Wednesday, January 08, 2020

राजस्थानी कहानी : कदम दर कदम / डॉ. नीरज दइया

जीवन जब से आरंभ हुआ तब से कहानियों की परंपरा चली आ रही है। जीवन अपने आप में एक कहानी है और इस जीवन में अनेक कहानियां घटित होती हैं। अनेक कहानियों की परिकल्पनाएं हमारे भीतर चलती रहती है। इस परंपरा को लोक-भाषा ने एक आधार दिया। ‘पठनीयता’ कहानी-कला की प्रमुख विशेषता रही है। कहानी के पठनीय होने की शर्त को सभी स्वीकारते हैं। कहानी अपने पहले वाक्य से पाठक-श्रोता को बांध लेती है। उसका पहला परिच्छेद हमें अपने जादू से प्रभावित कर देना चाहिए। यह भाषा और भावों का जादू नहीं तो भला क्या है? हमारी इतनी प्रगति के बाद भी शब्दों और कहानी का यह जादू कायम है और सदा कायम रहेगा। वैसे सभी कलाओं और कला-माध्यमों का ध्येय होता है- रसिकों को जोडऩा और जोड़े रखना। भारत की तमाम भाषाओं में कहानी ने अपने पाठकों को जोड़े रखा है। हर भाषा और समय का अपना-अपना महत्त्व है।
    इक्कीसवीं शताब्दी की आधुनिकता में बीसवीं शताब्दी की आधुनिकता से काफी बदलाव आया है। समयानुसार आधुनिकता परिवर्तित-परिवद्र्धित होती है। कुंदन माली के अनुसार- ‘आधुनिक के काल सापेक्ष अर्थ से यह पता चलता है कि आधुनिकता की गति समय के साथ बढ़ती रहती है। इस दृष्टि से देखें तो क्या यह नहीं कहा जा सकता कि गुजरे समय के आधुनिक के समक्ष आज का आधुनिक अधिक ‘आधुनिक’ है, या फिर जो कल आधुनिक था, वह आज आधुनिक नहीं रहा, क्योंकि हम ऐतिहासिक समय-चक्र पर खड़े होकर प्राचीन-आधुनिक पर विचार करते होंगे।’ (समकालीन राजस्थानी काव्य : संवेदना अर शिल्प, पष्ठ-7)
    आने वाले कल के बारे में भविष्यवक्ता भले सकारात्मक अथवा नकारात्मक बातें करते रहें। लोग उन्हें सच-झूठ मानते रहें। किंतु यह निर्विवादित सत्य है कि भविष्य में जो कुछ घटित होता है, वह हमारे वर्तमान का प्रतिफलन होता है। हमारा वर्तमान भी बीते कल का प्रतिफलन है। हम भूतकाल से सबक सीखते हुए वर्तमान को गढ़ते हैं। अपने वर्तमान से भविष्य को संवारते हैं। भारतीय कहानी का भविष्य हमारी क्षेत्रीय भाषाओं की कहानियों से निर्मित होगा। हरेक भाषा में कहानी की अपनी परंपरा और विकास के आयाम रहे हैं। अपनी समृद्ध-साहित्यिक विरासत और विकास के कारण आधुनिक राजस्थानी कहानियों का भारतीय कहानी में विशेष महत्त्व है। 
    राजस्थानी भाषा और समकालीन साहित्य के बारे में बात करते हुए हमें इतिहास के अनेक पन्ने पलटने होंगे। आचार्य शुक्ल ने आदिकाल को जिन रचनाओं के आधार पर वीरगाथाकाल नाम दिया, वे अधिकांश राजस्थानी की हैं। हम शेष रचनाओं को यदि छोड़ भी दें तो केवल ‘पृथ्वीराज रासो’ के बल पर राजस्थानी भाषा-साहित्य की प्राचीनता, विशालता और समृद्धि के विषय में कोई संशय नहीं रहता है। भक्तिकाल में ‘मीरा पदावली’ और ‘वेलि क्रिसन रूकमणी री’ भी राजस्थानी भाषा-साहित्य के पक्ष में अकाट्य प्रमाण है। इसके अतिरिक्त भी अनेक अप्रकाशित, प्रकाशित रचनाएं इस संदर्भ में उल्लेखित की जा सकती है।
    डिंगळ की श्रेष्ठ रचनाओं में पृथ्वीराज राठौड़ (पीथल) की कृति ‘वेलि क्रिसन रूकमणी री’ की चर्चा ‘मुंहणोत नैणसी की ख्यात’ में मिलती है। पीथल और अकबर के संबंधों को इन पंक्तियों में देखा जा सकता है- ‘पीथल सूं मजलिस गई, तानसेन सूं राग/ रीझ बोल हंस खेलबो, गयो बीरबल साथ।’ डॉ. एल.पी. तैस्सितोरी ने राजस्थानी भाषा-साहित्य के विषय में बहुत कार्य किया। राजस्थानी की प्राचीन पांडुलिपियों से सिद्ध होता है कि यहां का अतीत गौरवशाली रहा है। जैन साहित्य और विभिन्न संप्रदायों के साहित्य का आकलन भी राजस्थानी की समृद्धि के पक्ष में जाता है। राजस्थानी के पास लोक साहित्य के विपुल भंडार में लोककथाओं की समृद्ध परंपरा रही है।
    लोककथाओं में चकोर पक्षियों का प्रसिद्ध संवाद है- ‘कह रे चकवा बात, कटै ज्यूं रात।’, ‘कै घरबीती कैवूं, कै परबीती?’ लोक में यह एक मिथक है- चकवा-चकवी दिन में प्रेमपूर्वक साथ विचरण करते हैं किंतु सूर्यास्त के साथ बिछुड़ जाते हैं और रात भर अलग-अलग रहते हैं। कहने का अभिप्राय यह है कि हमारी कहानियों में ‘घरबीती’ और ‘परबीती’ के जो संदर्भ विकसित होते हैं वे लोककथाओं में वर्षों पहले सूत्र के रूप में विकसित हुए।
    ‘बात में हुंकारो, फौज में नगारो’ अथवा अन्य भांति आरंभ होने वाली लोककथाएं बेहद रसमय होती थीं। श्रुति परंपरा में लोककथाओं का अपना निराला अंदाज रहा है। लोककथाओं के कहे जाने के साथ-साथ ‘हूंकारिये’ का ‘हूं’-‘हां’ कहना, क्या क्रिया-प्रतिक्रिया के सिद्धांत अथवा दुनिया के प्रत्येक कार्य-व्यवहार में प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा का हमारा जन्मजात स्वभाव है। सिद्धांतत: मनुष्य प्रजाति शब्द की सत्ता इसलिए स्वीकारती है कि वह एकांत और मौन से बाहर आने को सदैव लालायित रही है। मौन में भी बिना शब्दों के संवाद और एकांत में भी शब्द की सत्ता का सिलसिला, हमारी इसी आदिम लालसा का परिणाम है। हमारा प्रतिक्रियावादी और संवादी होना मूलत: ‘घरबीती’ और ‘परबीती’ की चर्चा से जुड़ा है।
    प्रकारांतर से हमारी परंपरा में जो ‘कहन’ का भाव है कहानी लिखने-पढऩे से जुड़ता चला गया है। राजस्थानी लोककथाओं में निरंतर उत्सुकता का भाव उनके रस का प्राण है। यह शब्द की सत्ता का लोककथाओं में एक उत्सव है, जिसे प्रतिदिन की दिनचर्या में शामिल रखा गया था। अंधेरे और रात के विरूद्ध यह मनुष्य जाति की सामूहिकता, एकजुटता और सामाजिकता का प्रमाण है। लोककथाओं के विपुल भंडार को सहजेने-संवारने का काम राजस्थानी में राणी लक्ष्मीकुमारी चूड़ावत, विजयदान देथा, नानूराम संस्कर्ता, डॉ. मनोहर शर्मा जैसे अनेक अनेक साहित्य-साधकों ने किया। लोककथाओं के अथाह भंडार से हमारी आधुनिक कहानी ने कितना कुछ ग्रहण किया, यह शोध का विषय है। किंतु लंबे अर्से तक राजस्थानी कहानी में लोककथा की व्याप्ति अनेक रूपों में रही।
    ऐतिहासिक साक्ष्यों के आधार देखें तो राजस्थानी में प्राचीन और मध्यकालीन गद्य की समृद्ध परंपरा रही है। राजस्थान में राजस्थानी भाषा राजकाज की भाषा थी। तब यह राजपूताना कहलाता था और इसकी अनेक रियासतें थीं। देश की एकता और अखंडता के लिए राजभाषा हिंदी के पक्ष में राजस्थानी भाषा ने अपना बलिदान दिया। संविधान की आठवीं अनुसूचि में शामिल होने का उसने बड़ा त्याग किया। जो तत्कालीन परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए समीचीन था, किंतु हमारे पूर्वजों को यह ज्ञात नहीं था कि आजादी के इतने वर्षों बाद भी हमारी भाषा को उसका वाजिब अधिकार नहीं मिलेगा। सूर्यमल्ल मीसण (1815-1868) की रचना ‘वंश भास्कर’ (भाग 1-9) में आधुनिक गद्य का पहला प्रारूप देखा जा सकता है। इस विशालकाय ग्रंथ का प्रकाशन साहित्य अकादेमी ने किया है। रामधारीसिंह ‘दिनकर’ ने उन्हें राष्ट्रीयता की दृष्टि से उन्नीसवीं सदी का बेजोड़ कवि और अपने सारे समकालीन कवियों से आगे माना।
