Sunday, February 21, 2021

साहित्य मार्ग की सहयात्री- संजू श्रीमाली जी / डॉ. नीरज दइया



राजस्थान ही नहीं अगर हम भारतीय और वैश्विक स्तर पर भी बात करें तो महिलाएं अधिक कला-प्रेमी होने के उपरांत भी साहित्य में संख्यात्मक रूप से कम हैं। तुलनात्मक रूप से वे स्वयं सौंदर्य की प्रतिमूति कही गई हैं और उनकी दृष्टि निसंदेह देश-समाज और काल को देखने में पुरुष-दृष्टि से काफी भिन्न है। यह भी कहना उचित होगा कि स्त्रियां अधिक संवेदनशील होती हैं। आवश्यकता इस बात की है कि कला, सौंदर्य और संवेदना से परिपूर्ण यह वर्ग प्रथम कोटि में स्थान प्राप्त करे। साहित्य मार्ग की एक सक्रिय सहयात्री हैं- संजू श्रीमाली जी, जो विविध विधाओं में राजस्थानी और हिंदी दो भाषाओं में लगातार समान रूप से सक्रिय है।

हम कविता के विषय में अब भी कोई एक सर्वमान्य परिभाषा कुछ पंक्तियों में नहीं दे सकते हैं और यह भी रेखांकित किया जाता रहा है कि परिभाषा प्रत्येक दौर में परिवर्तनशील रहेगी। रचनाकार की अपनी अभिनव दृष्टि होती है और वह कविता ही नहीं साहित्य की विधाओं को और हर शब्द को भी अलग अलग समय अपनी दृष्टि से देखता अथवा कहें कि रचता है। कवयित्री संजू श्रीमाली जी के इस संग्रह में जीवन को देखने के साथ कुछ रचने का भाव भी प्रमुखता से देखा जा सकता है। यहां विचार के साथ सघन संवेदनाओं के बिंब हैं, जिनमें एक स्त्री का सुकोमल चेहरा झिलमिलता है। 

अपने आस-पास के जीवन और संबंधों को देखते-परखते हुए कवयित्री संजू श्रीमाली जी कहीं भी किसी पर कोई दोषारोपण नहीं करती हैं वे बस उन भावनाओं को कविता के माध्यम से हमारे अंतस में आकार देते हुए हमें विचारवान बनने का आह्वान करती हैं। कविता में बहुत कुछ कहे जाने के बाद भी अब भी बहुत कुछ अव्यक्त है, यह अव्यक्त को व्यक्त करने का एक प्रयास है।

कवयित्री संजू श्रीमाली जी की संवेदनशीलता है कि वे सामान्य जीवन स्थितियों में भी मर्म को उद्घाटित करने में सक्षम है। इस संग्रह में सर्वाधिक प्रभावित करने वाली बात इन कविताओं के रूप में किसी पूर्ववर्ती कवि के किसी चेहरा अथवा अंश का नहीं झांकना है। ये कविताएं स्वयं कवयित्री द्वारा निर्मित एक ऐसी काव्य-वीथी है जो अपनी भाषिक सरलता और सहजता से प्रभावित करती है। दुनिया की आधी आबादी के विषय को अधिक गंभीरता से देखने की आवश्यकता पर बल देती इन कविताओं का स्वागत है। संग्रह ‘खुला आसमां’ संजू श्रीमाली जी के एक संवेदनशील रचनाकार के साथ-साथ प्रयोगधर्मी कवयित्री होने का प्रमाण है।

 -      डॉ. नीरज दइया

Saturday, February 20, 2021

पुस्तक चर्चा / डॉ. श्रीलाल मोहता

 


