Thursday, March 28, 2019

Monday, March 04, 2019

बुणगट अर भासा-विकास दीठ सूं राजस्थानी कहाणी / डॉ. नीरज दइया

    भासा मूरत अर अमूरत भावां-विचारां नैं अभिव्यक्त करै। मिनखाजूण नैं अरथवाण रो काम साहित्य भासा रै मारफत करै। बिना भासा रै कहानी का किणी पण रचना रो रचाव नीं करीज सकै। कहाणी-रचना रा दोय खास भेद मान सकां- एक बा रचना जिकी रचनाकार मांडै अर दूजी बा रचना जिण मांय रचनाकार तो बस निमित बणै। रचना ई जाणै खुद नैं खुद मांडै। आं दोनूं ढाळा सूं रचीजी कहाणियां री बात करां तो कहाणीकारां रा ई दोय भेद हुय सकां। एक बै कहाणीकार जिका कहाणियां तो मांडै पण बां नै ओ लखाव कोनी हुवै कै कहाणी मांय कांई फोर-फार करियां कांई फरक पड़ैला, कैय सकां कै कीं हाथां मांय कहाणी लिखण रो हुनर आय जावै। कहाणी रचण वाळा नैं केई बातां विचारणी पड़ै का कैवां कै विचारणी चाइजै।
    कहाणी मांय संवाद तो संवाद जूण रै अबोलोपण, मून, निरायंत, सूनवाड़ आद सगळी बातां नैं रचण खातर खिमतावान भासा री दरकार हुवै। मून नैं भासा ई है जिकी सबदां रै पाण कहाणी मांय रच सकै। भासा व्यक्त नैं तो व्यक्त करै ई करै, साथै अव्यक्त नैं ई व्यक्त करै। भासा री तकनीकी खासियतां माथै बात करण रो म्हारो मत्तो कोनी। अठै सार मांय कैवणो बस ओ है कै कहाणी री भासा नैं सगळा सूं बेसी आंचलिकता अर लोक प्रभावित करै। कहाणी किणी पण जूण रो एक चितराम है तो किणी चितराम नैं उण रो परिवेस जिण नैं आपां अंचल कैय सकां,  जिको घणै प्रामाणिक रूप मांय खुद री भासा, लोक-संस्कृति अर जीया-जूण रै जथारथ साथै प्रगट कर सकै।
    बुणगट अर भासा-विकास री दीठ सूं राजस्थानी कहाणी बाबत बात करता गीरबो हुवै कै आपां री श्रुति-परंपरा अर लोककथावां री अखूट हेमाणी लियोड़ी कहाणी आज घणी आगै बधगी अर तर-तर बधती जावै। इण सगळै काम री हाल कूंत करीजणी बाकी है। आलोचक कुंदन माली आलेख ‘कहाणी : बुणगट अर बुनियाद’ मांय लिख्यो- ‘कहाणी माथै बात-बंतळ के उण री कूंत सूं पैली इण चीज कानीं ध्यान देवणौ चावै कै न्यारा-न्यारा कहाणीकारां री कहाणियां री खासियतां एक सरीखी नीं व्हिया करै, क्यूं कै कहाणियां री बुणगट रा तत्त्वां में फेरफार के आंतरो होवणौ सै’ज सुभाविक व्है। कहाणी तत्त्वां में घटना, पात्रलेखन, परिवेस, संवाद, तणातणी के संघर्स, भेदू क्षण, केंद्रीय मुद्दो इत्याद रो समावेस व्है। ऐ तत्त्व एक सूं दूजी रचना में बदळ जावै के आं में घट-बध व्है सकै।’ (गद्य-विमर्श : रचना तत्त्व अर सैद्धातिकी, संस्करण- 2006, पेज- 37)
    आपां अठै सीधी-सट्ट आ मान लेवां कै कहाणी बुणगट पेटै न्यारा-न्यारा विद्वानां कीं असूल बताया है। जियां- कथ्य, पात्र अर चरित्र-चित्रण, संवाद, देसकाल अर वातावरण, भासा-सैली सूं किणी मकसद पेटै कहाणी रो जलम हुवै। पण आं तत्त्वां का सगळा असूल नैं जाण्या ई कोई चोखी कहाणी लिखीज ई जासी इण बात री गारंटी कोई कोनी लेवै। आधुनिक कहानी रो दीठाव एक पछै एक बो रचाव हुवै जिण मांय आगूंच कोई पण आदि-अंत तै-सुदा कोनी हुवै। कहाणी लिखणो किणी भाखर अर कीड़ी दांई हुवै कै भळै भळै जोस सूं होस रै साथै आपो सांभ्यां कदास मंजिल मिलै अर आ मंजिल इसी हुवै कै एकर मिल्या ई आप उण माथै थिर नीं रैय सको। ऊंडै पाणी अर छोळा बिचाळै कहाणी मांय सगळा सूं मोटी बात कहाणीकार री कोसीस हुवै, जिण रै पाण वो बंधीबधाई बुणगट अर भासा मांय नितनवो कीं जोड़तो रैवै। कहाणी बुणगट पेटै आलोचक नंद भारद्वाज रो मानणो वाजिब लखावै- “अठै तांई के नुंवी तकनीक रै लेखै बिंबां, प्रतीकां, रूपक-कथावां रै अमूरत विधान में ऊंडी सैंध, इण कथा-सिरजण री नुंवी प्रक्रिया रा वै मांयला तत्व अर तांता है, जिण माथै घणी चरचा कै विवेचण भलांई नीं करीजियौ व्है, पण कथा री मांयली बुणगट नै समझण अर आज री कदीमी कहाणी तांई पूगण में आ अंतरदीठ अर आफळ घणी जरूरी व्हेगी है। (तीन बीसी पार, पेज-21)
