Thursday, December 31, 2020

पुस्तक समीक्षा / डॉ. नीरज दइया

 ईश्वर : हां, ना... नहीं’ : अतिसंवेदनशीलता में कविता का प्रवेश

सुधीर सक्सेना समकालीन कविता के विशिष्ट कवि हैं। विशिष्ट इस अर्थ में कि वे अपने आरंभिक लेखन से ही प्रयोगधर्मी और नवीन विषयों के प्रति मोहग्रस्त रहे हैं। कहा जा सकता कि वे भाषा, शिल्प और कथ्य के स्तर पर अन्य कवियों से अलहदा हैं, उनके यहां सामान्य और औसत से भिन्न विशिष्टता का पूर्वाग्रह है। संभवतः उनके प्रभावित और स्मरणीय बने रहने का कारण ही उनकी नवीनता और प्रयोगधर्मिता है। उनके हर नए संग्रह के साथ ऐसा लगता है कि जैसे वे विषयों का हर बार अविष्कार करते हैं। या यूं कहें कि उनकी कविताओं के विषय अपनी ताजगी और नवीन दृष्टिकोण के कारण नवीन अहसासों, मनःस्थितियों में ले जाने में सक्षम हैं। उनके यहां किसी सामान्य अनुभव अथवा दिनचर्या को कविताओं में रूपांतरित करते का हुनर विशेष परिस्थितियों में सांकेतिक रूप में होता है, किंतु व्यापक रूप में उनका सामान्य किसी विशिष्टता में घुलमिल कर विशिष्ट रूप में ही प्रस्तुत हुआ है। उनकी कविताओं में यह भी लगातार हुआ है कि वे इतिहास और वर्तमान को जैसे किसी धागे से जोड़ते हुए, उन्हें मंथर गति करते हुए हमारे सामने ला खड़ा करते हैं। उनकी कविताएं कोरा भूत और वर्तमान का ब्यौरा मात्र नहीं वरन वे हमारे भविष्य की संभावित अनेक व्यंजनाएं लिए हुए है। कहीं सांकेतिकता है तो कहीं खुलकर उनका कवि-मन अपने विमर्श में हमें शामिल कर लेता है। यहां रेखांकित करने योग्य तथ्य यह है कि इन कविताओं में कवि के सवाल हमारे अपने सवाल बन जाते हैं, द्वंद्व में कवि के साथ हम भी द्वंद्वग्रस्त हो जाते हैं। यह भी कहना चाहिए कि सुधीर सक्सेना की कविताओं का केंद्र-बिंदु बदलता रहा है, किंतु यह भी उल्लेखनीय है कि कवि के चिंतन के मूलाधार लक्ष्यबद्ध रहे हैं। वे हर बार कुछ अभिनव विषयों से मुठभेड़ करते हुए अपने चिंतन-मनन का वातायान प्रस्तुत कर हमारे आकर्षण का केंद्र रहे हैं। उनका नए नए विषयों के प्रति मूलतः आकर्षण है जिसे समकलीन हिंदी अथवा भारतीय कविता के अन्य कवियों और कविताओं में वरेण्य है।
उदाहरण के लिए यदि हम कवि सुधीर सक्सेना के कविता संग्रह ‘ईश्वर : हां, नहीं... तो’ की बात करें, तो सर्वप्रथम यह कि ‘ईश्वर’ विषयक कविताएं आधुनिक कविता के केंद्र में इस रूप में कहीं नहीं है। वैसे भी यह क्षेत्र अथवा काव्य-विषय अतिसंवेदनशील है। यह शीर्षक अपने आप में किसी काव्य-युक्ति की भांति अनेक आयामों को लिए हमारी उत्सुकता को दिशा देने वाला है। यह भी सत्य है कि ईश्वर विषयक ‘हां’ और ‘ना’ के दो पक्षों के अतिरिक्त यहां जो ‘तो’ का अन्य पक्ष है, वह कवि का इजाद किया हुआ नहीं है। लेकिन इन तीनों पक्षों को एक साथ में इस रूप में किसी कविता संग्रह का