    आधुनिक काल में प्रथम कहानी का श्रेय शिवचंद भरतिया की ‘विश्रांत प्रवासी’ (1904) को दिया गया है। हिंदी कहानी के साथ आरंभ हुई राजस्थानी कहानी लंबे समय तक ठहरी और ठिठकी रही। अन्य भारतीय भाषाओं के समान राजस्थानी में कहानियों का विकास आजादी के बाद हुआ। यह बड़ा दुर्भाग्य है कि लगभग पचास वर्षों तक कहानी के क्षेत्र में उदासीनता रही। प्रवासी लेखकों की कुछ कहानियां हैं किंतु इस कालखंड का कहानी विकास में योगदान बेहद न्यून रहा। आजादी के बाद कहानी लेखन में सक्रियता देखी गई। बीकानेर के मुरलीधर व्यास ‘राजस्थानी’ का संग्रह ‘बरसगांठ’ (1956) और नानूराम संस्कर्ता के ‘ग्योही’ (1957) का प्रकाशित होना इस दिशा में एक सार्थक हस्तक्षेप था। आधुनिक कहानी का वण्र्य-विषय समाज अथवा व्यक्ति का भीतर-बाहर ही है। यथार्थ और कल्पना के सम्मिश्रण से वर्णित घरबीती और परबीती के अनेक साक्ष्य कहानियों में मिलते हैं। डॉ. अर्जुनदेव चारण का मानना है- ‘आधुनिक राजस्थानी कहानी की शुरुआत उत्साह-वर्धक नहीं रही। वर्ष 1935 से 1965 तक का कालखंड कहानी की रेखा को बनाते हुए दिखाई देता है किंतु वह कहानी विधा के प्रति भरोसा उपजाने वाली दृष्टि नहीं दे पाया था।’ (राजस्थानी कहाणी : परंपरा-विकास, पृष्ठ-34)
    वर्ष 1976 में साहित्य अकादेमी से प्रकाशित ‘आज रा कहाणीकार’ में रावत सारस्वत ने संपादक के रूप में लिखा- ‘उन्नसवीं शताब्दी के खत्म होते होते अंग्रेजी और हिंदी के प्रवेश के साथ राजस्थानी साहित्यिक रचनाएं दीन-हीन अवस्था में पहुंचने लगी। पिछले डेढ़ सौ वर्षों की इस हीन दशा ने राजस्थानी के भाषा रूप को समाप्त करने का कार्य किया। यही कारण है कि आज की राजस्थानी कहानी को अन्य विधाओं के साहित्य जैसे अपनी पुरानी धारा से अलग नया रास्ता अपनाना पड़ा।’ इसी स्वर में स्वर मिलते संग्रह के दूसरे संपादक रामेश्वरदयाल श्रीमाली ने संपादकीय टिप्पणी में लिखा- ‘आज हम जिस कहानी की चर्चा करते हैं और आज की कहानी नाम से जिसे विधा के रूप में पहचानते हैं, वह कहानी राजस्थानी में भारत की आजादी के आस-पास प्रत्यक्ष रूप से हिंदी और हिंदी में भी प्रेमचंदीय कहानियों के प्रभाव के इर्द-गिर्द फैली हुई है। इसी समय जनमानस के अनुसार आजादी की लड़ाई के जन-जागरण के साथ-साथ देश की सभी भाषाओं के साहित्य की तरह राजस्थानी भाषा और इसके कहानी साहित्य ने भी एक बार आलस्य त्यागा किंतु फिर बहुत वर्षों तक सोया रहा।’
    यहां शब्द जरूर कुछ कठोर है किंतु राजस्थानी कहानी के बारे में विचार करेंगे तो दो बातें स्पष्ट होती हैं। पहली राजस्थानी की आधुनिक कहानी भी हिंदी और भारतीय भाषाओं के समानांतर गतिशील-विकसित हुई है। दूसरी बात यह कि हम कहने को भले कहानी को लगभग सौ वर्षों की कहें, किंतु असल में आजादी के बाद और खासकर वर्ष 1970-71 के बाद के कहानीकारों ने आधुनिकता की दिशा में कहानी को गतिशील बनाया।
    यादवेन्द्र शर्मा ‘चन्द्र’ के अनुसार- ‘वास्तव में देखा जाए तो राजस्थानी कहानी ने नए तेवर के साथ अपना विकास स्वतंत्रता के पश्चात ही किया। प्रारंभ में उसमें पारंपरिक आदर्शवाद का गहरा सम्मिश्रण था जो लोक-साहित्य से काफी प्रभावित था, लेकिन उन कथाओं में जीवन और मनुष्य की उपस्थिति दर्ज होने लगी। शिल्प-शैली तथा भाषा में कसाव आने लगा था, पर उनमें गहरी पैठ और सूक्ष्मता का अभाव था। अन्य भाषाएं जहां काफी विकास कर चुकी थीं, वहां राजस्थानी का सूर्य उदय होकर चमकने लगा था।’ (राजस्थानी की प्रतिनिधि कहानियां, भूमिका, पृष्ठ-5-6)
    डॉ. अर्जुनदेव चारण का मानना है- ‘आधुनिक राजस्थानी कहानी लोककथा के दवाब से जहां मुक्त होती प्रतीत हुई वह कालखंड 1972-74 का है। विजयदान देथा, सांवर दइया, भंवरलाल ‘भ्रमर’ और रामेश्वर दयाल श्रीमाली की इस काल-खंड की कहानियां इसकी साक्षी हैं। (राजस्थानी कहाणी : परंपरा-विकास, पृष्ठ-35)
    सांवर दइया का मानना है- ‘कहानी को अपने परिवेश और आस-पास की जिंदगी से उठाने की कोशिश 1971-75 के आस-पास जोर मारने लगी थी, यह शुरुआत अचानक नहीं हुई। इस हेतु जो जमीन मुरलीधर व्यास ने अपनी कृति ‘बरसगांठ’ (1956) से हमारे सामने रखी वही आगे चलकर मनोहर शर्मा की ‘करड़ी आंच’ और श्रीलाल नथमल जोशी की ‘पगोथिया’ जैसी कहानियों में भी मिलती है और बैजनाथ पंवार की ‘नैणा खूट्यो नीर’ जैसी कहानियों में भी मिलती है।’ (‘उकरास’ कहानी-संकलन की भूमिका, पृष्ठ-20)
    डॉ. गोरधनसिंह शेखावत ने लिखा है- ‘यहां यह भी देखना है कि राजस्थानी कहानी का इतिहास अधिक लंबा नहीं है, फिर भी बहुत कम समय में कहानी बात-ख्यात और लोककथा से मुक्ति पा कर कहानी के मौलिक स्वरूप में आई है।’ (जागती जोत, फरवरी-मार्च 1994, पृष्ठ-69)
    कहानी के मौलिक स्वरूप में देरी से आने का एक कारण यह भी मान सकते हैं कि आलोचना का विकास देरी से हुआ। कहानी आलोचना के क्षेत्र में समीक्षाएं और आलेख लिखे गए। व्यवस्थित प्रयासों में डॉ. अर्जुनदेव चारण की ‘राजस्थानी कहानी : परंपरा-विकास’ (1998) और डॉ. नीरज दइया की ‘बिना हासलपाई’ (2014) पुस्तकें प्रकाश में आई हैं। राजस्थानी कहानी के बदलते और निरंतर विकसित होते स्वरूप को देखने-परखने का ‘राजस्थानी कहानी का वर्तमान’ (2018) भी एक प्रयास है, जिसमें राजस्थानी कहानी की चुनिंदा दस कहानी-संग्रहों पर दस-दस टिप्पणियों को प्रस्तुत किया गया है।
    दूसरा और बड़ा कारण शासन द्वारा इसे भाषा के रूप में नहीं स्वीकार करना भी है। स्थितियां आज भी कहां बदली है? भाषा विज्ञान के सभी मानकों को पूरा करने वाली राजस्थानी भाषा की मान्यता का प्रस्ताव अब भी विचाराधीन है। यहां यह उल्लेखनीय है कि विश्वविद्यालयों और उच्च कक्षाओं के पाठ्यक्रम में राजस्थानी है। देश-विदेश में इसे मान्यता मिल चुकी है। साहित्य अकादेमी ने भी इसे स्वतंत्र भाषा की मान्यता वर्ष 1974 में विजयदान देथा के संग्रह ‘बातां री फुलवाड़ी, भाग-10’ को सम्मानित कर प्रदान की है। तब से अब तक अनेक राजस्थानी साहित्यकार सम्मानित हो चुके हैं। यदि कहानीकारों की बात करें तो मूलचन्द ‘प्रणेश’ (चश्मदीठ गवाह, 1982), सांवर दइया (एक दुनिया म्हारी, 1985), यादवेन्द्र शर्मा ‘चन्द्र’ (जमारो, 1989), नृसिंह राजपुरोहित (अधूरा सुपना, 1993), करणीदान बारहठ (माटी री महक, 1994), भरत ओळा (जीव री जात, 2002), चेतन स्वामी (किस्तूरी मिरग, 2005), दिनेश पंचाल (पगरवा, 2008), रतन जांगिड़ (माई ऐड़ा पूत जण, 2009), रामपाल सिंह राजपुरोहित (सुन्दर नैण सुधा, 2014) और बुलाकी शर्मा (मरदजात अर दूजी कहाणियां, 2016) कहानीकार के रूप में सम्मानित हो चुके हैं।
