Tuesday, June 30, 2020

जूनै दिनां रा चितराम / डॉ. नीरज दइया

राजस्थानी भाषा मांय कविता, कहाणी अर उपन्यास विधावां पेटै खासा काम हुयो, पण बीजी-बीजी विधावां मांय हाल काम करण री दरकार मान सकां अर जे आपां बात संभागवार विचारां तो हाड़ौती संभाग मांय पद्य करता गद्य री न्यारी-न्यारी विधावां मांय रचाव री हाल घणी जरूर दीसै। इणी जरूरत नै अंगेजता ओळखीजता रचनाकार भाई हरिचरण अहरवाल ‘निर्दोष’ री आ पोथी ‘ठाह नीं कांई दिन छा’ आपां साम्हीं मानो।
कवि हरिचरण अहरवाल राजस्थानी, हिंदी, संस्कृत अर अंग्रेजी रा जाणीकार विद्वान लिखारा है। इण पोथी मांय हाड़ौती अंचल रै लोक-जीवण रा केई-केई बेजोड़ रंग उजागर हुवै। आ पोथी विधावां री सींव सूं बारै निकळ’र आपरै बांचणियां नैं एक नूंवी जातरा करावै। लेखक आपरै नूंवै-जूनै संस्मरणां मांय आपरै बगत नैं चितारै। आ घणी मेहतावू बात मानीजै कै मिनखाजूण री केई-केई मनमोवणी बातां अर विचारां री इण लांबी विगत मांय अठै बदळतै बगत री छिब साम्हीं आवै।
लेखक जूनै दिनां नैं चितारतो कदैई किणी बातपोस दांई कहाणी कैवै तो कठैई सबदां रै मारफत आखो दीठाव राखतो जाणै किणी रेखाचितराम का निबंध री सिरजणा सूं मनमोवै। राजस्थानी लोककथावां मांय चकवो-चकवी घणा चावा। लोक रै उण जूनै रूप नैं इण पोथी मांय आधुनिकता रै ढंग-ढाळै कीं घरबीती अर परबीती नै चितरतां आज रै बगत अर आपां रै आसै-पासै री छिब उकेरै। पूरी पोथी मांय होळै-होळै आंख्यां मांय जियां नींद घुळै ठीक बियां ई हाड़ौती रो मीठास अंतस मांय घुळतो जावै। ओ सबदां रो जादू हुवै कै आपां लेखक भेळै एक पछै एक अनेक जातरा करता जावां।
हरिचरण अहरवाल रै सबदां मांय आपां नैं वां रो गुरु-रूप ई मिलै जिको बदळतै बगत बिचाळै संस्कारां री अंवेर करणी चावै। हरख री बात कै मिनखाजूण री जूनी बातां नैं लांठी हेमाणी मान’र अठै बगत री अंवेर हुवै। विगत री अंवेर मांय कूड-साच सेळभेळ हुवतो ई आपां देख सकां। बियां साच अर कूड बिचाळै बस एक हळकी-सी सींव का कैवां रेख ई हुया करै। केई बातां नैं इण सींव सूं अठी-उठी करणो ई किणी जीयोड़ै बगत सूं सबदां रै मारफत हेमाणी री संभाळ हुवै।
कामना करूं कै आगै ई इण सिरजणा मांय भाई हरिचरण अहरवाल साव खरा अर साचा साबित हुवैला।
- डॉ. नीरज दइया

