Sunday, December 09, 2018

मराठी में दस राजस्थानी कविताएं

मुम्बई से प्रकाशित होने वाली मराठी पत्रिका 'आकंठ' दिवाळी २०१८ के 'राजस्थानी साहित्य विशेषांक' में मेरी दस कविताओं का मराठी अनुवाद प्रकाशित हुआ है।
अनुवादक- अविनाश दौंड, मनोहर धोत्रे, संपादक- रंगनाथ चोरमुले एवं अतिथि संपादक Bharat Ola और विशेष संपादकीय सहयोगी Om Nagar का आभार ।
बहुत शानदार इस अंक में राजस्थानी के अनेक रचनाकारों को शामिल किया गया है। भारतीय भाषाओं के आदान-प्रदान में आकंठ की पूरी टीप को बधाई और शुभकामनाएं।




Friday, November 23, 2018

तहलका में नीरज दइया पुरस्कार के बारे में आलेख


रेतीले राजस्थान के बीकानेरी साहित्यकार डॉ. नीरज दइया की पुरस्कृत आलोचना कृति ‘बिना हासलपाई’ उनके अपने सरोकारों, प्रतिबद्धताओं तथा प्रतिश्रुचियों का सुचिंतित पाठ है। इसमें भाषा के संयमित, सौंदर्यवाद के बावजूद उनमें सख्ती का स्वर भी सुनाई पड़ता है। इसकी प्रतिध्बनि एक साक्षात्कार में सुनाई पड़ती है कि, ‘मेरा काम तो आलोचना का सृजन जैसे रचना है। रचना प्रक्रिया में उन्होंने बहुत सारे पहलुओं को खोलती हुई टिप्पणियां भी की हैं, ’आलोचना में किसी लेखक के आत्म सम्मान पर चोट न हो, इस बात के प्रति सजग रहता हूं साथ ही अपने लेखक को बड़ा मानकर उसके पीछे-पीछे चलने का प्रयास करता हूं। डॉ. नीरज दइया ने अपने सृजन चिंतन के बूते समकालीन साहित्य को भी गहराई से प्रभावित करने का प्रयास किया है कि, ‘मैं मूल रूप से रचनाकार हूं और आलोचना का काम भी उसे रचना मानकर करता हूं। डॉ. दइया सार्थक रचनात्मकता के कर्ता हैं तो अपने आपको सखा आलोचक की भूमिका से अलग करते हुए स्पष्ट कहते हैं कि, ‘बिना हासलपाई आलोचना पुस्तक की एक सीमा है। हर पुस्तक की होती है और मेरा मानना है कि, आलोचना में कोई मित्र नहीं होता।” डॉ. दइया अपने आलोचनात्मक भाव में विचारधार के साथ दृढ़ता से जुड़े हुए चिंतक नजर आते हैं, जब वे कहते हैं कि, ‘बिना हासलपाई में उन कहानीकारों को लिया गया है जिन पर पर्याप्त ध्यान आलोचना ने नहीं दिया है। किंतु कुछ ऐसे कहानीकारों को छोड़ दिया गया है, जिन्होंने कहानियां तो कम लिखी हैं, लेकिन बातें बहुत की अथवा अपने कहानीकार होने को बहुत प्रचारित करवाया। उनका वाचिक विमर्श जयकार के अतिरेक से बोझिल आत्ममुग्ध कथाकारों की पांत को बेबाकी से परिभाषित करता है। डॉ. दइया की यह विचार दृष्टि उन्हें सदाबाहर आलोचकों और रचनाकार रिझाऊ आलोचकों की भीड़ से अलग करती है।
डॉ. दइया का लेखन ठिठका हुआ नहीं है। लेकिन अपनी आलोचना प्रविधि के बारे में स्पष्ट कहते हैं कि आलोचना का कोई तयशुदा फार्मूला नहीं होता। मैं लिखते समय बस लिखता हूं। किसी दिन क्या और किन... किन पर ध्यान बंटने लगेगा तो मेरा लेखन अवरुद्ध हो जाएगा। उन्होंने अपने आलोचना कर्म में लिखने का कारण और अंर्तप्रेरणा का परिचय देते हुए अपनी वैचारिक सामर्थ्य का भी खुलासा कर दिया है कि, ‘वैचारिक प्रवाह में घिरने के बाद लेखन में कोई अबरोध नहीं रह जाता।