    राजस्थानी कहानी के विषय में हम चर्चा करें तब इस सिलसिले में एक महत्त्वपूर्ण तथ्य ध्यान रखना होगा कि इसके उत्थान के लिए सरकारी और गैर-सरकारी संरक्षण बेहद न्यून रहे हैं। इस न्यूनता के उपरांत भी रचनाकार साहित्य-सृजन के प्रति अपना निराला प्रेम बचाए हुए हैं। रचनाकारों का यह निराला प्रेम नहीं तो भला क्या है कि वे अपनी सीमाओं के रहते हुए, स्वयं प्रकाशन का कार्य करते हुए निरंतर इस साहित्यिक अनुष्ठान में आहूतियां दे रहे हैं। हमारा यह यज्ञ अपनी भाषा, साहित्य और संस्कृति को बचाने के लिए वर्षों से चला आ रहा है। एक बड़ी चुनौती मातृ-भाषा राजस्थानी और हमारे संस्कारों के संरक्षण की है। जो कुछ किया जाना संभव है, हमारे लेखक-समुदाय द्वारा किया जा रहा है। निजी स्तर पर साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन किया जा रहा है। अनेक पत्रिकाएं आरंभ हुई और अर्थाभाव में बंद हो गई। कुछ पत्रिका अब भी जूझारू संपादकों की लगन से नियमित प्रकाशित हो रही है। यह यात्रा रुकी नहीं है, इस यात्रा को रुकना नहीं चाहिए। कुछ हिंदी और अन्य भाषाओं की पत्रिकाओं ने राजस्थानी साहित्य पर केंद्रित अंक भी प्रकाशित किए हैं। इस दिशा में जयपुर से पत्रिका ‘कुरजां संदेश’ (मार्च, 2016 ; संपादक- ईशमधु तलवार, अतिथि संपादक- दुष्यंत) ने राजस्थानी कहानी पर केंद्रित अंक ‘रेत में उपजी कहानियां’ निकालकर सराहना कार्य किया है।
    मेरा मानना है कि किसी एक ही पैमाने या प्रविधि से सभी भाषाओं के साहित्य और कार्यों का सही मूल्यांकन नहीं हो सकता। जैसे- कहानी को कालखंडों में बांट कर देखने की एक प्रविधि दशकवार आकलन रही है। राजस्थानी के संदर्भ में एक दूसरा विकल्प मैंने प्रस्तावित किया था, जिसे मेरी राजस्थानी आलोचना पुस्तकों ‘आलोचना रै आंगणै’ (2011) और ‘बिना हासलपाई’ (2014) में विस्तार से विवेचना के साथ प्रस्तुत किया है- ‘यदि वर्ष 1956 से लगातार 15-15 वर्षों के कालखंड करें तो आधुनिक कहानी हमारे समक्ष चार अध्ययों में अपनी प्रतिष्ठा दर्शाती है-
1. वर्ष 1956 से 1970        2. वर्ष 1971 से 1985
3. वर्ष 1986 से 2000        4. वर्ष 2001 से आज तक
    यह विभाजन समग्र कहानी-यात्रा को समझने में मददगार हो सकता है।’
    कहानीकार बुलाकी शर्मा के अनुसार- ‘मेरी दृष्टि में राजस्थानी कहानी का काल-निर्धारण सिर्फ और सिर्फ सांवर दइया के नाम से होना चाहिए, जैसे कि हिंदी में प्रेमचंद के नाम से है। सांवर दइया पूर्व कहानी काल, सांवर दइया कहानी काल और सांवर दइया उत्तर कहानी काल। क्योंकि सांवर दइया के जाने के बाद भी राजस्थानी कहानी उनकी कहानियों से सीख-समझ और दृष्टि लेकर आज तक आगे का रास्ता तय कर रही है।’ (जागती जोत, जून-जुलाई, 2018, पृष्ठ-70)
    सांवर दइया के नाम से काल निर्धारण को तार्किक रूप से सिद्ध करते हुए अपने आलेख में कहानीकार बुलाकी शर्मा ने लिखा है- ‘राजस्थानी के विद्वान साहित्यकार यादवेन्द्र शर्मा ‘चन्द्र’, रामेश्वरदयाल श्रीमाली, डॉ. गोरधनसिंह शेखावत, डॉ. तेजसिंह जोधा और श्याम जांगिड़ ने सांवर दइया के कहानी अवदान की अच्छी समालोचना की है। इन विद्वानों, आलोचकों और कहानीकारों की एक राय है कि लोककथाओं से राजस्थानी कहानी को मुक्त कर उसे नवीन स्वरूप देने वाले सांवर दइया ही हैं। उन्होंने राजस्थानी कहानी को कथ्य, शिल्प, भाषा, भाव-भंगिमा, कहनपन आदि हरेक दृष्टि से नए आयाम दिए, तभी उनके समकालीन कहानीकार रामेश्वरदयाल श्रीमाली ने माना कि सांवर दइया जैसा दूसरा कोई राजस्थानी कहानीकारों में दिखाई नहीं देता।’ (जागती जोत, जून-जुलाई, 2018, पृष्ठ-69)
    कहानीकार श्याम जांगिड़ के इसी संदर्भ में विचार हैं- ‘राजस्थानी कहानी विधा को पूर्णत: लोककथा से मुक्त करने का श्रेय सांवर दइया को ही जाता है। अत: वर्ष 1970 से 1990 का काल राजस्थानी कहानी का ‘सांवर दइया काल’ माना जाता है। सांवर दइया का काल कहानी के हिसाब से ही नहीं, संपूर्ण आधुनिक राजस्थानी साहित्य के लिए भी स्वर्ण-युग कहा जा सकता है।’ (राजस्थानी री आधुनिक कहाणियां, पृष्ठ-14)
    राजस्थानी कहानी के विकास को जानने के लिए बेहतर होगा हम प्रमुख कहानीकारों और कहानियों की चर्चा करें।
    कहानीकार नृसिंह राजपुरोहित (1924-2005) राजस्थानी कहानी के विकास के लिए आजीवन सक्रिय रहे। उनकी लंबी साहित्यिक-यात्रा और राजस्थानी मासिक ‘माणक’ के संपादन का बड़ा महत्त्व है। वर्ष 1951 में ‘पुन्न रो काम’ से आरंभ हुई उनकी कहानी-यात्रा को पांच संग्रहों- ‘रातवासौ’ (1961), ‘अमर चूंनड़ी’ (1969), ‘मऊ चाली माळवै’ (1969), ‘प्रभातियौ तारौ’ (1983) और ‘अधूरा सुपना’ (1992) में देख सकते हैं। नृसिंह राजपुरोहित ग्रंथावली भी राजस्थानी में प्रकाशित हुई है। उन्होंने राजस्थानी को अनेक यादगार कहानियां दी, जैसे- उतर भीखा म्हारी बारी, गिरजड़ा, भारत भाग्य विधाता, रजाई, विदाई, जानकी गाथा, नागपूजा आदि।
    नृसिंह राजपुरोहित और विजयदान देथा समवयस्क थे और पढ़ाई के साथ साहित्य की दुनिया में सक्रिय हुए। विजयदान देथा ‘बिज्जी’ नाम से लोकप्रिय हुए और उन्होंने 1960 में ‘बातां री फुलवाड़ी’ के माध्यम से लोककथाओं के संचयन का कार्य आरंभ किया। आरंभिक दौर में साहित्य की अग्रिम पंक्ति के अनेक रचनाकार सक्रिय हुए, जैसे- नारायणसिंह भाटी, कन्हैयालाल सेठिया, रेंवतदान चारण, श्रीलाल नथमल जोशी, सत्यप्रकाश जोशी, नानूराम संस्कर्ता, यादवेन्द्र शर्मा ‘चंद्र’, अन्नाराम सुदामा आदि। मंचीय कविता के दौर में बहुत कम रचनाकार ऐसे थे जो गद्य और खासकर कहानियां लिखते थे।    
    श्रीलाल नथमल जोशी (1922-2010) जैसे अनेक वरिष्ठ रचनाकार राजस्थानी में हुए हैं जिनके लेखन पर समय रहते आलोचना ने पर्याप्त ध्यान नहीं दिया। जोशी राजस्थानी कहानी में पहली पीढ़ी के नायाब कहानीकार रहे हैं। उनका पहला संग्रह ‘परण्योड़ी-कंवारी’ (1973) आया और संभवत: उसी दौर में लिखी कहानियों का दूसरा संग्रह ‘मैंधी, कनीर अर गुलाब’ (1997) बाद में प्रकाशित हुआ। स्थानीय लोक भाषा को कहानियों में ढालते हुए जोशी जी पहले ऐसे सजग कहानीकार हैं जिन्होंने शैल्पिक प्रयोग किए जिसे लोककथाओं से भिन्न एक नई धारा के रूप में पहचाना जा सकता है। जोशी जी का भारतीय भाषाओं से संपर्क रहा जिसके माध्यम से वे राजस्थानी कहानी को भारतीय कहानी के धरातल पर देखने की परिकल्पना कर सके। उनकी कहानियों में तत्कालीन समय और समाज की अभिव्यक्ति है, साथ ही नए विषय और परिकल्पनाएं हैं। ‘मैंधी, कनीर अर गुलाब’ कहानी प्रेम का त्रिकोणीय भेद स्पष्ट करती हुई जैसे प्रकृति के माध्यम से एक पाठ हमें पढ़ाती है। आधुनिक साहित्य को समृद्ध करने वाले वे प्रमुख गद्यकार के रूप में जाने जाते हैं।
    आधुनिक राजस्थानी गद्य-साहित्य निर्माण में जिन आरंभिक रचनाकारों का विशेष महत्त्व रहा, उनमें एक महत्त्वपूर्ण नाम अन्नाराम सुदामा (1923-2014) का है। राजस्थानी उपन्यास में अपनी विशिष्ट पहचान रखने वाले सुदामा जी के चार कहानी संग्रह- ‘आंधै नैं आंख्यां’ (1971), ‘गळत इलाज’ (1984), ‘माया रो रंग’ (1996) तथा ‘ऐ इक्कीस’ (2010) प्रकाशित हुए हैं। भाषा में हास्य और व्यंग्य के साथ अनेक व्यंजनाएं प्रस्तुत करने वाले सुदामा जी के कथा-संसार में आदर्श, जीवन-मूल्य और संस्कार महत्त्वपूर्ण रहे हैं। कर्मक्षेत्र में शिक्षक रहे सुदामा की कहानियों में जीवन के सकारात्मक पक्षों का प्रमुखता से चित्रण हुआ है। बाल-विवाह, शकुन विचार, जीव-दया, छुआछूत, स्वाभिमान, आत्म-सम्मान, ईमानदारी, अंधभक्ति, पड़ौसी-धर्म, कोल का मोल, दया, संस्कार, संबंध और स्वार्थों आदि की अभिव्यक्ति में वे हमें संस्कारवान बनाते हैं।
