Tuesday, February 18, 2020

‘साक्षी रहे हो तुम’ अनुपम रचना / डॉ. नीरज दइया

प्यास के मरुथल का इतिहास


    मनुष्य-जीवन किसी तिलस्मी पहेली की भांति अनादिकाल से चुनौतीपूर्ण विषय रहा है। जीवन की महायात्रा कब से चल रही है? जीवन का गूढ़ रहस्य क्या है? इसके अनेक उतार-चढ़ाव और झंझावात हैं तो यह कितने यथार्थ और काल्पनिकता का मिश्रण है। सच-झूठ और सुख-दुख का लंबा इतिहास है फिर से यह मन किससे पूछे और यह पूछना भी कितना सार्थक है। निर्थकता के बीच असार जीवन में सार की दिशा हमें ज्ञात भी है अथवा हम अज्ञात दिशाओं में जीवन भर भ्रमित होते रहते हैं। ऐसी ही कुछ पृष्ठभूमि लिए और अपने पूरे विषय को गहना से समेटती हुई डॉ. मंगत बादल की यह काव्य-कृति- ‘साक्षी रहे हो तुम’ अनुपम रचना है। इस में कवि ने अनंत जीवन के गूढ़ रहस्य को बहुत सधी हुई भाषा में जानने-समझने का पुनः पुनः काव्यात्मक उपक्रम किया है। इसे एक काव्य-प्रयोग कहना अधिक उचित होगा। आरंभिक पंक्तियां देखें-
    हे अनंत! हे काल!
    महाकाल हे!
    हे विराट!
    यह महायात्रा चल रही कब से
    नहीं है जिसका प्रारंभ
    मध्य और अंत
    केवल प्रवाह...
    प्रवाह!
     यह रचना इसी प्रवाह और निरंतर प्रवाह में स्वयं कवि के साथ अपने पाठकों को भी प्रवाहित और प्रभावित करते हुए चलती है। इसे एक संबोधन काव्य कहना उचित होगा। यह निसंदेह अनंत, काल, महाकाल और विराट को संबोधित है किंतु इन सभी के अंशी आत्म रूपा हमारी आत्मा को भी प्रकारांतर से संबोधित काव्य है। कवि ने ज्ञान, विज्ञान और इतिहास की विभिन्न अवधारणाओं का न केवल स्पर्श किया है वरन उन विराट अवधारणाओं को विराट रूप में ग्रहण करते हुए हमें इस संबंध में अनेक विकल्पों के साथ अपने उत्स के प्रश्न से जूझने और जानने की अकुलाहट-बेचैनी और गहन त्रासदी के भंवर में खड़े होने और खड़े रहने का आह्वान किया है। यह एक भांति से हमारा आत्म-साक्षात्कार है। इसमें प्रकृति के विविध अंगों-उपांगों में कवि के साथ पाठक भी अपने परिचय और पहचान को ढूंढ़ते हुए अपनी महायात्रा में उमड़ते हुए जैसे बरसने लगता है। इस महायात्रा के विषय में यह पंक्ति इसके विस्तार को जैसे शब्दबद्ध करतीं हुई भले हमारी गति के विषय में संदेह देती है किंतु विचार को एक दिशा देती है। यह रचना एक प्यास है और जो प्यास के मरुस्थल का इतिहास अपनी समग्रता-सहजता में अभिव्यक्त करती है।
गगन, पावक, क्षिति, जल
और फिर
चलने लगे पवन उनचास
निःशब्द से शब्द
आत्म से अनात्म
सूक्ष्म से स्थूल
अदृश्य से दृश्य
भावन से विचार की ओर।
     निशब्द से शब्द, आत्म से अनात्म, सूक्ष्म से स्थूल, दृश्य से अदृश्य अथवा भावना से विचार का यह एक लंबा गीत है। पाठक प्रश्नाकुल होकर इस दिशा में विचार करने लगता है कि वास्तव में जीवन का रहस्य क्या है? आत्मीय स्पर्श से भरपूर यह एक कवि का आत्मा-संवाद है और इसमें कवि की स्थिति में पाठक का पहुंचना इसकी सार्थकता है। यह छोटे मुंह से बहुत बड़ा सवाल है कि पृथ्वी को गति कौन देता है? हमारी गति और पृथ्वी की गति के मध्य सापेक्षता के विषय में विचार होना चाहिए। असीम के बीच हमारी मानव जाति की सीमाओं के संबंध में यह भले नया विचार ना हो किंतु इस कठिन डगर पर चलना भी बेहद कठिन है। एक आदिम प्रश्न को लेकर उसको नई कविता के शिल्प में पाठकों को बांधते हुए निरंतर किसी दिशा में प्रवाहित होना अथवा प्रवाहित किए रखना एक कौशल है जिसे कवि डॉ. मंगत बादल की निजी उपलब्धि कहना होगा। कवि कहता है-
साक्षी रहे हो तुम
इन सब के होने के
पुनः लौट कर
बिंदु में सिंधु के
तुम ही तो हो
ब्रह्मा, स्रष्टा, प्रजापति, रचयिता
पालन कर्त्ता विष्णु
तुम ही आदिदेव
देवाधिदेव! शिव!
त्रिदेव! हे प्रणवाक्षर!
