Sunday, January 27, 2019

बच्चों से जुड़ी समस्याओं का निरूपण / डॉ. नीरज दइया

बाल साहित्य की सुपरिचित हस्ताक्षर सुकीर्ति भटनागर के नए संग्रह- ‘पोहे वाली दादी’ में छह कथाएं हैं। संग्रह की अंतिम और शीर्षक कहानी ‘पोहे वाली दादी’ की सौम्या डॉक्टरी की प्रवेश परीक्षा की तैयारी करने अपने पिता से साथ चंडीगढ़ गई जहां न तो उनका कोई संबंधी था और न ही जान-पहचान वाला। वहीं उसे पोहे वाली दादी मिली और वह अनजान बंधनों में बंधी इस कहानी में डॉक्टर बनकर बिना बताए दादी से मिलने चंड़ीगढ़ जाती है। जहां उसे मालती आंटी से पता चलता है कि दादा-दादी तो वहां नहीं है, वे अपने बेटे-बहू के साथ अमेरीका चले गए हैं और उनका यह घर बिकने वाला है। डॉक्टर सौम्या का मुहबोली दादी का घर खरीदने और वहां निजी क्लीनिक खोलने का उत्तम विचार है।
    ‘पोहे वाली दादी’ कहानी को लेकर कुछ संकाएं हैं। बड़े-बूढ़े और युवा आदि पात्र बाल कहानियों में हो सकते हैं किंतु यह विचार करना जरूरी है कि कोई बाल कहानी कैसे बनती है और कैसे वह उस श्रेणी से बाहर होती नजर आती है। यहां कहानी को जिस फ्लैश-बैक अंदाज में रचा गया है और जिस मनोविज्ञान से व्यंजनाएं उभारने का प्रयास है वह वालको के लिए ग्राह्य नहीं है। हां यह किशोर साहित्य की परिसीमा में तो रखा जा सकता है कि वे इस कहानी का संदेश आत्मसात कर सकें। संबंधों की नई परिभाषाएं गढ़ती इस कहानी में वतर्मान संदर्भों से तुलना करें तो अविश्वसनीयता नजर आएगी। इस बदलती दुनिया में पोहे वाली दादी या दादा चंड़ीगढ़ या कहीं अन्यत्र मिलना बेहद कठिन है। स्वार्थों से भरी इस दुनिया में ऐसी कल्पनिक दुनिया जरूर सुखदायक है। कहानी में दादी का एक पत्र भी उल्लेखित हुआ है। पत्र का समापन तो किताब में दृश्यगत है किंतु आरंभ के लिए पाठकों को सोचना-विचारना होगा। फिर दादा-दादी से सौम्या फोन पर बाद में भी बातें करती थी तब ऐसे पत्र का क्या औचित्य रह जाता है।
    कहानी ‘मन की बात’ में सात वर्ष की नवधा की मनोग्रंथी का निदान उसकी बुआ तरला के माध्यम से दिखाया गया है। माता पिता का लड़के-लड़की में फर्क करना और अंत में पिता का अपनी बहन के ब्लॉग से मन की बात शीर्षक का आलेख पढ़ कर अपनी पत्नी को पढ़वाना और दोनों का हृदय-परिवर्तन किसी आश्चर्य से कम नहीं है। आश्चर्य तो इस बात का भी है कि बाल साहित्य के क्षेत्र में सोलह कहानी संग्रह सुकीर्ति भटनागर के प्रकाशित हो चुके हैं ऐसा पुस्तक के अंत में उनके परिचय में दिया गया है और तब भी इस कहानी में वे बाल मनोविज्ञान से संबंधित आलेख और बाल कहानी में अंतर नहीं कर पा रही हैं। निसंदेह यहां एक बहुत बड़ी समस्या का निरूपण किया गया है किंतु इसे बाल कहानी कहना उनकी जिद्द है। इस कहानी का एक अंश देखें- ‘अब वह तीन-चार वर्ष का हो गया था और स्कूल जाने लगा था। पर पढ़ने में उसकी तकिन-सी भी रुचि नहीं थी। जब कभी पढ़ाई की बात को लेकर नवधा से उसकी तुलना की जाती तो वह बुरी तरह चिढ़ जाता और ”नवा गंदी है, नवा गंदी है” कहते हुए रो-रो कर सारा घर आसमान पर उठा लेता, उसकी कापियां-किताबें फाड़ देता, पर उसे समझाने या टोकने के स्थान पर मम्मी उसे पुचकारते हुए कह देती, “अरे बेटा, अभी तो आप छोटे हैं न, पर थोड़े बड़े हो जाने पर दीदी से कहीं अधिक अच्छे नम्बर आएंगे आपके, क्योंकि आप बहुत समझदार हैं।” तब मम्मी की ऐसी चिकनी-चुपड़ी बातें सुन वह फूल कर कुप्पा हो जाता।” (पृष्ठ-51)
    इसी भांति ‘स्टोर रूम’ कहानी में लेखिका हम बड़ों और बच्चों के अभिभावकों को संदेश देती है कि बाल साहित्य के स्थान पर बच्चों को ‘मनोहर कहानियां’ पढ़ने को नहीं देना है। घर में ऐसी पत्रिकाएं छिपा कर रखनी है अन्यथा बच्चे स्टोर रूप में जाकर चुपके चुपके पढ़ेंगे और मनोरोगों के शिकार बनेंगे। संग्रह में एक बाल कहानी ‘कहानी’ शीर्षक से है जिसमें एक मां कहानी लिखने के विषयों पर बात कर रही है। कहानी के अंत में घर के बच्चे बड़े समझदार हो गए हैं कि घर की नौकरानी की बिटिया को स्कूल पढ़ने के बड़े बड़े त्याग करते हैं। इस कहानी का एक अंश देखें- “और मां, मैं सोच रहा हूं कि अपने जन्मदिन पर बहुत महंगे कपड़े न खरीद कर साधारण कपड़े ही खरीदूं। न भी खरीदूं तो भी चलेगा। स्वयं पर पैसे खर्चने की अपेक्षा मंगला दीदी के लिए ही एक स्कूल ड्रेस और बनवा दें तो अच्छा रहेगा। उनका तो बस्ता भी बहुत पुराना और गंदा-सा है, वह भी नया होना चाहिए।” “आप तो बहुत ही समझदार हैं भाई। यदि हम कुछ ऐसा ही करते रहें तो मंगला दीदी भी हमारी तरह स्कूल जाती रहेंगी। पढ़ना तो बहुत अच्छी बात है न, इससे जीवन संवरता है। ऐसा हमारी टीचर दीदी कहती हैं, क्यों मां?” “हां बेटी, आपकी टीचर दीदी बिल्कुल सही कहती है। जैसे हमारे स्वास्थ्य के लिए खाना-पीना, सोना-जागना आवश्यक है, वैसे ही जीवन को सही ढंग से जीने और सोद्देश्यपूर्ण बनाने के लिए शिक्षित होना भी आवश्यक है।’ (पृष्ठ-44)
    ऐसी बड़ी-बड़ी बातों की कहानियों के बीच दो कहानियां ‘आलू पुराण’ और ‘सपने’ भी हैं। बाल कहानियों को जिन बाल मनोविज्ञान के साथ निर्वाह करना होता है उसकी एक झलक ‘सपने’ कहानी में मिलती है। एक छोटी बच्ची के सपने उसकी अपनी आंखों से यहां लेखिका ने बेहद मार्मिक ढंग से चित्रित किए हैं। दो परिवारों को बीच अर्थ के कारण स्थितियों का अंतर और समायोजन का सुंदर निरूपण इस कहानी में मिलता है। इसी भांति ‘आलू पुराण’ में आलू चिप्स के आविष्कार जॉर्ज स्पेक के विषय में जानकारी को कहानी में गूंथा गया है।
    पुस्तक के आंरभ में लेखिका ने तीन पृष्ठों का एक खत अपनी बात ‘जीवन की मार्गदर्शक : सकारात्मक सोच’ शीर्षक से दिया है। प्यारे बच्चों को संबोधित इस पत्र में लेखिका बच्चों को कहानियों में क्या कहा गया है समझा रही हैं। बाल साहित्य में बेहतर होगा कि हम बच्चों को समझाने के स्थान पर उनकी खुद की समझ और समझने के कुछ उदाहरण कहानियों में चित्रित करें, जैसा कि कहानी ‘सपने’ में लेखिका ने किया भी है। इक्कीसवीं सदी में इस दौर में हम बच्चों से जुड़ी समस्याओं का निरूपण अपने किसी आलेख में करेंगे और बाल कहानियों के विषय में आज की आवश्यकताओं को समझने का प्रयास भी करेंगे।
समीक्षक : डॉ. नीरज दइया
पुस्तक : पोहे वाली दादी (बाल कथा-संग्रह)
कहानीकार : सुकीर्ति भटनागर
प्रकाशक  : साहित्यसागर प्रकाशन, धमाणी मार्केट की गली, चौड़ा रास्ता, जयपुर-302 003
संस्करण : 2019, पृष्ठ : 84
मूल्य : 160/-