कविताओं में ईश्वर की पहचान करवाने का उपक्रम

    हिंदी के सुप्रसिद्ध कवि, पत्रकार-संपादक, अनुवादक श्री सुधीर सक्सेना साहित्य में अपनी एक अलहदा पहचान रखते हैं। उनकी कविताओं का अपना एक अलग रंग-मिजाज है। उनके कविता संग्रह ‘ईश्वर : हां, नीं... तो’ में संग्रहित छत्तीस कविताओं को राजस्थानी के चर्चित हस्ताक्षर डॉ. नीरज दइया ने राजस्थानी में अनुसृजित किया है। किसी कविता का अनुसृजन बेहद कठिन कार्य होता है, किंतु नीरज दइया ने उसे एक चैलेंज के रूप में लिया है। उन्होंने हिंदी, पंजाबी, गुजराती और अन्य भारतीय भाषाओं से चयनित कवियों की चुनिंदा कविताओं का राजस्थानी में अनुसृजन ‘सबद-नाद’ में किया है। अनुसृजन और अनुवाद में किंचित अंतर होता है। अनुवाद में तो शब्द के समानांतर शब्द-शब्द अनुवादक रखता है किंतु अनुसृजन में शब्द के साथ-साथ उसकी भाव-भंगिमा का भी बहुत महत्त्व होता है। नीरज इस दृष्टि से एक सफल अनुसृजक है।
    इस संग्रह में सुधीर सक्सेना की विचार और दर्शनिक भाव-भंगिमाओं की कविताएं हैं। इन कविताओं में कवि और अनुसृजक जैसे ईश्वर की मानव जीवन की समस्याओं से उसके सामने खड़े होकर कभी तो किसी समस्या का प्रत्युत्तर मांगते हैं और कभी उस की लाचारी को प्रस्तुत करते हैं और कभी उसे बहुत तीखे शब्दों में उपालंभ देते हैं। संग्रह की प्रत्येक कविता के केंद्र में ईश्वर है। कविताओं से गुजरने के बाद पाठक को लगता है कि कवि ना तो आस्तिक है और ना ही नास्तिक। कविता संग्रह का शीर्षक ही जैन दर्शन के स्यादवाद का स्मरण करता है, इस दर्शन में अंध-हस्ति न्याय से एक हाथी की पहचान होती है कि हाथी ऐसा होता है। इसी प्रकार कवि का अपनी कविताओं में ईश्वर की पहचान करवाने का उपक्रम है। कविता संग्रह के शीर्षक से मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि ईश्वर है या नहीं है, इसके होने और नहीं होने के अनेक प्रसंग जो हमारे संसार से जुड़े हुए हैं, उनकी सूत्रात्मक व्याख्या इन कविताओं में हुई है। इसी प्रसंग के माध्यम से जीवन की वे सभी समस्याएं आ जाती हैं जो कवि को विचलित करती हैं। इस संग्रह में कवि मूल सुधीर सक्सेना और राजस्थानी अनुसृजक नीरज दइया को बहुत बहुत बधाई कि इस सुंदर समन्वय से राजस्थानी के पाठकों को एक नए कविता-परिदृश्य से परिचित होने का अवसर मिला है। पुस्तक को सूर्यप्रकाशन मंदिर बीकानेर ने प्रकाशित किया है।

- डॉ. श्रीलाल मोहता


 

पुस्तक चर्चा / डॉ. नीरज दइया

महानता के मुखौटों को उजागर करते धारदार व्यंग्य

हिंदी और राजस्थानी भाषा में विगत चालीस से भी अधिक वर्षों से समान रूप से लिखने वाले ख्यातिप्राप्त व्यंग्यकार बुलाकी शर्मा का तीसरा राजस्थानी व्यंग्य संग्रह ‘आपां महान’ अपने शैल्पिक और भाषिक प्रयोगों के कारण से उल्लेखनीय कहा जाएगा। भारतीय जनमानस में अपनी परंपरा की महानता को थामे रहने और वर्तमान समय में भी मूलभूत समस्याओं का जस के तस बने रहने पर शीर्षक रचना में करारा व्यंग्य किया गया है। संग्रह में व्यंग्य विधा के अंतर्गत विविध शैलियों को अजमाने का सुंदर सफल प्रयास किया गया है, जैसे- डायरी शैली में ‘म्हारी डायरी रा कीं टाळवां पानां’, प्रश्नोत्तर शैली में ‘खुद सूं मुठभेड़’, पत्र शैली में ‘मूड सूं लिखणियो लेखक’ तथा फंटेसी ‘सुरग में साहित्यिक सभा’ आदि रचनाएं साक्ष्य हैं। बुलाकी शर्मा के पात्रों की भाषा में जहां बीकानेर शहर की स्थानीयता है वहीं वे समग्र रूप से धाराप्रवाह कथारस से भरपूर भाषा द्वारा अपने पाठकों को बांधे रखने का हुनर रखते हैं।