केंद्रीय विषय बनाना कवि का इजाद किया हुआ है। हमें इस संग्रह से गुजरते हुए लगता है कि इन तीनों पक्षों को एक साथ कविताओं में नए विकल्प के रूप में प्रस्तुत करना हमारे आकर्षण का विषय है। हिंदी साहित्य में भक्तिकाल को स्वर्ण-युग कहा जाता है और वहां ईश्वर के संबंध में ‘हां’ की बहुलता और एकनिष्टता है। आधुनिक काल और वैज्ञानिक दृष्टिकोण के रहते बीसवीं शताब्दी में ईश्वर के विषय में साहित्य और कविताओं में ‘ना’ का बाहुल्य है। यह यह भी सच है कि सुधीर सक्सेना अपने काव्यात्मक विमर्श में जिस ‘तो’ को संकेतित करते हैं वह बीसवीं शताब्दी के उतरार्द्ध का सच है। कवि के अनुभव और चिंतन में जहां तार्किता है वहीं निर्भिकता भी है। शायद यही कराण है कि इक्कीसवीं शताव्दी में डॉ. सुधीर सक्सेना जैसा एक कवि जो निसंदेह उत्तर-आधुनिक कवि है, ‘ईश्वर’ विषयक अपनी इन छत्तीस कविताओं में जैसे ‘छत्तीस का आंकड़ा’ भले जानबूझ कर उपस्थित नहीं भी करता हो किंतु यह संयोग भी निसंदेश एक बड़ा संकेत है। भारतीय संस्कृति में ‘आराध्य के लिए बनाए छत्तीस व्यंजनों’ का भी बड़ा महत्त्व है तो संग्रह की छत्तीस कविताएं बेशक अपने आराध्य के लिए है। जैसे कवि का यह हठ योग है कि वह बारंबार ईश्वर का आह्वान करता है और उसे अपने शब्दों से आहूतियां देता है।
यह अनायास नहीं हुआ है कि कवि सुधीर सक्सेना की इन कविताओं में निहित ‘ईश्वर’ संज्ञा में राम-रहीम के साथ वाहे गुरु, ईशु आदि सभी केंद्रों को जैसे मिश्रित कर उपस्थित किया गया है। इन कविओं की सबसे बड़ी सार्थकता यह है कि कवि के तर्क हमारे अपने तर्क हैं, जिनसे हम रोजमर्रा के जीवन में रू-ब-रू होते हैं। कवि के सवालों में हमारे अपने सवालों का होना इन कविताओं की सहजता हैं। यहां ईश्वर का गुणगान अथवा महिमा-मंडन नहीं है। साकार और निराकार सत्ताओं के बीच उस ईश्वर से साक्षात्कार होता है जो कवि का ही नहीं हमारा अपना ईश्वर है। कवि के द्वारा यह लिखना- ‘ईश्वर नहीं जानता हमारी भाषा तो दुख कैसे पढ़ेगा’ असल में सुख-दुख से धिरे सांसारिक प्राणियों की आत्माभिव्यक्ति है, वहीं ‘ईश्वर यदि सिर्फ देवभाषा जानता है/ और इतनी दूर है हमसे’ में पूर्व निर्मित ज्ञान के आभा मंडल में उसके होने और नहीं होने पर प्रश्न है।
ईश्वर के लिए अंतरिक्षवासी होना पूर्व धारण है वहीं बहुभाषी होने और आधुनिक युग की भाषाओं को जानने की शर्त हमारे मन का द्वंद्व है। ईश्वर के प्रति यह कवि का प्रेम है कि वह उसके दुख विचलित होता है, उसके एकाकीपन से द्रवित होता है।