    आजादी के बाद किसान और गाय की बात विचारें तो मुंशी प्रेमचंद का स्मरण कर सकते हैं। राजस्थानी कहानी में गांव, किसान, अकाल, सामाजिक रूढिय़ों को ले कर अनेक कहानियां लिखी गई है। अन्नाराम सुदामा की कहानियां इन में पृथक इसलिए है कि उनके यहां सारी तकलीफों के बाद भी मनुष्य को उच्च आदर्शों पर अडिग बने रहने की प्रेरणा मिलती है। कहानी ‘सूझती दीठ’ में दूध अथवा ‘अखंड जोत’ में घी की मांग और विक्रय की बात है। वर्तमान समय अर्थ का हो चला है फिर भी समाज में अनेक ऐसे चरित्र हैं जिनकी आस्था अब भी मूल्यों के प्रति अडिग है। दूध और घी जैसे पदार्थों के विक्रय में निजी लाभ के स्थान पर मानवता का महान विचार रखने वाले विचारवान पत्र हमें प्रेरणा देते हैं। दूध-घी इंसानों के लिए है इन्हें व्यर्थ बरबाद करने से भला क्या फायदा!
    कथाकार करणीदान बारहठ (1925-2002) को वर्ष 1994 में साहित्य अकादेमी पुरस्कार उनके दूसरे कहानी संग्रह ‘माटी री महक’ (1992) के लिए अर्पित किया गया। इस संग्रह से पूर्व कहानीकार के रूप में वे ‘आदमी रो सींग’ (1974) से अपनी पहचान बना चुके थे। आजादी के बाद सामंती प्रथा की जड़ें हिलने लगी और साहूकारी व्यवस्था के सुख-दुख बारहठ की कहानियों के विषय बने। राजाओं की सत्ता के बाद ठाकुरों के जीवन के भेदों को उजागर करने वाली कहानियां ‘ठिकाणो’ हो अथवा ‘चिमनी रो चानणो’ उल्लेखनीय है। यहां मूंछों पर चावल दिखाने की जिद जिंदा है।
    सांवर दइया पूर्व कहानी काल के कहानीकारों ने कहानी को विधा के रूप में खड़ा करने का काम किया। सांवर दइया कहानी काल में कहानी समष्टि से व्यष्टि और स्थूल से सूक्ष्मता की दिशा में आगे बढ़ती लोककथा और कहानी के द्वंद्व से भी मुक्त हुई। परंपरा से विकसित होती कहानी में अनेक घटकों का समावेश होता चला गया। सूक्ष्म से सूक्ष्म अभिव्यक्ति का माध्यम कहानी बनी।
    सांवर दइया (1948-1992) के जीवन काल में उनके चार कहानी-संग्रह ‘असवाड़ै-पसवाड़ै’ (1975), ‘धरती कद तांई घूमैली’ (1980), ‘एक दुनिया म्हारी’ (1984) और ‘एक ही जिल्द में’ (1987) प्रकाशित हुए। उनके देहावसान पश्चात ‘पोथी जिसी पोथी’ (1996) और ‘छोटा-छोटा सुख-दुख’ (2018) संग्रह सामने आए।  पुरस्कृत कहानी-संग्रह हिंदी में ‘एक दुनिया मेरी भी’ (2000) साहित्य अकादेमी से प्रकाशित हुआ है। इसमें बदले समय और समाज में अध्यापकों के जीवन से जुड़ी कहानियां हैं। वे अध्यापकों के जीवन के माध्यम से राष्ट्र-निर्माताओं के बाह्य-आंतरिक दुख-दर्द को अभिव्यक्त करते हैं।  उनके द्वारा संपादित कहानी-संग्रह ‘उकरास’ (1991) चर्चित रहा।
    कवि डॉ. तेजसिंह जोधा के अनुसार- ‘सांवरजी और मैं 1972-73 के बीच आपसी खतोकिताबत। ‘हरावळ’ में छप रही उनकी कहानियां मुझे छू रही थी। महज इसलिए नहीं कि वे राजस्थानी के लिए नई थीं बल्कि उन दिनों वे राजस्थानी में होकर हिंदी के लिए भी नई थी।’
आलोचक डॉ. गोरधनसिंह शेखावत का मानना है- ‘राजस्थानी कहानी साहित्य में सांवर दइया का योगदान अविस्मरणीय है। वे प्रतिष्ठित कथाकार थे। राजस्थानी में नयी कहानियों की शुरुआत उन्हीं की कहानियों से हुई।’
    श्वेत-श्याम टेलीविजन के दौर में भारतीय कहानियों की शृंखला में राजस्थानी कहानी ‘जसोदा’ के टेलीकास्ट होने पर रामेश्वर दयाल श्रीमाली (1938-2010) चर्चा में आए। आपके दो संग्रह ‘सळवटां’ (1980) और ‘जाळ’ (2005) प्रकाशित हुए। समाज की मुख्य धारा से जुदा निम्न वर्ग के पात्रों की व्यथा-कथा प्रमुखता से इन कहानियों में उजागर होती है।
    सांवर दइया कहानी काल में आरंभ से बेहद सक्रिय और प्रमुख रहे भंवर लाल ‘भ्रमर’ के तीन कहानी संग्रह- ‘तगादो’ (1972), ‘अमूजो कद तांई’ (1976) और ‘सातूं सुख’ (1995) प्रकाशित हुए हैं। कथाकार यादवेन्द्र शर्मा ‘चंद्र’ के अनुसार ‘तगादो’ से राजस्थानी कहानी नव-युगबोध की दिशा में बढ़ती है। भ्रमर की कहानी कला पर माकूल आलोचना के अभाव में पर्याप्त ध्यान नहीं दिया जा सका। स्त्री जीवन को अपनी गरिमा के साथ व्यंजित करती भ्रमर की कहानियों में ‘अप-डाउन’, ‘सातूं सुख’, ‘बातां’, ‘अमूजो कद तांई’ आदि प्रतिनिधि कहानियां है। वर्ष 1991 में सांवर दइया के संपादित संग्रह ‘उकरास’ में संकलित कहानी ‘बातां’ से फिर से चर्चा में आए। ‘भ्रमर’ ने ‘मनवार’ और ‘मरवण’ जैसी कथा साहित्य को समर्पित पत्रिकाओं का प्रकाशन-संपादन कर राजस्थानी कहानी को आगे बढ़ाने में महत्ती भूमिका निभाई।
    मूल रूप से लंबे समय से राजस्थानी में लिखने और राजस्थानी को जीने वाले कहानीकारों में एक प्रमुख नाम मनोहर सिंह राठौड़ का लिया जा सकता है। आपके तीन कहानी संग्रह ‘रोसणी रा जीव’ (1983), ‘खिड़की’ (1989) और ‘गढ़ रो दरवाजो’ (1997) प्रकाशित हुए हैं। आपकी कहानियों में राजस्थान के गांवों के सांस्कृतिक जीवन का अंकन हुआ है। ग्रामीण समस्याओं के चित्रण से कहानीकार बिना वाचल हुए सब कुछ ऐसे कह देता है कि पढऩे वाला निराकरण की दिशा में स्वयं गतिशील होता है। राजस्थान की नारी के त्याग-तप और सहिष्णुता के कुछ दुर्लभ चित्र भी कहानियों में संचित हुए हैं। ‘सांढ’ कहानी में ग्रामीण राजनीति तो ‘गढ़ रो दरवाजा’ में वृद्धावस्था के गहरे रंग हैं। उनकी कहानियों में बदलते जीवन मूल्यों, रीति-रिवाज के साथ संस्कारों की चिंता प्रमुखता से प्रस्तुत की गई है।
    राजस्थानी कहानी और साहित्य-इतिहास लेखन के क्षेत्र में 1986 से लगभग बीस वर्षों तक जुड़े कहानीकार बी. एल. माली ‘अशांत’ ने बहुत काम किया है। उनके ‘किली-किली कटको’ (1978), ‘राई-राई रेत’ (1986) कहानी संग्रहों में समस्याओं को देखने-परखने के अलग नजरिये से उनकी कहानियां उल्लेखनीय है।
    यादवेन्द्र शर्मा ‘चन्द्र’ (1932-2009) ने हिंदी में विपुल मात्रा में लेखन किया और वे प्रख्यात कथाकार के रूप में पहचाने जाते हैं, उनके दो कहानी-संग्रह ‘जमारो’ (1987) और ‘समंद अर थार’ (2003) राजस्थानी में प्रकाशित हुए हैं। नारी पात्रों को जितनी विविधता और मुखरता के साथ चन्द्र जी ने प्रस्तुत किया है उतना किसी अन्य कहानीकर ने नहीं किया है। साहित्य अकादेमी से पुरस्कृत संग्रह ‘जमारो’ हिंदी में भी उपलब्ध है।
    राजस्थानी साहित्य में एक समस्या यह है कि किसी रचनाकार का किसी विधा विशेष में अगर संकलन प्रकाशित नहीं हुआ तो उसे धीरे-धीरे भुला दिया जाता है। किसी रचनाकार के आकलन के लिए बिना कृति के रचनाओं को ढूंढऩे-परखने का कार्य बेहद श्रमसाध्य होता है। राजस्थानी कहानी के क्षेत्र में कार्य करते करते हुए मैंने पाया कि कुछ रचनाकार जैसे मोहन आलोक, कन्हैयालाल भाटी, मुरलीधर शर्मा ‘विमल’, रामकुमार ओझा आदि ऐसे हैं, जिन्होंने अनेक उम्दा कहानियां लिखी पर उन्हें कहानीकार रूप पर ध्यान नहीं दिया गया।
