Thursday, April 21, 2022

विराट हृदय के महामानव डॉ. संजीव कुमार / डॉ. नीरज दइया

            एक सरप्राइज के साथ डॉ. संजीव कुमार जी से मैं पहली बार फरवरी 2018 में मिला। साहित्य अकादेमी मुख्य पुरस्कार राजस्थानी भाषा के अंतर्गत मुझे दिल्ली में मिलना था और यह भी तय था कि उनसे मुलाकात होगी। मैंने नहीं सोचा था कि जिस दिन साहित्य अकादेमी सम्मान मिलेगा उसी दिन श्रीमती रजनी छाबड़ा जी और वे मिलकर मुझे सरप्राइज देने वाले हैं। मेरे लिए सरप्राइज तो यह भी था कि जब बंगलौर में मुझे साहित्य अकादेमी का बाल साहित्य पुरस्कार मिला, तब अंकशास्त्री रजनी जी ने कहा था कि जब आपको दिल्ली में सम्मान मिलेगा तब भी मैं वहां पहुंच जाऊंगी। तब मैंने इसे अतिरेक समझा और यह विचार नहीं किया था कि भविष्य में ऐसा हो भी सकता है। रजनी जी आंखों में एक चमक और उत्साह मैं देख रहा था और पुरस्कार-समारोह के बाद रजनी जी ने बताया कि संजीव कुमार जी आने वाले हैं। वे समारोह में आ रहे थे, पर शायद उन्हें कहीं देर हो गई है। उन्होंने बताया कि जब संजीव ने कहा तो वे पक्का आएंगे।  

            मेरे साथ बीकानेर से मित्र नवनीत पाण्डे आए थे इसलिए अब होटल पहुंच कर चाय पीने वाले हम तीन हो गए। संजीव जी आने वाले हैं इसलिए रजनी जी भी हमारे साथ जहां हमें ठहराया गया था उसी होटल साथ आ गई थी। चाय अभी पूरी भी नहीं हुई थी कि रजनी जी का फोन बजा और पता चला कि संजीव जी होटल पहुंच गए हैं। उनके आने पर पता चला कि मेरे लिए यह एक बड़ा सरप्राइज था कि मेरी राजस्थानी कविताओं के अंग्रेजी अनुवाद की प्रतियां साथ लाए हैं। संजीव जी बधाई तो फोन पर भी दे सकते थे किंतु बहुत बीजी होते हुए भी लंबी दूर तय कर के केवल इसलिए आए हैं कि आज खुशी के दिन की खुशी चौगुनी कर दी जाए। इसके बड़ी बात भला क्या हो सकती है कि रजनी छाबड़ा जी ने मेरे राजस्थानी कविता संग्रह ‘पाछो कुण आसी’ की कविताओं का अंग्रेजी अनुवाद किया जो बेहद सुंदर और आकर्षक ढंग से इंडिया नेटबुक ने प्रकाशित किया है। हम चार मित्रों ने वहीं उस पुस्तक का लोकार्पण किया और एक साथ रात्रिकालीन भोजन का आनंद भी लिया।