    राजस्थानी कहाणी रै खातै बीजी भासावां सूं जुदा केई बातां रैयी। जियां लोककथावां रै लूंठै संसार सूं राजस्थानी कहाणी जुड़ी हुवण रै कारण आपां देख सकां कै बगत परवाण लोककथावां रो रूप तो बदळतो गयो पण लोककथावां नैं आलोचना री आंख सूं देखण-परखण रो काम समाज कानी सूं हुयो कोनी। इण लारै खास अर लाजमी कारण ओ रैयो कै लोककथा री घड़त तो गांव-गांव मांय हुवती। लोककथावां तो लोक री हुवै, लोक खुदोखुद री आलोचना कियां करतो? इणी खातर लोककथावां मांय मरजी मुजब जबानी-खरच भासा अर बुणगट पेटै बरसां जोड़-बाकी चालती रैयी। इण जबानी जमा-खरच नैं बरसां पछै जद लिखित रूप ढाळण रो काम हुवण लाग्यो तद आं लोककथावां रो कीं रूप थिर हुवण लाग्यो।
    किणी पण विधा री बुणगट अर भासा-विकास नैं उण रो इतिहास अर परंपरा सदा परोख-अपरोख रूप सूं पोखण रो काम करै। भासा-विकास री बात करां तो गद्य-विकास मध्यकाल मांय जोरां माथै हो। ‘कुंवरसी सांखलो’, ‘अचळदास खींची री वचनिका’ अर ‘बात-बणाव’ रै अलावा बातां-ख्यातां आद रै सांतरै गद्य रा दाखला आपां नैं आंख्यां साम्हीं राखणा चाइजै। दूजी बात- राजस्थानी कहाणी-परंपरा रो ओ दुरभाग का बडभाग रैयो कै लोककथावां माथै जद बिज्जी धणियाप जमायो तद आलोचना रै निसाणै माथै लोककथावां रा तकनीकी पख नीं, फगत बिज्जी रैया।
    बरसां तांई राजस्थानी कहाणी एक बंधी-बधाई लीक माथै कीं सूत्रां नैं परोटती थकी चालती रैयी। कहाणी री आं जूनी लीकां का सूत्रां नैं आपां देख सकां- ‘रामजी भला दिन देवै। एक हो राजा अर एक ही राणी।’ इणी ढाळ कहाणी चाल पड़ी। सुखांत-दुखांत कहाणियां इणी तरज माथै अजेस ई लिखज रैयी है। फरक बस इत्तो है कै अब बो राजा राजा कोनी रैयो अर राणी ही जिकी रो राज गयो परो। इक्कीसवीं सदी री कहाणी मांय ई केई जूनी लीकां अजेस चालै- ‘कह रै चकवा बात। कटै रात। घरबीती कैवूं का परबीती। घरबीती तो सदा ई सुणां, आज परबीती सुणा।’ कहाणी सदा घरबीती का परबीती ई हुवै। तो कांई नवी कहाणी रै नांव माथै लोककथावां अर जूनी कहाणी रै आं सांचा मांय आपां फगत पासापोर करता रैया।
    किणी गणित रै सूत्र दांई कहाणी मांय इयां कोनी कै रिपियै मांय चार आना कथानक अर दो आना चरित्र-चित्रण सूं पार पड़ जासी। बुणगट-विकास खातर प्रयोग घणा जरूरी हुवै। कात्योड़ै नैं कांई तो कातणो, ओ सोच राखणियां कहाणीकारां ई टैम-टैम माथै कथ्य, पात्र, संवाद अर भासा-रूपां माथै केई प्रयोग करता रैया है। बरसां पछै राजस्थानी कहाणी मांय ओ देखण नैं मिल्यो कै फगत संवाद अर नाटकीयता सूं कहाणी रचीज सकै। सांवर दइया अर दूजै केई कहाणीकारां री संवाद-कहाणियां इण ओळी रै दाखलै पेटै देखी जाय सकै। कहाणी बुणगट मांय विधावां री सेळभेळ ई देखण मांय मिलै। कहाणी मांय दूजी-दूजी विधावां रा केई प्रयोग ई करीज्या। जातरा-संस्मरण अर कागद रै रूप कहाणियां नैं साम्हीं लावण री खेचळ कहाणीकारां करी। बुणगट माय व्यंग्य अर काव्यात्मकता रै पाण भासा रा नवा रंग-रूप ई आज री कहाणियां मांय मिलै।
