गांव री गळियां अर लुगाई जूण रो चितराम / नीरज दइया
उपन्यास समरपित है- ‘निर्मल वर्मा ने जिकां कहाणी रै आकास नै अद्भुत विस्तार दियौ।’ इण समरण अर उपन्यास री पैली ओळी- ‘चीं चकड़ कीं ककड़ रेलगाड़ी रै बरेक री आवाजां काना में चूंट्या भरण, लागी अर एकदाबाद-आगराफोरट सवारी बी छोटेक ठेसण भींवसर माथै रुक गी, अर दो मिन्ट खातर जाणै ठेसण जाग ग्यौ।’ सूं आपां कीं अंदाजो लगा सकां हां कै उपन्यास कीं नवो करण री खेचळ कर रैयो है। राजस्थानी गद्य री भासा अर बुणगट पेटै ‘सिंझ्या’ एक प्रयोग मानीजैला। इण मांय गद्य रै आकास नै अद्भुत विस्तार देवण रो जोस देख्यो जाय सकै। उपन्यास गांव भींवसर रै मारफत आजादी पछै ई राजस्थान रा केई-केई गांवां रै हालात नै दरसावै।
‘एक लोहड़ा रौ संदूक अर एक खांदै माथै टांगण रौ थेलौ अर एक छोटी पेटी, औ समान हौ देवी सिंह, भरत सिंह अर रामदायाल रै कनै। उमर आ ही बाईस सूं तीस रै बिचै। देवीसिंह गोरो डीघौ करारौ मोटयार लीकां आळो कुड़तौ अर पैजामौ, पगां में तीखी पगरखीयां। भरत सिंह पच्चीसैक बरसां रौ ओदौ, कद काठी रौ सांवळो डील में भारी, पगां में ही परखरियां अर डील माथै गूंगौ डब्बा रौ कुड़तौ अर पैजामौ। रामदयाल बाईस बरसां रौ थाक्यौड़ौ-पतलौ, डीघो सांवळौ अर तीखै उणियारे रौ वुडलेंड रा चमड़ै रा बूंट कुड़तौ पेंट में दाबयोड़ौ कमर माथै पट्टो बांध्यौड़ो।’ (पेज-7)
भींवसर ठेसण माथै उपन्यास री नायिका बिजै (विजय) रा तीनूं भाई उतरै जणा ओ रूप-रंग अर नैण-नक्स रो दरसाव एक बगत नै ई बांचणियां साम्हीं राखै। विजै (विजय) री सगाई रो दस्तूर परसूं दिनूगै साढ़ी दस बजी हुवणो हो उण खातर तीनूं भाई समान लेय’र गांव उतरै अर खेतियै नै उडीकै जिको बां नै लेवण गांव सूं बो आवण वाळै हो पण वगतसर नीं पूगो। गांव री अबखायां रो खरो चितराम उपन्यास मांय देख सकां। लगैटगै पांच सौ बीघा जमी रा धणी ठाकर झूंझार सिंह गांव मांय लांठा अर इलाकै में साखवाळा। चीजां नै होळै होळै खोलणो अर नेठाव सूं किणी दरसाव नै राखणो अरविंद सिंह आशिया रै इण उपन्यास री खासियत कैयजैला। उपन्यासकार पात्रां री ओळख साथै ग्रामीण संस्कृति अर लोकाचार नै चित्रात्मक भासा सूं प्रगट करै- ‘रावळै में बड़ता ही देवी सिंह री बीनणी गुलाब कंवर घूंघटौ काढ़’र मांये गी परी। देवीसिंह बठेई डोढी में आपरै दादीसा रै सिराणै बेठ ग्यौ। दादीसा लगैटगै अस्सी बरसां री डोकरी। विधवा हा झकेऊं धौळा गाभा, आंख्या माथै चस्मौ अर थोड़ा थोड़ासा धूजता हाथ, पण उणियारै रौ तेज दीपतौ दिखे हौ। बांरो मांचो डोढ़ी में भींत सूं चिपायोड़ौ हौ कनेई धान पीसण री घट्टी अर ऊंखळ हा। देवीसिंह री बीनणी मांये जांवता ही बीं री मां सुगन कंवर साळ सूं बरै आई। पचास बरसां री सुगन कंवर रंग गोरो, डीगी अर पतली, चोटी ठेठ कड़यां सूं नीचे तांई गूंथ्यौड़ी।गुलाबी रंग रा घाघरौ कुड़ती पेरयौड़ा अर ऊपर गुलाबी ओढणौ जको कीं आरपार दीखण आळौ हो। आंगणे में आंवता ही सुगन कंवर लांबौ गूंघटौ काढ़ लियौ।’ (पेज- 10)