            इस अविस्मरणीय मुलाकात में डॉ. संजीव कुमार ने अपनी दस से अधिक किताबें मुझे बेहद विनम्रता से भेंट की। उनकी यह भेंट मुझे आश्चर्यचकित करने वाली थी क्योंकि मैं यह तो जानता था कि संजीव जी कवि है, किंतु नहीं जानता था कि इतनी किताबें आपकी प्रकाशित हो चुकी हैं। यहां यह लिखना बेहद जरूरी है कि हमारे साहित्य संसार में बहुत कम रचनाकार मित्र हैं जिनके समग्र अवदान को हम ठीक से जान पाते हैं। यह कोरा उपदेश नहीं है इस में मैं स्वयं भी शामिल हूं और प्रयास करता हूं कि अधिक से अधिक पढ़ने जानने के अवसर प्राप्त कर सकूं। अब डॉ. संजीव कुमार जी के कवि को ठीक-ठीक जानने का सिलसिला आरंभ हुआ और मैं उनके प्रदत्त कविता-संग्रहों से गुजरते हुए कहीं सहमत और कहीं असहमत होते हुए भी कवि-मन से प्रभावित होता जा रहा था। इसी बीच एक पुराने विद्यार्थी से मेरी मुलाकात हुई जो मुझे अकादेमी पुरस्कार की बधाई के साथ उपालंभ भी दे रहा था कि मुझे किताब छापने का अवसर नहीं देते हैं। मैंने कहा- क्या कविताओं के राजस्थानी अनुवाद प्रकाशित करने में रुचि है तुम्हारी? उसकी सहमति से मुझे बल मिला और मैंने सोचा कि सरप्राइज का बदला सरप्राइज। मुझे मिली किताबों में से मैंने कविता संग्रह ‘मधूलिका’ (2016), ‘टूटते सपने, मरता शहर’ (2016), ‘अपराजिता’ (2017), ‘मुक्तिबोध’ (2017), ‘अंतरंगिनी’ (2017), ‘यकीन नहीं होता’ (2017), ‘समय की बात’ (2017) और ‘थोड़ा-सा सूर्योदय’ (2018) आठ संग्रहों की कुछ चयनित कविताओं का राजस्थानी अनुवाद करने की ठान ली। संग्रह का नाम रखा ‘घिर घिर चेतै आवूंला म्हैं’ अर्थात बार बार स्मरण किया जाऊंगा मैं।

            मैंने डॉ. संजीव कुमार से पूछा आपने तो कमाल कर दिया है एक ही वर्ष में एक साथ इतनी कविताओं की किताबें कैसे? उन्होंने बताया कि लिखता तो मैं लंबे समय से रहा किंतु प्रकाशन का सिलसिला अब आरंभ किया है। मेरे क्या किसी भी रचनाकार के लिए यह कम आश्चर्य की बात नहीं होगी कि एक ही वर्ष में एक साथ इतनी पुस्तकें प्रकाशित हो और वह भी कविता की। वर्ष 2017 की पांच किताबें तो महज एक उदाहरण है यदि आप कवि डॉ. संजीव कुमार का परिचय देखेंगे तो आश्चर्य होगा।

            आश्चर्य कोई एक हो तो उसे व्यक्त भी किया जाए अब तो उनके यहां आश्चर्यों की पूरी दुनिया है और एलिस इन वंडरलैंड की तर्ज पर आप और हम उनको जानने वाले वंडरलैंड में पहुंच जाते हैं। यह सहज सवाल है कि वाणिज्य वर्ग का एक अच्छा भला भरपूर कमाने खाने वाला आदमी कविता और प्रकाशन में कैसे आ गया है? जिस व्यक्ति ने लगभग चालीस वर्षों तक विभिन्न कंपनियों में बड़े पदों पर रहते हुए कानून और न्याय की दुनिया को बेहद नजदीक से देखा-परखा उसे साहित्य में क्या खास लगा कि एक के बाद एक लगातार किताबें विभिन्न प्रकाशकों के यहां से प्रकाशित होती रही और बाद में स्वयं का प्रकाशन प्रतिष्ठान स्थापित कर लिया। यहां तक भी ठीक था किंतु उन्होंने लिखने पढ़ने की उसी सक्रिया के साथ अपने मित्रों को साथ लेकर अपने प्रकाशन संस्थान और व्यक्तित्व को विराटता की दिशा में जैसे प्रक्षेपित कर दिया।

            हिंदी साहित्य में डॉ. संजीव कुमार विगत वर्षों में धूमकेतु की भांति पूरे परिदृश्य पर छा गए हैं। तकनीक की दुनिया की बात करेंगे तो कोरोना काल में उन्होंने जहां अनेक किताबें रची और कृतियां उनकी सामने आती चली गई उसी के साथ-साथ अनेक रचनाकारों से उनके साक्षात्कार का लंबा सिलसिला चला। रचनाकारों को सम्मान देना और संबंधों में दूर तक चलते चले जाना उनकी विशेषता है। उनकी अनेक रचनाओं का विभिन्न भारतीय भाषाओं में अनुवाद हुआ है। उन पर विश्वविद्यालयों में शोध हुए हैं और भविष्य में भी होंगे। वे जीवन के साठ से अधिक वसंत देख चुके हैं किंतु जैसे हर वसंत पर वे खिल खिल उठते हैं। नए विषयों और नई रचनात्मकता के साथ कभी प्रबंध काव्य रचते हैं और ऐतिहासिक-पौराणिक चरित्रों को नए ढंग से देखने-परखने का आह्वान करते हैं। जो उनके परिचय हैं उन सबको ऐसा प्रतीत होता है कि वे उनके बहुत करीब हैं। कोई काम हो अथवा कोई योजना हो हमेशा डॉ. संजीव कुमार जी उत्साहित होकर मित्रों के साथ जुट जाते हैं। व्यंग्य संग्रह अनेक प्रकाशित हुए हैं किंतु इंडिया नेटबुक द्वारा 251 व्यंग्यकारों का विशाल संग्रह और इस संख्या तक आने से पहले के संग्रह भी अद्वितीय हैं।