कहानी विधा पर केंद्रित आलोचना कृति ‘बिना हासलपाई’ को परिभाषित करते हुए समीक्षक देवकिशन राजपुरोहित कहते हैं, ‘बिना हासलपाई का मतलब है बिना कुछ जोड़ या कम किए जैसी रचनाएं हैं, उनके गुण-दोष सप्रभाव अंकित कर दिए हैं, मतलब ज्यों की त्यों धर दीनी.... । पूरी पुस्तक में उन्होंने चर्चित और चुनिंदा 25 रचनाकारों की रचनाओं की परख की है। कई कहानीकारों की विधागत कमियों को गिनाया है तो पुर्नलेखन की गई रचनाओं को भी नहीं छोड़ा है। समीक्षक राजपुरोहित के अनुसार डॉ. नीरज दइया ने एक इशारा कवि से कहानीकार बने कहानीकारों की कहानियों और दूसरी भाषा से राजस्थानी में आए कहानीकारों की कहानियों की कमजोरी की तरफ भी किया है। कृति के आरंभ में कहानी आलोचना और कहानी विधा पर खुलकर बात की है तो कहानी के शिल्प और संवेदना पर भी अपना नजरिया स्पष्ट किया है। डॉ. दइया की लेखकीय समग्रता में समीक्षक का मूल्यांकन एक खास तरीके से उनकी पहचान कराता है। इस पुस्तक से कथाकार हसन जमाल की कृति ‘यह फैसला किसका था?’ पर की गई समीक्षक टिप्पणी ताजा हो जाता है कि, ‘राजस्थानी भाषा का प्रयोग कथा-भाषा और वातावरण को जीवंत कर देता है।”
समीक्षक भवानी शंकर व्यास आलोचना के प्रस्थान बिंदु के रूप में उनके ‘साहस’ को स्थापित करते हैं। उनकी टिप्पणी पुस्तक को प्रासंगिक बनाती है कि,‘डॉ. दइया ने साहस के साथ कहानी-साहित्य को कथा साहित्य कहने का विरोध किया है, क्यों कि कथा शब्द में कहानी और उपन्यास दोनों का समावेश होता है। उसे कथा शब्द से संबोधित करना भ्रम उत्पन्न करता है। यह टिप्पणी कई सवाल छोड़ती नजर आती है कि, ‘फिर साहित्य अपने समय के प्रश्नों से मुठभेड़ नहीं कर पा रहा? अपनी आलोचकीय दृष्टि में डॉ. दइया, ‘आधुनिक होने का अर्थ समय के यथार्थ से जुड़ना मानकर चलते हैं.... तो साहित्य की बढ़ती प्रासंगिकता और साहित्य के बढ़ते दायित्व को भी रेखांकित करते हैं। साहित्य में बढ़ते दायित्व को भी रेखांकित करते हैं। शैक्षणिक पत्रिका ‘शिविरा’ के नवम्बर 2015 के अंक में डॉ. दइया के बारे में सटीक टिप्पणी की गई थी कि, ‘उनके पास एक आलोचना दृष्टि है तथा कसावट के साथ बात कहने का हुनर भी। वे कलावादी आलोचना, मार्क्सवादी आलोचना या भाषाई आलोचना के चक्कर में ना पड़कर किसी कृति का तथ्यों के आधार पर कहानीकार के समग्र अवदान को रेखांकित करते चलते हैं। डॉ. दइया के पास वांछित शब्द और सच दोनों ही है। डॉ. दइया ने सभी कहानीकारों के प्रति सम्यक दृष्टि रखी है, न तो ठाकुर सुहाती की है और न ही जानबूझकर किसी के महत्त्व को कम करने की चेष्टा की है।
प्रसंगवश यहा मशहूर समालोचक नामवर सिंह की टिप्पणी का उल्लेख आवश्यक है। उनका कहना था, आलोचना केवल अपने समकालीन साहित्य का क्लीयरिंग हाऊस नहीं है। आज जो लिखा जा रहा है, उसमें क्या सार्थक है, क्या निरर्थक है और अच्छा है, उसकी छानबीन आवश्यक है तभी आलोचना और रचना विकसित होगी। डॉ. दइया आलोचना को रचना धर्म से अलग नहीं करते, किंतु नामवर सिंह का कहना था, ‘आलोचना रचना के साथ-साथ चलती है, पर एक कदम आगे। यद्यपि उन्होंने आलोचकों की कोटियों का दिलचस्प निर्धारण करते हुए उन आलोचकों की खबर ली है जो बराबर रचना के साथ ही चलते हैं पर रचना से एक कदम आगे चलने की हिम्मत नहीं रखते।
० तहलका (31 जनवरी 2018)