पंद्रा अध्याय रै इण उपन्यास मांय दूजै अर तीजै अध्याय मांय उपन्यासकार राजस्थान रै बदळतै हालातां नै दरसावै पण जिकी कथा सूं बांचणिया नै बो जोड़ै बा छोड़ देवै। देस री आजादी पछै नवै प्रभात मांय दूजो अर तीजो अध्याय जाणै किणी सिंझ्या रो बखाण है जिकी आजादी रै परभात माथै लमूटै ही। जमीदारा अर ठाकरां रै बदळण रा आपरा तरीका रैया। देस रै आजाद हुया का नुंवा काण-कायदा बण्या पछै ई बां रा रंग होळै होळै गया। छोरै-छोरी रै तिलक रा रिवाज अर देवा-लेवी बाबत सांस्कृतिक रंग अठै देख सकां। ओ नवै अर जूनै रो द्वंद्व कैयो जाय सकै कै अरविंद सिंह आशिया कविता दांई उपन्यास मांय आपारी बात राखै- ‘बगत अर पाणी में बराबरी है कै दोनूं ही बेवै, अर फरक औ है के एक रै बेवण री आवाज आप सुण सको अर दूजौ इत्तौ बोलो बोलो बेवै के सरपराट भी नीं सुण सकौ।’ (पेज- 47) ओ उपन्यास बगत री सरपराट सुणावण रो जतन कैयो जाय सकै। मिनखीचारै री बातां कैवतो ओ उपन्यास गांवां मांय सुख-साधना रै पूरा नीं हुवण रो दरद ई बखाणै। छोरी भलाई अमीर री हुवै का गरीब री, ठाकरां री हुवै का भलाई किणी कामदार री उण सूं एक ई उमीद करीजै- ‘बेटा ई खानदान रौ माण अर इज्जत थारै अडाणौ है। सासरै में एड़ौ जस कमाई के थारे मांईतां रौ जीवण धिन होय ज्यावै।’ (पेज- 58)
कांण-कायदा अर रीत-रिवाज रा रंग राखणिया परिवार री लाडली विजय री इण कथा मांय उपन्यासकार आशिया इण मांय लोक संस्कृति रा रंग कीं बेसी भरण रै चक्कर मांय निर्मल वर्मा नै जाणै विसर जावै। गीत-संगीत अर व्यांव रा रीत रिवाजां मांय लोक रो सगळो खजानो विगतवार उपन्यास मांय मिलै। संस्कारां मांय किसा किसा गीत अर किसी आडियां-ओखाणा सूं बन्नै-बन्नी रो सत्कार पीरै-सासरै मांय हुवै रो बखाण करतो ओ उपन्यास लोक संस्कृति रो नायाब हेमाणी नै अंवेरै पण आधुनिक उपन्यास री बुणगट जिण सूं गद्य रै आकास नै अद्भुत विस्तार री उमीद करीजै बा तूटती लखावै। फेर पेज 73 माथै ‘छोटो सो चंद्रमा मोड़ो कियां उग्यो सा’ गीत रो अरथाव ई देय’र आंचलिक धारा मांय उपन्यास जावण लागै। आगै विजय रा बींद संग्राम सूं लुगायां री रसभरी रीतां-गीतां सूं आधुनिक उपन्यास जाणै लोक-साहित्य कानी बधण लागै।
ब्यांव नै घणो बगत ई कोनी हुयो कै विजय रै सासरै सांगवा सूं खबर आवै कै जंवाई सा संग्राम नीं रैया। करंट रै तारां सूं जंवाई संग्राम री मौत सूं भरी जवानी मांय विजय रो विधवा हुवण रै प्रसंग नै उपन्यास घणै मरम सूं उजागर कर’र पाछो चीला माथै आवै। अठै त्रासदी आ कै विजय सासरै रा कांई सुख देख्या अर बा कित्ता’क दिन सासरै रैयी। परण्या पछै दूसण परणीजण री बात ठाकरां रै रास कोनी आवै अर वगत अर पाणी बराबरी मांय बेवै जिको बेवै ई है। जियां कै हिंदी फिल्मां मांय केई वेळा आपां देख्य चुक्या अर केई रचनावां मांय बांच चुक्या कै विधवा आपरै धणी री घणी हर करै, वा गैलपणै मांय सुहागण रो बेस धारण करै सिणगार करै। इण ढाळै री वातां विजय साथै ई उपन्यासकार दरसावै। उमर रै आधेड़ै पूगता पूगता सरीर बीमारियां रो घर हुय जावै।