            बहुत बार मुझे ऐसा लगता है कि डॉ. संजीव कुमार जी ने अपने शब्दकोष से ‘नहीं’ और ‘ना’ जैसे शब्दों को निकाल कर बाहर कर दिया है। जैसे वे नहीं और ना बोलना जानते ही नहीं है, मैंने उन्हें सदैव ‘हां’ बोलते हुए सुना है। बेहद सरलता के यह भी सरलीकृत हो सकता कि यह उनका मेरा लेना-देना है, किंतु इसे यदि गंभीरता और धैर्य के साथ परख करेंगे तो पाएंगे कि उनका उद्देश्य महान है। व्यापकता के साथ कार्य करना और सबको साथ लेकर चलने की भावना बहुत कम देखने को मिलेगी जो उनमें विद्यमान है। वे क्षुद्र सोच के छोटे इंसान नहीं, वरन विराट हृदय के महामानव हैं। परिचय उसका दिया जाता है जो अपरिचित होता है, डॉ. संजीव कुमार जी तो सुपरिचित हैं। अंत में बस यही कहना है कि उन्होंने आंगारों से भरे पथ पर चलकर हमें बहुत कुछ कर दिखाया है। यह कहानी अभी पूरी नहीं होती, वे अभी थमें नहीं हैं अनवरत गतिमान हैं। उनके बहुआयामी व्यक्तित्व के अनेक रंग अभी समय के साथ आने शेष है। उनसे बातें और मुलाकातें होती रहेंगी और उनका रंग गाढ़ा होता जाएगा।

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·        डॉ. नीरज दइया


 

 

Tuesday, April 12, 2022

दोय ओडिया लघुकथावां / मूल लेखिका : डॉ. मौसुमी परिडा


 हिंदी सूं राजस्थानी अनुवाद / डॉ. नीरज दइया

साच रो मोल

            ‘चावळ मांय कांकरा है।’ अनाथालय मांय रैवणियो गौतम बोल्यो। सारै बैठ्या सगळा टाबर उण नै देखण लाग्या। ‘दोय दिन हुया है उण नै अठै आयां नै अर नखरा तो देखो।’ एक होळै सूं बोल्यो। दूजो कैयो- ‘काल रात नै ई कैवतो हो कै रोट्यां चीढी है, सावळ सेकीजी कोनी।’ 

            ‘इण नै कांई ठाह कै अठै आपां री मरजी सूं रोटी कोनी मिलै, कमावणो पड़ै बारली दुनिया दांई!’

            गौतम रा रंग-ढंग देख’र एक मोटो छोरो निगम कैयो- ‘किणी नै कांकरो कोनी दिख्यो, थन्नै दिखग्यो?’

            गौतम बेखोफ बोल्यो- ‘पैलो गासियो लेवतां ई दांतां हेठै कांकरो आयग्यो...।’

            ‘अच्छिया म्हैं देखूं देखाण..।’ कैवतो निगम गौतम री थाळी अरोगण लाग्यो। थाळी साफ कर’र बोल्यो- ‘कांकरो तो कठैई कोनी... म्हैं खा’र देख्यो है। तू कूड़ो है।’  

उण दिन रात नै ई रोटी-साग देख’र गौतम फेर कैयो- ‘अठै खाणो चोखो कोनी मिलै। साग बासी हुवै, ठाह कोनी कठै सूं लावै।’

फेर निगम आयो अर उण री थाळी चट कर’र मारग लियो। आखै दिन भूखो रैयो गौतम...। आखी रात नींद कोनी आई भूखा मरतै नै। आंसु आवै हा। अठै साच बोल्या सजा मिलै। बारै काम करां तो दिन मांय एक बार तो सावळ जीम तो सकां।  

            आगलै दिन दिनूगै सगळा नै जीमण पुरस दियो फगत गौतम रै। भूखां मरतो बो बोल्यो- ‘म्हनै ई जीमण देवो।’ निगम कैयो- ‘थन्नै तो रोटी चोखी कोनी लागै, जे रोटी री कदर नीं करसी तो खासी कांई?’