    जब ‘मोहन आलोक री कहाणियां’ (2010) मेरे संपादन में प्रकाशित हुआ, तब उन्हें प्रमुख कहानीकार के रूप में आलोचना द्वारा पहचाना जाने लगा। मोहन आलोक की कहानी ‘कुंभीपाक’ में हरिजन और सवर्ण के आरक्षण मुद्दे को बारीकी से उठाया गया है। फंतासी के रूप में कहानी में शूद्र और सवर्ण दोनों ही अपनी-अपनी देह में जाने से मना करते हैं। आजादी के बाद देश में उपजी सामाजिक विद्रूपता को इस कहानी में तल्खी से उजागर किया है। बाजारवाद और भूमंडलीकरण की चर्चा साहित्य में बहुत बाद में आई उससे बहुत पहले ‘बाप’ (पिता) कहानी में मोहन आलोक ने इसका संकेत किया था। मोहन आलोक आठवें दशक में सक्रिय कहानीकार रहे हैं। उनकी ‘बुद्धिजीवी’ (1974), ‘अलसेसन’ (1974), ‘रामू काको ’ (1975), ‘एक नुंवी लोककथा’ (1973), ‘उडीक’ (1973) और कुंभीपाक (1973) कहानियां उस समय की प्रतिष्ठित पत्रिकाएं- हरावळ, मरुवाणी, हेलो और जागती जोत में प्रकाशित हुई किंतु उस समय आलोचना द्वारा संज्ञान में नहीं लिया जा सका। मोहन आलोक सांवर दइया कहानी काल के कहानीकार हैं किंतु कवि के रूप में प्रतिष्ठित मोहन आलोक को कहानीकार के रूप में प्रतिष्ठा उनके इस कहानी संग्रह के प्रकाशन के बाद मिली।
    एक ऐसा ही नाम मुरलीधर शर्मा ‘विमल’ (1936-2013) का भी है। उनकी कहानियां ‘संभाळ’ (1975, सं. विजयदान देथा), ‘चेतै रा चितराम’ (1977, सं. नारायणसिंह भाटी) और ‘लखाण’ (1978, सं. रावत सारस्वत) जैसे संग्रहों और पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी थी। कहानी संग्रह ‘काया कळपै : मुंडो मुळकै’ (1999) बाद में प्रकाशित हुआ। उन्होंने अपनी नवीन भाषा-शैली और शिल्प की दृष्टि से राजस्थानी कहानी को मजबूत किया।
    यही बात कहानीकार कन्हैयालाल भाटी (1942-2012) के बारे में कही जा सकती है। उन्हें केवल अनुवादक के रूप में जाना जाता था। उन्होंने भी सांवर दइया कहानी काल-खंड के दौरान कहानियां लिखी, किंतु कोई संग्रह प्रकाश में नहीं आया। ‘कन्हैयालाल भाटी री कहाणियां’ (2011) का प्रकाशन हुआ तो उनके अनुवादक के साथ-साथ कहानीकार रूप को स्वीकृति मिली। ऐसे अनेक कहानीकार इस विकास यात्रा में छूट गए हैं, जिनके संग्रह समय पर प्रकाशित होने थे और उन्हें निरंतर कहानी विधा में गतिशील रहना था।
छगनलाल व्यास के चार कहानी संग्रह ‘गुनैगार’ (1988), ‘तरेड़’ (2000), ‘मिनखपणौ’ (2005) तथा ‘पगफेरो’ (2015) प्रकाशित हुए हैं। छगनलाल व्यास और भीखालाल व्यास राजस्थानी कहानी में नारी चरित्रों के सुख-दुख को प्रस्तुत करते हुए घर-परिवार और राजस्थानी समाज को साकार करते हैं। अनेक कहानीकारों के कहानी-संग्रह प्रकाशित होने के बाद भी कम चर्चा हुई है जैसे विनोद सोमानी ‘हंस’ के संग्रह ‘चुप्पी’ (1999) आदि के साथ ऐसा हुआ है। इसी भांति देवकिशन राजपुरोहित के पांच कहाणी-संग्रह ‘वरजूड़ी रो तप’ (1970), ‘दांत कथावां’ (1971), ‘मौसर बंद’ (1989), ‘बटीड़’ (2003) ‘म्हारी कहाणियां’ (2007) प्रकाशित हैं, पर चर्चा कम हुई है।
    यह भी हुआ है कि अनेक कहानीकारों ने स्वयं को कहानी लेखन में लगातार सक्रिय नहीं रखा। माधव नागदा का भी एक कहानी संग्रह ‘उजास’ (1999) राजस्थानी में प्रकाशित हुआ है। उनकी कहानियों में राजस्थान का जन-जीवन और पर्यावरण के साथ उसका आत्मिक जुड़ाव दिखाई देता है। उनकी कहानी ‘नीलकंठी’ स्त्री चरित्र की सहनशीलता का बेजोड़ नमूना है।
    सांवर दइया कहानी काल के कुछ कहानीकार ऐसे हैं जिनके कहानी संग्रह देरी से प्रकाशित हुए। जैसे- मीठेस निरमोही का संग्रह ‘अमावस, अेकम अर चांद’ (2002)। उन्होंने आकार में छोटी और औसत कहानियों के दौर में लंबी-लंबी कहानियां लिखी। ‘अमूझता आखर’ और ‘हवा भांग भिळी’ दोनों कहानियां अधिकार की लड़ाई में गांधीवादी विचारधार का पोषण करती है। ‘गवाही’ और ‘बंधण’ कहानियां मोहभंग और बदलते समय में सांस्कृतिक मूल्यों को प्रस्तुत करती है।
    रामपालसिंह राजपुरोहित (1935-2017) के चार कहानी संग्रह- ‘बिखरता चितराम’ (2001), ‘परण्या री पेढी’ (2006) ‘सुंदर नैण सुधा’ (2012) तथा ‘बिना छाजा वाळौ घर’ (2014) प्रकाशित हुए हैं। वर्ष 2014 के लिए साहित्य अकादेमी से पुरस्कृत राजपुरोहित अपनी कहानियों में नई और पुरानी पीढ़ी के गणित को समझने-समझाने का प्रयास करते हैं। उनकी कहानियां राजस्थानी समाज का सुघड़ भाषा में अपने मुहावरे के साथ ऐसी अभिव्यक्त हुई है कि उसका अनुवाद हिंदी अथवा भारतीय भाषाओं में करना एक बड़ी चुनौती है। उनके पात्र अपनी जमीन और जड़ों से जुड़े पूरी ऊर्जा और संघर्ष में नए मूल्यों की स्थापना के लिए प्रेरक हैं।
    राजस्थानी कहानी में एक समय था जब डूंगरगढ़ (बीकानेर) के कहानीकारों चेतन स्वामी, मालचंद तिवाड़ी, मदन सैनी आदि ने धूम मचाई और काफी बाद में एक ऐसा दौर आया जिसमें परलीका (हनुमानगढ़) ने धूम मचाई।
    चेतन स्वामी के तीन कहानी संग्रह ‘आंगणै बिचाळै भींतां’ (1987), ‘किस्तूरी मिरग’ (2003) और ‘उलटो उगमाराम’ (2017) प्रकाशित हुए हैं। राजस्थानी जनजीवन और अपने परिवेश का सजीव चित्रण इन कहानियों में मिलता है। सामाजिक चेतना और प्रगतिशील तेवर से सजी इनकी भाषा, शिल्प और कथ्य की प्रस्तुति मर्मस्पर्शी है। स्वामी ने गौर जरूरी वर्णनों से कहानी को बचाते हुए मनुष्य जाति के आंतरिक द्वंद्व और अंतर्विरोधों को गंभीरता से उजागर किया है।
    मालचंद तिवाड़ी के ‘धड़ंद’ (1986), ‘सेलीब्रेशन’ (1998) दो संग्रह राजस्थानी में प्रकाशित है। इन कहानियों में जीवन युद्ध में हारने वाले पात्रों की मनोदशा का सजीव चित्रण और उनका संघर्ष उजागर हुआ है। जटिल संवेदनाओं की अभिव्यक्ति में संबंधों में व्याप्त होता ठंडापन यथार्थवादी दृष्टिकोण के साथ कहानियों में प्रस्तुत हुआ है। वे पात्रों के आडंबर-आवरण को हटाते हुए जीवन में आए परिवर्तन को अनुभव के स्तर पर वर्णित करते हैं।
    मदन सैनी के कहानी संग्रह ‘फुरसत’ (1997) और ‘भोळी बातां’ (2003) में राजस्थानी लोक जीवन और संवेदनाओं को ‘दया’, ‘दीठ’ और ‘फुरसत’ जैसी अनेक कहानियों से अभिव्यक्ति मिली है। वे कहानी में बहुत छोटे कालखंड की मर्मस्पर्शी घटनाओं के माध्यम से अपने पात्रों को सजीव करते हैं कि उनके भोले और मासूम पात्र हमारे अंतस में घर कर लेते हैं।
    व्यंग्यकार-कहानीकार बुलाकी शर्मा की चर्चा करते हैं। शर्मा के दो राजस्थानी कहानी संग्रह ‘हिलोरो’ (1994) और ‘मरदजात अर दूजी कहाणियां’ (2013) प्रकाशित हुए। हिंदी में भी समानांतर एक महत्त्वपूर्ण लेखक के रूप में पहचाने जाने वाले शर्मा ‘हिलोरो’ और ‘लसणियो’ जैसी कहानियों से चर्चा में आए। उनके यहां कोमल भावनों को बचाने का संघर्ष भी देखा जा सकता है। ‘मरदजात अर दूजी कहाणियां’ पर उन्हें साहित्य अकादेमी पुरस्कार अर्पित किया गया। राजस्थानी में वे वर्ष 1978 से रचनाकर्म में रत हैं।