    चार कोस आगै-लारै चाल्यां जद बोली बदळ जावै तो कहाणीकारां खातर ओ घणो अबखो काम हो कै भासा विकास नैं ध्यान मांय राखता थका एक मानक भासा री दिस आगै बधणो। केई आंचलिक कहाणियां राजस्थान रै न्यारै-न्यारै हलकां री महक सूं राजस्थानी कहाणी नैं उण री खुद री खासियतां साथै आगै बधावण रो काम करियो, तो केई कहाणियां मांय संप्रेषण री समस्या ई देखी जाय सकै। आपां जाणां कै कहाणी सूं पैली कविता रचीजी अर संस्कृत मांय तो आखै साहित्य नैं ‘काव्य’ कथैजै। काव्य रा दोय भेद- गद्य अर पद्य मानीजै। कवियां खातर गद्य नैं आचार्यां निकष मान्यो है। कैवण रो ओ अरथ है कै गद्य अर कहाणी लिखणो सोखो काम कोनी। कहाणी सांकेतिकता अर सूक्ष्मता भेळै पठनीयता री मांग करै। अठै ओ कैवणो ई वाजिब हुवैला कै राजस्थानी रा केई कहाणीकार संयोग सूं जिकी कहाणियां नैं विगसावै बै लोककथावां री बुणगट नैं ई परोट रैया है।  
    राजस्थानी भासा नैं राज री मान्यता नीं मिलण सूं आ पढाई-लिखाई री भासा नीं बण सकी। न्यारै-न्यारै हलका मांय सबदां अर भासा रा न्यारा न्यारा रूप-रंग लियोड़ी भासा पेटै ‘माणक’ जिसी पत्रिकावां खासा मेहतावू काम करियो। सबदकोस रै नांव माथै आपां गीरबो जरूर करां कै आपां पाखती सगळा सूं मोटो सबदकोस है पण मोरियो पगां नै देख’र रोवै जिसी हालत है। खुद कोस मांय सबदां रा रूप न्यारा-न्यारा है तो घणा ई सबद इसा है जिका कोस में ई कोनी। कहाणीकारां खातर बुणगट सूं बेसी अबखाई भासा-विकास री है जिकी उणा रै मनां मांयली कळझळ नैं खरोखरी सबदां सूं साम्हीं नीं राख सकै। कोई बात लोककथावां में जिण ढाळै पूरी बता सकता हा बा कहाणी मांय पूरी बतावणी कोनी हुवै। असल मांय कहाणी मांय कांई लिखणो अर कांई छोड़णो है इण री समझदारी जरूरी हुवै। बरस 1975 मांय छप्यै कहाणी संग्रै ‘असवाड़ै-पसवाड़ै’ री पैली कहाणी ‘पैरवी’ री पैलड़ी ओळ्यां ई आ बात पुरजोर तरीकै सूं कैवै- ‘‘कांई ओ जरूरी है कै म्हैं थानै पूरी कहाणी सुणावूं? बात री एक एक परत उघाड़ूं? कद कांई हुयो, कियां अर कठै हुयो, स्सौ की बतावूं?” असल मांय कहाणी मांय स्सौ कीं बतावण री दरकार कोनी हुवै। कहाणी री बुणगट मांय जित्तो कीं कहाणीकार बतावै उण सूं बेसी बिचाळै-बिचाळै का सेवट मांय लुकाय’र एक कानी हुय जावै। 
    राजस्थानी कहाणी रा आगीवाण शिवचंद भरतिया मानीजै। वां री ‘विश्रांत प्रवासी’ पैली कहाणी मानीजै पण इण दिस मुरलीधर व्यास ‘राजस्थानी’ अर नानूराम संस्कर्ता री कहाणियां नैं देखी जावणी चाइजै। मुरलीधर व्यास ‘राजस्थानी’ री कहाणी ‘भाठौ’ री कीं ओळ्यां दाखलै रूप- ‘सड़दी री रात। छिरमिर छांट्यां पड़ै। घर रो बारणौ घड़ी-घड़ी खुलै-ढकीजै। एक तरै री घाळमेळ सी लाग रैयी। लुगायां री घुस-पुस रै बीच रैय-रैय’र ‘हाय मरी।’ ‘ओय मरी री।’ दरद भरी आवाज सुणीजै।’ अठै बारणौ घड़ी-घड़ी खुलै-ढकीजै। हिंदी फिल्मां री हर करावै अर ‘हाय मरी।’ ‘ओय मरी री।’ दरद भरी आवाज प्रेमचंद री कहाणी कफन नैं चेतै करावै।