‘तो म्हनै बारै जावण दो। म्हनै अठै कोनी रैवणो। म्हैं भूखो हूं।’ तद सूं उण रा हाथ-पग बांध दिया। रोटी नै तरसतो गौतम तद सूं एक ई रट तोतै दांई लगा राखी है- ‘रोटी भोत चोखी है अर लोग ई घणा ई चोखा है अठै रा।’

            दोय दिनां पछै अनाथालय नै पुरस्कार मिल्यो। कूड़ बोल’र अठै रोकड़ा अर माण कमा सकां। खरो मिनख कमरै मांय बंद है, कूड़ा अर फरेबी मौज उड़ावै, जूण जीवै।

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 लडाकू भगवान

          दादीसा बोल्या- ‘जिको कीं हुवै उण मांय सगळा री भलाई हुया करै अर भगवान री मरजी हुवै बियां ई हुवै। पेड़ सूं पानड़ा खिरै का डूंगर सूं भाखर बिना भगवान री मरजी कीं नीं हुवै।’ महेश रै मगज मांय बैठगी आ बात- ‘जिको कीं हुवै बो भगवान री मरजी सूं हुवै।’

दादोसा अखबार बांचै हा। जुध रै बारै मांय जाणकारी सूं घणा दुखी हा। जीसा सूं इण बाबत बातां करै हा।

            महेश बूझ्यो- ‘जुध क्यूं हुवै?’

            ‘अहंकार अर जिद्द नै सिध करण नै।’ दादो सा कैयो।

            ‘जुध मांय कांई हुवै?’

            ‘फगत बरबादी भळै दूजो कीं नीं हुवै।’

            महेश रै ठसक लागी। मनां विचारण लाग्यो- ‘भगवान आपरी मरजी सूं आ दुनिया उजाड़ै क्यूं?’

            दादो सा आगै बांचै हा- ‘चुनावी हिंसा के लिए तीन लोग मारे गए और कई घायल हुए हैं। ये हिंसा हर गली में, परिवारों में भी फैल गई है! किसी गांव में एक बेटे ने सम्पत्ति के लिए अपनी मां का खून कर दिया!’

            अबै महेश मून नीं रैय सक्यो, बोल्यो- ‘कांई भगवान लड़ाकू अर हत्यारो है? कांई अशांति फैलार बो राजी हुवै?’

दादो सा अचरज सूं पूछ्यो- ‘ओ थन्नै कुण कैयो?

दादीसा हमेस कैवै- जिको हुवै बो भलाई खातर हुवै अर जिको कीं हुवै बो भगवान री मरजी सूं ई हुवै।’

