Tuesday, March 31, 2020

समाजू व्यवस्था मांय बदळाव रो सपनो


     हिंदी-राजस्थानी मांय लांबै बगत सूं प्रमोद कुमार शर्मा न्यारी-न्यारी विधावां मांय सिरजण करता रैया है। आ हरख री बात कै कीं नवो रचण अर करण री बै हूंस राखै। बांरी आ हूंस ‘गोटी’ उपन्यास मांय देखी जाय सकै। पैली इण ढाळै रो प्रयोग हिंदी उपन्यास ‘क्लॉ ड ईथरली’ मांय बै कर चुक्या। अठै प्रयोग ओ कै हरेक रचना जीवन सूं जमीनी जुड़ाव राखणी चाइजै। खुल’र कैवां तो जिको आपारै आसै-पासै आपां जीवां जिण मांय आपां सगळा हुवा बो स्सौ कीं रचना मांय हुवणो चाइजै। सांतेकिकता अर सूक्ष्मता की ठौड़ जो कीं खरो खरी च्यारूमेर साच दीखै उण नै दिखावां उपन्यास मांय का किणी कूड़ नै ई भेळ-सेळ कर’र साच दांई राखां। कैवणिया आ पण कैवै ओ समूळो संसार ई कूड़ो है। आ जूण सपनो। किणी पण रचना मांय लेखक सपनां नै लेय’र चालै। ‘गोटी’ उपन्यास रा ई खुद रा सपना भेळै उपन्यासकार का ई सपना अठै देख सकां। उपन्यास रै सपना अर संकेतां री बात करां उण सूं पैली उपन्यास री छेहली ओळ्यां देखो- ‘मयंक टैक्सी नैं अडीकतो आपरै उपन्यास मुजब सोचण लाग्यो। अवस ही स्वामी जी वीं रो उपन्यास छपवासी। अर देस में वीं री कथा एक क्षेपक बण’र समाजू व्यवस्था मांया बदळाव ल्यासी। वीं री आंख्यां साम्हीं छापै स्यूं धड़ाधड़ निसरती ‘गोटी’ री प्रतियां अर जिग्या-जिग्या पढ़ता ढेरूं पाठक- आप री गर्दन उठावता मानखै स्यूं सुवाल करता, रेत री एक नदी बणता जा रैया हा।’ (पेज 96)
    प्रमोद कुमार शर्मा ‘गोटी’ उपन्यास री कथा नै नवै ढंग-ढाळै इकतीस दरसावां सूं दरसावै। उपन्यास मांय किणी फिल्म दांई दरसावां नै रचती बगत भासा री चतराई अर चित्रात्मकता सरावणजोग कैयी जाय सकै। लोक री भासा नै ठेठ बोलचाल अर लहजै नै अंवेरण री कोसीस करतो ओ उपन्यास जूण रा केई केई भेद खोलै। मयंक रो ‘गोटी’ नांव रो उपन्यास जेळ मांय लिखणो अर उण रै छपण रा सपना देखण रै दरसाव माथै उपन्यास पूरो हुवै। कांई ओ उपन्यास मयंक रो लिख्योड़ो गोटी उपन्यास है जिण नै प्रमोद कुमार शर्मा आपरै नांव सूं प्रकासित करायो का ओ एक लांबो सपनो है जिको उपन्यासकार कथा नायक रै रूप मांय जीवै। उपन्यास मांय राजस्थानी भासा मान्यता आंदोलन री बात करणी इण बात रो दूजो पुखता परमाण मान सकां कै ओ उपन्यास ठेठ जमीन सूं जोड़ण री कोई कसर लेखक कोनी छोड़ै।
    उपन्यास मांय मूळ संवेदना भेळै लेखक केई केई बातां परोटै। गोटी री मूळ संवेदना का विसय आज रै युवा नै केंद्र मांय राखता थका राख्यो है। उपन्यास रै कथा-नायक नै एक इसै जोध जवान नायक री छवि मांय दिखायो है जिको घर-परिवार-समाज खातर कीं करणो चावै। बो जगत रै पाखंड नै धार्मिक अर राजनैतिक दीठ सूं जाणणो-समझणो चावै। एक युवा जिण री अक्कल काढ’र उण नै उपन्यास मांय गोटी बण लियो जावै कै उण नै समझ ई कोनी अवै कै ओ खेल कांई चाल रैयो है। भासा अर बुणगट सूं प्रभावित करै करतो ‘गोटी’ राजस्थानी उपन्यासां मांय संवाद कला अर दरसाव पुरसण रो बेजोड़ दाखलो कैयो जाय सकै। सगळी बातां कट टू कट है पण सगळी घटनावां स्थितियां मांय लेखक पात्रां नै कठपुलियां दांई इसा नाच नचावै कै किणी कमर्शियल सिनेमा दांई ऑल इन वन वाळी बात हुय जावै।
    पैलै दरसाव रो नांव ‘मंगळ कारज’ राखण लारै लेखक री दोय मनगत- पैली तो ओ दरसाव मंगळाचरण रो कांटो काढ़ै, दूजी घर मांय महीना दोय पछै बेटी रो ब्याव मंगळ कारज कैयो जाय सकै। शिवदत्त अर पार्बती रै चार टाबर- सीमा, मयंक, लता अर वनीता। ‘पार्बती होळै-सी पैर दबाणा छोड्या अर शिवदत्त रै पसवाड़ै आ’र सोगी। वण आंधारै मांय आंख्यां झपकाई... वींरी आंख्यां मांय बीजळी रा पळकारा-सा पड़ण लाग्या..., सीमा रो ब्याव वींरी आंख्यां साम्हीं भाज्यो आवै। बा देखो... वा भाजी फिरै पार्बती। कठै अठै। कठै वठै। कदै गीत गांवती तो कदै लाडुवां रो धामो लियां कोठ्यार मांय जांवती। हाय रामजी... कित्ती फूटरी लागै सीमा! लाल जोड़ै मांय सजी-धजी सीमा नै देख पार्बती हरख उठी।’ (पेज- 4)
    दूजै दरसाव रो नांव ‘सुपनो’ जरूर राख्योड़ो है पण उण मांय सुपनां रै तूटण री विगत निजर आवै। मयंक रै हाथ माथै ‘हिंदू जिंदाबाद’ लिख्योड़ो है तो परणीजण वाळी छोरी ओलै-छानै प्रेमी सुरेश नै कागद लिख रैयी है। उपन्यास रै कथा नायक नै राम मंदिर अर हिंदू धरम सूं जोड़’र धरम री ठेकैदारी उपन्यासकार दरसावै तो सीमा अर उण री बैनां रै मारफत नुंवी हवा री फेट मांय आयोड़ी छोरियां नै देख सकां। स्त्री विमर्श खातर पेटै ई केई मुद्दा ‘गोटी’ पुरसै। भानुभाई जैड़ा केई पात्र आपां रा टाबरां नै गुमराह करै। ‘मित्रों! पित्तल को रंग देने से, वो स्वर्ण नहीं बनता। अपितु अपना शुद्ध स्वरूप भी खो देता है। इसी प्रकार अपनी जाति, अपना धर्म परिवर्तित करके कोई भी सच्चा प्राणी धार्मिक नहीं हो सकता। बताइये कितना- पुराना है इनका धर्म और कितना हमारा। फिर भी हम अपने ही देश में मारे-मारे फिर रहे हैं। पूरी दुनिया में केवल एक हिंदू राष्ट्र है, कैसी विडंबना है, अपने ही घर में हमारी पहचान नहीं। जो काम 15 अगस्त, 1947 को हो जाना था। वह आज तक नहीं हुआ। इसलिए मित्रो, अपना धर्म पहचानों। उसे ताकतवर बनाओ। प्रश्न उठाओ। संघर्ष करो, लेकिन अनीश्वरवादी ताकतों और संकीर्ण धर्मों के सामने घुटने मत टेको। गर्व से कहो- हिंदू जिंदाबाद....। हिंदू जिंदाबाद...। हिंदू जिंदाबाद...।’ (पेज-11)
    देश मांय गरीब-बेरोजगारी, संस्कारां अर रीत-रिवाज मांय पीसजती जनता। निम्न अर मध्यम वर्ग मारै अर्थ री मार। धर्म रा ठेकेदार, स्वामी-मोडा, दायजै री दाझ, गुमराह युवा पीढी, फिल्मा रो नसो अर प्री मच्योर टाबरी स्सौ कीं ‘गोटी’ उपन्यास मांय मिलै। ऐकै कानी विराट हिंदू सम्मेलन है तो दूजै पासी लव-जेहाद पेटै असगर अर बिचली छोरी लता रा लफड़ा ई मिलै। लुगायां रा गीत, छोरा रा खून-खराबा, आपसी रंजिस अर मार-पीट स्सौ कीं है इण कथा मांय। पुलिस-थाणा कोरट कचेड़ी भेळै बयान राजस्थानी मांय देवण रो होसलो। ‘मयंक आंसूं पूंछतो बारै साथै भीर हुयग्यो। बीं रा पग कीं उंतावळा बगै हा। हथकड़िया वाळै हाथ नैं देखतां बो सोचे हो’क इण सारी वारदात पर इणी हाथ स्यूं एक उपन्यास लिखसी, जिण रो सिरै नांव हुयगी- गोटी...।’ (पेज- 91) मयंक री हिमत नै दाद देवां कै बो जेळ जावतो राजस्थानी मांय गोटी उपन्यास लिखण री विचारै। दूजै पासी स्त्री विमर्श पेटै सीमा रो ब्याव नीं करण रो ऐलान ई विचारणजोग कैयो जावैला। दरसाव मांय दायजै री मांग सूं पीसतो बाप शिवजी तो हाथ जोड़’र आपरी ठौड़’ई ऊभो है कै दोनूं मेहमान रै जायां उण रै उणां रै कानां सीमा री चिलकारी मोखला काडगी- ‘भाड मांय जावै इस्सो ब्याव। म्हानै कोन्नी करणो ब्याव। ईयां के म्हैं पपा नै बेचण सारू जामी हूं।’ (पेज- 29) ‘नईं-गळती तो म्हारै स्यूं होगी- जकि म्हैं थारै स्यूं प्यार कर लियो। पण सीमा रो ब्याव देखता थकां ठाअ पड़यो’क मध्यम वर्ग री छोरियां रा ब्याव कित्ता दौरा हुवै। अर फेर- बीजै धर्म मांय ब्यांव- मरणो’ई हुज्यासी सगळां रो।’ (पेज- 35)
    गोटी उपन्यास युवा पीढी नै चेतावै अर साथै ई उण रै रुखाळा नै। बदळतै बगत नै सबदां मांय अंवेरण री आ खेचळ देस-दुनिया रै बदळावां नै दरसावण रै चक्कर मांय केई केई मोरचा खोलै अर उणा नै आपरै हिसाब सूं सलटावै। प्रेम अर धर्म रा झीणा तार मिनख-लुगाई रै मनां माथै किण ढाळै असर करै उण रो पूरो हिसाब दरसावण मांय उपन्यास ओ सवाल छोड़ै कै असंतुलित नायक मयंक री लेखनी इत्ती संतुलित कियां है कै बो गोटी उपन्यास लिख पावै। ओ उपन्यास कांई मयंक रो लिख्योड़ो ‘गोटी’ ई है का एक रचना रै जलम लेवण री आ पूरी कथा है। आज रै हालता मांय जद सगळा ‘गोटी’ बणता जाय रैया है का वणा दिया जावै तद इण संसार अर मानखै रो कांई होसी। सार रूप कैवां तो प्रमोद कुमार शर्मा ‘गोटी’ री कथा नै एक क्षेपक बणा’र समाजू व्यवस्था मांय बदळाव रो एक सपनो देख्यो है। बां रै मुजब आज री मोटी जरूरत मानखै सूं सवाल करणो मान सकां।
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गोटी (उपन्यास) प्रमोद कुमार शर्मा
संस्करण : 2016 ; पाना : 96 ; मोल : 100/-
प्रकासक : कलासन प्रकाशन, बीकानेर