सहगल के कहानी-साहित्य का पूरा परिदृश्य / डॉ. नीरज दइया








हरदर्शन सहगल का कथा साहित्य और समकालीन विमर्श (शोध) डॉ. बबीता काजल; 
प्रकाशक- बोधि प्रकाशन, जयपुर; संस्करण- 2018; पृष्ठ-104; मूल्य-120/-
 पुस्तक-समीक्षा -
सहगल के कहानी-साहित्य का पूरा परिदृश्य / डॉ. नीरज दइया

    समकालीन हिंदी कथा-साहित्य के परिदृश्य में राजस्थान से हरदर्शन सहगल की प्रभावी उपस्थिति रही है। मियांवाली (पाकिस्तान) के कुंदिया गांव में 26 फरवरी, 1936 को जन्में सहगल का पहला कहानी संग्रह- ‘मौसम’ 1980 में प्रकाशित हुआ और तब से अब तक एक दर्जन से अधिक कथा-साहित्य की पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है। आपको कथा-साहित्य के लिए राजस्थान साहित्य अकादेमी से रांगेय राघव पुरस्कार गत वर्ष अर्पित किया गया। डॉ. बबीता काजल का ‘हरदर्शन सहगल का कथा साहित्य और समकालीन विमर्श’ शोध का पुस्तकाकार आना उनकी साहित्य-साधना का सम्मान है। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग से स्वीकृत इस शोध-प्रोजेक्ट में छह अध्याय हैं। लेखक की कलम से में अपनी बात स्पष्ट करते हुए लेखिका ने कहानी के प्रति आकर्षण, बीकानेर और सहगल की आत्मीयता के साथ शोध-प्रस्ताव की रूपरेखा-विचारधारा को स्पष्ट किया है।
    शोध के आरंभ में आधुनिक हिंदी कहानी की यात्रा पर प्रकाश डालते हुए समकालीन विमर्शों की अवधारणाओं और अभिव्यक्ति के प्रश्न पर विभिन्न मतों के आलोक में चर्चा की गई है। शोध का प्रथम अध्याय स्त्री, दलित, सत्ता/ राजनीति, विखंडन, विघटन, बाजार, बाल तथा अन्य विमर्शों पर एक सीमा-रेखा का निर्धारण है जिनके मानदंडों पर हरदर्शन सहगल के कथा साहित्य में समकालीन विमर्शों का अध्ययन किया गया है। यह बहुत समीचीन है कि द्वितीय अध्याय में उनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर विस्तार से जानकारियां उपलब्ध करवाने के साथ ही सभी रचनाओं का संक्षेप में परिचय भी दिया गया है। इस अध्याय में उल्लेखित नौ कहानी संग्रहों के विषय में विमर्शों के धरातल पर विस्तार आकलन लेखिका ने आगे के अध्यायों में किया है। यह अतिरिक्त अपेक्षा नहीं है और यहां यह प्रश्न स्वभाविक रूप से किया जाना चाहिए कि जब शोध विषय में ‘कथा-साहित्य’ पद प्रयुक्त किया गया है, तो इसमें सहगल के उपन्यास-साहित्य को शामिल क्यों नहीं किया गया है?
    तृतीय अध्याय ‘हरदर्शन सहगल की कहानियां : एक परिचय’ में संग्रहवार कहानियों की भावभूमि और परिचयात्मक-समीक्षात्मक टिप्पणियां हैं। चतुर्थ अध्याय- ‘हरदर्शन की सहगल की कहानियों में समकालीन विमर्श’ शीर्षक में एक अतिरिक्त ‘की’ प्रयुक्त हुआ है वहीं इस अध्याय की प्रथम पंक्ति- ‘अध्याय तीन में हरदर्शन सहगल द्वारा रचित लगभग 10 कथा संग्रहों में रचित लगभग 50 कहानियों का विषद अध्ययन करने से स्पष्ट होता है कि विषय का वैविध्य होते हुए भी आपकी अधिकांश कहानियों में मध्यवर्गीय जीवन को केन्द्र में रखकर लिखी गई है।’ खेद के साथ लिखना पड़ता है कि इस पंक्ति में दो बार ‘लगभग’ प्रयुक्त होना, अध्ययन की गंभीरता को कमतर सिद्ध करने वाला है। पूर्व में उल्लेखित कहानी और कथा का विभेद भी यहां आवश्यक जान पड़ता है। इस अध्याय की एक पंक्ति देखें- ‘बहरहाल राजस्थान के सुप्रसिद्ध कथाकार हरदर्शन सहगल द्वारा रचित कहानियों में अगर विमर्श या विचारों की तलाश करें तो वह विविधता से भरा है यद्यपि कुछ एक विषयों पर उन्होंने बहुत अधिक लेखनी नहीं चलई है तथापि वर्तमान में बहने वाली अनेक साहित्यिक धाराएं उनके साहित्य में अपनी प्रासंगिकता को सिद्ध करती है।
    प्रत्येक शोध की अपनी सीमाएं और संभावनाएं होती है। जाहिर है इस शोध की भी अपनी सीमाएं हैं किंतु संभावनाएं असीमित है। विषय के सांचे में किसी रचनाकार की कृतियों का मूल्यांकन उस कृति की इतर अनेक संभावनाओं का अंत होता है। इसके उपरांत भी विदुषी डॉ. बबीता काजल ने अपनी शोध-परक सूक्ष्म दृष्टि का परिचय अनेक स्थलों पर देते हुए कहानियों में विमर्शों की न्यूनता-अधिकता को स्पष्ट किया है। शोध का प्रमुख और प्रभावशाली अध्याय पांचवा है- ‘समकालीन कहानी : संवेदना के स्तर’ जिसमें समकालीन कहानियों और कहानीकारों का तुलनात्मक अध्यय प्रस्तुत करते हुए सहगल के कहानी लेखन को रेखांकित किया गया है। अनेक कहानियों को उदाहरण के रूप में प्रस्तुत करते हुए लेखिका ने हरदर्शन सहगल को जीवन में साहित्य के माध्यम से सद्गुणों को बचाने वाले सजक सृजक के रूप में पाया है।
    पुस्तक के अंतिम अध्याय- ‘नव विमर्श में निहित संभावनाएं’ का निष्कर्ष है कि अनेक-अनेक धाराओं के मध्य ‘मानव विमर्श ही परम विमर्श और अंगी विमर्श है, जो मानव की समस्त संवेदनाओं व अनुभूतियों को बनाए रखने का पक्षधर है और सहगल के कहानी साहित्य का उद्देश्य मानव धर्म की प्रतिस्थापना करना है। मानवीय संवेदनाओं का रक्षण और दुष्प्रवृत्तियों का क्षर करने वाले कहानीकार सहगल पहले साहित्यकार हैं जिनकी कहानियों पर ऐसा शोध प्रकाश में आया है, इसलिए लेखिका को बहुत बहुत साधुवाद। उपसंहार में लेखिका के व्यक्त विचार से सहमत हुआ जा सकता है कि सहगल द्वारा रचित कहानियां उनकी मौन साधना और खामोशी में अपना धर्म निभाती बिना किसी खेम का ढोल पीटे मौन साधक की साधना है। बबीता काजल के इस शोध ग्रंथ में सहगल के कहानी-साहित्य का पूरा परिदृश्य हम देख सकते हैं।
    पुस्तक के सुंदर मुद्रण और प्रकाशन के लिए बोधि प्रकाशन को बधाई और कहना होगा कि इस प्रकार के शोध विभिन्न रचनाओं-रचनाकारों के संबंध में भी होते रहेंगे। 

