Monday, October 10, 2022

असैंधी गळी री सुवास / डॉ. अर्जुन देव चारण

 गळी जिसी गळी। लोगां जिसा लोग। आदतां जिसी आदतां। बासती पड़ी हुवै तो माथै आली घास न्हाखणी। सावळ बळै तो लोगां रो जी सोरो हुवै अर किणी रो जी सोरो आपां सूं देखीजै कोनी। इण खातर धूंवो करणो आपां रो धरम। धूंवे सूं धांसी आवै। आंख्यां में पाणी आवै। बळत लागै। गळे में खरास लखावै। औ सो कीं देखर आपां नै मजो आवै।

          मिनख रै मन री थाह लेवती अै ओळियां सांवर दइया री चावी कहाणी 'गळी जिसी गळीरी है। सांवर स्यात् राजस्थानी रो पैलो कहाणीकार है जको कहाणी में मिनख रै मन नै समझण सारूं आफलै। सांवर दइया खुद कहाणियां में कम सूं कम बोलै। वरणन रै खिलाफ ऊभो औ रचनाकार राजस्थानी कहाणी नै अेक नुंवी सैली अर अेक नुंवी जमीन दी। सांवर रो पूरो जोर वरणन री ठौड़ दरसाव नै पकड़ण माथै रैवै। आपरी कहाणियां में वो इण चतुराई सूं परिवेस नै रचै कै पूरो परिवेस ई कहाणी बण जावै।

          जे कोई राजस्थान रै स्कूलां रा हालात जांणणी चावै तौ उणनै अठी उठी जावण री बजाय सांवर दइया री अै कहाणियां बांचणी चाइजै जकी सांवर मास्टरां रै चरित नै बखाणण सारू लिखी। स्यात् अै हालात पूरे देस री सिक्सा व्यवस्था रा होवे पण सांवर दइया जद कहाणी लिखै तौ पक्कायत रूप सूं वे आपरी जमीन सूं जुडऩै ईज लिखै। अेक जैड़ी कहाणियां समाज रो भविस् बणावणिया ठेकेदारां री असलियत परगट करै वांरौ कहाणी संग्रै 'अेक दुनिया म्हारी’ (1984) तो पूरो स्कूल रै आखती पाखती घूमै। अै कहाणियां सांवर रै अन्तद्र्वन्द्व री कहाणियां है। वे खुद भणाई रै महकमै सूं जुडिय़ोड़ा हा अर इण सारूं जद वे आपरा सपना अर जथारथ रै बिच्चै पसरियोड़ो सुन्याड़ नै देखता तद वांरो रचनाकार मन अैड़ी कहाणियां रचण लागतो। 'अेक दुनिया म्हारीरो समरपण लिखता वे लिखै —

          वी दिन नांव

          जद आपणी स्कूलां 'शिक्षा मन्दिरबणसी

          अर / शिक्षक श्री गज्जूभाई दांई 'मूंछाळी मां

          वी रात रै नांव

          जद म्हनै अै काळा सपना आया

          अर / म्हंै अै कूड़ी कथावां लिखी।

          बी घड़ी रै नांव

          जद अंधारो छंटसी

          अर / आस्था रो उजास पसरसी।’’

          औ समरपण सांवर री पीड़ परगट करै। इणमें उणरो खुद सूं जूंझणौ बोलै, इण जथारथ नै मांडता थकां ई वो अेक 'आदर्सरी तलास में है। अै कहाणियां उणरै आदर्स अर जथारथ रै संघर्स सूं उपजियोड़ी है। आं में पात्र दूजां रै मिस खुद सूं ई जूंझ रैया है। आ लड़ाई पूरी व्यवस्था  नै बदळण री है।

'पण साब! आ बात तो मास्टरां नै सोभा देवै है नीं कै वै आपरो पढावण रो काम छोडर गळी-गळी खुरिया रगड़ता फिरै। घर-घर जायर डांगरा गिणै, रासन कार्ड बणावै... घरां माथै नम्बर लगावै... अैई काम जे आपनै भोळावै तो आप कर देवो कांई साब?’                               (अेक दुनिया म्हारी-पेज 50)

          अै सवाल जथारथ सूं आदर्स रा पूछियोड़ा सवाल है, पण दुख इण बात रो है कै औ 'आदर्सअेकलो पडिय़ोड़ो है। उणरै इण संघर्स में कोई उणरै साथै नीं है...

          '...म्हैं तो हाल ई कैवूं कै औ काम मास्टरां रो कोनी। आं फालतू कामां खातर म्हे कोनी। आपणो काम टाबरां नै भणावणो है। आपां नै आं फालतू कामां रो विरोध करणो चाइजै।

          पण बीं रै साथै विरोध करण नै लोग तैयार कोनी हा। अैड़ो लागै हो जांणै रीस खाली बीं रै मांय ई भरियोड़ी है।      (अेक दुनिया म्हारी - पेज 51)

          कहाणीकार री पीड़ा आ ई है कै इण सड़ती गिधावती व्यवस्था रै खिलाफ कोई क्यूं नीं बोल रैयो है। अै कहाणियां पाठकां नै जगावण री कहाणियां है। स्यात् इणी सारूं वो घड़ी-घड़ी अैड़ी कहाणियां लिखी। केई लोगां नै औ लाग सकै कै सांवर अेक ई बात नै घड़ी-घड़ी कैई-अैड़ो क्यूं? इणरो कारण फगत औई हो कै वो पाठक री चेतना नै जगावणी चावतो अर उणनै ठा हो कै जुगां-जुगां सूं सूतो औ समाज अेक बार कैयां सूं नीं जागैला, सांवर री अै कहाणियां आस्था रै उजास अर टाबर री कंवळास नै बचावण री अरदास करती लागै —

          हां तो सुणो भाई बांचणिया।

          आ सच्ची बात जिसी सच्ची बात। अैस्कूलां जिसी स्कूलां। अर छोरा जिसा छोरा। ठौड़-ठौड़ चमचेड़ां जिसी चमचेड़ां... कैपसूल जिसा कैपसूल... आक्टोपस जिसा ऑक्टोपस...

          आं री जकड़ में है कंवळी सांसा जिसी कंवली सांसा, नुवां सपना जिसा नुंवा सपना... चौफेर फैलतो औ रोग जिसो रोग।

है थां कनै कोई इलाज जिसो इलाज? हुवै तौ बताया म्हनै ई।

(पोथी जिसी पोथी - पेज 68)

          सांवर दइया रा कुल पांच कहाणी संग्रै छपियोड़ा है। 'असवाड़ै-पसवाड़ै, धरती कद तांई घूमैली, अेक दुनिया म्हारी, अेक ही जिल्दी में अर पोथी जिसी पोथी।अै संकलन सांवर रै कहाणी खेतर रै पसराव नै परगट करै। वंारै अठै स्कूली जीवन री कहाणियां तो है ई पण उणरै अलावा रिस्तां रै बीच आयोड़ी कड़वास, मरद अर लुगाई रा सम्बन्ध, सामाजिक कुरीतियां ई आंरी कहाणियां रो हिस्सो बणियोड़ी है। आं कहाणियां रा पात्र सामाजिक दबावां नै झेलता लाचार पात्र है तो जृूंंझण री खिमता धारण करियोड़ा जुंझारू पात्र ई। 'मुआवजो’, 'सुळती भीतां’, 'सुरंग सूूं बारैया 'जूंझती जिन्दगाणीअैड़ी ई कीं कहाणियां है जिणमें मिनख री लाचारी अर जूंझ रा धरातल साफ-साफ दीखै।

          'म्हनैं लखायो कै ओळा पड़ रैया है। सगळो घर ओळां सूं भरीजग्यो है। च्यारूंमेर बरफ ई बरफ जमगी है। म्हारो खून जम रैयो है। डील री सेंग नाड़ा में सून वापर रैयी है।                      

(अेक ही जिल्द में-पेज 97)

          आ सून्याड़ समाज में चोफैर पसरियोड़ी है। सांवर री कहाणियां राजस्थानी कहाणी रै खेतर में इणी सारू अेक छलांग लागै कै अठै आपरै बगत रो प्रतम दीखै। मध्यमवर्गीय परिवार री अबखायां, वांरी र्ईच्छावां, वांरो स्वार्थीपणो स्सै आं कहाणियां में परगट होवै। आं कहाणियां में परिवेस रै रूप में बगत रो बोलणौ-सुणीजै। आं कहाणियां रा पात्र बगत  रै दबाव नै झेलता बगत सूं आगे निकळ जावण री हूंस सूं भरियोड़ा लागै —

'नई, म्हनै अबै ई अंधारी अर अंतहीण सुरंग में नई रैवणो चाइजै। अठै अमूजो है..., अंधारो है... ठोकरां है। कांई मिल्यो म्हनै अठै? आज तांई जिकी भूल हुई बा हुई। जे अबै ईआ नई चेत्यो तो पछे औ जीवण नरक बणतां जेज नीं लागैला। नरक सूं घाट तो अबार ई कोनी, पण आंख खुलै जद ई दिन ऊग्यो समझो नीं।’’

(अेक ही जिल्द में-पेज 35)

          स्वारथ री आपाधापी में लीर-लीर होवता तनु रिस्तां नैं अै कहाणियां छांनै-छांनै पकड़ै। इणी सारूं वां रिस्ता नै घेरियां ऊभो दोगलापणो पाठक नै साफ-साफ दीखै। रिस्ता बणाया राखण री कोसिस में लागोड़ा पात्रां नै आर्थिक अर मानसिक स्तर माथै तकलीफां भोगणी पड़ै। वे आपरी इण तकलीफ रो कारण जाणे है अर चावै कै कीं करियां अै रिस्तां आपरै अबोट रूप में बचियोड़ा रैवै पण कांई किणी अेक रै कीं करिया स्वारथ रा घेरा बिखरै —

          'पत्तो नी कांई हुयो कै म्हनै च्यारूंमेर अंधारो निजर आवण लाग्यो। म्हनै लखावतो कै सै लोग कीं कीं बदळ रैया है। मां, बाप अर भायां री बात ई कांई कैवूं। बे तो सुरु सूं ई हुवतां थकां ई नीं हुवण रै बरोबर हा। पण म्हारी लुगाई, जिणनै म्हैं जी जान सूं बत्ती चावतो हो, बा तकात बदळयोड़ी लखायी।

(धरती कद तांई घूमैली-पेज 80)

          'अचाणचक वी री आंख्यां आगै घरवाळा रा चेहरा घूमण लाग्या। वे सैंग चेहरा उदेई में बदळग्या अर ठीक उणी बगत बींनै खुद रो चेहरो ई उदेई रै ढिगलै में बदळयोड़ो दिस्यो। घर री भीतां धुड़ती सी दीखी।

(धरती कद तांई घूमैली-पेज 91)

          अचाणचक बीं नै लखायो कै वो लम्बे अरसै सूं ल्हासां ढोय रैयो है। जीतवी जागती ल्हासां... चालती-फिरती ल्हासां... अर बी री दीठ सामै कई चेहरा घूमण लागा... वे जीवती ल्हासां भख मांगै ही, लावो... लावो... लावो...

(धरती कद तांई घूमैली-पेज 94)

          अैड़ी अबखी दुनिया में जीवण नै विवस आं पात्रां रै साम्ही तद ई आपरा ध्येय निस्चित है। वांनै ठा है कै वे साम्हलै री लूट रा सिकार है। रिस्ता री व्यर्थता वांरी आंखियां आगै उघड़ चुकी है। पण तो ई वे आपरी जिद नीं छोड़ै। आ जिद दुनिया नै बचाया राखण री जिद है। औ व्यवहार पात्र रो खुद नै ओळखणो है। औ ओळखणो अेक आदर्स नै जलम देवै पण बिना इण हूंस अर हिम्मत रै आ दुनियां आपरो अस्तित्व नी बचाय सकै। इणी सारू औ आदर्स अेक सनातन साच में बदळ जावै अर पाठक उण साच रै साथै ऊभो दीखै। स्यात् इणी कारण वो जथारथ ई लागे...