    यह एक प्रार्थना गीत भी है जो स्वयं की तलाश में जैसे भटकते भटकते कहीं पहुंचने को व्याकुल और आतुर है। हमारे धार्मिक मिथकों और विश्वासों के बीच अपने होने और न होने के विषय पर चिंतन करते हुए यहां कवि की निरंतर अभिलाषा अभिव्यक्त हुई है कि वह किसी बिंदु पर स्थिर हो जाए। अनेक बिंदुओं और अनेक धाराओं के बीच किसी एक दिशा में कोई कैसे प्रवाहित रह सकता है। प्रकृति के एक अंश के रूप में यह किसी अनाम और नाम के जाल में उलझे एक वनफूल का अपने पूरे रहस्यमयी पर्यावरण से प्रश्न है।
कौन है मेरे होने
या नहीं हूंगा तब
कारण दोनों का
साक्षी हो तुम, बोलो!
रहस्य पर पड़े आवरण खोलो!  
    यहां कर्म और भाग्य फल के साथ मनुष्य जीवन के अनेक स्मरण है जिसमें आत्मा और अनात्मा के बीच अस्थित्ववाद और चेतन-अचेतन के द्वारों को खटकाते हुए अनेक रंग बिखरे हुए हैं। यह अपने अर्थ को अर्थ की दीवारों की परिधि से बाहर झांकने का सबल प्रयास है।
आत्मा भी क्या
आकार कर धारण
शब्द का कहीं
बैठी है
अर्थ की दीवारों के पार?
    इस कृति की आत्मीयता और विशिष्टता का प्रमाण यह भी है कि कवि ने अध्ययन-मनन-चिंतन द्वारा विभिन्न अवधारणाओं से ना केवल परिचित करते हुए अपने द्वंद्व व्यंजित किए है वरन उन सब में हमारे भी प्रश्नाकुलित मन को शामिल किया है। यहां परंपरा और मिथकों की साक्षी में कर्म और भाग्य के अनेक प्रश्न बहुत सुंदर ढंग से प्रस्तुत हुए हैं। आत्मा-परमात्मा, विनाश-महाविनाश के बाद फिर-फिर जीवन की अवधारणा के विभिन्न स्तर यहां प्रभावित करने वाले हैं। आत्मा और शरीर के मध्य क्या और कैसा संबंध है इसकी झलक देखना जैसे कवि का एक उद्देश्य रहा है। यह पग-पग पर संदेह और भटकाव का अहसास भी है तो कुछ पाने की छटपटाहट भी, इसलिए कवि ने कहा है-
मृत्यु-भीत मानव का
बैद्धिक-विलास
कोरा वाग्जाल मृगजल...
या प्रयास यह उसे जानने का
समा गया जो
गर्भ में तुम्हारे
छटपटा रहा किंतु
मनुष्य के
ज्ञान के घेरों में आने को।
    जीवन और मृत्यु के दो छोरों के बीच यह गति अथवा किसी ठहराव, भटकन को उल्लेखित करती पूरी कविता जैसे नियति और जीवन को बारंबार परिभाषित करती है। यहां कवि की कामना है कि प्रत्येक जीवन अपने आप में परिपूर्ण और उद्देश्यपूर्ण हो।
    अस्तु यह कृति जाग और नींद के मध्य एक पुल निर्मित कर जड़ और चेतना के बीच बिलखती काव्य-आत्मा का ही प्रलाप और हाहाकार है। यह अपनी हद में अनहद की यात्रा है। यह प्रकाश और अंधकार के बीच अपनी नियति की तलाश है- ‘अंधकार का अंश होना ही / क्या अंतिम नियति है मेरी?’ अथवा ‘बदल जाएंगी भूमिकाएं / हम सब की / बदल जाएगा यह रंगमंच / नहीं बदलोगे केवल तुम!’
    यह जीवन हमारा जागरण है अथवा पूरा जीवन ही एक निद्रा है। यह रहस्य वह सर्वज्ञ ही जानता है जिसने इस जटिल मार्ग पर चलने की कवि को प्रेरणा दी है। अकूत संभावनाओं से भरे इस पूरे इतिवृत्त को ‘काल महाकाव्य’ के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। हमारे रचयिता के संबंध में यह एकालाप अथवा प्रलाप ‘मनुष्य’ को जानने-समझने का अनूठा उपक्रम है। किसी तयशुदा निकस पर कवि हमें नहीं ले कर जाता वरन वह जीवन के रहस्य को पहचानने का अलग अलग बिंदुओं दृष्टिकोणों से आह्वान करता है। इस रूप में यह काव्य-रचना एक आह्वान-गीत भी है कि हम स्वयं को जाने, हम क्या हैं? इसका पाठ अपने आत्म और उत्स के अनेक आयामों को खोजना और सांसारिक सत्यों के साथ आत्म-साक्षात्कार करना तो है ही, साथ ही साथ जन्म-मरण और पुनर्जन्म की अबूझ पहेली में उतराना-डूबना, फिर-फिर उतराना-डूबना भी है। निसंदेह यह रचना दीर्घ कविता के क्षेत्र में अपनी विषय-वस्तु, शिल्प-संरचना और भाषा-पक्ष के लिए लंबे समय तक एक उपलब्धि के रूप में स्मरण की जाएगी।

