बच्चों से जुड़ी समस्याओं का निरूपण / डॉ. नीरज दइया
‘पोहे वाली दादी’ कहानी को लेकर कुछ संकाएं हैं। बड़े-बूढ़े और युवा आदि पात्र बाल कहानियों में हो सकते हैं किंतु यह विचार करना जरूरी है कि कोई बाल कहानी कैसे बनती है और कैसे वह उस श्रेणी से बाहर होती नजर आती है। यहां कहानी को जिस फ्लैश-बैक अंदाज में रचा गया है और जिस मनोविज्ञान से व्यंजनाएं उभारने का प्रयास है वह वालको के लिए ग्राह्य नहीं है। हां यह किशोर साहित्य की परिसीमा में तो रखा जा सकता है कि वे इस कहानी का संदेश आत्मसात कर सकें। संबंधों की नई परिभाषाएं गढ़ती इस कहानी में वतर्मान संदर्भों से तुलना करें तो अविश्वसनीयता नजर आएगी। इस बदलती दुनिया में पोहे वाली दादी या दादा चंड़ीगढ़ या कहीं अन्यत्र मिलना बेहद कठिन है। स्वार्थों से भरी इस दुनिया में ऐसी कल्पनिक दुनिया जरूर सुखदायक है। कहानी में दादी का एक पत्र भी उल्लेखित हुआ है। पत्र का समापन तो किताब में दृश्यगत है किंतु आरंभ के लिए पाठकों को सोचना-विचारना होगा। फिर दादा-दादी से सौम्या फोन पर बाद में भी बातें करती थी तब ऐसे पत्र का क्या औचित्य रह जाता है।
कहानी ‘मन की बात’ में सात वर्ष की नवधा की मनोग्रंथी का निदान उसकी बुआ तरला के माध्यम से दिखाया गया है। माता पिता का लड़के-लड़की में फर्क करना और अंत में पिता का अपनी बहन के ब्लॉग से मन की बात शीर्षक का आलेख पढ़ कर अपनी पत्नी को पढ़वाना और दोनों का हृदय-परिवर्तन किसी आश्चर्य से कम नहीं है। आश्चर्य तो इस बात का भी है कि बाल साहित्य के क्षेत्र में सोलह कहानी संग्रह सुकीर्ति भटनागर के प्रकाशित हो चुके हैं ऐसा पुस्तक के अंत में उनके परिचय में दिया गया है और तब भी इस कहानी में वे बाल मनोविज्ञान से संबंधित आलेख और बाल कहानी में अंतर नहीं कर पा रही हैं। निसंदेह यहां एक बहुत बड़ी समस्या का निरूपण किया गया है किंतु इसे बाल कहानी कहना उनकी जिद्द है। इस कहानी का एक अंश देखें- ‘अब वह तीन-चार वर्ष का हो गया था और स्कूल जाने लगा था। पर पढ़ने में उसकी तकिन-सी भी रुचि नहीं थी। जब कभी पढ़ाई की बात को लेकर नवधा से उसकी तुलना की जाती तो वह बुरी तरह चिढ़ जाता और ”नवा गंदी है, नवा गंदी है” कहते हुए रो-रो कर सारा घर आसमान पर उठा लेता, उसकी कापियां-किताबें फाड़ देता, पर उसे समझाने या टोकने के स्थान पर मम्मी उसे पुचकारते हुए कह देती, “अरे बेटा, अभी तो आप छोटे हैं न, पर थोड़े बड़े हो जाने पर दीदी से कहीं अधिक अच्छे नम्बर आएंगे आपके, क्योंकि आप बहुत समझदार हैं।” तब मम्मी की ऐसी चिकनी-चुपड़ी बातें सुन वह फूल कर कुप्पा हो जाता।” (पृष्ठ-51)
