोड़ों की रफ्तार इस रचना में देखने लायक है। व्यंग्य रचना ‘हां कहने के हजार दुःख’ ख़ालिस व्यंग्य रचना नहीं है वरन् ये रचना व्यंग्य और दर्शन का ऐसा अनूठा संगम है जहां हां और ना कहने के सुख-दुःख के मनोविज्ञान को दर्शन के सहारे पाठकों तक सम्प्रेषित करने में व्यंग्यकार क़ामयाब रहा है। ‘एक नंबर बनाम दो नंबर’ व्यंग्य में पंच काका की पंक्ति आज के माहौल का ऐसा सच है जिससे इनकार नहीं किया जा सकता, काका कहते है- ‘नकल को असल जैसा प्रस्तुत करना ही वर्तमान समय में सबसे बड़ी कला है।’ दरअसल यही तो हो रहा है हर क्षेत्र में बनावटी और दिखावटी लोगों का वर्चस्व बढ़ता जा रहा है ऐसे लोगों को व्यंग्य आईना दिखाता है।
    डॉ. नीरज दइया अगर ‘मास्टर जी का चोला’ व्यंग्य रचना नहीं लिखते तो शायद उन पर ये इल्जाम आयद हो जाता कि शिक्षा जगत् पर इनके व्यंग्य बाण नहीं चले। सामाजिक सरोकारों से वाबस्तगी रखते व्यंग्य इस किताब की जीनत बने है। जैसे ‘संपर्कों का है बोलबाला’, पिताजी के जूते, नियम वहां जहां कोई पूछे, बच्चों के संग शिक्षक की सेल्फी, नमक नमकीन हो गया, शुद्ध चीजों का गणित, आदि ऐसे व्यंग्य है जिनमें हल्के-फुल्के चुटीले अंदाज में बहुत प्यार से व्यंग्यकार पाठक का रिश्ता सामाजिक सरोकारों से जोड़ने में कामयाब होता है। पाठक जब पढ़ता है- ‘एक टोपी को दूसरे के सिर पर रखने में जो आनंद है वह कोई हुनरचंद या भुक्तभोगी ही जान समझ  सकता है।’ तो मुस्कुराते हुए चेहरे का भूगोल ही बदल जाता है।
    भूगोल बदलते हुए डॉ. नीरज दइया अपने पंच काका के साथ पाठक को कब इतिहास में ले जाते है। पाठक को जब पता चलता है तो वह भी विस्मित हुए नहीं रहता, मगर तुरन्त ही जब ‘पंच काका के जेबी बच्चे’ आस पास के परिवेश में लाने लगते हैं तो वह सहज हो जाता है। एक बेहतरीन गंभीर व्यंग्यकार पाठक के दृष्टिकोण को रचनात्मक ढंग से बदलने का कार्य करता है। पाठक के सामने एक शब्द चित्र होता है जो मस्तिष्क में फिल्म की भांति चलता हुआ उसे वैचारिक आधार प्रदान करता है इस नज़रिऐ से हम कह सकते है कि डॉ. नीरज दइया की व्यंग्य रचनाएं भी सामाजिक सरोकारों के ताने बाने को ठीक रखने की जद्दोजहद में पाठक का साथ देती है।
नदीम अहमद ‘नदीम’  
जैनब कॉटेज, बड़ी कर्बला मार्ग, चौखूंटी, बीकानेर
मोबा. 9461911786
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टांय टांय फिस्स (व्यंग्य संग्रह) डॉ. नीरज दइया ; संस्करण : 2017 ; पृष्ठ : 96 ; मूल्य : 200/- ;
प्रकाशक : सूर्य प्रकाशन मन्दिर, दाऊजी रोड (नेहरू मार्ग), बीकानेर- 334003
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पंच काका के जेबी बच्चे (व्यंग्य संग्रह) डॉ. नीरज दइया ; संस्करण : 2017 ; पृष्ठ : 96 ; मूल्य : 200/- ; 
प्रकाशक : सूर्य प्रकाशन मन्दिर, दाऊजी रोड (नेहरू मार्ग), बीकानेर- 334003

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डॉ. नीरज दइया की प्रकाशित पुस्तकें :

हिंदी में-

कविता संग्रह : उचटी हुई नींद (2013), रक्त में घुली हुई भाषा (चयन और भाषांतरण- डॉ. मदन गोपाल लढ़ा) 2020
साक्षात्कर : सृजन-संवाद (2020)
व्यंग्य संग्रह : पंच काका के जेबी बच्चे (2017), टांय-टांय फिस्स (2017)
आलोचना पुस्तकें : बुलाकी शर्मा के सृजन-सरोकार (2017), मधु आचार्य ‘आशावादी’ के सृजन-सरोकार (2017), कागद की कविताई (2018), राजस्थानी साहित्य का समकाल (2020)
संपादित पुस्तकें : आधुनिक लघुकथाएं, राजस्थानी कहानी का वर्तमान, 101 राजस्थानी कहानियां, नन्द जी से हथाई (साक्षात्कार)
अनूदित पुस्तकें : मोहन आलोक का कविता संग्रह ग-गीत और मधु आचार्य ‘आशावादी’ का उपन्यास, रेत में नहाया है मन (राजस्थानी के 51 कवियों की चयनित कविताओं का अनुवाद)
शोध-ग्रंथ : निर्मल वर्मा के कथा साहित्य में आधुनिकता बोध
अंग्रेजी में : Language Fused In Blood (Dr. Neeraj Daiya) Translated by Rajni Chhabra 2018

राजस्थानी में-

कविता संग्रह : साख (1997), देसूंटो (2000), पाछो कुण आसी (2015)
आलोचना पुस्तकें : आलोचना रै आंगणै(2011) , बिना हासलपाई (2014), आंगळी-सीध (2020)
लघुकथा संग्रह : भोर सूं आथण तांई (1989)
बालकथा संग्रह : जादू रो पेन (2012)
संपादित पुस्तकें : मंडाण (51 युवा कवियों की कविताएं), मोहन आलोक री कहाणियां, कन्हैयालाल भाटी री कहाणियां, देवकिशन राजपुरोहित री टाळवीं कहाणियां
अनूदित पुस्तकें : निर्मल वर्मा और ओम गोस्वामी के कहानी संग्रह ; भोलाभाई पटेल का यात्रा-वृतांत ; अमृता प्रीतम का कविता संग्रह ; नंदकिशोर आचार्य, सुधीर सक्सेना और संजीव कुमार की चयनित कविताओं का संचयन-अनुवाद और ‘सबद नाद’ (भारतीय भाषाओं की कविताओं का संग्रह)

नेगचार 48

नेगचार 48
संपादक - नीरज दइया

स्मृति में यह संचयन "नेगचार"

स्मृति में यह संचयन "नेगचार"
श्री सांवर दइया; 10 अक्टूबर,1948 - 30 जुलाई,1992

डॉ. नीरज दइया (1968)
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