- डॉ. नीरज दइया
drneerajdaiya@gmail.com


राजस्थानी रो सांस्कृतिक वैभव / नीरज दइया

चावा-ठावा लेखक-कवि डॉ. मंगत बादल री रचनावां म्हैं बरसां सूं बांचतो रैयो हूं। आपरी ओळखाण राजस्थानी, हिंदी अर पंजाबी रै सांवठै रचनाकार रूप मानीजै-जाणीजै। तीन भासावां में बरोबर लिखणो अर उल्थै रो कारज करण साथै महाविद्यालय रा विद्यार्थियां री भणाई-लिखाई पेटै ई कारज करणो सोखो काम कोनी। आप महाकाव्य, खंडकाव्य अर छंदबद्ध-छंदमुगत कवितावां भेळै टाबरा खातर ई मोकळो सिरजण करियो। गद्य विधावां री बात करां तो कहाणी, व्यंग्य अर निबंध आपरी रुचती विधावां है। आपरी केई पोथ्यां साम्हीं आई पण आपनै घणो मान-सम्मान काव्य विधा पेटै मिल्यो। ‘मीरां’ प्रबंध काव्य नैं बरस 2010 रो साहित्य अकादेमी नई दिल्ली रो मुख्य पुरस्कार अर ‘दसमेस’ महाकाव्य नैं 2006 रो राजस्थानी भाषा साहित्य अेवं संस्कृति अकादमी बीकानेर रो सूर्यमल्ल मीसण शिखर पुरस्कार इण ओळी री साख भरै। राजस्थानी ई नीं हरेक भासा री अबखाई है कै बा किणी रचनाकार नैं सींव मांय बांध’र देखै-परखै। डॉ. बादल नैं लूठा कवि मानण वाळा नैं बां रै गद्यकार रूप नैं ई देखणो-परखणो चाइजै। राजस्थानी मांय आपरो कहाणी संग्रै ‘कितरो पाणी’ (2010), व्यंग्य संग्रै ‘भेड़ अर ऊन रो गणित’ (2010), ‘जूण विरतांत’ (‘लीलटांस’ अंक- नवंबर 2018 - अप्रैल 2019 में प्रकाशित) अर तीन निबंध संग्रै ‘सावण सुरंगो ओसर्‌यो’ (2010) ‘बात री बात’ (2012) अर ‘तारां छाई रात’ (2015) साम्हीं आयोड़ा अर चौथो निबंध संग्रै ‘सबदां रो सफर’ (2020) आपरै हेताळु हाथां मांय पूग रैयो है। गद्य विधावां मांय राजस्थानी ई नीं केई पोथ्यां हिंदी-पंजाबी मांय ई छप्योड़ी है।
            आधुनिक राजस्थानी साहित्य री बात करां तो इक्कीसवीं सदी मांय कहाणी-कविता अर उपन्यास विधावां मांय खासा पोथ्यां साम्हीं आई, खासो काम हुयो पण निबंध विधा बरसां लूखी रैयी अर अजेस ई इण विधा पेटै काम करण री दरकार समझी जावै। निबंध रा केई-केई भेद-उपभेद जाणीजै अर उण मांय कैयो जावै कै साहित्य रै लूखैपणै नै ललित निबंध दूर करै। धी दांई गळागळ भासा अर दाखलां सूं आपां घणो कीं सीख सकां। मिनखपणै नैं नवी दीठ देवै ललित निबंध। पण आपणै अठै तो निबंधकार ई गिणती रा अर ललित निबंधकार तो साव कमती, पांच आंगणियां माथै गिणावां जित्ता ई कोनी। इण मनगत नैं ओळख-समझ’र डॉ. मंगत बादल लगोलग ललित निबंध विधा मांय पोथ्यां लिख रैया है। अबार तांई छपी तीनूं पोथ्यां रै निबंधां रो जोड़ करां तो इक्यावन बैठै। ललित निबंध लिखणो खुद अबखो काम मानीजै अर राजस्थानी कानी देखां तो पत्र-पत्रिकावां कोनी अर निबंध छापणिया संपादक ई कोनी। प्रकाशकां रो काळ तो सदा सूं रैयो ई है। लेखकां री आ आपरी भासा अर साहित्य पेटै लूंठी लगन अर धुन है। लेखक बादल जी नैं घणा घणा रंग कै वै आ झाटी झाल’र इण विधा नैं थापित करण रो अंजस जोग काम सांभ राख्यो है।
            आगै कीं बात करू उण सूं पैली कीं घरू सवाल ई जरूरी लखावै- ‘सावण सुरंगो ओसर्‌यो’ लिख्यो अर लेखक नैं कांई मिल्यो? ‘बात री बात’ पोथी आई अर लेखकां-पाठकां री प्रतिक्रियावां कांई आई? ‘तारां छाई रात’ कुण-कुण बांची अर कठै-कठै इण री समीक्षावां छपी? बियां आ सूगला सवालां नैं जे आपां अठै छोड़ देवा तो भलै मांय रैसां। कांई सार है आं बातां मांय? ठावो पडूत्तर फगत ओ हुवैला कै आ लेखक री जिद है कै जी म्हारी भासा मांय ललित निबंध कोनी आ बात कोई मैणै रूप ना कैवै। दस-बारै बरसां सूं डॉ. मंगत बादल इणी मैणै नै दूर करण मांय लाग्योड़ा है। मानीता निबंधकार डॉ. किरण नाहटा आधुनिक राजस्थानी साहित्य री न्यारी न्यारी विधावां रै विगसाव पेटै हियै मांय पीड़ राखता हा। ‘राजस्थानी साहित्य अेवं संस्कृति जनहित प्रन्यास, बीकानेर’ री थरपणा इणी मिसन सूं हुई कै साहित्य मांय छूटती विधावां नैं जन जन तांई पूगावण रो काम हुवै। ओ संजोग कैयो जावलै कै डॉ. मंगत बादल रा तीनूं निबंध संग्रै सूं इणी जनहित प्रन्यास सूं प्रकाशित हुया। आपणी बीकानेर अकादमी रै नांव मांय तीन सीगा भेळा भाळ सकां। भासा अर साहित्य पेटै तो कीं काम हुयो पण संस्कृति पेटै काम कमती हुयो। निबंध अर ललित निबंध मांय भासा, साहित्य अर संस्कृति रा लूंठा रंगां नैं देख-समझ सकां। डॉ. मंगत बादल रै ललित निबंधां मांय राजस्थानी रो सांस्कृतिक वैभव उजागर हुयो है।
