लाड़ कंवर की कहाणी / नीरज दइया
उपन्यासकार आपरै उपन्यास रै सेवट पूरै उपन्यास नै लाड़ कंवर री कहाणी कैय’र जाणै नवै जुग मांय विधावां रा दायरा खतम करण चावै का हुय सकै बां रो मायनो कहाणी सबद सूं कथा रो हुवै। उपन्यास अर कहाणी विधा मांय तात्विक फरक रै कारण ई दोनूं नै न्यारी न्यारी मानीजै। पानां री दीठ सूं लंबी कहाणी नै उपन्यास नीं कैय सकां। कमती पाना मांय ई उपन्यास संभव हुय सकै। लेखक मरम री बात कैवै कै जमानै मांय जिका करम हुवै बै करलो अर आगै बधो। राजस्थानी विद्वान श्रीलाल नथमल जोशी बताया करता कै आपरै अठै ढ़ नै ढ ई लिखणो चाइजै अर इणी ढाळै ‘जिंदगानी में आगे बढ़ी अर बधती ई गी’ ओळी मांय आगै बधी अर बधती ई गई लिखीजणो चाइजै। ‘बढ़ना’ हिंदी री क्रिया रो राजस्थानी मांय दूजो अरथ हुवै अर ‘बाढ़ी आंगळी माथै ई कोनी मूतै’ रो दाखलो जगचावो। आ पण हुय सकै कै कोटा मांय इण ढाळै रो अरथ नीं लियो जावतो हुवै।
लेखक जितेंद्र निर्मोही ‘नुगरी’ री कहाणी नै बाबत ‘म्हारी बात’ मांय आगूंच लिखै- ‘म्हारै सामै असी बाल विधवा छी जी नै आपणी जिंदगी ई समाज सूं लड़बा-भड़बा अर रूढ़ीवादी परंपरावां कै तांई तोड़बा मैं कोई काण-कसर न्हं छोड़ी।’ (पेज-5)
राजस्थानी उपन्यास जातरा मांय नारी जूण अर विधवां पेटै केई रचनावां लिखीजी पण ‘नुगरी’ आपरै ढंग-ढाळै सूं निरवाळी रचना इण खातर मानीजैला कै अठै इण चरित्र प्रधान उपन्यास मांय लेखक लुगाई नै दुनिया मांय खुद रै ढंग सूं जीवण री हूंस देवै। विधा रै लिहाज से उपन्यास माथै कीं बातां करी जाय सकै कै नरेटर रो लोककथा दांई नुगरी री कथा नै कैवणो है। बुणगट री दीठ सूं नुगरी री कथा नै लेखक उण रै रामसरण हुया पछै उण री अंतिम जातरा सूं चालू करै अर उण री विगत नै 16 अध्याय में जाणै कैवै। इण कैवण मांय आधेटै पछै बिचाळै एक लोककथा ई सुणावै! ‘एक राजा छो, जी कै सात कन्या छी। राजो तड़के उठतां ई सब नै खुद के आस-पास बठाणतो अर एक-एक कन्या सूं पूछतो कै तू कही क भाग को खा’री छै। आगली छः कन्या तो कहती कै- पिताजी म्हां तो थां का भाग को खावै छा, पण सबसूं छोटी कन्य कहती- पिताजी म्हूं तो म्हरा ई भाग को खा’री छूं।’ ( पेज- 56) ओ लेखक रो लोक साहित्य सूं मोह कैयो जाय सकै। एक कथा रै मारफत लेखक करम री बात नै अरथावण री कोसीस करै। क्यूं कै लेखक रो मानणो है कै ‘जुग बदलेगो बायरा मै चेतना आवेगी।’ (पेज- 83)
शिवपुरा में किशन जी तेलीपाड़ा मै रै छा। उणा रा पांच टाबरां में एक छोरी जिकी नै ‘नुगरी’ मांय लेखक विगतवार आपां साम्हीं राखै। नुगरी नै समाज मांय छन्द्याल, चतरी, मटेटण आद केई नांवां सूं ताना ई मिलै। जितेंद्र निर्मोही मुजब ‘लुगाई की आंख्यां मं अश्यां केमरा लाग्या होय छै क’ वा पलक झपकतां ई, आछो-बुरो जाण ज्या छै।’ अर नुगरी ई आछो-बुरो जाणता थका ई जीवण नै आपरी जुदा दीठ सूं दिसा देवै। किणी री हां-ना सूं निरवाळी नुगरी जीवण-पथ माथै किणी जोधा दांई आगै आगै बधती जावै। बा सोळा बरसां री परणीजै अर साल खंड पछै विधवा हुय जावै। लेखक लिखै- सतरा बरस मै ई रांड होगी छी अर पेट सूं न्याळी छी। अठै ओ जाण लेवणो ई जरूरी है कै चौथी पास नुगरी जे नौकरी लागै तो उण नै घणो कीं देवणो पड़ै। सामाजिक दीठ सूं खोट समझा जिका समझौता सूं उण री जूण आगै बधै। ‘कोई का मरबा सूं जिंदगानी में कोई फरक न पड़ै, नदी का उफाण अर रैला का जाबा कै बाद जिंदगाणी बाई पराणी चाल पकड़ लै छै। घणा लोग ई करम गति सूं बी घणो सीखै छै।’ (पेज- 22)