फर्ज कीजिए कि वह सूई के छेद से निकल सकता है या कि उसके कद के बराबर कोई विवर ही नहीं जैसे काव्य-उद्गार में कबीर और अन्य भक्तिकालीन कवियों की अवधारणाएं परिक्षित होती हैं। ईश्वर की लीलाओं में उसके मानवीय़ रूप से हमारा साक्षात होता है, कवि सुधीर सक्सेना भी अपनी कविताओं के माध्यम से उसके मानवीय आचारण की अपेक्षा रखते हैं। रूप अर अरूप के दो बिंदुओं के बीच गति करती इन कविताओं में निसंदेह किसी एक ठिकाने की कवि को तलाश है। ‘कितना कुछ शको-शुबहा है/ तुम्हें लेकर/ सदियों की मुंडेर पर’ अथवा ‘तुम्हारी भौतिकी के बारे में कहना कठिन/ मगर तुम्हारा रसायन भी मेल नहीं खाता/ किसी और से, ईश्वर!’ जैसी अभिव्यक्ति में पाप और पुण्य से परे हमारे आधुनिक जीवन के संताप देखे जा सकते हैं। कवि की दृष्टि असीम होती है और वह इसी दृष्टि के बल पर जान और समझ लेता है कि इस संसार में माया का खेल विचित्र है- ‘कभी भी सर्वत्र न अंधियारा होता है/ न उजियारा’।
समय के साथ बदलती विचारधारों के बीच कवि कल्पना करता है- ‘अचरज नहीं/ कि उत्तर आधुनिक समय में ईश्वर/ गोलिसवाली पतलून पहले/ सिर पर हैट धर नजर आये/ नयी फब और नये ढब में/ किसी इंटरनेट कैफे या पब में!’ यह पंक्तियां इसका प्रमाण है कि कवि यहां अतिसंवेदनशील क्षेत्र में हमें ले जाता है और हम सोचने पर विवश होते हैं कि हां इस बदलते युग में यह भी हो सकता है। विभिन्न संदर्भों और ब्यौरों से लेस इन कविताओं में जहां विचार है वहीं सघन अनुभूतियां भी हैं। जहां धर्म है वहां दर्शन भी है। इन कविताओं की ज़द में एक व्यापक संसार है और कवि की व्यथा-कथा केवल उसकी अपनी नहीं है। यहां कुछ शब्द, पंक्तियां ऐसी भी है जिनको हम अपने भीतर के रसायन में बनता तो पाते रहे हैं किंतु वे किसी आकार में ढलने से पूर्व ही ध्वस्त हो जाती रही हैं। इन कविताओं से हमें किंचित साहस मिलता है और हम स्वयं को एक दायरे से बाहर लाकर सोचते-समझते हुए कवि के ‘ईश्वर : हां, नहीं... तो’ के मर्म में जैसे गहरे डूबते जाते हैं। संभवतः यही इन कविताओं का उद्देश्य भी है।
यहां यह भी रेखांकित किया जाना चाहिए कि सुधीर सक्सेना की काव्य-भाषा में प्रयुक्त शब्दावली एक विशेष प्रकार के चयन को साथ लेकर चलती है। यह उनका शब्दावली चयन उन्हें भाषा के स्तर पर जहां अन्य कवियों से विलगित करता है वहीं विशिष्ट भी बनाता है। भले पहले कविता ले अथवा अंतिम कविता या कोई बीच की कविता प्रत्येक कविता में कुछ शब्द ऐसे प्रयुक्त होते हैं जो जैसे उनके अपने हैं और केवल यह उनके यहीं देखने को मिलते हैं। जैसे- पहली कविता में ‘दुखों का खरीता’ अंतिम कविता में ‘हमारी फेहरिस्त’ उनकी निजी शब्दावली है जो उनकी कविताओं की पहचान बनती है। यह भी कहा जा सकता है कि उनके यहां कुछ अप्रचलित शब्द जिस ढंग से प्रयुक्त होते हैं कि लगता है उनके यहां उस काव्य-पंक्ति में इसके अतिरिक्त दूसरा कोई शब्द नहीं आ सकता है। सरलता, सहजता के साथ यह कवि की भाषागत विशिष्टता है।
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पुस्तक का नाम - ‘ईश्वर : हां, नहीं... तो’ (कविता संग्रह)
कवि - सुधीर सक्सेना 
 