            ललित निबंध विधा मांय लेखक जद पैली ओळी मांडै तद आ तय कोनी हुवै कै आगै कांई कियां लिखणो है। हां आ जरूर हुवै कै लगैटगै तीन-च्यार कै पांच पानां मांय आवै जित्ती ओळ्यां तो लिखणी ई है तद ई कोटो पूरो हुवैला। पानां री आ सींव ई कोई पक्को असूल कोनी पण अमूमन इण विधा मांय इण ढाळै रो नेम देखीजै। डॉ. मंगत बादल राजस्थानी, हिंदी अर पंजाबी री मोकळी पोथ्यां बरसां बांची-लिखी अर बरसां तांई कोलेज रै टाबरां नैं भणावता है। आप न्यारै न्यारै विसयां माथै केई शोध आलेख अर आलोचनावां-समीक्षावां ई लिखी तो अनेक पोथ्यां री परख ई मांडी। अठै आ सगळी विगत गावण रो अरथाव ओ है कै आं ललित निबंधां मांय लेखक रो अध्ययन, मनन अर चिंतन मूड़ै बोलै। अबार तांई साम्हीं आया अर आं निबंधां नैं बांच्यां ठाह लागै कै लेखक खन्नै साहित्य री लूंठी हेमाणी है। बै आपरै निबंधां में लोक साहित्य, सबदां रै जलम अर न्यारी-न्यारी कैवतां-ओखाणा टाळ साहित्यिक रचनावां अर रचनाकारां रो बगतसर सटीक दाखलो आं निबंधां मांय राखै। ग्यान हुवणो अेक बात है पण उण ग्यान रो मोकैसर उपजणो अर बरतणो दूजी बात है, तो अठै मोकैसर केई-केई इसी बातां आपां नैं बांचण नै मिलै कै मूंड़ै आंगळी दबावां कै हरेक निबंध मांय इत्ती ठावी टाळवीं बातां अर विगत लेखक नैं कियां चेतै आवै।
            आ कोई ऊपर-छापर बात कोनी, दाखलै रूप बात करां तो आपरै अेक ललित निवंध रो सिरैनांव फगत अेक ‘ट’ (संग्रै ‘तारां छाई रात’ में) है। अब आप विचार करो कै कोई लेखक अेक वरण ‘ट’ माथै कांई कांई मांड सकै। पण जद ओ निवंध निजरां मांय सूं निकाळोला तद आपनै लखावैला कै म्हारी बातां कूड़ी कोनी। बात सूं बात परोटो लेखक अेक निरवाळै गद्य री सिरजणा करै जठै गद्य भेळै कविता चालै। गद्य रो काव्यात्मक हुवणो ललित निवंध री खासियत मनीजै। इणी ढाळै इण संग्रै रो पैलो निबंध ‘नाम’ बांचां तो ठाह लगै कै नाम सिरैनाम सूं लेखक कित्तो कांई जाणै अर अपानै जाणी-पिछाणी अर अणजाणी बातां विगत रूप बांचता घणो रस आवै। ललित निवंध सरस हुवै तद बांचणिया कोड करै अर कोडाया-कोडाया बांचता जावै। निवंधां री पठनीयता रो गुण तद ई आवै जद गुणी लेखक चतराई सूं अेक सलीकै साथै बात मांय सूं बात निकाळ’र आ सावचेती राखै कै किसी बात कद और कियां पाठक नैं पुरसणी है। सेक्सपीयर कैयो कै नाम में कांई राख्यो है पण मंगत जी रो निवंध बांच’र लखावै कै नाम री घणी महिमा हुवै। इण निवंध सूं ओ दाखलो बांचो- “स्री राम जद पाणी माथै पाथर तिरता देख्या तो बां नै बड़ो अचरज हुयो। बां थोड़ी दूर जायनै अेक पाथर उठाय’र होळै सी’क पाणी माथै धरियो तो बो डूबग्यो। हनुमानजी दूर खड़िया ओ तमासो देखै हा। कनै जाय’र बोल्या, “प्रभु! आ तो आप रै नाम री महिमा है जिकै सूं पाथर पाणी माअथै तिरै। आप जिकै नै हाथ सूं छोड़ दियो बो तो डूबैलो ई।”
            फगत ओ नीं इसा दसूं-बीसूं दाखला पोथी मांय मिलै जिका आपां नै उण विसय रै अंतस मांय लेय जावै अर आपां सबदां अर कथावां रै रस मांय जाणै डूबतां-तिरतां जावै। जरूरी कोनी कै डॉ. मंगत बादल कोई नांव कै सिरनांव सूं निबंध रचै, बां इण पोथी मांय अेक निवंध रो सिरैनांव ई राख्यो है- ‘बिना सिरैनांव’। अबै जे कोई भाव-विचार का सवद सिरैनांव पेटै लेय’र लेखक लिखै तो बात जमै कै हां इण दिस मांय लिख्यो जावैला। जद सिरैनांव ई ‘बिना सिरैनांव’ लिख दियो जावै तद उण निबंध नैं कियां लिखैला रो दाखलो ओ संग्रै राखै। इणी निबंध सूं ओ दाखलो देखो- “दरअसल रचनाकार अेक हुंसियार दरजी री भांत हुवै। हुंसियार दरजी जियां रंग-बिरंगी अळगी-अळगी कातरां नै जोड़’र गाभै नै अैड़ो सरूप दे देवै कै उण रो सौंदर्य बध जावै। बो जोड़ेडी कातरां कोनी लागै। विचार, भाव, इतिहास अर