Sunday, June 21, 2020

Sunday, June 14, 2020

राजस्थानी कविता का विहंगम आकाश / डॉ. मदन गोपाल लढ़ा

’रेत में नहाया है मन’ वरिष्ठ कवि-आलोचक डॉ नीरज दइया द्वारा चयनित एवं अनूदित राजस्थानी के इक्यावन कवियों की चुनिंदा कविताओं का संग्रह है जो हिंदी के माध्यम से साहित्य जगत को राजस्थानी कविता के वस्तु-विन्यास से अवगत होने का स्वर्णिम अवसर प्रदान करता है।
भौगोलिक व सामाजिक रूप से राजस्थान की धरती विविधताओं से भरी हुई है। यहां एक और रेत के समंदर हिलोरे भरते हैं तो दूसरी तरफ नदियों व पहाड़ों की दृश्यावली मन मोह लेती हैं। एक बड़े भूभाग में अकाल जीवन का अभिन्न हिस्सा है तो कुछेक अंचल ऐसे भी हैं जो अपनी खनिज संपदा, उद्योग धंधों, पर्यटन व अन्य आर्थिक संसाधनों के बल पर बड़े-बड़े औद्योगिक नगरों की होड़ करते हैं। कहीं पशुपालन जीविका का एकमात्र आधार है तो कहीं कोचिंग सेंटर दुनिया भर के विद्यार्थियों को आकर्षित कर रहे हैं। धार्मिक दृष्टि से भी यहां अनेक पंथ-सम्प्रदायों के विश्व विख्यात स्थल हैं जहां संतों-भक्तों ने ज्ञान-साधना करके परम तत्व को जानने व आम लोगों के लिए सरल शब्दों में कहने का कार्य प्रेरक किया है। यहां का लोक साहित्य जगत विख्यात रहा है। राजस्थानी समाज ने अतीत में तलवारों और भालों की टकराहट को देखा है तो रावण हत्थे, इकतारे और मृदंग की कर्णप्रिय धुनों को भी सुना है। चित्रकला, मूर्तिकला, कठपुतली कला व लोकनाट्य के विविध रूप आज भी राजस्थानी समाज की स्मृतियों का हिस्सा है। राजस्थानी कविता ने सामंती जीवन के अत्याचारों के खिलाफ आवाज उठाई है तो अंग्रेजों के आतंक के खिलाफ भी यह कलम मुखरित रही है। दलित, स्त्री व अन्य तमाम जरूरी विषयों पर राजस्थानी कवियों की कलम ने खुलकर अपनी बात रखी है। गणेशी लाल व्यास, रेवंतदान चारण, कन्हैया लाल सेठिया, चंद्रसिंह बिरकाली, नानूराम संस्कर्ता, सत्य प्रकाश जोशी, नारायण सिंह भाटी, हरीश भादानी, किशोर कल्पनाकांत, सांवर दइया जैसे कवियों की रचनाएं राजस्थानी कविता यात्रा को एक अलग मुकाम देती है। उनकी परंपरा को आगे बढाने व विविध धाराओं में महत्वपूर्ण रचाव करने वाली तीन-तीन पीढियां एक साथ राजस्थानी कविता के आकाश में निरंतर रंग भर रही हैं। डॉ नीरज दइया ने इस संकलन के माध्यम से राजस्थानी कविता की एक भरी-पूरी झलक दिखलाने की सफल कोशिश की है जिसकी बहुत जरूरत महसूस की जा रही थी। संवैधानिक मान्यता के अभाव में एक हजार वर्षों से अधिक पुरानी और समृद्ध साहित्यिक विरासत वाली भाषा की काव्य यात्रा से हिंदी जगत अभी तक पूर्णतया परिचित नहीं है। हालांकि इससे पहले भी राजकीय संस्थानों द्वारा राजस्थानी कविताओं के हिंदी अनुवाद के संग्रह सामने आए हैं लेकिन निजी स्तर पर किसी प्रकाशक द्वारा यह अत्यंत गंभीर और महत्त्वपूर्ण काम मील का पत्थर माना जा सकता है।
’रेत में नहाया है मन’ संग्रह की कविताओं में राजस्थानी मिट्टी की सौंधी महक को सहजता से महसूस किया जा सकता है। ये कविताएं इस बात का प्रमाण है कि राजस्थानी कवि अपने समय और समाज की ज्वलंत चिंताओं के प्रति पूर्णतया सजग है। वक्त से कदमताल करते हुए राजस्थानी कवि अपनी कविता के माध्यम से जग जीवन के यथार्थ को पूरी ईमानदारी से उजागर कर रहे हैं। प्रकृति और मानव जीवन के सौंदर्य के साथ राजस्थानी कविता में श्रम के सौंदर्य को बड़ी सूक्ष्मता से अभिव्यक्त किया गया है, जो इस काव्य धारा को एक अलग पहचान देता है।
आलोच्य संग्रह में नारायण सिंह भाटी, सत्य प्रकाश जोशी और पारस अरोड़ा से लेकर मोहन आलोक, अर्जुन देव चारण, चंद्रप्रकाश देवल, वासु आचार्य, ओम पुरोहित कागद, आईदान सिंह भाटी, भगवती लाल व्यास, नंद भारद्वाज, शारदा कृष्ण एवं नई पीढ़ी के ओम नागर, जितेन्द्र कुमार सोनी, कुमार अजय, राजूराम बिजारणिया आदि एक साथ शामिल किए गए हैं। इन कविताओं में विषयगत विविधता है और शिल्पगत प्रयोग भी। ये कविताएं केवल जीयाजूण के विविध आयामों के वर्णन तक सीमित नहीं है बल्कि अपने समय व समाज की विसंगतियों व विद्रुपताओं को लेकर तीखे सवाल भी खड़े करती है। अंबिका दत्त की एक कविता को बानगी के रूप में लेकर हम राजस्थानी कविता की तासीर को समझने की कोशिश करते हैं- ‘‘धिक्कार है इस कठफोड़वा जिंदगी को/ पूरी उमर/ठक ठक करते ही बीत जाती है/ पता ही नहीं चलता/ आवाज ठूंठ से आ रही है/ या की चोंच से।’’
संख्या के लिहाज से राजस्थानी में महिला कवयित्रियां कम तो हैं मगर भाव व विचार की दृष्टि से आश्वस्त करती है। उदाहरण के तौर पर कवयित्री मोनिका गौड़ की कविता ’चरखा’ को लिया जा सकता है जो नारी जीवन के अनछुए पहलुओं को उजागर करती है-‘‘जीवन चरखे पर/ कातती हूं/ सांसो का सूत/छूट जाते हैं कभी/तकली, पूनी कभी/ उतर जाता है ताना/ पर चलता रहता है/ चरखा।’’
प्रसिद्ध कवि कुंदन माली ’घर छोड़ने के बाद’ कविता में विस्थापन की पीड़ा को कुछ इस तरह उजागर करते हैं- ‘‘छूट जाती है/मिट्टी की मुस्कान/मांडे के गीत/होठों की हंसी/तीज और त्योहार/एक का बिणज/दूजे का व्यापार/फिर फिर लौटता/आता है याद/ बचपन में जो सुना/ मां ने जो गाया गीत/गीत के बोल-/ बन्ना ओ.../ दीपावली के दीप जले/और रेल गई गुजरात।’’
विधा के रूप में कविता अन्य भाषाओं की तरह राजस्थानी की भी सबसे लोकप्रिय विधा है। पढ़ाई-लिखाई का माध्यम नहीं होने व प्रकाशन-विक्रय की तमाम चुनौतियों के बावजूद कवियों की बढ़ती तादाद उम्मीदों को जगाने वाली है। अवसरों की अनुपलब्धता के चलते जब-तब कच्ची कविताएं भी पढने को मिल जाती हैं मगर सतत अभ्यास व सार्थक चर्चा से कवियों का कहन निखरता है, इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। वस्तुतः राजस्थानी की कविता उन उबड़ खाबड़ रास्तों से भी गुजरी है जहां अन्य भाषाओं की कविताओं को अभी तक पहुंचना है। संवेदना की सघनता राजस्थानी कविता की ताकत है। आलोचना के मानकों पर परख करें तो यह निर्विवाद कहा जा सकता है कि संवैधानिक मान्यता नहीं होने के बावजूद राजस्थानी कवियों ने कवि धर्म का पूरी निष्ठा और लगन के साथ निर्वहन किया है। विश्व कविता के परिदृश्य में राजस्थानी कविता का अपना जुदा रूप और रंग है जिस पर व्यापक चर्चा की जानी चाहिए। पूर्वाग्रहों को दूर करने व राजस्थानी कविता की सम्यक पहचान के लिए ’रेत में नहाया है मन’ के माध्यम से डॉ नीरज दइया ने दुनियाभर के पाठकों को एक अनमोल अवसर सुलभ करवाया है। डॉ दइया खुद एक नामचीन कवि हैं, इसीलिए कविताओं के चयन व स्तरीय अनुवाद में सफल रहे हैं। किताब के शुरुआती पृष्ठों में ’समय के भाल पर राजस्थानी कविता’ शीर्षक से एक विस्तृत आलेख में मनीषी संपादक ने राजस्थानी कविता की शुरुआत से लेकर इसके विभिन्न पड़ावों का व समकालीन परिदृश्य का सम्यक विवेचन किया है। प्रासंगिक उदाहरणों से यह आलेख अत्यंत उपयोगी बन पड़ा है। उम्मीद की जानी चाहिए कि हिंदी के माध्यम से देश-दुनिया के पाठक राजस्थानी कविता के समृद्ध संसार से न केवल अवगत होंगे बल्कि अनुवाद के माध्यम से यह दुनिया की अन्यान्य भाषाओं तक भी पहुंचेगी। कुंवर रवीन्द्र के चित्ताकर्षक आवरण से सुसज्जित यह संकलन प्रख्यात कवि-गीतकार हरीश भादानी को समर्पित किया गया है।
सार रूप में नामी कवि-कहानीकार डॉ सत्यनारायण के शब्दों में कहा जा सकता है कि ‘रेत में नहाया है मन’ संग्रह की तमाम कविताएं जीवन के पक्ष में खड़ी हैं। वे उस संघर्ष में शामिल हैं जो आदमी को आदमी बनाए रखने के लिए लड़ा जा रहा है।’ इस स्तुत्य प्रयास के लिए संपादक के साथ ज्ञान गीता प्रकाशन भी बधाई का हकदार है।
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रेत में नहाया है मन, संपादक डॉ. नीरज दइया, ज्ञान गीता प्रकाशन, दिल्ली, पृष्ठ 256, मूल्य 375 रुपये
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(आभार- ‘विकल्प’ : जून, 2020)


