Wednesday, March 23, 2022

छेहली बंतळ / लू शुन/ अनुवाद- डॉ. नीरज दइया

चीनी कहाणी
छेहली बंतळ / लू शुन
जीसा घणी दौराई सूं सांस लेय रैया हा। अठै तांई कै बां री छाती सूं धक-धक री आवाज म्हनै सुणीज रैयी ही। पण अबै स्यात ही कोई उणा री कीं मदद कर सकैला। म्हैं लगौलग ओ सोचै हो कै चोखो रैवै बै इणी ढाळै आराम सूं सरगलोक जावै परा। पण तद ई चाणचकै म्हनै लखायो कै इण ढाळै री बातां म्हनैं नीं विचारणी चाइजै। म्हनैं इयां लागण लाग्यो जाणै म्हैं इण ढाळै री बातां दिमाग मांय लाय’र मोटो गुनो कर दियो हुवै। पण तद ठाह नीं क्यूं म्हनै इयां लागतो कै मरतकाळ मांय जीसा री सावळ-सोरी मौत की कामना करणो कोई बेजा बात ई कोनी। आज ई म्हनै आ बात ठीक लखावै।  
उण दिन दिनूगै-दिनूगै म्हारै घरै म्हारी पाडोसण येन बैनजी आया अर जीसा री हालत देख’र बां पूछ्यो कै अबै म्हे किण बात नै उडीक रैया हां। अबै बगत बरबाद करण सूं कांई फायदो। येन बैनजी रै कैयां म्हां जीसा रा कपड़ा बदळिया। उण पछै नोट अर कायांग-सूत्र बाळ’र बां री आत्मा री शांति सारू अरदास करी। फेर उण राख नै एक कागद री लपेट’र पुड़ी बणा’र बां रै हाथ मांय झला दी।
- उणां सूं कीं बात करो। येन बैनजी कैयो- थारै जीसा रो छेहलो बगत आयग्यो। बेगो सा उण सूं बोल-बतळा लो।
- बाबूजी! बाबूजी! म्हैं बां नै हेलो करियो।
- जोर सूं बोलो। बां नै थारी आवाज सुणीज कोनी रैयी। अरे बीरा, बेगा करो, थे जोर सूं कोनी बोल सको हो कांई?
- बाबूजी! बाबूजी! म्हैं फेर कैयो। अबकी कीं बेसी जोर लगा’र कैयो।
बां रै उणियारै पैली जिकी निरायंत दीसै ही बा गायब हुयगी ही। अबै फेर उणा रै उणियारै मांय पीड़ रा बादळ छायग्या। बेचैनी मांय उणा रै भंवराटां होळै-होळै हिलण लाग्या।
- बां सूं बात करो। येन बैनजी फेर कैयो- बेगा करो... अबै बगत कोनी।
- बाबूजी! घणी बेचैनी सूं म्हारा हरफ निकळिया।
- कांई बात है? ... रोळा क्यूं मचा रैयो है?
आ बां री आवाज ही। साव होळी अर सुस्त। बै फेर तड़फण लाग्या हा। बै भळै सांस लेवण री तजबीज करै हा। कीं बगत पछै बै फेर पैला दांई मून हुयग्या।
- बाबूजी!!! अबकी म्हैं बां नै तद तांई बुलावतो रैयो, जद तांई कै बां छेहली सांस नीं लेय ली।
खुद री बा ढीली अर मरियोड़ी आवाज म्हैं आज ई बियां री बियां सुण सकूं। अर जद ई म्हैं बै म्हारी चीसाळियां सुणु, म्हैं लखावै कै बै म्हारै जीवण री स्यात सगळा सूं मोटी गळती ही।
अनुवाद- डॉ. नीरज दइया



Sunday, March 20, 2022

लघुकथाएं / नीरज दइया

 