दादोसा कीं नीं बोल्या...। जीसा रो उणियारो ई फीको फीको निजर आवै हो।

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Sunday, April 10, 2022

राजस्थानी साहित्य के भागीरथ : मुरलीधर व्यास ‘राजस्थानी’ / डॉ. नीरज दइया

 जब हम समय के विगत पृष्ठों को खोलते हैं तो पाते हैं कि आजादी से पहले और उसके बाद भी राजस्थानी साहित्य को लेकर बीकानेर में विपुल कार्य हुआ है, अब भी हो रहा है। हम आज तकनीक के घोड़ों पर सवार हैं और बहुत कुछ कर सकते हैं फिर भी हमारे अनेक ऐसे पुरोधा साहित्यकार हैं जिनके बारे में इंटरनेट पर अधिक कुछ नहीं मिलता है। साहित्यकारों के परिवार उनकी धरोहर को सहेजेंगे, किंतु ऐसा बहुत कम हुआ है। ऐसे में हम सभी भाषा-साहित्य समर्थकों का दायित्व है कि हमसे जितना जो कुछ हो सके, हम करें।
    बीकानेर के साहित्यकार मुरलीधर व्यास ‘राजस्थानी’ राजस्थानी साहित्य के इतिहास में बहुत बड़ा नाम है और उनके विपुल अवदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता है। विविध विधाओं में लिखने वाले व्यास जी के साहित्य को अब उनके पड़पौत्र और युवा साहित्यकार योगोश व्यास ने संरक्षित करने का दायित्व लिया है। यह खुशी की बात है कि योगोश भी अपने नाम के आगे ‘राजस्थानी’ लिख कर व्यास जी की परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं।
    मुरलीधर व्यास का जन्म चैत्र शुक्ला द्वादशी विक्रम संवत 1955 को हुआ। इसे हम हमारी परिचित शब्दावली में कहें तो 10 अप्रैल, 1898 कहना समीचीन होगा। उनकी पुण्य तिथि 16 फरवरी, 1984 है। अंग्रेजों का देश पर राज था और गुलाम भारत में शिक्षा का प्रचलन भारतीय समाज में बहुत कम था। व्यास जी ने मैट्रिक तक शिक्षा प्राप्त की और बाद में उन्होंने प्रयाग से विशारद भी किया। उनकी अनेक पुस्तकों में नाम मुरलीधर व्यास विशारद अंकित है। राजस्थानी के अतिरिक्त उनको हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू और गुजराती आदि अनेक भाषाओं का अच्छा ज्ञान था। वे अनेक बड़े पदों पर रहे और राजकीय सेवा से सेवानिवृति के बाद भी लिखते रहे। उनके जीवनानुभवों को उनकी रचनात्मकता में देख सकते हैं।
    मुरलीधर व्यास जी ने वर्ष 1930 में राजस्थानी भाषा में लिखने बोलने का दृढ़ संकल्प लिया और जीवन पर्यंत यानी फरवरी, 1984 तक उसे व्रत मान निभाते रहे। सर्वाधिक उल्लेखनीय बात यह कि उन्होंने राजस्थानी में लिखने का एक मिशन आरंभ किया। अपने साथी रचनाकारों के साथ आधुनिक राजस्थानी की नींव के निर्माण में उनका विपुल योगदान है। वे राजस्थानी भाषा साहित्य अकादमी (संगम) के प्रथम अध्यक्ष भी रहे। मुरलीधर व्यास ‘राजस्थानी’ के साहित्य पुरोधा होने का एक प्रमाण यह भी है कि वर्ष 1998 में राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी बीकानेर और वर्ष 2009 में साहित्य अकादेमी नई दिल्ली ने उन पर मोनोग्राफ प्रकाशित किया है। राजस्थानी अकादमी ने स्मृति के अक्षुण रखने के उद्देश्य से उनके नाम पर 51,000/- रुपये का मुरलीधर व्यास राजस्थानी कथा पुरस्कार भी आरंभ किया है। वर्तमान में यह सिलसिला अकादमी अध्यक्ष की नियुक्ति के अभाव में थमा हुआ है। राजस्थानी भाषा-साहित्य के लिए समर्पित संस्थाओं का यह दायित्व है कि वे हमारे पुरोधाओं की स्मृति में समय-समय पर विभिन्न कार्यक्रम आयोजित करे। कार्यक्रमों के माध्यम से चर्चाओं और विमर्श से नई बातों का खुलासा होगा वहीं शोध-खोज द्वारा हम अपनी थाती को बचाए रखने में सक्षम हो सकेंगे।