संग्रह में कोरोनाकाल में लिखी रचनाओं में वर्तमान समय की त्रासदी और विद्रूपताओं को चिह्नित किया गया है तो अपने साहित्यिक अनुभवों से लक्ष्य वेधन करते समय स्वयं को भी नहीं छोड़ा है। किसी भी व्यंग्य की सफलता उसके लक्ष्यबद्ध होने में निहित होती है और बुलाकी शर्मा अपने लक्ष्य हेतु लक्षणा और व्यंजना का बखूबी प्रयोग करते हैं। ‘मदर्स-डे’ में आधुनिक जीवन शैली, ‘मींगणां री माळा’ में साहित्यकारों के दोहरे चरित्र को देखते हैं वहीं ‘कविता रो दफ्तर-टैम’ में लापरवाही के साथ व्यक्ति का मिथ्या अहंकार उभारा गया है। भाषा में सहजता के साथ वक्रता का निर्वहन करना हल्की हल्की चोट से व्यक्ति मन की व्याधियों का उपचार करने जैसा है।

संग्रह की सभी व्यंग्य रचनाओं में मूलतः मानव मन के विचित्र व्यवहार को केंद्र में रखते हुए वर्तमान समय की विसंगतियों के साथ हमारी कथनी-करनी के भेद के साथ पाखंड को प्रमुखता से उजागर किया गया है। अपनी मातृभाषा राजस्थानी की पैरवी करने वालों का रूप ‘मायड़ भासा रा साचा सपूत’ व्यंग्य में तथा पदलोलुपता को ‘करो लंका लूटण री त्यारी’ जैसी रचनाओं में प्रमुखता से रेखांकित किया गया है। बुलाकी शर्मा के पास बात बात में बहुत संजीदा ढंग से गहरी से गहरी बात को सामान्य ढंग से कह देने का हुनर है जो सतही तौर पर देखने में सरल प्रतीत होता है किंतु उसे साधना और बनाए रखना बहुत कठिन है। संग्रह के आरंभ में आलोचक कुंदन माली लिखते हैं- ‘समकालीन व्यंग्य परिवेश में बहुत लंबे समय के बाद बुलाकी शर्मा के व्यंग्य संग्रह का आना ताजा हवा का झोंका है, और इस सौरम का स्वागत है।’ संग्रह किताबगंज प्रकाशन गंगापुर सिटी से प्रकाशित हुआ है। 




Sunday, February 07, 2021

प्यास के मरुथल का इतिहास / डॉ. नीरज दइया

  • साक्षी रहे हो तुम (काव्य-कृति) डॉ. मंगत बादल
  • संस्करण :2020 ;  पृष्ठ : 80 ; मूल्य : 150/-
  • प्रकाशक : बोधि प्रकाशन, जयपुर

            मनुष्य-जीवन किसी तिलस्मी पहेली की भांति अनादिकाल से चुनौतीपूर्ण विषय रहा है। जीवन की महायात्रा कब से चल रही है? जीवन का गूढ़ रहस्य क्या है? इसके अनेक उतार-चढ़ाव और झंझावात हैं तो यह कितने यथार्थ और काल्पनिकता का मिश्रण है। सच-झूठ और सुख-दुख का लंबा इतिहास है फिर से यह मन किससे पूछे और यह पूछना भी कितना सार्थक है। निर्थकता के बीच असार जीवन में सार की दिशा हमें ज्ञात भी है अथवा हम अज्ञात दिशाओं में जीवन भर भ्रमित होते रहते हैं। ऐसी ही कुछ पृष्ठभूमि लिए और अपने पूरे विषय को गहना से समेटती हुई डॉ. मंगत बादल की यह काव्य-कृति- साक्षी रहे हो तुमअनुपम रचना है। इस में कवि ने अनंत जीवन के गूढ़ रहस्य को बहुत सधी हुई भाषा में जानने-समझने का पुनः पुनः काव्यात्मक उपक्रम किया है। इसे एक काव्य-प्रयोग कहना अधिक उचित होगा। आरंभिक पंक्तियां देखें-

            हे अनंत! हे काल!