राजस्थानी भाषा से स्वयं द्वारा अनूदित लघुकथाएं-

दूरियां / डॉ. नीरज दइया

मैं जैसे ही हैडमास्टर साहब के कमरे से बाहर निकला मेरी आंखों के सामने एक नया चेहरा आया। धोती-कुर्ता और मुरकियां पहने वह गबरू जवान मुस्करा रहा था। सभी से आज जान-पहचान और परिचय का दिन था। मैंने मेरा हाथ उससे मिलाने के लिए आगे किया- ‘मैं मास्टर मगनीराम। आज ही मैंने यहां जोइन किया है।’
वह गबरू दो कदम पीछे हटा और मेरे सामने हाथ जोड़े। वह कुछ कहता इससे पहले ही एक अन्य अध्यापक जो मेरे पीछे खड़ा था, उसने कहा- ‘यह अपने यहां फोर्थ क्लास है, तोलाराम।’
मेरा मन जैसे गहरी कंदरारों में जा घसा। चारों तरफ आंखें दौड़ा कर जायजा लिया कि उस दृश्य को किस-किस ने देखा। क्या वह मेरी मूर्खता थी जिसका एक मात्र चश्मदीद गवाह मैं ही था। मेरे भीतर का पढ़ा-लिखा अध्यापक मुझ से कह रहा था- ‘तू कितना पागल है, जो आदमी की सही पहचान भी नहीं कर सकता। बिना जाने-पहचाने हर किसी के सामने हाथ आगे करने की जरूरत क्या है?’ मुझे पता ही नहीं चला कि मैंने कब तोलाराम से कहा- ‘अब यहां घोड़े की तरह खड़ा-खड़ा क्या कर रहा है? जा कर पानी का लोटा भर ला।’
०००

नौकर / डॉ. नीरज दइया

- ‘अरे सुन रहा है क्या, पानी का लोटा ले कर आना।’ रामलाल ने अपनी पत्नी से कहा तो उसने सोए सोए ही प्रत्युत्तर दिया- ‘आज तो छत पर पानी लाना ही भूल गई।’ फिर उसने अपने बड़े लड़के से कहा- ‘अरे टीकूराम, नीचे जाकर पानी भर कर लेकर आ तो।’
टीकूराम ने अपने छोटे भाई की तरफ इसी काम को पटलते हुए कहा- ‘खेमू! पिताजी के लिए नीचे जाकर पानी तो ले आ।’ खेमू भी कौनसा कम था हाथोंहाथ जवाब दिया- ‘मुझे तो डर लगता है, यह काम तो मुकनी बहन करेगी।’
और बहन भी इसी परंपरा को आगे बढ़ाने वाली थी, बोली- ‘मुझे तो नींद आ चुकी है, भाई ने तुझे कहा था तो तुझे ही पानी भरकर लाना होगा।’
यह संवाद सुनते हुए रामलाल को क्रोध अया। वह एकदम उठा और सीढ़ियां उतरते हुए बड़बड़ाने लगा- ‘यह घर कभी तरक्की नहीं कर सकता है। सबके हाड हराम हो गए हैं। सबको बैठै-बिठाए खाने-पीने को सब चाहिए... राम जाने इस घर का आगे क्या होगा...।
इतने में पिता रामलाल के कानों में उसके बड़े पुत्र का स्वर पहुंचा- ‘पिताजी, मां कह रही है आप जब उठ ही गए हैं तो आते हुए मग भर कर ले आना।’
रामलाल ने पानी पीकर मग भर लिया। प्रथम सीढ़ी चढ़ कर वह फिर नीचे उतर गया और गाली निकालते हुए मग को जमीन पर उडेल दिया- ‘मैं इनके बाप का नौकर थोड़ी लगा हुआ हूं... हरामजादे।’
०००