 

Sunday, December 27, 2020

स्त्री की आंख से देखी गई दुनिया / डॉ. नीरज दइया


हिंदी की प्रतिष्ठित कवयित्री सुमन केशरी के बहुचर्चित कविता संग्रह को राजस्थानी में "मोनालिसा री आंख्यां" नाम से ललिता चतुर्वेदी ने अनूदित किया है। यह इसलिए भी स्वागत योग्य है कि राजस्थानी में महिला लेखन कम हुआ है और जो हुआ है उसमें सुमन केशरी की यह कविताएं एक प्रेरणा और दिशा का काम कर सकती हैं। किसी भी भाषा में एक स्त्री की आंख से देखी-समझी और परखी गई दुनिया का अपना महत्व होता है। क्योंकि उसके घर बनाने और घर को बचाने का सपना जीवन पर्यंत चलता रहता है। इस संसार में बसे हुए या कहें बने हुए किसी भी घर से बहुत सुंदर एक ऐसा घर है जिस का चित्रण कवयित्री ने किया है -
मरुधर री तपती रेत माथै
आपरी चूनड़ी बिछा'र
बीं माथै एक लोटो पाणी
अर बीं माथै ई रोटियां राख'र
हथाळी सूं आंख्यां आडी छियां करती
लुगाई
ऐन सूरज री नाक रै नीचै
एक घर बणाय लियो।
घर परिवार और जीवन का इससे सुंदर चित्रण अन्यत्र दुर्लभ है।
मोनालिसा एक ऐसी नायिका है जो सर्वकालिक और सर्वदेशीय है। वैसे इस संग्रह में मोनालिसा नाम से तीन कविताएं हैं और साथ ही एक शीर्षक कविता भी। इनके माध्यम से संग्रह केंद्रीय संवेदना को दिशा मिली है। इसमें जीवन का व्यापक यथार्थ, मौलिकता और अंतर्निहित एक व्यंग दृष्टि भी देखी जा सकती है। यहां बिना किसी आवेग अथवा नारों के इन कविताओं में एक स्त्री का संघर्ष विभिन्न बिंबों और प्रतीकों के माध्यम से मुखरित होता है। राजस्थानी के इस शब्दानुवाद के माध्यम से ललिता चतुर्वेदी ने कवयित्री सुमन केशरी की कविताओं के मर्म को छूने का पहला पहला प्रयास किया है। यह अनुवाद इसलिए एक सफल अनुवाद कहा जा सकता है कि इससे गुजरने के बाद पाठक के मन में कवयित्री सुमन केशरी की अन्य रचनाओं को पढ़ने जानने की उत्सुकता जाग्रत होती है। संग्रह बोधि प्रकाशन जयपुर से प्रकाशित हुआ है।
(आभार : उमा जी और संपादकीय टीम डेली न्यूज  )

