डॉ. आईदान सिंह भाटी : साहित्य की शान / डॉ. नीरज दइया
डॉ. आईदान सिंह भाटी का कृतित्व और व्यक्तित्व ऐसा जादूई है कि जो एक बार रू-ब-रू होता है, उनके जादू से बच नहीं सकता। उन्होंने स्वयं की ही नहीं हिंदी-राजस्थानी के विभिन्न कवियों की सैंकड़ों कविताएं अपने कंठ में ऐसे बसा रखी हैं कि उनकी इस मेधा को हर कोई प्रणाम करता है। वे वाचिक परंपरा के कवि हैं। उनका आधुनिकता बोध उनकी लोकधर्मी प्रतिबद्धता से पोषित होता है। वे आपने पाठकों श्रोताओं के स्मरण में स्थाई निधि के रूप में बसे हुए हैं। उनके रंग-रूप और वेश-भूषा में देशी ठाठ के जलवे देखते ही बनते हैं। एक पंक्ति में कहा जाए तो आईजी ऐसे विरल कवि हैं कि उनका कोई सानी नहीं है। सुप्रसिद्ध आलोचक डॉ. नामवर सिंह का आईजी के विषय में मानना है- ‘लोक भाषाओं के साहित्यकारों का यह दायित्व है कि लोक की आत्मा, लोकभाषा के सार्थक पक्षों को पहचानने और राजनीति की अराजकता के विरुद्ध उसे प्रतिरोध की ताकत के रूप में इस्तेमाल करें। आईदान सिंह भाटी की कविताओं में मुझे लोक भाषा के इसी सार्थक और प्रतिरोधी रूप की झलक मिलती है। वे स्थानिक तथा परंपरा और प्रतिरोध के सौंदर्यबोध के कवि हैं।’
डॉ. आईदान सिंह भाटी इतने सरल, सहज और सब के आत्मीय रहे हैं कि उन्हें स्वयं से पृथक कर देखना मेरे लिए कठिन है। इसके ठीक विपरीत कभी कभी ऐसा भी लगता है कि वे इतने जटिल, गुंफित और आत्मकेंद्रित रहते हैं कि उनके कवि-मन की थाह पाना संभव नहीं है। वे प्रचलित मानकों और मानदंडों के आधार पर आलोचना के लिए चुनौति है। किसी भी कविता और कवि को जानने के लिए उसमें बहुत गहरे उतरना होता है और आईजी अपनी मुलाकातों में परत-दर-परत खुलते हुए भी बहुत कुछ जैसे अपने भीतर बचाए रखते हैं। उनसे मिलते समय हर बार समय कम पड़ जाता है और बहुत सी बातें बाकी रह जाती हैं। उनसे मिलना और बारबार लगातार मिलना उन्हें पृष्ठ-दर-पृष्ठ जैसे खुलते और खिलते हुए देखना होता है। उनका जन्म 10 दिसम्बर 1952 को जैसलमेर जिले के नोख गांव में हुआ। उन्होंने हिंदी साहित्य में एम. ए. करने के बाद जयनारायन विश्वविद्यालय जोधपुर से प्रो. विमलचंद्र सिंह के निर्देशन में ‘नई कविता के प्रबंध : वस्तु और शिल्प’ विषय पर शोध किया। बाद में वे विभिन्न राजकीय महाविद्यालयों में अध्यापन-कार्य से जुड़े रहे और पूरा जीवन जैसे शिक्षा और साक्षरता को समर्पित कर दिया। उनकी लोकधर्मिता और लोक से गहरा जुड़ाव कविता में संभवतः इसी मार्ग से होता हुआ बढ़ता गया और अब यह जानकर आश्चर्य होगा कि उनका पहला हिंदी कविता संग्रह ‘जलते मरुथल मेम दाझे पांवों से’ (2019) सामने आया है। उनकी हिंदी भी देशी हिंदी है जिसमें राजस्थानी और राजस्थान का जायका भरा रहता है। ऐसा नहीं है कि वे आधुनिक कविता और खासकर हिंदी की कविता के विकास से अनभिज्ञ हों, वे अधिकृत विद्वान हैं और वर्षों तक