विक्रम और बेताल / डॉ. नीरज दइया

- ‘तो सुनो विक्रम! एक तोता था। खुले आकाश में उड़ता जहां चाहता बैठता। एक पेड़ की डाली से पंख फैलाए तो उडता हुआ दूसरे पेड़ की डाली पर जा बैठता। किसी बात की ना कोई चिंता ना फ्रिक। एक बार किसी ने उसे पकड़ लिया और वह पिंजरे में कैद हो गया।
 एक बार तो उसने खूब टें टें किया पर थोड़े दिनों बाद वह शांत हो गया। उसके यहां आराम की जिंदगी पसंद आने लगी।
एक दिन हुआ यूं कि किसी बालक ने पिंजरे का दरवाजा खोल दिया। मालूम है कि फिर क्या हुआ? तोता पिंजरे से उड़ सकता था पर उड़ा नहीं। बता विक्रम, तोता उड़ा क्यों नहीं? जब कि एक कवि ने उसे बहुत पहले ही आजादी और गुलामी के बारे में कविता सुना दी थी। फिर भला वह क्यों नहीं उड़ा, बता जल्दी बता नहीं तो मैं चला...
- ‘ठहरो बेताल! जाते कहां हो? मेरा उत्तर तो सुन लो। वह तोता जान चुका था कि आजादी में लाखों तकलीफें हैं। पिंजरे में उसे सब कुछ मुफ्त में मिल रहा था। समय पर चुग्गा, पानी... जब जीवन की मूलभूत चीजों समय पर मिल जाए तो भला...
यह सुन बेताल उड़ा और फिर से पेड़ पर जा कर औंधा लटक गया।
००००

शहर में एक मकान / डॉ. नीरज दइया

एक आदमी को जिन्न बोलत में मिल गया। उसने जिन्न को बोलत से बाहर निकाला। जिन्न उसका गुलाम हो गया। वह आदमी गांव में रहता था। जिन्न उसकी हर इच्छा पूरी कर देता।
एक दिन उस आदमी की इच्छा शहर चल कर रहने की हुई। बस उसके तो सोचने भर की देर थी कि जिन्न को बुला लिया। जिन्न ने कहा- ‘हुकम आका!’
- ‘जिन्न मुझे शहर में एक मकान चाहिए रहने के लिए।
जिन्न अपने मालिक के कदमों में गिर कर रोने लगा। वह बोला- ‘मैं माफी चाहता हूं। यह काम मैं नहीं कर सकता हूं।’
००००

रावण का करेक्टर / डॉ. नीरज दइया

मेरा एक दोस्त है। आप उसका नाम जानना चाहेंगे पर नाम में क्या रखा है। आप यूं समझे कि कोई मिस्टर एक्स है जो मेरे दोस्त हैं। मिस्टर एक्स की धर्म में रुचि बढ़ी और उन्होंने बाजार से रामायण खरीद ली। अब वह दिन-रात जब समय मिलता ‘रामायण’ पढ़ने की लगन में ना दिन देखता ना रात। उसकी यह बात सभी को पता चल गई। होली पर उसका टाइटल निकला- ‘रामायण चाटने वाला मिस्टर एक्स उर्फ रामचंद्रजी।’
सबने उसकी भक्ति भावना को देखते हुए सोचा रामयण से उसका अगला-पिछला जन्म सुधर जाएगा। वह बहुत भला आदमी बन गया।
यह कथा का पूर्वाद्ध था किंतु आगे हुआ यह कि उसके कार्यों को देखकर लगगे लगा कि उसे रामयण में राम का नहीं रावण का करेक्टर अधिक भा गया। आप पूछेंगे- ऐसा क्या हुआ? क्या कोई विशेष बात हुई? क्या बदलाव आया उसमें?
... तो जनाब, क्या आपको पता नहीं है मिस्टर एक्स आजकल नेता बन गए हैं और चुनाव नजदीक है।
०००० 