Sunday, June 07, 2020

बाल मनोविज्ञान के जादूगर / डॉ. नीरज दइया



बाल साहित्य को गंभीरता से अंगीकार कर विकसित करने का बड़ा कार्य करने वाले लेखकों में दीनदयाल शर्मा का नाम प्रथम पंक्ति में लिखा जाता है। दीनदयालजी ने बाल साहित्य की अलग अलग विधाओं में सतत रूप से हिंदी और राजस्थानी दोनों भाषाओं में रचनाएं दी हैं। लेखन के साथ संपादन का कार्य भी महत्त्वपूर्ण कहा जाएगा। लंकेश्वर, महाप्रयाग, दिनेश्वर, दीद आदि अनेक उपनामों से भी आपने निरंतर लेखन किया है। शर्मा के लेखक का मिलनसार अर स्नेहिल स्वभाव का होना अतिरिक्त विशेषता कही जा सकती है। आपका जन्म 15 जुलाई 1956 को हनुमानगढ़ जिले की नोहर तहसील के गांव जसाना में हुआ। राजस्थानी बाल साहित्य की पुस्तकों की बात करें तो अब तक आपकी चन्दर री चतराई (1992), टाबर टोळी (1994), शंखेसर रा सींग (1997),तूं कांईं बणसी (1999), म्हारा गुरुजी (1999), बात रा दाम (2003) और बाळपणै री बातां (2009) आदि पुस्तकें निरंतर सृजन की साक्षी है। पाक्षिक समाचार पत्र टाबर टोल़ी का संपादन का श्रेय भी आपको ही है। सुणो के स्याणो, घणी स्याणप, डुक पच्चीसी, गिदगिदी आदि पुस्तकों की राजस्थानी में हास्य व्यंग्य के खाते बहुत कीर्ति है।
राजस्थानी में बच्चों के लिखते लिखते दीनदायल शर्मा ने कुछ आधुनिक कविताएं भी लिख कर व्यस्क लेखक होने का प्रयास किया है। आपकी नई कविताओं का प्रथम संग्रह ‘रीत अर प्रीत’ राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी के सहयोग से प्रकाशित हुआ है। इन की कविताओं में हम कवि का व्यक्तिगत जीवन अनेक प्रसंगों से जुड़ी उनकी हृदयस्पर्शी अभिव्यक्ति देख सकते हैं। वर्ष 1975 से आरंभ हुई आपकी लेखन यात्रा से भरोसा होता है कि राजस्थानी बाल साहित्य और दीनदयाल शर्मा एक दूसरे के पर्याय हो चुके हैं।
कहा जा सकता है कि राजस्थानी बाल साहित्य की बात आरंभ करते ही पहला जो चेहरा स्मृति पटल पर कौंधता है वह दीनदयाल शर्मा का होता है। अपना सम्पूर्ण जीवन बाल साहित्य को समर्पित करने वाले शर्मा बाल मनोविज्ञान के जादूगर है। शिक्षा विभाग की नौकरी और बाल साहित्य सृजन में अपना मन रमने वाले शर्मा सदैव बच्चों के प्रिय शिक्षक और लेखक रहे हैं। साहित्य की यही लगन ऐसी है कि उन्होंने अपने पूरे परिवार को साहित्य से जोड़ कर एक आदर्श उदाहरण प्रस्तुत किया है। राजस्थानी भाषा-साहित्य के लिए परलीका तो एक साहित्यिक गांव है और दीनदयाल जी का पूरा -घर-परिवार साहित्यिक है, अस्तु उनका घर भी एक साहित्यिक तीर्थ है।
केन्द्रीय साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली का बाल साहित्य पुरस्कार वर्ष 2012 का पुस्तक ‘बाळपणै री बातां’ के लिए अर्पित किया जाना पुरस्कार का सम्मान है। राजस्थानी संस्मरण लेखन के लिहाज से यह पुस्तक अब तक प्रकाशित पुस्तकों में अपना विशेष स्थान रखती है। युगबोध और विषयगत बदलाव के मानदंड से यह कृति महत्त्वपूर्ण है। इस पुरस्कृत पुस्तक में 47 आलेख हैं, जो अपनी सहज सरल भाषा और आत्मीय घटना प्रसंगों से जिस शिल्प में प्रस्तुत की गई है वह अनेक स्थलों पर बेहद मार्मिक है।
बाल साहित्य लेखन के लिए पहली शर्त है कि बाल मन रचनाकार का होना चाहिए। वैसा बाल मन दीनदयाल शर्मा के पास वर्षों से है। बचपना इतना है कि ‘बाळपणै री बातां’ की भूमिका में मन की बातें वे इतनी लंबी खींचते हैं कि भूमिका ही किसी बाल-पुस्तक जैसी है। परिवार के बच्चों के बीच एक लेखक का खेलना-कूदना ‘बाळपणै री बातां’ में सांगोपांग उजागर हुआ है। इनके घर-परिवार के प्रतीक में हम समय के साथ बदलते अनेक बदलाव संकेत रूप में देख-समझ सकते हैं। बाल नाटकों में दीनदयाल शर्मा बेहद सावधानी से रचना करते हैं कि कम कालावधि और अनुकूल साज-सज्जा से आधुनिक नाटक खेले जा सकते हैं। ‘म्हारा गुरुजी’ बाल नाटक अपने व्यंग्य के कारण, ‘बात रा दाम’ चतराई की बात और ‘तूं कांईं बणसी’ अपनी शिक्षा के कारण स्मरणीय है। हिन्दी में भी आपरी अनेक पुस्तकें प्रकाशित हुई है। जैसे- सारी खुदाई एक तरफ..., मैं उल्लू हूं (व्यंग्य) चिंटू-पिंटू की सूझ, पापा झूठ नहीं बोलते, चमत्कारी चूर्ण, बड़ों के बचपन की कहानियां, सूरज एक सितारा है, सपने, कर दो बस्ता हल्का, फैसला, फैसला बदल गया (बाल साहित्य) आदि।