'म्हनै साफ-साफ लखावै-आ लड़ाई है। आ लड़ाई म्हनैं ई लड़णी है। लड़णी है जणा पूरै दमखम सूं क्यूं नीं लडूं। म्हारी आंगळियां तेजी सूं चालण लागै-खट्, खट्, खटाक्... खट्, खट्, खटाक्...

(अेक ही जिल्द में-पेज 45)

          'अगलै दिन सीता आपरै दो च्यार पूर-पल्लां री गांठड़ी बांधर अंधारै मूंडै घर सूं निकळगी। अबार बी री आंख्यां आगै अर ना ई बी नै धरती आभै बिच्चै अमूजो लखायो।

          आज आभो अणंत हो। धरती घणीज बड़ी ही। बो रस्तो घणो ई चवड़ो हो। जिकै माथै बा टुरी ही। अर सैं नाऊं बड़ी बात आ ही कै बीं रैं च्यारूंमेर खुली हवा ही।                           (धरती कद तांई घूमैली-पेज 100)

          सांवर नै कहाणी रै बदळतै सरूप री ओळख है। वो राजस्थानी कहाणी री सीवां अर संभावनावां नै जाणण वाळो कहाणीकार है। 'धरती कद तांई घूमैलीरी भूमिका मांडतो वो लिखै —

          'पण अबै बे दिन कोनी रैया कै राजस्थानी कहाणी (किणी भी विधा) रो दायरो इत्तो छोटो राखर बात करी जावै... बीं नै आंकी परखी जावै। आंकण परखण री बगत तो देसी-विदेसी भासावां री कहाणी जातरां सूं जुड़णो ई पड़सी। बां सूं जुड़ण रो मतलब औ कोनी कै बां रा खोज दावण लागां, का वां रै देखा-देखी खोड़ खुड़ावण लागां। वां सूं जुड़ण रो मतलब इतो ई है कै बठै अे बदळाव क्यूं अर कियां हुया-इणरी इतिहासू समझ विगसावां। दूजां री दुनियां सूं जुड़णो इण कारण भी जरूरी कै आज दुनिया भोत छोटी हुयगी। छोटी हुयोड़ी दुनिया में आपां कित्ता छोटा हुयर रैसां? बाकि आपणी जमीन, हवा अर पाणी सूं कटर रैवण री बात म्हैं नीं कर रैयौ हूं। बीं सूं कट्यां पछै तो लारै रैसी ई कांई? बीं सूं जुड़र दूजां सूं जुडूं जणां ई म्हारै काम री सारथकता है।

          आपरै इण सोच नै सांवर आपरी कहाणियां में परोटै। वे कहाणियां इणी सारूं 'न्यारीहोवता थकां ई परम्परा रो हिस्सो लागै। औ जुड़ाव रो भाव अंडर करेन्ट रै रूप में सांवर री सगळी कहाणियां में दीखै। वां री तो पीड़ा ई आ है कै औ जुड़ाव धीरे-धीरे अलोप होवतो जाय रैयो है। बदळाव रो सरूप वांरी कहाणी री सुरूआत में ई परगट होयजावै। कहाणी सरू होवता ई कहाणीकार जाणै किणी रहस लोक री सिरजणा करै है। औरा तरीको परम्परागत रूप सूं जुदा होंवता थकां ई पाठक नै आपरै साथै बाधियोड़ौ राखै।

          'खून लगोलग बैवतो ई जा रैयो है। बार-बार कपड़ै री पाट्यां बदळणी पड़ती। नुंवी पाटी थोड़ीज ताळ पछै पाछी खून सूं लाल हुय जावती। सगळां रा चेहरा धौळा हुवण लागग्या हा।             (धरती कद तांई घूमैली-पेज 29)

          'तकियै नैं हाल तांई मुट्ढयां में भींच राख्यो है। जदपि अबै पैलां आळी स्थिति कोनी। जिकै तूफान रै आवण रो डर हो, बो निकळ चुक्यो हो। बीं बगत कमरे री छात कांपर पड़ती-सी लागी। भींतां भी हालती-सी लागी। तूफान आयो, भींतां रै सागै छात पडग़ी। मळबो हटार फैंक दियो। अबै सब बातां ठीक है। जो कीं भी हुवणो हो, हुय चुक्यो।      (धरती कद तांई घूमैली-पेज 29)

          'इत्ती मोटी दुनिया, मोटी दुनिया रो मोटो देस। मोटै देस रो मोटो प्रान्त, मोटो प्रान्त रो मोटो सैर। मोटै सैर री मोटी तहसील। मोटी तहसील री मोटी स्कूल मोटी स्कूल रो मोटो इन्तजाम। मोटो इन्तजाम अेक आदमी रै बूतै परबारो, इण खातर राज थरप्या बठै दो हैडमास्टर। अेक मोटो हैडमास्टर, दूजो छोटो हैडमास्टर।

(अेक दुनिया म्हारी-पेज 27)

          'ओफ्फ! आ तो बेजां हुई नीं। म्हैं थांरो नांव ई भूलग्यो। पण खेरसल्ला, नांव में कांई पड्यो है। अर थांररे अेक नांव थोड़ी है। असल में तो थांरो कोई नांव ई कोनी। थे तो रंग-रूप आकार विहूणा हो। थे आंख्यां सूं दिखो कोनी, पण तो ई म्हांरे बिच्चै चोइसूं घंटा मौजूद लाधा।’’          (अेक ही जिल्द में-पेज 75)

          व्यंग्य करण री तो अद्भुत खिमता है सांवर में। वांरी घणकरी कहाणियां अर खासकर संवाद सैली में लिखियोड़ी सगळी कहाणियां फगत दो चीजां रै मेळ माथै ऊभी है अेक व्यंग्य अर दूजी नाटकीयता। व्यंग्य अर नाटकीयता नै अेक साथै साधणो घणो अबखो काम है। औ अबखो काम सांवर दइया आपरी कहाणियां में करै। तो सुणो भाई वांचणिया औ कैवणौ उणी नाटकीयता रो हिस्सो है। अेक रूप में तो अठै कहाणीकार आपरी परम्परा में छिपियोड़ै उणी हांकारै वाळै नै सोध रैयौ है जकौ राजस्थानी लोक कथावां रो जरूरी हिस्सो बणियोड़ो है। इण रूप सांवर आपरी परम्परा नै ईज पाछी उथैलै। आ नाटकीयता अेक प्रस्तुती रो रूप धारण कर लेवै अर कहाणी 'नाट्यमें ढळण लागै। औ कहाणीकार रो लगायोड़ो लास्ट स्ट्रोक है जठै सूं कहाणी आपरा अरथ खोलण लागै अर अेक री पीड़ पूरी समस्टि नै आपरै घेरे में लेय लेवै। अठै पूगियां पाठक नै चांणचक लागै कै वो अबार तांई जिणनै बंतळ या हथाई जांणतो हो वा गैरै अरथा में उणरी पीड़ ईज है, अर आईज आं कहाणियां री विसेसता है।

 


परिचय
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श्री सांवर दइया (1948-1992)
जलम : 10 अक्टूबर, 1948 बीकानेर
निधन : 31 जुलाई, 1992 बीकानेर
आधुनिक राजस्थानी साहित्य के प्रमुख हस्ताक्षर। राजस्थानी कहानी को नूतन धारा एवं प्रवाह देने वाले सशक्त कथाकार। राजस्थानी काव्य में जापानी हाइकू का प्रारम्भ करने वाले कवि। राजस्थानी भाषा में व्यंग्य को विद्या के रूप में प्रतिष्ठित करने वाले व्यंग्य लेखक। विविध विद्याओं में 18 से अधिक कृतियों का प्रणयन।
भणाई : एम. ए., बी. एड., गुजराती भाषा मांय डिप्लोमो
कहाणी संग्रै-
1. असवाड़ै-पसवाड़ै 1975
2. धरती कद तांई घूमैली 1980 : राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी, बीकानेर सूं गद्य पुरस्कार
3. एक दुनिया म्हारी 1984 : साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली सूं सर्वोच्चय पुरस्कार
4. एक दुनिया मेरी भी : एक दुनिया म्हारी रो हिंदी अनुवाद, साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली सूं प्रकाशित
5. एक ही जिल्द में 1987
6. पोथी जिसी पोथी (निधनोपरांत)
7. छोटा-छोटा सुख-दुख (प्रेस मांय)
8. उकरास (संपादन) 1991 राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी, बीकानेर रो प्रतिनिधि कहाणी संकलन, स्नातक पाठ्यक्रम री पोथी बरसां सूं
अनेक कहानियों के गुजराती, मराठी, तमिल, अंग्रेजी आदि भाषाओं में अनुवाद।
व्यंग्य संग्रै-
1. इक्यावन व्यंग्य (निधनोपरांत)
कविता संग्रै-
1. मनगत (लघु कवितावां) 1976
2. काल अर आज रै बिच्चै 1977 & 1982
3. आखर री औकात (हाइकू संग्रै) 1983
4. आखर री आंख सूं 1988 & 1990
5. हुवै रंग हजार (निधनोपरांत) राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी, बीकानेर सूं “गणेशीलाल व्यास उस्ताद” पद्य पुरस्कृत 1993
6. आ सदी मिजळी मरै (निधनोपरांत) पंचलड़ी कवितावां
अनुवाद-
1. स्टेच्यू (अनुवाद) अनिल जोशी रै गुजराती निंबंधां रो राजस्थानी उल्थो साहित्य अकादेमी सूं प्रकाशित 2000 (निधनोपरांत)
हिंदी में कविता संग्रै-
1. दर्द के दस्तावेज (ग़ज़ल संग्रह)
2. उस दुनिया की सैर के बाद (निधनोपरांत) 1995
हिंदी में बाल साहित्य-
1. एक फूल गुलाब का 1988
पुरस्कार-
1. नगर विकास न्यास, बीकानेर कांनी सूं टैस्सीटोरी गद्य पुरस्कार
2. राजस्थान साहित्य अकादमी(संगम), उदयपुर
3. मारवाड़ी सम्मेलन, मुम्बई
4. राजस्थानी ग्रेजुएट्स नेशनल सर्विस एसोसियेशन, मुम्बई
5. राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी, बीकानेर सूं “गणेशीलाल व्यास उस्ताद” पद्य पुरस्कार
6. केंद्रीय साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली 1985
अन्य : डेकन कॉलेज, पूना सूं गुजराती भाषा मांय डिप्लोमो ई कर्‌यो नै केई रचनावां रो राजस्थानी, हिंदी अर गुजराती अनुवाद ई घणो चावो रैयो। शिक्षाविद्‌ रै रूप मांय केई शैक्षिक आलेख ई लिख्या।
जिया-जूण : शिक्षा विभाग मांय शिक्षक रै रूप मांय काम करता थकां व्याख्याता (हिंदी), प्रधानाध्यापक पछै जीवण रै लारलै बरसां शिक्षा निदेशालय प्राथमिक एवं माध्यमिक शिक्षा विभाग रै प्रकाशन अनुभाग मांय उपजिला शिक्षा अधिकारी, संपादक- शिविरा (मासिक) अर नया शिक्षक (त्रैमासिक) पद माथै रैवतां फगत 44 बरस री उमर मांय सरगवास ।