Sunday, December 13, 2020

चिकित्सा जगत का विद्रूप चेहरा : लाइलाज

डॉ. रवींद्र कुमार यादव पेशे से एक चिकित्सक हैं और उन्होंने चिकित्सा जगत पर केंद्रित लाइलाज उपन्यास में अपने आसपास का विद्रूप चेहरा बहुत प्रमाणिक ढंग से अंकित किया है। डॉ यादव का इससे पहले एक कहानी संग्रह "बड़ा अस्पताल और अन्य कहानियां" भी प्रकाशित हो चुका है। दोनों कृतियों के शीर्षक से जैसा के स्पष्ट है लेखक अपने आसपास के भोगे हुए यथार्थ को रचना के केंद्र में रखते हुए अपनी बात कहते हैं।
लाइलाज उपन्यास का मुख्य पात्र इंद्राज पूरे उपन्यास में लोक मान्यता को पोषित करता है कि जड़ से इलाज तो देशी दवा ही करती है, अंग्रेजी दवा रोग को दबा भर देती हैं। इसी केंद्रीय सूत्र के पीछे लेखक ने धीरे-धीरे उपन्यास का विस्तार किया है जिसमें न केवल लोग मान्यताएं, लोक विश्वास, रूढ़ियां, व्यक्ति के मानसिक सामाजिक द्वंद, भ्रष्टाचार, क्षीण होती संवेदनशीलता अपने पुरजोर यथार्थ के साथ सहज सरल भाषा में अंकित होती चली जाती है वरन यह पूरा उपन्यास चिकित्सा जगत के विद्रूप चेहरे का प्रमाणिक दस्तावेज भी बनता चलता है। हमारे देश में चिकित्सक को भगवान के समकक्ष मानने वाले लोग भी हैं, यह उपन्यास असल में उसी भगवान के चेहरे को बचाए जाने का एक जतन है। आज के बदलते दौर में जब मूल्यों का पतन चारों तरफ दिखाई देता है तब यह उपन्यास किसी छोर से उन्हीं मूल्यों के बचाव की पैरवी करता है। यह लेखक की इमानदारी है कि वह सच्चाई का दामन अंत तक थामे रखता है। कहीं-कहीं उपन्यास में लगता है लेखक अतिशयोक्ति पूर्ण वर्णन कर रहा है किंतु लाइलाज होती इस व्यवस्था जो कि खुद इलाज करने वाली है के विषय में यह एक शानदार विमर्श है। ग्रामीण और शहरी समाज के बीच जहां अब भी अशिक्षा है वहीं शिक्षा के बाद भी चरमराती देश की व्यवस्था भी यहां देखने को मिलती है। विकास के मार्ग पर दौड़ते हुए देश के एक साधारण इंसान इंद्राज के घुटने का इलाज जरूरी है क्योंकि ऐसे अनेक इंद्राज इस देश में हैं जो कभी खुद के अज्ञान के कारण तो कभी ज्ञान के कारण ठगे जा रहे हैं। इस उपन्यास में व्यंग्यात्मक शैली और यथार्थ चित्रण के बीच लेखक रवींद्र कुमार यादव ने सुंदर समन्वय स्थापित किया है। इस उपन्यास का पाठ हमारे अनदेखे अथवा बहुत कम देखे जाने विषय को प्रामाणिकता के साथ जानना और समझना भी है। यह किताब कलमकार मंच से प्रकाशित हुई है।

 

 

Monday, December 07, 2020

सूफी काव्य धारा का विस्तार : साठ पार

 

