राजस्थानी कविता- अंबा (अर्जुन देव चारण) अनुवाद- नीरज दइया
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राजस्थानी कविता-
अंबा
कवि : डॉ. अर्जुन देव चारण
हिंदी अनुवाद : डॉ. नीरज दइया
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काशीराज की तीन पुत्रियों को उनके स्वयंवर से भीष्म हरण कर ले आए। वे उनका विवाह अपने भाइयों से चाहते थे। पर उन में से एक पुत्री अंबा ने उन्हें बताया कि वह तो किसी अन्य से प्रेम करती है और इस स्वयंवर में वह उसका वरण करने वाली थी। तब भीष्म ने अंबा को अपने प्रेमी के पास वापस भेज दिया। अंबा को उसका प्रेमी स्वीकार नहीं करता है। अंबा दुविधा में भीष्म के पास जाती है पर भीष्म उसका विवाह अपने भाइयों से कराने से मना करते हैं। अंबा स्वयं भीष्म से विवाह का प्रस्ताव रखती है पर भीष्म ने तो आजीवन ब्रह्मचर्य का व्रत लिया हुआ है।
अंबा अपने साथ हुए इस अन्याय का दोषी भीष्म को मानती हैं। वह अन्य राजाओं से भी अनुरोध करती है पर भीष्म से लड़ने को कोई तैयार नहीं होता। तब वह अपने हाथों की वरमाला को राजा द्रुपद के दरवाजे पर टंगा देती है और महेन्द्राचल पर्वत पर जाकर चिता बनाकर स्वयं को भस्म कर देती है।
वह वरमाला राजा द्रुपद की बेटी शिखंडी बाल्यकाल में अपनी शरारतों में अनजाने अपने गले में पहन लेती है। वही शिखंडी कालांतर में भीष्म को मारता है। शिखंडी के बाणों को भीष्म ऐसे स्वीकार करते हैं जैसे वे अंबा की वरमाला के फूल हो, और इस भांति वे अपनी गलती का पश्चाताप कर रहे होते हैं। यह कविता इसी पूरे प्रसंग को पकड़ने का प्रयास है।
फूलों-फूलों
छिपी हुई
अग्नि की लपटें
डोरी में बंटी हुई
प्रत्यंचा
कमान की
पुष्पहार नहीं होती
वह
होती है साक्षात मृत्यु
तुम्हारे हाथों का
ऐसा दुष्कर भार
कौन धारण करता।
जाने किस क्षण-पल
रचा काल
परिचित गले के इंतजार में
अंगुलियां में
करवटें बदलता रहा।
भुजाओं के बल
वह नामचीन योद्धा
उठाकर
ले गया तुम्हें,
वरण को
हरण में ढाल
परोसने लगा
दूसरो के आगे।
तुम
नहीं रोयी थी
उस दिन
रोया था पुष्पहार
रोया था मार्ग
रोया था समय
उस गीली जमीन
गर्ब का रथ
प्रीत को कुचलता
बनाता
जीत के चिह्न
निकल गया
धर्म-ध्वजा लहराते हुए।
कितने हाथों के आगे
फैले थे
दो हाथ,
कितने मार्गों चढ़े-उतरे थे
दो पैर
पर गूंगा होकर
बैठ गया
पूरा संसार,
कुमुहलाते रहे पुहुप
सांसों के रंग रंगे जाने को
सीमाएं लांघती रही खुशबू
बंधी हुई
कसमाती रही
मुक्ति के लिए
घर की प्रतीक्षा में
टंगी रही
बड़े दरवाजे पर।
तुम्हारे भाग्य में
लिखा था मार्ग
चलना... चलना... चलना...
मार्ग के भाग्य
लिखी हुई थी आशा
इंतजार... इंतजार... इंतजार...
आशा के भाग्य
रेखांकित था समय
मौन... मौन... मौन...
