ढीला ढक्कन / डॉ. नीरज दइया
वह मुझे देख कर डर गई और बोली- ‘सर, कुछ नहीं।’
- ‘इस लड़के से नकल कर रही हो?’
वह घबरा गई और जल्दी से बोली- ‘नहीं सर, मैं नकल नहीं कर रही थी।’
मैंने लड़के को बोला- ‘तुमने पेपर पूरा कर लिया?’
वह भी सकपकाया हुआ था। वह हकलाते हुए बोला- ‘हां सर, मैंने कर लिया है।’
- ‘कर लिया तो इसका मतलब तुम दूसरों को नकल....’ मैं अपना वाक्य पूरा भी नहीं कर पाया कि लड़का बीच में अपनी सफाई देने लगा ‘नो सर..... मैं.... मैं.... मैं.... नकल... नहीं।’
- ‘चुप। क्या नाम है तुम्हारा?’
- ‘प्रिंस।’
- ‘प्रिंस, सीधे बैठो और अपनी कॉपी को ढंग से रखा करो कि दूसरा कोई देखे नही।’
प्रिंस सीधा बैठ गया। उसके चेहरे पर भय दिखाई दे रहा था। शायद वह यह सोच कर डर रहा होगा कि उसके बारे में मैंने उसके पापा को बताया तो क्या होगा?
मैंने गौर किया एक बार मना करने के बाद वह स्थिर बैठे रहा। थोड़े समय में बेल बजने वाली थी, बेल बज गई।
नकल करवाने की बात मैंने प्रिंस के पापा को नहीं बताई। उस दिन के बाद एक दिन स्कूल में फिर प्रिंस मुझे सामने से आता दिखाई दिया। मुझे देख कर वह मुस्कुराया और बोला- ‘नमस्ते सर।’ मैं भी मुस्कुराया। मैंने गौर किया वह परीक्षा वाले दिन की भांति अब भी थोड़ा अटकते हुए बोल रहा था।
हिंदी शिक्षक के नाते मुझे लगा कि बच्चे को बोलने में समस्या है। मैंने अपने साथी अध्यापक से इस बारे में अपना संदेह जाहिर किया तो वे हंसते हुए बोले- ‘अरे उसको छोड़ो, वह ढीला ढक्कन है।’
मैं उनके चेहरे की तरफ देखने लगा। मैंने पूछा- ‘ढीला ढक्कन माने?’
- ‘ढीला ढक्कन माने ढीला ढक्कन।’ वे हंसने लगे और मैंने भी इस बात को विराम लगा दिया।
काफी अंतराल बाद एक दिन मुझे संयोग से प्रिंस की कक्षा में जाने का अवसर मिला। मैंने उसे गौर से देखा और उसकी तरफ संकेत कर पूछा- ‘क्या नाम है तुम्हारा।’
- ‘सर, प्रिंस... ।’ वह बोला तो मुझे उसके पापा के कहे शब्द स्मरण हो आए ‘ढीला ढक्कन’।
मैंने संवाद का सिलसिला आगे बढ़ाया- ‘अच्छा, बताओ प्रिंस का मतलब क्या होता है?’
कुछ बच्चे जैसे मेरे सवाल के इंतजार में ही बैठे थे, एक साथ बोले- ‘राजकुमार।’
मैं हल्की सी नाराजगी जाहिर करते हुए बोला- ‘अरे मैंने तो राजकुमार से पूछा था और बीच में सारी जनता कैसे बोल पड़ी।’
- ‘सर, प्रिंस माने राजकुमार।’ इस बार प्रिंस बोला।
- ‘तो फिर तुम्हारे दो-दो नाम है? एक अंग्रेजी में और एक हिंदी में।’
- ‘नो सर, नाम तो एक ही है।’ वह अटक अटक कर बोला।
- ‘फिर इतना अच्छा नाम है तो अटक-अटक कर क्यों बोलते हो?’
- ‘सर, प्रोब्लम है।’
- ‘कोई प्रोब्लम नहीं है। खुल कर बोला करो। डर लगता है किसी से?’
