Tuesday, January 08, 2019

‘साहित्य के लपकूराम’ (2020) लालित्य ललित

    आपके हाथों में जो किताब है उसके लेखक श्री लालित्य ललित मेरे मित्र हैं। हमारी मित्रता की प्रगाढ़ता का अंदाजा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि मुझे उन्होंने अपनी रचनाएं भेजते हुए संग्रह की भूमिका के साथ इसके नामकरण का भी अनुरोध किया है। मैं लेखन के मामले में बचपन से ही पूरी तरह से स्वत्रंत रहा हूं। अब जब लेखन में कुछ नाम और बदनाम हो जाने के बाद पाता हूं कि लिखता तो मैं भी हूं पर लालित जी तो खूब लिखते हैं। क्या आप प्रतिदिन व्यंग्य लिखने को सरल काम समझते हैं? मैं तो नहीं लिख सकता और इसे बहुत कठिन काम मानता हूं। इस लिहाज से और वैसे भी मैं खुद को लालित्य ललित से छोटा व्यंग्यकार मानता हूं। मैं इस संसार में लालित्य से पहले आया और वे भी बिना देरी किए मुझसे सवा साल बाद आ गए। इसलिए मैंने भी उनसे सवा साल बाद हिंदी व्यंग्य के क्षेत्र में पदार्पण किया था।
    दुनिया में बहुत सी बातें समझ नहीं आती। वैसे साहित्य में छोटा-बड़ा क्या होता है? व्यंग्यकार तो कुछ अलग दृष्टि रखता है इसलिए उसे सब कुछ या तो बड़ा-बड़ा दिखाई देता है या फिर छोटा-छोटा। उसे जो जैसा है उसे देखने में जरा संकोच होता है। जैसे निंदक का स्वभाव निंदा करना होता है वैसे ही व्यंग्यकार के स्वभाव में मेन-मेख का भाव समाहित हो जाता है। प्रत्यक्ष में इसे मैं संयोग ही कहूंगा पर सोचता हूं कि उन्होंने इतने मित्रों में मेरा चयन क्यों किया? यह मीन-मेख का स्वभाव ही है। मित्र पर शक-संका करना भला मित्र धर्म है क्या? पर मित्रों में झूठ भी अपराध है। इसलिए सब कुछ बताना ठीक है। मैं चिंता में हूं। मेरे पास इस चिंता के अलावा भी अनेक चिंताएं हैं। कुछ चिंताएं आपसे साझा करना चाहता हूं। मेरी चिंता है कि पहले व्यंग्य लेखन बहुत कठिन काम समझा जाता था, हर कोई लेखक व्यंग्य लिखने की हिम्मत नहीं करता था। अब जब से हमारी पीढ़ी यानी लालित्य ललित और मेरे जैसे लेखकों ने इस विधा में सक्रिया दिखाई है तभी से इसे बहुत सरल समझा कर बहुत से लेखक व्यंग्यकार बनने का प्रयास करने लगे हैं।
    वैसे अपनी जमात के लिए यह कहना ठीक नहीं है कि व्यंग्यकार टांग खींचने के मामले में बदनाम हैं। वे अनेक ऐसी युक्तियां जानते हैं कि छोटों को बड़ा और बड़ों को छोटा बनाते में लगे रहते हैं। मैं कोई ठीक बात लिखूंगा तब भी उसे किसी भी रूप में लेने और समझने के लिए सब स्वयं को स्वतंत्र समझते हैं। मैं कह देता हूं कि आपकी स्वतंत्रता का यह अर्थ कदापि नहीं है कि मेरी सीधी और सरल बात को आप गंभीर और कुछ ऐसी-वैसी समझने की भूल करें। देखिए लोग कीचड़ को देखकर बच कर निकलने का प्रयास करते हैं। स्वच्छता अभियान के इस दौर में भला कीचड़ और गंदगी को गले लगना कहां की समझदारी है। व्यंग्यकार तो जैसे बिना नियुक्ति के स्वच्छता अभियान के कार्यकर्ता हैं, जो जरा गंदगी या फिर कीचड़ दिखते ही झटते हैं। वे कलम हाथ उठाए ही रखते हैं। आज लिखा कल छपा के इस दौर में रचना को अधिक पकाने का काम हम नहीं करते हैं। इतना समय ही हमें कहां मिलता हैं और वैसे भी हमारा एक हाथ तो सदा पत्थरों से भरा रहता है। जहां कीचड़ दिखाता है वहीं पत्थर फेंक निशाना साधते हैं। कभी तो कुछ छींटे हमरे पर आ गिरते हैं और नहीं गिरते तो हम खुद ही थोड़े कीचड़ से सना हुआ दिखते हैं जिससे लगे कि हम यर्थाथ के धरातल पर हैं। अगले दिन हमारा वह अचूक निशाना अखबारों की शोभा बनता है। हमें निरंतर प्रकाशित होना बहुत अच्छा लगता है।  