Wednesday, October 24, 2018

‘श्रीलाल नथमलजी जोशी : रचना संचयन’ लोकार्पण

राजस्थानी के प्रथम उपन्यासकार श्री श्रीलाल नथमलजी जोशी की आठवीं पुण्य तिथि पर आयोजित ‘श्रीलाल नथमलजी जोशी : रचना संचयन’ लोकार्पण-समारोह

















 बीकानेर/ 23 अक्टूबर/ श्रीलाल नथमलजी जोशी ने राजस्थानी कथा साहित्य के पायोनियर रचनाकार थे जिन्होंने प्रवाहमयी भाषा द्वारा जटिल से जटिल भावों को सहजता से अभिव्यक्त किया। उक्त उद्गार प्रसिद्ध कवि-चिंतक डॉ. नन्दकिशोर आचार्य ने श्रीलाल नथमलजी जोशी की आठवीं पुण्य तिथि पर आयोजित लोकार्पण समारोह की अध्यक्षता करते हुए व्यक्त किए। मुक्ति संस्था महाराजा नरेन्द्रसिंह ओडिटोरियम में डॉ. आचार्य ने राजस्थानी के मुद्दे पर बोलते हुए कहा कि मैं सैद्धांतिक रूप से मानता हूं कि शिक्षा का माध्यम मातृभाषा होना चाहिए, यह भाषिक मानवाधिकार की श्रेणी में आता है कि जिनकी मातृभाषा राजस्थानी है उन्हें आरंभिक शिक्षा राजस्थानी में मिले। उन्होंने श्रीलाल नथमलजी जोशी के अनेक संस्मरणों को बताते कहा कि ‘धोरां रा धोरी’ जैसे जीवनीपरक उपन्यास की परंपरा आगे विकसित होनी चाहिए थी। नए लेखकों को अपने पूर्ववर्ती लेखकों से सृजनात्मक रिश्ता उनकी भाषा में तलाशना चाहिए।
    मुख्य अतिथि ख्यातनाम कवि-संपादक भवानीशंकर व्यास ‘विनोद’ ने कहा कि श्रीलाल नथमलजी जोशी ने राजस्थानी के लिए बेजोड़ काम किया। अग्रजों के लिए उनमें श्रद्धा भाव था। व्यास ने कहा कि उनका उपन्यास ‘आभै पटकी’ राजस्थानी का पहला उपन्यास है जिसे शुद्ध सामाजिक उपन्यास कहा जा सकता है। जोशी के कार्यों पर बोलते हुए उन्होंने कहा कि राजस्थानी गद्य के विकास में उनका अविस्मरणीय योगदान रहा है।
    लोकार्पित कृति ‘श्रीलाल नथमलजी जोशी : रचना संचयन’ पर अपने पत्रवाचन में कवि-आलोचक डॉ. नीरज दइया ने जोशी की पांच पुस्तकों के संकलन को पंचामृत की संज्ञा देते हुए उन्हें कालजयी गद्य लेखक बताया। डॉ. दइया ने कहा कि जोशी जी के हॄदय में मातृभाषा राजस्थानी के अपरिमित लगाव था जिसके रहते वे गद्य साहित्य को अपने जीवनकाल में विविध कथा-प्रयोगों से समृद्ध करते रहे।
    लोकार्पण समारोह के आरंभ में ठा.रामसिंह द्वारा लिखित और श्रीलाल नथमलजी जोशी को अतिप्रिय राजस्थानी वंदना का गायन प्रसन्ना पारीक और शिवानी पारीक ने प्रस्तुत किया। आगंतुकों का स्वागत करते हुए कवि-कहानीकार मालचंद तिवाड़ी ने श्रीलाल नथमल जोशी से जुड़े संस्मरण साझा करते हुए उन्हें राजस्थानी का अद्वितीय रचनाकार बताया और संचयन के प्रकाशन को निजी हर्ष का विषय कहा।
    रचना संचयन के संपादक द्वय श्रीमती कांता पारीक और श्रीमती प्रभा पारीक में से श्रीमती प्रभा ने अपनी बात रखते हुए बाऊजी के लेखन की विचार भूमि पर प्रकाश डालते हुए उनके द्वारा उन्हें लिखित दो पत्रों का भी वाचन किया। इस अवसर पर श्रीमती शशिकांता जोशी और साहित्यकार मधु आचार्य ‘आशावादी’ को संपादक द्वय द्वारा रचना-संचयन भेंट किया गया।
    व्यंग्यकार-कहानीकार बुलाकी शर्मा ने पुस्तक प्रकाशन की रूपरेखा पर प्रकाश डालते हुए बाऊजी से जुड़े अनेक संस्मरण साझा करते हुए कहा कि हमें श्रीलाल नथमलजी जोशी के कार्यों से प्रेरणा लेते हुए निरंतर राजस्थानी सृजन करना चाहिए। राजस्थानी उनके और हमारे मन से जुड़ी भाषा है। समारोह का संचालन बुलाकी शर्मा ने किया तथा अंत में वाचस्पति जोशी ने आभार ज्ञाप्ति किया। कार्यक्रम में साहित्यकार सरल विशारद, डॉ. श्रीलाल मोहता, लक्ष्मीनारायण रंगा, राजाराम स्वर्णकार, भंवर लाल भ्रमर, प्रमिला गंगल,राम प्रकाश मन्नू, बैजनाथ पारीक, कमला कोचर, ओमप्रकाश सारस्वत, प्रीति पारीक, शुभा पारीक, विश्वासिनी, किशन गोपाल पांडिया, गिरधर गोपाल व्यास, पी आर लील, नवनीत पाण्डे, पृथ्वीराज रतनू, प्रो. अजय जोशी, डॉ. मेधराज शर्मा, अविनाश व्यास, मुकेश व्यास, प्रमोद कुमार चमोली, दीपचंद सांख्ला, नदीम अहमद नदीम, गौरीशंकर प्रजापत आदि उपस्थित थे।