            महाकाल हे!

            हे विराट!

            यह महायात्रा चल रही कब से

            नहीं है जिसका प्रारंभ

            मध्य और अंत

            केवल प्रवाह...

            प्रवाह!

             यह रचना इसी प्रवाह और निरंतर प्रवाह में स्वयं कवि के साथ अपने पाठकों को भी प्रवाहित और प्रभावित करते हुए चलती है। इसे एक संबोधन काव्य कहना उचित होगा। यह निसंदेह अनंत, काल, महाकाल और विराट को संबोधित है किंतु इन सभी के अंशी आत्म रूपा हमारी आत्मा को भी प्रकारांतर से संबोधित काव्य है। कवि ने ज्ञान, विज्ञान और इतिहास की विभिन्न अवधारणाओं का न केवल स्पर्श किया है वरन उन विराट अवधारणाओं को विराट रूप में ग्रहण करते हुए हमें इस संबंध में अनेक विकल्पों के साथ अपने उत्स के प्रश्न से जूझने और जानने की अकुलाहट-बेचैनी और गहन त्रासदी के भंवर में खड़े होने और खड़े रहने का आह्वान किया है। यह एक भांति से हमारा आत्म-साक्षात्कार है। इसमें प्रकृति के विविध अंगों-उपांगों में कवि के साथ पाठक भी अपने परिचय और पहचान को ढूंढ़ते हुए अपनी महायात्रा में उमड़ते हुए जैसे बरसने लगता है। इस महायात्रा के विषय में यह पंक्ति इसके विस्तार को जैसे शब्दबद्ध करतीं हुई भले हमारी गति के विषय में संदेह देती है किंतु विचार को एक दिशा देती है। यह रचना एक प्यास है और जो प्यास के मरुस्थल का इतिहास अपनी समग्रता-सहजता में अभिव्यक्त करती है।  

गगन, पावक, क्षिति, जल

और फिर

चलने लगे पवन उनचास

निःशब्द से शब्द

आत्म से अनात्म

सूक्ष्म से स्थूल

अदृश्य से दृश्य

भावन से विचार की ओर।

            निशब्द से शब्द, आत्म से अनात्म, सूक्ष्म से स्थूल, दृश्य से अदृश्य अथवा भावना से विचार का यह एक लंबा गीत है। पाठक प्रश्नाकुल होकर इस दिशा में विचार करने लगता है कि वास्तव में जीवन का रहस्य क्या है? आत्मीय स्पर्श से भरपूर यह एक कवि का आत्मा-संवाद है और इसमें कवि की स्थिति में पाठक का पहुंचना इसकी सार्थकता है। यह छोटे मुंह से बहुत बड़ा सवाल है कि पृथ्वी को गति कौन देता है? हमारी गति और पृथ्वी की गति के मध्य सापेक्षता के विषय में विचार होना चाहिए। असीम के बीच हमारी मानव जाति की सीमाओं के संबंध में यह भले नया विचार ना हो किंतु इस कठिन डगर पर चलना भी बेहद कठिन है। एक आदिम प्रश्न को लेकर उसको नई कविता के शिल्प में पाठकों को बांधते हुए निरंतर किसी दिशा में प्रवाहित होना अथवा प्रवाहित किए रखना एक कौशल है जिसे कवि डॉ. मंगत बादल की निजी उपलब्धि कहना होगा। कवि कहता है-

साक्षी रहे हो तुम

इन सब के होने के

पुनः लौट कर

बिंदु में सिंधु के

तुम ही तो हो

ब्रह्मा, स्रष्टा, प्रजापति, रचयिता

पालन कर्त्ता विष्णु

तुम ही आदिदेव

देवाधिदेव! शिव!

त्रिदेव! हे प्रणवाक्षर!