Saturday, January 26, 2019

राजस्थानी कवितावां / डॉ. नीरज दइया



(आदरणीय भाई श्री रविदत्त मोहता के साथ)


ऊमर रा धोरिया
(१.)
टाबर खुद रै मूढै
मांडै मूंछ्यां
करै कोड
फदाकणा चावै-
ऊमर रा धोरिया।
#

(२.)
लागै सगळा नैं
घणो व्हालो
रूपाळो हुवणो
बैन थथेड़ै पोडर,
कोई कोनी पोतै-
काळख।
#

(३.)
धोळै केसां माथै
लगावै खिजाब
बड़ोडा भाइसा
देखै- मूछां
कठैई रैय नीं जावै-
चांदी।
#

(४.)
कुण चढणो चावै
बूढ़ापै मांय घाटी
एक औसथा पछै-
ना चढनो सोखो
ना उरणो
थमणो ई ओखो....
#

(५.)
हाथ मांय हुवै
ऊमर री रेखा
पण
हाथ मांय
हुवै कोनी-
ऊमर !
#

(६.)
ऊमर रा धोरिया
लंघता-लंघता
जाणै जूण रमै
कोई रम्मत
मिल सकै कदैई
थांनैं-म्हांनैं
का उणनैं-
खो !
#

(७.)
आभै मांय-
आवै सूरज
आवै चांद
आवै नौलख तारा
अर
नित गुड़कता दीसै...
#

(८.)
जूण रो
जूगा जूनो साच-
ऊगै जिको आथमै
रंग है थनैं-
सूरज नैं आथमता देख्यां ई
कोनी बापरै चेत !
#

(९.)
लीर -लीर हुयां पछै ई
कारी-कुरपी
कीं जाचो जचा सकै...
आधो का चौथाई
भरियां ई पेट
कीं धाको धिक सकै...
पण जद सांस सांस नैं
देवण लागै धोखो
कोई पण जूण
धोरिया मांय धस जावै।
#

(१०.)
‘थूं कैवतीं ही नीं’
‘कांई कैवतीं ही’
‘थनै याद कोनी’
‘कै कैवण-सुणण रो कांई,
कोई टैम हुवै...’
‘वा इण मांय
टेम कांई
अर बेटेम कांई’
‘कूड़ी-साची करता-करता
कटगी घणखरी तो जूण’
‘बाकी री कट जासी’
‘इसो कुण है
जिको ऊमर रै धोरिया
चढण सूं नट जासी?’
#

(११.)
ऊमर रा धोरिया
जद ढळ जावै
मोरिया नाचै कोनी
हम्बै, मोरिया
अर कोनी नाचै !
आ कदैई हुया करै के !
#

(आकाशवाणी, बीकानेर से दिनांक 22-01-2019 को प्रसारित)