कहानीकार नंद भारद्वाज के संग्रह ‘बदळती सरगम’ (2009) में कहानी के अनेक पात्रों द्वारा विभिन्न रूपों में घरबीती का वर्णन मिलता है। कुछ कहानियों में  मरु-अंचल के अनेक चित्र, जीवन और घटना-प्रसंग इतनी प्रामाणिकता से व्यंजित हुए हैं कि वे आत्मकथा के अंश जैसे प्रतीत होते हैं। परिवेश के साथ-साथ सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन के वे चितेरे हैं। भारद्वाज की कहानियों में पारिवारिक संबंधों और रिश्तों को शानदार ढंग से पिरोया गया है।
    दिनेश पांचाल ने अपने संग्रह ‘शांति नो सूरज’ (1993) और ‘पगरवा’ (2005) के माध्यम से वागड़ अंचल का जन-जीवन और लोक संस्कृति को कहानियों में साकार किया है तो विजय जोशी  के ‘मंदर मं एक दन’ (1999) और ‘आसार’ (2004) इस यात्रा को आगे बढ़ाने वाले हैं।
    नाटककार अशोक जोशी ‘क्रांत’ (1988-13) अपने संग्रह ‘आड़ंग’ (2003) और ‘पावसी’ (2009) के माध्यम से कहानीकार के रूप में भी पहचाने जाते हैं। उनकी कहानी ‘जोड़-बाकी’ में भष्ट व्यवस्था, रिश्वत और हरामखोरी को संवाद शैली में प्रस्तुत किया गया है। उन्होंने जीवन की नाटकीय स्थितियों को उजागर करते हुए राजस्थानी कहानी में नए प्रयोग किए हैं।
    प्रमोद कुमार शर्मा ने अपने कहानी संग्रह ‘सावळ / कावळ’ (1995) और ‘राम जाणै’ में अनेक प्रयोग किए हैं। वे अपने आस-पास के जीवन की स्थूल स्थितियों से कहानी उठाते हुए उसे सूक्ष्म सवालों और बारीक विश्लेषण की हद तक ले जाते हैं। उन्होंने लोकभाषा प्रयोग से कहानियों में जीवंत भाषा से मनुष्य के भीतरी संघर्ष और जूझ को स्वर दिए हैं।
    सांवर दइया उत्तर कहानी काल के प्रमुख कहानीकार रामस्वरूप किसान अपनी कहानी ‘दलाल’ से चर्चा में आए। किसान के तीन संग्रह- ‘हाडाखोड़ी’ (2000), ‘तीखी धार’ (2009), ‘बारीक बात’ (2015) प्रकाशित हुए हैं। वे परलीका गांव के हैं और जैसा कि कहा गया है परलीका को कहानी ग्राम कहा गया है क्योंकि सांवर दइया उत्तर कहानी काल की कहानियों में वहां के कहानीकारों का महत्त्व है। पत्रकारिता के इतिहास में ‘कथेसर’ (संपादक- रामस्वरूप किसान) के माध्यम से कहानी विकास को गति मिली है। वहां से सत्यनारायण सोनी, भरत ओळा, रामस्वरूप किसान,  मेहरचंद धामू, रामेश्वर गोदारा ‘ग्रामीण’, विनोद स्वामी और संदीप धामू जैसे नाम जुड़े हैं।
    सत्यनारायण सोनी का पहला संग्रह ‘घमसाण’ वर्ष 1995 में प्रकाशित हुआ। ‘धान कथावां’ (2010) संग्रह में उनकी अनेक चर्चित कहानियां शामिल हैं। अपनी भाषा, शिल्प और संवेदना के बल पर जीवंत चरित्रों को रचते हुए वे जीवन की कठोर वास्तविकताओं से हमारा साक्षात्कार कराते हैं। दौड़भाग की जिंदगी में क्षीण होती संवेदनाओं की चिंता प्रमुखता से इन कहानियों में अभिव्यक्त होती है।
    भरत ओला के चार कहानी संग्रह- ‘जीव री जात’ (1998), ‘सेक्टर न.5’ (2004), ‘भूत’ (2013) तथा ‘कित्ती कहाणी खतम’ (2015) प्रकाशित हुए हैं। उन्हें पहले कहानी संग्रह पर साहित्य अकादेमी पुरस्कार अर्पित किया गया और वे निरंतर कहानियां लिखने वाले कहानीकार हैं। किशोर मन की यौन-उत्सुकता से जुड़ी कहानी ‘गाभाचोर’ विषय की दृष्टि से नई है। ‘भरत ओला की चुनिंदा कहानियां’ (2015) संग्रह भी प्रकाशित हुआ है।  इन दिनों वे ‘हथाई’ पत्रिका का संपादन-प्रकाशन कर रहे हैं।
    डॉ. कुंदन माली के अनुसार- ‘भरत ओला की कथा-शैली सांवर दइया का ऐक्सटेंशन या मेडीफिकेशन है? यदि इसका उत्तर हां है तो कोई आश्चर्य नहीं क्योंकि प्रेरणा ग्रहण करना प्रकृति का नियम है। अत: किसी सार्थक ट्रेंड को आगे विकसित करना महत्त्वपूर्ण है।’ (आलोचना री आंख सूं, पृष्ठ-72)
    मेहर चंद धामू भी परलीका के कहानीकार हैं लेकिन आलोचकों का इन पर ध्यान कम गया है। कहानीकार मेहर चंद धामू के दो संग्रह ‘ताळवै चिप्योड़ी जीभ’ (2005) और ‘हरी बत्ती-लाल बत्ती’ (2012) प्रकाशित हुए हैं। ग्रामीण जनजीवन के विविध रंगों से यह कहानीकार अपनी लोकभाषा में लोकरंजन के साथ जीवन और जीवन से जुड़े अनेक प्रसंगों की प्रतीकात्मक-मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति करता है। धामू की कहानियों की दुनिया गांव, गवाड़, जमीन, खेत, खेजड़ी, घर, नहर, सिंचाई, भाईचारा, पड़ौसी, आवागमन, गरीबी, दुख-दर्द, अकाल, बीड़ी, चिलम, दवा-दारू, पढ़ाई-लिखाई, भजन, तंग हालात, थानेदार, पटवारी, बीडीओ, सरपंच, दुकानदार, सगे-संबंधी, रीति-रिवाज आदि से जुड़ी है। इन और अनेक अन्य कहानीकारों के यहां बदलते और विकसित होते राजस्थान का वर्तमान ग्रामीण जन-जीवन चित्रित हुआ है।
    कमल रंगा का एक संग्रह ‘बणतो इतिहास’ (2000) प्रकाशित हुआ और वे ‘रेखा रो पुल’, ‘फिल्म दरवाजा’ जैसी कहानियों से चरित्रों के द्वंद्व को उजागर करते हैं। अरविंद सिंह आशिया के तीन संग्रह ‘कथा : अेक’ (2001), ‘कथा : दोय’ (2009) और ‘काबरचीतरा’ (2017) प्रकाशित हुए हैं। वे चरित्रों को अलहदा अंदाज से प्रस्तुत करते हैं कि चरित्र हमारे भीतर स्थाई रूप से घर कर लेते हैं। उनकी कहानी ‘हुंसरडाई’ में बीछूड़ी जैसे आभूषण द्वारा जो कथा समाने आती है उसमें प्रेम और जीवन के अनेक संदर्भ जुड़ते जाते हैं। कहानी ‘1947’ लंबी कहानी है जिसमें देश की आजादी और हिंदु-मुस्लिम दंगों के साथ मानव जाति के हृदयों में बसा अमिट प्रेम भी उजागर होता है।
    सांवर दइया उत्तर कहानी काल के बेहद संभावनाशील कहानीकार पूर्ण शर्मा ‘पूरण’ के दो संग्रह ‘डौळ उडीकती माटी’ (2004) और ‘मेटहु तात जनक परितापा’ (2012) प्रकाशित हुए है। राजस्थानी में इनकी कहानियों में पात्रों के साथ जीवंत परिवेश का चित्रण मिलता है। कहानी के साथ-साथ समानांतर अपने आस-पास के लोक को अभिव्यक्ति मिली है। यहां की सांस्कृतिक और भौगोलिक झलक से राजस्थानी कहानी समृद्ध होती है। विषयों की विविधता के साथ मानवीय संबंधों का जिस सूक्ष्मता से प्रतीकात्मक प्रस्तुतीकरण पूरण करते हैं वह निराला है। वे बहुत कम शब्दों में बड़ी और गहरी बात करने का हुनर जानते हैं इसका प्रमाण संकलित कहानी ‘कहानी की कहानी’ में भी मिलता है।
    जूझारू पत्रकार के रूप में चर्चित कहानीकार मनोज कुमार स्वामी के ‘काचो सूत’ (2006), ‘इमदाद’ (2012) और ‘किंयां...!!’ (2014) तीनों संग्रहों में अनेक मार्मिक कहानियां है। स्वामी संवेदनशील मन के रचनाकार हैं और जो कुछ समाज में घटित होता है उसे वे अपने कहानीकार की आंख से देखते हैं। अखबार में बहुत-सी घटनाएं खबर बन जाने के बाद उनके आस-पास का समग्र जीवन और संवेदनाएं अभिव्यक्त नहीं हो पाती। हमारी नजर से छूटे विषयों को बहुत बारीकी से इन कहानियों में चिंतन मिलता है। समाज के रीति-रिवाज, कुरीतियां, रूढिय़ां और छोटी-बड़ी सभी समस्याओं के साथ कहानीकार मानवता का पेरोकार रहा है।