    मुरलीधर व्यास ‘राजस्थानी’ के कार्यों में दो बातें बहुत स्पष्ट ढंग से रेखांकित की जा सकती है। पहली बात बे मौलिक सृजन के पक्षधर रहे और दूसरी वे अपनी परंपरा और लोक साहित्य को संरक्षित करना ना केवल जरूरी मानते हैं बल्कि इस दिशा में उन्होंने कार्य भी किया।
    आधुनिक कहानी के क्षेत्र में उनका उल्लेखनीय संग्रह ‘बरसगांठ’ (1963) प्रकाशित हुआ जो कथा साहित्य में एक धरोहर के रूप में सदा स्मरणीय रहेगा। यह वह बिंदु है जहां से हम आधुनिक कहानी का आगाज देख सकते हैं। सर्वाधिक उल्लेखनीय तथ्य यह है कि वे पहले ऐसे आधुनिक कहानीकार है जिन्होंने कहानी को दिशा दी। वैसे तो आधुनिक राजस्थानी कहानी और हिंदी कहानी की शुरुआत लगभग एक साथ हुई। राजस्थानी साहित्य में शिवचंद्र भरतिया जी की सन 1904 में प्रकाशित कहानी ‘विश्रांत प्रवासी’ को पहली राजस्थानी कहानी माना जाता है और आचार्य रामचंद्र शुक्ल सन 1900 में प्रकाशित किशोरीलाल गोस्वामी की कहानी ‘इंदुमति’ को हिंदी की पहली कहानी मानते हैं। किंतु भरतिया जी की कहानी यात्रा राजस्थानी कहानी को आगे नहीं बढ़ती और उसके बाद लंबा अंतराल है। किंतु व्यास जी के कार्यों में निरंतरता और विविधता है। उनकी ‘जूना जागता चितराम’ (1963) और ‘इक्कैवाळौ’ (1965) उल्लेखनीय कथेतर गद्य की पुस्तकें हैं। राजस्थानी कहावतों और लोक साहित्य पर उनका काम उल्लेखनीय है। उनके समकालीन राजस्थानी के प्रख्यात लेखक श्रीलाल नथमल जोशी उनको बेन यहूदा कहा है, क्यों कि बेन यहूदा ने यह प्रतिज्ञा ली थी कि वह अपनी मातृभाषा हिब्रू के अलावा दूसरी भाषा में बात नहीं करेंगे इसी भांति व्यास जी ने भी राजस्थानी का व्रत लेकर आजीवन उसे निभाया।  
    मुरलीधर व्यास ‘राजस्थानी’ की रचनाशीलता में भाषा के प्रयोग को हम देखें तो पाएंगे उन्होंने लोक जीवन को अपनी भाषा में सुंदर ढंग से साकार किया है। उनके यहां प्रस्तुत समस्याएं बहुत नई नहीं है किंतु लोक जीवन और व्यवहार के सिलसिले में यहां स्थानीयता को उकेरा गया है। आम आदमी की पीड़ा दुख दर्द भारतीय समाज का हिस्सा रहा है किंतु उनका प्रस्तुतीकरण और भाषा व्यवहार व्यास जी यहां बेहद प्रभावशाली है। आज आवश्यकता इस बात की है कि उनके समग्र साहित्य को ग्रंथावली के रूप में प्रकाशित किया जाए। उनकी रचनाओं का हिंदी-अंग्रेजी और अन्य भारतीय भाषाओं में अनूदित हो। उनके समग्र अवदान का सम्यक मूल्यांकन हो। इन सब से भी बेहद जरूरी उनकी विचारधार का विस्तार हो। वे आजीवन जिस राजस्थानी भाषा, साहित्य और संस्कृति के लिए कार्यरत रहे उसकी पहचान के लिए संघर्षरत रहे उसी मिशन को हमें आगे बढ़ाना है। हमारी पीढ़ी और युवा वर्ग को समझना है कि भाषा, साहित्य और संस्कृति के विकास में ही राजस्थान और सभी राजस्थानवासियों का विकास-सूत्र समाहित है।
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Saturday, April 09, 2022