कथा तत्व आद नै बो इण भांत अेकमेक कर गूंथ देवै कै उण में कोई संधी या जोड़ नजर कोनी आवै। बो काल्पनिक है तो भी सांच लागै।” इणी ढाळै री बात इण पोथी पेटै कैयी जाय सकै कै न्यारै न्यारै रंगां सूं इण मांय जाणै इंदरधनख आपां नैं निजर आवै। जद आपां अेक दो निबंध बांच लेवां तो लिखारै रो जादू आपां माथै चढ़ जावै अर आपां उण लय मांय अेक पछै अेक निबंध बांचता रैवां। आ पोथी बांचण रो अरथाव आपां नै केई केई नवी अर खरी जाणकारी भेळै अेक हेमाणी मांय सीर हुवणो है। राजस्थानी लोक साहित्य अर साहित्य संसार मांय केई केई बातां जाणी-पिछाणी अर अणजाणी है। आ पोथी बांच’र आपां मौकेसर बात कैवण सारू केई बातां चेतै कर सकालां।
            ‘थोड़ो सो’ ललित निबंध तो इत्तो प्रेरक बणग्यो है कै इण नैं बांच्यां हियो हूंस सूं भरीज जावै अर लखावै कै साचाणी मिनख खातर इण जूण मांय कोई काम अबखो कोनी। इण निबंध री भासा अर बात-विचार री विगत इण ढाळै फिट बैठी है कै किणी सूनै मिनख नै जे ओ बंचा-सुणा देवां तो बो चेतन हुय जावै।
इणी ढाळै ‘नूंतौ’ अर ‘बटाऊ’ ललित निबंधां मांय आं सबदां सूं लेखक बात टोरै पछै उण नै सिरै लेय जावै। किणी छोटै अर जाबक सरल सै दिखतै सबद मांय सूं लांबी-चौड़ी विगत काढ़’र आपरै हेताळु बांचणिया खातर राखणो आं निबंधां री खासियत कैयी जावैला।  
            पतझड़ भी जिंदगी रो जथारथ है इण बात नै ओळखता डॉ. बादल ललित निबंध लिख्यो- ‘पतझड़ माथै कुण लिखै’ अर कैवणो चाइजै कै इण ढाळै रो निबंध राजस्थानी में ई नीं भारतीय भासावां मांय नीं मिलैला। इणी ढाळै ‘कातीसरौ’ मांय लोकरंगां अर धरती सूं हेत री निरवाळी बानगी देखण नैं मिलै। ‘सबदां रो सफर’ सिरैनांव निबंध मांय सबदां अर भासा रै विगसाव पेटै जोरदार चिंतन मिलै। अेक निबंध कैवण नै अेक है पण उण मांय अणगिणती रा दाखला अर इसी इसी बातां मिलै कै बां माथै न्यारी न्यारी केई केई बातां करी जाय सकै। आं सगळी बातां री असलियत आपनै तद ई ठाह लागैला जद आप आं नै बांचोला।
            राजस्थानी भासा मोटै काळजै वाळी भासा तद ई बाजैला जद आपां आज रै बगत नैं सांगोपांग सिरजण करांला। तत्सम अर तद्भव दोनूं भांत रा सबद लेखक आपरै सुभीतै सूं काम लेवै। केई दूजी भासावां रा सबदां नैं ई परोटणा पड़ै तो बेजा बात कोनी। भासा असल में आपां रै हियै मांयलै भावां नै पूगावण रो कारज सारै। वर्तमान जे तत्सम सबद नैं वरतमान लिखण मांय कोई आंट कोनी अर जे मनैगनै वरतमांन नैं खरो मानै अर लिखै तो बो ई खोटो कोनी। फगत जरूरत इण बात री है कै लेखक री खुद री कोई अेक विचारधारा सबदां पेटै हुवणी चाइजै। मोटै नगर-महानगर मांय रैवणियै मिनख री भासा अर ठेठ गांव रै मिनख री भासा जुदा हुवणी लाजमी है। भणियै-गुणियै मिनख अर अनपढ़ मांय आंतरो उण री भासा सूं ई समझ आवै। इण पोथी मांय आधुनिक राजस्थानी समाज जिको हिंदी-अंग्रेजी मांय पढ़ै-लिखै अर आपरी जड़ां सूं खुद जुड़ै अर आपरै समाज नैं ई जड़ां सूं जोड़ण रो जतन करै उण ढाळै री भासा मिलैला। भासा रै मामलै मांय आ लेखक री सावचेती कैयी जावैला कै बै नगरीय भासा मांय सरल सहज भासा रो प्रयोग करता थका मोकळी जगां केई केई सबदां ओखाणा अर कहाणियां रै मारफत आपां नै आपां री भासा अर संस्कृति नैं संभाळ’र राखण री भोळावण ई देवै।  
            घर रा जोगी जोगणा अर आन गांव का सिध आळी बात हुवै, मंगत जी आपणा है अर बै आपरै हेताळु बरताव सूं आ लागण ई कोनी देवै कै बै कोई घणा मोटा अर टंणका लिखारा है। साथी सायना अर छोटा सूं अणमाप हेत राखणियां मंगत जी असल मांय घणा मोटा अर टाळवा लिखारा है जिका री कलम सूं केई अमर रचनावां निकळी है। इण पोथी रा अर लारली पोथ्यां रा केई केई निवंध ललित निबंध विधा रा उल्लेखजोग निबंधां रै रूप मांय कूत्यां जावैला। म्हनै पतियारो है कै जे आप मंगत बादल रा ललित निवंध अेकर बांच लेवोला तो म्हारी इण बात री साख भरोला। नवी पोथी रै प्रकाशन माथै म्हैं घणी घणी मंगळकामनावां साथै अंजस करतो आभार जतावूं कै म्हनै अठै म्हारी मनगत दरसावण रो मौको मिल्यो।
- नीरज दइया