पुरस्कार ही सब कुछ नहीं होता

Shyam Jangid : रघुराज सिंह हाड़ा नै हिये तणी सिरधाजंली ! राजस्थनी साहित्य मांय आपरौ दाय सदीव सिमरण रैवै ला ! सत सत निवण !
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टिप्पणी : Krishna Kalpit : श्रद्धांजलि वे लोग भी दे रहे हैं जिन्होंने रघुराजसिंह हाड़ा को राजस्थानी का साहित्य अकादमी पुरस्कार नहीं लेने दिया । आधुनिक कचरा राजस्थानी कविता और दो कौड़ी के कवियों को पुरस्कृत करने वाले लोगों की यह अश्लील कार्यवाही है । कल्याणसिंह राजावत को आपने पुरस्कृत नहीं किया । न दुर्गादान गौड़ को । न गजानन वर्मा को । न गोरधनसिंह शेखावत को, न हरीश भदानी को, न भगीरथसिंह भाग्य को । आप को शर्म भी नहीं आती । जितने भी कवि अब तक साहित्य अकादमी से पुरस्कृत हुये हैं सत्यप्रकाश जोशी और नारायणसिंह भाटी कन्हैयालाल सेठिया और रेवंतदानजी को छोड़कर वे हाड़ा जी के जूतों की पोलिश करने के काबिल भी नहीं हैं । देवल समेत । शर्म करो । डूब मरो । हाड़ा जी की कविता की बराबरी करने को राजस्थानी के पुरस्कृत कवियों को कई जन्म लेने होंगे ।
हालांकि मैं भी राजस्थानी हूँ लेकिन एक बार तेजसिंह जोधा से पूछा कि ये चंद्रप्रकाश देवल कैसा कवि है तो जोधा ने कहा कि ये बिज्जी का जँवाई है और इसकी सारी कविताएँ प्री-मेच्योर-डिलीवरियाँ हैं । ऐसे ऐसे संदिग्ध कवि भी पुरस्कृत और पद्मश्री हैं । क्या किया जाए ।
अगले जन्म में ये देवल और सारे नक़ली राजस्थानी कवि बकरियां चराएंगे और हाड़ा जी और राजावतजी के गीत गुनगुनायेंगे ।
धिक्कार है !
हूँ निरखण लाग्यो कबूतरां रो जोड़ो !
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अब तक साहित्य अकादेमी से पुरस्कृत राजस्थानी कवि-
2018 कविता देवै दीठ (कविता संग्रह) डॉ. राजेश कुमार व्यास
2013 आंथ्योदई नहीं दिन हाल (कविता-संग्रह) अम्बिकादत्त
2012 आँख हींयै रा हरियल सपना (कविता–संग्रह) आईदान सिंह भाटी
2010 मीरां (महाकाव्य) मंगत बादल
2003 सिमरण (कविता–संग्रह) संतोष मायामोहन
1999 सीर रो घर (कविता–संग्रह) वासु आचार्य
1997 उतर्यो है आभो (कविता–संग्रह) मालचंद तिवाड़ी
1995 कूख पड़यै री पीड़ (कविता–संकलन) किशोर कल्पनाकांत
1991 म्हारी कवितावां (कविता–संकलन) प्रेमजी प्रेम
1990 उछालो (कविता–संकलन) रेवतदान चारण ‘कल्पित’
1988 अणहद नाद (कविता–संग्रह) भगवतीलाल व्यास
1987 सगळां री पीडा स्वातमेघ (कविता–संग्रह) नैनमल जैन
1986 द्वारका (कविता–संग्रह) महावीर प्रसाद जोशी
1984 मरु–मंगल (कविता–संग्रह) सुमेर सिंह शेखावत
1983 गा–गीत (कविता–संग्रह) मोहन आलोक
1981 बरसण रा देगोडा डूंगर लाँघिया (कविता–संग्रह) नारायण सिंह भाटी
1980 म्हारो गाँव (कविता–संग्रह) रामेश्वर दयाल श्रीमाली
1979 पागी (कविता–संग्रह) चंद्रप्रकाश देवल
1977 बोल भारमली (काव्य) सत्यप्रकाश जोशी
1976 लीलटांस (कविता–संग्रह) कन्हैयालाल सेठिया
1975 पगफेरो (कविता–संग्रह) मणि मधुकर
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कवि चंद्रप्रकाश देवल जी का राजस्थानी को विपुल अवदान रहा है। कोई कवि अपने अग्रज किसी दूसरे कवि से छोटा-बड़ा उम्र और अनुभव में हो सकता है, पर वैसे कोई कवि किसी से छोटा-बड़ा नहीं होता है।
मेरा दावा है कि आदरणीय कल्पित जी ने ना आदरणीय रघुसिंह हाड़ा को पूरा पढ़ा है और ना देवल जी को। सारे नकली कवि केवल राजस्थानी में ही नहीं है, निसंदेह आप नाराज होंगे पर हमने हमारे एक कवि को खोया है और उसके शोक पर आपका यह कथन अशोभनीय है। राजस्थानी कवि बकरियां चराएंगे से मेरी व्यक्तिगत अहसमति है। यहां उपस्थित शेष बंधु अपनी जाने।
कृपया इसे ऐसा नहीं समझे कि म्हैं आपरी भैंस रै भाठो मारियो है।