अदीतवार तो बस अदीवार हुवै / अनुवाद - नीरज दइया

 

मूळ रचनाकार - शौकत थानवी (1904 - 1963 लाहौर, पाकिस्तान)

हिंदी अनुवाद - अखतर अली / राजस्थानी अनुवाद - नीरज दइया

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अदीतवार जिसो मनमोबणो, रूपाळो अर रळियावणो हफतै मांय कोई दूजो दिन कोनी हुवै। इण दुनिया मांय म्हारी निजरां मांय बो मिनख सगळा सूं सिरै आदरजोग, पूजनीक, उस्तादां मांयलो उस्ताद, गुणियां मांयलो गुणी है जिको अदीवार नै अदीतवार बणायो। वैज्ञानिकां मोकळी खोज करी पण बै ई उण मिनख नै सलाम ठोकै जिण अदीवार री खोज करी। लोगां नै सनिवार फगत इण सारू दाय अवै कै सनिवार पछै अदीतवार आवै। अदीतवार रै आवण री लाडा-कोड़ा उडीक राखीजै अर अदीतवार रै टिप्यां बित्तो ई सापो करीजै। सनिवार री कोख सूं अदीतवार रो जलम हुवै अर सोमवार रै हाथां सूं उण री हित्या। अदीतवार... जिण सारू दिन गिण-गिण’र काढीजै।
अदीतवार री कदर तो म्हे नौकरी करणिया लोग ई जाणां, ठाला अर बेरुजगार लोगां खातर कांई तो अदीतवार अर कांई बुधवार? ऐ लोग तो जिण दिन म्हनै मुळकतो देखै, समझ जावै कै हुवो ना हुवो आज अदीतवार पक्को है। अदीतवार रै एक दिन खातर ई तो म्हैं लोग मिनखां री गिणती मांयला हुवां बाकी रै दिनां मांय तो मसीन हुवां, जिण रो एक ऑपरेटर ई हुया करै। ऑपरेटर म्हां लोगां मांय आखै दिन खातर जाणै काम भेळो कर’र ठसा-ठसा’र भर देवै अर म्हां लोगां रो मगज काढ’र स्टोर रूम मांय जमा कर लियो जावै। फेर बो कैवै कै लिखो, तो म्हे लिखण ढूकां, बो कैवै- इण नै अठै, इण नै अठै अर इण नै अठै राखो, तो म्हे लोग उण नै बठै, उण नै बठै अर उण नै बठै धरता रैवां। फेर कैयो जावै कै अबै अठै सूं बठै पधारो तो फेर बठै सूं अठै पधारो। इण भांत सोमवार सूं सनिवार तांई री जातरा म्हे लोग मसीन बण’र करता रैवां अर फेर सनिवार री सिंझ्या घरै आवती बगत म्हां लोगां नै एक दिन खातर म्हांरो मगज पाछो देय दियो जावै।
अदीतवार ई फगत एक दिन है जिण दिन म्हे म्हांरी मरजी सूं खुद खातर कीं काम करां अर ओ अदीतवार रो ई कमाल है कै अदीतवार रै दिन मिनख थाकै ई कोनी।
जे म्हारी जलम तारीख सूं म्हारी ऊमर काढसो तो बा म्हनै तो मंजूर कोनी। गणित रै जोड़ रो नेम अठै लागू कोनी होय सकै, क्यूं कै गणित रा विद्वान जद म्हारी जूण रा दिन गिणैला तद बै हफतै मांय सात, महीनै मांय तीस अर साल रा तीन सौ पैसठ दिन ई गिणैला। म्हैं म्हारी ऊमर मांय बै दिन क्यूं जोड़ण देवूं जिका नै म्हैं म्हारै खातर जीयो ई कोनी। म्हैं तो म्हारी ऊमर हफतै मांय एक दिन, महीनै मांय चार दिन अर साल मांय बावन दिनां मुजब ई गिणूंला, क्यूं कै इत्ता ई दिन तो म्हारा खुद रा दिन है, इत्ता ई दिन म्हैं म्हारै खातर जीया जूण भोगी।
अदीतवार बो दिन हुवै जिण री लंबाई कोनी हुया करै गैराई हुवै, उण रो क्षेत्रफल कोनी हुवै आयतन हुवै। जियां करसो खेत मांय फसल देख’र राजी हुवै, बियां ई म्हे कलैंडर मांय अदीतवार नै देख’र राजी हुवां। उण महीनै म्हां लोगां नै अणमाप हरख हुवै जिण महीनै कलैंडर मांय पांच अदीतवार दीसै। जद म्हैं सोमवार रै डागळै ऊभो हुय’र देखूं तद उण पार आपरी छात माथै ऊभो अदीतवार निगै आवै जिको सैन मांय म्हनै खुद पाखती बुलावै, तद म्हैं मंगळ, बुध, गुरु, सुक्र अर सनि रा डागळा डाक’र अदीतवार तांई पूग जावूं अर उण नै बाथा भर लेवूं। इण मांय कोई दोय राय कोनी कै अदीतवार ई म्हारै जैड़ै कदरदान नै खुद खन्नै देख’र आपरै भाग नै सरावतो हुवैला।
जियां सायर खातर चांद, भूखै खातर रोटी, नेता खातर रैली महतावू हुवै, ठीक बियां ई महतावूं हुवै नौकरी करणिया मिनखां खातर अदीवार। अदीतवार आपां लोगां खातर कित्तो हरख लेय’र पधारै पण आपां अदीतवार साथै साव कोझो बरताव करां, आपां तो अदीतवार रो सोसण करां सोसण। अदीतवार रै भोडकै माथै इत्तो लादो लाद देवां कै बो बापड़ो खिण भर खातर ई निरांयत री सांस नीं लेय सकतो हुवैला। साइकिल रिपेरिंग अदीतवार नै, बूट पालिस अदीतवार नै, कपड़ा प्रेस अदीतवार नै, पीसणो पिसासां अदीतवार नै, किणी सूं मिलण नै जासां अदीतवार नै, सिनेमा जासां अदीतवार नै, तासा रमसां अदीतवार नै अर आं सगळा सूं ठाडी बात टांगां छीदी कर’र मोड़ै तांई सूता रैसां अदीतवार नै।
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डॉ. नीरज दइया की प्रकाशित पुस्तकें :