Tuesday, October 23, 2018

जोशी जी री आज आठवीं पुण्यतिथि माथै खास

पैली पीढी रा नायब कहाणीकार : श्रीलाल नथमल जोशी
डॉ. नीरज दइया


    श्रीलाल नथमल जोशी (1922-2010) रा दोय कहाणी-संग्रै प्रकाशित हुया। पैलो- परण्योड़ी-कंवारी (1973) राजस्थान साहित्य अकादमी सूं अर दूजो- मैंदी, कनीर अर गुलाब (1997) अकादमी री इमदाद सूं। जोशी जी राजस्थानी कहाणी री पैली पीढी रा नायब कहाणीकार है अर आप राजस्थानी कहाणी रै पैलै पांवड़ै फगत अर फगत कहाणियां लिखी। दूजै संग्रै री कहाणियां ई पैलै संग्रै रै आसै-पासै लिख्योड़ी लखावै। कहाणी-जातरा माथै विचार करां तो जोशी जी रा पगल्या पूजणजोग है। कहाणीकार अन्नाराम सुदामा, नृसिंह राजपुरोहित, विजयदान देथा, नानूराम संस्कर्ता, यादवेंद्र शर्मा चंद्र, करणीदान बारहठ अर मूलचंद प्राणेस सरीखै कहाणीकारां भेळै आधुनिक कहाणी नैं परवाण चढावण मांय आपरी कहाणियां नै उण बगत मुजब केई केई बातां मांय सिरै मान सकां।
    श्रीलाल नथमल जोशी री कहाणियां री खासियत है कै कम सबदां मांय आपरी बात कैवै। आकार मांय छोटी आं कहाणियां मांय पात्रां रो चरित्र-चित्रण अर नाटकीय संवादां मांय गजब रो नाप-तौल देख सकां। लोककथावां री बुणगट साव आंतरो राखती आं कहाणियां रो सीधै आपरै मरम तांई बिना किणी विषयांतर रै जावणो देखां तो लखावै कै आं कहाणियां री चरचा हुवणी चाइजै ही। इण बात में कोई सक कोनी कै दोनूं संग्रै बिचाळै एक बीसी सूं बेसी आंतरो हुयां रै उपरांत ई कहाणी कला री दीठ सूं दूजै संग्रै- मैंदी, कनीर अर गुलाब री कहाणियां संग्रै- परण्योड़ी-कंवारी सूं घणी आगै री कहाणियां कोनी। दोनूं संग्रै री कहाणियां रो जोड़ 44 है, ऐ कहाणियां आपरै बगत री साख भरै। कहाणियां रै मारफत कहाणीकार रै निजू जीवण रा केई रंग अर चितराम ई सोच मांय देख सकां।
    “नाटक” कहाणी री खासियत आ है कै इण मांय कोई नाटक नीं हुय’र अलसी जिंदगाणी मांय हुवण वाळै नाटक रा रंग राखण रो जसजोग काम कहाणीकार करियो है। सरल, सहज अर नुंवी बुणगट पेटै जूण नै अरथावती आ कहाणी मिनख रै रंग बदळतै मिजाज माथै सांवठो व्यंग्य करै। आजादी पछै रै पूंजीपति समाज रो सेठ मोवनलाल प्रतिनिधि पात्र है, उण रै चरित्र रै मारफत किणी रै दौगलै हुवण रो ऐसास कहाणी करावै। जाहिर है कै चावी कहाणी “किरकांटियो” अठै याद आवै। परण्योड़ी कंवारी, काळजै री कोर अर आगोतर कहाणियां मांय कागद नै कहाणी बुणगट मांय प्रयोग रूप परोटण री बानगी मिलै।
    श्रीलाल नथमल जोशी री कहाणियां मांय बां रो बीकानेर अर राजस्थानी भाषा खातर अपणायत देखी जाय सकै। कहाणी “कमला रो बाप” री ऐ ओळ्यां देखो- “एक दिन हूं कमला नै लियां लियां इटलीवासी, राजस्थानी भासा रै धुंरधर विद्वान स्व. डाक्टर टैसीटोरी री समाधी देखण नै गयो परो। पब्लिक बाग सूं निकळतै ई डावै हाथ खानी बीकानेर में टैसीटोरी री समाधी है। कमला नै म्हैं टैसीटोरी बाबत केई बातां बताई जद बींरी इटली रै विद्वान खातर घणी सरधा हुयगी।” (पेज-61)  दूजो दाखलो कहाणी “बधण री बेळा” सूं- “बीकानेर नगर रै उतराद खानी जस्सूसर रो दरवाजो है। रियासती जमानै में परकोटै रा दरवाजा रात नै दस बजी रै अड़ै-गड़ै ढकीज जावता अर झांझरकै च्यार बजी पाछा खुलता। देस आजाद हुआं पछै दरवाजा अस्टपौर खुला ई रैवै अर विग्यान री बढोतरी रै इण जुग में अबै बांनै ढकण में भी कीं सार कोनी।” (पेज-79) कहाणी मांय परिवेश रो ओ बखाण कहाणीकार री निजू ओळखाण अर बीजी केई बातां नैं खोलै।