Monday, March 30, 2020

लाड़ कंवर की कहाणी / नीरज दइया

    हाड़ौती अंचल रै उपन्यासकारां में प्रेमजी प्रेम, शांति भारद्वाज ‘राकेश’, कमला कमलेस, गिरधारी लाल मालव, अतुल कनक आद मांय नवो नांव जितेंद्र निर्मोही ‘नुगरी’ उपन्यास सूं जुड़ै। मूळ मांय जितेंद्र निर्मोही कवि मानीजै पण लारलै केई बरसां सूं राजस्थानी रा अनेक रचनाकारां ओ साच जाण लियो कै अबै आपां नै न्यारै-न्यारै मोरचा माथै लेखन री जूझ मांडणी पडैला तद ई विधावां रो विगसाव हुवैला। हाड़ौती गद्य री आपरी न्यारी रंगत मानीजै अर राजस्थानी मानकीकरण का कैवां समरूपता रै मामलै मांय सगळा सूं बेसी जरूरी है कै आपां लगोलग काम करां। जे रचनाकार लगोलग लिखता रैसी अर एक दूजै रो लिख्योड़ो बांचता रैसी तद ई आपसरी मांय रळ परा राजस्थानी नै उण रो वाजिब हक देय सकैला। उपन्यास ‘नुगरी’ री भासा अर भावबोध मांय हाड़ौती अंचल री महक देख सकां। कथा नायिका लाड़ कंवर रो उपन्यास मांय नांव नुगरी है। लाड रो अरथाव प्रेम सूं लिया करां अर ‘लाड़’ कंवर ई स्यात इणी अरथ मांय नांव राखीज्यो हुवैला। इण उपन्यास री छेहली ओळ्यां देखो- ‘वै बी सोच ‍रिया छा कांई सत अर कांई पत। ई जमीं पै कतना लोग सत का सर ज्या छै। जमाना में ज्ये करम हो ज्यावै कर ल्यो अर आगे बढो। लाड़ बी अस्यां जिंदगानी में आगे बढ़ी अर बधती ई गी। या ई छै लाड़ कंवर की कहाणी। (पेज- 87)
    उपन्यासकार आपरै उपन्यास रै सेवट पूरै उपन्यास नै लाड़ कंवर री कहाणी कैय’र जाणै नवै जुग मांय विधावां रा दायरा खतम करण चावै का हुय सकै बां रो मायनो कहाणी सबद सूं कथा रो हुवै। उपन्यास अर कहाणी विधा मांय तात्विक फरक रै कारण ई दोनूं नै न्यारी न्यारी मानीजै। पानां री दीठ सूं लंबी कहाणी नै उपन्यास नीं कैय सकां। कमती पाना मांय ई उपन्यास संभव हुय सकै। लेखक मरम री बात कैवै कै जमानै मांय जिका करम हुवै बै करलो अर आगै बधो। राजस्थानी विद्वान श्रीलाल नथमल जोशी बताया करता कै आपरै अठै ढ़ नै ढ ई लिखणो चाइजै अर इणी ढाळै ‘जिंदगानी में आगे बढ़ी अर बधती ई गी’ ओळी मांय आगै बधी अर बधती ई गई लिखीजणो चाइजै। ‘बढ़ना’ हिंदी री क्रिया रो राजस्थानी मांय दूजो अरथ हुवै अर ‘बाढ़ी आंगळी माथै ई कोनी मूतै’ रो दाखलो जगचावो। आ पण हुय सकै कै कोटा मांय इण ढाळै रो अरथ नीं लियो जावतो हुवै।
    लेखक जितेंद्र निर्मोही ‘नुगरी’ री कहाणी नै बाबत ‘म्हारी बात’ मांय आगूंच लिखै- ‘म्हारै सामै असी बाल विधवा छी जी नै आपणी जिंदगी ई समाज सूं लड़बा-भड़बा अर रूढ़ीवादी परंपरावां कै तांई तोड़बा मैं कोई काण-कसर न्हं छोड़ी।’ (पेज-5)
    राजस्थानी उपन्यास जातरा मांय नारी जूण अर विधवां पेटै केई रचनावां लिखीजी पण ‘नुगरी’ आपरै ढंग-ढाळै सूं निरवाळी रचना इण खातर मानीजैला कै अठै इण चरित्र प्रधान उपन्यास मांय लेखक लुगाई नै दुनिया मांय खुद रै ढंग सूं जीवण री हूंस देवै। विधा रै लिहाज से उपन्यास माथै कीं बातां करी जाय सकै कै नरेटर रो लोककथा दांई नुगरी री कथा नै कैवणो है। बुणगट री दीठ सूं नुगरी री कथा नै लेखक उण रै रामसरण हुया पछै उण री अंतिम जातरा सूं चालू करै अर उण री विगत नै 16 अध्याय में जाणै कैवै। इण कैवण मांय आधेटै पछै बिचाळै एक लोककथा ई सुणावै! ‘एक राजा छो, जी कै सात कन्या छी। राजो तड़के उठतां ई सब नै खुद के आस-पास बठाणतो अर एक-एक कन्या सूं पूछतो कै तू कही क भाग को खा’री छै। आगली छः कन्या तो कहती कै- पिताजी म्हां तो थां का भाग को खावै छा, पण सबसूं छोटी कन्य कहती- पिताजी म्हूं तो म्हरा ई भाग को खा’री छूं।’ ( पेज- 56) ओ लेखक रो लोक साहित्य सूं मोह कैयो जाय सकै। एक कथा रै मारफत लेखक करम री बात नै अरथावण री कोसीस करै। क्यूं कै लेखक रो मानणो है कै ‘जुग बदलेगो बायरा मै चेतना आवेगी।’ (पेज- 83)
    शिवपुरा में किशन जी तेलीपाड़ा मै रै छा। उणा रा पांच टाबरां में एक छोरी जिकी नै ‘नुगरी’ मांय लेखक विगतवार आपां साम्हीं राखै। नुगरी नै समाज मांय छन्द्याल, चतरी, मटेटण आद केई नांवां सूं ताना ई मिलै। जितेंद्र निर्मोही मुजब ‘लुगाई की आंख्यां मं अश्यां केमरा लाग्या होय छै क’ वा पलक झपकतां ई, आछो-बुरो जाण ज्या छै।’ अर नुगरी ई आछो-बुरो जाणता थका ई जीवण नै आपरी जुदा दीठ सूं दिसा देवै। किणी री हां-ना सूं निरवाळी नुगरी जीवण-पथ माथै किणी जोधा दांई आगै आगै बधती जावै। बा सोळा बरसां री परणीजै अर साल खंड पछै विधवा हुय जावै। लेखक लिखै- सतरा बरस मै ई रांड होगी छी अर पेट सूं न्याळी छी। अठै ओ जाण लेवणो ई जरूरी है कै चौथी पास नुगरी जे नौकरी लागै तो उण नै घणो कीं देवणो पड़ै। सामाजिक दीठ सूं खोट समझा जिका समझौता सूं उण री जूण आगै बधै। ‘कोई का मरबा सूं जिंदगानी में कोई फरक न पड़ै, नदी का उफाण अर रैला का जाबा कै बाद जिंदगाणी बाई पराणी चाल पकड़ लै छै। घणा लोग ई करम गति सूं बी घणो सीखै छै।’ (पेज- 22)
    जीवण साच नै बखाणतो नुगरी आज रै बगत नै अरथावै अर आधुनिक हुयै समाज रै संस्कारां मांय आई गिरावट खातर जाणै सचेत ई करै। आ बात लोक मांय जाणी पिछाणी है- ‘यो पहलो दिन छो लाड को वा जाणगी छी आद्म्य मैं नौकरी करबो खांडा की धार पै चालबो छै फैर गरीब की जोरू अर सबकी भौजाई।’ (पेज-28) पण अठै उण नै नुगरी रै दाखलै सूं राखणो जसजोग काम कैयो जावैला। भरी जवानी मांय किणी रो विधवा हुवणो अर उण पछै घुट-घुट’र इच्छावां रो गळो टूंपणो दुनिया री रीत रैयी है। आ रीत नुगरी नै कदैई रास नीं आवै। बा आपरो खावणो-पीवणो अर मौज-मस्ती नै इयां कियां छोड़ै। इणी वस्तै बा आपरी एक न्यारी-निरवाळी दुनिया बणावै। जिण मांय फगत अर फगत रोवणो-धोवणो कोनी हुवै, बठै पड़दै सूं ढकियोड़ै एक संसार मांय दूजो संसार निगै आवै। लेखक नुगरी में जूण रा सुख लेवण रा फगत सुपनां ई नीं दरसावै, बां सुपनां नै पूरा करण रा जतन ई होळै होळै साम्हीं राखै। 
    ‘लाड़ के खाबा-पीबा को घणो सोक छो दीतवार का दन वा रामकंवरी के यां जा पूगी अर भर पेट रबड़ी जा उड़ाई। रबड़ी उड़ा’र जोर सूं बोली- दूधा न्हावो पूता फलो। या सुण’र रामकंवरी जोर जोर सूं हांसबा लागी फेर बोली बाई थं नै बी खूब की वस्या तू बी रांड बैर अर म्हूं बी रांड बैर। लाड़ नै कीं- बावली कांई रांड बैर ई जीबा को हक कोई न्ह कै अर मजा लेबा की छूट कोई न्ह के।’ (पेज 62)   
    समाज रा ठेकेदारां अर नेतावां पेटै नुगरी री आ दोय टूक बात- ‘धोळा कपड़ा फहरबा को हक तो वांई छै ज्यै दिल क साफ छै, वा मानै छी जिंदगाणी में घालमेल तो हुई छै।’ (पेज- 76) राजस्थानी संस्कृति अर परंपरा नै निभावता दूजा विधवा चरित्रां सूं न्यारी नुगरी बोल्ड नायिका कैयी जावैला। बा नेम अर काण-कायदा निभावै अर आपरै बेटै जोगाराम अर बहू रामप्यारी भेळै पोता-पोती रो सुख ई भोगै। नुगरी राजस्थानी उपन्यास जातरा मांय एक क्रांतिकारी चरित्र मानीजै जिकी धरम री झूठी धजावां नै लीर-लीर करै अर मानै ब्यांव तो मनां रो मेळ हुवै। नुगरी मांय पोती बबली (कोकिला) वावत ओ संवाद विचारणजोग कैयो जाय सकै-
    ‘लाड़ नै कही- छोकी बात छै भाई सा। आप अब म्हारै उपर छोड दो।
    लाड़ नै चतरी सूं कही- बणा बात बनती नजर आरी छै, तू गंधो मत घाल जै।
    चतरी बोली- बण कुल गोत तो न अड्या, पण छोरा की जनम पतरी तो देखल्यां।
    लाड़ नै कही- कांई करेगी जनम पतरी नै आगी बाल, छोरो पढ्यो-लिख्यो छै, परवार आसूदा छै। पंडताअ का चक्कर में मत पड़।
    चतरी बोली- ब्याव तो मन मल्यां को खेल छै बणा थनै सांची कही कान्हा जी कै बी ज्यै जची छोरी फाडली अर छोरियां का दुख निवारक बणग्या।’  (पेज- 74)
    भूमिका लेखक राधेश्याम मेहर री बात खरी- ‘अस्यां उपन्यासकार ने ‘नुगरी’ मं लाडबाई की जीवनगाथा ई ले’र घणी-सारी महताऊ बातां सबके सामै प्रकट करतां होयां स्त्री-विमर्श के लारै-लार प्रेम-वासना अर सामाज की नुई-पराणी परंपरावां पै प्रकाश डालतां होयां बायरां मं पैदा होयी नुई चेतना सगति, हिम्मत-हौसला अर आत्म-बसवास सूं आगे बधबा की भावनावां नै थरपबा मं सफलता पाई छै।’
    नुगरी री इण कथा सूं फगत एक मारग साम्हीं आवै कै रीत-रिवाज, काण-कायदा, परंपरा-संस्कार अर मूल्यां नै जे सावळ राखणा है तो संसार आपरो रंग-ढंग बदळै अर विधवावां नै बसावै। मिनख-लुगाई बिचाळै मरजादावां अर संस्कारां नै सावत राखण री भोळावण समाज माथै।
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नुगरी (उपन्यास) जितेन्द्र निर्मोही
संस्करण- 2016 ; पाना- 88 ; मोल- 100/-
प्रकाशक- बोधि प्रकाशन, जयपुर