Tuesday, January 08, 2019

‘साहित्य के लपकूराम’ (2020) लालित्य ललित

    आपके हाथों में जो किताब है उसके लेखक श्री लालित्य ललित मेरे मित्र हैं। हमारी मित्रता की प्रगाढ़ता का अंदाजा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि मुझे उन्होंने अपनी रचनाएं भेजते हुए संग्रह की भूमिका के साथ इसके नामकरण का भी अनुरोध किया है। मैं लेखन के मामले में बचपन से ही पूरी तरह से स्वत्रंत रहा हूं। अब जब लेखन में कुछ नाम और बदनाम हो जाने के बाद पाता हूं कि लिखता तो मैं भी हूं पर लालित जी तो खूब लिखते हैं। क्या आप प्रतिदिन व्यंग्य लिखने को सरल काम समझते हैं? मैं तो नहीं लिख सकता और इसे बहुत कठिन काम मानता हूं। इस लिहाज से और वैसे भी मैं खुद को लालित्य ललित से छोटा व्यंग्यकार मानता हूं। मैं इस संसार में लालित्य से पहले आया और वे भी बिना देरी किए मुझसे सवा साल बाद आ गए। इसलिए मैंने भी उनसे सवा साल बाद हिंदी व्यंग्य के क्षेत्र में पदार्पण किया था।
    दुनिया में बहुत सी बातें समझ नहीं आती। वैसे साहित्य में छोटा-बड़ा क्या होता है? व्यंग्यकार तो कुछ अलग दृष्टि रखता है इसलिए उसे सब कुछ या तो बड़ा-बड़ा दिखाई देता है या फिर छोटा-छोटा। उसे जो जैसा है उसे देखने में जरा संकोच होता है। जैसे निंदक का स्वभाव निंदा करना होता है वैसे ही व्यंग्यकार के स्वभाव में मेन-मेख का भाव समाहित हो जाता है। प्रत्यक्ष में इसे मैं संयोग ही कहूंगा पर सोचता हूं कि उन्होंने इतने मित्रों में मेरा चयन क्यों किया? यह मीन-मेख का स्वभाव ही है। मित्र पर शक-संका करना भला मित्र धर्म है क्या? पर मित्रों में झूठ भी अपराध है। इसलिए सब कुछ बताना ठीक है। मैं चिंता में हूं। मेरे पास इस चिंता के अलावा भी अनेक चिंताएं हैं। कुछ चिंताएं आपसे साझा करना चाहता हूं। मेरी चिंता है कि पहले व्यंग्य लेखन बहुत कठिन काम समझा जाता था, हर कोई लेखक व्यंग्य लिखने की हिम्मत नहीं करता था। अब जब से हमारी पीढ़ी यानी लालित्य ललित और मेरे जैसे लेखकों ने इस विधा में सक्रिया दिखाई है तभी से इसे बहुत सरल समझा कर बहुत से लेखक व्यंग्यकार बनने का प्रयास करने लगे हैं।
    वैसे अपनी जमात के लिए यह कहना ठीक नहीं है कि व्यंग्यकार टांग खींचने के मामले में बदनाम हैं। वे अनेक ऐसी युक्तियां जानते हैं कि छोटों को बड़ा और बड़ों को छोटा बनाते में लगे रहते हैं। मैं कोई ठीक बात लिखूंगा तब भी उसे किसी भी रूप में लेने और समझने के लिए सब स्वयं को स्वतंत्र समझते हैं। मैं कह देता हूं कि आपकी स्वतंत्रता का यह अर्थ कदापि नहीं है कि मेरी सीधी और सरल बात को आप गंभीर और कुछ ऐसी-वैसी समझने की भूल करें। देखिए लोग कीचड़ को देखकर बच कर निकलने का प्रयास करते हैं। स्वच्छता अभियान के इस दौर में भला कीचड़ और गंदगी को गले लगना कहां की समझदारी है। व्यंग्यकार तो जैसे बिना नियुक्ति के स्वच्छता अभियान के कार्यकर्ता हैं, जो जरा गंदगी या फिर कीचड़ दिखते ही झटते हैं। वे कलम हाथ उठाए ही रखते हैं। आज लिखा कल छपा के इस दौर में रचना को अधिक पकाने का काम हम नहीं करते हैं। इतना समय ही हमें कहां मिलता हैं और वैसे भी हमारा एक हाथ तो सदा पत्थरों से भरा रहता है। जहां कीचड़ दिखाता है वहीं पत्थर फेंक निशाना साधते हैं। कभी तो कुछ छींटे हमरे पर आ गिरते हैं और नहीं गिरते तो हम खुद ही थोड़े कीचड़ से सना हुआ दिखते हैं जिससे लगे कि हम यर्थाथ के धरातल पर हैं। अगले दिन हमारा वह अचूक निशाना अखबारों की शोभा बनता है। हमें निरंतर प्रकाशित होना बहुत अच्छा लगता है।  
    अन्य विधाओं की तुलना में भाषा का सर्वाधिक प्रखर और प्रांजल प्रयोग व्यंग्य विधा में संभव है। मुझे तो ऐसा प्रतीत होता है कि पूरी दुनिया की विसंगतियां, फोड़े, फुंसिया, घाव, मवाद, गंदगी, कीचड़ आदि जो कुछ भी है उन के पीछे व्यंग्यकार नश्तर लिए पड़े हुए हैं। हम दुनिया को सुंदर बनाने का स्वप्न लिए हुए, जगह-जगह घाव कर रहे हैं और कहीं-कहीं गहरे तक चीर-फाड़ करते हुए सब कुछ ठीक करने में लगे हुए हैं। किंतु इतना काम करने के बाद भी ढाक के वही तीन पात।
    भूमिका का मतलब भूमिका होता है और इसलिए मैंने इतनी लंबी-चौड़ी भूमिका बनाई है। अब असली मुद्दे पर आना चाहिए। बहुत सी भूमिकाएं और प्रवचन मैंने और अपने ऐसे देखें है जिन में बहुत बड़ी-बड़ी बातें होती है पर मुख्य बात किताब और किताब के लेखक को बहुत कम महत्त्व देते हैं। मैं ऐसा करने की भूल नहीं कर सकता हूं। इसलिए मैंने अब तक बिल्कुल छोटी-छोटी मामूली बातें की है और अब गंभीर बात करने जा रहा हूं।
    इक्कीसवीं सदी के व्यंग्यकारों में लालित्य ललित बेशक शरीर से भारी-भरकम दिखाई देते हो, किंतु उनकी रचनात्मक तीव्रता किसी तेज धावक सरीखी है। वे उम्र के अर्द्ध शतक के पास हैं और लिखने वाले हाथ में इतनी तेजी है कि ‘की-पेड’ भी उन्हें बहुत बार कहता होगा- ‘भाई साहब जरा धीरे, मैं तो मशीन हूं।’ यह बहुत हर्ष और गर्व का विषय है कि लालित्य आधुनिक तकनीक के मामले में बहुत आगे और तेज है। वे बहुत जल्दी किसी भी घटनाक्रम को रचना को शब्दों से साधते हुए द्रुत गति से दुनिया के सुदूर इलाकों में इंटरनेट के माध्यम से पहुंचने की क्षमता रखते हैं। 
    जैसा कि मैंने पहले स्पष्ट कर दिया कि मैं कहने-सुनने के मामले में बिल्कुल साफ हूं और साफ मन से आपको स्वतंत्रता देना पसंद नहीं करता। मैं दुवा करता हूं कि मशीनों के बीच हमारे व्यंग्यकार भाई लालित्य ललित की अंगुलियां ‘की-पेड’ जैसी किसी मशीन में ना तब्दील हो जाए। यहां एक खतरे का अहसास है कि हिंदी में सर्वाधिक तेजी से अधिक व्यंग्य लिखने वाले लेखकों में शामिल होना बहुत अपने आप में चुनौति भरा है। इसमें बहुत हुनर और होशियारी चाहिए। इन और ऐसी अनेक विशेषाओं के बारे में आप कुछ भी कहें पर मैं तो ललित-मित्र-धर्म में बंधा, उन्हें अव्वल कहता हूं। दीवानगी की हद तक लालित्य ललित को पांडेय जी का पीछा करते हुए मैंने देखा है। उन्होंने पांडेय जी को इतना फेमस कर दिया है कि पांडेय जी पर उनका कॉपीराइट हो चुका है। अब सबको पांडेय जी को बिल्कुल छोड़ देना चाहिए। मैं या अन्य कोई व्यंग्यकार अपने व्यंग्य में किसी दूसरे पांडेय जी को भी लाएंगे तो पाठक यही सोचेंगे कि लालित्य ललित वाले पांडेय जी को चुरा कर लाएं हैं। पांडेय जी इस असंवेदनशील होती दुनिया में संवेदनशीलता की एक मिशाल है। मेरे कहने का अभिप्राय यह है कि व्यंग्यकार में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण संवेदनाशीलता ही होती है, जिसे देखा-समझा जाना चाहिए।