समय
आशा
मार्ग
सदा रहते हैं जींवत
भेष बदलते हैं
जन्म लेने वाले
जीने वाले
जाने वाले
उनके भरोसे
परिवर्तित होती है आशा
आशा के कारण मार्ग
मार्ग के कारण समय।
हे सदा सौभाग्यवती
हे अकन कुंवारी
कुदरत ने स्वयं दिया
तुम्हें मां का नाम
तुम्हारे बालों के बीच की रेखा ने
पूरे संसार को
कुमकुम बांटा
तूम्हारी सुरंगी हथेलियों
धरती ने रचाया
मेहंदी-रंग
तुम्हारी आंखों की
रक्तिम लालिमा से लोहित हुआ समुंद्र।
हदय में संजोये
एक आशा
तुमने
बैर को
किसी बच्चे की भांति पाला-पोसा
क्रोध से सजी-संवरी
दुतकारती मनुष्य जाति को
प्रज्ज्वलित कर अग्नि
हो गई एकमेक।
अनजानी
वह कुंवारी
अपनी शरारतों से
कर लिया
धारण तुम्हारे पुष्पहार को
बैर को
मार्ग मिला,
पहचानता था
वह बूडा
खुशबू
कभी बूढ़ी नहीं होती
नहीं होती
कभी
बूढ़ी प्रीत
उस कुंवारी के
बाण
वह हंस-हंस सीने पर झेलता रहा
अनजाने में
हो गया था उससे पाप
स्वीकारते हुए
करना था पश्चाताप
खुशबू की मुक्ति में
उसकी मुक्ति थी।
वे बाण नीं थे
फूल थे
वरमाला के
रूप बदल कर
ढूंढ़ लिया था आसरा
हरण को
वरण में बदल कर
इस भांति
खुशबू मुक्त हुई।
००००
अनुवाद : डॉ. नीरज दइया
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कवि परिचय-
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डॉ. अर्जुनदेव चारण (1954) आधुनिक राजस्थानी के प्रख्तात नाटकार, आलोचक-कवि। अनेक पुस्तकें प्रकाशित। चर्चित पुस्तकें-राजस्थानी कहाणी : परंपरा-विकास, रिंधरोही, मुगतीगाथा, विरासत आदि । नाटक “घरमजुद्ध” पर साहित्य अकादेमी नई दिल्ली तथा राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादेमी, बीकानेर के सर्वोच्च पुरस्कारों से सम्मानित, कविता संग्रह “घर तौ एक नाम है भरोसै रौ” पर बिहारी पुरस्कार। जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय के राजस्थानी विभागाध्यक्ष पद से सेवानिवृत। राजस्थान संगीत नाटक अकादमी के पूर्व-अध्यक्ष एवं साहित्य अकादेमी नई दिल्ली की राजस्थानी भाषा परामर्श मंडल के पूर्व-संयोजक। वर्तमान में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, नई दिल्ली के अध्यक्ष हैं।
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अनुवादक परिचय-
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डॉ. नीरज दइया (1968) विगत तीस वर्षों से राजस्थानी और हिंदी में निरंतर सृजन-अनुवाद-संपादन। कविता और आलोचना में विशेष पहचान। विभिन्न विधाओं में लगभग तीस पुसतकें प्रकाशित। साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली का राजस्थानी कहानी आलोचना-पुस्तक ‘बिना हासलपाई’ के लिए सर्वोच्च पुरस्कार और बाल साहित्य पुरस्कार बाल कहानी-संग्रह ‘जादू रो पेन’ के लिए, राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी, बीकानेर के अनुवाद पुरस्कार समेत अनेक पुरस्कारों से सम्मानित नीरज दइया की चर्चित पुस्तकें- देसूंटो, पाछो कुण आसी, मंडाण, आलोचना रै आंगणै, कागला अर काळो पाणी, ऊंडै अंधारै कठैई, पंच काका के जेबी बच्चे, राजस्थानी कहानी का वर्तमान, 101 राजस्थानी कहानियां, रेत में नहाया है मन आदि।
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