हिंदी में-

कविता संग्रह : उचटी हुई नींद (2013), रक्त में घुली हुई भाषा (चयन और भाषांतरण- डॉ. मदन गोपाल लढ़ा) 2020
साक्षात्कर : सृजन-संवाद (2020)
व्यंग्य संग्रह : पंच काका के जेबी बच्चे (2017), टांय-टांय फिस्स (2017)
आलोचना पुस्तकें : बुलाकी शर्मा के सृजन-सरोकार (2017), मधु आचार्य ‘आशावादी’ के सृजन-सरोकार (2017), कागद की कविताई (2018), राजस्थानी साहित्य का समकाल (2020)
संपादित पुस्तकें : आधुनिक लघुकथाएं, राजस्थानी कहानी का वर्तमान, 101 राजस्थानी कहानियां, नन्द जी से हथाई (साक्षात्कार)
अनूदित पुस्तकें : मोहन आलोक का कविता संग्रह ग-गीत और मधु आचार्य ‘आशावादी’ का उपन्यास, रेत में नहाया है मन (राजस्थानी के 51 कवियों की चयनित कविताओं का अनुवाद)
शोध-ग्रंथ : निर्मल वर्मा के कथा साहित्य में आधुनिकता बोध
अंग्रेजी में : Language Fused In Blood (Dr. Neeraj Daiya) Translated by Rajni Chhabra 2018

राजस्थानी में-

कविता संग्रह : साख (1997), देसूंटो (2000), पाछो कुण आसी (2015)
आलोचना पुस्तकें : आलोचना रै आंगणै(2011) , बिना हासलपाई (2014), आंगळी-सीध (2020)
लघुकथा संग्रह : भोर सूं आथण तांई (1989)
बालकथा संग्रह : जादू रो पेन (2012)
संपादित पुस्तकें : मंडाण (51 युवा कवियों की कविताएं), मोहन आलोक री कहाणियां, कन्हैयालाल भाटी री कहाणियां, देवकिशन राजपुरोहित री टाळवीं कहाणियां
अनूदित पुस्तकें : निर्मल वर्मा और ओम गोस्वामी के कहानी संग्रह ; भोलाभाई पटेल का यात्रा-वृतांत ; अमृता प्रीतम का कविता संग्रह ; नंदकिशोर आचार्य, सुधीर सक्सेना और संजीव कुमार की चयनित कविताओं का संचयन-अनुवाद और ‘सबद नाद’ (भारतीय भाषाओं की कविताओं का संग्रह)

नेगचार 48

नेगचार 48
संपादक - नीरज दइया

स्मृति में यह संचयन "नेगचार"

स्मृति में यह संचयन "नेगचार"
श्री सांवर दइया; 10 अक्टूबर,1948 - 30 जुलाई,1992

डॉ. नीरज दइया (1968)
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आंगळी-सीध

आलोचना रै आंगणै

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