    बात इत्ती सी है कै जिकी बात कोई एक समझ जावै उण नै दूजां मिनख क्यूं नीं समझै? मदन सैनी री कहाणी ‘फुरसत’ रै हवालै कैवां तो- ‘बासठ बरस रा मघजी अजेस आ नीं समझ सक्या कै जिकी बात नै वै समझै, उण नै बीजा मिनख क्यूं नीं समझै? नीं समझै तो ना समझौ। वांरो किसो ऊत नांव जावै? पण फेर ई आ बात समझण री तो है ई।’ ओ समझणो नीं समझणो ई आधुनिक कहाणी री बुणगट मांय बस्योड़ो है। आधुनिक काल मांय कहाणी ‘कह रे चकवा बात, कै कटै रात’ माथै ई अटक जावतीं तो विकास निजर नीं आवतो। एक बो बगत हो जद रात अर बात रो आदू मेळ हो। डॉ. अर्जुनदेव चारण कहाणी परंपरा मांय इणी बात नैं अरथावता लिख्यो कै जूनै बगत कहाणी मांय जिको रात अर अंधारै रो मेळ हो, बो आधुनिक काल मांय कहाणी रै पात्रां मांय पूगग्यो। नवी कहाणी मिनखाजूण रै मनां मांयलै अंधारै नैं अरथावण पेटै लिखी जावै। इण अरथावण मांय कोई बंध्यो-बधायो फारमूलो कोनी चालै।
    अन्नाराम सुदामा री कहाणी ‘गळत इलाज’ इणी नांव सूं छप्यै बरस 1984 रै संग्रै मांय साम्हीं आवै, उण पछै आ सागण कहाणी री-ड्राफ्ट रूप ‘मनचींती’ नांव सूं ‘ओळमो’ बरस 2001 मांय प्रकाशित हुवै। लगैटगै पंद्रा बरसां पछै बुणगट अर भासा री दीठ सूं एक ओळी रो अणूतो विस्तार कहाणीकार कर उण नै लंबी कहाणी बणा देवै। कहाणीकार घणै रस रै चक्कार मांय पाछो उण लोककथावां री दुनिया मांय कहाणी नै पूगा देवै जठै बात नै मठार मठार कैवणो उण रो गुण मानीजै। हास्य अर मनोरंजन ठीक बात है पण आधुनिक कहाणी री दीठ सूं मनचींती कमजोर कहाणी कैयी जावैला। इण सूं जुदा नृसिंह राजपुरोहित री कहाणी रो दाखलो देख सकां। ‘अधूरा सुपना’ (1992) संग्रै मांय एक कहाणी ‘अफसरी’ है। इण रो री-ड्राफ्ट ‘जागती जोत’ रै जुलाई 1993 अंक मांय प्रकाशित हुयो जिण मांय बां कहाणी रै गैर जरूरी विस्तार नै कम कर दियो। पंद्रा-सतरा ओळियां मांय जिकी बात कथी बा फगत च्यार-पांच ओळी मांय कैय दी। इण नैं आपां भासा विकास रो दाखलो मान सकां अर विगतवार दाखला खातर पोथी- आलोचना रै आंगणै देखी जाय सकै।    
    बात परंपरा रै मोह सूं मुगत कहाणियां री बात करां तो कहाणी ‘अखबार पानै री चोरी’ मांय छोटै सै घटना-प्रसंग परवांण कहाणीकार निशांत आपां नैं आज रै जिण सांच सूं ओळख करावै बा काळजौ हिलावै जैड़ी है। बस जातरा मांय अखबार पानै री चोरी करण सूं सुरू हुई आ जातरा कहाणीकार देस-सुधार री बात सूं जोड़ै। इण कहाणी मांय आपरी ठीमर भासा रै पाण पाठक जिकी जातरा करै, बा बरसां लगा उण नैं चेतै रैवै जैड़ी हुय जावै। राजस्थानी मांय केई नामी-गिरामी तो केई दूर बैठा कहाणीकार है जिका री कहाणियां बात परंपरा सूं जुड़्योड़ी लखावै, बठै ई आधुनिक काहाणी परंपरा रै मरम नै पिछाणती केई कहाणियां तो भासा अर बुणगट री दीठ सूं इक्कीस लखावै।
    कहाणी मांय संवेदना री बुणगट सारू कहाणीकार कथा-भासा पेटै रचाव रा नूंवा रंग रचै। ठेठ देसज सबदां का किणी ओळी रै सांवठै प्रयोग सूं बो कहाणी-परंपरा मांय घणी आस उपजावै। आंचलिक सबदां नैं रचनाकार आपरै आखै प्रांत अर देस मांय चावा कर सकै। दाखलै रूप एक सबद री चरचा करां- वर्ण-संकर खातर भरत ओळा ‘झट-फाउल’ सबद आपरै उपन्यास मांय बरतै अर वो भासा री आखी गणित नै दूर बैठा’र लोक चावो हुय जावै। कहाणी भासा मांय सबद अर ओळी रचती बगत कहाणीकार नै उण री आखै प्रदेस मांय संप्रेषण री बात ध्यान मांय राखणी चाइजै।
    राजस्थानी कहानी नैं बुणगट अर भासा-विकास री दीठ सूं आधुनिक कहाणी-जातरा नैं पंद्रा-पंद्रा बरसां रा च्यार अध्याय मांय देख-परख सकां- (1.) बरस 1955 सूं 1970     (2.) बरस 1971 सूं 1985  (3.) बरस 1986 सूं 2000 (4.) बरस 2000 सूं आज तांई