देश और प्रांतीय अकादमियों से बाल साहित्य के अनेक पुरस्कारों से सम्मानित दीनदयाल जी को अनेक संस्थाओं ने भी सम्मानित किया है। आकाशवाणी और दूरदर्शन से अनेक प्रसारण हुए हैं। अंतरजाल देखें तो केई ब्लोग, फेसबुक और यू-ट्यूब के आंगन में अपनी पूरी ऊर्जा और लगन के साथ दीनदयाल शर्मा का बहुत व्यापक मित्र और समार्थक परिवार देखा जा सकता है। दुनियाभर के अनेक कामों के बीच अब भी वे बहुत आराम से बात करते हुए राजस्थानी बाल साहित्य की समृद्धि का सपना संजोए हैं। बाल साहित्य के विकास हेतु त्रैमासिक पत्रिका पारसमणि का प्रकाशन उनके इसी सपने का परिणाम है। टाबर टोल़ी पाक्षिक का नियमित प्रकाशन हो रहा है और अनेक संभावनाएं अभी भविष्य के गर्भ में है। देखें आने वाले समय में 60 वर्षीय युवा दीनदयाल शर्मा व्यस्क कवि के रूप में साहित्य में नजर आएंगे या फिर प्रेमचंद जी की उक्ति बुढ़ापा बहुधा बचपन का पुनरागमन हुआ करता है को सिद्ध करते हुए बच्चों के लिए सृजन करते रहेंगे। वैसे वे दोनों काम एक साथ करने में भी समर्थ है। उन्हें ढेर सारी शुभकामनाएं।
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Saturday, June 06, 2020