गांव री गळियां अर लुगाई जूण रो चितराम / नीरज दइया

डॉ. नारायण सिंह भाटी रो कविता-संग्रै ‘सांझ’ बरसां पैली चावो हुयो अर अबै ‘सिंझ्या’ नांव सूं अरविन्द सिंह आशिया रो उपन्यास। सांझ एक प्रकृति-काव्य हो अर ‘सिंझ्या’ में मिनखाजूण अर खासकर लुगाई जात री सांझ रो चितराम दरसावै। नायिका विजय लांठै ठाकरां री छोरी ही अर लांठै परिवार परणीजी, पण किसमत कुण बदळ सकै। उण नै पीरै-सासरै दोनूं जागावां खावती-पीवती जागावां हुवता थका उण नै सेवट रंडापो काटणो ओखो हुय जावै। आ कथा विजय रै बिखै री कथा रै साथै-साथै लुगाई-जूण री सिंझ्या रो ई सांगोपांग बखाण करै। विजय रै मारफत आ कथा सवाल करै कै जूण मांय जठै कोई उमीद का आसरो हुवणो चाइजै उणी बगत ओ संसार इयां कियां किणी सूं किनारो कर सकै। ढळती उमर मांय विजय साथै हुवती अणचींती कै उण नै दोय टंक रोटी खातर ई रामजी साम्हीं देखणो पड़ै। विचार करण री बात आ है कै भरियै-तरियै घरां थकां बडेरी सगळा खातर इत्ती कियां भारी हुय जावै। अठै ओ संजोग कैयो जावैला कै ‘सिंझ्या’ नायिका प्रधान उपन्यास है अर विधवा जीवण माथै लिखीज्यै ‘आभै पटकी’ (श्रीलाल नथमल जोशी) सूं राजस्थानी उपन्यास जातरा चालू हुई। परंपरा, विगसाव अर आधुनिकता तांई री इण जातरा मांय राजस्थानी उपन्यास लुगाई जूण माथै केंद्रित रैयो। इण पूरी जातरा नै देखतां ‘सिंझ्या’ उपन्यास एक चुनौति रै रूप मांय उपन्यासकार अरविन्द सिंह आशिया लियो अर इण जातरा मांय कीं नवो करण री खेचळ अठै देखी जाय सकै।
    उपन्यास समरपित है- ‘निर्मल वर्मा ने जिकां कहाणी रै आकास नै अद्भुत विस्तार दियौ।’ इण समरण अर उपन्यास री पैली ओळी- ‘चीं चकड़ कीं ककड़ रेलगाड़ी रै बरेक री आवाजां काना में चूंट्या भरण, लागी अर एकदाबाद-आगराफोरट सवारी बी छोटेक ठेसण भींवसर माथै रुक गी, अर दो मिन्ट खातर जाणै ठेसण जाग ग्यौ।’ सूं आपां कीं अंदाजो लगा सकां हां कै उपन्यास कीं नवो करण री खेचळ कर रैयो है। राजस्थानी गद्य री भासा अर बुणगट पेटै ‘सिंझ्या’ एक प्रयोग मानीजैला। इण मांय गद्य रै आकास नै अद्भुत विस्तार देवण रो जोस देख्यो जाय सकै। उपन्यास गांव भींवसर रै मारफत आजादी पछै ई राजस्थान रा केई-केई गांवां रै हालात नै दरसावै।
    ‘एक लोहड़ा रौ संदूक अर एक खांदै माथै टांगण रौ थेलौ अर एक छोटी पेटी, औ समान हौ देवी सिंह, भरत सिंह अर रामदायाल रै कनै। उमर आ ही बाईस सूं तीस रै बिचै। देवीसिंह गोरो डीघौ करारौ मोटयार लीकां आळो कुड़तौ अर पैजामौ, पगां में तीखी पगरखीयां। भरत सिंह पच्चीसैक बरसां रौ ओदौ, कद काठी रौ सांवळो डील में भारी, पगां में ही परखरियां अर डील माथै गूंगौ डब्बा रौ कुड़तौ अर पैजामौ। रामदयाल बाईस बरसां रौ थाक्यौड़ौ-पतलौ, डीघो सांवळौ अर तीखै उणियारे रौ वुडलेंड रा चमड़ै रा बूंट कुड़तौ पेंट में दाबयोड़ौ कमर माथै पट्टो बांध्यौड़ो।’ (पेज-7)
    भींवसर ठेसण माथै उपन्यास री नायिका बिजै (विजय) रा तीनूं भाई उतरै जणा ओ रूप-रंग अर नैण-नक्स रो दरसाव एक बगत नै ई बांचणियां साम्हीं राखै। विजै (विजय) री सगाई रो दस्तूर परसूं दिनूगै साढ़ी दस बजी हुवणो हो उण खातर तीनूं भाई समान लेय’र गांव उतरै अर खेतियै नै उडीकै जिको बां नै लेवण गांव सूं बो आवण वाळै हो पण वगतसर नीं पूगो। गांव री अबखायां रो खरो चितराम उपन्यास मांय देख सकां। लगैटगै पांच सौ बीघा जमी रा धणी ठाकर झूंझार सिंह गांव मांय लांठा अर इलाकै में साखवाळा। चीजां नै होळै होळै खोलणो अर नेठाव सूं किणी दरसाव नै राखणो अरविंद सिंह आशिया रै इण उपन्यास री खासियत कैयजैला। उपन्यासकार पात्रां री ओळख साथै ग्रामीण संस्कृति अर लोकाचार नै चित्रात्मक भासा सूं प्रगट करै- ‘रावळै में बड़ता ही देवी सिंह री बीनणी गुलाब कंवर घूंघटौ काढ़’र मांये गी परी। देवीसिंह बठेई डोढी में आपरै दादीसा रै सिराणै बेठ ग्यौ। दादीसा लगैटगै अस्सी बरसां री डोकरी। विधवा हा झकेऊं धौळा गाभा, आंख्या माथै चस्मौ अर थोड़ा थोड़ासा धूजता हाथ, पण उणियारै रौ तेज दीपतौ दिखे हौ। बांरो मांचो डोढ़ी में भींत सूं चिपायोड़ौ हौ कनेई धान पीसण री घट्टी अर ऊंखळ हा। देवीसिंह री बीनणी मांये जांवता ही बीं री मां सुगन कंवर साळ सूं बरै आई। पचास बरसां री सुगन कंवर रंग गोरो, डीगी अर पतली, चोटी ठेठ कड़यां सूं नीचे तांई गूंथ्यौड़ी।गुलाबी रंग रा घाघरौ कुड़ती पेरयौड़ा अर ऊपर गुलाबी ओढणौ जको कीं आरपार दीखण आळौ हो। आंगणे में आंवता ही सुगन कंवर लांबौ गूंघटौ काढ़ लियौ।’ (पेज- 10) 
    पंद्रा अध्याय रै इण उपन्यास मांय दूजै अर तीजै अध्याय मांय उपन्यासकार राजस्थान रै बदळतै हालातां नै दरसावै पण जिकी कथा सूं बांचणिया नै बो जोड़ै बा छोड़ देवै। देस री आजादी पछै नवै प्रभात मांय दूजो अर तीजो अध्याय जाणै किणी सिंझ्या रो बखाण है जिकी आजादी रै परभात माथै लमूटै ही। जमीदारा अर ठाकरां रै बदळण रा आपरा तरीका रैया। देस रै आजाद हुया का नुंवा काण-कायदा बण्या पछै ई बां रा रंग होळै होळै गया। छोरै-छोरी रै तिलक रा रिवाज अर देवा-लेवी बाबत सांस्कृतिक रंग अठै देख सकां। ओ नवै अर जूनै रो द्वंद्व कैयो जाय सकै कै अरविंद सिंह आशिया कविता दांई उपन्यास मांय आपारी बात राखै- ‘बगत अर पाणी में बराबरी है कै दोनूं ही बेवै, अर फरक औ है के एक रै बेवण री आवाज आप सुण सको अर दूजौ इत्तौ बोलो बोलो बेवै के सरपराट भी नीं सुण सकौ।’ (पेज- 47) ओ उपन्यास बगत री सरपराट सुणावण रो जतन कैयो जाय सकै। मिनखीचारै री बातां कैवतो ओ उपन्यास गांवां मांय सुख-साधना रै पूरा नीं हुवण रो दरद ई बखाणै। छोरी भलाई अमीर री हुवै का गरीब री, ठाकरां री हुवै का भलाई किणी कामदार री उण सूं एक ई उमीद करीजै- ‘बेटा ई खानदान रौ माण अर इज्जत थारै अडाणौ है। सासरै में एड़ौ जस कमाई के थारे मांईतां रौ जीवण धिन होय ज्यावै।’ (पेज- 58)  
    कांण-कायदा अर रीत-रिवाज रा रंग राखणिया परिवार री लाडली विजय री इण कथा मांय उपन्यासकार आशिया इण मांय लोक संस्कृति रा रंग कीं बेसी भरण रै चक्कर मांय निर्मल वर्मा नै जाणै विसर जावै। गीत-संगीत अर व्यांव रा रीत रिवाजां मांय लोक रो सगळो खजानो विगतवार उपन्यास मांय मिलै। संस्कारां मांय किसा किसा गीत अर किसी आडियां-ओखाणा सूं बन्नै-बन्नी रो सत्कार पीरै-सासरै मांय हुवै रो बखाण करतो ओ उपन्यास लोक संस्कृति रो नायाब हेमाणी नै अंवेरै पण आधुनिक उपन्यास री बुणगट जिण सूं गद्य रै आकास नै अद्भुत विस्तार री उमीद करीजै बा तूटती लखावै। फेर पेज 73 माथै ‘छोटो सो चंद्रमा मोड़ो कियां उग्यो सा’ गीत रो अरथाव ई देय’र आंचलिक धारा मांय उपन्यास जावण लागै। आगै विजय रा बींद संग्राम सूं लुगायां री रसभरी रीतां-गीतां सूं आधुनिक उपन्यास जाणै लोक-साहित्य कानी बधण लागै।
    ब्यांव नै घणो बगत ई कोनी हुयो कै विजय रै सासरै सांगवा सूं खबर आवै कै जंवाई सा संग्राम नीं रैया। करंट रै तारां सूं जंवाई संग्राम री मौत सूं भरी जवानी मांय विजय रो विधवा हुवण रै प्रसंग नै उपन्यास घणै मरम सूं उजागर कर’र पाछो चीला माथै आवै। अठै त्रासदी आ कै विजय सासरै रा कांई सुख देख्या अर बा कित्ता’क दिन सासरै रैयी। परण्या पछै दूसण परणीजण री बात ठाकरां रै रास कोनी आवै अर वगत अर पाणी बराबरी मांय बेवै जिको बेवै ई है। जियां कै हिंदी फिल्मां मांय केई वेळा आपां देख्य चुक्या अर केई रचनावां मांय बांच चुक्या कै विधवा आपरै धणी री घणी हर करै, वा गैलपणै मांय सुहागण रो बेस धारण करै सिणगार करै। इण ढाळै री वातां विजय साथै ई उपन्यासकार दरसावै। उमर रै आधेड़ै पूगता पूगता सरीर बीमारियां रो घर हुय जावै।
    ‘बगत मुट्ठी में भींच्योड़ी रेत रै जियां कद निकळतौ ठा ही करणौ दोरौ। परकती री आपरी चाल है बी रै शतरंज में मोहरा खाली मरे नीं पण जीवण कड़ी होऒं कड़ी जुड़यौ बिना कीणी प्रायोजक रक चालतो रैवै। जीवण तौ खाली एक भींत है जके रै दोनां काअनी पेड़यां लाग्योड़ी है। एके खानी चढौ अर दूजौ कानी उतर ज्यौ। सगळा ई लेण में लाग्योड़ा है। सन 2000 तांई भींवसर घणौ बदळग्यो हौ। धड़ा तोल से बदळ ग्या हा। नीं बदळ्यो तो विजय रौ सुभाव। बिन रूक्यं बळती चिता अग्नी बीं नें मांये सूं बाळती रेती। बी रै पूरै शरीर माथै सळ पड़ ग्या हा। विजय रा केस एक धोळी चोटी रौ रूप ले लियो हो। देवीसिंह अबे पौळ आगै बेठौ हुक्को गुड़गुड़ावतो रेवतो हो।’ (पेज 109-110)
    बीसवीं सदी रो बखाण करतो ओ बदळाव पीढियां रै बदळ’र जूनै रै जावण रो अर नवी रै आवण रो संकेत उपन्यासकार करै। घर सूं छूटी अर पीरै सूं इत्तै बरसां जुड़ण रो फळ सासरै मांय मिलै कै विजय रै हिस्सै-पांती मांय कीं नीं आवै। बा सांगवै पूग’र जाणै कै उण री दुनिया जिकी बरसां पैली लुटी ही अवै उण री राख ई लारै कोनी बची। स्सौ कीं भस्म हुयग्यो नवी सदी रै बदळावां मांय छळ-कपट कीं बेसी पांती आया। सांगवे आई विजय री तीसरी होळी ही अर बा इकोत्तर बरसां री हुयगी पण भींवसर सूं उण नै कोई संभाळी कोनी अर अठै उण री किणी नै कोई जरूरत ही ई कोनी। बा आपरै गुजर बरस तांई कचेड़ी तांई ई जावै पण राजकाज अर नियम-कायदा मांय उळझी दुनिया मांय उण रै पांती कीं नीं आवै। सज्जन सिंघ इत्तो सज्जन निकळै कै डोकरी विजय रा कूडै कागदां माथै दस्तखत करा’र जाणै उण रा प्राण ई ले लेवै कै बूढ़की दो टेम री रोटी सूं ई जावै। इण ढाळै सिंझ्या काळी-पीळी रात बण जावै।
    सिंझ्या उपन्यास इण खातर खरो अर साचो मानीजैला कै इक्कीसवीं सदी रै इत्तै बरसां पछै ई मोकळी इसी जागावां अर घर-गवाड़ां मिलैला जठै केई केई विजय आपरै बिखै रा दिन कोढ दांई काट रैयी है। नुवी हवा अर नुवै जमानै मांय लुगाई नै बरोबर न्याय अर हक देवणियां साम्हीं ओ उपन्यास खुद एक सवाल है। जे इण उपन्यास सूं विजय ढाळै री किणी पण लुगाई खातर घर-परिवार का समाज आपरी दीठ मांय बदळाव लावैला तो इण री सफलता मानीजैला। सेवट मांय बस इत्तो ई कै उपन्यास कीं खामिया पछै ई आपरै प्रभाव मांय खामियां करता खासियता कीं बेसी राखै। छेकड़ला अध्यायां मांय लेखक रो कथारस मांय बांचणियां नै तर करणो उण री बात कैवण री कला कैय सकां जिकी असरदार लखावै। भासा अर बुणगट पेटै इण प्रयोग सूं राजस्थानी गद्य रै आकास नै अद्भुत विस्तार मिलैला।   
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सिंझ्या (उपन्यास) अरविन्द सिंह आशिया
संस्करण- 2018, पाना- 128, मोल-150/-
प्रकाशक- बोधि प्रकाशन, जयपुर

