प्रख्यात साहित्यकार डॉ. अर्जुनदेव चारण से डॉ. नीरज दइया की बातचीत
- अपनी सृजन-यात्रा का आरंभ आप कब से मानते हैं?
- यदि लेखन घटनाओं के प्रति एक प्रकार का रियेक्शन है, तो मैं सोचता हूं कि बचपन से ही इस यात्रा का आरंभ हुआ। जब मैं स्कूल में पढ़ता था तब चीन युद्ध हुआ और मैंने कुछ कविताएं लिखीं, जो एक प्रकार का रियेक्शन था। तब मुझे ना तो इतिहास की जानकारी थी ना फिलोस्फी की, लेकिन एक राष्ट्रभक्ति थी... जिसने मुझ से राजस्थानी में कुछ लिखवाया।
- आपके पिता रेंवतदान चारण राजस्थानी के बड़े कवि हैं, आपको यह बात कब पता चली?
- उसी दौर में मुझे मालूम चला कि मेरे पिता देश के नामी कवि हैं। उनसे मिलने उस समय सत्यप्रकाश जोशी, विजयदान देथा, नारायणसिंह भाटी, कोमल कोठारी, गजानंद वर्मा जैसे नामचीन रचनाकार आते थे। किसी को नहीं मालूम था कि मैं लिखता हूं। सब के लिए मैं उनके दोस्त का लड़का था।
- आपकी कविताओं के प्रकाशन का क्या सिलसिला रहा?
- उन दिनों प्रकाशित होने वाले हिंदी साप्ताहिक-पाक्षिक जैसे - अभयदूत, ललकार आदि में राजस्थानी रचनाओं को भी प्रकाशित किया जाता था। मैंने अपनी रचनाएं भेजी और प्रकाशित होने लगी। इन सब के बाद राजस्थानी पत्रिकाएं हरावळ, हेलो आदि में भी मेरी कविताएं प्रकाशित हुई।
- आप कविता के रास्ते चलते-चलते नाटक की दिशा में कैसे पहुंच गए?
- दरसल यह विचार कभी नहीं था कि मैं नाटक के क्षेत्र में जाऊंगा। मुझे लगता है कि दैवीय कृपा से संयोग बनते हैं। मैं जब एम.ए. पूर्वाद्ध में था, तब अकादमी का एक कैंप जोधपुर में हुआ और मुझे जोड़ा गया। फिर विजय माथुर जी ने एन.एस.डी. के सहयोग से होने वाले एक नाटक में मुझे मुख्य भूमिका में लिया। एक अभिनेता के रूप में मुझे मदनमोहन माथुर, सरताज माथुर ने कास्ट किया। फिर यह बात निकली कि राजस्थानी में आधुनिक संवेदना के नाटक कहां है?
- और तब आपने नाटक लिखे। नाटक ‘हेलो’ में छपे और पहली नाट्य कृति?
- हां, ‘संकरियो’ और ‘गवाड़ी’ नामक दो नाटकों की कृति बीकानेर से वर्ष 1979 में प्रकाशित हुई। जिसे राजस्थान साहित्य अकादमी (संगम) उदयपुर ने पुरस्कृत भी किया। एम.ए. के बाद नाटकों में रुचि थी तो डॉ. नित्यानंद शर्मा के निर्देशन में लोक-नाटकों पर शोध किया और कठपुतली, पाबूजी की पड़, कुचामण ख्याल आदि का विवेचनात्मक अध्ययन किया। जब लेखक पुरस्कृत हो जाता है तो उसे लगता है कि वह ठीक लाइन पर है, मेरा मानना है कि पुरस्कार-सम्मान से लेखक की जिम्मेदारी बढ़ती है। मां करणी की कृपा से मैं नाटकों से लगातार जुड़ा रहा।
- लेखन व्यक्तिगत कर्म है या किसी दैवीय शक्ति से संभव होता है?
- कविता मां की कृपा से ही लिखी जाती है। बहुत लोगों को यह बात ठीक नहीं लगेगी और कह सकते हैं कि आधुनिक काल का एक कवि यह कह रहा है कि कविता तो ईश्वरीय कृपा से ही संभव होती है, पर मैं तो यही मानता हूं।
- कविता में मंचीय कविता और आधुनिक संवेदना के बीच बड़ा अंतर क्यों है?