सांवर दइया री कथा-दीठ / डॉ. जगदीश गिरी

(‘छोटा-छोटा सुख-दुख’ रै मिस अेक पड़ताळ)
हिंदी री नवी कहाणी री ओळखाण करता थकां चावा आलोचक डॉ. नामवरसिंह लिखै, ‘‘नया कहानीकार कभी-कभी इतना अंतर्गूढ़ हो जाता है कि आदि से अंत तक केवल एक बात से बातें निकलती चली जाती हैं और बातों में से बात का यह निकलते जाना ही इतना मनोरंजक होता है कि एक  कहानी बन जाती है।
परंतु यह कौशल वही दिखा सकता है, जिसके पास बातचीत की उत्कृट कला हो और साथ ही भाषा की बारीकियां भी।’’ (कहानी : नयी कहानी, पृ. 14) इणनै पढता थकां इयां लागै जाणै बै राजस्थानी रा चावा-ठावा कहाणीकार सांवर दइया री कहाणी कला री बात कर रिया है। क्यूंकै बातां में सूं बात निकाळ-निकाळनै कहाणी कैवण रो जको आंटो सांवरजी कनै हो, किणी बीजै कहाणीकार कनै आज लग नीं है। सांवर दइया आपरी पैली कहाणी पोथी ‘असवाड़ै-पसवाड़ै’ सूं राजस्थानी कहाणी नै अेक नवी दिसा दी। कहाणी रै कथ्य अर सिल्प दोनूं स्तरां माथै इण संग्रै री कहाणियां साव नवै ढंगढाळै साम्हीं आवै। ओ फगत संजोग नीं है कै ‘असवाड़ैपसवाड़ै’ री पैली ई कहाणी री पैली ई ओळी पाठक नै झिंझोड़नै उणरी कहाणी बांचण-समझण री लकब नै चुनौती देवै- ‘‘कांई ओ जरूरी है कै मैं थांनै ई पूरी कहाणी सुणावूं?’’ (पृ. 7) अेकदम सपाट ढंग सूं बै बताय देवै है कै अबै फगत कहाणी सुणावणो कहाणीकार रो काम नीं है। ना ईज नवी कहाणी नै पुराणै ढंगढाळै सूं समझी जाय सकैला। कहाणी रो नांव भी ‘पैरवी’ स्यात सोच-समझनै ई राखीज्यो है। कहाणीकार इण बात री ‘पैरवी’ ई पाठकां री कचैड़ी में कर रियो है कै कहाणी री चाली आ रैयी परिपाटी नै तोड़णी क्यूं जरूरी है? ओ भी फगत संजोग नीं मानणो चाइजै कै रचनाकार कहाणी रै साथै-साथै समाज री सड़ी-गळी मानतावां नै तोडऩै आधुनिक सोच री भी पैरवी करै है- ‘‘मैं थांनै कित्ती दफै कैयो है कै सोगन ना दिराया करो! सोगन-फोगन में म्हारो रत्तीभर ई विस्वास कोनी - जियां कै सुगनां में कोनी। देवी-देवतावां में कोनी। भूत-पलीत में कोनी। आत्मा-परमात्मा में कोनी।’’ (पृ. 8)
    ठीक इणी भांत दूजै कहाणी संग्रै ‘धरती कद तांई घूमैली’ री भी पैली ई कहाणी ‘सुगन’ है, जिण मांय गणेस रै सुगन देख’र चालण री आदत सूं कथा नायक सुरेन्द्र नै चिड़तो दिखायो गयो है- ‘‘सुरेन्द्र सोचण लाग्यो- दुनिया आळा तो चांद माथै पूगग्या। पण अठै रा लोग हाल तांई गोबर में हीरो सोधै। सुगनां नै उडीकै।’’ (पृ. 10)
    सांवरजी री हाल तांई प्रकासित पांचूं कथा पोथ्यां री कहाणियां इण बात री साख भरै है कै वां राजस्थानी कहाणी रै सिल्प अर संवेदना रै चलताऊ ढंगढाळै नै बदळनै रो महाताऊ काम करियो। बात में सूं बात निकळनै फगत संवादां सूं कहाणी कैवण री उणारी री हथौटी अर खिमता नै कोई बीजो कहाणीकार छूय भी नीं सक्यो है। लांबै-चौड़ै कथानक री दरकार वांनै कदैई नीं पड़ी। छोटै-छोटै जीवण-प्रसंगां नै लेय’र रचीज्योड़ी वांरी कहाणियां मिनख री मनगत, अंतर्द्वन्द्व अर मन री परतां नै उघाड़ण रो काम करै।
    बरस 2018 में वांरी अणछपी कहाणियां री पोथी ‘छोटा-छोटा सुख-दुख’ सिरैनांव सूं साम्हीं आई है। राजस्थानी-हिंदी रा चावा-ठावा साहितकार बुलाकी शर्मा रै संपादन मांय आ पोथी कलासन प्रकाशन बीकानेर सूं छपी है। इण मांय वांरी दस कहाणियां, दो इंटरव्यू, साहित्य अकादेमी में दियोड़ो भासण अर वांरी कहाणियां माथै डॉ. अर्जुनदेव चारण रो अेक आलोचनात्मक लेख सामल है। संग्रै री भूमिका में बुलाकी शर्मा वांरी कथा-जातरा री अेक पड़ताळ पण प्रस्तुत कीवी है।
    सांवरजी रा सुपुत्र डॉ. नीरज दइया मुजब आ पोथी वांरी छेहली कथा-पोथी है। आलोचना पोथी ‘बिना हासलपाई’ में वै लिखै- ‘‘कहाणीकार सांवर दइया रै जीवण-काल मांय च्यार कहाणी-संग्रै अर बां रै सौ बरस पूग्यां अेक संग्रै प्रकासित हुयो। अेक संग्रै प्रकासित हुवैला- ‘छोटा-छोटा सुख-दुख’। आं छव संग्रां री विगत जोड़िया ठाह लागै कै कुल बासठ कहाणियां रै इण रचना-संसार मांय असवाड़ै-पसवाड़ै रा छोटा-छोटा सुख- दुख प्रगट हुया है।’’ (पृ. 67)
    तो कैयो जा सकै है अबै स्यात सांवर दइया री सगळी अणछपी कहाणियां साम्हीं आय चुकी है। इण संग्रै री कहाणियां नै पढता थकां वांरी मुकम्मल कथा-दीठ री पिछाण करी जा सकै। अै कहाणियां भी निम्न मध्यमवर्गीय वर्ग री पीड़ अर मनगत नै प्रगट करै। खुद सांवर दइया मुजब ‘बदळाव री नवी हवा सूं अळघा रैवणिया अर घर री घाणी में आपरी जूण पूरी करणिया मिनख’ आं कहाणियां में देख्या जा सकै। मोटै तौर पर ओ मान्यो जावै कै गांव रा लोग भला हुवै अर वां में त्याग री भावना घणी हुवै। पढ्यो-लिख्यो अर स्हैरी बरग थोड़ो मतलबी हुवै। पण सांवरजी री दीठ घणी गैरी है। वै इण भांत रा आदरसवादी खांचां में बांटनै समाज नै नीं ओळखै। वै मिनख री मनगत री ऊंडी पड़ताळ करै अनै वांनै आपरै जथारथ रूप साम्हीं लावै। इणी वास्तै आं कहाणियां में पढ्यै-लिख्यै नौकरी-पेसा लोगां री पीड़ा अर गांव रै लोगां रो स्वारथी बैवार बेसी दिखाइज्यो है। घणखरी कहाणियां स्कूल मास्टरां रै सुपनां अर जथारथ रै द्वंद्व नै ईमानदारी सूं उघाड़ै। रचनाकार पूरी सहानुभूति सूं इण नौकरियै बरग रै लोगां री अबखायां नै ओळखै। गरीबी अर तंगहाली सूं आंथड़ता अै लोग समाज री जोगती-अणजोगती रीत निभावता थकां जूण री गाडी नै धक्का मारै। अेक कानी कंगाली है तो दूजी कानी झूठी मरजादा। आं दोनुवां रै बिचाळै पीसीजतो नौकरियो आदमी मिनखपणै नै भी बचावण री आफळ करै।