Saturday, March 28, 2020

परभात रै बगत परभात क्यूं नीं हुयो / नीरज दइया

    संतोष चौधरी रो पैलो उपन्यास ‘रात पछै परभात’ घणी उमीद दरसावै। रात पछै परभात हुवती ई आई है, इण मांय नूंवी बात कांई? उपन्यासकार लुगाई जूण री अबखयां नै बखाणै कै ‘अबखयां’ सबद ई छोटो लागण लागै। रात अर परभात बियां तो दोनूं प्रतीक जाण्या-पिछाण्या अर कथा ई जाणी-पिछाणी। लुगाई जूण री अबखयां माथै केई रचनावां आगूंच आयोड़ी अर फेर ई आवैला। हरेक कथा आपारै बगत नैं अंवेरै। उपन्यास नैं रात अर परभात प्रतीक नैं परोटै पण आं दोनूं प्रतीकां बिचाळै जूझती लुगाई-जूण रै बखाण मांय नुबी भासा, रचाव अर बुणगट जीव जमावै जैड़ो। अठै असरदार बात आ कै लेखिका रात मांय जाणै रात रै रंगां नैं कीं बेसी सजावै। नायिका रै दुखां नै दरसावतां संतोष चौधरी आ सोचण नै मजबूर कर देवै कै लुगाई री जूण मांय रिस्ता नै निभावण खातर इत्तो धीरज कांई ठीक कैयो जावैला। असल में ओ उपन्यास एक रात पछै परभात रो संतरो दीठाव आपरी बुणगट रै मारफत राखै। सवाल अठै ओ पण करियो जाय सकै कै नायिका रै भाग मांय लेखिका उण री आखी जूण पछै सेवट क्यूं लिख्यो। जूण मांय जद खेलण खावण रा दिन हा का कैवां कै परभात रै बगत परभात क्यूं नीं हुयो? इण रो एक पडूत्तर ओ पण दियो जाय सकै कै लेखिका इण उपन्यास रै मारफत लुगायां नै आपरै परभात नै परभात रै बगत संवारण रो संदेस देवै, बा अठै ओ कैवणो चावै कै कृष्णा दांई जूण जीवणी ठीक कोनी। उपन्यास री अठै सफलता आ कैयी जावैला कै बा आपरो संदेस खुद नीं कैय’र खुद बांचणियां रै हियै आ बात ढूकती करै।
    रात फगत रात हुवै, काळी नागण रात रा किसा रंग-रूप हुवै। लेखिका जूण रै बिखै नै सबदां मांय ढाळती एक ऐड़ी रात रचै जिण मांय केई-केई रातां रळियोड़ी है। काळो रंग तो सगळै रंगा रो अंत मानीजै, सगळै रंगां नै जाणै काळो रंग गिटक जावै। काळो रंग तो सदीव सगळै रंगां माथै भारी पड़ै, बो रंग हुवता थका ई रंगां माथै पड़दो न्हाख दिया करै। काळै रंग मांय सगळा रंग ढकीज जावै, अठै काळै रंग नै राजस्थानी लुगायां रै बां संस्कारां नै आपां ओळख सकां जिण रै पाण बै मूढ़ै हरफ नीं काढ़ै। उपन्यास री नायिका रो नांव कृष्णा राखण रै लारै लेखिक रो स्यात ओ पण कारण हुय सकै कै उण री जूण मांय अणथाग अंधारै सूं भरियोड़ी रातां की बेसी लिखीजगी। लोक मानै कै बेमाता लेख लिख्या करै पण इण उपन्यास नैं तो लेखिका संतोष चौदरी रचियो है। आ लेखिका री चतराई हुय सकै कै बै नाटक विधा दांई घटनावां नै कीं बेसी प्रभावित करण खातर काळै रंग नै बेसी काळो दरसावै। असल में कृष्णा री जूण रै बेसी अंधारै नैं नाटकीयता मान सकां जिण सूं बांचणिया प्रभावित हुवै। राजस्थानी समाज मांय लुगाई री अबखयां-अंवळायां उण रै मरजादावां सूं कीं बेसी बंध्योड़ो रैवण रै कारण हुय सकै। इक्कीसवीं सदी तांई पूग्यां पछै ई अठै बंध्यग्या सो बंध्यग्या री मानसिकता हावी रैवै। आधुनिकता अर नवै जुगबोध पछै ई लुगाई अजेस आपरी आजादी तांई पूग नीं सकी। फेर आजादी हुवै कांई? कांई आपां रै आज रै जिण नै इक्कीसवीं सदी कैवतां आपां मोदीजा कांई आपां लुगाई जूण नै आजादी देय सक्या हां। उण नै मिनख रै बरोबरो रो दरजो ओ समाज हाल तांई कोनी देय सक्यो। झूठी अर कागजी बातां सूं साच कोनी लुको सकां। राजस्थानी समाज मांय लुगायां आपरी जूण मांय अंधारो ई अंधारो भोग्यो है। उण री जूण मांय दिन अर रात खुद उण रा हुवै ई कोनी। इण खातर अठै ओ कैवणो खरी बात मानीजैला कै उण री काळी रातां रो परभात अजेस बाकी अर उणी परभात री मांग ओ उपन्यास करै।
    उपन्यासकार संतोष चौधरी आपरै उपन्यास ‘रात पछै परभात’ मांय नायिका कृष्णा री आखी जूण-जातरा नै फ्लैस बैक मांय बरतता थका एक रात मांय जिका जिका दरसाव किणी फिल्म रै दरसावां दांई दरसावै बै प्रभावित करै। उपन्यास जूण री केई-केई मरम री बातां साम्हीं राखै। उपन्यास मांय संस्कारवान नायिका नै बगत री लाय मांय धुकती दरसाणो असल मांय संस्कारा अर सामाजिक सोच नै एक दीठ देवै। आ दीठ कठैई आरोपित कोनी करै। आ इण उपन्यास री सफलता मानीजैला कै बांचणियां नैं बांचता बांचता जाणै एक लांपो-सो लागण लाग जावै। ओ भासा-बुणगट सूं किणी लाय मांय सिकणो कैयो जाय सकै। लेखिका आपरै बांचणियां नै काळी रात अर काळै रंग मांय इसा डूबावै कै उणा रो आं रंगां सूं आम्हीं-साम्हीं हुयां काळजो कळपण लागै। गौर करण री बात आ भळै कै अठै ठौड़-ठौड़ लखावै कै ऐ रंग तो आपां रै देख्या-समझ्या हा पण चिंता आ हुवै कै अजेस आं नै इण ढंग-ढाळै देख्या-परख्या क्यूं कोनी। आपां उडीकण लागां कै नायिका विद्रोह करैला पण बा ठीमर बणी धीजो राखै। अर इणी बात सूं असल मांय ओ उपन्यास लुगाई-जूण नै देखण-समझण-परोटण री नवी दीठ दुनिया नैं देवै। ओ संसार मिनख अर लुगाई दोनां रै बरोबर रळियां चाल्या करै। बगत रै साथै आगै बधण अर नवै समाज री थरपणा खातर जद हाल ई जूनी दीठ अर दरसावां मांय घणो फरक कोनी आयो है तो कद आसी?
    उपन्यास मांय लेखिका ठेठ तांई नायिका रै पति रो नांव लेखिका सुरेश नीं लिख’र सुरेशजी लिख्यो है, जिण नैं आपां राजस्थानी भासा अर समाज रा संस्कार कैय सकां। कठैई-कठैई तो ओ ठीक है पण केई जगा ओ  जीकारै रो संस्कार अणखावणो लगै। इण रो कारण खुद सुरेशजी री हद दरजै री नीचतावां नै मान सकां। बो नवै समाज अर पढ़-लिख’र ई अणपढ़ां जैड़ो बरताव करै। कैवण नै तो अफसर है पण आपरै घरू कामां सूं बो ठेठ गंवार जट्टू कैयो जाय सकै। उण नै बस खुद री ई खुद री ठेठ तांई चिंता है। बो लुगाई-टाबरां थकां बारै भटकण मांय पाछ कोनी राखै। लगण लागै कै सुरेश मिनख नीं हुय’र कोई जिनवर का राखस जूण मांय जीवै। सुरेशजी पूरै उपन्यास रा नायक (क्यूं कै बै नायिका रा पति है) हुवता थका ई ठेठ तांई खलनायक रूप मांय साम्हीं आवै, जद कै नायिका अर अजयसिंह बिचाळै हेत-प्रीत, रिस्तै सूं बै सहनायक की भूमिका में हुवता थका नायक रूप ऊभा हुया है। उपन्यास आपरी जटिलतावां सूक्ष्मतावां रै कारण प्रभावित करै। एक ई बात नै इत्तै विगतवार खोल’र दरसावणो एक प्रयोग मानीज सकै। कैयो जाय सकै कै इण उपन्यास मांय केई घटनावां प्रसंग जे नीं हुवता तो ई मूळ बात मांय कोई फरक कोनी आवतो। अठै लेखिका रो पैलो उपन्यास हुयां केई बातां मांय छूट देय देवां तो खरोखरी ओ उपन्यास राजस्थानी महिला उपन्यास री साख बधावै जैड़ो मानीजैला।
    उपन्यास मांय सहज अर सरल भासा मांय ठेठ सूं लेय सेवट तांई नायिका री जूण रो लेखो-जोखो देख्या बेबी हालदार रो ‘आलो आंधारि’ चेतै आवै। उपन्यास री नायिका रो लेखिका बण’र पुरस्कार पावणो अर खुद री जूण मांय संतोष कै टाबरां नै मजल तांई पूगा दिया मोटी बात बेबी सूं जुड़ै। बेबी नै तातुस मिलै अर कृष्णा नै अजयसिंह। दुखां अर ठौड़-ठौड़ तकलीफां रो भंडार आखी दुनियां जाणै एक जैड़ो ई भोगै बो भलाई राजस्थान हुवै का बंगाल या कोई दूजी ठौड़। आ लुगाई जूण री त्रासदी कैयी जावैला कै राजस्थान बियां ई इण मामलै मांय लारै रैयो अर अजेस ई आपां लुगाई नै नवी हवा सूं लुकोय’र राखण मांय समझादारी गिणा। आ असलियत उपन्यास री नयिका कृष्णा जैड़ी केई केई कृष्णा पेटै हुय सकै। उपन्यास बांचणियां नै लगातार लखावै कै नायिका मून क्यूं झाल्योड़ी बैठी है। नायिका रो अबोलोपण ठेठ तांई अखरणो अर सेवट मांय बां रो बरसां न्यारा-न्यारा रैया अर तलाक रो मुकदमो चाल्या पछै ई कृष्णा रो दयिरादिल दरसावणो कै बा आपरै पति रै कार एक्सीडेंट पछै उण री सेवा अर देखरेख करण मांय जूण रो मारग पावै। इणी खातर म्हैं लिख्यो कै परभात रै बगत परभात क्यूं नीं हुयो। अबै सवाल ओ पण इण परभात नै कांई परभात मान लेवां? देस-दुनिया री जिकी कोई कृष्णा जठै कठैई हुवै का हुवैला कांई उण नै ओ मारग रुचैला? कित्ता कित्ता सुपना पछै बाप आपरो काळजो काढ़’र छोरी नै दूजै घर सूंप’र धीजो धारै। छोरी ई कित्ता-कित्ता सुपना लियां एक घर सूं दूजै घर टुरै। जे दूजै घर आपां रै घर री छोरी नैं रात पछै ओ परभात मिलै तो मून राखण मांय सार कोनी। छोरी जे कीं नीं कैवै तो उण रै माइत अर बडेरा री जिम्मेदारी अर जबाबदेही बेसी मानीजैला। आ सगळा सूं बेसी कांई आपां रो समाज आं सगळी विगत कृष्णा री जाण्यां पछै ई घर घर बैठी कृष्णावां खातर कीं नीं करैला।   
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रात पछै परभात (उपन्यास) संतोष चौधरी
संस्करण 2019 ; पानां 176 ; मोल 250/-
प्रकासक- राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, श्रीडूंगरगढ़