- ‘नो सर।’
- ‘चलिए बैठ जाओ।’
मैंने चॉक के तीन टुकड़े किए और संकेत से दो लड़कों को बुलाया। एक से कहा लिखो- ‘ढीला।’ और दूसरे को बोला- ‘ढक्कन।’
क्लास में एक हंसी बिखर गई। मैंने पूछा- ‘क्या हुआ?’ तो सारे चुप। मॉनिटर बोला- ‘सर कुछ क्लासमेट प्रिंस को ढीला ढक्कन कह कर परेशान करते हैं।’
मुझे लगा मैंने गलत प्रकरण छेड़ दिया है। स्थिति को नोर्मल करते हुए मैं बोला- ‘देखिए, आपके दोस्त ने गलत लिखा है। इनको शुद्ध शब्द लिखना नहीं आया। दोनों बैठ जाएं।’
इतने में एक दो बच्चों ने हाथ खड़े किए और सर मैं सर मैं की आवाज निकाली। मैंने उन्हें प्रोत्साहित किया तो श्यापपट्ट पर ढिला के आगे उस लड़की ने ढीला शब्द ठीक लिख दिया। तो एक दूसरा लड़का बोला- ‘गलत है।’ मैंने उसे बुलाया तो उसने ढ़ीला लिखा। यही हाल ढक्कन का हुआ।
मैंने बच्चों को बताया कि ढ़ से जब कोई शब्द आरंभ होता है तो उसने नीच का बिंदु नहीं लगाया जाता। जैसे ढीला, ढंग, ढक्कन आदि शब्द और अगर ढ़ शब्द के बीच में अथवा अंत में आता है वहा बिंदु लगता है। उदाहरण लिखे- कढ़ाई, पढ़ो। इसके बाद क्लास वर्क के रूप में उन्हें ऐसे शब्द लिखने दे दिए और प्रिंस को अपने पास बुलाया।
जब वह आया तो मैंने पूछा- ‘क्या सीखा?’
वह बोला- ‘ढीला ढक्कन में बिंदु नहीं आता है।’
- ‘तुम डरते-डरते नहीं पूरे मन से बिना डरे बोला करो। अगर तुम आत्मविश्वास के साथ बोलोगे तो कोई दिक्कत नहीं आएगी। घबराना छोड़ो। सभी बोलते हैं वैसे बोला करो। इस बात को भूल जाओ कि तुम अटकते हो।’
- ‘यस सर।’
- ‘कल तुमको प्रार्थना सभा में एक कविता बोलनी है।’
- ‘नो सर।’
- ‘नो क्यों? सोच लो। मैंने वो वाली बात तुम्हारे पापा को नहीं बताई है।’
- ‘यस सर।’
- ‘तो पक्का रहा, तुम बोलोगे।’
- ‘नो सर।’
- ‘फिर नोर सर कैसे आए। तुमको बोलना है। छोटी सी कविता हो तो भी चलेगा। पर बोलना ही है। जैसी आए बोलना, बिना घबराए। और हां आज घर जाकर अपने पापा को बीस बार कविता सुनाना।’
वह कुछ सोच कर बोला - ‘यस सर।’
शाम को मेरे साथी अध्यापक का फोन आ गया। बोले- ‘सर, यह क्या प्रोब्लम कर दी।’
मैंने पूछा - ‘क्या हुआ?’
- ‘मेरा बेटा मुझे कविता सुनाए जा रहा है और कह रहा है कि सर ने बोला कि बीस बार सुनानी है।’
मैंने कहा- ‘हां तो सुनिए ना। क्या प्रोब्लम है।’
- ‘यार, ये ढीला ढक्कन....।’
मैंने सर को बीच में टोक दिया- ‘प्लीज सर, उसे ढीला ढक्कन कहना बंद करें। कल वह अच्छे से कविता सुनाएगा। सॉरी।’
- ‘ओ के सर।’ और उन्होंने फोन काट दिया।
अगले दिन प्रार्थना-सभा में प्रिंस ने कविता बोली। स्टेज पर जा कर मैंने बच्चों को जोरदार तालियों से प्रिंस का उत्साह-वर्द्धन करवा दिया। प्रिंस के चेहरे पर एक नई चमक आ चुकी थी।
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