- मैं बहुत समृद्ध कविता-परंपरा का वारिस हूं। साहित्य के सिलसिलेवार अध्ययन में देखें - हर दौर के रचनाकारों का अपना-अपना वैशिष्टय रहा है। आरंभ में मैंने छंद में खूब लिखा और बाद में नई कविताएं लिखीं। आरंभिक कविताओं को पुस्तकाकार प्रकाशित नहीं किया है। कविता नई हो या पुरानी उसमें आंतरिक लय और छंद का होना जरूरी मानता हूं। मात्राओं को आप भले छोड़ दें, किंतु लय तो अनिवार्य रूप से रहनी चाहिए। हमें हमारी परंपरा में गहराई से झांकना होगा। वहां साहित्य-कला की परिभाषाओं के अध्ययन को आधुनिक संदर्भों में देखना मुझे जरूरी लगता है। ऋग्वेद में पहली बार ऋषि अत्रि द्वारा कला की परिभाषा में कौशल और छंद को जरूरी घटकों के रूप में स्वीकार किया गया है। इतिहास में लय, अनुपात और संतुलन के अनेक संदर्भ मिलते हैं।
- किंतु आपकी कविताएं छंद-मुक्त है? ‘रिंधरोही’ के बारे में बताएं?
- छंद को जानकार-समझकर छोडऩा ठीक हैं, किंतु बिना जाने छोडऩा गलत। आरंभ में मैंने छंद में खूब लिखा। मीटर में लिखना आसान नहीं है। दूहा छंद में दूहाकार दो पंक्ति में अपना कलेजा निकाल कर रख देता है। आधुनिक कविता ने छंद के बंधनों को त्याग दिया। जीवन में जब दूसरे क्षेत्रों में बंधन नहीं, तो फिर कविता में बंधन क्यों? मैं 1974 से कविता लेखन में हूं और मेरी पहली कृति ‘रिंधरोही’ प्रकाशित हुई, उसमें कुछ अलग तरह की कविताओं का संचयन है। शृंखला और प्रकृति-प्रेम की कविताओं के साथ गांव के विछोह की पीड़ा है। एक ही विषय को लेकर अलग-अलग ऐंगल से कविताएं लिखी। यदि मैं कहूं कि आधुनिक कविता को ‘रिंधरोही’ एक टरनिंग पोइंट देता है, तो बहुत लोगों को लग सकता है कि मैं घमंड कर रहा हूं... पर 1986 के बाद की राजस्थानी कविताएं देखें तो यह बात समझी जा सकती है।
- आपने सत्यप्रकाश जोशी की कविता ‘मुडज़ा फौजां नै पाछी मोड़ ले’ और ‘राजस्थानी-एक’ संपादक तेजसिंह जोधा से कविता में बड़ा बदलाव माना है? राजस्थानी की भारतीय भाषाओं में क्या स्थिति मानते हैं?
- आज की कविता किसी भी आधुनिक भारतीय भाषा से पीछे नहीं है, एक कदम आगे ही है राजस्थानी। मैं पिछले काफी वर्षों से ऐसी जिम्मेदारियों में रहा कि मुझे भारतीय भाषाओं की कविताओं-नाटकों को जानने-समझने के अनेक अवसर मिले हैं। राजस्थानी के कवि भारतीय भाषाओं में श्रेष्ठ कविता के वाहक कहे जा सकते हैं। चंद्रप्रकाश देवल, मोहन आलोक, पारस अरोड़ा, तेजसिंह जोधा, नंद भारद्वाज से पहले के कवि गणेशीलाल व्यास ‘उस्ताद’, रेंवतदान चारण, सत्यप्रकाश जोशी, नारायणसिंह भाटी, चंद्रसिंह बिरकाली, कन्हैयालाल सेठिया जैसे अनेक कवि राजस्थानी की थाती हैं। इनकी कविताएं व्यापक और विशद धरातल पर श्रेष्ठतम कही जा सकती है, किंतु इन कवियों और कविताओं का सम्यक विवेचन कहीं नहीं हुआ है। यह गर्व की बात है कि ऐसी काव्य-परंपरा को हम लोग आगे बढ़ा रहे हैं।
- फिर हमारी भाषा राजस्थानी की अवमानना क्यों हो रही है?
