Tuesday, April 28, 2020

आती है बिन बुलाए / / नीरज दइया

किसी से पूछ कर
या कह कर
कब आती है
आती है बिन बुलाए याद....
बरसती है बूंद सरीखी एक-एक कर
भीगता है कोना-कोना मेरा
निकाल कर कहां-कहां से
आते हैं पुराने दिन...
उमड़ता है सैलाब
बतियाता है समय
और मैं निकलता हूं-
हर बार एक यात्रा पर
कहीं पहुंच कर भी
कहीं नहीं पहुंचता मैं
यहीं यहीं रहता हूं...
तुम्हारे इंतजार में।
००००

Friday, April 24, 2020

कहानी- सौ रुपये का नोट / नीरज दइया

मुझे तीन दिन हो गए, घर से बाहर बिल्कुल बाहर नहीं निकला। गली में भी नहीं। वैसे कुछ पड़ौसी गली में बैठ कर बातें करते हैं पर मेरा विचार है कि जब सबको घर में रहने का कहा गया है तो घर में ही रहना चाहिए। आज मजबूरी में सड़क तक आना पड़ा तो मैं पूरी सावधानी के साथ आया हूं। मास्क लगा कर और जेब में सेनेटाइजर की बोलत लेकर डरते डरते निकला हूं। बेटा बोला भी- पापा आप तो ऐसे डर रहे हो जैसे कोरोना बाहर बैठा आपका ही इंतजार कर रहा है। आप घर में बैठो। बताओ क्या लाना है, मैं ले आता हूं। मैंने कहा- नहीं तुम नहीं। सड़क पर पुलिस वाले होंगे और तुमको देखकर वे पूछताछ करेंगे। कौन हो, क्यों बाहर आए हो, कहां जा रहे हो? मुझे देखकर कुछ नहीं पूछेंगे। लड़का ने मुस्कान बिखेरते हुए पूछा- क्यों? मैंने कहा- मैं मास्क लगा कर जा रहा हूं, तुम नहीं लगाओगे। तुमको लगता है लोग हंसेंगे। और लोगों का क्या, अपनी सुरक्षा अपने हाथ में है। और मैं हाथ में एक छोटा थेला लेकर निकल पड़ा।
            सड़क पर दो पुलिसकर्मी दिखाई दिए। डंडा लिए हुए थे और दिखते भी रोबदार थे। मैं डरा डरा सुस्त कदमों से परचून की दुकान को देखते उसकी तरफ चलता गया। दो ग्राहक सामान ले रहे थे। मैं दुकान से कुछ दूर खड़ा हो गया। एक ने नाक और मुंह को रुमाल से ढक रखा था तो दूसरे ने शायद अपनी बहन की चुन्नी से पूरे चेहरे को ही बंद कर रखा था। आंखों के आगे काला चश्मा लगाए हुए था। दोनों सामान लेकर हटे तो मैं दुकान की तरफ बढा। दुकानदार ने भी मास्क लगा रखा था। मैंने उसे सामान की पर्ची पकड़ा दी। जिस पर छोटा-मोटा जरूरी सामान लिखा था। उसने मुझसे कहा- थेला दो। मैंने कहा- यहां काउंटर पर सामान रख दो मैं उठा कर डाल लूंगा। वह सामान रखता गया और मैंने एक-एक सामान को बहुत ध्यान से उठा-उठा कर थेले के हवाले कर दिया। वह बोला- एक सौ बाइस। मैंने एक सौ तीस रुपये काउंटर पर रखे और बोला- आठ रुपये की टोफी दे दो। उसने काउंटर पर टोफी रखी और मैंने पहले की भांति सावधानी से उन्हें थेले में डाल लिया। एक आदमी दुकान पर सामान लेने मेरे पास आने लगा तो मैंने उसे संकेत किया कि दूर रहे।
            पुलिसवालों ने मुझे कुछ नहीं कहा। दुकान से पांच कदम चला कि पास वाले मंदिर के पुजारी मिल गए। मैंने हाथ जोड़े और नमस्कार कहा। वे बोले- खुश रहो। पर बड़ा अनर्थ हो गया। यह कोरोना क्या हुआ अब तो कोई भक्त मंदिर ही नहीं आता। और पंडितों का कोई कारोबार तो चलता नहीं। दान-दक्षिणा पर ही घर चलता है। मैंने जेब से एक सौ का नोट निकाला और उनकी तरफ बढ़ा दिया। वे बोले- मेरा मतलब यह नहीं था। मैंने संकेत किया इसे रखें और श्रद्धा से उन्हें फिर नमस्कार किया। उन्होंने नोट ले लिया और उनके चेहरे पर एक चमक आ गई, मैंने विचार किया कि पंडित जी सोच रहे हैं- काश! सारे भक्त, मेरे जैसे हो जाएं। उन्होंने फिर कहा- मैंने तो बस यूं ही कहा था। मैंने कहा- रखिए। और हाथ से विदा कहते हुए धीरे धीरे आगे बढ़ गया। गली में पड़ौस के दो तीन सज्जान खड़े थे और मुझे मास्क लगाए हाथ में थेला लिए देख मुस्कान बिखेरने लगे। एक ने पूछने के लहजे में कहा- सामान ले आए क्या? मैंने सहमति में सिर हिलाया। वे हंसते हुए बोले- ठीक है, ठीक है। लाना ही पड़ता है। ना जाने कोरोना कब पीछा छोड़ेगा।
            घर का मेन गेट लड़के ने खोला और प्रवेश द्वारा भी। मैंने थेले को एक कोने में रख दिया कि कोई हाथ नहीं लगाएगा। कल इस सामान को काम लेंगे और खुद साबुन से हाथ धोने लगा। हाथ ऐसे धोए जैसे थोड़ी सी देर बाहर जाने से बहुत मैल हाथों पर चढ गया हो। फिर मास्क उतारा और उसे अपने ऑफिस बैग में रख दिया। बेटा हंस रहा था। मैंने कहा- हंसने की बात नहीं है। सावधानी जरूरी है और अपने पेंट-शर्ट भी बदल लिए। पत्नी से बोला- मेरे कपड़े गर्म पानी से धोना।
            वह चाय बना लाई और मैंने उसे बताया कि सड़क पर पंडित जी मिले थे। वह तपाक से बोली- उन्हें कुछ दिया क्या? उसमें भक्तिभाव कुछ अधिक ही है। सारी बात जानकर खुश हुई और बोली- ठीक किया। लड़का बीच में बोला- आप बता तो ऐसे रहे हो जैसे पांच सौ रुपये दे कर आए हो।
            गली में कुछ हलचल हुई तो लड़का बाहर की तरफ देखने गया और भीतर आकार बोला- सब्जी वाली गाड़ी आई है। सब्जी लेनी है क्या? पत्नी के ‘हां’ कहने पर वह बोला- बताओ क्या-क्या और कितनी-कितनी लानी है। मैंने उससे कहा- तुम रहने दो। मैं लेकर आ जाऊंगा। वह फिर बोला- क्या गली में जरा सा निकलने में भी मास्क लगा कर बाहर जाओगे। लोग हंसेंगे। वह नाराज होने लगा। मैंने कहा- लोगों के हंसने या रोने से हमें क्या? हम हमारा काम कर रहे हैं और मास्क लगाना जरूरी है। पत्नी से पूछा- सब्जी घर में कितनी और क्या-क्या है? वह बोली- सब खत्म हो गई। जो कुछ मिले ले आओ। दो-तीन दिन के लिए साथ ही ले आना। आलू, प्याज, टमाटर और मिर्च तो चाहिए ही चाहिए। कोई हरी सब्बजी हो तो देखना। मैंने जल्दी से मास्क लगाया और बाहर निकल आया। जेब में पर्श से रुपये रख लिए थे। गाड़ी के पास पहुंचा तब वह जाने वाली ही थी। मैंने आवाज लगाई- भैया, जरा रुकना। गाड़ी रुक गई। आलू, प्याज, टमाटर, मिर्च, तोरू, भिंडी, करेला जो ठीक लगा और जो ठीक दिखा सभी ले लिए। उसने एक बड़ी थेली में सामान डाल दिया तो मैंने कहा कितने हुए? पांच सौ का नोट उसकी टोकरी में रख दिया। छुट्टे हो जाएंगे। उसने एक सौ पचास रुपये वापस दिए। मुझे आश्चर्य हुआ कि साढ़े तीन सौ रुपये की सब्जी हो गई। मैंने कहा- भैया, भाव ठीक लगाए हैं क्या? वह बोला- जी साहब। मंडी में ही सब्जी महंगी है और पास वाली मंडी तो बंद है। हम तो बाहर वाली से लाएं है। आपके वैसे होते तो तीन सौ पचपन है, पर पचास काटे हैं।
            मैंने बहस नहीं की और ना ही फिर कुछ पूछा। थेली के नीचे हाथ लगाया और घर में गोली की तरफ सप से आ गया। सोचा पड़ौसी देख कर सोचेंगे- इतनी सब्जी। और घर में जैसे पहले थेला रखा था उसके पास ही सब्जी को रख दिया। कहना जरूरी नहीं था, फिर भी बोला- बहुत मंहगी है सब्जियां। हाथ धोने की कसरत फिर से करने लगा। दरवाजा बजा। मैंने लड़के से कहा- देख कौन है? उसने देखा और बोला- पता नहीं कौन है? मैंने कहा- बाहर जाकर पूछ तो सही। कोई दरवाजा बजा रहा है और तुम अंदर से देख रहो हो। वह बाहर गया तब आवाज आई- सब्जी अभी साहब लाए थे क्या? उसने बोला- हां। मैंने हाथ धो लिए थे और देखा बेटा सौ का नोट और पर्ची लेकर आया था। वह बोला- आप सौ रुपये अधिक देकर आ गए थे। हिसाब भी सही नहीं किया क्या? मैं क्या कहता, बस चुप रहा और जरा सी मुस्कान बिखेर दी होंठों पर। पत्नी पास ही बैठी थी। वह बोली- बाहर कोरोना बैठा था इसलिए तेरे पापा जल्दी में आ गए बिना ठीक से हिसाब किए। मैंने कहा- यह पर्ची और सौ का नोट उधर एक तरफ रख दे और हाथ ठीक से धो ले। बेटा बोला- सच्ची।  