    ‘छोटा-छोटा सुख-दुख’ रा मास्टर अेक-अेक पइसो बचावण री जुगत में ठंडीबासी रोटी खावण सूं ई गुरेज नीं करै अर आंगळ्यां बाळता थकां ई हाथै रोटी पकावै। रोज  नवी सब्जी ई नीं खा सकै क्यूंकै ‘‘इयां तो बजट ऊंचो जासी रे- सोच सूं दूबळा होय’र पाछा सिंझ्या नै सागी आलू रो साग खावण लागा।’’ (पृ. 18) बै मान’र चालै कै ‘‘आपणै भाग में तो आंटी-बाडी अर काची-पाकी रोट्यां ई लिख्योड़ी है।’’ (पृ. 19)
    रचनाकार री पकायत मानता है कै आं लोगां में लाख बुरायां होय सकै पण मौकौ  आयां अै लोग सांच माथै आंच कोनी आवण देवै। ‘उजास’ कहाणी रा हैडमास्टर साहब, सेठ सुगनचंद नै खरो जवाब देवता थका कैय देवै- ‘‘म्हैं अंधारै रो कारोबार कोनी करूं। म्हैं शिक्षक हूं। उजास री रुखाळी म्हारो धरम है।’’ (पृ. 23) तो ‘ऊजळी दीठ’ रो मास्टर  सत्येन्द्र कितरै ई लाळच रै बावजूद अन्याव रो साथ देवण सूं साफ नट ज्यावै- ‘‘म्हैं जरासी क मदद सूं किणी रो भविस्य बणा तो सकूं, पण किणी रै दबाव में आय’र किणी रो गळो नीं रोस सकूं। अै टाबर म्हारो काळजो है। काळजै में चक्कू नीं मारूं।’’ (पृ. 29)
    ‘हाडी’ कहाणी रा गोपीराम अर ‘धंवर छंटगी’ कहाणी रा जगन्नाथ नौकरी करण रै
कारण आपरै गांव सूं स्हैर आवै। किरायै रै मकानां में रैवै, पण पुस्तैनी घर-जमीन माथै वांरा सागी भाई ई कब्जो कर लेवै। वांनै पांती नीं मिळै। पण वै आपरी माण-मुरजाद नै देखतां चुप ई रैवणो ठीक समझै। ‘अठै ई ठीक है’ कहाणी रो मास्टर बनवारी दो पइसा बचावण री जुगत में सस्तो, सुंदर, टिकाऊ मकान किरायै माथै लेवण सारू ताफड़ा तोड़ै। छेकड़ सुंदर नै छोड़नै सस्तै पर ई आयनै धीजो कर लेवै।
    ‘अठै सुख कठै’ रो कथा-नायक बैंन रै ब्याव खातर सात हजार रुपिया साहूकार सूं
ब्याज माथै लेवै अर ब्याज चुकावण रै चक्कर में खुद रो घर किरायै चढावणो पड़ै। तिणखा इत्ती कोनी कै करजो चुकाय सकै, पण लोक-लाज रै चक्कर में करजो लेवणो ई पडिय़ो। नौकरियै मिनख री अबखायां नै उजागर करणवाळी आ सांवठी कहाणी है। अेक सस्तै किरायै रै मकान मांय रैवण री पीड़ अर जीवण री जरूरतां नै दाब-मोसनै राखण री किरतब  करता मध्यवर्गीय मिनखां रो अेक जीवतो-जागतो चितराम इण कहाणी रै मिस देख्यो जा सकै है। मिनख-लुगाई री प्राकृतिक सैक्स री जरूरत पूरी करण सारू ई ‘प्राइवेसी’ नीं होवण रै बावजूद ई अैड़ै मकान में रैवण री मजबूरी गैरी टीस पैदा करै। कथा-नायक रो ओ मनगत कथन है- ‘‘समाज री बां रिवाजां नै गाळ्यां काढूं जिकां रै कारण रीत रा स्सै रायता करणा पड़्या। घर रो घर छोड़’र इण टापरियै में बळ्यो। अठै तीन मिनट रो सुख ई करमां में कोनी।’’ (पृ. 60)
    पण ओ मोटो सवाल है कै ओ रीत रो बोझ अंतपंत इण नौकरियै मिनख माथै ई क्यूं आवै? चाहे मां-बाप री सेवा हो, चाहे ब्याव-भात, स्यान सारू इणी बरग नै सिर मांडणो पड़ै। ‘उळझ्योड़ी मौत’ दायजा रा लोभी समाज री नीचता नै परगट करै तो ‘चोट’ कहाणी होम करतां हाथ बळण री बात नै थरपै। ‘उजास भरी डांडी’ ई दायजा रा लोभियां री बखियां उधेड़ै।
    अेक लूंठो रचनाकार आपरै जीवणकाल में जितरो साम्हीं आवै उणसूं कई गुणा ज्यादा अदीठ रैय जावै। जितरो रचनाकर्म पोथी रूप आवै लोग वींरै मार्फत ई रचनाकार री कूंत करै। घणखरी रचनावां इण वजै सूं साम्हीं नीं आ पावै है कै लेखक सोचै कै कदेई फुरसत में  बैठनै वांनै कांट-छांट कर’र ठीक करनै ई छपायस्यां। इण भांत कई रचनावां खुद रै ‘ट्रीटमेंट’ री उडीक में ई रैय जावै।
    किणी ई लेखक री इण भांत री अणछपी रचनावां रै प्रकासन होवणै सूं उणरी अेक
सांवठी कूंत करी जा सकै। हालांकै इणरो नुकसान ई है कै कई बार पैलै या दूजै ड्राफ्ट री कच्ची रचना ई लेखक रै नांव सूं छप ज्यावै पण बा लेखक री कीरत में बधापो नीं करै। इण सारू संपादक रो सावधान रैवणो भोत जरूरी हुवै। संपादक नै लेखक री प्रकासित रचनावां री काळ-क्रम सूं पड़ताळ करता थकां वांरो लेखन काळ सोधण री आफळ अवस करणी चाइजै। इणसूं अेक मुक्कमल छिब बण सकै। आ बात कैवण रो मेरो मतलब फगत ओ है कै इण संग्रै मांय सामल कहाणियां ‘उजास’, ‘ऊजळी दीठ’, ‘धंवर छंटगी’, ‘चोट’ अर ‘उजास भरी डांडी’ उण टेम्परामेंट री कहाणी नीं है जिको टेम्परामेंट सांवरजी री कहाणियां में अकसर हुया करै। सावंरजी घोर जथारथवादी ढंग सूं लिखणिया कहाणीकार हा। पण अै कहाणियां अंतपंत आदरसवादी ढंग सूं खतम हुय जावै। स्यात अै कहाणियां ‘ट्रीटमेंट’ री उडीक में रैयगी ही।