    “किसी पर ऐसे मजाक कर जाना, जो किसी को चुभे भी नहीं और अपना काम भी कर जाए।” यह आत्मकथन हमें लालित्य ललित के उनके पहले व्यंग्य संग्रह के लिए लिखे आरंभिक बयान ‘मेरी व्यंग्य-यात्रा’ में मिलता है। उनके तीनों व्यंग्य-संग्रह ‘जिंदगी तेरे नाम डार्लिंग’ (2015), ‘विलायतीराम पांडेय’ (2017) और ‘पांडेय जी की हाय-तौबा’ (2018) इस आत्मकथन पर एकदम खरे उतरते हैं। यह कथन उनकी इस यात्रा की संभवानाओं और सीमाओं का भी निर्धारण करने वाला कथन है। यहां यह भी उल्लेख आवश्यक है कि उनके पहले दोनों व्यंग्य संग्रहों की भूमिका प्रख्यात व्यंग्यकार प्रेम जनमेजय ने लिखी हैं और तीसरे व्यंग्य संग्रह की भूमिका प्रेम से मैंने लिखी है। जनमेजय जी ने प्रशंसात्मक लिखते हुए अंत में एक रहस्य उजागर कर दिया कि वे नए व्यंग्यकार लालित्य ललित के प्रथम व्यंग्य संग्रह का नई दुल्हन जैसा स्वागत कर रहे हैं। ‘उसकी मुंह-दिखाई की, चाहे कितनी भी काली हो, प्रशंसा के रूप में शगुन दिया और मुठभेड़ भविष्य के लिए छोड़ दी। ललित यदि इस प्रशंसा से कुछ अधिक फूल गए तो यह उनके साहित्यिक स्वास्थ्य के लिए खतरनाक होगा।’
    जाहिर है कि अब मुठभेड़ होनी है और यह भी देखा जाना है कि उनका साहित्यिक स्वास्थ्य फिलहाल कैसा है क्यों कि उनका दूसरा और तीसरा व्यंग्य संग्रह भी आ गया है। विलायतीराम पांडेय लालित्य ललित का प्रिय और पेटेंट पात्र है। इन पांडेय जी की भूमिका में कभी उनमें लालित्य ललित स्वयं दिखाई देते हैं और कभी वे अनेकानेक पात्रों-चरित्रों को पांडेय जी में आरोपित कर देते हैं। यहां यह कहना उचित होगा कि पूर्व की भांति इस व्यंग्य संग्रह में भी लालित्य ललित ने व्यंग्य के नाम पर कुछ जलेबियां पेश की है। व्यक्तिगत जीवन में वे स्वाद के दीवाने हैं और संग्रह के अनेक व्यंग्य पांडेय जी के इसी स्वाद के रहते स्वादिष्ट हो गए हैं। आपके निजी भाषिक अंदाज और चीजों के साथ परिवेश के स्वाद की रंगत और कलाकारी अन्य व्यंग्यकारों से अलग है।
    लालित्य ललित कवि के रूप में भी जाने जाते हैं और संख्यात्मक रूप से भी आपकी कविताओं की किताबों का आंकड़ा मेरे जैसे कवि को डराने वाला है। उनके कवि-मन के दर्शन पांडेय जी में हम कर सकते हैं। लालित्य ललित कवि हैं और गद्य को कवियों का निकष कह गया है। निबंध गद्य का निकष कहा जाता है, इसमें व्यंग्य को भी समाहित कर विशेष माना जाना चाहिए।
    लालित्य ललित के व्यंग्य की तुलना किसी अन्य व्यंग्यकार ने इसलिए नहीं की जा सकती कि उन्होंने निरंतर एक शैली विकसित करने का प्रयास किया है। उनके व्यंग्य मुख्य धारा से अलग अपने ही तरह के व्यंग्य कहे जाते हैं। पांडेय जी की अनेक रूढ़ताओं में मौलिकता और निजताएं भी हैं। प्रस्तुत व्यंग्य संग्रह में भी उनके व्यंग्यकार का स्वभाव पुष्ट होते हुए स्थितियों को एक दूसरे से जोड़ते हुए बीच-बीच में हल्की-फुलकी चुहलबाजी का रहा है। कहीं पे निगाहें और कहीं पर निशाना का भाव उनके व्यंग्य पोषित करते हैं। जैसा कि वे कवि हैं और सौंदर्य पर मुग्ध होने का उनका स्वभाविक अंदाज जैसा की वे चाहते हैं कि कोई बात किसी को चुभे नहीं की अभिलाषा पूरित करता है। उनके पांडेय जी के सभी अंदाज चुभने और अखरने वाले नहीं है। उनका हल्के-हल्के और प्यारे अंदाज से चुभना अखराता नहीं है।
    विलायतीराम पांडेय सर्वगुण सम्पन्न है कि वे किसी फिल्म के हीरो की भांति कुछ भी कर सकते हैं। वे जब कुछ भी करते हैं तब उनकी सहजता नजर आती है किंतु उसमें व्यंग्यकार का हस्तक्षेप अखरने वाला भी रहता है। लालित्य ललित की यह विशेषता है कि वे विभिन्न रसों से युक्त परिपूर्ण जीवन को व्यंग्य रचनाओं में अभिव्यक्त करते हैं। अनेक वर्तमान संदर्भों-स्थितियों को उकेरते हुए वे बहु-पठित, शब्दों के साधक, कुशल वक्ता, कुशाग्र बुद्धि होने का अहसास कराते हैं।
    इस संग्रह का उनका मुख्य पात्र विलायतीराम पांडेय उनके पहले दोनों संग्रहों में सक्रिय रहा है और यहां तो उनकी हाय-तौबा देखी जा सकती है। नाम- विलायतीराम पांडेय, पिता का नाम- बटेशरनाथ पांडेय, माता का नाम- चमेली देवी, पत्नी- राम प्यारी यानी दुलारी और दोस्त- अशर्फीलाल जैसे कुछ स्थाई संदर्भों यानी आम आदमी से व्यंग्यकार देश-दुनिया और समाज का इतिहास लिपिबद्ध करता है। यहां आधुनिकता की चकाचौंध में बदलते जीवन की रंग-बिरंगी झांकियां और झलकियां हैं। हमारे ही अपने सुख-दुख और त्रासदियों का वर्णन भी पांडेय जी के माध्यम से हुआ है। कहना होगा कि लालित्य ललित मजाक मजाक में अपना काम भी कर जाते हैं। यह उनकी सीमा है कि उनके व्यंग्य का मूल केवल कुछ पंक्तियों में समाहित नहीं होता है, किंतु यह उनकी खूबी है कि उनके व्यंग्य का वितान जीवन के इर्द-गिर्द व्यापकता के साथ दिखाई देता है। स्वार्थी और मोल-भाव करने वाले प्राणियों के बीच नायक विलायतीराम पांडेय इस दुनिया को देख-समझ रहे हैं अथवा दिखा-समझा रहे हैं। यहां एक चेहरे में अनेक चेहरों की रंगत है। सार रूप में कहा जाए तो एक बेहतर देश और समाज का सपना इन रचनाओं में निहित है।
    संग्रह में विषय-विविधता के साथ समसामयिक स्थितियों से गहरी मुठभेड है। साहित्य और समाज के पतन पर पांडेय जी चिंतित हैं। जनमानस की बदलती प्रवृतियों और लोक व्यवहार को रेखांकित करते हुए वे कुछ ऐसे संकेत छोड़ते हैं जिन्हें पाठकों को पकड़ना है। उनका हर मजाक अहिंसक है। लालित्य ललित अपने गद्य-कौशल से किसी उद्घोषक की भांति किसी भी विषय पर आस-पास के बिम्ब-विधानों से नए रूपकों को निर्धारित करने का प्रयास करते हैं। पांडेय जी उनके और हमारे लिए सम्मानित नागरिक है और होने भी चाहिए। वे यत्र-तत्र ‘नत्थू’ बनने की प्रविधियों से बचाते हुए सम्मानित जीवन जीना चाहते हैं। वे परंपरागत उपमानों के स्थान पर नए और ताजे उपमान प्रयुक्त करते हैं। बाजार की बदलती भाषा और रुचियों से उनके व्यंग्य पोषित हैं।
    लालित्य ललित के व्यंग्य अपनी समग्रता और एकाग्रता में जो प्रभाव रचते हैं, वह प्रभावशाली है। ऐसा भी कहा जा सकता है कि वे पृथक-पृथक अपनी व्यंजनाओं से हमें उतना प्रभावित ना भी करते हो किंतु समग्र पाठ और सामूहिकता में निसंदेह पांडेय जी एक यादगार बनकर स्थाई प्रभाव पैदा करते हैं। विविध जीवन-स्थितियों से हंसते-हंसाते मुठभेड करने वाले एक स्थाई और यादगार पात्र पांडेय जी हर मौसम हर रंग में सक्रिय है और उनको हम नहीं भूल सकेंगे। अंत में बधाई और शुभकामनाएं।
डॉ. नीरज दइया