राजस्थान पत्रिका में 06-12-2020

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डॉ. नीरज दइया
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"साठ पार" कवि कथाकार सत्यनारायण का सद्य प्रकाशित तीसरा कविता संग्रह है। इससे पूर्व "अभी यह धरती", "जैसे बचा है जीवन" संग्रहों की कविताएं समकालीन कविता में पर्याप्त चर्चा का विषय रही हैं। तुलनात्मक रूप से डॉ. सत्यनारायण कविता की तुलना में अपने बेजोड़ गद्य लेखन से अधिक जाने जाते हैं, किंतु उनकी कविताएं भी अपनी व्यंजना और शिल्प-शैली के कारण विशिष्ट हैं। असल में कवि का यह संग्रह 60 पार अभिधा में उनकी उम्र को व्यंजित करता है पर असल में व्यंजना में इसके अनेक अर्थ घटक समाहित है जो संग्रह की कविताओं में देखें जा सकते हैं। 
प्रेम कभी पुराना नहीं होता और डॉ सत्यनारायण के यहां प्रेम भी एक कविता अथवा किसी गीत की तरह है जिसे बार-बार गाया जाना जरूरी है क्योंकि इसी में जीवन का सार है। सात खंडों में विभक्त इस कविता संग्रह के पहले खंड को साठ नहीं आठ पार की आवाज नाम दिया गया है, जिसमें कवि अपनी छोटी-छोटी कविताओं के माध्यम से अपने छोटे से किंतु बहुत बड़े प्रेम की स्मृति को उजागर करता है। यहां कभी का आत्म संवाद और विभिन्न मन: स्थितियों में जैसे एक पुराना राग फिर फिर साधता चला जाता है -
दुख यह नहीं कि/ तुम नहीं मिली/ अफसोस यह कि/ शब्द जुटा नहीं पा रहा हूं/ साठ के पार भी/ यदि मिल जाती तो/ क्या कहता। (कविता - अफसोस यही की)
असल में जीवन अथवा प्रेम अपनी उम्र अथवा समय अवधि में नहीं वरन वह किसी अल्प अवधि अथवा क्षण विशेष में धड़कता रह सकता है इसका प्रमाण है संग्रह की कविताएं। जीवन में स्मृतियों का विशेष महत्व होता है और यह संग्रह विशिष्ट स्मृतियों का विशिष्ट कोलॉज है। अभी बची है/ एक याद/ बचे हैं/ कुछ सपने/ क्या इतना बहुत नहीं है/ जीने के लिए/साठ पार भी। (कविता - जीने के लिए)
बेशक कभी अपनी प्रेयसी उर्मि के लिए जितना मुखर होकर यहां प्रस्तुत हुआ है उस मुखरता में कहीं ना कहीं पाठक हृदय भी न केवल झंकृत होता है वरन वह भी इस एकालाप में अपना सुर मिलाकर साथ गाने लगता है यही इन कविताओं की सार्थकता है। 
कहां हो प्रिय खंड मैं मृत्यु विषयक पंद्रह कविताओं को संकलित किया गया है। यहां भी कवि का जीवन से प्रेम और स्पंदित उपस्थिति प्रस्तुत होती है, वह जीवन के सुर में बजाता हुआ जीना चाहता है उसकी कामना है कि कहीं यदि वह रड़के तो मृत्यु उसे अजाने नींद में स्वीकार कर ले। 
इच्छा थी तुम्हारी अथवा दुख कहां सीती होंगी अब मांएं खंडों में भी धड़कती हुई स्मृतियां और जीवन की आशा निराशा के बीच खोए अथवा खोते जा रहे प्रेम और जीवन की उपस्थिति दिखाई देती है। बहुत कम शब्दों में बहुत गहरी बात कह देना कभी का विशेष हुनर है। इच्छा कविता को उदाहरण के रूप में देखा जा सकता है - "इच्छा थी तुम्हारी/ तुम/ इच्छा ही रह गयी।" अथवा हर सांस में याद - "हर सांस में/ घुली है याद/ नहीं तो/ मैं कैसे ले पाता सांस/ बिना याद के/ तुम्हारी।" 
इन कविताओं में जहां एक और जीवन, प्रेम और संबंध धड़कते हैं वहीं दूसरी ओर राजस्थान की मिट्टी, यहां का परिवेश और जन जीवन अभिव्यक्त हुआ है। संग्रह के अंतिम खंड में कवि अपने मित्र रचनाकार रघुनंदन त्रिवेदी और रामानंद राठी का काव्यात्मक स्मरण भी करते हैं। संग्रह के अंत में दो गद्य कविताएं भी संकलित है। समग्र रूप से इन छोटी छोटी कविताओं में जिस सहजता सरलता के साथ हम जीवन की सूक्ष्म अनुभूतियों का अवलोकन करते हैं वह काल्पनिक और यांत्रिक होती जा रही हिंदी कविता का एक दुर्लभ क्षेत्र है। कहा जाना चाहिए कि साठ पार संग्रह का कवि सत्यनारायण मलिक मोहम्मद जायसी से चली आ रही प्रेमाश्रयी अथवा सूफी काव्य धारा का विस्तार अथवा आधुनिक संस्करण है। 
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पुस्तक का नाम : साठ पार (कविता संग्रह)
कवि : सत्यनारायण
प्रकाशक : बोधि प्रकाशन जयपुर
संस्करण : 2019 
मूल्य : 150/-
पृष्ठ  : 120
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जब भी देह होती हूँ (कविता संग्रह)