    अै कहाणियां किणी भी दीठ सूं कमती नीं है, पण अै वांरी कहाणी जातरा नै देखता थकां थोड़ी पैलां री कहाणियां लागै। ज्यादातर रचनाकार आदरस सूं जथारथ री जातरा करता रैया है, जथारथ सूं आदरस री नीं। इण सारू जे आं कहाणियां रै काळ-क्रम रो उल्लेख होवतो तो चोखो रैवतो। भूमिका मांय आ बात ई बताई जा सकै ही कै अै कहाणियां साव  अणछपी ही या कठैई किणी पत्रिका मांय छप्योड़ी मिली है। इणसूं लेखक री कथा-जातरा नै चोखी तरियां समझण में मदद मिलती।
    खैर.... सांवर दइया अैड़ा रचनाकार हा जिका थोड़ै-सै जीवणकाळ में ई इतरो
सिरजण कर’र गिया परा कै वांरी कीरत कदैई खूट नीं सकैला। भाग सूं वै रचनावां ई साम्हीं आ सकी है जिकी वै आपरै जीवणकाळ मांय पोथी रूप प्रकासित नीं कराय सक्या हा। इण सारू डॉ. नीरज दइया अर बुलाकी शर्मा जी नै लखदाद देवणी चाइजै। अगली कड़ी में उम्मीद कर सकां हां कै वांरी रचनावली ई प्रकासित हुय सकैली, जिणसूं अेक लूंठै रचनाकार नै औरूं नैड़ै सूं जाणणै रो मौको मिल सकैला।
(कथेसर : जनवरी-दिसम्बर, 2019)