- इसके दो-तीन स्पष्ट कारण है। भाषा के लिए जनता और आमजन का संघर्ष नहीं है। यह लेखकों और संगठनों तक सिमट गया। लेखक जन-मानस को यह बात समझाने में सफल नहीं हुए हैं कि भाषा की लड़ाई हमारी नहीं, आने वाली पीढिय़ों और हमारे बच्चों के लिए जरूरी है। दूसरे आजादी से पहले उत्तर भारत की प्रमुख भाषाओं जैसे - भोजपुरी, अवधी, ब्रज, बुंदेली आदि को हिंदी के तथाकथिक लोग खारिज करने में लग गए। राजस्थानी की बात करेंगे तो हमारे जैसे वीरता, भक्ति और शृंगार का विपुल साहित्य अन्य किसी भाषा में नहीं है। गांधी जी कीसोच में आजादी के आंदोलन में अपनी भाषा का मोह त्याग कर, एक भाषा के निर्माण की भावना में बहेतो हुआ क्या? आजादी मिलते ही भाषाएं खारिज कर दी गई। हिंदी के प्रेम में पागल हमारी जनता यह जान ही नहीं सकी कि हमारे साथ क्या कर दिया गया है। संविधान की धारा 346-47 में स्पष्ट प्रावधान के बाद भी राजकीय मान्यता राजस्थानी को नहीं है। भारत सरकार अगर मान्यता नहीं देती है, तो राजस्थान सरकार क्यों नहीं दे रही है? यदि राजस्थानी बोलने वालों की संख्या 15 करोड़ से कम है तो खारिज कर दिया जाए, अन्यथा मान्यता देनी चाहिए।
- कुछ का मानना है कि राजस्थानी को मान्यता देने से हिंदी कमजोर हो जाएगी।
- अगर हिंदी इतनी ही कमजोर है तो भविष्य में हिंदी भी नहीं रहेगी। प्रो. अमरनाथ जैसे कुछ हिंदी का झंडा उठाए हुए, ऐसी आधारधीन बातें करते हैं। वर्तमान हिंदी एक कृत्रिम भाषा है। यह मेरा नहीं, महाकवि निराला जी का कहना था। यह केवल गांधी जी का आग्रह था - राष्ट्रीय आंदोलन से पहले हिंदी कितने राज्यों की भाषा थी, यह जानकरी कर लें। यह ऐतिहासिक आकंड़े और सत्य है। एक दूसरी बात कि यू.एन.ओ. में हिंदी का संख्या-बल दिखाने के लिए भोजपुरी और राजस्थानी की अवहेलना कहां तक न्याय संगत है। हम तो अपने ही घर में हमारी पहचान के संकट को रो रहे हैं और आप विदेशों में हिंदी की बात के लिए बेवजह चिंतित हैं। राजस्थानी और भोजपुरी को लेकर वर्तमान राजनीति अन्याय कर रही है।
- अपने लेखन के आरंभ में, आपने एक संपादक के रूप में भी कार्य किया है?
- यह सब संयोग रहा कि राजस्थानी के प्रख्यात कवि पारस अरोड़ा का मेरे प्रति प्रेम रहा। मेरी चढ़ती उम्र का तकाजा और साहित्य के प्रति विवेचनात्मक दृष्टिकोण के रहते ‘अपरंच’ ऐसी पहली पत्रिका थी, जिसमें दो-दो संपादकीय प्रकाशित होते थे। मुझ पर मेरे वरिष्ठ रचनाकारों का बहुत प्रेम रहा।
- आपने लोककथा का नाट्य-रूपांतरण - ‘बोल म्हारी मछली कित्तो पाणी’ किया, जबकि आप आधुनिक संवेदना के पक्षधर रहे हैं?
- नाटक ‘बोल म्हारी मछली कित्तो पाणी’ असल में लोककथा से जुड़ा है, किंतु उसकी संवेदना इतर है। विजयदान देथा ने बुखार उतारने वाली लोककथा को अपने ढंग से लिखा और मैंने अपने ढंग ने नाटक में दिखाया है। नाटक में चोर को कैद करने लिए जिस बाल-गीत का प्रयोग हुआ है, वह बहुत लोकप्रिय है। इस नाटक को अब भी पसंद किया जाता है। उसी पुस्तक में दूसरा नाटक - ‘म्हैं राजा, थे प्रजा’ था। जो राजनीति से जुड़ा एक व्यंग्य है। उसमें सत्ता की मूर्खताओं को उजागर किया है। मेरा प्रयास अलग-अलग एप्रोच के नाटक लिखने का रहा। नाटक- ‘धरमजुद्ध’, ‘जेठवा-उजळी’ को देखेंगे तो नारी-विमर्श और प्रेम का एक अलग अंदाज है। वहीं ‘मुक्तिगाथा’ में तीन अलग-अलग ऐंगल है।
- आपकी सभी रचनाएं राजस्थानी में है, आपने हिंदी में क्यों नहीं लिखा?