            यह एक प्रार्थना गीत भी है जो स्वयं की तलाश में जैसे भटकते भटकते कहीं पहुंचने को व्याकुल और आतुर है। हमारे धार्मिक मिथकों और विश्वासों के बीच अपने होने और न होने के विषय पर चिंतन करते हुए यहां कवि की निरंतर अभिलाषा अभिव्यक्त हुई है कि वह किसी बिंदु पर स्थिर हो जाए। अनेक बिंदुओं और अनेक धाराओं के बीच किसी एक दिशा में कोई कैसे प्रवाहित रह सकता है। प्रकृति के एक अंश के रूप में यह किसी अनाम और नाम के जाल में उलझे एक वनफूल का अपने पूरे रहस्यमयी पर्यावरण से प्रश्न है।

कौन है मेरे होने

या नहीं हूंगा तब

कारण दोनों का

साक्षी हो तुम, बोलो!

रहस्य पर पड़े आवरण खोलो!      

            यहां कर्म और भाग्य फल के साथ मनुष्य जीवन के अनेक स्मरण है जिसमें आत्मा और अनात्मा के बीच अस्थित्ववाद और चेतन-अचेतन के द्वारों को खटकाते हुए अनेक रंग बिखरे हुए हैं। यह अपने अर्थ को अर्थ की दीवारों की परिधि से बाहर झांकने का सबल प्रयास है।

आत्मा भी क्या

आकार कर धारण

शब्द का कहीं

बैठी है

अर्थ की दीवारों के पार?

            इस कृति की आत्मीयता और विशिष्टता का प्रमाण यह भी है कि कवि ने अध्ययन-मनन-चिंतन द्वारा विभिन्न अवधारणाओं से ना केवल परिचित करते हुए अपने द्वंद्व व्यंजित किए है वरन उन सब में हमारे भी प्रश्नाकुलित मन को शामिल किया है। यहां परंपरा और मिथकों की साक्षी में कर्म और भाग्य के अनेक प्रश्न बहुत सुंदर ढंग से प्रस्तुत हुए हैं। आत्मा-परमात्मा, विनाश-महाविनाश के बाद फिर-फिर जीवन की अवधारणा के विभिन्न स्तर यहां प्रभावित करने वाले हैं। आत्मा और शरीर के मध्य क्या और कैसा संबंध है इसकी झलक देखना जैसे कवि का एक उद्देश्य रहा है। यह पग-पग पर संदेह और भटकाव का अहसास भी है तो कुछ पाने की छटपटाहट भी, इसलिए कवि ने कहा है-

मृत्यु-भीत मानव का

बैद्धिक-विलास

कोरा वाग्जाल मृगजल...

या प्रयास यह उसे जानने का

समा गया जो

गर्भ में तुम्हारे

छटपटा रहा किंतु

मनुष्य के

ज्ञान के घेरों में आने को।

            जीवन और मृत्यु के दो छोरों के बीच यह गति अथवा किसी ठहराव, भटकन को उल्लेखित करती पूरी कविता जैसे नियति और जीवन को बारंबार परिभाषित करती है। यहां कवि की कामना है कि प्रत्येक जीवन अपने आप में परिपूर्ण और उद्देश्यपूर्ण हो।

            अस्तु यह कृति जाग और नींद के मध्य एक पुल निर्मित कर जड़ और चेतना के बीच बिलखती काव्य-आत्मा का ही प्रलाप और हाहाकार है। यह अपनी हद में अनहद की यात्रा है। यह प्रकाश और अंधकार के बीच अपनी नियति की तलाश है- अंधकार का अंश होना ही / क्या अंतिम नियति है मेरी?’ अथवा बदल जाएंगी भूमिकाएं / हम सब की / बदल जाएगा यह रंगमंच / नहीं बदलोगे केवल तुम!

            यह जीवन हमारा जागरण है अथवा पूरा जीवन ही एक निद्रा है। यह रहस्य वह सर्वज्ञ ही जानता है जिसने इस जटिल मार्ग पर चलने की कवि को प्रेरणा दी है। अकूत संभावनाओं से भरे इस पूरे इतिवृत्त को काल महाकाव्यके रूप में परिभाषित किया जा सकता है। हमारे रचयिता के संबंध में यह एकालाप अथवा प्रलाप मनुष्यको जानने-समझने का अनूठा उपक्रम है। किसी तयशुदा निकस पर कवि हमें नहीं ले कर जाता वरन वह जीवन के रहस्य को पहचानने का अलग अलग बिंदुओं दृष्टिकोणों से आह्वान करता है। इस रूप में यह काव्य-रचना एक आह्वान-गीत भी है कि हम स्वयं को जाने, हम क्या हैं? इसका पाठ अपने आत्म और उत्स के अनेक आयामों को खोजना और सांसारिक सत्यों के साथ आत्म-साक्षात्कार करना तो है ही, साथ ही साथ जन्म-मरण और पुनर्जन्म की अबूझ पहेली में उतराना-डूबना, फिर-फिर उतराना-डूबना भी है। निसंदेह यह रचना दीर्घ कविता के क्षेत्र में अपनी विषय-वस्तु, शिल्प-संरचना और भाषा-पक्ष के लिए लंबे समय तक एक उपलब्धि के रूप में स्मरण की जाएगी।