जीवण साच नै बखाणतो नुगरी आज रै बगत नै अरथावै अर आधुनिक हुयै समाज रै संस्कारां मांय आई गिरावट खातर जाणै सचेत ई करै। आ बात लोक मांय जाणी पिछाणी है- ‘यो पहलो दिन छो लाड को वा जाणगी छी आद्म्य मैं नौकरी करबो खांडा की धार पै चालबो छै फैर गरीब की जोरू अर सबकी भौजाई।’ (पेज-28) पण अठै उण नै नुगरी रै दाखलै सूं राखणो जसजोग काम कैयो जावैला। भरी जवानी मांय किणी रो विधवा हुवणो अर उण पछै घुट-घुट’र इच्छावां रो गळो टूंपणो दुनिया री रीत रैयी है। आ रीत नुगरी नै कदैई रास नीं आवै। बा आपरो खावणो-पीवणो अर मौज-मस्ती नै इयां कियां छोड़ै। इणी वस्तै बा आपरी एक न्यारी-निरवाळी दुनिया बणावै। जिण मांय फगत अर फगत रोवणो-धोवणो कोनी हुवै, बठै पड़दै सूं ढकियोड़ै एक संसार मांय दूजो संसार निगै आवै। लेखक नुगरी में जूण रा सुख लेवण रा फगत सुपनां ई नीं दरसावै, बां सुपनां नै पूरा करण रा जतन ई होळै होळै साम्हीं राखै।
‘लाड़ के खाबा-पीबा को घणो सोक छो दीतवार का दन वा रामकंवरी के यां जा पूगी अर भर पेट रबड़ी जा उड़ाई। रबड़ी उड़ा’र जोर सूं बोली- दूधा न्हावो पूता फलो। या सुण’र रामकंवरी जोर जोर सूं हांसबा लागी फेर बोली बाई थं नै बी खूब की वस्या तू बी रांड बैर अर म्हूं बी रांड बैर। लाड़ नै कीं- बावली कांई रांड बैर ई जीबा को हक कोई न्ह कै अर मजा लेबा की छूट कोई न्ह के।’ (पेज 62)
समाज रा ठेकेदारां अर नेतावां पेटै नुगरी री आ दोय टूक बात- ‘धोळा कपड़ा फहरबा को हक तो वांई छै ज्यै दिल क साफ छै, वा मानै छी जिंदगाणी में घालमेल तो हुई छै।’ (पेज- 76) राजस्थानी संस्कृति अर परंपरा नै निभावता दूजा विधवा चरित्रां सूं न्यारी नुगरी बोल्ड नायिका कैयी जावैला। बा नेम अर काण-कायदा निभावै अर आपरै बेटै जोगाराम अर बहू रामप्यारी भेळै पोता-पोती रो सुख ई भोगै। नुगरी राजस्थानी उपन्यास जातरा मांय एक क्रांतिकारी चरित्र मानीजै जिकी धरम री झूठी धजावां नै लीर-लीर करै अर मानै ब्यांव तो मनां रो मेळ हुवै। नुगरी मांय पोती बबली (कोकिला) वावत ओ संवाद विचारणजोग कैयो जाय सकै-
‘लाड़ नै कही- छोकी बात छै भाई सा। आप अब म्हारै उपर छोड दो।
लाड़ नै चतरी सूं कही- बणा बात बनती नजर आरी छै, तू गंधो मत घाल जै।
चतरी बोली- बण कुल गोत तो न अड्या, पण छोरा की जनम पतरी तो देखल्यां।
लाड़ नै कही- कांई करेगी जनम पतरी नै आगी बाल, छोरो पढ्यो-लिख्यो छै, परवार आसूदा छै। पंडताअ का चक्कर में मत पड़।
चतरी बोली- ब्याव तो मन मल्यां को खेल छै बणा थनै सांची कही कान्हा जी कै बी ज्यै जची छोरी फाडली अर छोरियां का दुख निवारक बणग्या।’ (पेज- 74)
भूमिका लेखक राधेश्याम मेहर री बात खरी- ‘अस्यां उपन्यासकार ने ‘नुगरी’ मं लाडबाई की जीवनगाथा ई ले’र घणी-सारी महताऊ बातां सबके सामै प्रकट करतां होयां स्त्री-विमर्श के लारै-लार प्रेम-वासना अर सामाज की नुई-पराणी परंपरावां पै प्रकाश डालतां होयां बायरां मं पैदा होयी नुई चेतना सगति, हिम्मत-हौसला अर आत्म-बसवास सूं आगे बधबा की भावनावां नै थरपबा मं सफलता पाई छै।’
नुगरी री इण कथा सूं फगत एक मारग साम्हीं आवै कै रीत-रिवाज, काण-कायदा, परंपरा-संस्कार अर मूल्यां नै जे सावळ राखणा है तो संसार आपरो रंग-ढंग बदळै अर विधवावां नै बसावै। मिनख-लुगाई बिचाळै मरजादावां अर संस्कारां नै सावत राखण री भोळावण समाज माथै।
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नुगरी (उपन्यास) जितेन्द्र निर्मोही
संस्करण- 2016 ; पाना- 88 ; मोल- 100/-
प्रकाशक- बोधि प्रकाशन, जयपुर
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