Tuesday, August 02, 2022

सृजन कुंज का राजस्थानी कविता विशेषांक

 बीकानेर/ 31 जुलाई/ सुपरिचित कवि-आलोचक डॉ. नीरज दइया के अतिथि सम्पादन में प्रकाशित ‘सृजन कुंज’ के राजस्थानी कविता विशेषांक का लोकार्पण राजस्थान राज्य अभिलेखागार बीकानेर में किया गया। लोकार्पण  पुरातत्व एवं संग्रहालय विभाग राजस्थान जयपुर तथा राजस्थान राज्य अभिलेखागार के निदेशक डॉ. महेंद्र खड़गावत, प्रसिद्ध इतिहासकार प्रो. शिवकुमार भनोत, प्रख्यात साहित्यकार बुलाकी शर्मा ने किया।
निदेशक डॉ. महेन्द्र खड़गावत आई.ए.एस. ने कहा कि राजस्थानी कविता का इतिहास बहुत उज्ज्वल रहा है और सृजन कुंज का यह अंक राजस्थानी की आधुनिक कविता का एक सम्यक दस्तावेज प्रस्तुत करता है। अतिथि संपादक कवि-आलोचक डॉ. नीरज दइया के संपादन में प्रकाशित इस अंक के माध्याम से हिंदी के विशाल पाठक वर्ग तक राजस्थानी कविता पहुंच सकेगी।
प्रसिद्ध इतिहासकार प्रो. शिवकुमार भनोत ने कहा कि वर्तमान के राजस्थान को जानने-समझने का यह राजस्थानी कवितांक एक झरोखा है, जिसमें विभिन्न कवियों की कविताओं और विद्वानों के आलेखों द्वारा बदलते हुए राजस्थान के सांस्कृतिक और साहित्यिक परिवेश का सुंदर अंकन हुआ है।
साहित्यकार बुलाकी शर्मा ने कहा कि सृजन कुंज के संपादक डॉ. कृष्ण कुमार आशु और अतिथि संपादक डॉ. नीरज दइया के अथक प्रयासों से इस अंक में राजस्थानी के सभी महत्त्वपूर्ण कवियों की रचनाओं को स्थान मिला है वहीं समग्र कविता-यात्रा पर विभिन्न आलेखों के माध्यम से सुंदर आकलन प्रस्तुत किया गया है। डॉ. नीरज दइया अनुवाद और संपादन के कार्य को हिंदी पाठकों तक पहुंचाते रहे हैं।
अंक के अतिथि संपादक डॉ. नीरज दइया ने इस अवसर पर कहा कि गंगानगर से प्रकाशित होने वाली ‘सृजन कुंज’ त्रैमासिक के संपादक डॉ. आशु का आभारी हूं जिन्होंने इस अंक का दायित्व मुझे सौंप कर अपना विश्वास प्रकट किया है। दइया ने कहा कि आधुनिक राजस्थानी कविता की यह अंक एक झलक मात्र प्रस्तुत करता है। आधुनिक राजस्थानी कविता के अनेक हस्ताक्षर और विभिन्न धाराओं के कवियों की सक्रिया को रेखांकित किए जाने की आवश्यकता पर बल देते हुए उन्होंने कहा कि इस दिशा में अधिक प्रयास किए जाने की आवश्यकता है।
राजकीय डूंगर महाविद्यालय के व्याख्यात डॉ. विपिन सैनी ने आभार व्यक्त करते हुए कहा कि इस अंक में राजस्थान के सभी संभागों के प्रतिनिधि कवियों को स्थान मिला है वहीं समग्र कविता के विकास को समझने का यह भागीरथ प्रयास है।
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- डॉ. नीरज दइया
अतिथि संपादक : राजस्थानी कविता विशेषांक ‘सृजन कुंज’ (त्रैमासिक)


 

 