एसिस्टेंट प्रोफेसर, हिंदी विभाग, 
राजस्थान विश्वविद्यालय, 
जयपुर (राजस्थान) 302004

डॉ. नीरज दइया की प्रकाशित पुस्तकें :

हिंदी में-

कविता संग्रह : उचटी हुई नींद (2013), रक्त में घुली हुई भाषा (चयन और भाषांतरण- डॉ. मदन गोपाल लढ़ा) 2020
साक्षात्कर : सृजन-संवाद (2020)
व्यंग्य संग्रह : पंच काका के जेबी बच्चे (2017), टांय-टांय फिस्स (2017)
आलोचना पुस्तकें : बुलाकी शर्मा के सृजन-सरोकार (2017), मधु आचार्य ‘आशावादी’ के सृजन-सरोकार (2017), कागद की कविताई (2018), राजस्थानी साहित्य का समकाल (2020)
संपादित पुस्तकें : आधुनिक लघुकथाएं, राजस्थानी कहानी का वर्तमान, 101 राजस्थानी कहानियां, नन्द जी से हथाई (साक्षात्कार)
अनूदित पुस्तकें : मोहन आलोक का कविता संग्रह ग-गीत और मधु आचार्य ‘आशावादी’ का उपन्यास, रेत में नहाया है मन (राजस्थानी के 51 कवियों की चयनित कविताओं का अनुवाद)
शोध-ग्रंथ : निर्मल वर्मा के कथा साहित्य में आधुनिकता बोध
अंग्रेजी में : Language Fused In Blood (Dr. Neeraj Daiya) Translated by Rajni Chhabra 2018

राजस्थानी में-

कविता संग्रह : साख (1997), देसूंटो (2000), पाछो कुण आसी (2015)
आलोचना पुस्तकें : आलोचना रै आंगणै(2011) , बिना हासलपाई (2014), आंगळी-सीध (2020)
लघुकथा संग्रह : भोर सूं आथण तांई (1989)
बालकथा संग्रह : जादू रो पेन (2012)
संपादित पुस्तकें : मंडाण (51 युवा कवियों की कविताएं), मोहन आलोक री कहाणियां, कन्हैयालाल भाटी री कहाणियां, देवकिशन राजपुरोहित री टाळवीं कहाणियां
अनूदित पुस्तकें : निर्मल वर्मा और ओम गोस्वामी के कहानी संग्रह ; भोलाभाई पटेल का यात्रा-वृतांत ; अमृता प्रीतम का कविता संग्रह ; नंदकिशोर आचार्य, सुधीर सक्सेना और संजीव कुमार की चयनित कविताओं का संचयन-अनुवाद और ‘सबद नाद’ (भारतीय भाषाओं की कविताओं का संग्रह)

नेगचार 48

नेगचार 48
संपादक - नीरज दइया

स्मृति में यह संचयन "नेगचार"

स्मृति में यह संचयन "नेगचार"
श्री सांवर दइया; 10 अक्टूबर,1948 - 30 जुलाई,1992

डॉ. नीरज दइया (1968)
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आंगळी-सीध

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