Thursday, March 26, 2020

एक उजाला किसी बड़े सपने जैसा : डॉ. नीरज दइया

    हिंदी व्यंग्य के क्षेत्र में पूरन सरमा एक बड़ा नाम है, उनकी मूल विधा व्यंग्य है। वे व्यंग्य के अलावा उपन्यास और नाट्य विधा में भी सक्रिय रहे हैं किंतु ‘सद्भाव का उजाला’ उपन्यास पढ़कर लगता है कि उनका बाल साहित्य के प्रति यह मानसिक दायित्व-बोध है जिसके रहते उन्होंने इसे लिखा है। सामाजिक विसंगतियों और बाल मनोविज्ञान को जनना-समझना दो अलग-अलग विषय है। व्यंग्य और बाल साहित्य के मूल उद्देश्यों में हम सामाजिक सद्भाव की स्थापना को प्रमुख मानते हैं। सद्भाव के लिए ही लेखक कलम चलाता है और निसंदेह बहुत सद्भाव और सभी रचनाओं-रचनाकारों के प्रति आदर के साथ समीक्षा और आलोचना को अपना दायित्ब निभाना होता है।
    उपन्यास का आरंभिक अंश देखिए- ‘सबुह नितिन की आंख खुली तो घर भर में सन्नाटा था। पापा-मम्मी दोनों के चेहरे सहमे हुए थे। एक बार तो उसे लगा कि कहीं कोई बात है। परंतु फिर वह अपनी दिनचर्या में व्यस्त हो गया। नाश्ते के बाद कपड़े पहन कर बाहर जाने को हुआ तो मम्मी ने टोका- कहां ज रहे हो, नितिन?’ यहां तक तो सब ठीक है किंतु इसके वाद इसका रहस्य कि बालक नितिन अपने दोस्त अहमद के घर सुबह सुबह दैनिक दिनचर्या से निपट कर जा रहा है और उसकी मम्मी उसे आज घर के बाहर नहीं जाने का अदेश देती है। बाल सुलभ सवाल कि लेकिन क्यों? जिसका जबाब उसे मिलता है कि बाहर कर्फ्यू लगा हुआ है- ‘हां, कर्फ्यू। कल रात को सम्प्रदायों में हुए झगड़े के बाद पूरे शहर में दंगे भड़क उठे तथा कर्फ्यू लगाना पड़ा है और सुनो तुम अब अहमद से अपनी दोस्ती भी कम कर दो। दोनों सम्प्रदायों में कट्टरता इस कदर बढ़ गयी है कि दोनों एक दूसरे के खून के प्यासे हो गए हैं।’ मम्मी ने कहा।
    बाल साहित्य को लेकर एक समस्या यह भी है कि उसके पाठक वर्गों में अलग अलग आयु में उनका मानसिक स्तर अलग अलग होता है और बदलता रहता है। ‘सद्भाव का उजाला’ उपन्यास का कथ्य और शैली से हम जान सकते हैं कि यह बाल उपन्यास नहीं वरन किशोर उपन्यास है। कर्फ्यू, दिनचर्या, संप्रदाय, कट्टरता और एक दूसरे के खून के प्यासे की मानसिकता समझने समझाने वाला आयुवर्ग किशोर ही होता है अथवा यहां यह भी कहा जा सकता है कि वर्तमान परिस्थितियों में बढ़ती तकनीक और आधुनिकता ने बालकों का बचपन छीन कर उन्हें बहुत जल्दी किशोर बना दिया है। एक तर्क यह भी दिया जा सकता है कि वे अपनी जिम्मेदारी और जवाबदेही जल्द समझ कर समय रहते बचपन छोड़ दे तो बेहतर है। बचपन का आनंद और किशोर जीवन की जटिलता दोनों भिन्न होती है। किशोर जीवन में भी आनंद होता है किंतु उसमें अनेक घटक समाहित होते हैं। यह समझदारी का ठेका जैसा उपन्यास में उपन्यासकार ने बच्चों को दिया है वे किशोर ही ले सकते हैं।
    परिवार का ताना बाना ऐसा होता है कि मां डांटती है तो पिता पुचकारते हैं और जब पिता डांटते हैं तो उन्हें मां अपने आंचल में छुपा लेती है और उनकी हर बात पर पर्दा डाल देती है। इस उपन्यास के पहले ही पृष्ट पर इसी तकनीक को प्रयुक्त किया गया है। पिता का कथन- ‘ठीक ही तो कह रहा है वह। अहदम से क्यों दोस्ती तोड़े। वही तो उसका जिगरी दोस्त है। तुम क्यों बच्चों को इधर-उधर की बातों में बहकाती रहती हो?’ (पृष्ठ- 7)
    कल रात के दंगे में मुख्य पात्र नितिन के दोस्त अहमद का घर जला दिया गया है। यह सब जानकारी अखबार से नितिन की मम्मी को मिली है और यहां आश्चर्य नितिन ने अखबार नहीं देखा है। चलिए कोई बात नहीं है बारह वर्ष का नितिन अखबार नहीं देखे तो हमें कोई ऐतराज नहीं है किंतु वह उपन्यास में यह कह रहा है ‘आप मुझे इतना अबोध क्यों समझती हैं मम्मी! मैं अब बड़ा हो गया हूं। सारी बते जानता-समझता हूं। मुझे पता है यह धार्मिक कट्टरता है तथा लोग एक-दूसरे के इसी कारण दुश्मन बन गये हैं।’ इसका अभिप्राय वह बहुत समझादार किशोर है। किशोरावस्था की आयु के विषय में भी मतभेद रहे हैं कोई इसे 10 वर्ष की आयु से 19 वर्ष तक की आयु तक मानते हैं तो कुछ मनोवैज्ञानिक इसे 13 से 18 वर्ष के बीच की अवधि मानते हैं। यह भी धारणा है कि यह अवस्था 24 वर्ष तक रहती है। भले किशोरावस्था को निश्चित अवधि की सीमा में नहीं बांधा जा सकता हो और अलग अलग बालक के लिए यह अलग अलग भी हो सकती है किंतु नितिन किशोर इसलिए भी है कि वह उपन्यास में ऐसे कारनामों को अंजाम देता है जिस पर सभी दांतों तले अंगुली दबाते हैं।
    उपन्यास में निति को उसके पिता कहते हैं- ‘नितिन, हमारे राष्ट्र का संविधान धर्मनिरपेक्ष है तथा यहां व्यक्ति को अपना धर्म मानने-पूजने की पूर्ण स्वतंत्रता है। यहां किसी पर यह दबाव नहीं होता है कि वह अमुक धर्म को माने या न माने। लेकिन राजनेताओं की गंदी राजनीति ने आदमी, आदमी के बीच धर्म की दीवार खड़ी कर दी है, ताकि वे अपना उल्लू सीधा कर सकें। मैं कहता हूं कि इस देश का पता नहीं क्या होगा?’ (पृष्ठ- 9) नितिन अपना दायित्व समझते हुए इस झूठी मानवता के विकास को नकार देता है और नई सदी में अपनी बर्बरताओं को छोड़ने के लिए उपन्यास में प्रयास कर सब कुछ सुधार देता है। उपन्यास में सद्भाव का एक उजाला जो नितिन द्वारा फैलाया गया है वह किसी बड़े सपने जैसा लगता है। वह अपनी मित्र मंडली के साथ वह सब कुछ संभव कर देता है जो असंभव लगता है और है भी असंभव। यहां दो सवाल कर सकते हैं कि क्या यह उपन्यास किशोर और बाल पाठकों को माता-पिता की बातों की अवहेलना करना सीखा रहा है अथवा एक काल्पनिक दुनिया में लेजाकर उनकी क्षमताओं का परिवृत निर्मित कर रहा है। दोनों ही स्थितियां खतरनाक है। यदि बालक किशोर अपने अभिभावकों अथवा सरकारी आदेश के विरूद्ध जाकर कुछ करेंगे तो क्या वह हितकर होगा। क्या किसी स्थान पर कट्टरता और धार्मिक द्वंद्व हो वहां बच्चों के कहने समझाने भर से माता पिताओं द्वारा समस्या का समाधान कर लिया जाएगा। सब कुछ लेखन के नितिन के माध्यम से संभव कर हैप्पी अंत कर दिया है।
    उपन्यास यथार्थ के धरातल पर परखने पर कपोल कल्पना सा लगता है और किसी को भी सहजता से यकीन करने वाली बातें यहां नहीं है। जिला कलेक्टर और मुख्यमंत्री महोदय तक को नितिन ने अपने जादू से सम्मोहित कर दिया इस उपन्यास में जो निसंदेह उल्लेखनीय है। काश हमारे समाज में ऐसे सपनों के द्वारा अच्छी सामाजिक व्यवस्था बनती। काश विकास कार्यों की बागडोर भी किशोर वर्ग के हाथों उनकी अगुवाई में हमारा समाज सौंप पाता। सच्चाई यह है कि हमारे समाज में धन, सत्ता और धर्म की बागडोर मरते दम तक अपने ही हाथों में थामे रखने वालों की बहुत बड़ी जमात है। ऐसी किसी जमात के सामने नितिन जैसे किशोर ना तो खुद खड़े होने का साहस कर सकते हैं और ना उनके परिवार उन्हें ऐसी इतनी छूट देने की हिम्मत दिखा सकते हैं। बाल मनोविज्ञान में यह काल्पनिकता लुभाने वाली जरूर है कि एक उजाला किसी बड़े सपने जैसा उपन्यासकार ने उनके सामने रखने का प्रयास किया है किंतु यहां जो कुछ सीखने की बात है वह बड़ी खतरनाक है। भाषा-शैली सब कुछ प्रभावित करती है और आंरभ भी बहुत अच्छा है किंतु इस मार्ग की परिणति ठीक नहीं कही जा सकती है। प्रकाशक ने चित्रकार को अधिक महत्त्व नहीं देकर चित्रों की कुछ व्यवस्था करने का प्रयास भर किया है, जो सराहनीय नहीं है। बाल और किशोर साहित्य में रचनाओं के साथ-साथ चित्रों और साज-सज्जा का भी पर्याप्त ध्यान दिया जाए तो बेहतर होगा।
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पुस्तक : सद्भाव का उजाला (बाल उपन्यास)
लेखक : पूरन सरमा
प्रकाशक  : वनिका पब्लिकेशन्स, एन ए- 168, गली नं.- 6, नई दिल्ली- 110018
संस्करण : 2019, पृष्ठ : 40, मूल्य : 80/-