    कहाणी बुणगट पेटै 1972 मांय ‘तगादो’ अर 1975 मांय ‘असवाड़ै-पसावड़ै’ संग्रै रो घणो महत्त्व है। इणी ढाळै बरस 1986 मांय ‘धड़ंद’ अर बरस 2000 मांय ‘हाडाखोड़ी’ री कहाणियां बुणगट अर भासा-विकास री साख भरै। डॉ. अर्जुनदेव चारण मुजब- ‘आधुनिक राजस्थानी कहाणी री सरुआत हूंस बधावै जैड़ी कोनी रैयी। सन्‍ 1935 सूं 1965 तांई रो ओ काल कहाणी री लीक तो मांडतो दीसै पण वो कहानी विधा बाबत भरोसो उपजावै जैड़ी दीठ नीं देय सक्यो।’ ( राजस्थानी कहाणी : परंपरा विकास, पेज-34)
    परंपरावादी, सुधारवादी अर आदर्सवाद नैं बुणगट अर भासा सूं पोखण रो काम हुयो पण अंतस री खरी छिब बगत परवाण नृसिंह राजपुरोहित, श्रीलाल नथमल जोशी, अन्नाराम सुदामा अर विजयदान देथा री कहाणियां सूं साम्हीं आवण लागै। भारतीय अर खास कर नैं हिंदी-बंगाली भासावां रो असर ई राजस्थानी कहाणी माथै देख्यो जाय सकै। राजस्थानी कहाणी जातरा मांय जे किणी एक संग्रै रो नांव लेवणो पड़ै कै जिण मांय सगळी कहाणियां न्यारी न्यारी बुणगट अर भासा-विकास नै पोखण खातर खास सावचेती सूं राखीजी तो बो 1975 मांय छ्प्यो संग्रै ‘असवाड़ै-पसवाड़ै’ है जिण मांय आठूं कहाणियां री बुणगट जुदा-जुदा है। स्यात्‍ इणी खातर आलोचक कवि प्रो. अर्जुनदेव चारण लिख्यो- ‘सांवर स्यात्‍ राजस्थानी रो पैलो कहाणीकार है जिको कहाणी मांय मिनख रै मन नै समझण सारू आफळै। सांवर दइया खुद कहाणियां मांय कम सूं कम बोलै। वरणन रै खिलाफ ऊभौ औ रचनाकार राजस्थानी कहानी नै नुंवी सैली अर एक नुंवी जमीन दी। (राजस्थानी कहाणी : परंपरा विकास, पेज-117)
    राजस्थानी कहाणीकार श्याम जांगिड़ लिख्यो- ‘राजस्थानी कहाणी विधा नै चुकता रूप सूं लोककथा सूं मुगत करण रौ श्रेय सांवर दइया नै ई जावै। अतः 1970 सूं 1990 रो काल राजस्थानी कहाणी रो ‘सांवर दइया काल’ मानीजै। सांवर दइया रो ओ काल फगत कहाणी रै लेखै ई नीं, समचै राजस्थानी साहित तांई भी सुनैरौकाल कैयो जाय सकै।’ (राजस्थानी री आधुनिक कहाणियां, पेज-14) आधुनिक कहाणी पेटै सांवर दइया री जिकी दीठ ही उण रो परखत परमाण ‘उकरास’ कहानी संकलन नैं मान सकां।
    चावा कहाणीकार यादवेन्द्र शर्मा ‘चंद्र’ री कहाणियां मांय बुणगट अर भासा पेटै लारली कहाणियां सूं फरक साफ निजर आवै। अठै ओ पण उल्लेखजोग है कै ग्रामीण अर शहरी जीवण सूं जुड़्या कहाणीकारां री भासा मांय फरक साफ-साफ देख्यो जाय सकै। आज राजस्थान रो रूप बदळग्यो है अर कैवां लगोलग बदळ रैयो है। कहाणियां मांय आखै राजस्थान रै न्यारै न्यारै हलका मांय रैवणियां री जूझ साथै वां रै हरख-उछाव-हार-जीत अर प्रीत रा चितराम देख सकां। मिनखाजूण रै दुख-दरद अर हूंस नैं किणी एक बुणगट का लीक माथै चालती भासा रै पाण सजीवण नीं करिया जाय सकै। ओ ई कारण है कै राजस्थानी कहाणी रै दीठाव मांय न्यारै-न्यारै कहाणीकार री कहाणियां रळ-मिल’र एक पूरो दीठाव रचै। गीरबै री बात आ कै आजादी पछै जाया जलमिया कहाणीकार आपरी लोक-भासा नैं कहाणी मांय प्रयोग करता थका कहाणी मांय नवी भासा नैं थापित करण री खेचळ करी। नृसिंहराज पुरोहित, रामेश्वर दयाल श्रीमाली, करणीदान बारहठ, सांवर दइया, भ्रंवरलाल भ्रमर सूं जिकी जातरा चालू हुवै बा डॉ. भरत ओळा, डॉ. मदन गोपाल लढ़ा तांई पूगता-पूगता लखावै कै आधुनिक कहाणी रै विगसाव मांय शिक्षा-विभाग सूं जुड़्यै लेखकां रो काम कीं बेसी है। अठै मीठेश निर्मोही, देवकिशन राजपुरोहित, कमला कमलेश, दिनेश पांचाल, रामपाळसिंह राजपुरोहित आद केई उल्लेखजोग नांव लिया जाय सकै।