    अन्य विधाओं की तुलना में भाषा का सर्वाधिक प्रखर और प्रांजल प्रयोग व्यंग्य विधा में संभव है। मुझे तो ऐसा प्रतीत होता है कि पूरी दुनिया की विसंगतियां, फोड़े, फुंसिया, घाव, मवाद, गंदगी, कीचड़ आदि जो कुछ भी है उन के पीछे व्यंग्यकार नश्तर लिए पड़े हुए हैं। हम दुनिया को सुंदर बनाने का स्वप्न लिए हुए, जगह-जगह घाव कर रहे हैं और कहीं-कहीं गहरे तक चीर-फाड़ करते हुए सब कुछ ठीक करने में लगे हुए हैं। किंतु इतना काम करने के बाद भी ढाक के वही तीन पात।
    भूमिका का मतलब भूमिका होता है और इसलिए मैंने इतनी लंबी-चौड़ी भूमिका बनाई है। अब असली मुद्दे पर आना चाहिए। बहुत सी भूमिकाएं और प्रवचन मैंने और अपने ऐसे देखें है जिन में बहुत बड़ी-बड़ी बातें होती है पर मुख्य बात किताब और किताब के लेखक को बहुत कम महत्त्व देते हैं। मैं ऐसा करने की भूल नहीं कर सकता हूं। इसलिए मैंने अब तक बिल्कुल छोटी-छोटी मामूली बातें की है और अब गंभीर बात करने जा रहा हूं।
    इक्कीसवीं सदी के व्यंग्यकारों में लालित्य ललित बेशक शरीर से भारी-भरकम दिखाई देते हो, किंतु उनकी रचनात्मक तीव्रता किसी तेज धावक सरीखी है। वे उम्र के अर्द्ध शतक के पास हैं और लिखने वाले हाथ में इतनी तेजी है कि ‘की-पेड’ भी उन्हें बहुत बार कहता होगा- ‘भाई साहब जरा धीरे, मैं तो मशीन हूं।’ यह बहुत हर्ष और गर्व का विषय है कि लालित्य आधुनिक तकनीक के मामले में बहुत आगे और तेज है। वे बहुत जल्दी किसी भी घटनाक्रम को रचना को शब्दों से साधते हुए द्रुत गति से दुनिया के सुदूर इलाकों में इंटरनेट के माध्यम से पहुंचने की क्षमता रखते हैं। 
    जैसा कि मैंने पहले स्पष्ट कर दिया कि मैं कहने-सुनने के मामले में बिल्कुल साफ हूं और साफ मन से आपको स्वतंत्रता देना पसंद नहीं करता। मैं दुवा करता हूं कि मशीनों के बीच हमारे व्यंग्यकार भाई लालित्य ललित की अंगुलियां ‘की-पेड’ जैसी किसी मशीन में ना तब्दील हो जाए। यहां एक खतरे का अहसास है कि हिंदी में सर्वाधिक तेजी से अधिक व्यंग्य लिखने वाले लेखकों में शामिल होना बहुत अपने आप में चुनौति भरा है। इसमें बहुत हुनर और होशियारी चाहिए। इन और ऐसी अनेक विशेषाओं के बारे में आप कुछ भी कहें पर मैं तो ललित-मित्र-धर्म में बंधा, उन्हें अव्वल कहता हूं। दीवानगी की हद तक लालित्य ललित को पांडेय जी का पीछा करते हुए मैंने देखा है। उन्होंने पांडेय जी को इतना फेमस कर दिया है कि पांडेय जी पर उनका कॉपीराइट हो चुका है। अब सबको पांडेय जी को बिल्कुल छोड़ देना चाहिए। मैं या अन्य कोई व्यंग्यकार अपने व्यंग्य में किसी दूसरे पांडेय जी को भी लाएंगे तो पाठक यही सोचेंगे कि लालित्य ललित वाले पांडेय जी को चुरा कर लाएं हैं। पांडेय जी इस असंवेदनशील होती दुनिया में संवेदनशीलता की एक मिशाल है। मेरे कहने का अभिप्राय यह है कि व्यंग्यकार में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण संवेदनाशीलता ही होती है, जिसे देखा-समझा जाना चाहिए।