Saturday, April 11, 2020

उपन्यास री सींव अर लोककथावां री पीड़ / नीरज दइया

लेखक रतन जांगिड़ सेना मांय बरसां अफसर रैया। भारत-पाकिस्तान री सींवां सूं जुड़ी एक कथा बै आपरै दूजै उपन्यास ‘सींवां री पीड़’ मांय कैवै। कथानायक जावर री इण कथा नैं बांचता दो चावा उपन्यास चेतै आवै। पैलो- श्रीलाल नथमल जोशी रो उपन्यास ‘एक बीनणी दो बीन’ चेतै आवै, जिको टेनीसन री कविता-पोथी ‘ईनक आरडन’ माथै आधारित हो। दूजो- यादवेंद्र शर्मा ‘चंद्र’ रो ‘हूं गोरी किण पीव री’। ‘सींवां री पीड़’ री कथा आं दोनू सूं उलट है। अठै गोरी दोय अर पीव एक है। मतलब- ‘हूं पीव किण गौरी रो’ अर ‘दोय बीनणी एक बीन’। त्रिकोणय प्रेम अर फौजी माहौल नूंवी बात कोनी पण हरेक रचना मांय नूंवो हुवै नजरियो।
जावर फौज मांय हुवै अर बो पाकिस्तान पूग जावै। बठै सुलताना सूं ब्यांव हुवै। बेटो गुल हुवै। पण बरसां पछै उण रो चेतो बावड़ै। उण नै याद आवै कै बो हिंदुस्तानी फौज रो सिपाही हो। उण रै तो बेगम फरीदा अर बेटै मंसूर ई है। आ पूरी कथा होयां पछै सुलताना अर गुल साथै बो पाकिस्तान री सींव लांघ’र हिंदुस्तान री सींव मांय आवै। जठै उण नै हिंदुस्तानी फौजी पकड़ लेवै। इकोहत्तर री लड़ाई सूं गायब राजपूत रेजीमेंट रै जवार अली री सगळी कथा लेखक फ्लैस-बैक मांय खोलै। कथनायक बैरक मांय बंदी हुय जावै अर लेखक नै उणरो विगत कैवण रो मौको मिल जावै। उपन्यास इण ढाळै चालू हुवै- ‘ज्यूं-ज्यूं हिंदुस्तान री सींव नेड़ै आय’री ही गुल घणै जोर सूं रोवण लागग्यौ हौ। पाकिस्तान अर हिंदुस्तान री सींव (सरहद) रै फौजिया रा कान खड़िया होवण लागग्या हा। पण गुल बां बातां सूं अणजाण, बस एक ई बात बोलतौ जायरियौ हौ- अब्बू, थे म्हानै छोड़’र मत जाऔ।’ (पेज- 9)
इण उपन्यास माथै विगतवार बात करण सूं पैली ओ जाण लेवां कै लेखक रो दूजो उपन्यास है- ‘सींवां री पीड़’। इण सूं पैली आपरो उपन्यास ‘फूली देवी’ छप्योड़ो। उणनै लेखक एक ‘परेम कथा’ कैवतां साम्हीं राख्यो। बाळपणै मांय लेखक एक कथा आपरी दादीसा सूं सुण्यां करता हा- ‘फूली देवी’ री। दादीसा आ कथा आपरै हाळी तुळसा सूं सुणी ही। लेखक नै इण कथा मांय ठाडो रस हो तद ई बो उमर परवाण आपरी घरआळी सागै हाळी तुळसा रै गांव जावै अर कथा री विगतवार जाणकारी लेवै। उपन्यास मांय कथा बातपोसी रूप मांय देख सकां। राजस्थानी मांय केई-केई लोककथावां मिलै अर बा लांबी कथावां नै उपन्यास अर लोक-उपन्यास कैवण री भूल ई घणी बार करीजी।
लोक मांय केई केई कहाणियां मिलै। ‘सींवां री पीड़’ मांय कोई लोककथा तो नीं है पण लोक मांय चावो किस्सो का कैवां लेखक री सुणियोड़ी किणी कथा नै उपन्यास रूप राखण री आफळ है। इण खेचळ नै आपां उपन्यास री सींव अर लोककथा री पीड़ मान सकां। बुणगट री दीठ सूं देखा तो लेखक आधुनिक कहाणी रै असूलां नै अजमावै। लेखक फौज मांय अफसर रैया अर देस खातर लूंठो कारज संभाळियो उण सारू तो घणी-घणी सरावणा। लेखक रै रूप मांय रतन जांगिड़ उण फौज जावर रो काळजो खोल’र राखण रा जतन ई करै। किणी फौजी रै लखाव नै सबदां मांय ढाळण पेटै राजस्थानी उपन्यास सूं ई दाखलो लेवां तो बरस 2000 मांय छप्यो- ‘एक शहीद फौजी’ देख सकां जिण मांग गोरधन सिंह शेखावत कारगिल जुध रै अमरू नै सहीद करै, मतलब उण सहीद रो सहीद हुवणो उपन्यास मांय इण ढाळै रच देवै कै बो सहीद हो जावै।
उपन्यासकार किणी साच नै जद उपन्यास मांय कैवै तद उण साच नै खरोखरी सबदां रै पाण बांचणियां रै साम्हीं ऊभो करै। रेंजर सींव रै दोनूं पासी हुवै। जावर दोय देसां री सींव लांघ चुक्यो हो पण उपन्यास उणी रात मांय खतम हुय जावै। जावर नै पाछो उण री सागण दुनिया मांय लेखक लाय’र ऊभो कोनी करै जियां कै ‘हूं गौरी किण पीव री’ उपन्यास मांय यादवेंद्र शर्मा ‘चंद्र’ करै। आधुनिक उपन्यास री असल पीड़ तो उण मरद नै आपरी पैली लुगाई साम्हीं पूग्यां ई परवाण चढ़ती। ‘सींवां री पीड़’ मांय ‘सींव’ सबद नै लेखक आपरै उपन्यास री सरुआती ओळ्यां मांय ई सींव मांय बांध देवै। ‘सींव’ रो मायनो ‘सरहद’ मांड’र इण उपन्यास नै देस री सींव रै असवाड़ै-पसवाड़ै खूंटी लगा’र बांध देवै। जद कै असली सींवां री पीड़ तो बेगम फरीदा अर बेगम सुलताना रै हिया तांई पूगणी चाइजै। लुगाई रै हियै री सींवां माथै कोई देस रैंजर ऊभा कोनी कर सकै। हियो तो मिनख रो ई अठै साम्हीं आवै कै बो पाकिस्तान रै एक परिवार नै तबाह कर’र आय जावै।
लारलै बरसां एक फिल्म बणी ‘गजनी’ (2008) जिण मांय शॉर्ट टर्म मेमोरी लॉस री कहाणी ही। ‘सींवां री पीड़’ (2009) मांय मेमोरी लॉस ई कथा रो मरम है। ‘हूणी मिनख नै आपरै गेलै चलावै। आ तौ ऊपराआळै री लीला है अर ईं लीला सागै हूणी भी है। कांई हुवणौ चाइजै अर कांई हुयज्या। केई बूडा-बडेरा कैवै है’क, जैड़ी रात लिखी है बेमाता, बीं जगां बात अवस ई पैदा कर देवै। कठै रौ जुध अर कठै रौ जावर। जे जुध खतम हुयग्यौ अर जावर बच गयौ तौ घरां आवणूं है, पण अठै हूणी आपरी बळ बींनै चलायौ। टैंक रौ धमाकौ हुयौ तौ जावर फेर क्यूं बेहोस हुयौ? बठै रा बाकी बचेड़ै जवानां रौ कांई हुयौ? कै तौ बै बेमौत मारिया गया अर बच्यौ एकलौ जावर अर बौ भी चेतै मांय नीं हौ। धमाकै सूं अवस ई बीं रै दिमाग मांय असर हुयौ। ऊपरआळै री लीला चेतै तौ आई कै बौ बचग्यौ। जे बौ बचग्यौ तौ किण हालत मांय। आज पांचवूं दिन है अर बौ मोरचै सूं निकळ’र जाणै किन्नै बड़ग्यौ है। मोरचै माथै एक दिन, दोय दिन कै तीन दिन पड़ियौ रैयौ व्हैला, पण अबै बौ चालतौ जाय रैयौ है। बींनै तौ अंधारौ ई अंधारौ दिखै। नीं तौ बींनै ठंड लागै अर नीं ठंडी धूर रौ पतौ। सूरज री रोसणी मांय तौ बींनै नींद आय जावै। बौ कीं नाकै जाय रैयौ है, बींनै ठा नीं। कुदरत भी बीं रै सागै। नीं तौ पाकिस्तान रा फौजी दिख्या अर नीं हिन्दुसतान रा। नाक री सीध मांय चाल्यौ जायरियौ हौ।’ (पेज- 48) आ कैवणगत उपन्यास री सींव सूं बारै लोककथावां री पीड़ जियां भासा मांय पसरती जावै।
भासा रा दोय-तीन दाखला भळै अठै देख लेवणा चाइजै क्यूं कै हिंदुस्तान-पाकिस्तान मांय भासा पेटै लेखक रो मानणो है- ‘माणसां री बोली राजस्थानी सूं कीं मिलती-जुलती, माड़ौ सो फरक भी।’ अर ओ माड़ौ सो फरक रो माड़ौ सबद इण ढाळै ई बरतीजै- ‘अफसर एक ई सांस मांय आप रौ आदेस सुणाय दियौ। फेर बौ माड़ौ सो संखारियौ अर थूक गिट’र जावर कानी देखण लाग्यौ। माड़ी-सी देर बीं कानी देख’र बोलण लाग्यौ- देख भाया, जे थूं सही माणस निसरियौ तौ थनै दिल्ली भिजवाय देवूंला अर पछै थूं सिरकार रै हाथां मांय। पण जे थूं कीं गळत मिनख निसरियौ तौ म्हैं थारा हाड तौड़’र पाछै थनै पुळस नै सूंप देवूंला। फेर थारी कांई गति व्हैला... थूं जाण लेयजै।’ (पेज- 17)
‘पैली तो अब्बू रौ औळमौ आवतौ पण सनै-सनै बौ भी बंद हुयग्यौ।’ (पेज-28), ‘फरीदा अर बेटै नै देख’र बीं रै सरीर मांय खून दुगणी गति सूं दौड़ण लाग्यौ।’ (पेज- 37) ‘बियां तौ मां-बेटी री बोलचाल राजस्थानी सूं मिलती-जुलती ई बोली ही, पण फेर भी बेलाखातून नै उरदू रौ माड़ौ सौ ग्यान हौ। सुलताना निरी अणपढ ही, पण मां री तरिया ग्यांन बींनै भी हौ।’ (पेज-56) पाणी अर बोली रै फरक री बात लेखक साफ कर देवै। क्यूं कै ‘परेमियां’ (प्रेमियां) री इण कथा रा ‘गाबा’ (गाभा) सुणियोड़ी लोककथा दांई दीसै।
‘सींवां री पीड़’ री कथा माथै केई सवाल करिया जाय सकै पण ‘सुलतान रौ निकाह सैयद सूं होवण पछै नईम रै पेट पर सांस लोटण लागग्या’ (पेज- 91) तो माड़ी सी ‘मसकत’ (पेज- 99) करणी जरूरी नीं लखावै क्यूं कै ‘सैयद खड़ियौ हुयग्यौ अर फेर सुलताना बीं सूं लिपट’र रोवण लागगी।’(पेज- 103) उपन्यास मांय भासा रो पग केई जागा ‘फिसळग्यौ’ अर लेखक राजस्थानी सूं हिंदी भासा मांय ‘नीचै गिर पड़ियौ है।’(पेज-116) लेखक मेडिकल साइंस रै सागै कुदरत रौ खेल ‘सींवां री पीड़’ मांय दिखावै जिण रो नाट्यरूपांतरण ई हुयो। राजस्थान भर मांय केई जागावां मंचित क्यूं कै ‘सागै ई बींनै औ भी ठा हौ’क पाकिस्तान रै रेजरां रौ कोई भरोसौ नीं है, पण हिन्दुसतान रै फौजियां मांय तौ हिवड़ौ है।’ री तरज माथै ‘बींनै औ भी ठा हौ’क हिंदी रै पाठकां रौ कोई भरोसौ नीं है, पण राजस्थानी आळा मांय तौ हिवड़ौ है।’ भंवरसिंह सामौर साब पोथी रै फ्लैप मांय कैवै- ‘समकालीन भारतीय भासावां रै किणी भी उपन्यास सूं औ उपन्यास उगणीस कोनी इक्कीस ही है।’ कांई ठाह कांई सोच’र आ ओळी सामौर साब लिखी हुवैला।
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सींवां री पीड़ (उपन्यास) मेजर रतन जांगिड़
संस्करण- 2009; पाना- 144 ; मोल- 160/-
प्रकाशक- मरुधरा प्रकाशन, जयपुर
 


उपन्यास मांय कवि रो प्रलाप / नीरज दइया

   तुल कनक राजस्थानी, हिंदी अर अंग्रेजी तीन भासावां मांय बरसां सूं लिखै-पढ़ै। मा-भासा राजस्थानी सूं आपरो ओ हेत कैयो जावैला कै लगोलग सिरजण कर रैया है। राजस्थानी उपन्यास विधा मांय लिखणो आपूआप मांय अबखायां सूं भरियो है। इणी कारण कै उपन्यास कमती लिखीज्या। छपण पेटै ई सुभीतो कोनी अर छप जावै तो बांच’र उण माथै बात करणिया कित्ता है? या कैवां कै कित्ती बात हुई, समीक्षा-आलोचना हुई। खुद री साथळ उघाड़ण सूं कांई फायदो।
    कोई रचनाकार आपरी भासा रै विगसाव सारू कांई कर सकै? कैवणिया कैयग्या कै किणी पण भासा रै विगसाव सारू जरूरी हुवै लगोलग उण नै बरतणो अर आपरै बगत नै अरथावणो। अतुल कनक भासा मांय सबद-प्रयोग अर सबद-रूपां नै लेय’र सावचेत लखावै। वै  रै मारग सूं कथा तांई पूगै, इण खातर वां रो गद्य ई काव्यात्मक है। बियां किणी पण कवि खातर आ बात कैवणी जाबक सरल छै। भासा मांय ‘छै’ अर ‘है’ नै सुभीतै सूं बरत सकां, पण हरेक रचनाकार री आपरी बाण हुवै अर भासा री समरूपता पेटै उण नै विचार करतो रैवणो चाइजै।
    हरेक भासा री आपरी परंपरा हुवै पण उण रै विगसाव सारू आधुनिकत नै अंगेजणो जरूरी मानीजै। परंपरा-विगासाव पेटै आधुनिकता री अखबायां नै अतुल कनक रा उपन्यास- ‘जूण-जातरा’ (2009) ‘छेकड़लो रास’ (2013) अंगेजै। दोनूं उपन्यास खास दीठ सूं अर घणी मैनत सूं लिख्योड़ा है। असल मांय आ दीठ अर मैनत आपरी भासा अर साहित्य पेटै लेखक रो हेत रो पाठ मान सकां, जिण रै पाण वै समकालीन गद्य री भासाई चुनौतियां रै साम्हीं छाती करै। बरसां-बरस सूं चालती इण मिनखाजूण माथै ‘जगत-जुध’ रो संकट मंडरावै।
    ‘सुणू छूं तो सिहर ज्याऊं छूं। दाणां-स्याणां क्‌है छै के जे अब जगतजुद्व होयो तो ऊ जर, जोरू अर जमीन के बेई न्हं होवैगो, फाणी के बेई होवैगो। चाहे सिन्धु होवे के दजला- फरात, मनख ई जूण का तड़काव में ही र्‌हैबा का काण-कायदा सिखाबा हाळी म्हां सगळी नद्दयाँ मनख की ये बातां सुणां छां तो म्हांकी ल्हैरां में जश्याँ बरफ ब्याप जावै छै। जगत को दो तिहाई सूँ बत्तो हिस्सो फाणी छै, फेरूँ भी फाणी बेई जुद्ब? बात कोय के गळे उतर सकै छै कांई?’ (जूण-जातरा, पेज-85) अतुल कनक पाणी नै लोक भासा रै कारण आंचलिक रूप बरतता ‘फाणी’  लिखै अर पूरै उपन्यास मांय सबद पेटै समरूपता राखै। चंबल जरूर व्यक्तिवाचक संज्ञा छै पण लोक भासा रै नांव माथै ‘ल’ रो ‘ळ’ करण री जागा ‘चंबळ’ नीं लिख’र ‘चामळ’ लिखणो ठीक लखावै। हाड़ौती ई नीं आखै राजस्थान मांय ‘बल’ अर ‘बळ’ नै इकसार जाणबा हाळा घणा छै। हरेक री आपरी दीठ हुवै- ‘जुध’ खातर अतुल कनक रै सबद- ‘जुद्व’ अर ‘नदी’ खातर ‘नद्दी’ सूं किणी नै एतराज का कोई ‘स्वाल’ (सवाल) ई हुय सकै। आं सगळी बातां थकां म्हारो मानणो है कै अतुल कनक रै आं दोनूं उपन्यासां रै मारफत उपन्यास-परंपरा अर भासा-विगसाव पेटै लूंठो काम बोलै।
    पैलो उपन्यास ‘जूण-जातरा’ जगत साम्हीं आवण वाळै पाणी रै संकट पेटै चेतावै तो दूजो उपन्यास ‘छेकड़लो रास’ ई लीलाधारी किसन री आंख सूं दुनिया रै सार नै गुणतो निजर आवै। दोनूं उपन्यास मांय मूळ कथा जिसी कोई कथा कोनी, पण सगळी गाथा कथा बायरी ई कोनी। केई केई कथावां रा दाखला सूं ई लेखक एक कथा रचण री खेचळ करै जिकी असल मांय  है। कथा मांय एक  दांई रिदम उपन्यासकार बणावै। आ दोनूं उपन्यासां री बुणगट इण ढाळै री कैया सकां कै उपन्यासकार नै खासी छूट मिल जवै। नद्दी रो आपरी बात कैवणो का कैवां विचारणो अर दूजो लीलाधारी किसन रो छेहलै बगत रो वरण करणो दोनूं इण ढाळै री घटनावां है जठै किणी ढाळै रै बंधण री गुंजाइस कोनी। इण नै आपां उपन्यास मांय कवि रो प्रलाप कैय सकां।
    ‘जुध सूं कुण को हित सध्यो छै, जे किसन कुरूखेतर में जुध ई साधबा की जुगत करतो? ऊ तो जगत के तांई हेत को पाठ पढ़ाबा आयो छो। गुरू सांदीपनी ने जद जोग ज्ञान की भोळावण दी छी, तद किसन ने ही वां सूं कही छी के- प्रेम भी तो जोग ही छै। जे प्रेम मनख के तांई मनख सूं जोड़ै छै, ऊं सूं लोठो जोग कश्यो? प्रेम को जोग सधै तो जूण का घणकरा जोग आपूं आप ई मुजरो करता सा सध ज्यावै छै।’ (छेकड़लो रास, पेज-83) नदी अर किसन दोनूं ई जगत नै प्रेम दियो अर इणी नै जोग मान’र स्सौ की साधण री तजबीज करी। छेकड़लै बगत किसन आपरै विगत नै चेतै करता कठै कठै पूग जावै अर घिर-घिर चेतै करै तद केई केई रंग आपां रै साम्हीं आवै। दोनूं उपन्यास आपसरी मांय रळ जावै अर बांचणियां साम्हीं जाणै छेकड़ली जातरा रै मारफत जूण-रास राखै। 
    ‘जूण-जातर’ मांय लेखक आगूंच आपरी - ‘नदी सूं पूछ’र देखो’ राखै अर ‘म्हूं अर नद्दी’ नांव सूं खुद री बात ई मांडै। कवि लिखै- ‘नदी का/ मन में कांई छै/ के ऊं की पीर कांई छै/ कोय दन डूब’र देखो....’ कवि रो उपन्यासकार रूप नदी रै मन री बातां मांय डूब’र राखण रो जतन ओ उपन्यास है। साफ पाणी रै आवतै संकट री चिंता वाजिब चिंता है। चामळ नदी रो उपन्यास एक काव्यात्मक-प्रलाप है। इण नै चामळ नदी रै मिस पाणी री आत्मकथा का आत्मकथ्य ई कैय सकां।
    ‘जूण-जातरा’ उपन्यास विधा रा परंपरागत मानकां अर असूलां सूं अळघो एक प्रयोग है। ओ प्रयोग कवि रै जीव मांय कियां ढूक्यो इण पेटै उपन्यासकार आपरी बात मांय लिखै- ‘आज पिताजी ई रामशरण होयां पूरा सात बरस बीत ग्या, पण अबार भी जश्यां हूं नरबदा जी की ऊं डुबकी सूं ही भीज र्‌यो छूं, जे डुबकी म्हंनै औंकारेश्बर सूं सिद्ववरकूट पूग्या पाछै दैवदरस सूं सैं प्‌हैली लगाई छी।’ (जूण-जातरा, पेज-5) बगत रै आर-पार आवण-जावण री खिमता कवि री कै बो चामळ रै कांठै पूग’र लगोलग उण सूं बंतळ करै। कवि रै पाखती एक न्यारी कवि-दीठ हुवै, जिण सूं बो नदी री आंख्यां देख सकै। अर बो देख सकै उण नदी री आंख्यां मांय दो खारी बूंदां। कवि लिखै- ‘म्हूं ईं पोथी के तांई नद्दी का दरस को प्रसाद मानूं छूँ। नद्दी ने तो देबा में कोय कसर न्हं राखणी, पण नद्दी का महत्त ई झेलबा बेई गंगाधर जशी छिमता हूं कठी सूं लातो जतनी सी म्हारी सामर्थ छी, वतनो पुन्न अंगेज’र आपकै सामै घरूँ छूँ।’ (जूण-जातरा, पेज-7) कैवणो चाइजै कै ओ नद्दी री ई खिमता कै आपरी बात जूण-जातरा रै मारफत आपां नै कैवै।
    जूण-जातरा चालू हुवै- इण ओळी सूं- ‘म्हूँ चामळ छूँ’ अर छेकड़ली ओळ्यां है- ‘चालूँ। नरी जेज होगी। आपको मन मिल्यो तो अतनी बतिया भी ली। न्हं तो म्हाँ नद्दयां की जूण में अतनी थरता कठी छै? ळगौळग चालबो ही तो म्हां की जूण जातरा छै।’ (जूण-जातरा, पेज-104) सबद- ‘ळगौळग’ (लगौलग) पेटै बात नीं कर’र, अठै म्हैं आ अरज करणी चावूं कै ‘चामळ’ नै पूरै लगैटगै सौ पानां मांय बोलावणो कोई हंसी-खेल बात कोनी। ओ राजस्थानी ई भारतीय साहित्य रै गद्य रो डार्क जोन का कैवां कै धोरां री धरती रा बै लांठां धोरियां है जठै एक-एक पावंडो का सांस लेवणो ई भारी हुय जावै । अतुल कनक ‘जूण-जातरा’ पेटै खूब काम करियो लखावै। उपन्यास मांय ‘चामळ’ अर ‘लेखक’ नै आपां बातपोसी रै रूप मांय ओळख सकां। एक कैवणियो है अर सुणणवाळो। फाणी (पाणी) पेटै उपन्यास सूं जिकी ‘घरबीती’ अर ‘परबीती’ भेळै देस-दुनिया रै दरियाव रो पसराव देखण नै मिलै, उण नै जाण’र घणो अचरज हुवै। ख्याणी (कहाणी) अर दूजी-दूजी ख्याणियां नै रळावतां उपन्यास मांय केई-केई नूंवी जाणकारियां ई लेखक देवै। उपन्यास मांय इतिहास, पुराण अर लौकिक साहित्य री घणी जाणकारियां भेळै जाणै आवतै उपन्यास ‘छेकड़लो रास’ री जमीन ई देख सकां।
    ‘बतावै छै के एक बेर स्री किसन की पटरानी रूक्मणि जी ईं यो डमस हो ग्यो के वै तो पटरानी छै। म्हैलाँ में किसन जी सागै वास करै छै- फेर राधा जी का प्रेम की काअंई बिसात? किसन जी सूँ कांई छिप्यो छो। वै मुळक’र र्‌है ग्या। रात नै किसन जी म्हैल में पोढ्या होया छा। रूक्मणि जी कमरा में पधार्‌या तो वांई यो देख’र घणो अचरज होयो के पोढ्या पोढ्या किसन जी के पगाँ में अचाणचक बड़ा बड़ा छाळा हो ग्या? या कशी मोहणी छी मनमोहन?....’  (जूण-जातरा, पेज-38) ‘रूक्मणि के तांई डमस होग्यो के गाबा हाळा लाख गुण गावै राधा किसन का प्रेम का, पण पतराणी तो रूक्मणि ही छै। पटराणी सूँ बद’र द्वारकाधीश सूँ कुण प्रेम कर सकै छै अर द्वारकाधीश को प्रेम भी कोय के बेई आपणीं पटराणी सूँ बद के थोड़े ही हो सकै छै। ऊँ ही रात पलंग पे पोढ्या किसन का पगाँ पे अचाणचक छाळा फूट्याया। न्हँ कोय बात, न्हँ कोय झिकाळ। -तो कांई कोय ने काळो जादू कर्‌यो छै मुरलीधर पे? किसन का पगां पे चाला देख’र महाराणी रूक्मणि को म्हैड़लो काळम्यावाँ सूं भर ग्यो।' (छेकड़लो रास, पेज-53) पैलै उपन्यास मांय नदी अर दूजै उपन्यास मांय भगवान किसन रै मिस सागी प्रसंग नै साम्हीं राखणो का उपन्यास मांय कैयोड़ी किणी बात नै पाछी कैवणी प्रलाप मांय जायज कैय सकां। ‘छेकड़लो बगत आवै छै, तो ओळ्यूँ सूँ रच्या-पग्या कतना ही चतराम आँख्यां के सामै रम्मत करबा लागै छै। कोय की ओळ्यूँ म्हैड़ला का आडा पे खटखटाती न्हँ तो किसन आज सागळी बाताँ कीं लेखै बच्यारतो?’ (छेकड़लो रास, पेज-91) राजस्थानी मांय इण ढाळै रा दूजा कोई उपन्यास का उपन्यासकार कोनी इण खातर इण नै नूंवी अर न्यारी धारा कैय सकां।
    बीजी भारतीय भासावां मांय इतिहास अर पौराणिक चरित्रां माथै न्यारी न्यारी विधावां मांय केई रचनावां रा दाखला मिलै। राजस्थानी मांय किणी बांची का सुणी कथा नै भासा मांय ढाळणो अबखो काम। किसन अर सुदामा री कथा सूं आपां अणजाण कोनी। ‘म्हैल के बारणै ऊब्या दरबानाँ सूँ बोल्यो- किसन को भाएलो छूँ। मिलबो चाहूँ छूँ। सुणबा हाळाँ ई मसखरी सूझी। कठी फाट्या लत्ता प्‌हैर्‌यो यो सकीम बामण, अर कठी देवतान्‍ को वैभव भी जीं की संपत के सामै फाणी भरता दीखे- ऊ द्वारकाधीस किसन? दूँक’र भगा द्‌याँ, के कोय ओळावे खळका द्‌याँ ई बामण के तांई? पण किसन को हुकुम छो, के म्हैल का बारणै कोय भी मिलबा की हूँस ले’र आवै तो म्हारै तांई समचौ जरूर पुगाजो। कारू-चाकर काँई करता? समचौ पुगा द्‌यो- कौय बगनायो बामण लागै छै। नाँव सुदामा बतावै छै अर आपणै तांई दाता-होकम को बेली बतावै छै।’ (छेकड़लो रास, पेज-70-71) इणी बात मांय पूरै उपन्यास रो असूल इण रूप देख सकां कै खुद सुदामा कांई कैयो अर किसन रा दरबारी उणी बात नै किसन रै साम्हीं किण रूप मांय राखी। इणी ढाळै जूण री छेहली रास छोड़ती बगत किसन खुद कांई सोचता रैया अर उपन्यासकार उण नै किण ढाळै भासा मांय राखण रा जतन करै, आ खेचळ ई जसजोग बात है। सेवट मांय सगळा सूं लांठी बात कै अतुल कनक जिण सवालां नै आपरी रचनात्मकता रै पाण आपां साम्हीं राखै, बै बगत रा महतावू अर जरूरी सवाल है। बगत रैवता आं सवालां माथै विचार सारू जे आपां संभ जावलां तो आ सगळा री सफलता।
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जूण-जातरा (उपन्यास) अतुल कनक
संस्करण- 2009; पाना- 104 ; मोल- 150/-
प्रकाशक- लेखक आप
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छेकड़लो रास (उपन्यास) अतुल कनक
संस्करण- 2013; पाना- 104 ; मोल- 70/-
प्रकाशक- बोधि प्रकाशन, जयपुर
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Tuesday, April 07, 2020