पुस्तक समीक्षा
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डॉ. नीरज दइया
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पुस्तक का नाम - जब भी देह होती हूँ (कविता संग्रह)
कवि - नवनीत पाण्डे
प्रकाशक - सर्जना, शिवबाड़ी रोड, बीकानेर
पृष्ठ- 80
संस्करण - 2020
मूल्य- 100/-
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स्त्री देह के अनेक रूपों पर केंद्रित कविताएं  
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            राजस्थान की समकालीन हिंदी कविता में एक प्रमुख नाम है- नवनीत पाण्डे। हाल ही में आपका पांचवां कविता-संग्रह ‘जब भी देह होती हूँ’ प्रकाशित हुआ है, इससे पूर्व ‘सच के आसपास’, ‘छूटे हुए संदर्भ’, ‘जैसे जिनके धनुष’ तथा ‘सुनो मुक्तिबोध एवं अन्य कविताएँ’ संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। इस संग्रह की कविताओं में जीवन के अनेक चित्र-घटना-प्रसंग स्त्री केंद्रित अनुभूतियों का बड़ा कोलाज है। समकालीन कविता के विषयों में स्त्री-पुरुष संबंध, परस्पर मनःस्थितियों पर तरल अनुभूतियों की अनेक कविताएं पहले से मौजूद हैं, किंतु नवनीत पाण्डे के यहां स्त्री देह के अनेक रूपों में केंद्रित किए कविताओं के इस समुच्चय में संजोते हुए उसे देह से इतर देखने-समझने-समझाने के सघन प्रयास हुए हैं।
    पुरुष समाज में स्त्री को केवल देह और उसके भोग के रूप में देखने और बरतने की बात नई नहीं है किंतु उसे बहुत कम शब्दों में कह देना कवि की विशेषता है- ‘काम चाहिए/ जरूर मिलेगा/ भरपूर मिलेगा/ पर!/ पर!/ इतना भी नहीं समझती/ जब भी बुलाऊँ/ आना होगा/ काम कराना होगा.... (काम चाहिए : पृष्ठ-56) कवि नवनीत पाण्डे एक जगह लिखते हैं- ‘सवाल करने का हक/ सिर्फ हमें है/ और तुम्हें हमारे/ हर सवाल का जवाब देना होगा/ समझी!/ या अपनी तरह समझाएँ....’ (पृष्ठ-57) इन कविताओं में पुरुष समाज का स्त्री और उसकी देह को अपने ढंग से समझने और समझाने का भरपूर अहम्‌ भयावह रूप में मौजूद है। कवि स्त्री-पुरुष संबंधों में व्याप्त अव्यवस्थाओं को बहुत सहजता से खोलते हुए अपने पाठकों को सोचने पर मजबूर कर देता है कि यह क्या हो रहा है?
    संग्रह की भूमिका में प्रख्यात कवयित्री सुमन केसरी ने लिखा है- ‘नवनीत पाण्डे के इस संग्रह की कविताएँ स्त्री को समर्पित हैं, किंतु वे अनेक सवाल उठाती हैं- वे स्त्री समाज द्वारा प्रदत्त कर्तव्यों को ही अंतिम सत्य मान लेने से इनकार करती कविताएँ हैं।’ संग्रह की कविताओं में स्त्री को उसकी अलग अलग अवस्थाओं में लक्षित कर देखने-परखने अथवा मुखरित करने के अनेक बिंब मौजूद हैं, जिनसे इनकी केंद्रीय चेतना किसी भी अंतस को प्रकाशवान बनने में अपनी भूमिका रखती है। शिल्प के स्तर पर अपनी लय को साधती इन कविताओं का कैनवास इक्कीसवीं शताब्दी के पूरे परिदृश्य को प्रस्तुत करते हुए हमारे विकास और सभ्यता के संदर्भों पर एक बड़ा प्रश्नचिह्न भी अंकित करती हैं। यही नहीं इन कविताओं को गुजरने के बाद हमारे भीतर संवेदनाओं की लहरें उठती हैं जो बड़े परिवर्तन की मांग है। संभवतः किसी रचना का यही बड़ा उद्देश्य होना चाहिए।      
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डॉ. नीरज दइया 