    राजस्थानी रा दस उल्लेखजोग संग्रै लेय कूंत रो काम बुणगट अर भासा-विकास दीठ सूं राजस्थानी कहानी का वर्तमान मांय हुयो है। किणी एक कहाणी संग्रै माथै दस-दस लेखकां रा विचारां री बानगी रो ओ पैलो काम मानीज सकै। इणी ढाळै साहित्य अकादेमी सूं पुरस्कृत कहाणी संग्रै- चश्मदीठ गवाह (मूलचंद ‘प्राणेश’), एक दुनिया म्हारी (सांवर दइया), जमारो (यादवेन्द्र शर्मा ‘चंद्र’), अधूरा सुपना (नृसिंह राजपुरोहित), माटी री महक (करणीदान बारहठ), जीव री जात (भरत ओळा), किस्तूरी मिरग (चेतन स्वामी), पगरवा (दिनेश पंचाल), माई अैड़ा पूत जण (रतन जांगिड़), सुन्‍दर नैण सुधा (रामपाल सिंह राजपुरोहित) अर मरदजात अर दूजी कहाणियां (बुलाकी शर्मा) नै लेय’र बुणगट अर भासा-विकास दीठ री बात करां तो बात कीं आगै बध सकैला। अठै आं अर दूजी पोथ्यां सूं केई दाखला दिया जा सकै पण बगत री सींव रै कारण कीं फुटकर बातां करां-
कहाणी बुणगट पेटै हरावळ पीढी मांय श्रीलाल नथमल जोशी री घणी कहाणियां उल्लेखजोग कैयी जावैला। जोशी जी कम सबदां मांय कहाणियां मांय आपरी बात असरदार ढंग सूं राखी। राजस्थानी भासा री आपरी अपणायत अर लूंठो हेत कहाणियां मांय ई प्रगट हुयो। भंवरलाल भ्रमर री कहाणियां मांय छोटी छोटी ओळ्यां मांय मनगत रो खुलासो देख सकां तो मनोहर सिंह राठौड़ री भासा मांय सांस्कृतिक रंग मनमोवना लखावै। संस्कारां अर मिनख मांयलै बदलाव नैं अंगेजती मीठेश निर्मोही री कहाणियां री भासा मांय रीस रो उफाण जोर माथै दीसै। देवकिशन राजपुरोहित री कहाणियां रा पात्र लोक रै संस्कार अर मरजादावां मांय रैवै तो बुलाकी शर्मा री घणखरी कहाणियां मांय दफ्तर री रस-कस बायरी बातां मिलै। अरविंद सिंह आशिया रा पात्र जीवण रै सार-असार नैं किणी बुद्धिजीवी दांई संकेतां मांय बखाणै। चेतन स्वामी जनजीवन अर परिवेस नै प्रगतीशील तेवर सूं साम्हीं राखै। जीया जूण रा दंद-फंद अर मांयला आंटां नै ओम प्रकाश भाटिया रा पात्र गंभीरता सूं लेवै। प्रमोद कुमार शर्मा रै संग्रै ‘सावळ/कावळ’ सूं ‘राम जाणै’ तांई री कहाणियां मांय चित्रात्मकता अर लोकचित रो रूप राजस्थानी कहाणी नै आगै बधावै। नंद भारद्वाज री कहाणियां रा पात्र जातरा करता करता जीवण रा केई भेद समझावै। पूर्ण शर्मा पूरण अर उमेद धानिया री कहाणियां मांय भासा पख री मजबूती साथै जथारथ नै दोय ढाळा सूं साम्हीं लावण रो जुदा जुदा तरीको देखण नैं मिलै।
    भरत ओळा री काहणियां बुणगट अर भासा रै सीगै केई प्रयोग साम्हीं लावै। भूत विषय नै लेय’र केई कहाणियां अर लंबी कहाणियां रै मारफत भरत री कहाणी बुणगट पेटै सवचेती देख सकां। रामेश्वर गोदारा ई केई कथा-प्रयोगां रै कारणै उम्मीद जगावै। मधु आचार्य ‘आशावादी’ री कहाणियां मांय संवाद अर पात्रां री निरवाळी दुनिया सूं आधुनिक कहानी आगै बधती लखावै। मनोज स्वामी ई पत्रकारिता सूं जुड़ियोड़ा कहाणीकार है। आप री कहाणियां मांय खबरां रै लारै छूटती संवेदनावां रा गैरा रंग देख सकां। सहज सरल लोक भासा रै पाण आपरै क्षेत्र अर समाज नै साम्हीं लावण रो काम दिनेश पांचाल अर कमला कमलेश री कहाणियां करै। नवनीत पाण्डे री कीं लंबी कहाणियां मांय युवावां री मनोभावनावां रो सांतरो चित्रण मिलै। माधव नागदा, श्याम जांगिड़, जितेंद्र निर्मोही, छगन लाल व्यास, कमल रंगा, राजेन्द्र जोशी, हरीश बी. शर्मा, रीना मेनारिया आद केई कहाणीकार आधुनिक कहाणी बुणगट रै विकास पेटै काम कर रैया है। आं री भासा समाज अर लोक जीवण रै साव नजीक पूग’र उण बगत रै छोटै सूं छोटै खिण नै सबदां सूं प्रगट करण रा जतन कर रैयी है।
डॉ.नीरज दइया