कहाणी री काया मांय उपन्यास / नीरज दइया

कहाणीकार श्याम जांगिड़ हिंदी-राजस्थानी दोनूं भासावां मांय लिखै अर आधुनिक साहित्य रा जाणीकार मानीजै। वां रो पैलो राजस्थानी उपन्यास ‘नौरंगजी री अमर कहाणी’ एक औपन्यासिक प्रयोग है। ‘शेखर एक जीवनी’ अर ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ दांई उपन्यास रो नांव- ‘नौरंगजी री अमर कहाणी’ कीं नूंवो टोटको जरूर है। ओ उपन्यास असल मांय कहाणी री काया मांय उपन्यास रचण री सांवठी खेचळ कैयो जावैला। इण उपन्यास रा दोय भाग है। पैलो भाग- एक कहाणी रै रूप मांय अर दूजो- एक उपन्यास रै रूप मांय। इणी खातर म्हैं इण नै ‘कहाणी री काया मांय उपन्यास’ कैयो है। अठै ओ पण सवाल ई साम्हीं आवै कै श्याम जांगिड़ जिण ढाळै आ कहाणी रची है, आपां वां री इण उपन्यास री भूमिका का जातरा-संस्मरण ई कैय सकां। आज जद विधावां रा आंतरा अर सींवां आपसरी मांय सेळ-भेळ हुयता जाय रैया है, उण बगत राजस्थानी मांय इण ढाळै रो प्रयोग सरावणजोग कैयो जावैला।
उपन्यास री सरुपोत री ओळ्यां देखां- ‘म्हैं नौरंगजी अर नानकंवर री समाध रै बारै में कतई अणजाण हो। फेर भी म्हैं होटल मैनेजर मि. दत्ता रै साम्हीं हां-हूं करतौ रयौ। आसामी रै आगी आपणौ पोत कियाअं देवतौ? बल्कै म्हैं म्हारी अणजाणता नैं ल्हुकोवतौ असल मुद्दै नैं समझण री चेस्टा करै हौ। असल मुद्दौ म्हारै तांई रोकड़ा कमाबा री गुंजास टटोळणौ हौ।... दखां तौ, इण असामी सूं कितरी’क आमद होय सकै।’ (पेज- 7) लेखक रो अर पूरी कथा रै सूत्रधार रो ओ आसामी रै ‘आगी’ (आगै/ साम्हीं) एक कबूलनामो है। बो नौरंगजी अर नानकंवर रै बारै में ‘साव’ अणजाण नीं, ‘बल्कै’ ‘कतई’ अणजाण बतायो गयो है। बो आपरी ‘अणजाणता’ नै ‘ल्हुकोवतौ’ (लुकोवतो) गुंजास (गुंजाइस) नै ‘टटोळ’ रैयो हो कै ‘दखां’ (देखां)। भासा अर इण ढाळै रै सबद-प्रयोग री इण बात भेळै अठै ओ बतावणो ई जरूरी लखावै कै कथा रो सूत्रधार ‘चिनेक’ परिचै आपरो ई लिख्यो है। जिण मुजब सूत्रधार गणपति सहाय पाठक बनाम जी.एस. पाठक अर पाठक जी मोटा मिनख है। बै राजस्थान री लोक-संस्क्रति माथै काम करै अर कदी किणी अखबार में लेख ई लिखै, कदै जलसा करावावै तो कदी (कदैई) किणी घूमंतू लोगां नैं लेय’र लोक रा दरसण ई करवा लावै। ‘मतलब कोई ठायौ-ठावकौ कांम या नौकरी कोनी। बस आ समझौ कै म्हारौ रुजगार एक आकास-बिरती जैड़ौ है, जिणनैं आजकाल री नवी भासा में फ्रीलांसिंग कैवै- लोक-संस्क्रति री फ्रीलांसिंग!’ (पेज-9)
लोक-संस्क्रति रा फ्रीलांसिंग साब नै होटल सूं बुलावो आवै कै बै मिस्टर जैक (जैकलीन) अर कुमारी ऐनी (ऐनी मोरिया) जिका लिव इन रिलेशन मांय है बां री शेखावाटी अंचळ री ‘दिव्य प्रेमकथा’ (डिवाइन लव स्टोरी) शोध मांय सागो देवै। ओ ‘सागो’ पाठक जी पच्चीस हजार मांय पक्को करै। इण सूं पैली पाठक जी नै उण अंग्रेज छोरी नै देख’र पंकज उधास रो गाणो याद आवै- ‘चांदी जैसा रूप है तेरा सोने जैसे बाल’ स्यात ओ ई कारण है कै सूत्रधार आगै जठै कठै मौको मिलै इण अंग्रेज छोरी रै रूप माथै कुण कियां लट्टू हुवै बतावणो नीं भूलै। प्रेमकथावां तो राजस्थान मांय घणी मिलै पण गूगल माथै सर्च कर’र आयो ओ जोड़ो नौरंगजी अर नानकंवर री समाध देखणी अर पूरी विगतवार जाणकारी लेवणी चावै। ‘दिव्य’ (डिवाइन) रो अरथाव करां तो आपां प्रेमकथा रै आगै विसेसण लगा सका- अनोखी, उत्तम, जगमगवती, पवित्र, सांतरी, चोखी, अलौकिक, चमत्कारी आद आद। पूरी कथा मांय प्रेम नीं हुय राजस्थानी संस्कृति मुजब कौल सूं बंध्योड़ा दोय आदमी लुगाई है जिका किणी खास बगत एक’र कंवळा जरूर पड़ै पण बै ठेठ तांई भळै संभळियोड़ा रैवै। म्हारी इण बात भेळै डॉ. कृष्णा जाखड़ री आ ओळ्यां री साख ई जरूरी लखावै- ‘ओ उपन्यास जिकी कथा कैवै लेखक उण नै एक प्रेमकथा बतावै, पण एक पाठक री दीठ सूं आ प्रेमकथा तो नीं लागै। ब्रिटिशकालीन भारत रै एक छोटै-सै गांव ‘सैदानगर’ री कहाणी, जिकी में दास भाव सूं त्याग और समपरण री लूंठी मिसाल मांय नौरंगजी रै जीवण री विडंबना व्यक्त हुई है।’ (जागती जोत : अप्रैल-मई, 2018)
लेखक जिण दिव्य प्रेम नै अलौकिक रूप मांय दरसावण री जुगत करै बा किणी लोककथा दांई घणी रूपाळी लखावै। इण उपन्यास रो रूपास ओ पण कैयो जाय सकै कै नूंवी कहाणी री काया मांय जूनी लोककथा परोटै। प्रेम मांय मान्यो कै मिलणो जरूरी कोनी पण इण नै प्रेम इण खातर ई नीं कैय सकां कै जद लोक मांय ठाकर सूगली बातां करतो उपन्यास रै दीठाव मांय राखीजै उण टैम नौरंगजी जिण ढाळै चौफाळिया हुवै उण सूं ठाह पड़ै कै उण नै ओ प्रेम-प्रसंग किणी भूंडी गाळ रै रूप मांय लाग रैयो है। उपन्यास सूं पैली लेखक लिख्यो है- ‘इण उपन्यास री कथा किणी भी इतिहासू घटना माथै आधारित नीं है। जदि कोई पात्र या घटना किणी सूं मेळ खावै तौ औ फगत संजोग मान्यौ जावै। आ कथा, लेखक रौ फगत काल्पनिक सिरजण है।’ काल्पनिक मतलब गोड़ै घड़ी कथा का कोरी मोरी गप। बियां गप तो छोटी हुवै अर मोटो हुवै- गपोड़, तो ओ पण कैयो जाय सकै कै लेखक श्याम जांगिड़ गोड़ै घड़ी कथा नै किणी जथारथ मांय गपोड़ रचता थका घणी खिमता राखै। अठै शेखावाटी अंचल री जूनी सांस्कृतिक छिब भेळै केई-केई बातां ठावै ढंग-ढाळै अर रूप-रंग मांय साम्हीं आवै। ओ लेखक रो हुनर कैयो जावैला कै बै उपन्यास विधा री बुणगट नै पूरो बदळ’र नूंवी दीठ सूं आधुनिकता अर परंपरावां रो मेळ करावै। आज गूगल बाबा री क्रांति आयगी अर पैली राजावां रै राज मांय जूण जातरा किण ढाळै री हुया करती ही वा इण उपन्यास रै केई प्रसंगां सूं साम्हीं आवै। असल मांय ओ उपन्यास आपां नै नूंवै अर जूनै बगत रै बदळावां नै परखण पेटै दीठ देवै।
कथा अर प्रेमकथा बिचाळै गपचोळो हुवण सूं ई लेखक इण रो नांव ‘नौरंगजी री अमर कहाणी’ राखै। प्रेम री बात साथै हेत री बात आ कै लेखक रो राजस्थानी भासा अर संस्क्रति सूं अणथाग हेत है। बो अंग्रेज जोड़ै सूं हुयै संवाद नै आपां नै आपां री भासा मांय अर बांनै बां री भासा मांय बतावै-समझावै। ‘अतरी अंग्रेजी तो म्हैं भी जाणूं हूं।’ (पेज-9) जठै सूं चालू हुवै एक जातरा जिकी इण उपन्यास री आगूंच कहाणी का कैवां भूमिका है। सूत्रधार आपरै भायलै री मदद सूं इण अंग्रेज जोड़ै नै समाध तांई लेय जावै दरसण करावै अर लोक मानतावां सूं अठै री संस्क्रति रीत-रिवाज मांड’र विगतवार बतावै। मूळ कथा सूं पैली इण कथा मांय नौरंगजी री अमर कहाणी री शोध है अर सेवट एक पोथी मिलै जिकी डिंगळ रा जाणीकार प्रो. नवलसिंह चारण बीस हजार रिपियां मांय अंग्रेजी उल्थो उण कथा रो कर’र देवै। सूत्रधार उण नै ई-मेल सूं उण अंग्रेजणी नै भेजै। आ भूमिका है मूळ कथा सूं पैली।
इण बात मांय दर ई संका नीं कै सूत्रधार ‘नौरंगजी री अमर कहाणी’ रचण रो एक मोटो काम करै। उण री माना तो- ‘म्हैं अंग्रेजी सूं राजस्थानी में इण कथा नैं अंगेजी हूं। कांई करूं, डिंगळ नीं जाणण सूं अंग्रेजी रो सायरौ लेवणौ पड़ियौ। इण काव्य-कथा में केई गैर जरूरी चीजां भी ही, जिको म्हैं छोड दीनी। जियां सरुआत में सुरसत-गणेश सिमरण। सौदानगर रौ इतिहास-बंसबेल। बिचाळै केई जग्यां देव-दानव जुद्ध रा मोकळा पद। लागै कवि रौ उदेस देव विरती री दानव विरती माथै विजै दरसावणौ रैयोड़ौ है।’ (पेज-64) डॉ. कृष्णा जाखड़ मुजब- ‘उपन्यास नैं रोचक बणावण वास्तै उपन्यासकार जिकी भूमिका बांधी है वा कीं बेसी लांबी हुय जावै अर बठै पाठक रौ धीजो टूटै।’ (जागती जोत : अप्रैल-मई, 2018)
डॉ. चेतन स्वामी मुजब- ‘श्यामजी रै इण नैनै उपन्यास नै आपां महाकाव्यात्मक उपन्यास जैड़ी ओपमा तो नीं बगस सकां, पण ओ भरोसो जरूर दिरवा सकां कै इण मांय एकदम टटकैपण सागै नूंवो कथानक आपां रै मुंडागै राख्यो है, जिको राजस्थानी पाठकां नै ऊब सूं परियां लेजाय’र रोचकता री रळियावणी गळियां री सैल करावै।’ (फ्लैप सूं) रोचकता री रळियावणी गळियां री सैल बिचाळै लेखक आपरी एक भासा बणावण रा जतन ई करै पण इण उपन्यास रो भासा-रूप मूळ मांय हिंदी सूं करियोड़ो उल्थै जैड़ो लखावै। अथ स्री मूळ कथा रै पैलै अध्याय रो नांव ‘खड़जंत्र’ राख्यो है। लेखक री जूनी आदत रैयी है ‘यदि’ नै ‘जदि’ उल्थो कर’र बरतणो। इणी ढाळै ‘स्कूल’ नै ‘इस्कूल’ लिखां तो ‘अंडा’ नै ‘इंडा’ क्यूं नीं लिखा जैड़ा केई सवाल है। लेखक नै आं सगळा सवालां अर बातां पछै ई इण औपन्यासिक प्रयोग है सारू बधाई कै वां अबखै टैम जिण हूंस सूं ओ काम करियो बो सरावजोग है।