Sunday, July 31, 2022

धरती कब तक घूमेगी / मूल : सांवर दइया / अनुवाद : डॉ. नीरज दइया


इस आकाश की तरफ देखा। फिर जमीन कुरेदने लगी। उसे लगा कि आकाश और धरती के बीच घना सूनापन फैला हुआ है। ठीक वैसा ही सूनापन जैसा कि उसके हृदय में भरा हुआ है। सब कुछ है और कुछ भी नहीं है। भरा पूरा हंसता-खेलता घर है। बेटे-बहुएं हैं। पोते-पोतियां हैं। नाती-नातिनें हैं। मिलने को दिन में दो बार समय पर खाने को भोजन भी है। पर फिर भी पता नहीं क्यों कुछ अजीब अजीब सा लगता रहता है। लगता है कि जैसे कहीं कोई कम जरूर है। पकड़ में भले ना आए। दो बार भरपेट भोजन करना और सोना ही तो सब कुछ नहीं होता है। रोटी के अतिरिक्त भी तो मनुष्य को कुछ चाहिए होता है। यह अतिरिक्त वाली इच्छाएं ही कृष्टकारक होती हैं।
सीता अपना काला ओढ़ना देखकर फिर रुआंसी हो गई। वे जिंदा थे तब तक तो सब कुछ ठीक ही था। घर, घर जैसा ही लगा करता था। आंगन में खेलते-कूदते लड़ते-झगड़ते बच्चों का शोर-शराबा कितना सुहाबना लगा करता था। उस चिल्लम-पो में संगीत जैसा आनंद होता था। पर अब तो बेचारे बच्चे शोर-शराबा भी नहीं करते हैं। यदि कभी करते भी हैं तो उनकी मांएं चटाक करती तीन नंबर वाली डांट मारती है। पकड़ बाजू को घसीटते हुए कमरे में ले जाती हैं। फिर उनका वही रिकार्ड बजने लगता है। कितनी बार समझाया है कि यहां मत खेला करो। गाली गलोच सीखने के अलावा यहां दूसरा क्या है... किसी को बोलने तक की तमीज नहीं है... चाहे जैसे बोलते हैं फूहड गंवार।
सीता विचार करती है कि इस घर को क्या हो गया है। बच्चे यदि घर के आंगन में नहीं खेलेंगे तो क्या पड़ौस के आंगन में खेलेंगे? बच्चे तो परिवावालों के साथ ही खेलेंगे-कूदेंगे। पर नहीं! इनको तो घर के बच्चे आंखों देखे भी नहीं सुहाते हैं। खुद के बच्चे बहुत प्यारे दुलारे लगते हैं। उनको चौबीसों घंटों खिलाएंगे-हंसाएंगे। खुद खेलेंगे-कूदेंगे। फिर चुम्मा अलग से लेते हैं। पर छोटे या बड़े भाई के बच्चों को देखते ही इनको बदबू सी आने लगती है। जबान भले ही यह भेद ना खोले पर आंखों से तो सब कुछ साफ दिखाई देता ही है। खीर-पूरी खाते समय यदि कोई कुता गली का नाली से उठकर कभी आ जाए तो उस समय जो गुस्सा और घ्रणा और पता नहीं क्या क्या जो आता है बस वही सब कुछ इनके चेहरों पर पुता हुआ नजर आता है!
सीता अपने ही बारे में सोचने लगी। वह कौन है? कहने को तो इनकी मां ही है, पर मां और बेटों के बीच जो लगाव होता है, वह कहां है? कोई क्षण भर के लिए भी पास नहीं बैठता है। हालचाल कैसे हैं... तबियत कैसी है... मन लगता है या... किसी चीज की कोई आवश्यकता है क्या...। क्या पड़ी है इन सबकी इनको। यह क्यों पूछेंगे। दोनों समय खाने को देते हैं यह क्या कम बात है क्या? पर यह दोनों समय खाना खाना भी क्या हंसी-खुशी है? जबरदस्ती गले बंधा हुआ यह बस फर्ज है! नहीं तो इन तीनों में से ऐसा कमजोर गया गुजरा कौन है कि जो मुझे अपने पास नहीं रख सकता है... जो मेरा खर्च नहीं उठा सकता हो? चाहिए ही क्या है मुझे? रोटी ये खाते हैं और रोटी मैं खाती हूं! पांच-सात सदस्यों की रोटी जहां बनती है वहां एक मेरा तो गुजारा ऐसे ही हो जाए। चिकनी-चुपड़ी या काजू-बिदाम मिष्ठान्न मांगती हूं वैसी भी बात नहीं है। ये रुखी-सूखी जैसी खाते हैं तो क्या मैं कौनसी धी में लिथड़ी मांगती हूं? पर फिलहाल तो ये चुपड़ी हुई खाते हैं और मुझे लुक्खी सरकाते हैं तो भी मैं कुछ कह नहीं सकती हूं। एक शब्द निकालते ही जैसे ये तो जली-भुनी तैयार बैठी रहती हैं- हां, हां... हम भेदभाव करते हैं। हमारी तो ऐसे औकात नहीं है चिकनी-चुपड़ी हर दिन खिलाते रहे। हम गरीब आदमी हैं। बड़ी मुश्किल से गुजर बसर करते हैं। पर जो अपाको हमेशा छप्पन भोग खिला सके उसके पास चले जाएं। देखते हैं कि वे भी कितने दिन रोटियां डालते हैं। वे अमीर और भाग्यवान होंगे तो अपने घरों में होंगे। उनकी अमीरी हमारे किस काम आती है। हमारे तो हमारी भूख ही गुजारा कराएगी!
सीता याद करती है कि वह दिन कितना मनहूस था जब बड़े बेटे कैलाश ने सुबह सुबह ही चाय पीते समय नारायण और बिरजू को बुलाकर कहा था कि मां को रखने का ठेका केवल मेरा ही नहीं लिया हुआ है। तुम लोगों का भी तो कोई फर्ज होगा। तुमने कौनसा घर का हिस्सा नहीं लिया है? तुम क्या मां के बेटे नहीं हो?
उसकी बात सुनकर नारायण बोला- ‘आप कहें वैसे ही कर लेते हैं।’
‘मैं क्या कहूं? तुमको दिखाई नहीं देता है क्या?’ कैलाश के भीतर गुस्से के बवंडर उठ रहे थे।
बिरजू चुप रहा। वह हमेशा चुप ही रहता है। बस, केवल देखता रहता है कि कौन क्या करता-कहता है।
और सीता...? वह अर्धविछिप्त सी देख रही थी। देखो, अब क्या होता है? एक मां... तीन बेटे... दो समय की रोटी... तीन बेटे, एक मां... एक मां, तीन बेटे। ... मां ... रोटी... बेटे...। मां... बेटे... रोटी...! और फिर बहस में घूमते मां, बेटे और रोटी में से केवल रोटी ही महत्त्वपूर्ण बची। मां और बेटे कहीं अलग जा कर गिर गए- गुलेल में डाल कर फेंके जाने वाले पत्थर की तरह! रोटी का अकार और भार इतना बढ़ गया कि उसे संभाल लेना किसी एक के बस-बूते की बात नहीं रही है। फैसला हो गया- तीनों भाई बारी-बारी से मां को एक एक महीना रखेंगे।
सीता को कुछ कहने का अवसर ही नहीं मिला। तीनों में से किसी ने नहीं पूछा कि यह फैसला उसे मंजूर भी है या नहीं। उसकी अपनी इच्छा क्या है? उसने उसांस ली- खैर कोई बात नहीं! यदि वे आज होते और यह तमाशा देखते तो क्या कहते? उनसे इतना सहन हो पाता। वे तो आग बबूला होकर गालियां निकालने लग जाते। थप्पड़ या लात अलग से मारते! क्या समझ रखा है मुझे! मैं तुम्हारी मां दो रोटियों के भरोसे बैठी हूं क्या... ! अभी तो इतनी पहुंच है कि तुम जैसे बीस भिखारियों को रोटी डाल सकता हूं। एक लंबी उसांस! पर उनके रहते हुए तो कभी ऐसे बात उठी भी नहीं थी। उन्हें क्या खबर थी कि दो समय की रोटी के लिए ऐसा करेंगे!
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सीता को अच्छी तरह याद है कि वे श्रवण मास के दिन थे। तीन चार दिनों बाद होली थी। तब यही हुआ था कि होली के बाद मां बारी बारी से सब के पास रहेगी। होली के बाद नाहर सिंहजी वाले दिन खाना खाते समय उसे महसूस हुआ कि लापसी एकदम फीकी है। कौर गिटती तो लगता जैसे कौर गले में अटक रहा है। होली वाले दिन भी वह गुमसुम और उदास थी। होली पर लापसी ही बना करती थी, पर उस दिन कैलाश की बहू ने दाल का हलवा बनाया। दाल को सिकते हुए देखकर उसे लगा जैसे वह खुद सेकी जा रही है।
बच्चे उस से कहने लगे- दादी मां... दादी मां... बाई (मां) कह रही थी कि कल से आप नारायण काको सा के हिस्से में खाना खाएंगे। दादी मां क्या सच में आप वहीं खाना खाएंगे क्या? और शाम को जब वह खाना खाने बैठी तो कैलाश की पत्नी राधा कहने लगी- दाल का हलवा आपके लिए बनाया है। अच्छे से भरपेट खा लेना, ठीक!
वह सोचने लगी कि दाल का हलवा हो या फिर लूखी रोटी, थाली पर बैठने के बाद तो पेट का गड्डा तो भरना ही होता है। इच्छा हो तो दो कौर अधिक, नहीं तो चार कौर कम। उसने विचार किया- आज के बाद मुझे यहां से विदाई। कल से नारायण के हिस्से में खाना-पीना। फिर क्या यहां के पानी में भी सीर नहीं रहेगा क्या? बच्चों के पास आना जाना भी बंद हो जाएगा क्या? नहीं, नहीं... यह बात नहीं हो सकती है।
एक के बाद वह दूसरे और दूसरे के बाद तीसरे के हिस्से में वह लुढकने लगी। कैलाश के हिस्से से नारायण के हिस्से में और नारायण के हिस्से से बिरजू के हिस्से में! यह हिसाब बदलते ही बच्चे खुशी खुशी उसके पास आते और कहते- दादी जी, कल से आप हमारे हिस्से में खाना खाएंगे! हम साथ-साथ खाना खाएंगे- एक ही थाली में! ठीक है ना दादी सा?
वह रोने जैसी हालत में पहुंच जाती। इन नासमझ बच्चों को भी इस बात का विश्वास हो चला है कि वह बारी बारी से खाना खाएगी। एक महीने से ऊपर एक दिन भी नहीं रखता कोई। महीना पूरा होते ही जैसे टिकट कटाओ। अब दो महीने तक तो छुटकारा मिल गया, यही सोचते होंगे।
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बच्चे शाम होने पर सरावगियों के पाटे पर खेलते। वे जब कभी ‘माई माई रोटी दे’ वाला खेल खेलते तो उसे लगता जैसे यह कहानी आज भी सोलाह आने खरी है। बच्चों में से एक बच्चा भिखारी बन कर बारी-बारी से एक दूसरे के पास जाकर एक ही बात कहता- माई माई रोटी दे...। उसे उत्तर मिलता- यह घर छोड़, अगले घर जा!
वह सोचती- एकदम यही तो हालत है मेरी। मैं इस भिखारी-भिखारिन जैसी ही तो हूं। महीना होते ही बेटा कह देता है- माई, यह घर छोड़ कर अगले घर जा! और मैं रवाना हो जाती हूं। अगले घर तक। वहां महीना होते ही वही आदेश सुनाई देता है- यह घर छोड़ अगले घर जा!
यह घर छोड़ अगले घर जाते और वह घर छोड़ अगले घर जाते-जाते करीब पांच वर्ष बीत गए। ये पांच वर्ष सुख से बीते हो ऐसा कहां! इन पांच वर्षों में पच्चीसों बार फजीहत हुई है। बिरजू के हिस्से में थी तब नारायण की बहू भंवरी ने लड़के का जन्मदिन था तो कटोरी में डालकर रसमलाई भेज दी। रसमलाई का एक कौर ही मुंह में लिया था कि ऊपर से शोर सुनाई दिया। बिरजू की बहू पुष्पा बोल रही थी- अरे अमीरी दिखाने के लिए रसमलाई का टुकड़ा भेजा है क्या! तुम्हारे हिस्से में थे तब तो इनको लूखे रोटे खिलाए थे। आज महाराणी रसमलाई का नाटक दिखा रही है। देखे तुम्हारे चौंचले। मेरे हिस्से में हो तब यह तुम्हारा खेल-तमाशा अपने पास ही रखा करो। हमारी जैसी औकात होगी वैसा हम अपने आप ही खिला-पिला देंगे।
सीता को फिर स्मरण हुआ- उन दिनों वह नारायण के हिस्से में थी। राधा को बुखार आ गया था। कैलाश नौकरी के सिलसिले में कहीं बाहर गया हुआ था। उसने दो-तीन दिन तक उसके बच्चों के लिए खाना-पानी किया। थोड़े दिनों बाद बच्चों की लड़ाई को लेकर भंवरी और राधा के बीच लड़ाई हो गई। राधा ने कहा कि बच्चों की लड़ाई हुई तब सासू जी वहीं थे। उनसे पूछ ले भले। इतने में भंवरी ने जैसे जहर से भरा हुआ तीर मारा- ‘अरे जा जा! पूछ लिया तुमको और उनको, दोनों को। उन्हें क्या पूछना है? वे नौकरानी जैसे सारे काम करते रहते हैं तुम्हारे और खाना खाते हैं हमारे हिस्से में। अरे जब इतना काम कराती रही हो तो तो खाना भी तो खिलाना था।’  
उसकी आंखें गीली हो गई। इनके बाक्‌-युद्ध का कोई अंत नहीं है। यह प्रतिदिन लड़ाई करती हैं। लड़ाई है इनकी खुद की और कांटों में घसीटती हैं मुझे। अब मरना तो मेरे बस की बात नहीं है। यदि बस में हो कल ही प्राण त्याग दूं। भगवान के घर से जितनी सांसें हिस्से में आई है वह तो लेनी ही होगी! यह सोचते-सोचते सीता की आंखें डबडबा रही थी।
सीता को महसूस होने लगा है कि आकाश अनंत नहीं है। वह सिकुड़ गया है। यह धरती लंबी चौड़ी नहीं है। यह सिकुड़ गई है। घर भी सिकुड़ गया है। यहां सिर छिपाने को भी जगह नहीं है। कहने को तो यह घर है। यह घर इस गली का अच्छा इज्जतदार खाता-पीता घर कहा जाता है। पर इस खाते-पीते इज्जतदार घर में खाने-पीने की ही लड़ाई है! एक पेट के लिए इतना कोहराम! ये लोग सुबह शाम को गाय-कुत्ते को भी रोटी देते हैं। फिर मेरी रोटी में ऐसा क्या है कि इनको हर दिन कुछ नया विचार करना पड़ता है।
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आज तो हद ही हो गई! कैलाश ने कहा- ‘यह बात अच्छी नहीं लगती है कि मां महीने दर महीने इधर-उधर लुढकती रहती है। मेरे विचार से यह ठीक रहेगा कि हम तीनों ही हर महीने मां को पचास-पचास रुपये दे दिया करें। मां को डेढ़ सौ रुपये पर्याप्त ही हैं। चाय तो हम पिलाते ही हैं। और फिर पिलाते रहेंगे। बाकी रही रोटी, जो अपनी खुद मर्जी से बनाएंगी-खाएंगी...।
नारायण ने कहा- ‘जैसी तुम्हरी इच्छा। मुझे मंजूर है। आज तो बिरजू भी चुप नहीं बैठा। वह बोला- ‘रोज इधर उधर लुढ़कने से तो यह ठीक ही है। अपनी एक जगह तो पड़ी रहेगी...।’
इतनी बातें होने के बाद उस कमरे में मौन के तीखे तेज कीलों का जैसे खेत ऊग आया। इधर-उधर जरा सा हिले कि कीले चुभे। सभी जैसे थे वैसे ही मौन बैठे रहे। थोड़ी देर बाद कीलों से बींधे हुए स्वर आरंभ हुए- ‘मां को पूछ लेते...। बिरजू की आवाज थी यह।
‘मां आजकल किसी बात के लिए मना नहीं करती है। उसके भले कुछ भी हो यहां। असली बात तो यह हमारे पसंद आने की है।’ कैलाश कहे जा रहा था- ‘आप सभी को बात ठीक लगी हो मां से बात करता हूं।’    
जब सीता ने यह सुना तो वह कुछ नहीं बोली। बारी बारी से तीनों बेटों की तरफ देखने लगी। उसकी आंखों के आगे अंधेरा छाने लगा। डबडबाई हुई आंखों को पौंछते हुए उसने अपना भर्राया हुआ गला चुपचाप पी गई। रोने की आवाज होंठों के बाहर नहीं निकली। हृदय का एक एक हिस्सा रो रहा था। उसके भीतर आंसुओं का समंदर भर गया था।
सीता सोचने लगी कि यहां अगर रोटी खाती हूं तो कौनसी मुफ्त की खाती हूं। इनके बच्चों के कितने काम करती हूं। हाथ पैर चलते है जितने दो चार बर्तन भी मांज देती हूं। कौनसे हाथ घिसते हैं मेरे। पर ये क्या मुझे इस काम के लिए पचास पचास रुपये मजदूरी दे रहे हैं क्या? जब मुझे मजदूरी ही करनी है तो कहीं भी कर लूंगी। दुनिया में काम की कौनसी कमी है? और नहीं तो किसी के घर जूठे बर्तन साफ कर के रोटी खा लूंगी। सवाल तो बस रोटी का ही है।
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अगले दिन सीता अपने दो चार कपड़े लत्तों की गठरी बांध मुह अंधेरे ही घर से निकल गई। अभी उसकी आंखों के आगे ना तो अंधेरा था और ना ही धरती और आकाश के बीच सूनापन लगा।
आज आकाश अनंत था। धरती बहुत बड़ी थी। वह रास्ता बहुत चौड़ा था, जिस पर वह चल निकली थी। और सबसे बड़ी बात यह थी कि उसके चारों तरफ खुली हवा थी।
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(वर्ष 1980 में प्रकाशित राजस्थानी कहानी संग्रह ‘धरती कद तांई घूमैली’ से अनूदित)
सांवर दइया अन्य रचनाओं के लिए संपर्क : डॉ. नीरज दइया

Sunday, July 10, 2022

बंधे-बधाये वाद और बनी-बनाई धारणाओं से अलहदा आलोचक डॉ.दइया / राजूराम बिजारणिया

 