Saturday, February 06, 2021

पुस्तक चर्चा / डॉ. नीरज दइया

साहित्य और समाज के दोहरे चरित्रों को खोलते व्यंग्य

व्यंग्य विधा में देशव्यापी पहचान बनाने वाले व्यंग्यकारों में राजस्थान से बुलाकी शर्मा का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। उनका सद्य प्रकाशित दसवां व्यंग्य संग्रह ‘पांचवां कबीर’ साहित्य और समाज के दोहरे चरित्रों को खोलते हुए व्यंग्य-बाणों से भरपूर प्रहार करने में समर्थ है। साहित्य और साहित्यकारों पर केंद्रित शीर्षक व्यंग्य में साहित्यिक नामों की फतवेबाजी से हो रही पतनशीलता के साथ दोहरे चरित्रों को केंद्र में रखते हुए निशाना साधा गया है। व्यंग्य का अंश है- ‘अगले सप्ताह ही तुम्हारी पुस्तक पर मैं स्वयं चर्चा रखवाता हूं। अपने खर्चे पर। कबीर तो बिचारे राष्ट्रीय कवि हैं। तुम्हारी प्रतिभा अंतरराष्ट्रीय है। इसलिए मैं तुम्हें शहर का इकलौता कवि कीट्स अवतरित करके अंतरराष्ट्रीय कवि स्थापित कर दूंगा। अब तो गुस्सा छोड़ो।’ व्यंग्यकार बुलाकी शर्मा स्थितियों का चित्रण करते हुए बहुत कुछ अनकहा भी अपने पाठकों तक पहुंचाने में जैसे सिद्धहस्त है।
बुलाकी शर्मा के व्यंग्यों में सर्वाधिक उल्लेखनीय भाषा-शैली है। वे किसी भी तथ्य, बिंदु, छोटे से समाचार अथवा घटना को कहानी के रूप में बतरस के साथ कहन-कौशल रखते हैं। साधारण से असाधारण और असाधारण से साधारण स्थितियों में व्यंग्य खोजना और उनमें अपने पाठकों को ऐसे प्रवेश कराते हैं कि आश्चर्यचकित करते हैं। ‘पिता की फ्रेंड रिक्वेट’ में आधुनिक समय की त्रासदी को जिस ढंग से फेसबुक मित्रता आग्रह के एक छोटे से प्रसंग से कथात्मक रूप से संजोया है वह अपने आप में असाधारण व्यंग्य इस लिहाज से बनता है कि आज उत्तर आधुनिकता के समय पीढ़ियों का अंतराल, सभ्यता और संस्कार सभी कुछ उनके व्यंग्य से पाठक के सामने केंद्र में आकर खड़े हो जाते हैं। व्यंग्यकार का सबसे बड़ा कौशल यही होता है कि वह अपना निशाना साधते हुए ऐसे पर्खचे उड़ाए कि जब तक पाठक उस अहसास और अनुभूति तक पहुंचे तो उसे भान हो जाए कि बड़ा धमाका हो चुका है। उसे कुछ करना है, यह कुछ करने का अहसास करना ही व्यंग्य की सफलता है। व्यंग्यकार शर्मा के लिए व्यंग्य हमारे समय की विद्रूपताओं को रेखांकित करते हुआ मानव मन में बदलावों के बीजों को अंकुरित करने का एक माध्यम है।
संग्रह ‘पांचवां कबीर’ में आकार की दृष्टि से छोटे, बड़े और मध्यम सभी प्रकार की व्यंग्य रचनाएं संकलित हुई हैं, वहीं अंतिम व्यंग्य ‘मेरी डायरी के कुछ चुनिंदा पृष्ठ’ स्वयं लेखक द्वारा राजस्थानी भाषा से अनूदित रचना है। बुलाकी शर्मा की प्रस्तुत कृति में कोरोना काल से जुड़े कुछ व्यंग्य हैं, तो समकालीन राजनीति-साहित्य समाज को भी इसमें सीधा-सीधा निशाने पर लिया गया है। अखबारों में कॉलम के रूप में लिखे जाने व्यंग्य अपनी तात्कालिकता और समसामियता के कारण समयोपरांत वह असर नहीं छोड़ते हैं जो उसके लिखे जाने के वक्त रहा होता है। जाहिर है बुलाकी शर्मा के इस व्यंग्य संग्रह में कुछ ऐसे व्यंग्य भी हैं जिनमें स्थानीयता और तात्कालिक स्थितियां हावी हैं। यह सुरुचिपूर्ण बेहद पठनीय संग्रह को इंडिया नेटबुक्स नौएडा ने प्रकाशित किया है।
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आभार : श्री सुभाष राय जी, श्री बुलाकी शर्मा जी