 


डेली न्यूज में 06-12-2020

डॉ. नीरज दइया की प्रकाशित पुस्तकें :

हिंदी में-

कविता संग्रह : उचटी हुई नींद (2013), रक्त में घुली हुई भाषा (चयन और भाषांतरण- डॉ. मदन गोपाल लढ़ा) 2020
साक्षात्कर : सृजन-संवाद (2020)
व्यंग्य संग्रह : पंच काका के जेबी बच्चे (2017), टांय-टांय फिस्स (2017)
आलोचना पुस्तकें : बुलाकी शर्मा के सृजन-सरोकार (2017), मधु आचार्य ‘आशावादी’ के सृजन-सरोकार (2017), कागद की कविताई (2018), राजस्थानी साहित्य का समकाल (2020)
संपादित पुस्तकें : आधुनिक लघुकथाएं, राजस्थानी कहानी का वर्तमान, 101 राजस्थानी कहानियां, नन्द जी से हथाई (साक्षात्कार)
अनूदित पुस्तकें : मोहन आलोक का कविता संग्रह ग-गीत और मधु आचार्य ‘आशावादी’ का उपन्यास, रेत में नहाया है मन (राजस्थानी के 51 कवियों की चयनित कविताओं का अनुवाद)
शोध-ग्रंथ : निर्मल वर्मा के कथा साहित्य में आधुनिकता बोध
अंग्रेजी में : Language Fused In Blood (Dr. Neeraj Daiya) Translated by Rajni Chhabra 2018

राजस्थानी में-

कविता संग्रह : साख (1997), देसूंटो (2000), पाछो कुण आसी (2015)
आलोचना पुस्तकें : आलोचना रै आंगणै(2011) , बिना हासलपाई (2014), आंगळी-सीध (2020)
लघुकथा संग्रह : भोर सूं आथण तांई (1989)
बालकथा संग्रह : जादू रो पेन (2012)
संपादित पुस्तकें : मंडाण (51 युवा कवियों की कविताएं), मोहन आलोक री कहाणियां, कन्हैयालाल भाटी री कहाणियां, देवकिशन राजपुरोहित री टाळवीं कहाणियां
अनूदित पुस्तकें : निर्मल वर्मा और ओम गोस्वामी के कहानी संग्रह ; भोलाभाई पटेल का यात्रा-वृतांत ; अमृता प्रीतम का कविता संग्रह ; नंदकिशोर आचार्य, सुधीर सक्सेना और संजीव कुमार की चयनित कविताओं का संचयन-अनुवाद और ‘सबद नाद’ (भारतीय भाषाओं की कविताओं का संग्रह)

नेगचार 48

नेगचार 48
संपादक - नीरज दइया

स्मृति में यह संचयन "नेगचार"

स्मृति में यह संचयन "नेगचार"
श्री सांवर दइया; 10 अक्टूबर,1948 - 30 जुलाई,1992

डॉ. नीरज दइया (1968)
© Dr. Neeraj Daiya. Powered by Blogger.

आंगळी-सीध

आलोचना रै आंगणै

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