Saturday, February 08, 2020

स्त्री के गौरव की अद्वितीय गाथा : गली हसनपुरा

पुस्तक समीक्षा- 
    सुपरिचित कहानीकार रजनी मोरवाल अपने पहले उपन्यास "गली हसनपुरा" में हमें अमर प्रेम की एक दर्द भरी दास्तान से रू-ब-रू कराती है । उपन्यास की नायिका मीरकी और उन जैसी अनेक नायिकाओं के सच्चे किंतु त्रासद प्रेम और संघर्ष को किसी इतिहास में दर्ज नहीं किया है । यह उपन्यास एक ऐसी गली का दृश्यावलोकन और दस्तावेज है जो अनेक मार्गों और पड़ावों से होते हुए हमें एक हसनपुरा को समग्रता में देखने की दृष्टि देता है । उपन्यास का मूल सूत्र है- जीवन कितना भी बेढ़ब, विषम  और विद्रूप क्यों ना हो, किंतु वह अपनी असीम संभावनाओं और संरचना में सौंदर्य, प्रेम और संघर्ष का सदैव वाहक होता है।
    उपन्यासकार रजनी मोरवाल ने ‘अपनी बात’ में स्पष्ट किया है कि यह उपन्यास मीरकी के वास्तविक जीवन पर आधारित है । लेखिका ने मीरकी के माध्यम से एक ऐसे पूरे जीवन को सत्रह अध्यायों में बटोरते हुए स्त्री आत्मसंघर्ष, प्रेम और सपनों को अनेक सूत्रों के साथ कलात्मक रूप में संजोया है । भाषा-शिल्प द्वारा यहां कल्पनाएं भी वास्तविकताओं के रूप में प्रस्तुत हुई है । कहना होगा, यह उपन्यास स्त्री गौरव की एक अद्वितीय गाथा है । हमारे आस-पास हसनपुरा जैसे अनेक हसनपुरा हैं, जो सत्ता और उसके पक्षकारों से सवाल पूछ रहे हैं कि आजादी के बाद विकासित होते समाज में ऐसे वर्ग दबे-कुचले और अधिकारों से वंचित लोग क्यों है? यह एक प्रतीकात्मक कथा है, जो स्थितियों के लिए जिम्मेदार पक्ष को तलाशती है।
    आजादी के बाद बदलते समय और समाज की पृष्ठभूमि से जुड़े इस उपन्यास में मीरकी के पिता का परिवार पाकिस्तान से भारत आया था । जिसमें कुल जमा दो सदस्य थे- उसके पिता और उसकी दादी । जिसने दंगों में अपनी और अपने बेटे यानी मीरकी के पिता की जैसे-तैसे जान बचाई और यहां आकर शहर के बाहर आज के गली हसनपुरा की नींव रखी । ऐसे गंदे इलाके में इस बस्ती का यह सिलसिला आरंभ हुआ कि फिर थमा ही नहीं, और वहां ऐसे ही दबे-कुचले अपना घर छोड़ आए लोगों ने आसरा लिया । शहर का विकास होता गया लेकिन गली हसनपुरा का विकास नहीं हुआ और फिर भी यह इलाका शहर के बीच आ गया ।
    उपन्यास में मुख्य कथा के समानांतर अनेक उपकथाएं हैं, जिनमें विविध व्यंजनाओं के साथ मुख्य कथा पोषित होती है । एक पीढ़ी के बाद दूसरी पीढ़ी और उसके बाद अगली पीढ़ी को जोड़ते हुए उपन्यास के फलक को विस्तार दिया गया है । जीवन-संघर्ष मूलतः रोटी का है । पेट भरने की और जीवन जीने की ऐसी कोई गली भले वह हसनपुरा हो अथवा कोई दूसरी, लेखिका का मानना है कि कोठरता के बीच जीवन की कोमल और सूक्ष्म भावनाएं नष्ट नहीं होती हैं । इस समाज में जहां झाला चौधरी जैसे दानव हैं तो वहीं बनवारी जैसे देवता मनुष्य भी । ऐसा तो समाज में होता ही रहा है फिर यह प्रतिप्रश्न किया जा सकता है कि इस उपन्यास में नया क्या है? नया है इस हसनपुरा का भाषा-सौंदर्य और ऐसे शिल्प से प्रेम का विस्तारित रूप हमारे समक्ष प्रस्तुत करने का कौशल जो हमारे भीतर नई स्थापनाएं करते हुए प्रेम के उद्दात रूप को प्रतिस्थापित करता है। उपन्यास अपनी आंचलिक भाषा-शैली और संवादों से पठनीय बन पड़ा है । मीरकी-बनवारी का प्रेम राजस्थान की प्रसिद्ध प्रेमकथा महेंद्र-मूमल के प्रसंग से पोषित और उसी के समानांतर अधूरा और अविस्मरणीय चित्रित हुआ है। 
- डॉ. नीरज दइया
*** 
उपन्यास : ‘गली हसनपुरा’  
उपन्यासकार : रजनी मोरवाल
प्रकाशक : आधार प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड, एस.सी.एफ. 267, सेक्टर-16, पंचकूला (हरियाणा) 
पृष्ठ : 128 ; 
मूल्य : 120/- (पेपर बैक) 
संस्करण : 2020
--------
संपर्क : डॉ. नीरज दइया, सी-107, वल्लभ गार्डन, पवनपुरी, बीकानेर- 334003 
E-mail : drneerajdaiya@gmail.com / Mob. 9461375668

