Sunday, September 27, 2020

तथापि / अम्बिकादत्त

नीरज दइया की राजस्थानी कविताओं का मदन गोपाल लढ़ा द्वारा हिंदी में किया गया अनुवाद रचनात्मक आस्वाद के कई अवसर उपलब्ध करवाता है। अनुवाद दो भाषाओं के बीच एक खिड़की है - इसकी सर्वार्थ  सिद्धि इसके न रहने में है। जब अनुवाद, अनुवाद न लगे। मदन गोपाल लढ़ा इस संकलन कि प्रस्तावना में पूरी तैयारी के साथ उपस्थित हैं। वे कविता और जीवन के सापेक्ष रचनाकार, उसकी रचना और रचनाधर्मिता के लगभग सभी पहलुओं की पड़ताल करते हैं। प्रसंग और संदर्भ के अनुसार समकालीन राजस्थानी के मूर्धन्य रचनाकारों की कही गई बातों का भी उल्लेख करते हैं। उनकी यह प्रस्तावना निसंदेह पाठकों के लिए संकलन की रचनाओं से मिलने में काफी मददगार साबित होगी। बेशक उन्होंने मेरे जैसों के कहने के लिए कुछ नहीं छोड़ा है। तथापि।

रक्त एक रसायन है और घुलना एक रासायनिक क्रिया। भाषा रक्त में घुले, यह साहित्य की भाषा में ही संभव है। क्या भाषा अपना सबसे व्यापक और प्रभावी स्वरूप साहित्य में ग्रहण करती है? साहित्य की भाषा में रक्त और रक्त-संदर्भ प्रसंगानुकूल अनेक स्वरूपों में प्रयुक्त किए गए हैं। किए जाते हैं। प्राय: वैयक्तिता, निजता के आत्यंतिक, आत्मिक संदर्भों संबंधों में। यहां भी यह पद भाषा के साथ आत्मीय-आत्यांतिक, प्राणवंत संबंध के संदर्भ में प्रयुक्त है - कि रचना/ रचनाकार का भाषा के साथ कैसा रिश्ता है? भाषा रक्त में घुली हुई है। रक्त-वंश, जाति, स्वभाव, स्वाभिमान सरीखे सामाजिक सांस्कृ तिक पहलुओं के परिचायक के साथ ही जीवन-मृत्यु का भी कारण है। भाषा के साथ ऐसा ही प्रगाढ़ संबंध प्रकट करता है यह कथन - रक्त में घुली हुई भाषा।

नीरज दइया की राजस्थानी कविता की बात हम कर सकते हैं। अनुवाद- काव्य रूपांतरण और अनुवाद के उपरांत नीरज दइया की कविता की बात भी कर सकते हैं। अनुवाद को लेकर इसकी कसौटी और उपादेयता आदि विवेचना के भिन्न प्रयोजनात्मक पहलुओं पर बात की जा सकती है। भिन्न भाषाओं (भारतीय/ विदेशी) से राजस्थानी में अनुवाद और राजस्थानी का दूसरी भाषाओं में अनुवाद विशेषकर हिंदी में। दोनों बातों पर अलग-अलग मत हैं। बहरहाल। यह मसला हमें रचना के उस बुनियादी सवाल के नजदीक भी ले जाता है कि एक लेखक दो या दो से अधिक भाषाओं में क्यों लिखता है? राजस्थान या किसी भी क्षेत्रीय भाषा के हिंदी जानने और उसमें कविता लिखने वाले कवि को राजस्थानी या किसी भी क्षेत्रीय भाषा में कविता लिखने की दरकार क्या है? वह कह सकता है - यह भाषा उसके रक्त में घुली है। तो फिर इन कविताओं के हिंदी अनुवाद की जरूरत क्या है? कवि स्वयं भी तो इन कविताओं को हिंदी में लिख सकता था या उनका अनुवाद कर सकता था। इन सवालों के जवाब लेखक के पास भी होंगे और अनुवादक के पास भी। कुछ जवाब मेरे पास भी हैं। लेकिन मैं उन्हें यहां  देना नहीं चाहता। बल्कि मैं चाहूंगा कि इस संकलन की रचनाओं से गुजरने वाले पाठक के जेहन में उपरोक्त या इसी सिलसिले के दूसरे  कोई सवाल हों तो वे जगे रहें, बजते रहें, वे खुद उनसे रू-ब-रू हों। जरूरी हों तो जवाब भी वे ही तलाशें। तब इन रचनाओं से गुजरने का तजुर्बा अलग होगा।

अगर पढऩे के दौरान या पढऩे के बाद कोई सवाल याद नहीं रहता - बिसर जाता है तो यह प्रस्तुत संकलन की बड़ी उपलब्धि होगी। लेखक, अनुवादक और पाठक तीनों के लिए। मेरे साथ कुछ इसी तरह का अनुभव हुआ इन रचनाओं से गुजरते हुए। लगा कई बार जवाब दे देने से - सवाल की कीमत बस उसके बराबर होकर रह जाती है। क्या अनुवाद में वह रक्त प्रवाह बचा रह सका जो मूल रचना में कहा गया है। मुझे लगता है इस संकलन की और मदन गोपाल लढा के काम की यही बड़ी चुनौती है - कसौटी है जिसमें उन्हें बहुत ही रचनात्मक कोटि की सफलता मिली है। वे स्वयं हिंदी और राजस्थानी के समर्थ रचनाकार हैं।