Sunday, March 22, 2020

आत्मकथा अर आत्मकथात्मक उपन्यास रो आंटो / नीरज दइया

    उपन्यास ‘करड़कूं’ (मनोज कुमार स्वामी) सिरैनांव पेटै ओ सवाल करीजै कै ‘करड़कूं’ रो मायनो कांई हुवै? लेखक उपन्यास री सरुवाती ओळ्यां मांय इणी सबद सूं इण उपन्यास नै चालू करै- ‘करड़कूं आळी बात पैली लिख ई दिनी ही। अबै फगत उण कौथ सूं बात सरू करस्यूं, ‘पत्थर री पाणी मारियो, तैं पाणी मारियो आग, पाणी रो पाणी मारियो, क्यूं जलम लियो निरभाग।’ इण पैली लिखण रो मायनो पूरी पोथी मांय कठैई कोनी मिलै अर ना भूमिका लेखक डॉ. रमेश मयंक इण पेटै कोई खुलासो करै। ‘पैली लिख ई दिनी’ ओळी रो मायनो लेखक री आत्मकथा पोथी ‘खेचळ अर खेचळ’ मांय मिलैला। उण पोथी मांय लेखक आपरी बात ई सिरैनांव ‘करड़कूं’ सूं राखी अर जिण नै लेखक-प्रकासक अर भूमिका लेखक उपन्यास कैवै रो विगतवार खुलासो मिलैला। ‘दोहे रो अरथाव करियै बिन्या बात चरूड़ हुवती दिस्सै कोनी। बात ईयां कै, इण मरूभोम में किणी ठोड़ कोई कवि खीचड़ो जीमै हो, अर जाड़ हेठै अेक जरड़ाट बाज्यो, बण मूं स्यूं काढ़’र हाथ में लियो स्यात कांकरो हुवैलो। देख्यो तो अेक मोठ रो दाणो दांतरी काढ़ै हो। ओ मोठ रो दाणो हो ‘करड़कूं’ जणा कवि ऊपरलो दोहो कथ्यो- कै पैली तो चाकी का ऊंखळी माखर तूं साबत बचग्यो अर फेर पाणी मांय उबळियो अर अगनी मांय सिक्यो। पण फेर भी करड़ो रैह्यो रे निरभागी तूं जलम क्यूं लियो।’ (खेचळ अर खेचळ : पेज-7)
    लेखक खुद नै खुद री जूण जतरा पेटै ‘करड़कूं’ समझै। ओ लेखक रो मानणो है पण आत्मकथा अर ‘करड़कूं’ नैं बांच्या पाठक ओ फैसलो करैला कै लेखक रो खुद नै ‘करड़कूं’ मानणो कित्तो वाजिब है। मनोज कुमार स्वामी सूं घणी अपणायत अर हेत साथै अठै ओ लिखणो जरूरी लखावै लखावै कै भाई ‘करड़कूं’ नै उपन्यास कैयो बो असल में आत्मकथा रो ई दूजो भाग कैयो जावै तो ठीक रैवैला। उपन्यास अर आत्मकथा पेटै आपां जाणा कै दोनूं मांय जीवण री विगत बेसी हुया करै अर उपन्यास रा केई प्रकार हुवै जिण मांय ‘आत्मकथात्मक उपन्यास’ रो ई घणो रुतबो रैयो है। केई विद्बानां रो मानणो है कै लेखक उपन्यास रै नांव माथै खुद री आत्मकथा अर उण रा केई केई खांचा उजागर करिया करै। जूण रो जथारथ ही रचना मांय साम्हीं आवै। ‘करड़कूं’ मांय लेखक मनोज कुमार स्वामी री जूण जातरा रो जथारथ मिलै फेर इण नै उपन्यास का आत्मकथात्मक उपन्यास क्यूं नीं कैयो जाय सकै। अठै मोटो सवाल ओ कै आत्मकथा अर आत्मकथात्मक उपन्यास रो आंटो लेखक कित्तो जाणै। पत्रकार-लेखक साहित्य री केई विधावां मांय बरसां सूं सक्रिय रैया है अर भासा आंदोलन सूं ई गैरो जुड़ाव रैयो है। जाणकार आ बात ई जाणै कै लेखक रै हियै भासा अर साहित्य नै लेय घणी तकलीफ है। तकलीफां तो बां री निजू जिंदगी मांय घणी ई रैयी जिण रो पूरो पूरो विगतवार खुलासो आ दोनूं रचनावां सूं अणजाण ई जाण सकै।
    राजस्थानी मांय आत्मकथाव साव कमती लिखीजी अर उपन्यास विधा पेटै ई अजेस आपां उमीद करां कै घणो काम हुवणो बाकी। हरख-कोड री बात आ पण कै मनोज कुमार स्वामी आ दोनूं विधावां मांय रचण री खेचळ करी। अठै आ बात पण विचारणी पड़ैला कै बै आपरी आत्मकथा रै दूजै भाग नै उपन्यास नांव क्यूं दियो? आत्मकथा ‘खेचळ अर खेचळ’ री भूमिका लिखता पत्रकार करणीदान सिंह राजपूत लिखै- ‘मनोज कुमार स्वामी अबखाइयां भरी बात सुणावै बतावै, लिखै जणा लागै आपणै सामी कोई साची-साची फिल्म चाल’री है। हो सकै लिखणै, बोलणै अर बतावणै री आ ताकत पत्रकार लेखक बण जावण रै कारण आई होवै।’ अर उपन्यास ‘करड़कूं’ री भूमिका लिखता डॉ. रमेश मंयक लिखै- ‘म्हारी दीठ मांय आपणी कलम रै पांण घर-गिरस्ती री गाड़ी खेंचण रो बयान करतो, मरूभोम मांय ऊकळती जिंदगाणी रो मंडाण करतो ओ आंचलिक उपन्यास आप री छाप छोड़ैगो। जिण सूं मायड़ भासा रो मांन बधसी।’ हरेक विधा रा खुद रा मानक हुया करै जिण नै पूरा करणा हुवै। सवाल ओ है कै किणी आत्मकथा नै लेखक उपन्यास रो रूप कियां देय सकै अर अठै ‘करड़कूं’ पेटै लेखक सूं इस्सो कांई-कांई छूटग्यो जिण सूं आ रचना विधा रै मानका नै पूरा नीं करै।
    हुय सकै दूजी भासा मांय आ बात सावळ कैयीजै का कोनी कैयजी पण राजस्थानी मांय अेक ओळी मांय कैवां तो आत्मकथा मांय फगत खुद रो दळियो दळीजै अर उपन्यास मांय उण दळियै मांय सगळा रो पख भेळो राखीजै। ‘करड़कूं’ मांय लेखक मनोज कुमार स्वामी ‘खेचळ अर खेचळ’ रै दळियै नै आगै बधावै। दळियो दळण सूं म्हारो मायनो खुद री गिंगरथ गावण सूं मानजो। लेखक खातर घणै आदर अर प्रेम मांय कोई कमी कोनी, पण बै खुद री जूण रै इण बखाण मांय बाळपणै सूं लेय’र जवानी तांई कठैई लेखक का पत्रकार रूप सावळ ऊभा कोनी दीसै। ‘लगै टगै सगळा साहित्यकारा री पोथ्यां रा आयोजन म्हारै सैहर मांय करवाया अर बै भी टणकवां। मोकळा दरसकां रै बीचाळै। अभिभूत हुयोड़ा अै साहित्यकार कैवता कै ‘अठै तो म्हारो घर है जाणै।’ पण जद अठै रै लिखारां री पोथ्यां छप छपगै आवण लागी तो आ लूंठा साहित्य कारा अेक भी पोथी रो पाठक मंच आपरै गांव, सैहर मांय करावण री भूल कोनी करी। म्हैं घणी बर सोचूं कै- ‘का तो आपणी पोथ्यां मांय धांस ई कोनी। का बोळी धांस है जिण सूं अै लोग डरै है।’ (करड़कूं : पेज 88)
    पोथी मांय लेखन अर पत्रकरिता सूं जुड़िया केई घटना प्रसंग लेखक बतावै। इण बतावण मांय लेखक रो पत्रकार रूप हावी दीखै कै बै हरेक सांच नै कैवण री जुगत करै पण उण किणी साच लारै कांई मनगत हुय सकै उण री विगत साव कमती अठै मिलै। दाखलै रूप बात करां तो लेखक री जूण मांय आरथ री इत्ती जबरदस्त मार रैयी कै बै उण सूं मुगत हुय ई नीं सक्या। केई ठौड़ बांचता दया आवण लागै कै जलम सूं लेय अबार तांई दिन पटलता थकां ई लेखक नै खुद रै रचाव माथै का किणी दूजै रै रचाव माथै मोहमाया क्यूं कोनी। भरत ओळा रै साहित्य अकादेमी पुरस्कार अर भासा मान्यता आंदोलन रै अध्यक्ष बदळण रा प्रसंग हुवै भलाई रथ जातरा री बात सगळी ठौड़ भासा अर कैवणगत मांय लेखक खुदोखुद री बात बतावै। सगळी जाणकारी कै घटनावां इयां इयां हुई। लेखक री याददास्त गजब री कैयी जाय सकै कै बां नै स्सौ कीं विगतवार चेतै आवै अर जूण नै आं पोथ्यां रै मिस जाणै दूसर घाव मांय घोबा करै। ओ काम सरल कोनी हो जिको मनोज कुमार स्वामी कर दिखायो है। पत्रकार करणीदान सिंह राजपूत ‘खेचळ अर खेचळ’ री भूमिका रो सिरैनांव- ‘बाप दूजी परणै तो औलादां गुलामी भौगे’ खरो दियो है। आं रचनावां नै लिखणो घणो हिम्मत री बात मानीजैला अर आ हिम्मत दिखावणो लेखक ‘करड़कूं’ नीं हुय सकै। ओ उण रै मन रो कूडो वैम है कै खुद नै अलग थलग विचारै जद कै बै इण बगत समय अर समाज रै साथै रळमिल’र आगै आगै बधता जाय रैया है।      
    लेखक मनोज कुमार स्वामी री भासा अर कैवणगत मांय लोककथावां दांई रस है पण अेक पत्रकार-लेखक री भासा मांय भास विकास, समरूपता अर मानकीकरण रो सोच निजर नीं आवै। अठै ‘करड़कूं’ मांय लेखक आपरै अनुभवां नै जिण खातर चोट करै जिसी ओळी है कै दळियो दळती बगत फगत अेक दीठ सूं चीजां नै देखै। बां रै साथै जूण मांय घर-परिवार अर मित्रां सूं जुड़ी केई केई अबखाया रैयी अर बां नै सदीव चोट ई चोट मिली। आं चोटां बिचाळै बां रै मांयलो मिनख केई बार केई बातां विचारै पण फेर जद कोई मौको आवै तद बां बातां नै बिसर देवै अर नवी चोट खावण नै बै स्सौ कीं भूल’र निरमळ मन सूं निकळ पडै। कैवणो चाइजै कै बां री लेखनी सूं घर-परिवार री केई केई अबखी बातां साम्हीं आवै जिण माथै रोवणो ई आवै साथै ई पत्रकार-लेखक री चमचमावती दुनिया रा अंधारा अठै आपां नै उल्लेखजोग रूप मांय देखण नै मिलै। समाज रै न्यारै न्यारै वर्गां री त्रासदियां रो बखाण आं दोनूं पोथ्यां मांय मिलै।
    ‘लिखण पढ़ण रो थोड़ो सौंक म्हरै ई चढ़ग्यो हो बा दिना में। पैंटिंग करणै रो कोड भी हो। केई फोटूवा बणाई ही। कीं कहाणी का कविता लिखतो तो बां दिनां हड़मानगढ़ स्यूं तेजकेसरी में भेज देंवतो। सूरतगढ़ स्यूं कृष्ण सोनी आअजाद रो सीमा की ललकार, अर मुरलीधर उपध्याय रो हिन्द ज्योति, नेमीचंद छींपा रो कन्ट्रीब्यूसन अखबार छपता हा। आं मैं लिखेड़ो भेज देंवतो। छप ज्यांवतो जणां वै अखबार भेजता डाक स्यूं। नाम छपेड़ो अर पतै पर अखबार आयोड़ो देख’र राजी हुंवतो।’ (खेचळ अर खेचळ : पेज 105) लेखक रै परणियां पछै टाबर-टींगर हुयां पछै री आ सगळी विगत सूं लगती बात सूरतगढ़ मांय शिव गर्ग आळी बरतणाळी दुकान आगै री लेखक बतावै जठै कृष्ण सोनी आजाद अर शिव गर्ग ई बैठा हा कै बां आजाद जी री जेव मांय सूं राजस्थान सरकार रै अधिस्वीकृत पत्रकार रो कार्ड जिको बां री जेब सूं मूढो काढै हो बिना पूछै काढ़ियो अर देख्यो तद बां कारड खोस लियो अर बोल्या- ‘ओ सरकारी कार्ड है, इणनै हर कोई, कोनी हाथ लगा सकै। ओ म्हारै पत्रकारा रो हुवै समझयो के?’ अर आ ओळी लेखक रै लागगी बां संकळप करियो कै अेक दिन इस्सो कार्ड खुद री जेब मांय घालैला। इणी दीठ अखबार निकाळण लाग्या अर अंक दीठ खरचो तीन च्यार सौ करणो पांच सौ प्रतियां छापणी लेखक री जूझ नै दरसावै। अबखै बगत मांय कोई बात धार लेवणी अर उण नै पार घालणी सरावणजोग बात मानीजै। लेखक री इण जूझ रो सम्मान। देस मांय इण ढाळै रा छोटा-छोटा प्रयास ई पूरै कारज पेटै भलाई गिणीजो ना गिणीजो पण जे आ असली लड़ाई ना हुवै तो कोई किणी मुकाम माथै कोनी पूग सकै।
    जिकी जूण इत्ती अलूणी हुवै उण मांय हरख प्रीत का रंग रो सोच ई कियां कर सकां। अगन मांय तप’र सोनो खरो हुवै अर मनोज कुमार स्वामी खरा मिनख बाजै। ‘करड़कूं’ ई असल मांय खेचळ अर खेचळ री विगत रो विस्तार है अर इण सारू उण पोथी रो ओ दूजो भाग है, जिण सूं बां री जूण-जातरा री कथा साम्हीं आवै। अबै सवाल ओ पण हुय सकै कै लेखक री जूण ‘करड़कूं’ ज्यूं क्यूं कोनी? इण रा केई कारण दिया जाय सकै। पैलो अर मोटो कारण तो ओ ई कै बां रो आज पत्रकारिता अर साहित्य जगत मांय खासो नांव जाणीजै। कांई जे बै पत्रकार का साहित्यकार नीं हुवता तो दुनिया मांय बै जाणीजता। बां रा सागी भाई ओम जी पत्रकार अर लेखक कोनी तद उण रा जाणकार मनोज जी रै जाणकारां री तुलना मांय साव कमती। घर-गिरस्ती रो गाडो हरेक नै आपरी जूण मांय खांचणो पड़ै। किसमत रै लेख साथै करम री बात ई मोटी। मनोज कुमार स्वामी आपरी जूण नै भाग भरोसै कोनी छोड़ी बै आं दोनूं पोथ्यां रै पाण बगत सूं जुध करता नित आगै बधणवाळा सिरै मिनख रूप साम्हीं आवै। बां री जूण इण ढाळै सगळै मानखै नै सीख देवै कै जे भाग रै भरोसै बैठालां तो कांई नीं हुवैला। जूण मांय करम करियां सूं ई भाग बदळीज सकै। किणी पण टाबर रो जलमणो उण रै खुद रै हाथ मांय कोनी हुवै। दुनिया रो कोई पण टाबर जिण किणी चाकी मतलब पेट सूं बारै आवै उण मा नै नमन कै उण सूं जूण री बेल बधी। सिरजण ई मोटी बात मानीजै। अेक मा रो सिरजण टाबर हुवै तो सावचेत मिनखां रो सिरजण इण दुनिया नै नेम कायदा सूं आगै बधावणो। पत्रकारां अर लेखकां-कवियां री जिम्मेदारी दूजा करता कीं बेसी।
    बगत री ऊंखळी मांय धमीड़ खाया पछै कोई साबत बचैला का नीं बचैला ओ खेल बगत अर किसमत रो। मिनख री मोटी हेमाणी उण रा दोय हाथ हुया करै जिण रै ताण बो कदैई निरभागी कोनी कैयो जाय सकै। जे राम नैं माना तो उण रै घरै किणी खातर कोई भेदभाव का कमती-बेसी री बात कुण स्वीकारैला। देवणियो दियो जिको आगलै-लारलै जलमां रै करमां रो फल मानीजै अर आगे ई आ बात चालैला। जूण मांय अलेखू बातां रो निवेड़ो इण जूण मांय नीं हुय सकै। हरेक जूण तो बस खेचळ अर खेचळ ई हुया करै सो ‘करड़कूं’ करता सिरैनांव ‘खेचळ अर खेचळ’ घणो अरथावू लखावै।
    हिंदी मांय ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ अर ‘शेखर एक जीवनी’ घणी चावी पोथ्यां दोनूं ई उपन्यास विधा री टाळ्वी पोथ्यां मानीजै। बगत कैवां का किसमत री त्रासदी लेखक मनोज कुमार स्वामी साथै आ रैयी कै बै जिण परिवार सूं आवै उण मांय बां री पढ़ाई-लिखाई पूरी अर सावळ कोनी हुई। बां रै जोस अर ऊरमा री दाद देवणी पड़ैला कै बां पाखती जोरदार भास अर खुद री बात बतावण री जोरदार अटकळ सिरै जरूर पण आत्मकथात्मक उपन्यास रो आंटो अठै कोनी मिलै। छतापण ओ कैवणो पड़ैला कै अै दोनूं पोथ्यां राजस्थानी आत्मकथा रै विगसाव अर विकास पेटै घणै गीरबैजोग काम गिणीजैला।
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  • खेचळ अर खेचळ (आत्मकथा) मनोज कुमार स्वामी संस्करण- 2015 पानां-136 मोल- 100/- 
  • करड़कूं (उपन्यास) मनोज कुमार स्वामी संस्करण-2019 पानां-116 मोल-120/- 
  • दोनूं पोथ्यां रा प्रकासक- बोधि प्रकाशन, जयपुर 
  • डॉ. नीरज दइया की प्रकाशित पुस्तकें :