लालित्य ललित की व्यंग्य-यात्रा / डॉ. नीरज दइया

     “किसी पर ऐसे मजाक कर जाना, जो किसी को चुभे भी नहीं और अपना काम भी कर जाए।” यह आत्मकथन हमें लालित्य ललित के पहले व्यंग्य संग्रह के लिए लिखे उनके आरंभिक बयान ‘मेरी व्यंग्य-यात्रा’ में मिलता है। उनके दोनों व्यंग्य संग्रह ‘जिंदगी तेरे नाम डार्लिंग’ (2015) और ‘विलायतीराम पांडेय’ (2017) इस आत्मकथन पर एकदम खरे उतरते हैं। यह कथन उनकी इस यात्रा की संभवानाओं और सीमाओं का भी निर्धारण करने वाला है। यहां यह भी उल्लेख आवश्यक है कि दोनों व्यंग्य संग्रह की भूमिका प्रख्यात व्यंग्यकार प्रेम जनमेजय ने लिखी है। जनमेजय ने प्रशंसात्मक लिखते हुए अंत में रहस्य उजागर कर दिया कि वे नए व्यंग्यकार लालित्य ललित के प्रथम व्यंग्य संग्रह का नई दुल्हन जैसा स्वागत कर रहे हैं। ‘उसकी मुंह-दिखाई की, चाहे कितनी भी काली हो, प्रशंसा के रूप में शगुन दिया और मुठभेड़ भविष्य के लिए छोड़ दी। ललित यदि इस प्रशंसा से कुछ अधिक फूल गए तो यह उनके साहित्यिक स्वास्थ्य के लिए खतरनाक होगा।’ जाहिर है कि अब मुठभेड़ होनी है और यह भी देखा जाना है कि उनका साहित्यिक स्वास्थ्य फिलहाल कैसा है क्यों कि उनका दूसरा व्यंग्य संग्रह भी आ चुका। दूसरे संग्रह ‘विलायतीराम पांडेय’ में भूमिका लिखते हुए प्रेम जनमेजय ने ‘दिवाली का सन्नाटा’ व्यंग्य रचना को लालित्य ललित की अब तक की रचनाओं में सर्वश्रेष्ठ कहा है। पहले व्यंग्य संग्रह को अनेक आरक्षण दिए जाने के उपरांत दूसरा संकलन जिस कठोरता और किंतु-परंतु के साथ परखे जाने की कसौटी के साथ ही आलोचना के विषय में भी अनेक संभावनाएं और सीमाओं का उल्लेख करते हुए मेरा काम आसान कर दिया है। साथ ही व्यंग्यकार लालित्य ललित ने अपने बयान में अपने व्यंग्यकार के विकसित होने में अनेक व्यंग्य लेखकों का स्मरण और आभार ज्ञाप्ति करते हुए पूरी प्रक्रिया को स्पष्ट करने का प्रयास किया है। वहीं पहले संग्रज के फ्लैप पर ज्ञान चतुर्वेदी, यज्ञ शर्मा, डॉ. गिरिजाशरण अग्रवाल, सुभाष चंदर, हरीश नवल और गौतम सान्याल की टिप्पणियों को देख कर बिना व्यंग्य रचनाएं पढ़े ही लालित्य ललित को महान व्यंग्यकार कहने का मन करता है।
    मन को नियंत्रण में लेते हुए दोनों पुस्तकों में संग्रहित 66 व्यंग्य रचनाओं का गंभीरता से पाठ आवश्यक लगता है। यह गणित का आंकड़ा इसलिए भी जरूरी है कि दोनों व्यंग्य संग्रह में रचनाएं का जोड़ 67 हैं पर एक व्यंग्य ‘पांडेजी की जलेबियां’ दोनों व्यंग्य संग्रहों में शामिल है। यहां यह कहना भी उचित होगा कि इन दोनों व्यंग्य संग्रह में लालित्य ललित ने व्यंग्य के नाम पर कुछ जलेबियां पेश की है। वैसे भी व्यक्तिगत जीवन में आप स्वाद के दीवाने हैं और संग्रह के अनेक व्यंग्य आपके इसी स्वाद के रहते जरा स्वादिष्ठ हो गए हैं। जाहिर है कि आपकी इन जलेबियों में आपके अपने निजी स्वाद की रंगत और कलाकारी है जो आपको अन्य व्यंग्यकारों से अलग सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है। कलाकारी इस अर्थ में कि लालित्य ललित कवि के रूप में जाने जाते हैं और संख्यात्मक रूप से भी आपकी कविताओं की किताबों का कुल जमा आंकड़ा डराने वाला है। अपनी धुन के धनी ललित का 32 वां कविता संग्रह "कभी सोचता हूं कि" आ रहा है। ऐसे में बिना पढ़े-सुने उन्हें कवि-व्यंग्यकार मानने वाले बहुत है तो जाहिर है उनके व्यंग्यकार की पड़ताल होनी चाहिए जिससे वास्तविक सत्य उजागर हो सके। उनके कवि की बात फिर कभी फिलहाल व्यंग्यकार की बात करे तो गद्य को कवियों का निकष कह गया है। निबंध गद्य का निकष कहा जाता है, इसमें व्यंग्य को भी समाहित ही नहीं विशेष माना जाना चाहिए। अस्तु कवि-कर्म को कसौटी व्यंग्य भी है।
    लालित्य ललित के व्यंग्य की तुलना किसी अन्य व्यंग्यकार ने इसलिए नहीं की जा सकती कि उन्होंने स्वयं की एक शैली विकसित करने का प्रयास किया है। उनके व्यंग्य किसी अन्य व्यंग्यकार या हिंदी व्यंग्य की मुख्य धारा से अलग अपने ही तरह के व्यंग्य लेखन का परिणाम है। उनकी यह मौलिकता उनकी निजता भी है जो उन्हीं के आत्मकथन मजाक करने में उनकी अपनी सावधानी कि किसी को चुभे नहीं और अपना काम कर जाए की कसौटी के परिवृत में समाहित है। उनकी रचनाओं का औसत आकार लघु है और कहना चाहिए कि आम तौर पर दैनिक समाचार पत्रों को संतुष्ट करने वाला है। जहां उन्होंने इस लघुता का परित्याग किया है वे अपने पूरे सामर्थ्य के साथ उजागर हुए हैं। साथ ही यह भी कि वे व्यंग्यकार के रूप में भी अनेक स्थलों पर अपने कवि रूप को त्याग नहीं पाए हैं। सौंदर्य पर मुग्ध होने के भाव में उनकी चुटकी या पंच जिसे उन्होंने मजाक संज्ञा के रूप चिह्नित किया है चुभे नहीं की अभिलाषा पूरित करता है।     