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नौरंगजी री अमर कहाणी (उपन्यास) श्याम जांगिड़
संस्करण- 2018 ; पाना- 120 ; मोल- 250/-
प्रकाशक- बोधि प्रकाशन, जयपुर

होमीजती जूण रै मिस कीं सवाल / नीरज दइया

‘जय जवान जय किसान’ फगत एक ओळी कोनी। आखै भारत री आ जनभावनावां इण ओळी मांय रळियोड़ी है। देस री आजादी रै इत्ता बरसां पछै ई किसानां री हालत लगोलग खसता है अर बै तकलीफां मांय है। केई केई कारण रैया। पण जिण नै असली अन्नदाता कैय’र ऊंचै आसण बिठा दियो बो किसान आपरो दुख-दरद किण नै कैवै-सुणावै। कुण है उण री पीड़ नै सुणणियो? आपां लारलै केई बरसां सूं अखबारां मांय किसानां बाबत समाचार बांच्या कै बै आतमधात कर रैया है। आतमधात रै सरकारी आंकड़ा मांय नीं जाय’र सोचां कै जे सीवां माथै जवान अर खेतां मांय किसान नीं हुवैला तो आपां रो कांई हाल हुवैला। जे देस रा जवान अर किसान समरपित नीं रैवैला तो आवणवाळो बगत आपांरी बरबादी रो हुवैला। जे आज किसान खुद नै बरबाद समझ रैया है तो देस-समाज अर सरकार नै बगत रैवतां कीं करणो चाइजै। राजस्थान मांय रावला-घडसाना अर जैसलमेर जैड़ी केई जगावां पाणी नै लेय’र आंदोलन हुया। इंदिरा गांधी नहर पछै ई किसान पाणी पेटै केई तकलीफां झेल रैया है। ‘मेह बिना मत मार’ री अरदास करणियां इण जमी रा धणी किसान खुद री जूण नै अकारथ समझ रैया है। किसान करजै सूं दबता जा रैया है अर बां री आखी जूण सिळगती जाय रैयी है। च्यारूमेर आग लाग्योड़ी है अर इण आग सूं रोटी सेकटियां खुद री रोटी सेक रैया है। खून चूसणिया खून चूस रैया है। माल-मलीदा बणावणिया माल-मलीदा बणा रैया है। आं सगळी बातां-घटनावां नै चावा कहाणीकार पूर्ण शर्मा ‘पूरण’ देखै-परखै अर पैलो उपन्यास ‘होम’ रचै। ‘होम’ रै समरपण मांय बै लिखै- ‘अरपूं/ वां नै/ जका धरती मां री चाती चीर,/ आखै जण रो दरड़ौ भरै...’
चौबीस कड़ियां मांय रचीज्यो ‘होम’ एक सांवठो उपन्यास है। जिण रै मारफत उपन्यासकार कथानायक सांवतै रै मिस किसानां री होमीजती जूण रो आखो इतिहास बतावै। किणी पण उपन्यास मांय जथारथ दोय ढाळा मांय अंगेज सकां। पैलो- जिण री विगत म्हैं आगूंच मांडी जिकी भावभोम माथै ‘होम’ साम्हीं आयो है अर दूजी गोड़ै घड़ी किणी कथा रो पसराव साच दांई करणो। देस अर दुनिया नै देखता-विचारता खुद उपन्यास मांय नूंवो संसार लेखक रचै। संजोग सूं उपन्यास ‘होम’ री कथा उणी जमीन सूं जुड़ियोड़ी है, जिकी खुद उपन्यासकार रै नजीक सूं देखी-परखी जमीन है। अठै खतरो ओ हुया करै कै किणी खबर अर सूचना नै जद किणी रचना मांय राखां तद बा फगत खबर अर सूचना रै रूप मांय नीं रैय’र विगतवार घटना अर बगत रै रूप मांय राखीजै। घड़साणा रो किसान आंदोलन इक्कीसवीं सदी री खास घटनावां रै रूप मांय आपां खबरां मांय देख सकां पण उण नै उपन्यास मांय ऊभो करणो हरेक रै बस री बात कोनी। पूर्ण शर्मा ‘पूरण’ इण घटना रै इतिहास सूं ‘होम’ उपन्यास रै नायक ‘सांवतौ’ नै एक प्रतीक रूप रचै कै बो आखी दुनिया रो सांवतो वण जवै। उण रै उणियारै मांय आखै देस रै किसानां रो उणियारो आपां देख सकां। आं ओळ्यां नै कीं बधावां तो फगत किसान ई क्यूं मोटै रूप मांय ओ बो उणियारो है जिको राज-काज, सत्ता-समाज री घाणी मांय लगोलग पीसजतो जाय रैयो है। ‘होम’ मांय बात मिनख रै हक री है। उण रै हक री कोई लांबी-चौड़ी विगत नीं है। बो फगत दोय टैम री बाजरी चावै। जे आ बात ई किणी नै बेजा लखावै तो ‘होम’ री इण लपटां सूं कोई नीं बचैला।
सांवतै नै आखै मुलक रै पीसीजतै किरसाणा रो प्रतिनिधि मानणौ चाहिजै। आपरी बात उपन्यासकार माटी सूं चालू करै अर मिनख रै माटी हुवण माथै पूरी करै। ‘चक 12 एनटीआर। चौगड़दै पसरेड़ी ढाणियां। केई-एक बीघै-बीघै रै आंतरै अर केई-एक मुरब्बै-दो-मुरब्बा दूर तांई... छिटकेड़ी-सी। चक रै उतरादै पासै बगै एनटीआर नैहर। साठेक साल पैलां अठै नैहर कोनी ही। उण बखत ना कठैई ढाणी ही अर ना कठैई खेत। बणी हुंवती। कोसां पसरेड़ी। थोड़ौ कीं और चाल्यां, दिखणादी अर अगूणी कूंट मांय हुंवती गोगामेड़ी, जकी अबार एक ठाड़ै धाम मांय बदळीजरी है। गुगामेड़ी मिंदर रै चौफेर कोसां तांई पसरेड़ी ही आ बणी, जकी छात बाजती। गूगै री छात।’ (पेज- 11) ‘आज बैठक मांय फैसलौ हुवंती बरियां पांचूं जणां री आंख्यां साम्हीं सांवतै री लास आयगी। माटी देवण सारू उडीकती लास। अर... अर देवणियै नै जकौ कीं देवणो हो वो ई दियौ।’ (पेज-150) बियां ‘होम’ दुखांत उपन्यास है पण लेखक आस री किरण इण ढाळै दरसावै- ‘एक आंख अजैई उमेद करै ही- ....सांवत री पाड़ेडी आ डांडी कदेई मारग बणसी.... आम मारग।’ होमीजती सांवतै री जूण रै मिस उपन्यास मोटो सवाल करै कै इण देस मांय इण ढाळै री केई-केई डांडियां साम्हीं आवै पण आं नै खास अर पुखता मारग क्यूं नीं मिल रैयो है।
होम रै सांवतै अर फौजी दादै रै मारफत आपां जाणां कै मिनखाजूण मांय बदळाव खातर कठैई कोई चिणखी किणी ढाळै अंवेरीजै कै उण सूं चेतना री अगन चौफेर पसरै। लोगां नै खुद रै हकां खातर जोड़णा अर बोलण खातर तैयार करणा सौखो काम कोनी, इण दीठ सूं ‘होम’ एक उपन्यास नीं होय’र किसनां रै जन जागरण रो एक लूंठो गीत है। इण मांय केई मारम रा प्रसंगां मांय रोवती मिनखाजूण नै देख’र बांचणियां नै रोवणो आवै। जियां- पाणी किसानां नै पोखै पण जद उण रो विकराळ रूप देखां तो काळजो जागा छोड़ देवै, इणी ढाळै विमला रो सांवतै री मौत रो सपनो अर असल मांय सांवतै रो मरण बांचणियां रै हियै नै परस लेवै। किणी लेखक री सफलता इण बात सूं मानीजै कै बो आपरै सबदां सूं सुख-दुख रो कित्तो लखावै आपरै बांचणियां नै करा सकै।
पूर्ण शर्मा ‘पूरण’ रै इण उपन्यास मांय राजस्थान री धरती रा केई-केई रंग देखण नै मिलै। हनुमानगढ-गंगानगर रै नहरी इलाकै रो नहर आवण पछै जिको बदळाव हुयो उण रो सांगोपाग बखाण ‘होम’ करै। उपन्यासकार जमीन सूं जुड़’र जमीन री बात करै अर जमीन नै ई स्सौ कीं समझणआळां री खुल’र बात करै। सांवतो-विमला रै घर परिवार नै केंद्र मांय राखतो उपन्यास इक्कीसबीं सदी री अबखयां रो विगतवार खुलासो करै। पैंताळीस बरसां रै इण माणस कथानायक रै मारफत घणी-लुगाई, घर-परिवार-समाज, यारी-दोस्ती, खेती-बाड़ी, बदळतै बगत रो ढंग-ढाळो स्सौ कीं न्यारी न्यारी कथावां रै मारफत जुड़तो जावै। इण मांय घर-परिवारां रा फंटवाड़ा, रिस्तैदारी, गांवां मांय टाबरां री भणाई, बां रा सुपनां, जमीन नै संभाळण रो धरम, काळ अर करज सूं बाथेड़ा, नुंवी हवा अर आंदोलन आद केई रंगां-बदरंगां मांय सुळती-घुखती मिनखाजूण सेवट ‘होम’ री लपटां मांय बदळीज जावै। सांवतो होम री आहूति है पण लेखक उण नै घणै नेठाव अर धीरज आळै मिनख रूप होळै-होळै पुड़त-दर-पुड़त खोलै- ‘सांवतौ इसी बातां आपरी जोड़ायत सागै घट ई बतळावै। उणनै ठाह तो है कै विमला सूं छानौ कोनी पण फेर ई वो अपारै मांय बधतै करजै रै दुख नै बारै कोनी ढुळण देवै। घणी ई ख्यांत राखै कै दुख री इण जेवड़ी रो दूजौ नुग्गौ कठैई उणरी जोड़ायत विमला रै हाथ नीं लग जावै। नुग्गौ विमला रै हाथ लाग्यां खुद उणरै भीतर तालामेली बध जावै।’ (पेज-17)
सांवतै रा माडा दिनां बिचाळै केई बार लखावै कै अबै आछा दिन आवणआळा है पण बै आंवता-आंवता पाछा हुय जावै। बैंकआळै लोन सूं ट्यूबवैल लगावण री मनस्या ही पण मिनख सोचै कीं अर हुवै कीं। सोची आपां री कद हुवै! जूण मांय दरड़ा इत्ता कै एक बूरीजै कोनी दूजो तैयार मिलै। बैंकआळा ई कमती कोनी हुवै, सगळी जागावां जाण-पिछाण चाइजै। सांवतै नै फौजी दादै री सिफारस सूं लोन तो मिल्यो पण कट-कुटा’र। ‘होम’ किसानी जूण रै हियै जलती आस-निरास भेळै सुख-दुख रा केई केई प्रपंच रचै। उपन्यास मांय हनुमानढ़ रा कलैक्टर साब वी. रंगनाथन रो बेली जयंत जिको ‘ऐग्रीकल्चर सर्वे ऑफ इंडिया’ रो नुंमाइंदौ है जिको खळाखळ राजस्थानी बोलै-समझै, इण नै लेखक रो भासा खातर प्रेम कैय सकां। जयंत नै राजस्थानी रो इत्तो हेताळु बणा दियो कै बो रपट बाबत ई सावळ राजस्थानी मांय बात करै, जिकी मानणै में कोनी आवै। ‘जयंत आपरी इण रपट नै बांच-बांचनै ओजू बांची है। वो अठै री लोकल भासा तो कोनी जाणै पण फेर ई उणरै इत्ती समझ मांय तो आयगी कै अठै सैंग रो काळजौ चालणीबेज हुयरियौ है।' (पेज-75) लोग जद दारू सूं भरीज जावै बै अंग्रेजी बोलै, भादर जी रै फर्म हाउस री छात माथै जयंत माथै जद रंग चढै वो राजस्थानी मांय बोलै- ‘म्हैं थानै किसान कोनी मानूं भा...दर.. जी।’ (पेज-71) इत्तो ई नीं बो इण मिसन रै ओळावै मौकौ मिल्यां राजस्थानी मांय भासण झाड़ै- ‘थे कांई मानौ, असल समस्या कांई पाणै पांती रो पाणी ना मिलणौ है? म्हारी जाण स्यात ओ समस्या नै सावळ सूं ना समझणौ है। चांद नै एक पासै सूं देखणै बरगौ। क्यूंकै थारै हंस्सै रो पूरौ पाणी थानै ना मिलणौ समस्या रो एक पख तो हुय सकै पण समची समस्या फगत इत्ती-सी कोनी। जे आ ई बात हुंवती तो पंजाब रो करसो सप्रे पीयनै क्यूं मरतौ? पंजाब री नैहर मांय कूदतौ करसौ आपणै अठै रै पाणी खातर कूकतै करसै सूं अळगौ है ना? जे आ समस्या फगत पाणी री हुंवती तो थारी पांती रो पाणी पीवणिया दूजै सूबै रा करसा इयां बेदमाल कोनी हुंवता।’ (पेज-85)
छतापण पूर्ण शर्मा ‘पूरण’ री भासा, बुणगट अर भावबोध नै असरदार मठार’र कैवण रो अंदाज राखै। कथा रै पसारै मांय गांवां रो संस्कृतिक जीवण, रीत-रिवाज राग-रंग रै अलावा बखाण मांय चावा-ठावा कथाकार निर्मल वर्मा री ओळ रो लखाव ई प्रभावित करै। किसानां री होमीजती जूण रै मिस पूरण जिका सवाल उठावै-अरथावै बै आज रै वगत री जरूरत मान सकां।
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‘होम’ (उपन्यास) पूर्ण शर्मा ‘पूरण’
संस्करण- 2017 ; पाना-152 ; मोल-200/-
प्रकासक- एकता प्रकाशन, चूरू राजस्थान