    राजस्थानी कहाणी-जातरा मांय बुणगत अर कथानक नै परोटण री दीठ सूं “बधण री बेळा” कहाणी नैं बेजोड़ कैयी जावैला। इण कहाणी मांय पात्र खेजड़ो अर बोरड़ी कम उमर रै प्रेम माथै सखरी टीप करै अर बगतसर सही उमर आयां प्रेम नै पोखण री बात समझावै। कहाणी री सांकेतिक अर सूक्ष्मता देखणजोग है- “खेजड़ै कैयो- घबरावण री जरूरत कोनी। म्हारी बात सुण। अबार आपांरै बधण री बेळा है, अळूझण री नईं। तूं खूब बध, अर हूं ई खूब बधूं। जित्ता आपं ऊंचा चढ सकां बित्ता चढो। फेर तूं म्हारै खानी लुळ हूं थारै खानी लुळूं। आपां रा अंग आपस मएं रमर एकजीव बण जासी। फेर आपां किणी रै अटकां कोनी, खटकां कोनी। आपांरो मेळ जद मारग बैवतां नै छैयां देसी, तो पछै आपां नै कोई क्यूं अळगा करसी, क्यूं न्यारा करसी?” (पेज-84)
    जूनी पीढी रै कहाणीकारां मांय जोशी जी री कहाणियां मांय विषयगत नवीनता अर आगाऊ सोच कीं बेसी लाधै। “मैंदी कनीर अर गुलाब” अर “मोलायोड़ी लाडी” जिसी कहाणियां घणी-लुगाई रै संबंधां नै अरथावै। कहाणी मांय ओ नुंवो प्रयोग बुणगट री दीठ सूं कैयो जावैला कै प्रेम अर नर-नारी रै आदू रिस्ता नै न्यारी दीठ सूं ऐ कहाणियां समझावै। प्रेम रो सरूप घणो झींणो हुवै अर उण मांय जरा-सी’क बात सूं ठबक लाग जावै। मैंदी, कनीर अर गुलाब रै मारफत प्रेम रै त्रिकोणीय भेद नै खोलती कहाणी मांय जाणै प्रकृति पाठ पढ़ाय रैयी है। मोलायड़ी लाड़ी साव नाटकीय कहाणी है अर बेमेळ ब्यांव भेळै जनसंख्या री बात ई लेय’र चालै पण इण मांय सगळा सूं बेसी अचरज आळी बात कै जोशी जी री कमल सूं उण बगत एक लुगाई आपरै आदमी सांम्ही बोल रैयी है- “हूं थां में तीन लाख नूवे हजार नईं , तो खाली नूवे हजार रुपिया मांगूं। इण च्यार टाबरां मांय सूं थे खाली तीन रा ई बाप हो। दस हजार काटर चौथे टाबर रा नूवे हजार म्हारै हवालै करो।” (पेज32) किणी परणी रो च्यार टाबरा मांय एक टाबर खातर इण ढाळै री बात कहाणी मांय पैली बार आवै। इण बात री परख कियां हुवै? पण इण सूं अलगाव उपजै अर दस बरसां पछै ओ सळ निकळै कै घणी नै खुद सूं दूर राखण खातर आ कूड़ी ओळी कैयी ही।
    जोशी जी री आं कहाणियां री बोल्डनेस है कै “पोतै नै सांभो” जिसी कहाणी मांय भ्रूण-हत्या री खिलाफत करता कंवारी कन्या बेटै नै जलम देवै। भरी सभा मांय नाजायज टाबर माथै चरचा करी जावै। कहाणी संकेत करै कै किणी पण बात माथै मौकैसर बोलणो उण रै पख-विपख मांय बोलणो सरल नीं हुवै। मिनख री फितरत है कै रूप-रंग रै चक्कर मांय बो कांई रो कांई कर जावै। कहाणी “फिकर ना करो” रै मारफत मिनख री आदम भूख नै बखाणै। सेक्स साइकॉलोजी माथै पीएच.डी. कर रैयी डॉ. उर्मिला सूं कथानयक रात री एक रेल-जातरा मांय मिलै। पूरै सफर मांय नायक रो झूठ माथै झूठ बोलणो मिनख रै मन मांय बस्योड़ो लुगाई रै रूप रो लगाव है। कहाणी कैवै कै मिनख किण हद तांई लुगाई खातर आपरी आत्मा नै मार सकै पण खुद आ सहन नीं कर सकै कै उण री लुगाई किणी दूजै आदमी सूं मेळ-मुळाकात राखै या कदैई राखती ही। इणी विषय नै कहाणी- “आपरो सरूप” मांय कहाणीकार नुंवी उकरास सूं चवड़ै करै। कहाणी रो ओ अंश विचारणजोग है- “सिंझ्या पड़ी जद कमरै में गोपाल बाबू एकला हा, तो काच नै उठाय’र देखण लाग्या। एकाएक विचार में पड़ग्या। ब्याव पछै आं दस बरसां में बारै-तेरै छोरियां-लुगायां गोपाळ बाबू रै जीवण में आई अर बां मांय सूं च्यार-पांच नै बां कागद लिख’र दिया जिण में ऊमर भर बंधण रो बैण करियोड़ो हो। आंरै सागै जिकी-जिकी लीलावां करी ही, बै सगळी मुद्रावां गोपाल बाबू नैं एक-एक करनै दीसण लागगी। आज पैली जिकी लीला माथै बां कदेई गौर नईं करियो, बा अबै एक गंभीर चीज लागण लागगी। मन में तोल-जोख करण लागग्या- “म्हारो कसूर बड़ो’क प्रेमा रो?” काच में जाणै बांनै दोनूं चैरा अबै दीसण लागग्या- एक आप रो- काळो, तवै जिसो ; दूजो प्रेमा रो जिको साव निरमळ, गोरो निछोर, बाळपणै रो कागद जाणै एक काळो तिल बणनै उणरै मुखमंडळ री सोभा में बिरधी करतो हो।” (आपरो सरूप : पेज-39)      