साहित्य अकादमी, नई दिल्ली की दो दिवसीय संगोष्ठी (25-26 फरवरी 19)

 

पुस्तक समीक्षा / डॉ. नीरज दइया

परनिंदा सम रस कहुं नाहिं (व्यंग्य-संग्रह) आत्माराम भाटी, प्रकाशक- सर्जना, शिवबाड़ी रोड, बीकानेर
संस्करण : 2018, पृष्ठ : 96, मूल्य : 160/-


सहज पठनीय रचनाओं का संग्रह : परनिंदा सम रस कहुं नाहिं
   
    जब किसी विशेष एक क्षेत्र में कोई लेखक लेखन करता है तो उसकी पहचान उससे चिपक जाती है। ऐसी ही पहचान आत्माराम भाटी से खेल-लेखक के रूप में चिपकी हुई है। आपके प्रथम व्यंग्य-संग्रह ‘परनिंदा सम रस कहुं नाहिं’  में सर्वत्र उन्हें खेल-लेखक के रूप में हम देख सकते हैं। खेल में जिस प्रकार खेल-भावना का महत्त्व होता है, वैसे ही व्यंग्य लिखते हुए भाटी एक भावना लिए बिना किसी परवाह के इस क्षेत्र में आगे बढ़ते रहे हैं। वे अपने इस सफर को संग्रह के आरंभ में ‘अपनी बात’ में लिखते हैं कि कैसे उन्होंने ‘दैनिक युगपक्ष’ के माध्यम से व्यंग्य की दुनिया में प्रवेश किया और उनकी निरंतरता का प्रमाण यह संग्रह है।
    पुस्तक के शीर्षक ‘परनिंदा सम रस कहुं नाहिं’ से स्पष्ट है कि जो जैसा है उसे अलग दृष्टिकोण से देखने-दिखाने का कार्य व्यंग्य में होता है। व्यंग्य को मूलतः सामाजिक आलोचना की विधा भी कहा जाता है और अकसर निंदा और खासकर परनिंदा को आलोचना का पर्याय मान लेते है। निंदा और परनिंदा पर अनेक व्यंग्यकारों ने लिखा है और भविष्य में भी इस विषय पर लिखा जाएगा। ऐसे में किसी ऐसे विषय पर लिखते हुए अपने पूर्ववर्ती व्यंग्यकारों के रचनात्मक अवदान से परिचित होना आवश्यक है। आत्माराम भाटी की ऐसी और अन्य सभी रचनाओं का पोषण उनकी सहज कथात्मकता और वर्तालाप के द्वारा निर्मित करने का प्रयास है। कहना होगा कि उनके व्यंग्य स्थानीय भाषा से पोषित शब्दावली और जन-जीवन की सांस्कृतिक दृश्यावली के कारण पाठकों को प्रभावित करने वाले हैं। उनके यहां संबंधों का गणित अपनी संवादात्मकता के विस्तार से अनेक समसामयिक सूचनाओं को संजोकर चलता है। उनकी इन रचनाओं में  अनेकानेक टेढे-मेढ़े मार्गों से अंततः मंजिल तक पहुंचना एक यादगार यात्रा का आस्वाद देने वाला होता है। 
     आत्माराम भाटी की इन रचनाओं के केंद्र में उनका अपना घर-परिवार-मौहल्ला और अपने लोगों के साथ समकालीन व्यवस्था-पक्ष में व्याप्त अव्यवस्थाओं का चित्रण अधिक हैं। वे जिस लेखक-समाज में रहते हैं वहीं की अव्यवस्थाएं और अतिवादिताओं को काफी रचनाओं का उत्स कहा जा सकता है। संग्रह की प्रथम रचना- ‘मुझे पुरस्कार नहीं चाहिये’ में पुस्कार के साथ ‘चाहिए’ हमारा ध्यान खींचता है। वर्तमान समय में साहित्य और पुरस्कारों के पतन पर यहां साहित्यकारों की पोल खोलने वाला तमाशा है। लेखक की चिंता है कि आज पुरस्कारों और सम्मानों में भी व्यापर और फायदे जैसी घ्रणित प्रवृत्तियां पनप गई हैं।
    जिस सहज-सरल ग्राही भाषा से खेल लेखन में लेखक आत्माराम जी को सफलता मिली, उसी के बल पर वे यहां पाठकों को अभिधा में सहज पठनीय रचनाएं देते हैं। हमें आशा करनी चाहिए कि वे अपने आगामी व्यंग्य-संग्रह में व्यंग्य लेखन में सर्वाधिक उल्लेखनीय मानी जानी वाली व्यंजना शब्द-शक्ति के बेहतर प्रयोगों के साथ सामने आएंगे। यहां भाषा के स्तर पर उन्होंने कुछ प्रयोग भी हैं। ‘जीएसटी यानी गेल सफी टाट’ आदि रचनाओं में हिंदी के सहज प्रवाह में मातृभाषा की महक और स्थानीयता उल्लेखनीय है। इससे आत्माराम जी की भाष आत्मीय हुई है तो बिना उद्धरण चिह्नों के संवाद प्रकाशित किए गए हैं। संवाद लेखक के वाचन में किसी रचना के मूर्त होते हैं किंतु पाठ के स्तर पर यहां यह संभव करने का संभवतः पहला प्रयास हैं। राजस्थानी के बल पर संवाद लोक से जुड़ते हुए पाठकों को बांधने वाले हैं वहीं पर्याप्त विराम-चिह्नों का अभाव अखरता है। प्रकाशकों में सर्जना, बीकानेर का विशेष महत्त्व रहा है और उनके यहां से यह संग्रह प्रकाशित हुआ है तो यह भाषिक कला-पक्ष ध्यानाकर्षण का विषय है।
    विविध संदर्भों और घटनाओं पर केंद्रित संग्रह में तीस रचनाएं हैं। सभी रचनाओं में लेखक आत्माराम भाटी की सहजता-सरलता और सरसता निसंदेह रेखांकित करने योग्य इसलिए कही जाएगी कि यहां व्यंग्य की धार तो है पर उसमें निर्ममता के स्थान पर गहरी संवेदनाएं-मासूमियत भी है। पुस्तक के फ्लैप पर डॉ. लालित्य ललित, डॉ. उमाकांत गुप्त, बुलाकी शर्मा, डॉ. नीरज दइया और संजय पुरोहित की टिप्पणियों के अतिरिक्त अशोक चक्रधर की भूमिका व्यंग्यकार की विशेषाताओं पर प्रकाश डालते हुए उनसे उपजी आशाओं का खुलासा है। मैं आशा करता हूं कि खेल लेखक के रूप में विख्यात आत्माराम भाटी व्यंग्य लेखक के रूप में भी पर्याप्त विख्यात होंगे।