Monday, April 06, 2020

कापा-कापा जीवै लुगाई आपरी जूण / नीरज दइया

    छोरै-छोरी मांय फरक बरसां सूं चालतो आयो है। दुनिया इत्ती तरक्की करली पण कुल मिला’र कीं बातां नै छोड़ देवां तो बात बठै री बठैई है। मा रै पेट मांय ई छोरियां री हत्यावां करीजण सूं देस मांय छोरा-छोरी रो अनुपात बिगड़ग्यो। अबै ई जे घरै छोरी जलमै तो थाळी कोनी बाजै। लिछमी री सदा चावना राखणियो भारतीय का राजस्थानी समाज हरख-कोड रै नांव माथै कीं कोनी करै। छोरी माथै छोरा करतां घणो आंकस राखीजै। बा बिगड़ नीं जावै। उण नै घर रो काम करणो पड़ै। बा मा रै पेट सूं ई इसी बण’र निकळै कै उण नै बेगो ई ठाह पड़ जावै कै उण नै ई आ दुनिया सांभणी है। इण दुनिया नै आगै बधावण खातर ई उण नै ओ जलम मिल्यो है। ब्यांव हुयां उण री थोड़ी घणी जिकी कीं आजादी हुवै बां जावै परी। पीरै अर सासरै मांय छोरी आपरी कापा-कापा जूण जीवै। लुगाई बणै, मां बणै, दादी-नानी बणै अर उण री पूरी जूण रो लेखो कांई हुवै? बाळपणै सूं लेय’र बुढापै तांई जिकी हेमाणी भगवान उण नै दुनिया रै बधावै खातर देवै उण नै जतन सूं संभाणो पड़ै। जे थोड़ी’क फुटरी हुवै का नीं हुवै तो ई इण समाज मांय उण नै कापा-कापा कर’र अरोगणियां घणा मिलैला। समाज, काण-कायदा अर कानून रै थकां ई उण नै खुद रै घर मांय ई लाज नै संभाळ’र राखणी पड़ै। जाणै बा कोई घास रो पुळो हुवै अर लापो घरै-बारै च्यारूमेर उण रै आगै-लारै फिरै। ठाह नीं कद उण नै हफड़-हफड़ बळणो पड़ जावै। लुगाई री आ जूण जात-पांत, अमीरी-गरीबी कीं कोनी देखै। जठै बेसी उजाळो हुवै बठै रा अंधारा ई न्यारा हुवै। कीं इणी ढाळै री भावभूमि सूं साबको राखै डॉ. अनुश्री राठौड रो पैलो उपन्यास।    
    डॉ. अनुश्री राठौड आपरै उपन्यास- ‘जीवाजूंण रा कापा’ नै सामाजिक उपन्यास रूप राख्यो है। किणी रचना रो समाज सूं जुड़ाव हुवणो लाजमी है, अर अंत-पंत कोई पण रचना रा सामाजिक सरोकार हुवै। कैवणो चाइजै कै रचना समाज सारू ई हुवै। भारतीय समाज रै संदर्भ में बात करां तो राजस्थानी समाज हिंदी उपन्यास खातर समाजिक हुवतां थकां ई जे किणी खास अंचल री संस्कृति, लोक भासा अर लोक व्यवहार रो बखाण करै, तो बो उपन्यास सामाजिक सूं बेसी आंचलिक कैयो जावैला। किणी पण भासा मंय सामाजिक उपन्यास तो घणा मिलैला पण आंचलिक उपन्यास तुलना में कमती मिलै। राजस्थानी रै सीगै बात करां तो अठै उपन्यास ई कमती मिलै उण मांय आंचलिक तो साव ई कमती मिलैला। आ घणी सरावणजोग बात मानीजैला कै डॉ. राठौड आपरै सामजिक उपन्यास ‘जीवाजूंण रा कापा’ मांय जिण समाज रो चितराम, रीत-रिवाज, सांस्कृति अर लोक व्यवहार साथै सांवठै रूप मांय रचै, बो आपरी सहजता-मार्मिकता सूं आखै राजस्थानी समाज रो प्रतिनिधित्व नीं कर’र अंचल विसेस रो बखाण करै। इण सारू इण उपन्यास नै आंचलिक कैयो जावणो ठीक रैवैला। अठै ओ पण कैवणो ई ठीक रैवैला कै किणी अंचल विसेस री संस्कृतिक, रीत-रिवाज, लोक व्यवहार अर स्सौ कीं सेवट मिलमिला’र प्रांत अर देस रै स्तर री सामाजिकता सूं ई कूंतीजै। ओ स्सौ कीं केई अरथा मांय किणी खास वरग का किणी खास चरित्र सूं जुड़’र ई प्रमाणिक बणै अर उण री ओळ कीं दूजै वरगां अर चरित्रां मांय ई देखी जाय सकै। खराखरी ‘जीवाजूंण रा कापा’ एक असाधारण-अद्वितीय औपन्यासिक रचना है, जिण नै बांचता आपां नै रांगेय राघव अर ‘कब तक पुकारूं’ चेतै आवै। स्यात ओ ई कारण रैयो हुवैला कै आ पोथी कमला गोइन्का फाउन्डेशन रै किशोर कल्पनाकांत राजस्थानी युवा साहित्यकार पुरस्कार अर दूजा पुरस्कारां सूं सम्मानित करीजी।
    उपन्यास ‘जीवाजूंण रा कापा’ नायिका री जीवाजूण री कथा नै परोटै। उण री जूण रो अणलिख्यो इतिहास का कैवां साच राखै। इण बात सूं ई मोटी बात इण उपन्यास रा दोय केंद्र बिंदु दोय परिवार है। एक वो परिवार का वरग जिको सामाजिक रूप सूं साव निम्न मानीजै। दूजो परिवार एक ठाकुर परिवार (सोणागढ़ी ठिकाणा रा फौजदार साब रो), जिको राजपूती संस्कृति रै आपरै रंग-ढंग अर दबदबै साथै आपरी परंपरावां सूं बंध्योड़ो है। उपन्यास इण अंचल विसेस री घणी परंपरावां नै दरसावतो आपरै पैलै पानै सूं छेहलै पानै तांई उणी परंपरावां मांय समैसार जूझ अर विगसाव री बात मांड’र राखै। सगळा सूं रूपाळी अर जसजोग बात आ है कै बिना किणी नारा, जूलूस, फतवा, घरणा का आंदोलनां रै लेखिका आपरै इण उपन्यास मांय नुवै समाज री थरपणा सारू कीं नुंवी बातां राखै साथै ई बदळावां रो स्वागत करण रो संदेस ई देवै।
    उपन्यास री सरुआत आ ओळ्यां सूं हुवै- ‘हरदयाल अर सुमित्रा री खाटलियां (अर्थियां) उठता ही, घर में कुकारौळो मच ग्यो। हाथ-हाथ भर लाम्बा घूँघटा रै पाछै छिप्या मूंडा नै गोडा पै टिका’र धाड़ा मार-मार’र रोवती लुगाइयां नै देख’र सुगणा रो मन कडू़सो व्है ग्यो। क्यूंकै वा जाणती ही कै उणामें सूं कोई’क ई असी व्हेला, जिणरी आँख्यां भी आली व्ही व्हेला, वा भी स्यात विण तीन म्हीना री बाळकी रै दुख सूं, जिणरै माथै सूं माँ-बाप दोयां रो हाथ एक लारै उठ ग्यो हो।’ (पेज- 7) इण उपन्यास मांय केई केई आंचलिक सबद अर भासा भेळै रीत-रिवाज लोक व्यवहार हाको कर’र कैवै कै ओ एक आंचलिक उपन्यास है।
    नुवी चेतना सारू ‘जीवाजूंण रा कापा’ उपन्यास री सुगणा जिकी नयिका री सासू मा है, बा ई आगीवाण बणै। उपन्यास री नायिका जिकी तीन म्हीना री बाळकी है, उण रो दुख-दरद तो समझै ई समझै पण खुद रै घर-परिवार अर समाज मांय एक नुवीं सरुआत ई करै। परंपरावां री माना तो नायिका सुखी जिकी साव छोटी है उणनै सुगणा आपरै घरै नीं राख सकै। क्यूं कै बा उणरै बेटै ओम री परणी छोरी है। ‘भलां ही आज लोग तुलसी विवाह, सत्यनारायण भगवान री कथा, कुलदेवी माँ री हवनपूजा या अस्या ई कणी धारमिक अनुष्ठानां री आड़ में छानै-चुपकै छोरा-छोरी नै फेरा देवाई देवै, पण आणा-गुणां (विवाह रै पछै बहू नै पेली दाण सासरै लावा री रीत) तो वणारै थोड़ा स्याणा व्हीया पछै ई कराया जावै है। हाल तो ओम सूं आठ बरस मोटा हीरा री लाड़ी रो आणो भी नीं व्हीयो, फेर इण चार म्हीना री छोरी नै आपां किस्तर सासरै लै जा सकां हा? कणी पुलिस में शिकायत कर दीधी तो अंजाम जाणै है.....।’ (पेज- 12)
    सामाजिक असूलां सूं बारै निकळ’र सुगणा किणी बाळकी री जीवाजूण खातर खुद रो दाखलो साम्हीं राखै। किणी जूण रा संस्कार जलम सूं मिलै जिका तो मिलै ई पण बां सूं ई मिलै जिका उण नै पाळै-पोसै अर समझ रो आभो सूंपै। नायिका सुखी ई आपरै जीवण सूं केई-केई नुंवी बातां आपां साम्हीं राखै। बाल विवाह, बेमेल विवाह, अट्टा-सट्टा (घर री छोरी देय’र बेटै खातर बिनणी लावण री प्रथा), नाता प्रथा अर लुगाई-खरीद जैड़ी केई बातां बिचाळै स्त्री संघर्ष ई उपन्यास मांय बखाणीजै। सुखी री पढाई पेटै हूंस अर सुगणा रै परिवार खातर उण रो समरपण ई जसजोग है। खुद लेखिका डॉ. अनुश्री राठौड रो कैवणो है- ‘जीवाजूंण रा कापा उपन्यास कुरीतां अर थोथी मानतावां सूं मिनखाजूंण में पैदा व्ही अबखायां अर वणासूं जुंझता बाल अर युवा मन रै संघर्षां रो चितराम है।’
    सगळी कथा उपन्यास फ्लैस बैक सूं कैवै- ‘अरै क्यूं बचाई म्हनै, म्हारै नीं जीवणो है। छोड़ दो म्हनै, म्हनै मर जावा दो.....। जद सूं विणनै होश आयो, वा लगोलग यूं ई चिरळायां जाय री ही। एक दाण तो वा सगळा नै धक्को देयर बालकनी तक पौंच भी गी ही, नीचै पड़वा वास्तै।’ (पेज-13) आ नायिका सुख्खी है जिण रो नांव नांव ई सुखी है पण जूण मांय सुख कमती ई लिखीज्या। जीवण सूं हार मान’र मरण खातर आगै बधण नै मजबूर करीजी सुखी नै डॉक्टर रुद्र बचावै। वो उण रो बाळपणै रो संगी-साथी है। उपन्यास उण रै मारफत आ बात कैवण मांय सफल रैवै कै लाख विपदावां आवै पण जूण रो मारग मरण नीं हुय सकै- ‘सुख्खी, मौत जीवन रो सबसूं बड़ो सांच है अर जिण छण विणरो आवणो तै है, विणरै आगै मिनख लाख जतन करवा रै माथै भी एक सांस री मोहलत नीं पा सकै, पण समै सूं पैल्या अर जाणबूझ’र मौत रै मूंडा में जावणो कणी भी समस्या रो अंत नीं व्हे, बल्कै वो पाछै छूटवा वाळा आपणां रै वास्तै कैई अबखायां पैदा करवा रो कारण बण जावै है। मान्यो कै आपरा जीवन माथै सबसूं पेहलो हक आपरो खुद रो है, पण सोचो इण सूं जुड़्या दूजां लोगां रो, जो अबार कतरा परेशान व्है र्या व्हेगा आपरी गुमशुदगी सूं। आपरै जीवन रा देवाळ मायत, उमर भर साथ रेवा री आस लिया जीवनसा......।’ (पेज- 14)
    सुखी रै घरवाळै ओम रो बाळपणै रो भायलो है रुद्र। रुद्र ठाकुर परिवार रो हुवतां थकां ई न्यरै विचारां वाळो है। ‘यूं सामाजिक ऊंच-नीच रै भेद री सोच रै चालता रावळा परिवार नै रुद्र रो ओम सूं दोस्ताणों खास दाय नीं आवतो हो, पण कैवै है कै प्रीत अर मित्रता जात-पांत अर अमीर-गरीब री रेख में बंधी व्हेती तो कृष्ण-सुदामा अर राम-सुग्रीव री मित्रता जग प्रसिद्ध नीं व्हेती।’ (पेज- 16) आं दोनां भायला री प्रेम कहाणियां उपन्यास नै गति देवै। रुद्र-मारू अर ओम-सुख्खी री इण कथा मांय घरवाळा ई खलनायका रो काम साजै। कैवणो चाइजै कै उपन्यास मांय प्रेम, रहस्य, रोमांच, जबरजिन्ना, गाणो-बजाणो स्सौ कीं है अर पूरो उपन्यास किणी फिल्म दांई आगै बधतो जावै। उपन्यास मांय सुख्खी आपरी कथा रुद्र नै सुणावै अर रुद्र आपारी कथा सुखी नै। मारु अर सुख्खी दोनूं लुगायां साथै जबरजिन्ना हुवै। एक आपरा प्राण देय देवै अर दूजी ई देवै पण बा बचा ली जावै। उपन्यास रा केई प्रसंग हियै नै झकझौरै अर सवाल पूछै कै लुगाई सागै ई इण ढाळै क्यूं हुवै? नायिका सुखी री बाळपणै मांय मा-बाप सागो छोड़ग्या अर उण नै सुगणा पाळी-पोसी, क्यूं कै सुगणा सुखी री मा री सहेली ही। उणी ढाळै सुखी री सहेली मारु नीं रैयी तो उण री बेटि प्रीत नै पाळण रो संकळप उपन्यास रै सेवट मांय सुखी करै अर उपन्यास पूरो हुवै।
    ‘सुख्खी पांच-सात मिन्ट तक आपणी जगां माथै ऊभी-ऊभी ई प्रीत नै देखती री। मारू रै ज्यूं प्रीत रै गाल माथै भी एक गोळ गैहरी काळी टीकी जस्यो निशाण हो, जिणनै देख वा अक्सर मारू नै कैवती ही कै जीजी भगवान आपनै काळो टीको लगा’र भेज्या है, नजर सूं बचावा स़ारू। विणनै लागो कै मारू दोई बावां फैला’र विणनै आपणै नैड़े बुला री है अर वंडा पग प्रीत आड़ी बढ़ ग्या।’ (पेज- 88)
    इण पछै लेखिका री ओळी- ‘कापो-कापो व्ही आपणी जीवाजूंण री पोथी रा सगळा पाना समेट, एक नवी पोथी माथै कोई नवी कहाणी लिखवा, कुछ नवा चितराम उकेरवा।’ सुखी री जूण नै विस्तार देवै। इण ढाळै री ई नीं आखी लुगाई जात नै सलाम कै वां रै कारणै ई आ धरती इत्तै मिनखां रो भार झैलै। उपन्यास ‘जीवाजूंण रा कापा’ परंपरावां नै नुवीं वणावण री एक सांवठी जातरा कैयी जावैला। भारत री असली आजाद तद ई मानीजैला जद आपां री आंचलिकतावां अर परंपरावां विकास रै साथै-साथै आगै बधैला, प्रासंगिक अर समसामयिक बणैला। आपरी भासा, भावबोध अर बुणगट रै पाण ओ उपन्यास महिला राजस्थानी उपन्यास ई नीं समूळै भारतीय उपन्यास मांय एक दाखलै रूप राखीज सकै।
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जीवाजूंण रा कापा (उपन्यास) डॉ. अनुश्री राठौड़
सौगन(उपन्यास) बसंती पंवार
संस्करण-2018, पाना-88, मोल-200/-
प्रकासक- अनुविंद पब्लिकेशन, उदयपुर