- मेरी मातृभाषा राजस्थानी है और मैं राजस्थानी में ही लिखता हूं। हिंदी राष्ट्रभाषा है उसका सम्मान है, किंतु लेखन में दैवीय कृपा और आत्मिक भाव होता है। मेरी आत्मा राजस्थानी से जुड़ी है और इसके लिए मैं वचनबद्ध हूं।
- राजस्थानी लोककथा और आधुनिक कहानी के बारे में आपके विचार?
- आधुनिक कहानी कहीं-न-कहीं परंपरागत लोककथाओं से विकसित होती दिखाई देती है। हमारे आरंभिक कहानीकारों का शिल्प वही है। बाद के कहानीकारों ने सचेत होकर उस शिल्प को तोड़ा। नई धारा वर्ष 1970 के बाद नए मानकों के साथ आधुनिक संदर्भों से जुड़ती है। यहां के जनजीवन, सामाजिक समस्याओं, बदलावों, मूल्य-बोध और वैचारिकता को रेखांकित करती कहानियां सामने आती है। विजयदान देथा की ‘अलेखू हिटलर’ नए संदर्भों में एक ग्रामीण किसान के भीतर जाग्रत होते हिटलर को सूक्ष्मता से प्रस्तुत करती है। नृसिंह राजपुरोहित, रामेश्वरदयाल श्रीमाली, सांवर दइया जैसे अनेक कहानीकारों ने कहानी को आधुनिक बनाने में योगदान दिया। श्रीलाल नथमल जोशी आधुनिक संवेदना का एक अलग रंग लिए हुए सामने आए, किंतु दुखद स्थिति यह रही कि इन सब का विवेचन लंबे समय तक आरंभ नहीं हुआ। हमें हमारी विरासत को ईमानदारी से परखने के प्रयास करने चाहिए। बाद के कहानीकारों में रामस्वरूप किसान, अरविंद आशिया, मालचंद, बुलाकी शर्मा और मधु आचार्य ‘आशावादी’ तक भरोसा जगाते हैं कि मान्यता मिले, भले ना मिले... पर आधुनिक रचनाकर्म की यह बेजोड़ विरासत संभाल कर रखेंगे।
- हमने कविता-कहानी की बात की, अब उपन्यास के बारे में विचार करें? क्या राजस्थानी के पहले उपन्यासकार शिवचंद भरतिया का ‘कनक सुंदर’ पहला उपन्यास है? या लोक उपन्यास ‘कुंवरसी सांखलो’ पर विचार किया जाना चाहिए?
- अब हमारी आवश्यकता है कि हम निर्मम होकर अपनी विरासत का मूल्यांकन करें। हजार सालों की हमारी परंपरा में अब फैसला हो जाना चाहिए कि यह सिक्के हैं, यह कोडिय़ां हैं और यह जो कुछ भी है। आलोचना एक दुष्कर कार्य है। आलोचक के सामने खतरा होता है कि वह किसे नहीं कहे। रचनाकार नाराज हो जाते हैं। रचनाकार यह मानने को तैयार नहीं होते कि उनकी रचना मानदंड पर खरी नहीं है। जरूरत इस बात की है कि किसी अच्छी रचना की अच्छाइयां और पैमानों पर खरी नहीं उतरने वाली रचनाओं के बारे में विस्तार से खुलासा हो। ऐसे प्रयास हमारे यहां बहुत कम हुए हैं।
- आप का कहना है कि राजस्थानी में आलोचना साहित्य नहीं है?
- जब तक आलोचना और समीक्षा में अंतर नहीं समझा जाएगा, यह धुंधलका रहेगा। किसी किताब की समीक्षा करने वाला भी खुद को आलोचक समझने लगता है। तात्विक दृष्टि से किसी भी भाषा में आलोचना रचना का समग्र आकलन होता है। हिंदी में भी आलोचना बहुत बाद में विकसित हुई है। किंतु आश्चर्य कि सौ सालों की भाषा हिंदी में आलोचना विकसित हो गई और हजार सालों की भाषा राजस्थानी में समग्र रूप से आलोचक नहीं है। सृजनात्मक दृष्टि और आलोचनात्मक दृष्टि दो भिन्न-भिन्न दृष्टियां हैं। यह जरूरी नहीं है कि कोई अच्छा कवि-कहानीकार अच्छा आलोचक भी हो सकता है और आलोचक के लिए जरूरी नहीं कि वह अच्छा कवि-कहानीकार भी हो।
- आप ने कहानी और कविता के क्षेत्र में आलोचना के प्रयास किए, फिर नाटक को क्यों छोड़ दिया?