डॉ. नीरज दइया की प्रकाशित पुस्तकें :

हिंदी में-

कविता संग्रह : उचटी हुई नींद (2013), रक्त में घुली हुई भाषा (चयन और भाषांतरण- डॉ. मदन गोपाल लढ़ा) 2020
साक्षात्कर : सृजन-संवाद (2020)
व्यंग्य संग्रह : पंच काका के जेबी बच्चे (2017), टांय-टांय फिस्स (2017)
आलोचना पुस्तकें : बुलाकी शर्मा के सृजन-सरोकार (2017), मधु आचार्य ‘आशावादी’ के सृजन-सरोकार (2017), कागद की कविताई (2018), राजस्थानी साहित्य का समकाल (2020)
संपादित पुस्तकें : आधुनिक लघुकथाएं, राजस्थानी कहानी का वर्तमान, 101 राजस्थानी कहानियां, नन्द जी से हथाई (साक्षात्कार)
अनूदित पुस्तकें : मोहन आलोक का कविता संग्रह ग-गीत और मधु आचार्य ‘आशावादी’ का उपन्यास, रेत में नहाया है मन (राजस्थानी के 51 कवियों की चयनित कविताओं का अनुवाद)
शोध-ग्रंथ : निर्मल वर्मा के कथा साहित्य में आधुनिकता बोध
अंग्रेजी में : Language Fused In Blood (Dr. Neeraj Daiya) Translated by Rajni Chhabra 2018

राजस्थानी में-

कविता संग्रह : साख (1997), देसूंटो (2000), पाछो कुण आसी (2015)
आलोचना पुस्तकें : आलोचना रै आंगणै(2011) , बिना हासलपाई (2014), आंगळी-सीध (2020)
लघुकथा संग्रह : भोर सूं आथण तांई (1989)
बालकथा संग्रह : जादू रो पेन (2012)
संपादित पुस्तकें : मंडाण (51 युवा कवियों की कविताएं), मोहन आलोक री कहाणियां, कन्हैयालाल भाटी री कहाणियां, देवकिशन राजपुरोहित री टाळवीं कहाणियां
अनूदित पुस्तकें : निर्मल वर्मा और ओम गोस्वामी के कहानी संग्रह ; भोलाभाई पटेल का यात्रा-वृतांत ; अमृता प्रीतम का कविता संग्रह ; नंदकिशोर आचार्य, सुधीर सक्सेना और संजीव कुमार की चयनित कविताओं का संचयन-अनुवाद और ‘सबद नाद’ (भारतीय भाषाओं की कविताओं का संग्रह)

नेगचार 48

नेगचार 48
संपादक - नीरज दइया

स्मृति में यह संचयन "नेगचार"

स्मृति में यह संचयन "नेगचार"
श्री सांवर दइया; 10 अक्टूबर,1948 - 30 जुलाई,1992

डॉ. नीरज दइया (1968)
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आंगळी-सीध

आलोचना रै आंगणै

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