    लोक-रंग अर सामाजिक काण-कायदा ई आं कहाणियां मांय खूब मिलै। बुणगट री दीठ सूं जीवण सूं जुड़्या घटना-प्रसगां रै मारफत कहाणी लिखणो कोई जोशी जी सूं सीखै। “भाड़ेती” कहाणी रै मारफत कहाणीकार अरथावै कै विपदा मांय आदमी कांई कांई नीं कर जावै। जात-पात रै बंधनां नै तोड़ती कहाणी- “प्रेम री मनवार” है तो गरीब नै सतावण री कहाणी “काल ले जाए” है। “कुंवारो चौधरी” मांय ठगां सूं बचाव री बात है तो “छतर –छैंया” अर “घरणी अर भरणी” धन सूं जुड़ी कहाणियां है। जोशी जी री कहाणियां रै नांवां नै लेय’र कैयो जाय सकै कै केई कहाणियां रा नांव साव जूनै ढाळै रा है।
    राजस्थानी भाषा अपणायत रा केई दाखल जोशी जी कहाणियां मांय देख सकां। जियां- “देख रामा, तूं जद जावै तो हरनाथ नै एक बात और अखराये, म्हारै नांव सूं, कै पैली तो तूं कागद राजस्थानी में लिख्या करतो अर अबै तूं कदेई हिंदी अर कदेई अंगरेजी में लिखै। गांव नै भूलग्यो, बाप नै भूलग्यो, पण तूं थारी मातभासा नै ई भूलग्यो। रामा तूं साफ कैय देईजै कै मनै कागद लिखै तो राजस्थानी में लिखै, नईं तो हूं बिना कागद ई सार लेसूं ; तू थारै है जठै राजी-खुसी रै।” (मंगळ बेळा में आंसू : पेज-103)
    “म्हारै हाथ में राजस्थानी भासा रो काणी-संग्रै। काण्यां तो हूं भी लिख्या करूं, पण इण लिखार री सूझबूझम कळपना, भासा माथै इधकार कहावतां-मुहावरां रो प्रयोग तथा दुनिया रो अनुभव देखर तो इयां लागण लाग्यो कै मनै म्हारी काण्यां छपण खातर भेजणी ई नईं चाईजै। एक-एक वाक्य नई, एक-एक सबद इण तरै जचायोड़ो कै थोड़ी-सीक छेड़छाड़ सूं सगळो ढांचो ई खिखर-बिखर हुजावै।” (कथणी अर करणी : पेज- 125)
    इण दूजै दाखलै मांय भाषा-प्रेम भेळै कहाणी पेटै आत्म-मंथन अर असूलां री बातां कहाणीकार कैयी है। आं बातां नै जोशी जी आपरै सांम्ही राख’र कहाणियां लिखी। अध्यात्म, दर्शन, चिंतन आद केई बातां सूं सजी आं कहाणियां रो लोक जोशी जी री खुद री दुनिया सूं जुड़्योड़ो है। लेखकीय दुनिया कीं दरसाव देखणा हुवै तो कहाणियां- “छेकड़ली बात”, “अमर मिनख” अर “कचरो, कादो, कमल” देखी जाय सकै।    
    तुर्गनेव, चेखव आद लिखारां नै कहाणी मांय याद करण रै मिस श्रीलाल नथमल जोशी राजस्थानी कहाणी नै घणी ऊंची जागा देखण रो सपनो देख रैया हा। “साधना नैं तो साधना री मां जाई है। इण साधना रा परताप है कै जे म्हारै इण उपन्यास “अमर मिनख” नै जूनै कागद माथै बोदी रोसनाई सूं रूसी भासा में मांडर तुर्गनेव री अलमारी में राख देवै तो लोग तुर्गनेव री सगळी रचनावां नै भूल जावै, अर “अमर मिनख” उणरी सरब-श्रेष्ठ कृति गिणीजण लाग जावै, अर दस लाख कापी इण री हाथोहाथ बिक जावै। अर जे तुर्गनेव कायम हुवै, अर इण उपन्यास नै रूसी में छप्योड़ो देख लेवै, तो बो सगळा काम धंधा छोड़नै उपन्यास-कळा सीखण खातर पक्कायत म्हारै कनै आवै। विदेसी लोग कला रा पारखी हुवै।“ (अमर मिनख : पेज - 136) आ बात भलाई व्यंग्य मांय कैयी गई हुवै पण इण नैं म्हैं सपनो मानूं। ओ सपनो आपरै बगत मांय जोशी जी री आंख मांय पळतो हो।