व्यंग्य का मूल भाव ‘दिवाली का सन्नाटा’ में इसलिए प्रखरता पर है कि उन्होंने करुणा और त्रासदी को वहां चिह्नित किया है। इस व्यंग्य के आरंभ में पैर और चादर का खेल भाषा में खेलते हुए वे चुभते भी है और अपना काम भी करते हैं। मूल बात यह है कि उनका यह चुभना अखरने वाला नहीं है। उनकी व्यंग्य-यात्रा में कुछ ऐसे भी व्यंग्य हैं जहां उनका नहीं चुभना ध्यनाकर्षक का विषय नहीं बनता है। यहां यह भी कहना आवश्यक है कि इसी व्यंग्य का बहुत मिलता जुलता प्रारूप इसी संग्रह में संकलित अन्य व्यंग्य ‘महंगाई की दौड़ में पांडेयजी’ में देखा जा सकता है। जाहिर है मेरी यह बात चुभने वाली हो सकती है पर अगर इसने अपना काम किया तो आगामी संग्रहों में ऐसा कहने का अवसर किसी को नहीं मिलेगा। सवाल यहां यह भी उभरता है कि विलायतीराम पांडेय ने क्या सच में अपने परिवार की खुशी के लिए किडनी का सौदा कर लिया है। यह हो सकता है कहीं हुआ भी हो किंतु यहां मूल भाव ऐसा किया जाने में जो करुणा है वह रेखांकित किए जाने योग्य है। आधुनिक जीवन में घर-परिवार और बच्चों की फरमाइशों के बीच पति और पिता का किरदार निभाने वाला जीव किस कदर उलझा हुआ है। लालित्य ललित की विशेषता यह है कि वे इस पिता और खासकर पति नामक जीव की पूरी ज्यामिति वर्तमान संदर्भों-स्थितियों में उकेरने की कोशिश करते हैं।
    उनका मुख्य पात्र विलायतीराम पांडेय दोनों संग्रहों में सक्रिय है और दूसरे में तो वह पूरी तरह छाया हुआ है। धीरे धीरे उसकी पूरी जन्म कुंडली हमारे सामने आ जाती है। नाम- विलायतीराम पांडेय, पिता का नाम- बटेशरनाथ पांडेय, माता का नाम- चमेली देवी, पत्नी- राम प्यारी यानी दुलारी और दोस्त- अशर्फीलाल जैसे कुछ स्थाई संदर्भ व्यंग्यकार ने अपने नाम करते हुए विगत चार-पांच वर्षों का देश और दुनिया का एक इतिहास इनके द्वारा हमारे समाने रखने का प्रयास किया है। यहां दिल्ली और महानगरों में परिवर्तित जीवन की रंग-बिरंगी अनेक झांकियां है तो उनके सुख-दुख के साथ त्रासदियों का वर्णन भी है। पति-पत्नी की नोक-झोंक और प्रेम के किस्सों के साथ एक संदेश और शिक्षा का अनकहा भाव भी समाहित है। कहना होगा कि लालित्य ललित मजाक मजाक में अपना काम भी कर जाते हैं। यहां व्यंग्य का मूल केवल कुछ पंक्तियों में निहित नहीं है, वरन व्यंग्य का वितान जीवन के इर्द-गिर्द दिखाई देता है। स्वार्थी और मोल-भाव करने वाले प्राणियों के बीच इन रचनाओं का नायक विलायतीराम पांडेय कहीं-कहीं खुद व्यंग्यकार लालित्य ललित नजर आता है तो कहीं-कहीं उनके रंग रूप में पाठक भी स्वयं को अपने चेहरों को समाहित देख सकते हैं। आज का युवा वर्ग इन रचनाओं में विद्यमान है। उसके सोच और समझ को व्याख्यायित करते हुए एक बेहतर देश और समाज का सपना इनमें निहित है।
    यहां लालित्य ललित की अब तक की व्यंग्य-यात्रा के सभी व्यंग्यों की चर्चा संभव नहीं है फिर भी उनके दोनों संग्रहों से कुछ पंक्तियां इस आश्य के साथ प्रस्तुत होनी चाहिए कि जिनसे उनके व्यंग्यकार का मूल भाव प्रगट हो सके। पहले व्यंग्य संग्रह से कुछ उदाहरण देखें- ‘आप भारतीय हैं यदि सही मायनों में, तो पड़ोसी से जलन करना, खुन्नस निकालना आपका जन्मसिद्ध अधिकार है।’ (पृष्ठ-15); ‘जमाना चतुर सुजानों का है। मक्खन-मलाई का है, हां-जी, हां-जी का है, अगर आप यह टेक्नीक नहीं सीखोगे तो मात खा जाओगे, दुनियादारी से पिछड़ जाओगे।’ (पृष्ठ-20); ‘मगर यह बॉस किसिम के जीव जरा घाघ प्रजाति के होते हैं, जो न आपके सगे होते हैं और संबंधी तो बिल्कुल नहीं।’ (पृष्ठ-29); ‘सांसारिक लोगों का हाजमा होता ही कमजोर है।’ (पृष्ठ-37); ‘इन दिनों बड़ा लेखक छोटे को कुछ नहीं समझता तो छोटा लेखक बड़े को बड़ा नहीं समझता, हिसाब-किताब बराबर।’ (पृष्ठ-52); ‘जो लेते हैं मौका, वही माते हैं चौका।’ (पृष्ठ-58); ‘यह हिंदुस्तान है, यहां कुछ भी हो सकता है। अंधे का ड्राइविंग लाइसेंस बन सकता है। मृत को जीवित बनाया जा सकता है।’ (पृष्ठ-65);  ‘यही तो भारतीय परंपरा है- हम एक बार किसी से कुछ उधार लेते हैं तो देते नहीं।’ (पृष्ठ-92) आदि
    कुछ उदाहरण दूसरे व्यंग्य संग्रह से- ‘विलायतीराम पांडेय ने सोचा पल्ले पैसा हो तो साहित्यकार क्या, मंच क्या, अखबार क्या कुछ भी मैनेज किया जा सकता है।’ (पृष्ठ-21); ‘घूस देना आज राष्ट्रीय पर्व बन चुका है। अपने दी, आपकी फाइल चल पड़ी और नहीं दी तो आपका काम अटक गया, भले ही आप कितने बड़े तोपची हों।’ (पृष्ठ-24); ‘एक वो जमान था, एक अब जमाना है। बच्चे पहले तो सुन लेते थे, पर अब लगता है जैसे हम भैंक रहे हैं और वह अनसुना करने में यकीन करते हैं।’ (पृष्ठ-28); ‘कामवाली बाई भी वाट्सअप पर बता देती है, आज माथा गर्म है, मेमसाब, नहीं आ पाऊंगी, वेशक पगार काट लेना। (पृष्ठ-30); ‘बाजार में नोटबंदी के चलते कर्फ्यू-सा माहौल था।’ (पृष्ठ-38); ‘अब देश के नेता बाढ़ में जाने के बजाय अपना दुःख ट्विटर पर व्यक्त कर देते हैं।  (पृष्ठ-66); ‘मंदी ने बजाया आज सभी का बाजा, लेकिन राजनेताओं का कभी नहीं बजता बाजा, पता नहीं वो दिन कब आएगा।’ (पृष्ठ-80); ‘नंगापन क्या समाज के लिए अनिवार्य योग्यताओं में शामिल एक महत्त्वपूर्ण कड़ी है। कितने पोर्न पसंदीदा हो गए हम।’ (पृष्ठ-92); आदि उदाहरणो से जाहिर है कि उनके यहां विषय की विविधा के साथ समसामयिक स्थितियों से गहरी मुठभेड भी है। वे साहित्य और समाज के पतन पर चिंतित दिखाई देते हैं और साथ ही जनमानस की बदलती प्रवृतियों और लोक व्यवहार को रेखांकित करते हुए कुछ ऐसे संकेत छोड़ते हैं जिन्हें पाठकों को पकड़ना है। वे अपनी बात पर कायम है कि उनका कोई भी मजाक हिंसक नहीं है वरन वे अहिंसा के साथ उस रोग और प्रवृत्ति को स्वचिंतन से बदलने का मार्ग दिखलाते हैं।
    लालित्य ललित के पास गद्य का एक कौशल है जिसके रहते वे किसी उद्घोषक की भांति अपनी बात कहते हुए आधुनिक शव्दावली में अपने आस-पास के बिम्ब-विधान के साथ नए रूपकों को निर्धारित करने का प्रयास करते हैं। काफी जगहों पर हम व्यंग्य में कवि के रूप में ‘यमक’ और ‘श्लेष’ अलंकारों पर उनका मोह भी देख सकते हैं। एक उदाहरण देखें- ‘बॉस यदि शक्की है तो आपको ‘ऐश’ हो सकती है, बच्चन वाली ‘ऐश’ नहीं। नहीं तो अभिषेक की ठुकाई के पात्र बन सकते हैं।’ (‘जिंदगी तेरे नाम डार्लिंग’, पृष्ठ-35) वे व्यक्तिगत जीवन में खाने और जायकों के शौकीन हैं तो उनके व्यंग्य में ऐसे अनेक स्थल हैं जहां उनकी इस रुचि के रहते हमें मजेदार परांठों और पकौड़ों के बहुत स्वादिष्ट अनुभव ज्ञात होते हैं। नमकीन और मिठाई पर उनकी मेहरबानी कुछ अधिक मात्रा में है कि वे अपनी पूरी बिरादरी का आकलन भी प्रस्तुत करते हैं- ‘शुगर के मरीज लेखक लगभग अस्सी पर्सेंट हैं पर मुफ्त की मिठाई खाने में परहेज कैसा!’ (‘विलायतीराम पांडेय’, पृष्ठ-16)
    विलायतीराम पांडेय उनके लिए सम्मानित पार है और वे उसे यत्र-तत्र ‘नत्थू’ बनने की प्रविधियों में बचाते भी हैं। भारतीय पतियों और पत्नियों के संबंधों में मधुता होनी चाहिए इस तथ्य की पूर्ण पैरवी करते हुए भी पतियों और पत्नियों की कुछ कमजोरियों को भी वे बेबाकी के साथ उजागर भी करते हैं। जैसे संग्रह ‘जिंदगी तेरे नाम डार्लिंग’ के दो उदाहरण देखिए- ‘अधिकतर मर्द जिनकी प्रायः बोलती घरों में बंद रहती है, यहां नाई की दुकान पर उनकी जबान कैंची की तरह चलती है।’ (पृष्ठ-78); ‘शादी-शुदा है यानी तमान बोझों से लदा-फदा एक ऐसा आदमी, जिसकी न घर में जरूरत है और न समाज में।’ (पृष्ठ-24) दूसरे संग्रह ‘विलायतीराम पांडेय’ से- ‘जिंदगी में क्या और किस तरह एक पति को पापड़ बेलने पड़ते हैं यह पति ही जानता है, जो दिन रात खटता है।’ (पृष्ठ-59); ‘हे भारतीय पुरुष ! तू केवल खर्चा करने को पैदा हुआ है। खूब कमा, पत्नियों पर खर्चा कर। बच्चों के लिए ए.टी.एम. बन।’ (पृष्ठ-74); ‘हद है यार, महिला दिखी नहीं कि छिपी हुई सेवा-भावना हर पुरुष की उजागर हो जाती है।’ (पृष्ठ-101)
    लालित्य ललित के व्यंग्यों में प्रतुक्त अनेक उपमाएं रेखांकित किए जाने योग्य है। वे परंपरागत उपमानों के स्थान पर नए और ताजे उपमान प्रयुक्त करते देखे जा सकते हैं। यह नवीनता बाजार की बदलती भाषा और रुचियों से पोषित है। वे एक ऐसे युवा चितेरे हैं जिन्हें अपनी परंपरा से गुरेज नहीं है तो साथ ही अतिआधुनिक समाज की बदलती रुचियों और लोक व्यवहार से अरुचि भी नहीं है। हलांकी वे कुछ ऐसे शब्दों को भी व्यंग्य में ले आते हैं जिनसे आमतौर पर अन्य व्यंग्यकार परहेज किया करते हैं अथवा कहें बचा करते हैं। ‘मेरा भारत महान, जहां मन हो थकने का और जहां मन हो मूतने का,कही कोई रूकावट नहीं है।’ (‘जिंदगी तेरे नाम डार्लिंग’, पृष्ठ-55) ये अति आवश्यक और सहज मानवीय क्रियाएं हैं। सभी का सरोकार भी रहता है फिर भी उनके यहां शब्दों की मर्यादा है और वे संकेतों में बात कहने में भी सक्षम है- ‘हम भारतीय इतने प्यारे हैं कि अपने शाब्दिक उच्चारण से किसी का भी बी.पी. यानी रक्तचाप तीव्र कर सकते हैं या आपकी चीनी घटा सकते हैं।’ (‘जिंदगी तेरे नाम डार्लिंग’, पृष्ठ-17);
    अंत में यह उल्लेखनीय है कि लालित्य ललित के व्यंग्य अपनी समग्रता और एकाग्रता में जो प्रभाव रचते हैं, वह प्रभावशाली है। ऐसा भी कहा जा सकता है कि वे संभवतः पृथक-पृथक अपनी व्यंजनाओं से हमें बेशक उतना प्रभावित नहीं करते भी हो किंतु धैर्यपूर्वक पाठ और उनकी सामूहिक उपस्थिति निसंदेह एक यादगार बनकर दूर तक हमारे साथ चलने वाली है। विविध जीवन स्थितियों से हसंते-हसंते मुठभेड करने वाला उन्होंने अपना एक स्थाई और यादगार पात्र रचा है। अब आप ही बताएं कि हिंदी व्यंग्य साहित्य की बात हो तो कोई भला विलायतीराम पांडेय को कैसे भूल सकता है।
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Monday, January 07, 2019