पुरस्कार / डॉ. नीरज दइया

रमेश को मैं कथा-गुरु कह सकता हूं। उसकी अनेक कहानियां पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी है। मेरी तो एक भी कहानी अभी तक प्रकाशित नहीं हुई है। मेरी लिखी कहानी जब भी मैं रमेश को दिखाता, वह कहता- ‘दोस्त, तुम बेकार कागज खराब करते हो। यदि कुछ लिखना ही है तो ऐसा लिख जो छपने लायक हो। भाषा साधारण होनी चाहिए। कहानी को कथ्य में उलझने मत दे। मुझे देख घड़ाघड़ छप रहा हूं। मेरा नाम देखते ही संपादक छाप देता है। और अपने उपसंपादक को कहता होगा- यह रमेश जी की कहानी आ गई है, इसी अंक में लगा दो। जगह नहीं है तो कोई कहानी निकाल दो, उसे अगले अंक के लिए विचारार्थ छोड़ सकते हैं। और एक तुम हो जो अभी अकटे हुए हो....।
कुछ दिनों के बाद संयोग यह बना कि मैंने मेरी कहानी रमेश को बिना दिखाए एक प्रतिष्ठित कहानी प्रतियोगिता में भेज दी। चमत्कार यह कि मैं प्रथम घोषित हुआ और बाद में जब रमेश से यह खुशी साझा करने गया तो पता चला उसने भी कहानी भेजी थी। मैं विचार कर रहा था कि पुरस्कार तो रमेश को मिलना चाहिए था मुझे कैसे मिल गया।
रमेश का स्वर बदलता गया। वह कह रहा था- ‘कहानी का असली गुण उसकी पठनीयता है। तुम्हारी भाषा में गति है और कथ्य एकदम सरल सहज कि पठनीयता देखते ही बनती है।
मैंने मेरे कथा-गुरु को गौर से देखा। पुरस्कार से पहले और बाद की प्रतिक्रियाओं की तुलना करते हुए मेरे चेहरे पर मुस्कान खिल उठी।
००००

छोटे और बड़े /  डॉ. नीरज दइया

मेरे दो दोस्त घर आए। मैंने बड़े लड़के को बाजार भेजा- कुछ नाश्ता ले आएगा। वह मिठाई और नमकीन लेकर आया। चाय-नाश्ता मेरे दोस्तों ने किया। हमारी बातचीत हुई और वे थोड़ी देर बाद चले गए। उनके जाने के बाद मेरा छोटा लकड़ा कमरे में आया।
- ‘पापा! ये आपके दोस्तों ने इतनी मिठाई छोड़ क्यों दी है?’ लड़के की नजरों के सामने दो प्लेटें थी।  
  - ‘राजा बेटा! देख मेरे समने देख, जब हम बड़े लोग नाश्ता करते हैं तो पूरी प्लेट में रखी चीजे चट नहीं करते। यह ऐटीकेट होता है। खाने और नाश्ते मे कुछ कुछ छोड़ना हमारा नियम है। तुम तो अभी छोटे हो और प्लेट खा कर पूरी सफाई कर देते हो, पर बेटा बड़े ऐसा नहीं करते हैं। जब तुम बड़े हो जाओगे तो इसे समझ जाओगे।’ मैंने देखा- लड़का प्लेट में बची हुई आधी अधूरी मिठाई और नमकीन पर हाथ साफ करने में व्यस्त था।    
मैं बोलते-बोलते अब मौन हो गया तो उसका ध्यान मुझ पर गया। वह मुझे भोली सी सूरत लिए मुझे कुछ अधिक ही गौर से देखने लगा। जैसे छोटे और बड़े का अर्थ समझने की जद्दोजहद कर रहा हो।
०००० 