Monday, October 22, 2018

डॉ. नीरज दइया की प्रकाशित पुस्तकें :

हिंदी में-

कविता संग्रह : उचटी हुई नींद (2013), रक्त में घुली हुई भाषा (चयन और भाषांतरण- डॉ. मदन गोपाल लढ़ा) 2020
साक्षात्कर : सृजन-संवाद (2020)
व्यंग्य संग्रह : पंच काका के जेबी बच्चे (2017), टांय-टांय फिस्स (2017)
आलोचना पुस्तकें : बुलाकी शर्मा के सृजन-सरोकार (2017), मधु आचार्य ‘आशावादी’ के सृजन-सरोकार (2017), कागद की कविताई (2018), राजस्थानी साहित्य का समकाल (2020)
संपादित पुस्तकें : आधुनिक लघुकथाएं, राजस्थानी कहानी का वर्तमान, 101 राजस्थानी कहानियां, नन्द जी से हथाई (साक्षात्कार)
अनूदित पुस्तकें : मोहन आलोक का कविता संग्रह ग-गीत और मधु आचार्य ‘आशावादी’ का उपन्यास, रेत में नहाया है मन (राजस्थानी के 51 कवियों की चयनित कविताओं का अनुवाद)
शोध-ग्रंथ : निर्मल वर्मा के कथा साहित्य में आधुनिकता बोध
अंग्रेजी में : Language Fused In Blood (Dr. Neeraj Daiya) Translated by Rajni Chhabra 2018

राजस्थानी में-

कविता संग्रह : साख (1997), देसूंटो (2000), पाछो कुण आसी (2015)
आलोचना पुस्तकें : आलोचना रै आंगणै(2011) , बिना हासलपाई (2014), आंगळी-सीध (2020)
लघुकथा संग्रह : भोर सूं आथण तांई (1989)
बालकथा संग्रह : जादू रो पेन (2012)
संपादित पुस्तकें : मंडाण (51 युवा कवियों की कविताएं), मोहन आलोक री कहाणियां, कन्हैयालाल भाटी री कहाणियां, देवकिशन राजपुरोहित री टाळवीं कहाणियां
अनूदित पुस्तकें : निर्मल वर्मा और ओम गोस्वामी के कहानी संग्रह ; भोलाभाई पटेल का यात्रा-वृतांत ; अमृता प्रीतम का कविता संग्रह ; नंदकिशोर आचार्य, सुधीर सक्सेना और संजीव कुमार की चयनित कविताओं का संचयन-अनुवाद और ‘सबद नाद’ (भारतीय भाषाओं की कविताओं का संग्रह)

नेगचार 48

नेगचार 48
संपादक - नीरज दइया

स्मृति में यह संचयन "नेगचार"

स्मृति में यह संचयन "नेगचार"
श्री सांवर दइया; 10 अक्टूबर,1948 - 30 जुलाई,1992

डॉ. नीरज दइया (1968)
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आंगळी-सीध

आलोचना रै आंगणै

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