- पहली बात पहले उतने नाटक तो हो। नाटक कहां है, मेरे अलावा जिद से नाटक लिखने वाले बेहद कम है। एक निर्मोही व्यास को छोड़ दिया जाए तो दूसरा कोई नाम नहीं है। हमारे यहां सुविधानुसार लिखने वाले हैं। सुविधा हो तो हिंदी में और सुविधा हो तो राजस्थानी में। सुविधा से भाषा की लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती है। वैसे मैंने नाटकों पर लंबा आलेख लिखा है और दो शोध कार्य राजस्थानी नाटक और रंगमंच को लेकर करवाए हैं। नाटक के क्षेत्र में पूरे देश में आलोचना का अभाव है। हिंदी जैसी बड़ी भाषा में भी नाट्य आलोचना परंपरा का पर्याप्त विकास नहीं हुआ है। नाटक का अभिप्राय प्रयोग करना समझा जाने लगा है। हमारे यहां दो हजार पांच सौ वर्षों पहले नाटक का शास्त्र विकसित हुआ है। हिंदुस्तान के साहित्य का यह बेजोड़ पक्ष है। रस शास्त्र पर बहुत बात हुई, किंतु अभिनय का जो शास्त्र है... उस पर बहुत कम चर्चा की गई है। भरत के नाट्य-शास्त्र के पहले अध्याय को छोड़ कर, दूसरे और छठे अध्याय पर बात होती है। साथ ही जोर केवल और केवल रस पर रहा है। पूरी प्रक्रिया को जानना-समझना जरूरी है। नाट्य-शास्त्र के पहले अध्याय में अद्भुद चीजें है, जिन्हें जानना चाहिए। चार वेदों से चार चीजों ली गई हैं- ऋग्वेद से पाठ्य, सामवेद से गान, यजुर्वेद से अभिनय और अथर्ववेद से रस। हजार सालों पहले जो अभिनव गुप्त ने माना, हम आज वही मान रहे हैं। उनके पांडित्य पर संदेह नहीं है, किंतु कोई ऐसा स्कॉलर ही नहीं हुआ जो इन सभी धारणाओं और धाराओं पर किसी बात का विचार करता। आलोचना के लिए बंधे-बंधाए पैटर्न से निकलना पड़ता है। नाटक वालों का मानना है कि उनका भला वेदों से क्या सरोकार, जबकि ऐसा नहीं है। आप जिस क्षेत्र में हैं उसका विशद और व्यापक ज्ञान अध्ययन जरूरी है।
- राजस्थानी भाषा की मान्यता में एकरूपता की समस्या कहां तक सही है?
- भाषा की अलग-अलग बोलियां उसकी कमजोरी नहीं, ताकत होती है। उदाहरण के लिए - हिंदी मानक स्वरूप और हिंदी की बोलियों में भेद नहीं है क्या? गुजरात में जिस गुजराती को मान्यता है, क्या कच्छी भाषा उससे भिन्न नहीं है क्या? ऐसा हर भाषा में होता है, यह राजस्थानी भाषा की मान्यता के मुद्दे को टालने के लिए केवल राजनैतिक बातें हैं। आजादी से पहले राजस्थान में राजस्थानी राजकाज की भाषा रही है।
- राजस्थानी भाषा की मान्यता से सीधा-सीधा क्या लाभ होगा?
- नौकरी के लिए प्रत्येक राज्य के नियम है कि उस विशेष राज्य की भाषा आपको आनी चाहिए। राजस्थान में गैर राजस्थानी लोग नौकरियों में आने से हमारे यहां के युवाओं के लिए रोजगार में संघर्ष बढ़ता जा रहा है। मान्यता की बात केवल भाषा और साहित्य तक नहीं, वरन हमारी रोटी-रोजी का जरूरी सवाल है। इसे राजस्थान की जनता को समझना जरूरी है।
0 टिप्पणियाँ:
Post a Comment