    रामेश्वर गोदारा ‘ग्रामीण’ के कहानी संग्रह ‘मुकनो मेघवाळ अर दूजी कहाणियां’ (2007) और ‘वीरे तूं लाहौर वेखण आई’ (2011) प्रकाशित हुए हैं। इनकी ‘मुकनो मेघवाळ’ और ‘मछली’ जैसी कहानियों की व्यापक सराहना हुई है।
    लंबे समय से राजस्थानी कहानी में सक्रिय नवनीत पाण्डे का ‘हेत रा रंग’ (2012) संग्रह खास तौर पर युवा वर्ग के बदलते सोच को लेकर लिखी गई कहानियों के लिए याद किया जाएगा। यहां बदलते और आधुनिक होते जीवन में छूटते जीवन-मूल्यों और संस्कृति से जुड़े रहने का उम्दा सोच है। धन के पीछे दौड़ते अनेक पात्रों में असंतोष और निराशा है। आलोचक कुंदन माली के शब्दों में - ‘नवनीत पाण्डे अपनी कहानियों के माध्यम से वैश्वीकरण के दौर और प्रक्रिया के कारण जीवन में आनेवाले नकारात्मक और निर्थक मान्यताओं और मानवीय मूल्यों के बिखराव की प्रवृति की तरफ हमारा ध्यान दिलाने का प्रयास करते हैं।’
‘मेळौ’ (2015) के कहानीकार राजेन्द्र शर्मा ‘मुसाफिर’ ने बहुत कम समय में अपनी पहचान बनाई है। कहानी ‘मेळौ’ में सांस्कृतिक रंगों का सशक्त चित्रण है। यहां अमीरी-गरीबी का दृश्य सामने आता है, वहीं अंत में पूरी दुनिया ही किसी बड़े मेले के रूपक में खड़ी हो जाती है। कहानी ‘ओळमौ’ (उलाहना) है। जिसमें कुछ शब्दों से कहानी जो व्यक्त करती है, उससे अधिक उसका मौन प्रभावित करता है। कहानी अपने सूक्ष्म और स्थूल संकेतों के जरिए अविस्मरणीय पाठ बन जाती है।
    पत्रकार-रंगकर्मी के रूप में विख्यात मधु आचार्य ‘आशावादी’ का नाम राजस्थानी कहानी में सर्वाधिक संभावना के रूप में देखा जा रहा है। आपके चार राजस्थानी कहानी संग्रह- ‘ऊग्यो चांद ढळ्यो जद सूरज’ (2014), ‘आंख्यां मांय सुपनो’ (2015), ‘हेत रो हेलो’ (2017) और ‘दो चोट्यां आळी छोरी’ (2018) प्रकाशित हो चुके हैं। हिंदी और राजस्थानी में समान रूप से सृजनरत ‘आशावादी’ की कहानियां यादवेन्द्र शर्मा ‘चन्द्र’ और सांवर दइया का स्मरण इसलिए कराती हैं कि उन्होंने भी अनेक बेजोड़ पात्र दिए हैं और कहानी में संवाद-प्रयोग प्रमुखता के साथ किया है। यह हमारी सृजन परंपरा का विकास है।
    वर्तमान समय और समाज के अक्स को प्रस्तुत करती अनेक अच्छी कहानियां युवा कहानीकार डॉ. मदन गोपाल लढ़ा ने ‘च्यानण पख’  (2014) में दी है। डायरी शैली में लिखी कहानी ‘च्यानण पख’ यानी शुक्ल-पक्ष एक ऐसी युवती की कहानी है जो समय के साथ समझवान होती जैसे स्त्री-विमर्श को नई राह प्रदान करती है। लढ़ा ने राजस्थानी जन-जीवन के उन छोटे-छोटे पक्षों को प्रामाणिकता से उभारने का प्रयास किया गया है, जिन से हम रोजमर्रा की दिनचर्या में अपने घर-परिवार और आस-पास के जीवन में सामना करते हैं।
    राजस्थानी कहानी में दलित विमर्श का प्रखर प्रारूप युवा कहानीकार उम्मेद धानिया के संग्रह ‘आंतरो’ (2007) और ‘लेबल’ (2013) में देखा जा सकता है। लेबल को साहित्य अकादमी युवा पुरस्कार अर्पित किया गया है। धानिया की लेबल कहानी समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से बेजोड़ कहानी है। आजादी और विकास की यात्रा में दलित समाज के कुछ लोग बहुत आगे बढ़ गए हैं। प्रशासनिक और उच्च अधिकारी वर्ग में पहुंचे ये जिस दोहरी मानसिकता में जीवन जीते हैं उसका प्रामाणिक चित्रण लेबल में हुआ है। कहानी बहुत प्रभावी ढंग से सवाल उठाती है कि समाज की मुख्य धारा में आने के बाद भी उन पर दलित वर्ग का लेबल कब तक लगा रहेगा? जातिगत समीकरणों से त्रस्त समाज के एक वर्ग की पीड़ा कहानी ‘नीची जात’ में अभिव्यक्ति हुई है।
    राजेन्द्र जोशी के दो कहानी संग्रह- ‘अगाड़ी’ (2015) और ‘जुम्मै री नमाज’ (2018) आए हैं। जोशी की कहानियां अपने कथ्य और उनके प्रति बेबाक नजरिए के कारण याद की जाती है। कथ्यों में विविधता और कुछ ऐसे विषयों पर उन्होंने कहानियां लिखी हैं जो राजस्थानी के लिए नए कहे जा सकते हैं।
    निशांत के संग्रह ‘बींरो आणो अर जाणो’ (2015) में पारिवारिक और सामाजिक सच के साथ बहुत मामूली बातों पर कहानी रचने का हुनर देखा जा सकता है। ‘अखबार पानै री चोरी’ रेल-यात्रा में अखबार के पन्नेे की चोरी से आरंभ हुई कहानी देश सुधार और वर्तमान के अनेक विवरणों से जुड़ जाती है। चरित्रों को अपने मुखौटों से बाहर लाती इन कहानियों में जनसेवकों का वास्तविक चेहरा भी दिखाई देता है।
    कुमार अजय के संग्रह ‘किणी रै कीं नीं हुयौ’ (2013) में ‘भरिये सूं भारी’ जैसी मार्मिक कहानियों में एक युवा आंख की संवेदनशीलता के दर्शन होते हैं। युवाओं में अपनी आंचलिकता और नए प्रयोग के कारण सतीश छिम्पा अपने कहानी-संग्रह ‘वान्या अर दूजी कहाणियां’ (2016) से चर्चा में आए। उनके यहां वान्या के माध्यम से समाज में स्त्रियों की बदली छवि और अतिआधुनिक होते युवावर्ग के चरित्र की मार्मिक अभिव्यक्ति हुई है। आधुनिकता की चकाचौंध में सांस्कृतिक विचलन यहां हमारा ध्यान खींचता है। इसी क्रम में मंगत बादल, देवदास रांकावत, श्रीभगवान सैनी, श्याम जांगिड़, ओम नागर, दुलाराम सहारण सरीखे अनेक कहानीकारों की सक्रिय उपस्थिति से कहानी का दायरा बढ़ा है और बढ़ता जा रहा है।
    महिला लेखन के मामले में प्रगति देखी जा सकती है। महिला कहानीकारों की संख्या बढ़ती जा रही है। आज जब हिंदी और इतर भारतीय भाषाओं में स्त्री विमर्श पर चर्चा होती है, तो राजस्थानी भी पीछे नहीं है। बेशक हमारा संख्यात्मक दायरा छोटा हो, किंतु समस्याएं और सवाल उनसे जुदा नहीं है। यहां नायिकाओं के पास परंपराओं और रूढिय़ों की जकडऩ के साथ अस्मिता का सवाल है। वे भी जीवन के मूलभूत प्रश्नों और आजादी, स्त्री-पुरुष समानता, वैश्विकरण आदि पर अपनी बात रख रही हैं। आधुनिकता और खुली बयार का असर राजस्थानी कहानियों में भी है। बोल्ड कथानकों के अनेक प्रयोग कहानियां में हुए हैं। कहानी के वैश्विक परिदृश्य में राजस्थानी के अनेक हस्ताक्षरों ने भारतीय कहानी को पोषित किया है। राजस्थानी कहानी भी भारतीय कहानी के विकास में कदम-दर-कदम साथ चल रही है। हिंदी के साथ भारत की क्षेत्रीय भाषाओं के कहानीकार भारतीय कहानी की बहुआयामी छवि निर्मित कर रहे हैं।
    यादवेंद्र शर्मा ‘चंद्र’ ने राजस्थानी कहानियों को हिंदी पाठकों तक पहुंचाने का सराहनीय कार्य किया। उनके संपादन में प्रकाशित ‘कालजयी कहानियां’ और ‘राजस्थानी की प्रतिनिधि कहानियां’ (2002) हैं। जिसके माध्यम से राजस्थानी कहानी को व्यापक मंच मिला। इसी क्रम में राष्ट्रीय पुस्तक न्यास दिल्ली द्वारा प्रकाशित नंद भारद्वाज द्वारा संपादित ‘तीन बीसी पार’ (2007) कहानी संग्रह मूल राजस्थानी में और बाद में इसका हिंदी अनुवाद इसी नाम से 2015 में एन.बी.टी. द्वारा प्रकाशित किया गया। इन कहानियों के माध्यम से हिंदी पाठकों की राजस्थानी कहानी के प्रति विशेष रुचि बढ़ी। इन पंक्तियों के लेखक द्वारा संपादित ‘101 राजस्थानी कहानियां’ से राजस्थानी की उल्लेखनीय एवं विशिष्ट कहानियां हिंदी के विशाल पाठक समुदाय तक पहुंची है।   
- डॉ. नीरज दइया