धूप आई, हाथ छूने के लिए

डॉ. शील कौशिक का नया बाल कथा-संग्रह ‘धूप का जादू’ है, जिसमें 16 कहानियां हैं। शीर्षक कहानी में धूप का मानवीयकरण किया गया है। इस कहानी को पढ़ते हुए गीतकार गुलजार के वर्षों पहले लिखे गीत- ‘हवाओं पे लिख दो, हवाओं के नाम...’ का स्मरण होता है। इस गीत की पंक्ति है- ‘शाख पर जब, धूप आई, हाथ छूने के लिए - छाँव छम से, नीचे कूदी, हँस के बोली- आइये।’ प्रकृति का यह चुलबुलापन, भोलपन और सहज संवाद की स्थितियां जिस भाव भूमि की रचना हमारे भीतर करती है वह अद्वितीय है। यह भाव, भाषा और शिल्प की नवीनता के साथ रचनाकार की मौलिकता होती है कि वह ऐसे सहज-सामान्य से किसी बिम्ब से मर्म-स्पर्शी बात कह जाता है। ऐसा ही कहानी ‘धूप का जादू’ के साथ हुआ है। यहां डॉ. शील ने बहुत कम शब्दों में विज्ञान की ढेर सारी जानकारी, इस छोटी-सी कहानी में संजोकर अभिनव कार्य किया है। स्थितियां बदल चुकी है, अब जादू लोककथाओं अथवा परिकथाओं का नहीं है। असली और बड़ा जादू विज्ञान का है। जिस बच्चों को समझना चाहिए। इसी उद्देश्य से जीव-जगत और जीवन से धूप का यह बतियाना बेहद सुखद और शकुन भरा है। कहानी में संवादों के माध्यम से धूप ने जो कुछ कहा है वह बच्चों के स्तरानुकूल-ग्राह्य है। ‘काला आसमान’ कहानी भी विज्ञान से जुड़ी है जो ‘स्मॉग’ को स्पष्ट करती है।
संग्रह में विषयागत नवीनता देख सकते हैं। उदाहरण के लिए पहली ही कहानी ‘खत प्यारे सान्ता बाबा को’ में क्रिसमस के साथ ही एक मासूम बच्चे की कहानी में भीतर तक भीगते हैं। कहानी में बच्चे यह भी सीख सकते हैं कि उन्हें समय रहते समझ लेना है कि कुछ अटल सत्य होते हैं। कुछ ऐसी स्थितियां होती हैं जिन्हें बदला नहीं जा सकता। जैसे मयंक के पिता यदि शहीद हो गए हैं तो लौट कर नहीं आएंगे। डॉ. शील कौशिक की कहानियों की बुनावट बच्चों और उनके जीवन, व्यवहार और आचरण से गहरे तक जुड़ी होती हैं। वे बाल मन को बांचना जानती है कि अपनी कहानियों में मनोवैज्ञानिक आधार रचते हुए उन्हें कुछ न कुछ स्वत सीख मिलती है। ‘मिष्ठी का सवाल’ जैसी कहानियों में शिक्षा को बच्चों पर आरोपित नहीं किया जाना उनका विशेष कौशल है। इसी कौशल के रहते वे अन्य बाल कहानीकारों से अलग हैं और अपनी पहचान-विश्वास बना रही हैं। ‘आन्या की गुड़िया’ कहानी में दो सहेलियां आन्या और श्रेया के माध्यम से धैर्य-त्याग-समर्पण के भाव को अपनाने की शिक्षा है। इसके साथ ही बुरी आदत चोरी से बचने की प्रेरणा भी कहानी देती है। इसी भांति ‘हार-जीत’ कहानी में कनक और विभा के माध्यम से बच्चों में प्रत्येक स्थिति से मुकाबला करने के साथ खेल के बाद परस्पर प्रेम और भाईचारे का संदेश बड़ी बात है।
‘लौट आई मुस्कान’ कहानी में प्रसिद्ध धारावाहिक ‘रजनी’ के गुण प्रकट होते हैं। बच्चों की समस्या के प्रति प्रिंसिपल से मिलकर समस्या को हल करना हमारी जिम्मेदारी और जबाबदेही को दर्शाती है। इसी भांति ‘पानी अनमोल’ में पानी को बचाने का संदेश है। इस कहानी के अंत में लेखिका का विषय के प्रति मोह प्रकट होता है जहां वह सारा से काव्य पंक्तियां लिखवा कर गुनगुनाने का जिक्र करती हैं तथा पानी बचाने के अभियान के जारी रहने की आशा प्रकट करती है। स्वभाविक रूप से कहानी जहां पूरी होती है उसे वहीं छोड़ दिया जाना चाहिए। सारा ने पानी का जैसे ही महत्त्व समझ लिया तो लेखिका को भरोसा होना चाहिए कि उसके पाठक भी महत्त्व समझ चुके हैं। ‘जल्दबाजी और ‘उपचार से रोकथाम भली’ ऐसी ही कहानियां हैं जिसे सप्रयास शिक्षा देने के लिए लिखा गया है।
‘जुनून के चलते’ कहानी बच्चों की तुलना में उनके अभिभावकों के लिए हैं जो बच्चों के अतिरिक्त प्यार में सब कुछ भूलकर उनकी अनावश्यक मांगों को पूरी करते हैं। समय पर सब कुछ होना चाहिए, बहुत सी बातें समय पर ही ठीक लगती है। दादा-दादी और नाना-नानी के प्रति बच्चों में लगाव हो उन्हें जीव-जंतुओं से प्रेम हो ऐसे ही विषयों को संग्रह की अन्य कहानियों में पिरोया गया है।
बदलते समय और परिवेश में बच्चों को बाल पत्र-पत्रिकाओं और किताबों से जोड़ा जाना चाहिए इसी उद्देश्य से बच्चों का एक अभियान कहानी ‘सपना बच्चों का’ में अभिव्यक्त हुआ है। यह हम सभी शिक्षित अभिभावकों को जिम्मेदारी है कि बच्चों को शब्दों के जादू से समय रहते परिचित कराएं। ज्ञान का विशाल भंडार और जीवनोपयोगी अनेक बातें बच्चे पढ़ते-लिखते साथ साथ इतर साहित्य के माध्यम से सीख सकते हैं ऐसी अभिलाषा के लिए डॉ. शील कौशिक बधाई की पात्र हैं।
समीक्षक : डॉ. नीरज दइया
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पुस्तक : धूप का जादू (बाल कथा-संग्रह); कहानीकार : डॉ. शील कौशिक ; प्रकाशक : आयुष बुक्स, डी-3-ए, विश्वविद्यालयपुरी, गोपालपुरा बाईपास, जयपुर-302 018 ; संस्करण : 2018 ; पृष्ठ : 80 ; मूल्य : 150
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बालवाटिका (जनवरी, 2019) में प्रकाशित। आभार : सं. डॉ.भैरूंलाल गर्ग
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डॉ. नीरज दइया की प्रकाशित पुस्तकें :

हिंदी में-

कविता संग्रह : उचटी हुई नींद (2013), रक्त में घुली हुई भाषा (चयन और भाषांतरण- डॉ. मदन गोपाल लढ़ा) 2020
साक्षात्कर : सृजन-संवाद (2020)
व्यंग्य संग्रह : पंच काका के जेबी बच्चे (2017), टांय-टांय फिस्स (2017)
आलोचना पुस्तकें : बुलाकी शर्मा के सृजन-सरोकार (2017), मधु आचार्य ‘आशावादी’ के सृजन-सरोकार (2017), कागद की कविताई (2018), राजस्थानी साहित्य का समकाल (2020)
संपादित पुस्तकें : आधुनिक लघुकथाएं, राजस्थानी कहानी का वर्तमान, 101 राजस्थानी कहानियां, नन्द जी से हथाई (साक्षात्कार)
अनूदित पुस्तकें : मोहन आलोक का कविता संग्रह ग-गीत और मधु आचार्य ‘आशावादी’ का उपन्यास, रेत में नहाया है मन (राजस्थानी के 51 कवियों की चयनित कविताओं का अनुवाद)
शोध-ग्रंथ : निर्मल वर्मा के कथा साहित्य में आधुनिकता बोध
अंग्रेजी में : Language Fused In Blood (Dr. Neeraj Daiya) Translated by Rajni Chhabra 2018

राजस्थानी में-

कविता संग्रह : साख (1997), देसूंटो (2000), पाछो कुण आसी (2015)
आलोचना पुस्तकें : आलोचना रै आंगणै(2011) , बिना हासलपाई (2014), आंगळी-सीध (2020)
लघुकथा संग्रह : भोर सूं आथण तांई (1989)
बालकथा संग्रह : जादू रो पेन (2012)
संपादित पुस्तकें : मंडाण (51 युवा कवियों की कविताएं), मोहन आलोक री कहाणियां, कन्हैयालाल भाटी री कहाणियां, देवकिशन राजपुरोहित री टाळवीं कहाणियां
अनूदित पुस्तकें : निर्मल वर्मा और ओम गोस्वामी के कहानी संग्रह ; भोलाभाई पटेल का यात्रा-वृतांत ; अमृता प्रीतम का कविता संग्रह ; नंदकिशोर आचार्य, सुधीर सक्सेना और संजीव कुमार की चयनित कविताओं का संचयन-अनुवाद और ‘सबद नाद’ (भारतीय भाषाओं की कविताओं का संग्रह)

नेगचार 48

नेगचार 48
संपादक - नीरज दइया

स्मृति में यह संचयन "नेगचार"

स्मृति में यह संचयन "नेगचार"
श्री सांवर दइया; 10 अक्टूबर,1948 - 30 जुलाई,1992

डॉ. नीरज दइया (1968)
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आंगळी-सीध

आलोचना रै आंगणै

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