इस संकलन में हिंदी और राजस्थानी के बीच के भाषिक भेद को इतनी कुशलता के साथ पाट दिया गया है कि यकायक लगता नहीं यह अनुवाद की पुस्तक है। किसी भी हिंदी भाषी पाठक के लिए यह मूल हिंदी में रची गई रचनाओं जैसी है। नीरज दइया की कविताओं को पढ़ते हुए हर बार लगता है - उनकी कविताओं में संवेदनाएं अभी भी उतनी ही सद्य हैं - हरी हैं। कविताओं का चयन स्तरीय है। मुझे डर है मैं इन कविताओं की विवेचना करने लगूंगा तो शायद आवृत्ति हो या पाठकों का कविता पढ़ते समय का घनीभूत अमूर्त आस्वाद विरल न हो जाए। अस्तु।

 - अम्बिकादत्त


Saturday, September 12, 2020

डॉ. लालित्य ललित

 "सृजन-संवाद" नाम से केंद्रित पुस्तक उन रचनाकारों पर केंद्रित है जिन्हें केंद्रीय साहित्य अकादेमी,दिल्ली से सम्मान मिल चुका है,ऐसे ही साहित्य के प्रति समर्पित और आशावान लेखक भाई डॉ नीरज दइया का एक साक्षात्कार पिछले दिनों अपने बीकानेर प्रवास के दौरान लिया था, वह इस पुस्तक में प्रकाशित हुआ है।
बेहद विन्रम और सौम्य नीरज दइया जी पेशे से शिक्षक है मैंने उन्हें स्कूल में भी बच्चों को उन्मुक्त भाव से पढ़ाते हुए देखा है कि किस कदर वे अपना सौ प्रतिशत अपने स्कूल के स्टूडेंट्स को देते है,उतने ही चिर-परिचित वे साहित्यिक गलियारे में भी सक्रिय है।
पुस्तक का प्रकाशन, किताबगंज ,गंगापुर सिटी ने किया है,जिन्होंने दो वर्ष पहले मेरा भी व्यंग्य संग्रह लालित्य ललित के श्रेष्ठ व्यंग्य प्रकाशित किया था।बहरहाल यह पुस्तक मात्र 300/-में उपलब्ध है।पुस्तक के संपादक डॉ नीरज दइया है।
इस पुस्तक में अधिकांश लेखक अपने मित्र है।

डॉ. लालित्य ललित

Wednesday, September 02, 2020

डॉ. नीरज दइया की प्रकाशित पुस्तकें :

हिंदी में-

कविता संग्रह : उचटी हुई नींद (2013), रक्त में घुली हुई भाषा (चयन और भाषांतरण- डॉ. मदन गोपाल लढ़ा) 2020
साक्षात्कर : सृजन-संवाद (2020)
व्यंग्य संग्रह : पंच काका के जेबी बच्चे (2017), टांय-टांय फिस्स (2017)
आलोचना पुस्तकें : बुलाकी शर्मा के सृजन-सरोकार (2017), मधु आचार्य ‘आशावादी’ के सृजन-सरोकार (2017), कागद की कविताई (2018), राजस्थानी साहित्य का समकाल (2020)
संपादित पुस्तकें : आधुनिक लघुकथाएं, राजस्थानी कहानी का वर्तमान, 101 राजस्थानी कहानियां, नन्द जी से हथाई (साक्षात्कार)
अनूदित पुस्तकें : मोहन आलोक का कविता संग्रह ग-गीत और मधु आचार्य ‘आशावादी’ का उपन्यास, रेत में नहाया है मन (राजस्थानी के 51 कवियों की चयनित कविताओं का अनुवाद)
शोध-ग्रंथ : निर्मल वर्मा के कथा साहित्य में आधुनिकता बोध
अंग्रेजी में : Language Fused In Blood (Dr. Neeraj Daiya) Translated by Rajni Chhabra 2018

राजस्थानी में-

कविता संग्रह : साख (1997), देसूंटो (2000), पाछो कुण आसी (2015)
आलोचना पुस्तकें : आलोचना रै आंगणै(2011) , बिना हासलपाई (2014), आंगळी-सीध (2020)
लघुकथा संग्रह : भोर सूं आथण तांई (1989)
बालकथा संग्रह : जादू रो पेन (2012)
संपादित पुस्तकें : मंडाण (51 युवा कवियों की कविताएं), मोहन आलोक री कहाणियां, कन्हैयालाल भाटी री कहाणियां, देवकिशन राजपुरोहित री टाळवीं कहाणियां
अनूदित पुस्तकें : निर्मल वर्मा और ओम गोस्वामी के कहानी संग्रह ; भोलाभाई पटेल का यात्रा-वृतांत ; अमृता प्रीतम का कविता संग्रह ; नंदकिशोर आचार्य, सुधीर सक्सेना और संजीव कुमार की चयनित कविताओं का संचयन-अनुवाद और ‘सबद नाद’ (भारतीय भाषाओं की कविताओं का संग्रह)

नेगचार 48

नेगचार 48
संपादक - नीरज दइया

स्मृति में यह संचयन "नेगचार"

स्मृति में यह संचयन "नेगचार"
श्री सांवर दइया; 10 अक्टूबर,1948 - 30 जुलाई,1992

डॉ. नीरज दइया (1968)
© Dr. Neeraj Daiya. Powered by Blogger.

आंगळी-सीध

आलोचना रै आंगणै

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