तकरीबन तीन दशक से अधिक समय से हिंदी और राजस्थानी साहित्य क्षेत्र में अपनी धमक बनाए रखने वाले डॉक्टर नीरज दइया का 'बिना हासलपाई' किया जा रहा सृजन उन्हें दूसरों से जुदा खड़ा करता है। साहित्य में निरंतरता बहुत कम रचनाधर्मियों में देखने को मिलती हैं। गत कई वर्षों से नियमित लिखने वालों में डॉ.दइया खास तौर से शामिल हैं। साहित्य अकादेमी के मुख्य पुरस्कार से नवाजे जाने के बाद तो डॉ.दइया अपनी जिम्मेदारियों को लेकर और अधिक सचेत एवं सक्रिय नजर आते हैं। राजस्थानी साहित्य की विभिन्न विधाओं में अपनी कलम चलाने वाले नीरज दइया का नाम आधुनिक राजस्थानी साहित्यकारों की फेहरिस्त में अग्रणी पंक्ति में शुमार हैं। उनके लेखन में राजस्थानी समाज का बहुवर्णी अंकन नज़र आता है। भाषा, भाव एवं बुनगट (रचाव) उनके रचनाकर्म को अलहदा बनाता है।
राजस्थानी के चर्चित कवि, कहानीकार सांवर दइया के लाडले पुत्र से ख्यातनाम कवि, आलोचक के रूप में अपने कलम कर्म से खुद को स्थापित करने में सफल रहे नीरज दइया ने लेखन का ककहरा अपने पिता से सीखा। पहली राजस्थानी कहानी 1987 में 'माणक' पत्रिका में प्रकाशित हुई तब वे बी.एससी. अंतिम वर्ष के विद्यार्थी थे। 1989 में पहला लघुकथा संग्रह 'भोर सूं आथण तांई' छपकर आया तो उनके रचनाकर्म को हवा मिली। वे लिखते गए और पिता उन्हें ठीक रास्ता दिखाते गए।
1992 में अपने पिता सांवर दइया के निधन के वक्त उनकी उम्र महज़ 24 वर्ष थी। महाकवि कन्हैयालाल सेठिया ने उन्हें 1993 में आशीर्वाद स्वरूप लिखा कि ‘नीरज तू शतदल बणी आ म्हारी आशीष, करूं कामना तू हुई सगळां सूं इक्कीस।’ सचमुच सेठिया जी की आशीष फलीभूत होती गई। साहित्य महोपाध्याय नानूराम संस्कर्ता का मिला सानिध्य भी उन्हें सम्बल प्रदान करने वाला साबित हुआ।
दो-तीन वर्ष पहले डॉ.दइया का साक्षात्कार लेते हुए मैनें उनसे पूछा था कि आप आलोचक, अनुवादक, कवि, कहाणीकार, व्यंग्यकार में से मूल रूप से खुद को क्या मानते हैं? तो उन्होंने बड़ी संजीदगी से जो जवाब दिया, बेहद प्रभावित करने वाला था कि 'मूल रूप से मैं खुद को राजस्थानी भाषा का एक सिपाही मात्र मानता हूँ, क्यों कि राजस्थानी मेरे रक्त में घूली-मिली भाषा है। इस लिहाज़ से मैं राजस्थानी की विभिन्न विधाओं में लिखते हुए बस राजस्थानी के लिए जीना चाहता हूँ। जिस प्रकार मोर नाचता तो है पर अपने पैरों की ओर देखकर रोता भी है। वैसे ही विभिन्न विधाओं का लेखन ही मेरा नाचना है, लेकिन इस रंग-रूप और मिठास के साथ समृद्ध इतिहास के बावजूद राजस्थानी को संवैधानिक मान्यता नहीं मिलना मेरे रोने का बड़ा कारण भी है।'
लेखन में भाषा एवं विधा चयन पर कविता की ओर अपने झुकाव को प्रकट करते हुए डॉ. दइया मानते हैं कि मेरे हाथ में हो तो मैं फ़क़त और फ़क़त कविताएं लिखना चाहूंगा, मगर कविताएं तो बे-मौसम के फूल की तरह है, जाने कब मन में खिलें.! समय रहते शब्दों को साँचे में न ढाला जाए तो कब डाली से खिर पड़े! दइया कविता के आंगन पहला कदम धरते हुए 1997 में अपने राजस्थानी कविता संग्रह 'साख' के मार्फ़त पाठकों से रूबरू हुए। लम्बी कविता को साधते हुए वर्ष 2000 में बतौर 'देसूंटो' दूसरा कविता संग्रह लेकर आए। राजस्थानी कविता के सफर में साख सवाई करने का काम उनके काव्य संग्रह 'पाछो कुण आसी' ने किया। वहीं 2013 में हिंदी कविता पट्टी में 'उचटी हुई नींद' के साथ अपनी उपस्थिति दर्ज़ करवाई।
डॉ.दइया सिर्फ अपने काव्य संसार में रमकर नहीं रह जाते बल्कि कविता की अगली पीढी के प्रति अपनी जिम्मेदारियां बखूबी समझते हैं। इसी के चलते 2012 में राजस्थानी भाषा साहित्य एवं संस्कृति अकादमी, बीकानेर का एक महत्वपूर्ण काम उनके जिम्मे आया। राजस्थानी भाषा के 55 युवा कवियों की रचनाओं का चयन कर अपने संपादन में 'मंडाण' के रूप में सामने लाना किसी चुनौती से कम नहीं था। 'मंडाण' ने कई बेहतरीन युवा कवियों को मुकम्मल पहचान दिलवाई। एक बेहतर संपादक के सारे गुण नीरज दइया में देखने को मिलते हैं। राजस्थानी साहित्य में 'नेगचार' पत्रिका की गरिमा किसी से छुपी नहीं है। इसके साथ ही उन्होंने नेशनल बिब्लियोग्राफी ऑफ इंडियन लिटरेचर, बिणजारो (बरस 2000), जागती जोत (सितम्बर,02 से सितम्बर,03 तक), राजस्थानी पद्य संग्रह (कक्षा- 12 के लिए), अपरंच (बीकाने-अंक), कविता कोश (राजस्थानी-विभाग) का भी संपादन बखूबी किया। 2010 में 'मोहन आलोक री कहाणियां', 2011 में 'कन्हैयालाल भाटी री कहाणियां', 2017 में 'आधुनिक लघुकथाएं' और 'देवकिशन राजपुरोहित री टाळवीं कहाणियां' पाठकों के समक्ष लाने की बड़ी पहल की। वहीं 2019 में राजस्थान के कहानीकारों को एक संग्रह में समेटते हुए '101 राजस्थानी कहानियां' का संपादन अपने आप में अनूठा काम है। 2012 में आए संग्रह 'जादू रो पेन' ने डॉ.नीरज दइया को बतौर बाल साहित्यकार स्थापित किया। इसी संग्रह पर साहित्य अकादेमी ने बाल साहित्य पुरस्कार अर्पित किया।
बीकानेर और आसपास के क्षेत्र को सरस्वती नदी के प्रवाह वाला क्षेत्र माना जाता रहा है, जिसके किनारे बैठकर युगों पहले वेदों के रचाव की बात भी कही जाती है। इस लिहाज़ से यह जमीं साहित्य की दृष्टि से काफी उर्वर है। हरेक विधा में यहां के साहित्यकारों ने कलम चलाई है। डॉ.नीरज दइया को भी विभिन्न विधाओं में लेखन की महारत हासिल है। उनके 2017 में आए 'पंच काका के जेबी-बच्चे' और 'टांय टांय फिस्स' नामक व्यंग्य संग्रह अपनी विशेष छाप छोड़ते हुए उनके भीतर के व्यंग्यकार को पाठकों के समक्ष ला खड़ा करने में सफल होते हैं।
अनुवाद महज शब्दों को रूपांतरित करना भर नहीं है, वरन ऐसा पुनर्लेखन है जहाँ एक भाषा का रचना संसार दूसरी भाषा के पाठकों को सहजता से जोड़ता है। अनुसृजन को परकाया(किसी दूसरे शरीर में) प्रवेश करने जैसा मानने वाले डॉ.दइया ने मूल सृजन के साथ-साथ अनुवाद के क्षेत्र में महत्वपूर्ण काम किया है। जिसकी बानगी कुछ इस प्रकार है- कागद अर कैनवास (अमृता प्रीतम की काव्य-कृति-2000); कागला अर काळो पाणी (निर्मल वर्मा का कहाणी संग्रह-2000) ; कागद अर कैनवास (अमृता प्रीतम की पंजाबी काव्य-कृति-2000) ; ग-गीत (मोहन आलोक का कविता संग्रह-2004) ; सबद नाद (भारतीय कविताएं-2012) ; देवां री घाटी (भोलाभाई पटेल के गुजराती यात्रा-वृत-2013) ; अजेस ई रातो है अगूण (सुधीर सक्सेना की कविताएं-2016) ; ऊंडै अंधारै कठैई (डॉ. नन्दकिशोर आचार्य की कविताएं-2016) ; घिर घिर चेतै आवूंला म्हैं (डॉ. संजीव कुमार की कविताएं-2018) ; गवाड़ (मधु आचार्य ‘आशावादी’ का उपन्यास-2018) ; रेत में नहाया है मन (राजस्थानी कवियों की कविताओं का हिंदी अनुवाद-2019) ; सोनै री चिड़ी (ओम गोस्वामी का डोगरी कहानी-संग्रह-2019) ; कोई कोनी बैठो ठालो (जयप्रकाश मानस की चयनित कविताएं-2019) ; 2021 ईस्वर : हां, नीं… तो(सुधीर सक्सेना के कविता-संग्रह का राजस्थानी अनुवाद-2020) आदि।
आलोचना को लेकर डॉ.भगीरथ मिश्र की माने तो आलोचना का कार्य कवि और उसकी कृति का यथार्थ मूल्य प्रकट करना है। वहीं आलोचक की भूमिका का निर्वाह करने वाले डॉ.नीरज दइया किसी बंधे-बधाये वाद और बनी-बनाई धारणा से रचनाओं की परख करने के पक्ष में नहीं है। उनका मानना है कि हरेक नई रचना एक नई खोज लिए होती है, इसीलिए आलोचना को भी नित नए पैमाने खोजने चाहिए।
दइया के आलोचनात्मक लेखन का दायरा सीमित नहीं है। 2011 में आलोचना रै आंगणै (आलोचनात्मक निबंध) के बाद 2014 में बिना हासलपाई (आधुनिक कहाणी आलोचना), 2017 में बुलाकी शर्मा के सृजन-सरोकार एवं मधु आचार्य ‘आशावादी’ के सृजन-सरोकार' के बाद 2018 में 'राजस्थानी कहानी का वर्तमान' के रूप में सांगोपांग काम किया है।
दइया द्वारा लिखित राजस्थानी लोक जीवन और प्रकृति के चितेरे कवि ओम पुरोहित 'कागद' के सृजन से जुड़े काव्य-विमर्श 'कागद की कविताई' ने खूब सराहना पाई वहीं 'निर्मल वर्मा के कथा साहित्य में आधुनिकता बोध' नामक शोध प्रबंध भी एक बेहद महत्वपूर्ण काम साबित होगा। डॉ.दइया का मूल सृजन भी अनुवाद होकर अन्य भाषाओं तक पहुंचा है। मदन गोपाल लढ़ा ने उनकी कविताओं को 'रक्त में घुली हुई भाषा' और रजनी छाबड़ा ने 'लेंग्वेज फ़्यूज्ड इन ब्लड' शीर्षक से अनुवाद किया है। 'राजस्थानी म्हारै रगत रळियोड़ी भासा है' की बात बड़े गर्व से कहने वाले नीरज दइया का साहित्यिक काम समंदर की गहराई में गोते लगाकर अनमोल रत्न चुनने जैसा है, इसमें कोई दोराय नहीं।
◆ सम्मान अर पुरस्कार-
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• साहित्य अकादेमी मुख्य पुरस्कार 2017
• साहित्य अकादेमी नई दिल्ली से राजस्थानी बाल साहित्य पुरस्कार 2014
• राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं सस्कृति अकादेमी, बीकानेर से भत्तमाल जोशी पुरस्कार
• राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं सस्कृति अकादेमी, बीकानेर से “बावजी चतुरसिंहजी अनुवाद पुरस्कार”
• नगर विकास निगम से “पीथळ पुरस्कार” ।
• नगर निगम बीकानेर से वर्ष 2014 में सम्मान
• अखिल भारतीय पीपा क्षत्रिय महासभा युवा प्रकोष्ठ बीकानेर द्वारा सम्मान- 2014
• सादूल राजस्थानी रिसर्च इन्स्टीट्यूट, बीकानेर से तैस्सितोरी अवार्ड- 2015
• रोटरी क्लब, बीकानेर द्वारा “खींव राज मुन्नीलाल सोनी” पुरस्कार-2016
• कालू (लूणकरणसर) द्वारा नानूराम संस्कर्ता राजस्थानी साहित्य सम्मान-2016
• कांकरोली उदयपुर द्वारा मनोहर मेवाड़ राजस्थानी साहित्य सम्मान-2016
• फ्रेंड्स एकता संस्थान बीकानेर द्वारा साहित्य सम्मान-2016
• दैनिक भास्कर बीकानेर द्वारा शिक्षक सम्मान- 2016
• सृजन साहित्य संस्थान, श्रीगंगानगर द्वारा सुरजाराम जालीवाला सृजन पुरस्कार-2017
• राजस्थानी रत्नाकर, दिल्ली द्वारा श्री दीपचंद जैन साहित्य पुरस्कार’- 2017
• ओम पुरोहित ‘कागद’ फाउण्डेशन हनुमानगढ़ द्वारा कागद सम्मान- 2017
• साहित्य कला एवं संस्कृति संस्थान नाथद्वारा द्वारा हल्दीघाटी में साहित्य रत्न सम्मान- 2017
• जिला लोक शिक्षा समिति, बीकानेर द्वारा साक्षरता दिवस पर सम्मान- 2017
• मावली प्रसाद श्रीवास्तव सम्मान 2017 अंतरराष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन द्वारा
• अखिल भारतवर्षीय मारवाड़ी सम्मेलन द्वारा सीताराम रूंगटा सीताराम रूंगटा राजस्थानी साहित्य पुरस्कार- 2017
• केवीएस रीजनल इंसेटिव अवार्ड- 2017
• गौरीशंकर कमलेश स्मृति राजस्थानी भाषा पुरस्कार- 2017
• डॉ. नारायणसिंह भाटी अनुवाद सम्मान 2018
• पारसमल पांडया स्मृति राजस्थानी साहित्य पुरस्कार 2019