विद्यार्थियों की हिंदी शुद्ध करते रहे हैं। किंतु उन्हें अपनी हिंदी में मातृभाषा और अपने आस-पास के जीवन से जुड़ी लोकभाषा ही स्वीकार है। विकास के नाम पर बदलते चेहरे और देश के भूगोल के बीच ग्रामीण और शहरी जगत में अब भी एक बड़ा तबका ऐसा है, जो यह सब पचा नहीं सका है। उसका देशज स्वरूप आईजी की कविता में शब्द-दर-शब्द अंकित होता चला गया है। दिखावे और नकली चेहरों के बीच एक असली चेहरा यानी भीड़ में एक अलग चेहरा है आईजी। राजस्थान की मिट्टी की सौंधी सौंधी महक लिए हुए उनकी हिंदी कविताएं मंचों पर चर्चित रही हैं। वे देश के विभिन्न शहरों में आयोजित कवि-सम्मेलनों में अपनी लोकरंग की तुकांत और अतुकांत कविताओं के लिए प्रमुखता से याद किए और बुलाए जाते हैं। उनकी कविताओं में आधुनिकता के साथ परंपरा का समिश्रण आकर्षित करता है। वे नाद-सौंदर्य के नित्य नए प्रयोग करते हुए आधुनिक काव्य-धारा में परंपरा के निजता के आस्वाद के विशिष्ट कवि हैं।
राजस्थानी वाचिक परंपरा के अग्रणी कवि आईजी का पहला राजस्थानी कविता संग्रह ‘हंसतोड़ा होठां रा साच’ (1987) बेहद चर्चित रहा, इसका दूसरा संस्करण 2014 में प्रकाशित हुआ है। पुरस्कृत राजस्थानी कविता-संग्रह के अलावा ‘रात कसूंबल’ (1997), ‘खोल पांख नै खोल चिड़कली’ (2014) संग्रह प्रकाशित हैं। वे कवि के साथ-साथ वे सफल अनुवाद के रूप में भी पर्याप्त चर्चित रहे हैं। उनके द्वारा गांधीजी की आत्मकथा का राजस्थानी में अनुपम अनुवाद किया गया है। जिसको साहित्य अकादेमी नई दिल्ली ने अनुवाद पुरस्कार से सम्मानित भी किया। उनकी दो अन्य अनूदित कृतियां- ‘गैंडो’ (राईनासोर्स) और ‘रवीन्द्रनाथ री कवितावां’ भी साहित्य अकादेमी से प्रकाशित हुई है। राजस्थानी भाषा साहित्य एवं संस्कृति अकादमी बीकानेर की मासिक पत्रिका ‘जागती जोत’ के कुछ अंकों और ‘डॉ. नारायणसिंह भाटी की सुप्रसिद्ध कविताएं’ कृति का संपादन भी उन्होंने किया है। वे मूल में स्वयं को राजस्थानी लेखक-कवि कहलाना पसंद करते हैं किंतु मित्रों के आग्रह और अपनी पसंद से अनेक कृतियों की समीक्षाएं भी लिखी है। उनके आलोचनात्मक निबंधों और समीक्षाओं को उनकी कृति ‘समकालीन साहित्य और आलोचना’ (2012) में देखा जा सकता है। इसी भांति ‘राजस्थान की सांस्कृतिक कथाएं’ (2016), ‘थार की गौरव कथाएं’ (2017) और ऐतिहासिक उपन्यास ‘शौर्य पथ’ (2013) उनकी सांस्कृतिक दृष्टि से पगी कृतियां हैं। यह आलेख उस विराट कवि की दिशा में एक संकेत है। मेरी साध है कि उन पर एक कृति लिख सकूं। राजस्थान और राजस्थानी का पर्याय बन चुके डॉ. आईदान सिंह भाटी को बिहार पुरस्कार घोषित होना स्वयं पुरस्कार का सम्मानित होना है। आईजी राजस्थानी ही भारतीय साहित्य की शान बढ़ाने वाले कवि हैं।
"दुनिया इन दिनों" (प्रधान संपादक : डॉ. सुधीर सक्सेना) जनवरी-2020 अंक में
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