 लड्डू / डॉ. नीरज दइया

आखिर इंतजार करते-करते वह बस आ गई जिससे मुझे यात्रा करनी थी। इसे संयोग कहेंगे कि बस भरी हुई थी। बस में चढते ही मैं सीट का जुगाड़ करने की फिराक में था, पर हर सीट पर किसी न किसी का कब्जा था। काफी सवारियां बस में खड़ी थी। मैंने विचार किया पीछे कोई एक-आध सीट खाली मिल सकती है। रास्ते में खड़ी सवारियों में आगे-पीछे धक्कम-पेल करते बड़ी मुश्किल से पीछे तक पहुंचा। मेरा अंदाजा ठीक था, एक सीट खाली दिखाई दी। मैंने पहले आओ, पहले पाओ के हिसाब से सीट पर कब्जा करने का जरा सा प्रयास किया ही था कि पास की सीट पर काबिज नवयुवक ने सीट पर रखे रुमाल की तरफ संकेत करते हुए कहा- “रोकी हुई है, कोई आ रहा है।”
            मैंने झेंपते हुए कहा- “अच्छा जी” और पास खड़ा रह गया। सोचा- नाहक हैरान हुआ। आगे भी खड़े होने के लिए पर्याप्त जगह थी। मैंने देखा- उस सीट के लिए एक-दो अन्य यात्री भी आए, किंतु पास बैठा आदमी पक्का पहरेदार था किसी को पल भर भी बैठने नहीं दिया। वह कहता रहा- “रोकी हुई है, कोई आ रहा है।” इसी बीच एक सुंदर नैन-नक्स वाली लड़की को देखा जो मुस्कान बिखेरते हुए उसी आदमी से पूछ रही थी- “यह सीट खाली है क्या?” लड़की की मुस्कान से वह आदमी जैसे खिल उठा, उसकी आंखों में चमक आ गई थी। मुस्कुराते हुए वह कह रहा था- “हां-हां, आइए....। खाली है।” यह सुनते ही वह लड़की पीछे पलट कर ऊंचे स्वर में बोली- “ताऊजी! यहां आ जाएं। सीट मिल गई है।” वह आदमी मुंह बाए आगे खड़ी सवारियों में उसके ताऊजी को पहचानने की कोशिश करने लगा।  
            मुझे लगा उस आदमी के सपने बिखर कर चकना चूर हो गए हैं और वह मुंह बाए ऐसे दिखाई दे रहा था जैसे उसके मुंह में कोई लड्डू आते-आते रह गया हो। उस लड़की के ताऊजी को देखते हुए उस आदमी का मुंह ना जाने क्यों खुला रह गया था और मुझ से निगाहें मिलते ही उसने सकपकाकर मुंह बंद कर लिया। मैं अब कहां चूकने वाल था, मैंने मन ही मन कहा- “ क्यों, मिल गया लड्डू?”
००० कथारंग-3 लघुकथा विशेषांक में प्रकाशित



Wednesday, March 16, 2022

कूड़ी कहाणी / डॉ. मौसुमी परिड़ा

 


उड़िया लघुकथा-

कूड़ी कहाणी / डॉ. मौसुमी परिड़ा

काळो मूंड़ो अर मैली आंख्यां सूं केंचुआ जिसा तांबाई केसां नै हटा’र सात साल री छोरी हाथ पसारियो- ‘बाबू जी! घणी भूख लाग्योड़ी है, पइसा दो नीं।’ दया दिखावता उण मिनख उण छोरी नै बुला’र उण रै हिसाब मुजब भर-पेट जीमा दी। जीम्यां पछै उण री कोझियै चैरै सूं पळपळाट करती हंसी छूटण लागगी। तद उण भलै मिनख कैयो- ‘म्हनै ई घणी भूख लाग्योड़ी है।’
छोरी ऊजळी हंसी हंसता कैयो- ‘दुकान मांय कित्ती चीजां है! समोसा, दहीबड़ा , कचोड़ियां , कित्ती कित्ती मिठाइयां भळै अठै तो दाळ-चावळ ई तैयार है। जियां जचै बियां खा सको, आपरै म्हां गरीबां जिसी कोई कमी तो कोनी। थे तो अमीर हो बाबूजी!’
बाबू जी दांत काढ़ता बोल्या- ‘ना. म्हारै पसंद री चीज अठै कठै?’
- ‘किसी चीज कोनी अठै?’
बाबू जी कैयो- ‘तू’