 

आज री राजस्थानी युवा कविता / डॉ. नीरज दइया

  ‘आज री राजस्थानी युवा कविता’ रो अरथाव 35-40 बरसां रै युवा रचनाकारां री कवितावां सूं लियो जावणो चाइजै। युवा कविता रै लेखै ‘आज’ रो पूरो-पूरो अरथाव का मायनो जाणां तद आपां नै आज रै भेळै गयै काल अर आवणियै काल री बात करणी पड़ैला। काल नै कुण नावड़ै, पण रचना रै लेखै उण काल री अंवेर परंपरा में देख सकां अर आवणियै काल री बात तो एक सुपनो है। बिना आज अर काल रै कोई सुपनो पूरो नीं हुया करै।
    समकालीन राजस्थानी युवा कविता एक इसी काव्य-परंपरा सूं जुड़ियोड़ी है जिण में जुधां रो धमसाण है तो भगती अर प्रीत रा राग-रंग ई है। डॉ. अर्जुनदेव चारन रो मानणो है कै जूनी कविता में लड़ जा भीड़ जा रै सुर साम्हीं पैली बार कवि डॉ. सत्यप्रकाश जोशी (1926-1990) आपरी पोथी ‘राधा’ रै मारफत राधा सूं कैवायो- ‘मन रा मीत कान्हा/ मुडज़ा फौजां नै पाछी मोड़ ले...’ ओ राजस्थानी कविता रै लेखै एक मोटो बदळाव हो। जुध नै बिड़दावण साम्हीं, नवो मारग हो। आपां जाणा कै महाकवि सूर्यमल्ल मीसण (1815-1868) जिसा कवियां रो सुर हो- ‘इळा न देणी आपणी, हालरियै हुलराय। पूत सिखावै पालणै, मरण बड़ाई माय॥’ आधुनिकता री पैली साख आ कै बड़ाई तो जीवण में है। अठै आ बात ई कैयी जावै कै जुधां बिचाळै सांति बेसी गुणकारी नै असरकारक हुया करै जिकी बगत री मांग ही।
    ओ बो बगत हो जद मुलक माथै अंग्रेजां रो राज हो। जद कवि कन्हैयालाल सेठिया युवा हा तद आजादी रै टैम राजस्थान अपरी जबान काट कर राष्ट्रभाषा हिंदी नै अरपण कर दी। राजस्थानी राजस्थान रै राजकाज री भासा ही, राजस्थानी समाज हिंदी सीख’र देस हित रै सवाल माथै हिंदी नै गळै कांई लगाई कै गुणचोरां राजस्थान नै अजेस आपरै भासाई अधिकार सूं बेदखल कर राख्यो है, अर संविधान री आठवीं अनुसूची में भासा नै जोड़ावण खातर नवी पीढी नै मरणो मांडणो पड़ रैयो है।  
    महाकवि कन्हैयालाल सेठिया (1919-2008) भारतीय कवि रै रूप चावा-ठावा मानीजै, भासा प्रेम मांय रचीजी बां री कवितावां रो संग्रै ‘मायड़ रो हेलो’ घणो चावो हुयो। आज री युवा कविता नै भासा री इण हेमाणी नै नवै कथ्य अर बुणगट भेळै संभाळता-सजावता रासो काव्य परंपरा सूं आवती राजस्थानी कविता री जसबेल नै आगै बधावणी है।
    जद सूं नवी तकनीक री आंधी आई है सगळी भासावां में कविता नै बेगी सूं बेगी किणी मंच माथै धर देवण री बाण खास कर नै युवावां में की बेसी ई बधगी है। इण मामलै में राजस्थानी ई लारै कोनी। किणी बाणियै जिसो हिसाब है कै आज जद बरस 2016 में आपां युवा कविता री बात कर रैयां हां, तो बरस 1975 का 1980 पछै जल्मी पीढी री बात करतां। कोई उगता ई कोनी तपै, ठीक बियां ई कोई जलमतां ई कविता कोनी लिखै। अठारा-बीस बरस रो औसत आंकड़ो इण सीगै आवैला। इण रो साफ साफ ओ अरथाव बणै कै जिण नै आपां युवा कविता रै रूप में ओळखण रा जतन कर रैया हां, बां असल में इक्कीसवीं सदी री कविता है। इक्कीसवीं सदी री कविता रो एक मोटो हिस्सो है युवा कविता।
    इक्कीसवीं सदी में आपां रा चावा-ठावा केई नामी कवि कविता लिख रैया है तो जोध जवान कवि ई कविता रो मोरचो संभाळ राख्यो है। ‘की-पेड’ अर बटणां रै ताण कंप्यूटर माथै लिखीजण आळी इण कविता अर कवियां पाखती कागद अर कलम रो सुख कमती है। अबै डायरी का किणी पानै में नीं कविता मोबाइल में अटाकाइजै। सोसल साइटां अर ब्लॉगां में लिखीजै। कविता री भासा, विसय अर बुणगट नै लेय’र घणी झीणी बातां भलाई कमती हुवो पण कविता रै लेखै नवी तकनीक उल्लेखजोग कैयी जावैला। लारलै बरसां री तुलना में राजस्थानी रा हेताळू अर कवियां रै नांवां में घणो इजाफो देख सकां।
    अजेस परंपरा सूं जुड़ाव इण रूप में ई देख सकां कै केई युवा कवि अजेस छंद नै परोट रैया है तो दूजै पासी भारतीय भासावां री रचनावां रै जोड़ सूं अळधा खुद रै ई राग में रम्योड़ा युवा कवि जाणै किणी आणंद में डूब्या मगन हुयोड़ा है। आं सगळा बिचाळै कीं सजग अर गंभीर कवि है जिका सूं आपां नै आस उम्मीद राखणी चाइजै कै आवतै बगत आखी भारतीय कविता रै आंगणै राजस्थानी कविता रै जस नै बै बधावैला।
    राजस्थानी में कविता लिखण वाळा कवि हिंदी माध्यम का अंग्रेजी माध्यम सूं पढाई-लिखाई करै तद वां रै साम्हीं कविता लिखती वेळा जिकी परंपरा हुवै वा हिंदी-अंग्रेजी री अर थोड़ी घणी राजस्थानी री हुवै। अठै परंपरा रो अरथाव कविता रचण सूं पैली कवि साम्हीं कविता नै लेय’र विचार-धारावां अर न्यारी-न्यारी बै कावितावां अर कवि है जिका सूं कोई कवि प्रेरणा लेवै। किणी कवि साम्हीं कविता लिखती वेळा जिकी परंपरा ही का हुवैला बा तर-तर अध्ययन चिंतन-मनन सूं बदळती थकी आधुनिक सूं आधुनिक हुवती रैवैला। मानां कै हरेक मिनख पाखती आपरी उण री परंपरा हुवै पण सगळा री परंपरा एक सरीखी हुवता थकां ई एक सरीखी नीं हुवै। कोई ठोठ मिनख आखरां सूं उळधो रैया ई हियै लोक री लांठी परंपरा राखै। किणी कवि नै आपरी भासा अर रचना-विधा री परंपरा रै खातै देखण रो काम आलोचना करै। म्हैं कैवणी चावूं कै जे किणी कवि री कवितावां में नवो पळको दीखै तो उण साम्हीं हिंदी-अंग्रेजी-राजस्थानी री समकालीन कविता रो एक दीठाव है, अर उण दीठाव साम्हीं आपरै हलकै री साहित्य साधना अर साहित्य जुड़ाव रा केई केई दीठाव है। आ पूरी भाव-धारा युवा कविता री परंपरा अर कविता रचाव री ऊरमा नै नवा रंग देवै। परंपरा नै जाण लेवण री भोळावण युवा कवियां नै कै बै जाणै आखै जगत में चावी-ठावी राजस्थानी री लूंठी काव्य परंपरा रैयी है।     
    ‘मंडाण’ रै संपादकीय सूं कीं बातां करणी अठै लाजमी लखावै। किणी रचनाकार खातर मायड़ भासा नै पढण-लिखण में माण देवणो मोटी बात मानीजैला। केई तो फगत राजस्थानी री गरीबी रो रोवणो रोवै अर म्हनै लखावै कै बै सोचै कै इण ढाळै रै रोवणै सूं भासा साहित्य री गरीबी मिट जावैला। जिम्मेदारी अर जबाबदारी जूनी पीढ़ी री बणै कै वै नवी पीढ़ी खातर कांई कीं करै। दोस मंढणो तो साव सोखो है। जरूरत आज इण बात री मान सकां कै जिकी नवी पौध है उण मांय जिकी संभावनावां है उण नै अंवेरां-संभाळा। प्रकाशन अर पत्र-पत्रिकावां रै तोड़ै सूं राजस्थानी रा केई रचनाकारां री चाल बगत भेळै नीं रैयी। बै मंदा पड़ग्या अर होळै होळै साहित्य सूं कटग्या।   
    कविता खातर घणो जरूरी है कै लगोलग कविता सूं जुड़ाव रैवै। युवा कवि जे खुद रै आसै-पासै रै घर-संसार नै देखै-समझै तो कठैई गांवतरै री जरूरत ई कोनी। युवा कवि डॉ. मदन गोपाल लढ़ा लिखै- सिरजण री जमीन नै अंगेजणी घणी जरूरी है, बिना निजता अर स्थानीयता रै भेळै ओ ई घणो जरूरी है कै कविता में कांई लिखीजै अर कांई छोड़ीजै।
    किणी पण कवि नै कोई कविता लिखण सूं पैली खुदोखुद सवाल पूछणो चाइजै कै म्हैं कविता क्यूं लिखूं अर किण खातर लिखूं? इण ढाळै रा कविता सूं जुड़िया केई सवाल युवा कवि रै हियै मांय हुवणा म्हैं घणा जरूरी मानूं। अठै आ ओळी खास अखरावण रो मानयो ओ कै युवा कवियां नै खुद री लिख्योड़ी हरेक ओळी मांय कविता रो लखाव हुया करै, बगत रै चालतै बाळै में आगै जाय’र तो बो खुद री सींव नै ओळख लेवै पण जरूरत इण बात री है कै आ सींव बेगी सूं बेगी जाण ली जावै। इणी सूं आ बात समझ आवैला कै कविता मांय हरेक सबद अर उण री ठौड़ आगो-पाछो स्सौ कीं जरूरी हुया करै। ओ ग्यान घणो जूनो है कै किणी ओळी में खरै सबद नै सही अलोटमेंट अर विगत ई कविता हुवै। म्हैं कवि हुय’र कोई ग्यान किणी नै नीं देय रैयो हूं, बस म्हैं म्हारै मन री बात साझा कर रैयो हूं कै कवि हुवां जद आपां मांय कविता-विवेक अर आलोचकीय दीठ ई हुवणी जरूरी है। आं रै विगसाव सूं ई खुद री कविता रो विगसाव हुया करै।
    कवि अर कविता री कोई हद कोनी हुवै। जठै जठै बो सबदां रै मारफत पूगै उण जातरा अर लखाव नै कागद माथै साकार करणो सरल कोनी हुवै। इण हिसाब में केई बार घणो कीं लिखीजै अर घणो कीं छूट जावै। आ कविता जातरा हद सूं अणहद री जातरा हुया करै। हरेक कवि कीं संकेतां सूं सीध देवै जिण रै मारफत बांचणियां उण हद सूं बारै निकळै अर अणहद तांई पूगण री इण जातरा में दोनूं पासी सींव अर संभावनावां रा दरियाव देख सकां। जे कविता करणो सोखो काम है तो जिका कवि है मतलब म्हैं अर आप दोनूं जे कागद कलम लेय’र बैठां कै आज तो दस दस कवितावां मांडसां तो हुय सकै दस दिन में सौ कविता साम्हीं आय जावै अर हुय सकै कै कविता एक ई नीं लिखीजै। कविता लिखणो जे इत्तो सोखो हुवतो तो विग्यान कविता लिखण का रचण री कोई मसीन का कोई सांचो कोनी बणा देवतो कांई। म्हैं कैवणो चावूं कै कविता मांय आपरी सगळी हुस्यारी एकै पासै घरी रैवै कीं काम कोनी आवै, हरेक कवि नवी कविता लिखती बगत एक नवी मुठभेड़ करै। कविता में जाणै हरेक कवि खुद नै रचिया करै। आदि कविता रो जलम पीड़ सूं हुयो, तो हियै रै सुख-दुख सूं कविता एक गंगा दांई आवै,आ गंगा हरेक रै बस री बात कोनी। जिको हियै री इण गंगा नै ओळखै बो कवि बण जावै।
    जूनी अर नवी कविता रै खास अंतरै बाबत विचार करतां आपां नै आसै पासै री दुनिया अर देसां माथै ई विचार करणो हुसी। आज जद आखी दुनिया री कल्पना एक गांव रै रूप में समझी जावण लागी है तद मिनख रै घर अर आसै-पासै सूं उण रै आंतरै रो लखाव विचार रै स्तर माथै कवि रै खातै आवै। लगै कै इण सदी आपां दौड़ता-भगता किणी जुध रो हिस्सा बणग्या हां- ओ जुध मिनख अर मसीन रो जुध है, सागै ई सागै मिनख रो मिनख सूं जुध है। घर, परिवार, समाज अर देस-दुनिया री अणथाग भीड़ में मिनख साव अकलो हुवतो जाय रैयो है। कविता रो जुध मिनख नै मिनख सूं मिलावण रो जुध है। सूनवाड़ नै भांगण रो जुध है।  
    कितो सावळ रैवै कै जुध किणी जुध रै मैदान में हुवै पण इण अंतहीन जुध मांय नित रो रांडीरोवणो है तद निरायत री बात कोई कियां करै। अंतस-अतंस अर आंगणै-आंगणै हुवतै इण जुध मांय जीवण रा राग-रंग अर सुर ई जाणै समूळा बदळग्या। स्यात ओ ई कारण है का इणी ढाळै रै किणी कारण सूं नवी चुनौतियां अर संभावनावां भेळै नवी पीढ़ी (जिण नै युवा पीढ़ी कैवां) री निजर में स्सौ कीं देखण समझण री संभावना अर विकल्प मौजूद है। अबार तांई गाइज्य गीतां रै सुरां अर साधना में अजेस कीं कवि साम्हीं आया है भळै ई आवैला।
    नवी पीढी रै नवा सुरां सूं घणी आसावां माना। आ जरूर है कै जूनी पीढी दांई नवी पीढी री कविता में वयण-सगाई, छंद अर उपमावां-अलंकारा रो मोह कोनी, समकालीन युवा कविता में नवी शब्दावली, बदळती भासा अर खुद रै भावां-अनुभवां नै रचण री आंट लारलै बरसां छप्या युवा कवियां रै संकलनां में देख सकां। जियां कै जळ-विरह, कविता देवै दीठ,  म्हारै पांती री चिंतावां, उजाळो बारणै सूं पाछो नीं मुड़ जावै, रणखार, एंजेलिना जोली अर समेस्ता, चाल भतूळिया रेत रमां, संजीवणी, जद बी माँडबा बैठूँ छू कविता, सपनां संजोवती हीरां आद केई कविता पोथ्यां रा नांव लिया जाय सकै।
    राजस्थानी भाषा साहित्य एवं संस्कृति अकादमी बीकानेर सूं छप्यो 55 युवा कवियां रो संकलन ‘मंडाण’ (सं.- नीरज दइया) अर युवा कविता के संदर्भ अर अप्रकाशित रैया कवियां नै साम्हीं लावण री दीठ सूं ‘थार-सप्तक’ (सं.- ओम पुरोहित ‘कागद’) उल्लेखनीय अर सराहनीय कदम राजस्थानी काव्य-धारा रै सीगै युवा कविता रै आंगणै च्याण पख मानीजैला।
    इण सीगै उल्लेखजोग कै आं पोथ्यां रै मारफत पैली बार सगळा सूं बेसी कवि साम्हीं आया। मंडाण रै संपादकीय री एक ओळी देखो- ‘आ कवितावां में सरलता, सहजता, भाषा-कौशल अर बुणगट री नवी दीठ सूं ऐ ऊरमावान कवि आपरी न्यारी ओळखाण बणावैला।’
    राजस्थानी युवा कविता ही नीं आखी कविता जातरा में अनेक कवि है जिका री पोथी अजेस साम्हीं नीं आय सकी। आ अबखाई देखतां कवि-संपादक ओम पुरोहित ‘कागद’  जसजोग काम करियो कै अप्रकाशित कवियां री कवितावां रा संकलन-संपादन ‘थार सप्तक’ रै सात खंडां में राजस्थानी नै दिया। इण लूंठै कारज रो जस बोधि प्रकाशन रा प्रबंधक कवि मायामृग नै।
    थार-सप्तक रै गुण पचास कवियां री कवितावां मांय संभावनाशील अनेक युवा कवि ई साम्हीं आया जियां कै- गौतम अरोड़ा, राजू सारसर, मनोज पुरोहित, राजूराम बिजारणियां, अंकिता पुरोहित, गौरीशंकर, पृथ्वी परिहार, सतीश गोल्याण, संजय पुरोहित, कुंजन आचार्य, मोहन पुरी, सिया चौधरी, ऋतुप्रिया, नरेंद्र व्यास, अजय कुमार सोनी, हरीश हैरी, धनपत स्वामी, जितेंद्र कुमार सोनी, ओम अंकुर, मनमीत सोनी आद। आं री कवितावां एकठ बांचण रो थार सप्तक एक संजोग बणायो।
    