इसी भांति ‘स्टोर रूम’ कहानी में लेखिका हम बड़ों और बच्चों के अभिभावकों को संदेश देती है कि बाल साहित्य के स्थान पर बच्चों को ‘मनोहर कहानियां’ पढ़ने को नहीं देना है। घर में ऐसी पत्रिकाएं छिपा कर रखनी है अन्यथा बच्चे स्टोर रूप में जाकर चुपके चुपके पढ़ेंगे और मनोरोगों के शिकार बनेंगे। संग्रह में एक बाल कहानी ‘कहानी’ शीर्षक से है जिसमें एक मां कहानी लिखने के विषयों पर बात कर रही है। कहानी के अंत में घर के बच्चे बड़े समझदार हो गए हैं कि घर की नौकरानी की बिटिया को स्कूल पढ़ने के बड़े बड़े त्याग करते हैं। इस कहानी का एक अंश देखें- “और मां, मैं सोच रहा हूं कि अपने जन्मदिन पर बहुत महंगे कपड़े न खरीद कर साधारण कपड़े ही खरीदूं। न भी खरीदूं तो भी चलेगा। स्वयं पर पैसे खर्चने की अपेक्षा मंगला दीदी के लिए ही एक स्कूल ड्रेस और बनवा दें तो अच्छा रहेगा। उनका तो बस्ता भी बहुत पुराना और गंदा-सा है, वह भी नया होना चाहिए।” “आप तो बहुत ही समझदार हैं भाई। यदि हम कुछ ऐसा ही करते रहें तो मंगला दीदी भी हमारी तरह स्कूल जाती रहेंगी। पढ़ना तो बहुत अच्छी बात है न, इससे जीवन संवरता है। ऐसा हमारी टीचर दीदी कहती हैं, क्यों मां?” “हां बेटी, आपकी टीचर दीदी बिल्कुल सही कहती है। जैसे हमारे स्वास्थ्य के लिए खाना-पीना, सोना-जागना आवश्यक है, वैसे ही जीवन को सही ढंग से जीने और सोद्देश्यपूर्ण बनाने के लिए शिक्षित होना भी आवश्यक है।’ (पृष्ठ-44)
ऐसी बड़ी-बड़ी बातों की कहानियों के बीच दो कहानियां ‘आलू पुराण’ और ‘सपने’ भी हैं। बाल कहानियों को जिन बाल मनोविज्ञान के साथ निर्वाह करना होता है उसकी एक झलक ‘सपने’ कहानी में मिलती है। एक छोटी बच्ची के सपने उसकी अपनी आंखों से यहां लेखिका ने बेहद मार्मिक ढंग से चित्रित किए हैं। दो परिवारों को बीच अर्थ के कारण स्थितियों का अंतर और समायोजन का सुंदर निरूपण इस कहानी में मिलता है। इसी भांति ‘आलू पुराण’ में आलू चिप्स के आविष्कार जॉर्ज स्पेक के विषय में जानकारी को कहानी में गूंथा गया है।
पुस्तक के आंरभ में लेखिका ने तीन पृष्ठों का एक खत अपनी बात ‘जीवन की मार्गदर्शक : सकारात्मक सोच’ शीर्षक से दिया है। प्यारे बच्चों को संबोधित इस पत्र में लेखिका बच्चों को कहानियों में क्या कहा गया है समझा रही हैं। बाल साहित्य में बेहतर होगा कि हम बच्चों को समझाने के स्थान पर उनकी खुद की समझ और समझने के कुछ उदाहरण कहानियों में चित्रित करें, जैसा कि कहानी ‘सपने’ में लेखिका ने किया भी है। इक्कीसवीं सदी में इस दौर में हम बच्चों से जुड़ी समस्याओं का निरूपण अपने किसी आलेख में करेंगे और बाल कहानियों के विषय में आज की आवश्यकताओं को समझने का प्रयास भी करेंगे।
समीक्षक : डॉ. नीरज दइया
पुस्तक : पोहे वाली दादी (बाल कथा-संग्रह)
कहानीकार : सुकीर्ति भटनागर
प्रकाशक : साहित्यसागर प्रकाशन, धमाणी मार्केट की गली, चौड़ा रास्ता, जयपुर-302 003
संस्करण : 2019, पृष्ठ : 84
मूल्य : 160/-
0 टिप्पणियाँ:
Post a Comment