अैड़ौ क्यूं रो मायनो अजेस बाकी / नीरज दइया

बसंती पंवार रा दोनूं उपन्यास ‘सौगन’ (1997) अर ‘अैड़ौ क्यूं?’ (2012) लुगाई जात री अबखयां नै अरथावै। दोनूं उपन्यासां मांय ओ अरथावणो न्यारै-न्यारै रंग-ढंग अर भासा-बुणगट सूं साम्हीं आवै। आ जुदा बात है कै आज रै जुग मांय सौगन नै कुण-कित्ती मानै, पण राजस्थानी संस्कृति री खासियत है- कोल निभावणो। सौगनां नै मानण अर निभावण वाळा रो निरवाळो कथानक उपन्यास मांय लेखिका परोटै। साथै ई प्रेम रो अेक निरवाळो रूप ‘सौगन’ री नायिका मंजू रै मारफत पाठकां साम्हीं राखीज्यो है। नायक और नायिका बिचाळै अेक इसो प्रेम हुवै अर सेवट तांई बै निभावै जिण नै समाज री दीठ सूं कोई खरो नांव नीं देय सकां। कैवणिया कैय सकै कै जूना भाइला-भाइली। अनाम प्रेम नैं ताजिंदगी निभावणो हरेक रै बस री बात कोनी हुवै। नायिका मंजू असंभव नै संभव कर’र अेक दाखलो राखै।
उपन्यास री सरुआत मांय पैली तो मंजू अर मदन रो संयम पाठकां नै प्रभावित करै। बै दोनूं प्रेम रै झीणा तारां सूं बंधै। बै सुनील रै घरै घणी वेळा अेकला मिलै अर बां रो प्रेम ई हिया मांय चरम तांई पूगै। बै आपरी अर समाज री मरजावां रो ध्यान राखै। अठै तांई कै मदन मंजू री मांग ई भर देवै पण दोनूं भावनावां मांय बैवै कोनी। ओ प्रेम देहिक नीं होय’र लेखिका अदेहिक और अलौकिक बताण सूं अभरोसो ई हुवै। जवान छोरा-छोरी मांय इण नै प्रेम री विराटता कैय सकां। बेमाता रा लेख निरवाळा। दोनूं ब्यांव नीं कर सकै। बां री दुनिया सूं लड़ाई करण री हिम्मत कोनी हुवै। जथारथ अर गोड़ै घड़ी किणी कहाणी दांई उपन्यास चालै। उपन्यास री वुणगट रो फूटरापो कै अठै पूरो कथानक फ्लैस बैक मांय राखीजै। मंजू आपरी खास सहेली सीता रै मारफत आपरै मन री गांठां नै खोलती जावै।
मदन रै ब्यांव री टैम मंजू उण नै समझावै अर बो कथानायक घरवाळा री मरजी मुजब प्रेमिका रै कैयां सूं खुद री इंछावां रो त्याग करै। बै ना विरोध करै अर ना घरां री काण राखता कठैई भागै। ना बै कूवो-खाड करै। जीवण सूं बां रो जूझ मांडणो प्रभावित करै। मदन रो ब्यांव जिण छोरी सूं हुवै संजोग सूं उण मांय घोखो निकळै। बा पागल ही अर दुनिया री रीत है कै घरवाळा बात नै लुका’र राखै। तलाक हुयां पछै ई मदन अर मंजू रो रिस्तो कोनी हुवै। मंजू नै ई घरवाळा री इंछा मुजब स्याम सूं परणीजणो पड़ै अर बै अबै आपसरी मांय सौगन लेवै कै आपां दस बरसां तांई कोनी मिलैला। अर आ मोटी सौगन बै अंत तांई निभावै। जूण जे राजी खुसी चालती तो हुय सकतो कै मंजू लारली बातां भूल ई जावती। सोची-विचारी कीं कोनी हुवै अर मंजू नै आपरी जूण मांय अणमाप दुख-दरद पांती आवै। उपन्यास रो सवाल उठावै कै आखी जूण खातर पति रै प्रति समरपित होयां ई किणी लुगाई रै भाग मांय तुस जित्तो ई सुख क्यूं कोनी आवै। जूण मांय ओ किसो दंड हो जिको मंजू आखी जूण भुगतती रैयी। कांई सगळी बातां किसमत सूं हुवै? मिनख रै हाथां कीं नीं, बस सगळो खेल लकीरां रो है। जूण मांय अलेखू सावाल विचरती मंजू अबखायां माथै अबखायां झेलती जूण काटै। नायिका रो राजस्थानी संस्कृति नै पोखणो अर सेवट तांई प्रयास करणो कै कियां ई घर-संसार रो जाचो जच जवै किणी फिल्मी कथा दांई लागै।
आधुनिक दीठ अर नुवा विचारां रा लेखक-पाठक ‘सौगन’ री नायिका मंजू सूं ओ सवाल कर सकै कै बा पुरस प्रधान परिवार अर समाज री व्यवस्थावां नै बदळण खातर साम्हीं ऊभी क्यूं नीं हुवै? बा आपरो पूरो जीवण किण खातर होम करै। कांई प्रेम कर परा घुट-घुट जीवण जीवणो ई जूण रो साच हुवै? नायिका आपरै मनचींती क्यूं नीं करै। बा इत्तै बंधणा मांय क्यूं बंध्योड़ी रैवणी चावै। आं सगळी बातां नै लेखिका बसंती पंवार चेलेंज रै रूप मांय ‘अैड़ौ क्यूं?’ उपन्यास री नायिका सीता रै मारफत आपां साम्हीं राखै। इयां लगै कै ‘सौगन’ री सीता जिकी मंजू सूं उण री आखी कथा सुणी अठै ‘अैड़ौ क्यूं?’ मांय उणी सवालां साम्हीं ऊभी हुवण लाग रैयी है। घर-परिवार अर समाज मांय केई रीत-रिवाज हुवता है जिण बाबत नायिका रो अैड़ौ क्यूं? अैड़ौ क्यूं? ओ सवाल उपन्यास मांय इत्तो साम्हीं आवै कै उण नायिका रो नांव ई ‘अैड़ौ क्यूं’ राखीज जावै।
विधवा ब्यांव सूं चालू हुई अर नारी जूण माथै केंद्रीत रैयी राजस्थानी उपन्यास जातरा अर बसंती पंवार रा दोनूं उपन्यास उण परंपरा मांय कीं नुवो रचण री कोसीस कैयी जा सकै। मानवीय मूल्यां रै आधार पर दोनूं उपन्यास समाज मांय लुगाई खातर नुवी दीठ सूं सोचण नै मजबूर करै। ‘अैड़ौ क्यूं?’ मांय विधवां पेटै समाज रै दोगलै बरताव सूं दुखी अेक छोटी बैन रै मारफत लेखिका आपरी बात सरु करै। सुभ कारज मांय विधवां अर बांझ नै दूर राखीजै। दोनूं ई बातां रो विरोध उपन्यास मांय हुयो है। नायिका सीता नै घर मांय घी पावण री रिवाज मांय जीजी नै टाळणो अखरै। छोटै मूंडै मोटी बात कैवावण री खेचळ ई सीता रै मारफत लेखिका करै। अठै ओ पण देख सकां कै जिकी नायिका बाळपणै सूं ई ओ धार लेवै कै समाज रै सुगलै काण-कायदा नै बदळ’र कीं नुवो अर ओपतो करणो है तो बा कीं कर सकै। लेखिका आज रै जुग री स्त्री विमर्श री सगळी बातां नायिका सीता रै जीवण सूं जोड़तै थकै साम्हीं लावै। उपन्यास मांय सगळी बातां प्रगट करण खातर अेक जुगती लेखिका काम मांय लेवै। बा अभि नांव रै छोरै अर सीता री बंतळ करावै, जिण सूं बै दोनूं समाज री भूंडी बातां अर रीत-रिवाज माथै लेखिका री बात कैवण लागै अर उपन्यास रै अंत तांई नाटकीय ढंग सूं इण कथा नै इण ढाळै विकसित करै कै स्सौ कीं सहजता सूं संभव हुय जावै।
नायिका ‘सौगन’ उपन्यास मांय अेक आदमी-लुगाई रै नांव बिहूणा रिस्तै री बात करी अर उण सूं आगै अठै फेर ‘अैड़ौ क्यूं?’ मांय नायिका अर अभि रै रिस्तै नै लेय’र उणी ढाळै रा केई सवाल अठै राखै। जूनै जुग मांय गांव री छोरी सगळा री बैन-बेटी हुया करती। धरम भाई अर धरम बैन जिसा सोवणा रूप-संकळप ई नुवै जुग री हवा सूं हेठा पड़ण लागग्या। देह राग अर नुवी दुनिया री इण क्रांति मांय रिस्ता मांय ओछोपणो घर करग्यो। बाळपणै रो निरळम नेह, प्रीत कैवां कै पाड़ौसी रो हेत, समाज अबै आं सगळी बातां नै किण रूप मांय देखै इण रो दाखलो ‘अैड़ौ क्यूं?’ मांय मिलै। भाइला-भायली अर यारी-दोस्ती नै समाज किण ढालै लेवै किण सूं छानो नीं है। अठै ‘अैड़ौ क्यूं?’ मांय ‘सौगन’ दांई आदर्श स्थिति राखण री कोसीस करीजी है। संघर्ष आपरी ठौड़ पण दोनूं उपान्यासा रै अंत मांय लेखिका जिण ढाळै नायिकावां रो अंत बखाणै बो नीं हुया ई उपन्यासां री मूळ बात मांय अंतर नीं आवतो।
‘अैड़ौ क्यूं?’ मांय लुगाई जूण सूं जुड़िया घणा सवाला-बातां नै परोटण री तजबीज करीजी है अर लेखिका सगळी बातां नै नाटकीय ढंग सूं संवादां रै मारफत उजागर करै। जूण रो मरम अरथावण वाळी केई-केई ओळ्यां ई ‘अैड़ौ क्यूं?’ मांय जबरदस्त है। उपन्यास री टाळवीं ओळ्यां फ्लैप माथै ई देखी जाअे सकै। जियां- ‘रिस्ता तौ वै ई साचा है, जिणां में मन मिलै’ का ‘प्यार-सनेव तौ अेक अैसास है, सुवास है, आत्मा री अनुभूति है। सनेव नै कदैई कोई देख्यौ है? उणनै तो सिरफ मैसूस कियौ जाय सकै।’ अर ‘आदमी अर औरत री दोस्ती नै समाज चोखी निरज सूं नीं देखै, नीं ई इणनै मान्यता देवै। पछै इण रिस्तै रौ कांई नाम व्है।’ आद।
सतजुग रा सीता-राम ई समाज सूं नीं बच सक्या फेर ‘अैड़ौ क्यूं?’ रा सीता-राम तो कळजुग मांय कीं सांवठा बदळाव करण री धारै तद बै समाज सूं कियां बचैला। नायिका सीता रा भाग कै उण नै राम जैड़ो जीवण-साथी मिल्यो। बरात ढूकाव माथै ऊभ्या पछै कार री अणूती मांग अर झट नायिका रो आपरै बळपणै रै साथी अभि सूं अेक अणचाण रिस्तै नै दूसर नूंतणो अर उण रो स्वीकार करणो सगळी बातां-घटनावां नाटकीय हुया पछै ई प्रभावित करै। उपन्यास री संवाद-सैली मनमोवणी अर भासा-बुणगट इण ढाळै री कै अेकर जे कोई बांचण लागै तो ठेठ तांई उण नै पूगणो पड़ै। आ इण दोनूं उपन्यासां री सफलता है। ‘अैड़ौ क्यूं?’ उपन्यास री सीता अर ‘सौगन’ री मंजू राजस्थानी उपन्यास जातरा रा इण ढाळै रा यादगार नारी-पात्र कैया जावैला जिका आपरै जूण री जूझ सूं केई केई बातां आपरै पाठकां साम्हीं राखै। ‘अैड़ौ क्यूं?’ रै मारफत जे नुवी पीढी रै मनां हूंस जागै अर बै समाजू रीत-रायता मांय कीं बदळाव करण री विचारै तो इण उपन्यास री सफलता कैयी जावैला। मंजू अर सीता पेटै अैड़ौ क्यूं रो मायनो अजेस बाकी है।
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सौगन (उपन्यास) बसंती पंवार
संस्करण-1997, पाना-96, मोल-85/-
प्रकासक- पी.जी. पब्लिकेसन, जोधपुर
अैड़ौ क्यूं? (उपन्यास) बसंती पंवार
संस्करण-2012, पाना-96, मोल-125/-
प्रकासक-उषा पब्लिशिंग हाउस, जोधपुर