‘बगत मुट्ठी में भींच्योड़ी रेत रै जियां कद निकळतौ ठा ही करणौ दोरौ। परकती री आपरी चाल है बी रै शतरंज में मोहरा खाली मरे नीं पण जीवण कड़ी होऒं कड़ी जुड़यौ बिना कीणी प्रायोजक रक चालतो रैवै। जीवण तौ खाली एक भींत है जके रै दोनां काअनी पेड़यां लाग्योड़ी है। एके खानी चढौ अर दूजौ कानी उतर ज्यौ। सगळा ई लेण में लाग्योड़ा है। सन 2000 तांई भींवसर घणौ बदळग्यो हौ। धड़ा तोल से बदळ ग्या हा। नीं बदळ्यो तो विजय रौ सुभाव। बिन रूक्यं बळती चिता अग्नी बीं नें मांये सूं बाळती रेती। बी रै पूरै शरीर माथै सळ पड़ ग्या हा। विजय रा केस एक धोळी चोटी रौ रूप ले लियो हो। देवीसिंह अबे पौळ आगै बेठौ हुक्को गुड़गुड़ावतो रेवतो हो।’ (पेज 109-110)
बीसवीं सदी रो बखाण करतो ओ बदळाव पीढियां रै बदळ’र जूनै रै जावण रो अर नवी रै आवण रो संकेत उपन्यासकार करै। घर सूं छूटी अर पीरै सूं इत्तै बरसां जुड़ण रो फळ सासरै मांय मिलै कै विजय रै हिस्सै-पांती मांय कीं नीं आवै। बा सांगवै पूग’र जाणै कै उण री दुनिया जिकी बरसां पैली लुटी ही अवै उण री राख ई लारै कोनी बची। स्सौ कीं भस्म हुयग्यो नवी सदी रै बदळावां मांय छळ-कपट कीं बेसी पांती आया। सांगवे आई विजय री तीसरी होळी ही अर बा इकोत्तर बरसां री हुयगी पण भींवसर सूं उण नै कोई संभाळी कोनी अर अठै उण री किणी नै कोई जरूरत ही ई कोनी। बा आपरै गुजर बरस तांई कचेड़ी तांई ई जावै पण राजकाज अर नियम-कायदा मांय उळझी दुनिया मांय उण रै पांती कीं नीं आवै। सज्जन सिंघ इत्तो सज्जन निकळै कै डोकरी विजय रा कूडै कागदां माथै दस्तखत करा’र जाणै उण रा प्राण ई ले लेवै कै बूढ़की दो टेम री रोटी सूं ई जावै। इण ढाळै सिंझ्या काळी-पीळी रात बण जावै।
सिंझ्या उपन्यास इण खातर खरो अर साचो मानीजैला कै इक्कीसवीं सदी रै इत्तै बरसां पछै ई मोकळी इसी जागावां अर घर-गवाड़ां मिलैला जठै केई केई विजय आपरै बिखै रा दिन कोढ दांई काट रैयी है। नुवी हवा अर नुवै जमानै मांय लुगाई नै बरोबर न्याय अर हक देवणियां साम्हीं ओ उपन्यास खुद एक सवाल है। जे इण उपन्यास सूं विजय ढाळै री किणी पण लुगाई खातर घर-परिवार का समाज आपरी दीठ मांय बदळाव लावैला तो इण री सफलता मानीजैला। सेवट मांय बस इत्तो ई कै उपन्यास कीं खामिया पछै ई आपरै प्रभाव मांय खामियां करता खासियता कीं बेसी राखै। छेकड़ला अध्यायां मांय लेखक रो कथारस मांय बांचणियां नै तर करणो उण री बात कैवण री कला कैय सकां जिकी असरदार लखावै। भासा अर बुणगट पेटै इण प्रयोग सूं राजस्थानी गद्य रै आकास नै अद्भुत विस्तार मिलैला।
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सिंझ्या (उपन्यास) अरविन्द सिंह आशिया
संस्करण- 2018, पाना- 128, मोल-150/-
प्रकाशक- बोधि प्रकाशन, जयपुर
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