डॉ. नीरज दइया की प्रकाशित पुस्तकें :

हिंदी में-

कविता संग्रह : उचटी हुई नींद (2013), रक्त में घुली हुई भाषा (चयन और भाषांतरण- डॉ. मदन गोपाल लढ़ा) 2020
साक्षात्कर : सृजन-संवाद (2020)
व्यंग्य संग्रह : पंच काका के जेबी बच्चे (2017), टांय-टांय फिस्स (2017)
आलोचना पुस्तकें : बुलाकी शर्मा के सृजन-सरोकार (2017), मधु आचार्य ‘आशावादी’ के सृजन-सरोकार (2017), कागद की कविताई (2018), राजस्थानी साहित्य का समकाल (2020)
संपादित पुस्तकें : आधुनिक लघुकथाएं, राजस्थानी कहानी का वर्तमान, 101 राजस्थानी कहानियां, नन्द जी से हथाई (साक्षात्कार)
अनूदित पुस्तकें : मोहन आलोक का कविता संग्रह ग-गीत और मधु आचार्य ‘आशावादी’ का उपन्यास, रेत में नहाया है मन (राजस्थानी के 51 कवियों की चयनित कविताओं का अनुवाद)
शोध-ग्रंथ : निर्मल वर्मा के कथा साहित्य में आधुनिकता बोध
अंग्रेजी में : Language Fused In Blood (Dr. Neeraj Daiya) Translated by Rajni Chhabra 2018

राजस्थानी में-

कविता संग्रह : साख (1997), देसूंटो (2000), पाछो कुण आसी (2015)
आलोचना पुस्तकें : आलोचना रै आंगणै(2011) , बिना हासलपाई (2014), आंगळी-सीध (2020)
लघुकथा संग्रह : भोर सूं आथण तांई (1989)
बालकथा संग्रह : जादू रो पेन (2012)
संपादित पुस्तकें : मंडाण (51 युवा कवियों की कविताएं), मोहन आलोक री कहाणियां, कन्हैयालाल भाटी री कहाणियां, देवकिशन राजपुरोहित री टाळवीं कहाणियां
अनूदित पुस्तकें : निर्मल वर्मा और ओम गोस्वामी के कहानी संग्रह ; भोलाभाई पटेल का यात्रा-वृतांत ; अमृता प्रीतम का कविता संग्रह ; नंदकिशोर आचार्य, सुधीर सक्सेना और संजीव कुमार की चयनित कविताओं का संचयन-अनुवाद और ‘सबद नाद’ (भारतीय भाषाओं की कविताओं का संग्रह)

नेगचार 48

नेगचार 48
संपादक - नीरज दइया

स्मृति में यह संचयन "नेगचार"

स्मृति में यह संचयन "नेगचार"
श्री सांवर दइया; 10 अक्टूबर,1948 - 30 जुलाई,1992

डॉ. नीरज दइया (1968)
© Dr. Neeraj Daiya. Powered by Blogger.