Sunday, April 05, 2020

मिनख-लुगाई री बरोबरी रो सपनो / नीरज दइया


कहाणीकर रीना मेनारिया राजस्थानी उपन्यासां रै तोड़ै नै विचारता ‘पोतीवाड़’ उपन्यास लिख्यो। लेखिका इण बाबत खुलासो ई करियो- ‘लारलै दो-तीन बरसां सूं उपन्यास लिखण री सोचै ही पण कोनी लिख सकी। एकर हिंदी री एक कहाणी लिखण बैठी तौ मन मांय विचार आव्यौ कै क्यूं नीं उपन्यास लिखण री कोसिस करी जावै, पछै कांई उपन्यास री सरुआत तौ हिंदी सूं व्ही पण खातमौ राजस्थानी मांयनै व्हियौ क्यूंकर दो पाना हिंदी मांय लिख्यां अर तीजै पाने तौ आपणेआप राजस्थानी रा आखर मंडव ढुका।’ आ बात लेखिका रो आपरी भासा सूं लगाव दरसावै। इणी ढाळै उपन्यास सूं पैली महाकवि कन्हैयालाल सेठिया री ओळ्यां- ‘निज भाषा साहित्य बिन, पनपै कदै न प्रांत/ सभ्य स्वतंत्र समाज रौ, सदा अमर सिद्धांत।’ नै माण देवणो इस दिस वांरै सोच नै दरसावै। मात भासा रै इण हेत-माण नै घणा-घणा रंग।
सबद ‘पोतीवाड़’ मांय मूळ सबद ‘पोत’ है। ढक्योड़ा भेद ई पोत बाजै। उपन्यास मांय खोटा-माडा कामां रा भेद खुलण रै अरथ मांय ओ सबद बरतीजै।
‘थारी आ ईज इंछिया है तौ म्हैं पूरी कोसिस करस्यूं कै ओ पोतीवाड़ थारी दादी रै साम्हीं कोनी खुलै। जा मौज कर। कैयनै बापू दुकान री कुंचियां लेयनै चलता बणया। (पेज-54)
‘जया पाछी म्हनै संभाळती धीजौ बंधावती बोली- भाभी सा इण घर मांय रैवणौ हुवै तो हिम्मत सूं काम लेवौ अर ठंडा दिमाग सूं सोचौ कै कांई करिया रेखा रौ पोतीवाड़ उगाड्यौ जावै। थां हिम्मत राख अन्नै आपरै हक रै वास्तै लड़ौ तौ राम जी सौगंध म्है पण थांरौ साथ देस्यूं। (पेज-81)
‘पोतीवाड़’ असल मांय कथा नायिका सारदा रै खोटा-खरा, भूंडा-चोखा सगळै करमां रो पोतीवाड़ उजागर करण वाळो उपन्यास है। इण री कथा इण ढाळै चालू हुवै-
‘पिंटू ऐ पिंटू। पिंटू जाग रे।’
आड़ौ खटखट्यौ खट... खट... खट....
म्हैं उठनै बैठगी। घड़ी कानी निजर न्हाखी, पण ओवरा मांय अंधारौ होवण सूं ठा कोनी पड़ी कै कित्ती बजी।
बारणै चिड़कलियां री व्हैती चां-चूं अर दूध वाळा रा बाजता भोंपू... भोंपू सूं म्हैं अंदाजौ लगा ल्यौ कै साढ़े पांच कै, छै बजी व्हैला। म्हैं तो पाछी मुण्डा पै चादर खेंच ली। आखी रात छोरो टें... टें... करतौ रयौ, आंख्यां रा पड़ ईज कोनी मिलण दिया। तीन बज्यां रै ऐड़ै-नैड़ै जायने बो सुतौ जद कठै म्हारी आंख लागी। नींद ई पूरी कोनी हुवी, आंख्यां झकर... झकर बळै ही। म्हैं आवाज सुणै ही पण हाली न चाली। म्हारै डावी पाखती म्हारा घरवाळा पिंटू निसंक सूता हा, तौ जीमणी पाखती बारै महिना रौ टाबर करण सुतौ हो।
आवाज पाछी आवौ- ‘पिंटू रै। ऐ रै पिंटू। हेला मार-मारनै म्हारौ कायौ व्हैगौ। आ ई कोई नींद है। उठण रौ नाम ईज कोनी लेवै वावळौ। अरे आखी रात रतजगौ दियौ कांई? दोनूं ई कानड़ै रूई घालनै पड्या है सुणै न सामळै।’ (पेज-7)
सारदा रै घरवालै रो नांव पिंटू है। ओवरै मांय सारदा होळै सूं बोलै- ‘पिंटू’ अर उणनै सुणीज जावै! बो ‘हां सुणल्यौ।’ कैवतो अंगोछो पळेटै अर आडो खोलै। मा-बेटै री बंतळ सूं ठाह लागै कै फोन आयो है कै सारदा री मामी चंपा चालता रैया। मामी ई सारदा नै पाळी-पोसी अर मा बरोबर ही। बियां सारदा री जूण मांय हुई तो बेजा ई ही, पण बा लोक देखावै सारू केई काम जीव नै करणा पड़ै।
उपन्यास रै दूजै अध्याय मांय सारदा आपरै पूरै परिवार साथै कार सूं गांव जावै जरूर पण उण नै मन मांय किणी ढाळै रो कोई सोग कोनी हुवै। गांव पूग्या सासुजी सारदा रा दोनूं हाथ पकड़’र उण रो घूंघटो लंबो कर देवै अर उण नै रोवण रो कैवै। बा रोवै पण ‘पोतीवाड़’ उपन्यास रै मारफत लेखिका अठै लुगाई जूण रा केई केई पोत खोल’र साम्हीं राखै।
सारदा रै मिस बा पढ़ाई-लिखाई अर इत्तै बदळाव पछै ई मुख्य धारा सूं जुदा नारियां रो दुख-दरद अर जूण रो जुद्ध गावै। सारदा जाणै मामी रै मरणै रै मिस गांव नीं पूग’र आपरै बाळपणै मांय पूग जावै अर लेखिका नै ओ मारग उण री कथा कैवण रो मिल जावै। छेहलै अध्याय मांय उपन्यास रै छेहलै पानै आ ओळी आवै- ‘मामी कांई मरी म्है तौ जाणै पाछली जिंदगी रौ एक-एक पानौ पळैट द्यौ।’ (पेज-113)
सारदा रै विगत जीवण नै देख्यां हूंस भेळै रोवणो आवै। जद बा सवा ग्यारै बरसां री ही उण री मा सौ बरस पूरा करगी। बाप उण री सार-संभाळ सारू कीं सावळ विचार’र विधवा मामी चंपा नै सूंपी पण होणी नै कीं दूजो ई मंजूर हो। मामी रो चरित्र सारदा री इण मनगत सूं जाण सकां- ‘कदेई-कदेई म्हैं विचारै ही, कै आ वां ई मामी है ज्यां मां जीवती तद उणनै मुंडा मांय मुतावती ही। अर आज मां नी री तौ मामी पण वा मामी कोनी री। मामी रौ खोळियौ व्हौ ईज हौ, स्यात हियौ भाटा रौ बणग्यौ हौ। हां पाका धोळा भाटा रौ। व्हैता-व्हैता च्यार बरस वितग्या हा। मामी रा इण कैदखाना मांय च्यार बारस, म्हैं तौ जाणै च्यार जुग री गळाई जिव्या हा।’ (पेज-34)
पढणो चावती पण सारदा घणी पढ-लिख नीं सकी। दुखां रै दरियाव मांय बा नीठ आठवीं तांई री भणाई करी अर सतरवै बरस पछै रिस्तो अर ब्याव हुयग्यो। मामी री चालबाजियां सूं ब्याव रो कीं सुख नीं मिल्यौ अर सगळो पोतीवाड़ साम्हीं आयग्यो। राजस्थानी उपन्यास जातरा मांय विधवा व्याव री अबखायां देखां पण अठै रीना मेनारिया रै इण उपन्यास मांय सरदा रा तीन ब्याव हुया। तीजै चावळ पिंटू भेळै सीझै। उण रो दूजो ब्याव उन्नीसवै बरस हुयो अर उण रा ई केई कथा-दीठाव उपन्यास मांय मिलै। सार रूप कैवां तो कैवणो ओ साम्हीं आवै कै लुगाई ई लुगाई री बैरी हुवै। वा जाणै किणी लारलै जलमां रा बदळा साजै। उपन्यास ओ सवाल ई साम्हीं राखै कै इण जूण रै सुख-दुख मांय लारलै जलम अर इण जलम रो कित्तो कांई असर हुवै। दूजै ब्याव मांय झौड़ पड़ै अर पिंटू री जागा विसाल सूं परणीजण री बात आवै तद मेनारिया नायिक अर उण रै बापू री मनगत इण भांत राखै-
सारदा रो मानणो है- ‘बळद अर बेटी जठै दै उठै जावणौ ईज पड़ै। बापू री आ ईज मरजी है तौ पछै म्हनै ना नी पाड़नी चाहिजै। ओ सोच अर म्हैं कैह्यौ- म्हैं त्यार हूं। बापू री बात ई म्हारी बात है।’ (पेज-61)
बापू म्हनै नैड़ै बुलावी अर कैवण लागा- बेटी तगदीर नै कोई’ज नी बदळ सकै। जौ लिख्यौ वौ तौ व्है नै ईज रै। पिंटू सूं ब्याह होणी लिख्यौ व्हैतौ तौ आखौ जंवारौ ढाण बुहारवां मांय ईज निकळ जावतौ। पण थारा भाग मांय तो बेमाता कांई और ईज लिख्यौ। मुम्बई जैड़ा सहैर मांय सेठाणी बणी राज करैला म्हारी लाड़ौ।’ (पेज-63)
बेमाता रा लेख अर करमां रा फळां रै बदळाव सारू कीं करणो जरूरी हुवै। टैम माथै खरो फैसलो लेवण री जरूरत ओ उपन्यास सारदा रै मारफत बतावै। जे सारदा आपरै दुखां साम्हीं ऊभी हुवती, का किणी ढाळै रो विरोध करती तो स्यात उण री जूण कीं दूजी हुवती। उण नै दूजै ब्यांव पछै ई जद घर सूं बारै काढ देवै तद बा वगत नै इण ढाळै स्वीकारै- ‘म्हैं म्हारी तगदीर नै दोस देवती उठै सूं चाल पड़ी।’ (पेज-83) बगत बदळै अर उपन्यास मांय बा ठौड़ ई आवै जद सारदा री जूण चांकैसर आवण ढूकै- ‘बस कर बेटी! बस कर, पाछला जलम मांय म्हैं स्यात कीं खोटा करम करिया व्हैला जिणरौ फळ म्हनै इण भांत मिल्यौ। थानै म्हारी सौगंध है अबै आंख सूं एक आंसू मत काढ़।’ (पेज-111)
राजस्थानी समाज मांय छोरियां-लुगायां साम्हीं एकै पासी संस्कार हुवै तो दूजै पासी काण-कायदा। पढाई-लिखाई अर नुवै जमानै री बातां सारू लुगाई नै जागणो पड़सी। सेवट सादरा रा दिन फुरै। सारदा बी.एड. करै अर मास्टरनी लागै। सारदा री इण जूण जातरा सूं केई-केई मरम री बातां साम्हीं आवै। सारदा री जूझ एक इसी लुगाई री गाथा वण जावै, जिण जूण मांय अणमाप दुख देख्या, बिखो भोग्या अर सेवट खरो मारग मिलै। नंद भारद्वाज रै सबदां मांय कैवां तो- ‘कथा नायिका सारदा री जीवण-जूंझ इण अरथ में वाकेई एक मिसाल पेस करै अर आ युवा कथाकार रीना मेनारिया री खासियत जाणिजै कै वां इण चरित नै जिण धीरज अर नरमाई सूं सिरज्यौ, उणसूं समाजू बदळाव री प्रक्रिया में पसवाड़ौ फेरती एक भरोसैमंद अर यथार्थवादी नारी री छिब साम्हीं आई।’
आ छिब अजेस काळी रातां भोगै। रात ई न्यारी न्यारी ठौड़ न्यारै न्यारै रूपां मांय घर करियोड़ी बैठी है। इणी खातर अजेस लुगाई जूण माथै केई उपन्यास लिखीज रैया है। दुखां सूं भरी पोतीवाड़ री हैप्पी एंड वाळी नायिका सारदा जद आपरी कथा विगतवार चितारै तद बा पढी-लिखी अर भणी-गुणी मास्टरणी बणगी, इण सारू उण री भासा मांय केई अंग्रेजी रा सबद ई फूटरा लागै। जियां- ‘बापू री आ कंडिसण क्यूं व्ही।’ (पेज-30), ‘झूठ नीं बोलू आज पैलड़ली बार म्हैं बिना परमिसन सूं घर बारनै निकळी।’ (पेज-33) लुगायां जूण रै ओवरा मांय अजेस ई अखूट अंधारो घर करियोड़ो है अर बै बिना परमिसन घर सूं बारै कोनी निकळ सकै। रीना मेनारिया ‘पोतीवाड़’ रै मिस समाज साम्हीं केई सवालां भेळै मिनख-लुगाई री बरोबरी रो सपनो ई राखै।
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पोतीवाड़ (उपन्यास) रीना मेनारिया
संस्करण-2015, पाना-112, मोल-200/-
प्रकासक-सुभद्रा पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रीब्यूटर्स, दिल्ली

छूटे और बचे हुए रंगों के आस-पास ० डॉ. नीरज दइया

मैंने एक कागज पर
एक लाइन खींची
और साथ में ही कुछ फूल
कुछ पत्ते कुछ कांटे बना दिए
उसने देखा और हँसा
क्या यही कविता है
मैंने कहा- हां यह एक खूबसूरत कविता है।