0 टिप्पणियाँ:

Post a Comment

डॉ. नीरज दइया की प्रकाशित पुस्तकें :

हिंदी में-

कविता संग्रह : उचटी हुई नींद (2013), रक्त में घुली हुई भाषा (चयन और भाषांतरण- डॉ. मदन गोपाल लढ़ा) 2020
साक्षात्कर : सृजन-संवाद (2020)
व्यंग्य संग्रह : पंच काका के जेबी बच्चे (2017), टांय-टांय फिस्स (2017)
आलोचना पुस्तकें : बुलाकी शर्मा के सृजन-सरोकार (2017), मधु आचार्य ‘आशावादी’ के सृजन-सरोकार (2017), कागद की कविताई (2018), राजस्थानी साहित्य का समकाल (2020)
संपादित पुस्तकें : आधुनिक लघुकथाएं, राजस्थानी कहानी का वर्तमान, 101 राजस्थानी कहानियां, नन्द जी से हथाई (साक्षात्कार)
अनूदित पुस्तकें : मोहन आलोक का कविता संग्रह ग-गीत और मधु आचार्य ‘आशावादी’ का उपन्यास, रेत में नहाया है मन (राजस्थानी के 51 कवियों की चयनित कविताओं का अनुवाद)
शोध-ग्रंथ : निर्मल वर्मा के कथा साहित्य में आधुनिकता बोध
अंग्रेजी में : Language Fused In Blood (Dr. Neeraj Daiya) Translated by Rajni Chhabra 2018

राजस्थानी में-

कविता संग्रह : साख (1997), देसूंटो (2000), पाछो कुण आसी (2015)
आलोचना पुस्तकें : आलोचना रै आंगणै(2011) , बिना हासलपाई (2014), आंगळी-सीध (2020)
लघुकथा संग्रह : भोर सूं आथण तांई (1989)
बालकथा संग्रह : जादू रो पेन (2012)
संपादित पुस्तकें : मंडाण (51 युवा कवियों की कविताएं), मोहन आलोक री कहाणियां, कन्हैयालाल भाटी री कहाणियां, देवकिशन राजपुरोहित री टाळवीं कहाणियां
अनूदित पुस्तकें : निर्मल वर्मा और ओम गोस्वामी के कहानी संग्रह ; भोलाभाई पटेल का यात्रा-वृतांत ; अमृता प्रीतम का कविता संग्रह ; नंदकिशोर आचार्य, सुधीर सक्सेना और संजीव कुमार की चयनित कविताओं का संचयन-अनुवाद और ‘सबद नाद’ (भारतीय भाषाओं की कविताओं का संग्रह)

नेगचार 48

नेगचार 48
संपादक - नीरज दइया

स्मृति में यह संचयन "नेगचार"

स्मृति में यह संचयन "नेगचार"
श्री सांवर दइया; 10 अक्टूबर,1948 - 30 जुलाई,1992

डॉ. नीरज दइया (1968)
© Dr. Neeraj Daiya. Powered by Blogger.

आंगळी-सीध

आलोचना रै आंगणै

Labels

101 राजस्थानी कहानियां 2011 2020 JIPL 2021 अकादमी पुरस्कार अगनसिनान अंग्रेजी अनुवाद अतिथि संपादक अतुल कनक अनिरुद्ध उमट अनुवाद अनुवाद पुरस्कार अनुश्री राठौड़ अन्नाराम सुदामा अपरंच अब्दुल वहीद 'कमल' अम्बिकादत्त अरविन्द सिंह आशिया अर्जुनदेव चारण आईदान सिंह भाटी आईदानसिंह भाटी आकाशवाणी बीकानेर आत्मकथ्य आपणी भाषा आलेख आलोचना आलोचना रै आंगणै उचटी हुई नींद उचटी हुई नींद. नीरज दइया उड़िया लघुकथा उपन्यास ऊंडै अंधारै कठैई ओम एक्सप्रेस ओम पुरोहित 'कागद' ओळूं री अंवेर कथारंग कन्हैयालाल भाटी कन्हैयालाल भाटी कहाणियां कविता कविता कोश योगदानकर्ता सम्मान 2011 कविता पोस्टर कविता महोत्सव कविता-पाठ कविताएं कहाणी-जातरा कहाणीकार कहानी काव्य-पाठ किताब भेंट कुँअर रवीन्द्र कुंदन माली कुंवर रवीन्द्र कृति ओर कृति-भेंट खारा पानी गणतंत्रता दिवस गद्य कविता गली हसनपुरा गवाड़ गोपाल राजगोपाल घिर घिर चेतै आवूंला म्हैं घोषणा चित्र चीनी कहाणी चेखव की बंदूक छगनलाल व्यास जागती जोत जादू रो पेन जितेन्द्र निर्मोही जै जै राजस्थान डा. नीरज दइया डायरी डेली न्यूज डॉ. अजय जोशी डॉ. तैस्सितोरी जयंती डॉ. नीरज दइया डॉ. राजेश व्यास डॉ. लालित्य ललित डॉ. संजीव कुमार तहलका तेजसिंह जोधा तैस्सीतोरी अवार्ड 2015 थार-सप्तक दिल्ली दिवाली दीनदयाल शर्मा दुनिया इन दिनों दुलाराम सहारण दुलाराम सारण दुष्यंत जोशी दूरदर्शन दूरदर्शन जयपुर देवकिशन राजपुरोहित देवदास रांकावत देशनोक करणी मंदिर दैनिक भास्कर दैनिक हाईलाईन सूरतगढ़ नगर निगम बीकानेर नगर विरासत सम्मान नंद भारद्वाज नन्‍द भारद्वाज नमामीशंकर आचार्य नवनीत पाण्डे नवलेखन नागराज शर्मा नानूराम संस्कर्ता निर्मल वर्मा निवेदिता भावसार निशांत नीरज दइया नेगचार नेगचार पत्रिका पठक पीठ पत्र वाचन पत्र-वाचन पत्रकारिता पुरस्कार पद्मजा शर्मा परख पाछो कुण आसी पाठक पीठ पारस अरोड़ा पुण्यतिथि पुरस्कार पुस्तक समीक्षा पुस्तक-समीक्षा पूरन सरमा पूर्ण शर्मा ‘पूरण’ पोथी परख प्रज्ञालय संस्थान प्रमोद कुमार शर्मा फोटो फ्लैप मैटर बंतळ बलाकी शर्मा बसंती पंवार बातचीत बाल कहानी बाल साहित्य बाल साहित्य पुरस्कार बाल साहित्य समीक्षा बाल साहित्य सम्मेलन बिणजारो बिना हासलपाई बीकानेर अंक बीकानेर उत्सव बीकानेर कला एवं साहित्य उत्सव बुलाकी शर्मा बुलाकीदास "बावरा" भंवरलाल ‘भ्रमर’ भवानीशंकर व्यास ‘विनोद’ भारत स्काउट व गाइड भारतीय कविता प्रसंग भाषण भूमिका मंगत बादल मंडाण मदन गोपाल लढ़ा मदन सैनी मधु आचार्य मधु आचार्य ‘आशावादी’ मनोज कुमार स्वामी मराठी में कविताएं महेन्द्र खड़गावत माणक माणक : जून मीठेस निरमोही मुकेश पोपली मुक्ति मुक्ति संस्था मुरलीधर व्यास ‘राजस्थानी’ मुलाकात मोनिका गौड़ मोहन आलोक मौन से बतकही युगपक्ष युवा कविता रक्त में घुली हुई भाषा रजनी छाबड़ा रजनी मोरवाल रतन जांगिड़ रमेसर गोदारा रवि पुरोहित रवींद्र कुमार यादव राज हीरामन राजकोट राजस्थली राजस्थान पत्रिका राजस्थान सम्राट राजस्थानी राजस्थानी अकादमी बीकनेर राजस्थानी कविता राजस्थानी कविता में लोक राजस्थानी कविताएं राजस्थानी कवितावां राजस्थानी कहाणी राजस्थानी कहानी राजस्थानी भाषा राजस्थानी भाषा का सवाल राजस्थानी युवा लेखक संघ राजस्थानी साहित्यकार राजेंद्र जोशी राजेन्द्र जोशी राजेन्द्र शर्मा रामपालसिंह राजपुरोहित रीना मेनारिया रेत में नहाया है मन लघुकथा लघुकथा-पाठ लालित्य ललित लोक विरासत लोकार्पण लोकार्पण समारोह विचार-विमर्श विजय शंकर आचार्य वेद व्यास व्यंग्य व्यंग्य-यात्रा शंकरसिंह राजपुरोहित शतदल शिक्षक दिवस प्रकाशन श्याम जांगिड़ श्रद्धांजलि-सभा श्रीलाल नथमल जोशी श्रीलाल नथमलजी जोशी संजय पुरोहित संजू श्रीमाली सतीश छिम्पा संतोष अलेक्स संतोष चौधरी सत्यदेव सवितेंद्र सत्यनारायण सत्यनारायण सोनी समाचार समापन समारोह सम्मान सम्मान-पुरस्कार सम्मान-समारोह सरदार अली पडि़हार संवाद सवालों में जिंदगी साक्षात्कार साख अर सीख सांझी विरासत सावण बीकानेर सांवर दइया सांवर दइया जयंति सांवर दइया जयंती सांवर दइया पुण्यतिथि सांवर दैया साहित्य अकादेमी साहित्य अकादेमी पुरस्कार साहित्य सम्मान सीताराम महर्षि सुधीर सक्सेना सूरतगढ़ सृजन कुंज सृजन संवाद सृजन साक्षात्कार हम लोग हरदर्शन सहगल हरिचरण अहरवाल हरीश बी. शर्मा हिंदी अनुवाद हिंदी कविताएं हिंदी कार्यशाला होकर भी नहीं है जो