डॉ. नीरज दइया की प्रकाशित पुस्तकें :

हिंदी में-

कविता संग्रह : उचटी हुई नींद (2013), रक्त में घुली हुई भाषा (चयन और भाषांतरण- डॉ. मदन गोपाल लढ़ा) 2020
साक्षात्कर : सृजन-संवाद (2020)
व्यंग्य संग्रह : पंच काका के जेबी बच्चे (2017), टांय-टांय फिस्स (2017)
आलोचना पुस्तकें : बुलाकी शर्मा के सृजन-सरोकार (2017), मधु आचार्य ‘आशावादी’ के सृजन-सरोकार (2017), कागद की कविताई (2018), राजस्थानी साहित्य का समकाल (2020)
संपादित पुस्तकें : आधुनिक लघुकथाएं, राजस्थानी कहानी का वर्तमान, 101 राजस्थानी कहानियां, नन्द जी से हथाई (साक्षात्कार)
अनूदित पुस्तकें : मोहन आलोक का कविता संग्रह ग-गीत और मधु आचार्य ‘आशावादी’ का उपन्यास, रेत में नहाया है मन (राजस्थानी के 51 कवियों की चयनित कविताओं का अनुवाद)
शोध-ग्रंथ : निर्मल वर्मा के कथा साहित्य में आधुनिकता बोध
अंग्रेजी में : Language Fused In Blood (Dr. Neeraj Daiya) Translated by Rajni Chhabra 2018

राजस्थानी में-

कविता संग्रह : साख (1997), देसूंटो (2000), पाछो कुण आसी (2015)
आलोचना पुस्तकें : आलोचना रै आंगणै(2011) , बिना हासलपाई (2014), आंगळी-सीध (2020)
लघुकथा संग्रह : भोर सूं आथण तांई (1989)
बालकथा संग्रह : जादू रो पेन (2012)
संपादित पुस्तकें : मंडाण (51 युवा कवियों की कविताएं), मोहन आलोक री कहाणियां, कन्हैयालाल भाटी री कहाणियां, देवकिशन राजपुरोहित री टाळवीं कहाणियां
अनूदित पुस्तकें : निर्मल वर्मा और ओम गोस्वामी के कहानी संग्रह ; भोलाभाई पटेल का यात्रा-वृतांत ; अमृता प्रीतम का कविता संग्रह ; नंदकिशोर आचार्य, सुधीर सक्सेना और संजीव कुमार की चयनित कविताओं का संचयन-अनुवाद और ‘सबद नाद’ (भारतीय भाषाओं की कविताओं का संग्रह)

नेगचार 48

नेगचार 48
संपादक - नीरज दइया

स्मृति में यह संचयन "नेगचार"

स्मृति में यह संचयन "नेगचार"
श्री सांवर दइया; 10 अक्टूबर,1948 - 30 जुलाई,1992

डॉ. नीरज दइया (1968)
© Dr. Neeraj Daiya. Powered by Blogger.

आंगळी-सीध

आलोचना रै आंगणै

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