    हिंदी में-

    कविता संग्रह : उचटी हुई नींद (2013), रक्त में घुली हुई भाषा (चयन और भाषांतरण- डॉ. मदन गोपाल लढ़ा) 2020
    साक्षात्कर : सृजन-संवाद (2020)
    व्यंग्य संग्रह : पंच काका के जेबी बच्चे (2017), टांय-टांय फिस्स (2017)
    आलोचना पुस्तकें : बुलाकी शर्मा के सृजन-सरोकार (2017), मधु आचार्य ‘आशावादी’ के सृजन-सरोकार (2017), कागद की कविताई (2018), राजस्थानी साहित्य का समकाल (2020)
    संपादित पुस्तकें : आधुनिक लघुकथाएं, राजस्थानी कहानी का वर्तमान, 101 राजस्थानी कहानियां, नन्द जी से हथाई (साक्षात्कार)
    अनूदित पुस्तकें : मोहन आलोक का कविता संग्रह ग-गीत और मधु आचार्य ‘आशावादी’ का उपन्यास, रेत में नहाया है मन (राजस्थानी के 51 कवियों की चयनित कविताओं का अनुवाद)
    शोध-ग्रंथ : निर्मल वर्मा के कथा साहित्य में आधुनिकता बोध
    अंग्रेजी में : Language Fused In Blood (Dr. Neeraj Daiya) Translated by Rajni Chhabra 2018

    राजस्थानी में-

    कविता संग्रह : साख (1997), देसूंटो (2000), पाछो कुण आसी (2015)
    आलोचना पुस्तकें : आलोचना रै आंगणै(2011) , बिना हासलपाई (2014), आंगळी-सीध (2020)
    लघुकथा संग्रह : भोर सूं आथण तांई (1989)
    बालकथा संग्रह : जादू रो पेन (2012)
    संपादित पुस्तकें : मंडाण (51 युवा कवियों की कविताएं), मोहन आलोक री कहाणियां, कन्हैयालाल भाटी री कहाणियां, देवकिशन राजपुरोहित री टाळवीं कहाणियां
    अनूदित पुस्तकें : निर्मल वर्मा और ओम गोस्वामी के कहानी संग्रह ; भोलाभाई पटेल का यात्रा-वृतांत ; अमृता प्रीतम का कविता संग्रह ; नंदकिशोर आचार्य, सुधीर सक्सेना और संजीव कुमार की चयनित कविताओं का संचयन-अनुवाद और ‘सबद नाद’ (भारतीय भाषाओं की कविताओं का संग्रह)

    नेगचार 48

    नेगचार 48
    संपादक - नीरज दइया

    स्मृति में यह संचयन "नेगचार"

    स्मृति में यह संचयन "नेगचार"
    श्री सांवर दइया; 10 अक्टूबर,1948 - 30 जुलाई,1992

    डॉ. नीरज दइया (1968)
    © Dr. Neeraj Daiya. Powered by Blogger.

    आंगळी-सीध

    आलोचना रै आंगणै

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