पुस्तक समीक्षा / डॉ. नीरज दइया
संस्करण : 2018, पृष्ठ : 96, मूल्य : 160/-
सहज पठनीय रचनाओं का संग्रह : परनिंदा सम रस कहुं नाहिं
जब किसी विशेष एक क्षेत्र में कोई लेखक लेखन करता है तो उसकी पहचान उससे चिपक जाती है। ऐसी ही पहचान आत्माराम भाटी से खेल-लेखक के रूप में चिपकी हुई है। आपके प्रथम व्यंग्य-संग्रह ‘परनिंदा सम रस कहुं नाहिं’ में सर्वत्र उन्हें खेल-लेखक के रूप में हम देख सकते हैं। खेल में जिस प्रकार खेल-भावना का महत्त्व होता है, वैसे ही व्यंग्य लिखते हुए भाटी एक भावना लिए बिना किसी परवाह के इस क्षेत्र में आगे बढ़ते रहे हैं। वे अपने इस सफर को संग्रह के आरंभ में ‘अपनी बात’ में लिखते हैं कि कैसे उन्होंने ‘दैनिक युगपक्ष’ के माध्यम से व्यंग्य की दुनिया में प्रवेश किया और उनकी निरंतरता का प्रमाण यह संग्रह है।
पुस्तक के शीर्षक ‘परनिंदा सम रस कहुं नाहिं’ से स्पष्ट है कि जो जैसा है उसे अलग दृष्टिकोण से देखने-दिखाने का कार्य व्यंग्य में होता है। व्यंग्य को मूलतः सामाजिक आलोचना की विधा भी कहा जाता है और अकसर निंदा और खासकर परनिंदा को आलोचना का पर्याय मान लेते है। निंदा और परनिंदा पर अनेक व्यंग्यकारों ने लिखा है और भविष्य में भी इस विषय पर लिखा जाएगा। ऐसे में किसी ऐसे विषय पर लिखते हुए अपने पूर्ववर्ती व्यंग्यकारों के रचनात्मक अवदान से परिचित होना आवश्यक है। आत्माराम भाटी की ऐसी और अन्य सभी रचनाओं का पोषण उनकी सहज कथात्मकता और वर्तालाप के द्वारा निर्मित करने का प्रयास है। कहना होगा कि उनके व्यंग्य स्थानीय भाषा से पोषित शब्दावली और जन-जीवन की सांस्कृतिक दृश्यावली के कारण पाठकों को प्रभावित करने वाले हैं। उनके यहां संबंधों का गणित अपनी संवादात्मकता के विस्तार से अनेक समसामयिक सूचनाओं को संजोकर चलता है। उनकी इन रचनाओं में अनेकानेक टेढे-मेढ़े मार्गों से अंततः मंजिल तक पहुंचना एक यादगार यात्रा का आस्वाद देने वाला होता है।
आत्माराम भाटी की इन रचनाओं के केंद्र में उनका अपना घर-परिवार-मौहल्ला और अपने लोगों के साथ समकालीन व्यवस्था-पक्ष में व्याप्त अव्यवस्थाओं का चित्रण अधिक हैं। वे जिस लेखक-समाज में रहते हैं वहीं की अव्यवस्थाएं और अतिवादिताओं को काफी रचनाओं का उत्स कहा जा सकता है। संग्रह की प्रथम रचना- ‘मुझे पुरस्कार नहीं चाहिये’ में पुस्कार के साथ ‘चाहिए’ हमारा ध्यान खींचता है। वर्तमान समय में साहित्य और पुरस्कारों के पतन पर यहां साहित्यकारों की पोल खोलने वाला तमाशा है। लेखक की चिंता है कि आज पुरस्कारों और सम्मानों में भी व्यापर और फायदे जैसी घ्रणित प्रवृत्तियां पनप गई हैं।
जिस सहज-सरल ग्राही भाषा से खेल लेखन में लेखक आत्माराम जी को सफलता मिली, उसी के बल पर वे यहां पाठकों को अभिधा में सहज पठनीय रचनाएं देते हैं। हमें आशा करनी चाहिए कि वे अपने आगामी व्यंग्य-संग्रह में व्यंग्य लेखन में सर्वाधिक उल्लेखनीय मानी जानी वाली व्यंजना शब्द-शक्ति के बेहतर प्रयोगों के साथ सामने आएंगे। यहां भाषा के स्तर पर उन्होंने कुछ प्रयोग भी हैं। ‘जीएसटी यानी गेल सफी टाट’ आदि रचनाओं में हिंदी के सहज प्रवाह में मातृभाषा की महक और स्थानीयता उल्लेखनीय है। इससे आत्माराम जी की भाष आत्मीय हुई है तो बिना उद्धरण चिह्नों के संवाद प्रकाशित किए गए हैं। संवाद लेखक के वाचन में किसी रचना के मूर्त होते हैं किंतु पाठ के स्तर पर यहां यह संभव करने का संभवतः पहला प्रयास हैं। राजस्थानी के बल पर संवाद लोक से जुड़ते हुए पाठकों को बांधने वाले हैं वहीं पर्याप्त विराम-चिह्नों का अभाव अखरता है। प्रकाशकों में सर्जना, बीकानेर का विशेष महत्त्व रहा है और उनके यहां से यह संग्रह प्रकाशित हुआ है तो यह भाषिक कला-पक्ष ध्यानाकर्षण का विषय है।
विविध संदर्भों और घटनाओं पर केंद्रित संग्रह में तीस रचनाएं हैं। सभी रचनाओं में लेखक आत्माराम भाटी की सहजता-सरलता और सरसता निसंदेह रेखांकित करने योग्य इसलिए कही जाएगी कि यहां व्यंग्य की धार तो है पर उसमें निर्ममता के स्थान पर गहरी संवेदनाएं-मासूमियत भी है। पुस्तक के फ्लैप पर डॉ. लालित्य ललित, डॉ. उमाकांत गुप्त, बुलाकी शर्मा, डॉ. नीरज दइया और संजय पुरोहित की टिप्पणियों के अतिरिक्त अशोक चक्रधर की भूमिका व्यंग्यकार की विशेषाताओं पर प्रकाश डालते हुए उनसे उपजी आशाओं का खुलासा है। मैं आशा करता हूं कि खेल लेखक के रूप में विख्यात आत्माराम भाटी व्यंग्य लेखक के रूप में भी पर्याप्त विख्यात होंगे।
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