छोरी री आंख्यां फाटी री फाटी रैयगी। बा भोळपणै सूं बोली- ‘आदमखोर राखस हो कांई थे, जिका म्हनै खासो?’ बाबू जी काळो चश्मो काढ’र बोल्या- ‘म्हैं थन्नै जीमण जीमावणियो एक देवता हूं, दो मिंट मांय म्हारो उपकार ई भूलगी।’
छोरी कैयो- ‘भूलूं कियां आ बात। थे कैवो कै थांरै पसंद री चीज म्हैं हूं, पण म्हनै खासो तद तो म्हैं मर जासूं। कोई देवता कांई मिनखां रो भख लेवै है कांई? देवता तो भला हुया करै है।’
- ‘डर मती, चाल बठीनै उण घर मांय चालां।’
- ‘बठै तो अंधारधुप्प है।’
- ‘अंधारो ई तो थां जिसां रो रूखाळो हुया करै, थन्नै कोई बतायो कोनी कांई?’
छोरी आंसुड़ा ढळकावती कैयो- ‘दोय दिन सूं भूखै म्हारै मांदै बाप नै दवाई देवण मांय मोड़ो हुय जासी। उल्टियां करतो करतो बिछाड़ै पड़ियो है, सरधा कोनी उण री। जे बो मर जासी तो म्हैं साव एकली होय जासूं।’
- ‘कूड़ी कठैई री! कूड़ क्यूं बोलै?’ उण बाबू उण नै कैयो।
- ‘देख लेवो, दवा रै भेळै सावूदाणा ई लेय नै जाय रैयी हूं’ कैवतां बा आपरी डावड़ै हाथ री हथाळी खोल दी अर कमर सूं साबूदाणा रो पूड़ियो ई काढ़ता आपरै साच नै साम्हीं करियो। आं री हथाळी कित्ती छोटी सी’क हुवै- उण अमीर मिनख विचार करियो। उण री मजबूरी नै विचारता बोल्यो- ‘ठीक है, तू ऐ सब थारै बाबा नै देय’र आय जा। पाछी आवै तद तांई म्हैं थन्नै उडीकूं। छोरी तावळी तावळी पग लिया तो लारै सूं हेलो सुणियो- ‘पाछी आसी नीं। म्हैं थन्नै भर पेट जीमण जीमायो है। भळै ई जीमासूं। देख धोखो मत करजै। अठै पाछी बेगी आवजै।’
- ‘ठीख है, आ जासूं।’ कैवती उण छोरी रै जाणै पांख्यां लागगी अर उड़ती गई। इयां लखायो जाणै उण रै डील रै दो आंख्यां निकळगी अर बा चीलख रो भख हुवण सूं मुगत हुयगी।
अबै बा पाछी कोनी आवैला। बा ओळख लियो उण देवता मिनख रै मांयलै राखस नै। बो क्यूं उण नै उण सूनै घर मांय लेय जावणो चावतो हो। इसा मिनख जाणै तिरसाया हुवै- बै पाणी री जागा लोगां रो रगत पीया करै। मिनखां रो भख लेवणो एक राखस, जरा सी देर रै खेल मांय जाणै जूण रो सगळो इमरत चूस लेवै।
कहाणी मांय तो गाय आपरै कौल मुजब सिंघ पाखती पाछी आवै आपरै बाछा नै दूध पायां पछै पण सिंघ उण नै उण रै साच नै जाण’र बगस देवै! कारण कै फेर बाछा रो कांई हुसी? सिंघ रै मांय तो दया रो भाव हो।  ।
पण ओ सेरियो इण नै कोनी छोड़ैल, खुड़च-खुड़च’र खा जासी... हुय सकै आपरै बेलियां नै ई बुला लेवै। राखसां रो कांई भरोसो?
छोरी रै घरै पूगतां ई जीसा पूछ्यो- ‘इत्ती देर कठै कर दी। म्हनै घणी चिंता हुवै ही।’
छोरी कैयो- ‘सिंघ सूं बचणो सोरो हैं कांई जीसा? घणी दौरी उण रै चुंगल सूं बच’र आई हूं। अबै फटाफट कीं बणा देवूं, उण नै अरोग’र दवा खाओ। बेगा ई निरोगा हुय जासो।
जीसा सोचै हा कै बेटी सदा दांई आज ई कूड़ी कहाणी कैवण री भळै धार ली है। ठाह ई कोनी पड़ियो कै इत्ती बड़ी कियां अर कद हुयगी म्हारी छोटी सी गुड़की!!