    राजस्थानी कविता रै सीगै केई संभावनाशील युवा कवियां रै नांवां बिचाळै कवयित्री संतोष मायामोहन (1974) की चर्चा इण खातर जरूरी है कै पैलै संग्रै ‘सिमरण’ (1999) खातर बरस 2003 रो साहित्य अकादेमी सम्मान मिल्यो, ओ युवा राजस्थानी कविता रो सम्मान हो। साहित्य अकादेमी रै इतिहास में ई अनोखी घटना कै तीस बरसां सूं कमती उमर री कवयित्री नै ओ सम्मान मिल्यो, इण सूं पैली डोगरी री पद्मा सचदेव रै खातै ओ रिकार्ड दर्ज हो।
    राजस्थानी री दूजी कवयित्रियों में किरण राजपुरोहित, मोनिका गौड़, रचना शेखावत, गीता सामौर, सिया चौधरी, रीना मेनारिया, ऋतुप्रिया, अंकिता पुरोहित आद रा नांव उल्लेखजोग मानीजै। कवयित्रियां री संख्या कवियां री संख्या देखता कमती लखावै अर सागै ई आं में प्रयोगशीलता रो रुझान ई कमती देखण नै मिलै। दाखलै रूप कीं टाळवां युवा कवियां पेटै अठै चरचा लाजमी लखावै जिका साहित्य अकादेमी रै युवा कविता उच्छब जोधपुर मांय जसजोग कविता-पाठ करियो।
1.    मंडाण अर पैलै थार सप्तक रा कवि गौतम अरोड़ा रो जलम 3 जुलाई, 1977 नै जोधपुर में चावा-ठावा कवि पारस अरोड़ा रै आंगणै हुयो। गौतम रो कवि रूप अजेस कोई कविता संग्रै नीं छप्यो है, पण साम्हीं आई कवितावां सूं आ आस-उम्मीद करी जाय सकै कै वै कविता रै सीगै कीं नवो जरूर करैला। आं ओळ्यां नै दाखलै रूप देखां- “नीं चाहीजै म्हनै उडण सारू/ लंबो-चौड़ो आकास/ बस म्हनैं देय द्यो इत्तो ई/ जिण में लेय सकूं सांस/ राखो ओ थांरो पूरो आभो....” आं ओळ्यां नै बांचता कविता री एक पूरी परंपरा आंख्यां साम्हीं आवै, जिण में कौरव-पांडवां भेळै महाकवि रामधारीसिंह ‘दिनकर’ रै चावै खण्डकाव्य रश्मिरथी री ओळूं अठै देख सकां। गौतर रै सबदां में ई कैवूं- “इण मुट्ठी में ई तो बंद है,/ म्हारा मुट्ठी भर सुपना।” तो कैय सकां कै बेगा ई आपां गौतम अरोड़ा रै कविता संग्रै में आं नवा सुपनां नै देख सकालां।
2.    विनोद स्वामी रो जलम 14 जुलाई, 1977 नै परलीका (हनुमानगढ़) में हुयो अर परलीका री धरा राजस्थानी रै खातै घणी ऊरमावान गिणीजै। परलीका री ऊरमा में कविता रै सीगै विनोद स्वामी रो नाम घणै गीरबै सूं लियो जाय सकै। आ मन री बात है कै घर-संसार में हरेक रो आप आप रो काम हुवै अर हरेक आप आप रै काम नै समझै। “बाबो/ बाजरी बीजण गया/ मां ले’र गई भातो/ म्हैं/ कविता लिखण बैठ्यो हूं।” अठै गौर करण री बात आ है कै बाबो बाजरी बीजसी अर रामजी भला दिन देसी तो सोनै रो सूरज उगैला, ठीक इयां ई जे कवि कविता लिखण नै बैठसी तो कविता रचीज सकै। इण खातर मां है जिकी भातो तैयार करै, पाळै-पोखै। अनाज हुवै का नीं हुवै, अर दूजी मां राजस्थानी है जिण री गोदी में कविता रो सुपना पळै। बरस 2011 में छप्यो विनोद स्वामी रो कविता संग्रै ‘प्रीत कमेरी’ घणो चावो रैयो। विनोद री काव्य-भासा अर ठेठ ग्रामीण जन-जीवण रा काव्य-बिम्ब घणा प्रभावी तरीकै सूं सांस्कृतिक रंगां में प्रगट हुया है। प्रीत सीरीज री कवितावां ई उल्लेखजोग कैयी जा सकै। घर-परिवार अर गांव में रमती इण कवितावां री बुणगट में सरलता अर सादगी ई मोटी खासियत मानां। विनोद हिंदी में ई लिखै अर एक कविता संग्रै ‘आंगन, देहरी और दीवार’ नाम सूं छप्यो।
3.    मदन गोपाल लढ़ा रो जलम 2 सितम्बर, 1977 नै महाजन (बीकानेर) में हुयो। कविता संग्रै ‘म्हारै पांती री चिंतावां’ में कवि मन री जाणै कोई डायरी लिखीजी है। मदन गोपाल लढ़ा री कविता में वां रै असवाड़ै-पसवाड़ै री चिंतावां अर जूण री अबखायां भेळै कवि रो जूण में आगै बधण रो सोच अर हरेक चिंता नै चित करण री उरमा उल्लेखजोग मानी जावैला। “सिराणै राखी पोथी री म्हैं/ अजै आधी कविता ई बांची है।” ओळी में जिको साच है तो उण साम्हीं कीं सावाल ई विचार करणजोग मान सकां। जियां दाखलै रूप बात करां तो- “फूठरापै सारू आफळ/ मानखै रो/ जुगां-जूनो सुभाव है/ पण कुण है वो/ जको जद-कद/ धूड़, धूंवै अर लाय सूं/ बदरंग कर नाखै/ मिनखपणै रो उणियारो।" मदन लढ़ा री कवितावां इणी मिनखपणै रै उणियारै नै बचावण री कवितावां है। “मन मिळ्यां/ हुवै मेळै।” मदन लढ़ा इण संसार रूपी मेळै में मन सूं मन नै मिलावणवाळो कवि है। आपरो एक कविता संग्रै हिंदी में ‘होना चाहता हूँ जल’ नांव सूं छप्यो अर दूजो राजस्थानी कविता संग्रै बेगो ई आपां रै हाथां में हुवैला।
4.    ओम नागर रो जलम 20 नवम्बर, 1980 नै अंताना (बारां) में हुयो। आपनै कविता-संग्रह ‘जद बी मांडबा बैठूं छूं कविता’ माथै साहित्य अकादेमी रो युवा पुरस्कार-2012 मिल्योड़ो है। राजस्थानी युवा कविता रै सीगै ओम नागर घणो जूनो नांव है, बरसां सूं लिखै। आपरै अकादेमी पुरस्कृत संग्रै रै अलावा कविता संग्रै ‘छियांपताई’ अर ‘प्रीत’ छप्योड़ा तो हिंदी में ई ‘देखना एक दिन’ अर ‘विज्ञप्ति भर बारिश’ घणा चावा रैया। कवितावां रै अनुवाद रै सीगै ई ओम रो नाम ओळखीजै। लीलाधर जगूड़ी अर राजेश जोशी रै हिंदी कविता-संग्रै रो अनुवाद अर बीजी केई पोथ्यां छप्योड़ी। काव्य-भासा में लोकभासा री महक अर प्रयोग सूं ओम नागर री कवितावां री न्यारी ओळख करी जाय सकै। सगळा सूं बेसी मोटी बात ओम री कवितावां में युवा कवियां सूं अलायदी एक न्यारी-निरवाळी बुणगट में गद्य अर पद्य री समझ रो आंटो ई देख सकां। दाखलै रूप आ कविता देखो- “प्रेम-/ आंख की कोर पे/ धरियो एक सुपनो/ ज्ये रोज आंसू की गंगा में/ करै छै अस्नान/ अर निखर जावै छै/ दूणो।” अठै कैवणो लाजमी है कै कविता में आ कविता री समझ ओम नागर रै अध्ययन अर मनन सूं उपजी समझ है जिण रै पाण आप री कवितावां में तर-तर निखार देख्यो जाय सकै।
5.    जितेंद्र कुमार सोनी धन्नासर, हनुमानगढ़ में 29 नवम्बर, 1981 नै जलमिया। आपरो कविता संग्रै ‘रणखार’ साहित्य अकादेमी रै युवा पुरस्कार सूं सम्मानित हुयो। आज जद तकनीकी विकास रै समचै आपां साम्हीं घणा-घणा बदळाव साम्हीं आया अर उण मांय सगळा सूं मोटी खामी कै आ आखी सदी मसीन मांय बदळ रैयी है। इण अबखी बात अर विचार नै सोनी री कवितावां घणै ठीमर सुर में परोटै आदमी नै आदमी बणायो राखण रा केई केई जतन अर विचार कवि आपरी कवितावां में राखै। ‘रणखार’ री घणी कवितावां खुद कवि रै अनुभव सूं जलमी कवितावां है। कविता ‘इंकलाब-3’ री ओळ्यां है- “वर्चुअल बातां सूं  / सौरम नीं आवै / गरमास नीं मिलै / रिस्तां री” असल में सोनी रिस्ता रै सौरम रा कवि है। ‘रणखार’ री कवितावां नै आपां जमीन अर मिनखाजूण सूं आपां रै जुड़ाव री कवितावां कैय सकां। आपरो एक हिंदी कविता संग्रै अर अनुवाद रै लेखै ई जसजोग काम ओळख नै सवाई करै।
6.    कुमार अजय रो जलम 24 जुलाई, 1982 नै घांघू (चुरू) में हुयो अर आपरै पैलै राजस्थानी कविता ‘संजीवणी’ नै साहित्य अकादेमी रो युवा पुरस्कार अरपण करीज्यो। कुमार री कवितावां में घर-परिवार अर गळी गवाड़ रा निजता सूं भरिया चितराम है तो युवा मन रो सांवठो सोच। कीं बदळाव रा सुर संजोती कुमार री कवितावां बदळै बगत अर बदळतै समाज नै ई दरसावै। आपरो एक हिंदी कविता संग्रै ई प्रकासित हुयो अर आप संपादन-अनुवाद रै लेखै ई जसजोग काम कर रैया है। राजस्थानी कविता नै कुमार अजय सूं घणी उम्मीदां है।
7.    राजूराम बिजारणियां रो जलम 7 अगस्त, 1982 नै मोटोलाई, लूणकरणसर (बीकानेर) में हुयो। साहित्य अकादेमी रै युवा पुरस्कार सूं सम्मानित कविता संग्रै ‘चाल भतूळिया रेत रमां’ घणो चावो रैयो। कवि राजूराम बिजारणियां री ओळ्यां देखो- “कविता कोनी/ धरती री/ फाड़’र कूख/ चाण’चक/ उपड़्यो/ भंपोड़।” कविता रै हुवण अर नीं हुवण रो सवाल करतो कवि ठेठ ग्रामीण जन-जीवन रै सुख-दुख, आस-निरस अर हरख-कोड़ नै ई आपरै सबदां में इण ढाळै परोटै कै कविता में बिंब अर रूपक रचती ओळ्यां में एक नाद सधतो दिसै। “आभै रै लूमतै बादळ सूं / छुड़ाय हाथ, / मुळकती-ढुळकती / बा नान्ही-सी छांट!/ छोड़ देह रो खोळ / सैह’परी बिछोह…!/ गळगी-हेत में / रळगी-रेत में।” कोई ओळी कविता कद बणै अर उण ओळी रै जोड़ में किसी ओळी राखीज सकै, आ समझ राजूराम री कवितावां में देखी जाय सकै। बीजी कवितावां में गांव रै उजड़ण री जिकी पीड़ कविता रै मारफत राखीजी है वा काळजै ऊंडै उतरै। राजूराम री कवितावां री तीन मोटी खासियतां गिणा साकां- विसय री विविधता, भासा री समझ अर सांवठी बुणगट।
8.    हरिशंकर आचार्य रो जलम 10 अगस्त, 1982 नै बीकानेर में हुयो। आपरो एक राजस्थानी कविता संग्रै ‘करमां री खेती’ (2012) छप्योड़ो। कवि आचार्य री एक कविता है- “ढाय दो वा भींत/ जकी बणाय दियो है/ एक दायरो/ जिण सूं जकड़ीज्योड़ी है-/ थारी हंसी-खुसी,/ जोबन अर चंचलता।” इण दुनिया में हंसी-खुसी अर मेळ मिलाप रा सुर आं कवितावां में देख सकां। कवि नै कविता री भासा नै लेय’र विचार करण री दरकार लखावै। कविता में सपाट बयानी अर गद्य बुणगट सूं बात मरम तांई तो पूगै पण कविता रो आंटो उम्मीद करां कै आवतै संग्रै में आपनै देखण नै मिलैला।
    कवि ओम नागर, कुमार अजय, राजूराम बिजारणियां अर ऋतुप्रिया नै साहित्य अकादेमी कानी सूं कविता पेटै युवा पुरस्कार अरपण करीज्या। भळै ई इण सीगै केई युवा कवि कविता रै आंगणै कीरत मांडैला। सगळा युवा कवियां रा नांव गिणावणा संभव नीं क्यूं कै घणा युवा कवि नै कवितावां रै मारग देख सकां। राजेश कुमार व्यास, डॉ. मदन गोपाल लढ़ा, दुष्यत, जितेंद्र कुमार सोनी, हरीश बी. शर्मा, पृथ्वी परिहार, शिवदानसिंह जोलावास, सतीश छिम्पा, किशोर कुमार निर्वाण, संजय आचार्य, विनोद स्वामी, महेंद्र मील, सुनील गज्जाणी, कुंजन आचार्य, गौतम अरोड़ा, जयनारयाण त्रिपाठी, वाजिद हसन काजी, गौरीशंकर सूं गंगासागर शर्मा आद तांई पूगता कविता रा केई रंग-रूप निगै आवै। आं केई कवियां रै नांवां मांय इसा कवि ई सामिल है जिका री कवितावां रै मारफत आपां आज री कविता रो उणियारो ई आपां देख सकां। इण आलेख रै मारफ युवा कविता री बात पूरी नीं हुई है म्हारो मानणो है कै युवा कविता री बात कदैई किणी आलेख मांय पूरी नीं हुय सकै कारण कै युवा कवितावां जिण वेग सूं आगै बध रैयी है अर जिण ढाळै इण मांय नवा कवि जुड़ता जाय रैया है वां सूं लखावै कै इण सीगै भळै अर लगोलग बात हुवणी चाइजै। सार रूप अठै कैवां कै युवा कविता रै रचाव मांय समकालीनता सूं जुड़िया जथारथ है, तो केई नवा सवाला भेळै इण आखी दुनिया नै बदळ देवण रो जोस आपरै पूरै होस अर सपनां साथै मेहतावूं मानीजैला।