(...खेतों में रची जाती कविता : ‘रंग जो छूट गया था’, पृष्ठ-87)
कुँअर रवीन्द्र जाना-पहचाना एक नाम है। वे स्वयं को मूलतः चित्रकार मानते हैं किंतु रंगों-रेखाओं के साथ-साथ शब्दों की दुनिया में भी उनकी समान सक्रियता रही हैं। उनके चित्र समोहित करते हुए हमें कला-अनुरागी बनाते हैं। कला के प्रति गहन जानकारी के बिना भी हम उनके प्रति मुगधता के भाव से भर जाते हैं। उनकी कूची और कलम की सतत साधना का यह परिणाम है कि चित्र चित्ताकर्षक और कविताएं बेहद मर्मस्पर्शी हैं। सीधे सरल शब्दों में कहें तो उनका कोई शानी नहीं है। उनकी कविताओं में जीवनानुभवों के साथ अनेक रंगों से सज्जित चित्र देखे जा सकते हैं। हिंदी आलोचना में रेखाचित्र विधा के लिए विद्वानों ने ‘शब्दचित्र’ उपयुक्त शब्द माना, वहीं रवीन्द्र जी के यहां ऐसी सीमाएं ध्वस्त होती हैं। उनकी कविताएं पढ़ते हुए हम बारंबार अनुभूत करते हैं कि उनके यहां शब्दचित्रों और रेखाचित्रों की सीमाओं का समन्वय है, वे काफी उभयनिष्ठ होती हुई हमारा दायरा विस्तृत करती हैं। कहा जा सकता है कि वे अपने चित्रों में कविताएं रचते हैं और कविताओं में चित्र लिखते हैं। कलाओं के लोक में यह ऐसा आलोक है जहां रंगों, रेखाओं और शब्दों के समन्वय से जीवन के रंगों को बेहतर बनाने की एक मुहिम है। बदरंग और दागदार होती इस दुनिया के रंगों को बचाने के लिए वे समानांतर अपनी दुनिया सृजित करते हैं। जहां आशा-विश्वास और रंगों से भरी एक दुनिया नजर आती है। जो बेशक हमारे जैसी ही अथवा कहे बेहतर दुनिया इस अर्थ में है कि वहां कुछ रंग और सपनों के साथ जीवन है।
कुँअर रवीन्द्र के दो कविता संग्रह ‘रंग जो छूट गया था’ (2016) और ‘बचे रहेंगे रंग’ (2017) प्रकाशित हुए हैं। कहना होगा कि इनकी कविताएं रंग से रंग की एक विराट यात्रा है जिसमें छूटे हुए रंगों के साथ रंगों के बचे रहने का विश्वास और उम्मीद है। देश और दुनिया के आवरण चित्र बनाने वाले कवि रवीन्द्र के दोनों संग्रहों पर उन्हीं के बनाएं अवारण हैं। दोनों को हम चाहे देर तक देखते रहें, तो भी मन नहीं भरता है। क्या यह कवि अथवा उनकी कला के प्रति मेरा अतिरिक्त अनुराग है, ऐसा कहा भी जाए तो मुझे स्वीकार है। रचना और रचनाकार के प्रति स्नेह और सम्मान ही श्रेष्ठ मूल्यांकन का आधार होता है। इसे आलोचना का प्रवेश द्वारा कहा जाए तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। यहां यह अंतःप्रसंग इसलिए भी जरूरी है कि मेरी और मेरे अनेक मित्रों की पुस्तकों के आवरण चित्र कुँअर रवीन्द्र द्वारा सहर्ष प्रदान किए गए हैं। मैं उनकी कविताओं से प्रभावित रहा और कुछ कविताओं का मैंने राजस्थानी में अनुवाद भी किया है।
कुँअर रवीन्द्र की कविताओं का केंद्रीय विषय रंग के अतिरिक्त अन्य कुछ कहा नहीं जाना चाहिए। उनके दोनों कविता संग्रहों के शीर्षक में रंग शब्द समाहित है। ‘रंग जो छूट गया था’ अर्थात जिस रंग को उनके रंगों में स्थान नहीं मिला उसे उन्होंने शब्दों में कविताओं के माध्यम से अभिव्यक्त किया है। रंग ही जीवन है। यह पूरा जगत ही अनेक रंगों का संकाय है। ‘रंग’ अपने आप में बहुत बड़ा विषय है और वे चित्रकार-कवि के रूप में सदैव रंगों के निकट रहे हैं अथवा रहना चाहते हैं और उनकी ही नहीं हम सब की यही अभिलाषा है कि ‘बचे रहेंगे रंग’ हमारी इस दुनिया के हम सब के लिए। इन रंगों के बचे रहने से हम भी बचे रहेंगे, इसलिए भी रंगों को बचाया जाना बेहद जरूरी है। रंग ही हमारी अभिलाषा, आकांक्षा और इच्छाओं को गतिशील बनाते हैं।
‘रंग जो छूट गया था’ संग्रह में प्रत्येक कविता को शीर्षक दिया गया है, जबकि ‘बचे रहेंगे रंग’ में कविताएं बिना शीर्षक से है। यह कवि का व्यक्तिगत फैसला है कि किसी कविता को वह शीर्षक दे अथवा ना दे। किसी अन्य कवि के विषय में तो मैं नहीं पर कुँअर रवीन्द्र की कविताओं के विषय में कह सकता हूं कि इनकी सभी कविताओं को शीर्षक भले दिए गए हो अथवा नहीं दिए गए हो, वे सभी कविताएं खंड-खंड जीवन के विविध रंगों को प्रस्तुत करती हैं। अस्तु सभी कविताएं ‘रंग’ शीर्षक की शृंखलाबद्ध कविताएं हैं। दोनों संग्रहों की कविताएं प्रकाशन के लिए एक क्रम में रखी गई हैं किंतु यह रंगों की ऐसी इन्द्रधनुषी माला है कि इसको जहां चाहे, वहीं से आरंभ किया जा सकता है और इसकी इति कहीं नहीं है। इन कविताओं के द्वारा रंगों का जीवन में सतत प्रवाह होता है। जहां रंग नहीं है अथवा कम रंग हैं वहां भी कवि की दृष्टि से हम छूटे हुए रंगों को देख सकते हैं। कवि जीवन में रंग भरने का आह्वान भी करता है- ‘आओ रचें/ एक नया दृश्य/ एक नया आयाम/ एक नई सृष्टि/ एक बिंब तुम्हारा/ और हो एक बिंब मेरा/ हां/ इन बिंबों में/ रंग भी भरना होगा’ (...सार्वभौम बिंब : ‘रंग जो छूट गया था’ पृष्ठ- 72)
‘रंग जो छूट गया था’ संग्रह की कविताओं के शीर्षकों के साथ एक अन्य कलाकारी भी देखी जानी अनिवार्य है कि प्रत्येक कविता के शीर्षक से पहले तीन बिंदु खूंटियों जैसे टांगने के लिए बनाएं गए हैं जहां शीर्षक को अटकाया गया है। जैसा कि पहले कहा गया है कि दूसरे संग्रह में यह सब नहीं होकर कविताएं केवल गणितय अंकों के क्रम में व्यवस्थित की गई हैं और उसमें भी उनका होना बस उनके आरंभ भर की सूचना है। दोनों संग्रहों की कविताओं के अंत में कविताओं को जैसा कि बंद करने अथवा उनके पूर्ण होने पर कोई संकेत होता है, वह यहां नहीं है। यह उनके अनंत होने का संकेत हैं और आरंभ अथवा क्रम भी कहीं से भी हो सकता है। यह सूचना या विकल्प अंकित नहीं किया गया है। यहां यह सब आवश्यक अथवा अनावश्यक बातें इसलिए भी होनी जरूरी है कि कवि केवल कवि नहीं है, वरन एक चित्रकार भी है और वह दोनों माध्यमों के समन्वय हेतु सक्रिय है। वह नए दृश्य रचकर रंग भरना चाहता है।
कविताओं में रंगों की उपस्थिति स्थूल और सूक्ष्म दोनों स्तरों और रूपों में अभिव्यंजित हुई है। कवि के कविता समय में कवि का पूरा पर्यावरण समाहित है। वे घर-परिवार, गांव-देस, मौहल्ले-बाजार से दिल्ली पुस्तक मेले तक के प्रसंगों को कविता की दुनिया में प्रस्तुत करते हैं। उनके विविध वर्णी समय और बहुरंगी दुनिया से हमारा सीधा साक्षात्कार होता है। अनेक विषयों को जीवन के विरोधाभासों के साथ कविताओं में पिरोया गया गया है या कहें कि कुछ ऐसा हुआ और वे इस रूप में ढल गई हैं। यहां कवि अच्छाई-बुराई, सच-झूठ, सुख-दुख, प्रेम-घृणा जैसे अनेक युग्म शब्दों को प्रचलित अर्थों से इतर नए अर्थों-रंगों में सज्जित करता है- ‘तुमने पूछा है मुझसे/ रोटी का स्वाद?/ नहीं/ तुमने किया है/ मेरी निजता पर/ मेरी अस्मिता पर प्रहार/ क्या तुम जानते हो/ भूख की परिभाषा...।’ (...तुमने पूछा है मुझसे : ‘रंग जो छूट गया था’ पृष्ठ- 73) अथवा ‘जब अच्छे दिनों में/ कुछ भी अच्छा न हो/ सिवाय अच्छा शब्द के/ तब/ बुरे दिनों की यादें/ सुख देती हैं।’ (...बुरे दिनों की याद : ‘रंग जो छूट गया था’ पृष्ठ- 78)
समाज में स्त्रियों की भूमिका पर कवि चिंतित हैं वहीं पुरुष मानसिकता से त्रस्त। वह दुनिया के रंगों को बनाएं रखने की पैरवी इस अर्थ में अभिव्यक्त करता है कि विचारों का आदान-प्रदान और विमर्श जारी रहे। यह प्रतिक्रिया कभी एक तरफा नहीं होनी चाहिए। संवाद की स्थिति हर हाल में बनी रहनी चाहिए। हरेक स्थिति में सभी के लिए खुलापन और आजादी अनिवार्य है। दुनिया को सहकारिता और सहभागिदारी से चलया जा सकता है। तभी उसकी सुंदरता रहेगी। कवि सरहदें मिटाने की बात करता है और एक ऐसी दुनिया की कल्पना करता है जहां किसी भी प्रकार की दीवारें नहीं हो। वह इन विरोधाभासों को भी जानता है कि दीवारों के बिना घर नहीं होता और घर होता है तो दीवारें भी होती हैं। वह लिखता है- ‘दरअसल/ मैं अब सरहदों के पार जाना चाहता हूं/ जिस तरह दीवारें गिरायी/ सरहदें भी तो/ मिटाई जा सकती है।’ (...सरहदें भी तो मिटाई जा सकती हैं : ‘रंग जो छूट गया था’ पृष्ठ- 82) इतनी बड़ी अभिलाषा का आरंभ घर से होना चाहिए- ‘औरतें!/ बहुत भली होती है/ जब तक वे/ आपकी हां में हां मिलाती है/ औरतें!/ बहुत बुरी होती है/ जब वे सोचने-समझने/ और/ खड़ी होकर बोलने लगती हैं।’ (...औरतें : ‘रंग जो छूट गया था’ पृष्ठ- 101) औरतों का बोलना जरूरी है। उनके बोलने से ही जीवन और रंग बोलते हैं। वे प्रत्येक सृजन का आधार और प्रेरणा हैं।
रंगों की आब कवि के दूसरे संग्रह में सघन से सघनतर होती देखी जा सकती है। कवि का विश्वास है कि वह उजाले को देश और दुनिया के लिए बचाएगा इसलिए वह उजाले को अपने हाथ में लेकर चलता है। वह उजाले की बाड़ बनाकर अंधेरे को घुसने नहीं देगा ठीक वैसे ही जैसे एक किसान अपने गन्ने के खेत को जंगली सूअरों से बचता है वह भी हमारे पास अंधेरे को फटकने नहीं देगा क्यों कि उसने उजाले को पहचान लिया है और उसी उजाले की हमारी पहचान, कविताओं के माध्यम से वह कराता है। कवि का मानना है कि हम हमारी स्थिति से अपनी नियति की तरफ अग्रसर होते हैं। नियति के लिए फैसला जरूरी है कि हम क्या तय करते हैं। कवि के शब्दों में देखें- ‘जहां पर तुम खड़े हो/ हां वहीं पर क्षितिज है/ उदय भी/ और अस्त भी वहीं होता है/ बस एक कदम आगे अंधेरा/ या फिर उजाला/ और यह तय तुम्हें ही करना है/ कि/ जाना किधर है।’ (बचे रहेंगे रंग : पृष्ठ- 74) कविताओं में सभ्यता के संकटों को भी समाहित किया गया है। कवि शहर और गांव में फैलते बाजारीकरण से चिंतत है और वह आदमी की तलाश में है, जो स्थितियों से जूझ सके। जो स्थितियों को बदलने के लिए हरावल बन सके। इस लड़ाई में इंसानों के मारे जाने पर कवि को दुख भी होता है किंतु वह धर्म-जाति और बंधनों से परे हमारे समक्ष ऐसी जमीन तैयार करता है जहां बिना संघर्ष से कुछ भी हासिल नहीं होता है। और वह संघर्ष के लिए प्रेरित भी करता है- ‘लड़ना है/ लड़ना ही पड़ेगा/ अपने लिए/ अपने खेतों के लिए/ अपने जंगलों के लिए/ लड़ना है/ अपने आकाश, अपनी नदियों के लिए/ अपने विचारों के लिए/ अपने आपको जीवित रखने के लिए।’ (बचे रहेंगे रंग : पृष्ठ- 46) इस लड़ाई में ‘समय के साथ सब कुछ बदलता है’ और अंततः निर्णायक स्थितियों में कवि को कविता का सहारा है- ‘बेशक! यदि तुम तब भी नहीं मरे/ और गुनगुनाते रहे/ कविता की कोई पंक्ति/ तो वे हत्यारे हथियार डाल तुम्हारे पैरों पर लौटेंगे/ हत्यारे सिर्फ कविता से डरते हैं।’ (बचे रहेंगे रंग : पृष्ठ- 80) यह कवि का विश्वास-सहारा ही इन कविताओं की पूंजी है।
वरिष्ठ कवि सुधीर सक्सेना का मानना है- ‘कुँवर रवीन्द्र की कविता को लेकर अवधारणा ठोस और सुचिंत्य है। वह ऐसी कविता के हिमायती नहीं है, जो प्रारब्ध में लिपटी हो या उसे दरख्तों के साये में धूप लगे या जो ऐसी छुईमुई हो कि उसे हौले से छूना पड़े या इत्ती गेय हो कि कोई भी गा सके या इतनी अतुकांत हो कि किसी के जेहन में भी न बैठे।’ (बचे रहेंगे रंग : पृष्ठ- 6)
मूर्त-अमूर्त और कल्पना-यथार्थ के अनेक रेशों से निर्मित कविताओं के संग्रह- ‘बचे रहेंगे रंग’ की पहली कविता है- ‘बचे हुए रंगों में से/ किसी एक रंग पर/ उंगली रखने से डरता हूं/ मैं लाल, नीला, केसरिया या हरा/ नहीं होना चाहता/ मैं इंद्रधनुष होना चाहता हूं/ धरती के इस छोर से/ उस छोर तक फैला हुआ। (पृष्ठ- 9) यह कविता स्वयं में प्रमाण है कि कवि किसी एक रंग अथवा जीवन की स्थिति में ठहर नहीं सकता, वह विविध वर्णों और रंगों से बना इंद्रधनुषी कवि हैं। सारे रंग उसमें समाहित है। ऐसा और यह सब प्रेम संभव करता है। इसके साथ कवि का जमीन पर रहकर ऊंचाई छूने का सपना- ‘मैं सीढ़ियां नहीं चढ़ता/ कि उतरना पड़े/ जमीन पर आने के लिए/ मैं जमीन पर ही अपना कद/ ऊंचा कर लेना चाहता हूं/ ऊंचाई छूने के लिए।’ (बचे रहेंगे रंग : पृष्ठ- 65) कुँवर रवीन्द्र ने बेशक अपनी कविताओं को भूमिका में अनगढ़ कहा हो, किंतु इनकी अनगढ़ता में जो गढ़ने का शिल्प और कौशल है वह प्रौढ़ प्रतीत होता है। यह कवि की सहजता-सरलता और तटस्थता से संभव हुआ है। कवि का रंगों और शब्दों की दुनिया में निरंतर जुड़ाव बना रहेगा।
@ डॉ. नीरज दइया
@ डॉ. नीरज दइया

डॉ. नीरज दइया की प्रकाशित पुस्तकें :

हिंदी में-

कविता संग्रह : उचटी हुई नींद (2013), रक्त में घुली हुई भाषा (चयन और भाषांतरण- डॉ. मदन गोपाल लढ़ा) 2020
साक्षात्कर : सृजन-संवाद (2020)
व्यंग्य संग्रह : पंच काका के जेबी बच्चे (2017), टांय-टांय फिस्स (2017)
आलोचना पुस्तकें : बुलाकी शर्मा के सृजन-सरोकार (2017), मधु आचार्य ‘आशावादी’ के सृजन-सरोकार (2017), कागद की कविताई (2018), राजस्थानी साहित्य का समकाल (2020)
संपादित पुस्तकें : आधुनिक लघुकथाएं, राजस्थानी कहानी का वर्तमान, 101 राजस्थानी कहानियां, नन्द जी से हथाई (साक्षात्कार)
अनूदित पुस्तकें : मोहन आलोक का कविता संग्रह ग-गीत और मधु आचार्य ‘आशावादी’ का उपन्यास, रेत में नहाया है मन (राजस्थानी के 51 कवियों की चयनित कविताओं का अनुवाद)
शोध-ग्रंथ : निर्मल वर्मा के कथा साहित्य में आधुनिकता बोध
अंग्रेजी में : Language Fused In Blood (Dr. Neeraj Daiya) Translated by Rajni Chhabra 2018

राजस्थानी में-

कविता संग्रह : साख (1997), देसूंटो (2000), पाछो कुण आसी (2015)
आलोचना पुस्तकें : आलोचना रै आंगणै(2011) , बिना हासलपाई (2014), आंगळी-सीध (2020)
लघुकथा संग्रह : भोर सूं आथण तांई (1989)
बालकथा संग्रह : जादू रो पेन (2012)
संपादित पुस्तकें : मंडाण (51 युवा कवियों की कविताएं), मोहन आलोक री कहाणियां, कन्हैयालाल भाटी री कहाणियां, देवकिशन राजपुरोहित री टाळवीं कहाणियां
अनूदित पुस्तकें : निर्मल वर्मा और ओम गोस्वामी के कहानी संग्रह ; भोलाभाई पटेल का यात्रा-वृतांत ; अमृता प्रीतम का कविता संग्रह ; नंदकिशोर आचार्य, सुधीर सक्सेना और संजीव कुमार की चयनित कविताओं का संचयन-अनुवाद और ‘सबद नाद’ (भारतीय भाषाओं की कविताओं का संग्रह)

नेगचार 48

नेगचार 48
संपादक - नीरज दइया

स्मृति में यह संचयन "नेगचार"

स्मृति में यह संचयन "नेगचार"
श्री सांवर दइया; 10 अक्टूबर,1948 - 30 जुलाई,1992

डॉ. नीरज दइया (1968)
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आंगळी-सीध

आलोचना रै आंगणै

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