आंगळी-सीध

आलोचना रै आंगणै

Labels

101 राजस्थानी कहानियां 2011 2020 JIPL 2021 अकादमी पुरस्कार अगनसिनान अंग्रेजी अनुवाद अतिथि संपादक अतुल कनक अनिरुद्ध उमट अनुवाद अनुवाद पुरस्कार अनुश्री राठौड़ अन्नाराम सुदामा अपरंच अब्दुल वहीद 'कमल' अम्बिकादत्त अरविन्द सिंह आशिया अर्जुनदेव चारण आईदान सिंह भाटी आईदानसिंह भाटी आकाशवाणी बीकानेर आत्मकथ्य आपणी भाषा आलेख आलोचना आलोचना रै आंगणै उचटी हुई नींद उचटी हुई नींद. नीरज दइया उड़िया लघुकथा उपन्यास ऊंडै अंधारै कठैई ओम एक्सप्रेस ओम पुरोहित 'कागद' ओळूं री अंवेर कथारंग कन्हैयालाल भाटी कन्हैयालाल भाटी कहाणियां कविता कविता कोश योगदानकर्ता सम्मान 2011 कविता पोस्टर कविता महोत्सव कविता-पाठ कविताएं कहाणी-जातरा कहाणीकार कहानी काव्य-पाठ किताब भेंट कुँअर रवीन्द्र कुंदन माली कुंवर रवीन्द्र कृति ओर कृति-भेंट खारा पानी गणतंत्रता दिवस गद्य कविता गली हसनपुरा गवाड़ गोपाल राजगोपाल घिर घिर चेतै आवूंला म्हैं घोषणा चित्र चीनी कहाणी चेखव की बंदूक छगनलाल व्यास जागती जोत जादू रो पेन जितेन्द्र निर्मोही जै जै राजस्थान डा. नीरज दइया डायरी डेली न्यूज डॉ. अजय जोशी डॉ. तैस्सितोरी जयंती डॉ. नीरज दइया डॉ. राजेश व्यास डॉ. लालित्य ललित डॉ. संजीव कुमार तहलका तेजसिंह जोधा तैस्सीतोरी अवार्ड 2015 थार-सप्तक दिल्ली दिवाली दीनदयाल शर्मा दुनिया इन दिनों दुलाराम सहारण दुलाराम सारण दुष्यंत जोशी दूरदर्शन दूरदर्शन जयपुर देवकिशन राजपुरोहित देवदास रांकावत देशनोक करणी मंदिर दैनिक भास्कर दैनिक हाईलाईन सूरतगढ़ नगर निगम बीकानेर नगर विरासत सम्मान नंद भारद्वाज नन्‍द भारद्वाज नमामीशंकर आचार्य नवनीत पाण्डे नवलेखन नागराज शर्मा नानूराम संस्कर्ता निर्मल वर्मा निवेदिता भावसार निशांत नीरज दइया नेगचार नेगचार पत्रिका पठक पीठ पत्र वाचन पत्र-वाचन पत्रकारिता पुरस्कार पद्मजा शर्मा परख पाछो कुण आसी पाठक पीठ पारस अरोड़ा पुण्यतिथि पुरस्कार पुस्तक समीक्षा पुस्तक-समीक्षा पूरन सरमा पूर्ण शर्मा ‘पूरण’ पोथी परख प्रज्ञालय संस्थान प्रमोद कुमार शर्मा फोटो फ्लैप मैटर बंतळ बलाकी शर्मा बसंती पंवार बातचीत बाल कहानी बाल साहित्य बाल साहित्य पुरस्कार बाल साहित्य समीक्षा बाल साहित्य सम्मेलन बिणजारो बिना हासलपाई बीकानेर अंक बीकानेर उत्सव बीकानेर कला एवं साहित्य उत्सव बुलाकी शर्मा बुलाकीदास "बावरा" भंवरलाल ‘भ्रमर’ भवानीशंकर व्यास ‘विनोद’ भारत स्काउट व गाइड भारतीय कविता प्रसंग भाषण भूमिका मंगत बादल मंडाण मदन गोपाल लढ़ा मदन सैनी मधु आचार्य मधु आचार्य ‘आशावादी’ मनोज कुमार स्वामी मराठी में कविताएं महेन्द्र खड़गावत माणक माणक : जून मीठेस निरमोही मुकेश पोपली मुक्ति मुक्ति संस्था मुरलीधर व्यास ‘राजस्थानी’ मुलाकात मोनिका गौड़ मोहन आलोक मौन से बतकही युगपक्ष युवा कविता रक्त में घुली हुई भाषा रजनी छाबड़ा रजनी मोरवाल रतन जांगिड़ रमेसर गोदारा रवि पुरोहित रवींद्र कुमार यादव राज हीरामन राजकोट राजस्थली राजस्थान पत्रिका राजस्थान सम्राट राजस्थानी राजस्थानी अकादमी बीकनेर राजस्थानी कविता राजस्थानी कविता में लोक राजस्थानी कविताएं राजस्थानी कवितावां राजस्थानी कहाणी राजस्थानी कहानी राजस्थानी भाषा राजस्थानी भाषा का सवाल राजस्थानी युवा लेखक संघ राजस्थानी साहित्यकार राजेंद्र जोशी राजेन्द्र जोशी राजेन्द्र शर्मा रामपालसिंह राजपुरोहित रीना मेनारिया रेत में नहाया है मन लघुकथा लघुकथा-पाठ लालित्य ललित लोक विरासत लोकार्पण लोकार्पण समारोह विचार-विमर्श विजय शंकर आचार्य वेद व्यास व्यंग्य व्यंग्य-यात्रा शंकरसिंह राजपुरोहित शतदल शिक्षक दिवस प्रकाशन श्याम जांगिड़ श्रद्धांजलि-सभा श्रीलाल नथमल जोशी श्रीलाल नथमलजी जोशी संजय पुरोहित संजू श्रीमाली सतीश छिम्पा संतोष अलेक्स संतोष चौधरी सत्यदेव सवितेंद्र सत्यनारायण सत्यनारायण सोनी समाचार समापन समारोह सम्मान सम्मान-पुरस्कार सम्मान-समारोह सरदार अली पडि़हार संवाद सवालों में जिंदगी साक्षात्कार साख अर सीख सांझी विरासत सावण बीकानेर सांवर दइया सांवर दइया जयंति सांवर दइया जयंती सांवर दइया पुण्यतिथि सांवर दैया साहित्य अकादेमी साहित्य अकादेमी पुरस्कार साहित्य सम्मान सीताराम महर्षि सुधीर सक्सेना सूरतगढ़ सृजन कुंज सृजन संवाद सृजन साक्षात्कार हम लोग हरदर्शन सहगल हरिचरण अहरवाल हरीश बी. शर्मा हिंदी अनुवाद हिंदी कविताएं हिंदी कार्यशाला होकर भी नहीं है जो