डॉ. नीरज दइया की प्रकाशित पुस्तकें :

हिंदी में-

कविता संग्रह : उचटी हुई नींद (2013), रक्त में घुली हुई भाषा (चयन और भाषांतरण- डॉ. मदन गोपाल लढ़ा) 2020
साक्षात्कर : सृजन-संवाद (2020)
व्यंग्य संग्रह : पंच काका के जेबी बच्चे (2017), टांय-टांय फिस्स (2017)
आलोचना पुस्तकें : बुलाकी शर्मा के सृजन-सरोकार (2017), मधु आचार्य ‘आशावादी’ के सृजन-सरोकार (2017), कागद की कविताई (2018), राजस्थानी साहित्य का समकाल (2020)
संपादित पुस्तकें : आधुनिक लघुकथाएं, राजस्थानी कहानी का वर्तमान, 101 राजस्थानी कहानियां, नन्द जी से हथाई (साक्षात्कार)
अनूदित पुस्तकें : मोहन आलोक का कविता संग्रह ग-गीत और मधु आचार्य ‘आशावादी’ का उपन्यास, रेत में नहाया है मन (राजस्थानी के 51 कवियों की चयनित कविताओं का अनुवाद)
शोध-ग्रंथ : निर्मल वर्मा के कथा साहित्य में आधुनिकता बोध
अंग्रेजी में : Language Fused In Blood (Dr. Neeraj Daiya) Translated by Rajni Chhabra 2018

राजस्थानी में-

कविता संग्रह : साख (1997), देसूंटो (2000), पाछो कुण आसी (2015)
आलोचना पुस्तकें : आलोचना रै आंगणै(2011) , बिना हासलपाई (2014), आंगळी-सीध (2020)
लघुकथा संग्रह : भोर सूं आथण तांई (1989)
बालकथा संग्रह : जादू रो पेन (2012)
संपादित पुस्तकें : मंडाण (51 युवा कवियों की कविताएं), मोहन आलोक री कहाणियां, कन्हैयालाल भाटी री कहाणियां, देवकिशन राजपुरोहित री टाळवीं कहाणियां
अनूदित पुस्तकें : निर्मल वर्मा और ओम गोस्वामी के कहानी संग्रह ; भोलाभाई पटेल का यात्रा-वृतांत ; अमृता प्रीतम का कविता संग्रह ; नंदकिशोर आचार्य, सुधीर सक्सेना और संजीव कुमार की चयनित कविताओं का संचयन-अनुवाद और ‘सबद नाद’ (भारतीय भाषाओं की कविताओं का संग्रह)

नेगचार 48

नेगचार 48
संपादक - नीरज दइया

स्मृति में यह संचयन "नेगचार"

स्मृति में यह संचयन "नेगचार"
श्री सांवर दइया; 10 अक्टूबर,1948 - 30 जुलाई,1992

डॉ. नीरज दइया (1968)
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आंगळी-सीध

आलोचना रै आंगणै

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