अनुवाद : डॉ. नीरज दइया
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डॉ. नीरज दइया की प्रकाशित पुस्तकें :

हिंदी में-

कविता संग्रह : उचटी हुई नींद (2013), रक्त में घुली हुई भाषा (चयन और भाषांतरण- डॉ. मदन गोपाल लढ़ा) 2020
साक्षात्कर : सृजन-संवाद (2020)
व्यंग्य संग्रह : पंच काका के जेबी बच्चे (2017), टांय-टांय फिस्स (2017)
आलोचना पुस्तकें : बुलाकी शर्मा के सृजन-सरोकार (2017), मधु आचार्य ‘आशावादी’ के सृजन-सरोकार (2017), कागद की कविताई (2018), राजस्थानी साहित्य का समकाल (2020)
संपादित पुस्तकें : आधुनिक लघुकथाएं, राजस्थानी कहानी का वर्तमान, 101 राजस्थानी कहानियां, नन्द जी से हथाई (साक्षात्कार)
अनूदित पुस्तकें : मोहन आलोक का कविता संग्रह ग-गीत और मधु आचार्य ‘आशावादी’ का उपन्यास, रेत में नहाया है मन (राजस्थानी के 51 कवियों की चयनित कविताओं का अनुवाद)
शोध-ग्रंथ : निर्मल वर्मा के कथा साहित्य में आधुनिकता बोध
अंग्रेजी में : Language Fused In Blood (Dr. Neeraj Daiya) Translated by Rajni Chhabra 2018

राजस्थानी में-

कविता संग्रह : साख (1997), देसूंटो (2000), पाछो कुण आसी (2015)
आलोचना पुस्तकें : आलोचना रै आंगणै(2011) , बिना हासलपाई (2014), आंगळी-सीध (2020)
लघुकथा संग्रह : भोर सूं आथण तांई (1989)
बालकथा संग्रह : जादू रो पेन (2012)
संपादित पुस्तकें : मंडाण (51 युवा कवियों की कविताएं), मोहन आलोक री कहाणियां, कन्हैयालाल भाटी री कहाणियां, देवकिशन राजपुरोहित री टाळवीं कहाणियां
अनूदित पुस्तकें : निर्मल वर्मा और ओम गोस्वामी के कहानी संग्रह ; भोलाभाई पटेल का यात्रा-वृतांत ; अमृता प्रीतम का कविता संग्रह ; नंदकिशोर आचार्य, सुधीर सक्सेना और संजीव कुमार की चयनित कविताओं का संचयन-अनुवाद और ‘सबद नाद’ (भारतीय भाषाओं की कविताओं का संग्रह)

नेगचार 48

नेगचार 48
संपादक - नीरज दइया

स्मृति में यह संचयन "नेगचार"

स्मृति में यह संचयन "नेगचार"
श्री सांवर दइया; 10 अक्टूबर,1948 - 30 जुलाई,1992

डॉ. नीरज दइया (1968)
© Dr. Neeraj Daiya. Powered by Blogger.

आंगळी-सीध

आलोचना रै आंगणै

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