    “किसी पर ऐसे मजाक कर जाना, जो किसी को चुभे भी नहीं और अपना काम भी कर जाए।” यह आत्मकथन हमें लालित्य ललित के उनके पहले व्यंग्य संग्रह के लिए लिखे आरंभिक बयान ‘मेरी व्यंग्य-यात्रा’ में मिलता है। उनके तीनों व्यंग्य-संग्रह ‘जिंदगी तेरे नाम डार्लिंग’ (2015), ‘विलायतीराम पांडेय’ (2017) और ‘पांडेय जी की हाय-तौबा’ (2018) इस आत्मकथन पर एकदम खरे उतरते हैं। यह कथन उनकी इस यात्रा की संभवानाओं और सीमाओं का भी निर्धारण करने वाला कथन है। यहां यह भी उल्लेख आवश्यक है कि उनके पहले दोनों व्यंग्य संग्रहों की भूमिका प्रख्यात व्यंग्यकार प्रेम जनमेजय ने लिखी हैं और तीसरे व्यंग्य संग्रह की भूमिका प्रेम से मैंने लिखी है। जनमेजय जी ने प्रशंसात्मक लिखते हुए अंत में एक रहस्य उजागर कर दिया कि वे नए व्यंग्यकार लालित्य ललित के प्रथम व्यंग्य संग्रह का नई दुल्हन जैसा स्वागत कर रहे हैं। ‘उसकी मुंह-दिखाई की, चाहे कितनी भी काली हो, प्रशंसा के रूप में शगुन दिया और मुठभेड़ भविष्य के लिए छोड़ दी। ललित यदि इस प्रशंसा से कुछ अधिक फूल गए तो यह उनके साहित्यिक स्वास्थ्य के लिए खतरनाक होगा।’
    जाहिर है कि अब मुठभेड़ होनी है और यह भी देखा जाना है कि उनका साहित्यिक स्वास्थ्य फिलहाल कैसा है क्यों कि उनका दूसरा और तीसरा व्यंग्य संग्रह भी आ गया है। विलायतीराम पांडेय लालित्य ललित का प्रिय और पेटेंट पात्र है। इन पांडेय जी की भूमिका में कभी उनमें लालित्य ललित स्वयं दिखाई देते हैं और कभी वे अनेकानेक पात्रों-चरित्रों को पांडेय जी में आरोपित कर देते हैं। यहां यह कहना उचित होगा कि पूर्व की भांति इस व्यंग्य संग्रह में भी लालित्य ललित ने व्यंग्य के नाम पर कुछ जलेबियां पेश की है। व्यक्तिगत जीवन में वे स्वाद के दीवाने हैं और संग्रह के अनेक व्यंग्य पांडेय जी के इसी स्वाद के रहते स्वादिष्ट हो गए हैं। आपके निजी भाषिक अंदाज और चीजों के साथ परिवेश के स्वाद की रंगत और कलाकारी अन्य व्यंग्यकारों से अलग है।
    लालित्य ललित कवि के रूप में भी जाने जाते हैं और संख्यात्मक रूप से भी आपकी कविताओं की किताबों का आंकड़ा मेरे जैसे कवि को डराने वाला है। उनके कवि-मन के दर्शन पांडेय जी में हम कर सकते हैं। लालित्य ललित कवि हैं और गद्य को कवियों का निकष कह गया है। निबंध गद्य का निकष कहा जाता है, इसमें व्यंग्य को भी समाहित कर विशेष माना जाना चाहिए।
    लालित्य ललित के व्यंग्य की तुलना किसी अन्य व्यंग्यकार ने इसलिए नहीं की जा सकती कि उन्होंने निरंतर एक शैली विकसित करने का प्रयास किया है। उनके व्यंग्य मुख्य धारा से अलग अपने ही तरह के व्यंग्य कहे जाते हैं। पांडेय जी की अनेक रूढ़ताओं में मौलिकता और निजताएं भी हैं। प्रस्तुत व्यंग्य संग्रह में भी उनके व्यंग्यकार का स्वभाव पुष्ट होते हुए स्थितियों को एक दूसरे से जोड़ते हुए बीच-बीच में हल्की-फुलकी चुहलबाजी का रहा है। कहीं पे निगाहें और कहीं पर निशाना का भाव उनके व्यंग्य पोषित करते हैं। जैसा कि वे कवि हैं और सौंदर्य पर मुग्ध होने का उनका स्वभाविक अंदाज जैसा की वे चाहते हैं कि कोई बात किसी को चुभे नहीं की अभिलाषा पूरित करता है। उनके पांडेय जी के सभी अंदाज चुभने और अखरने वाले नहीं है। उनका हल्के-हल्के और प्यारे अंदाज से चुभना अखराता नहीं है।
    विलायतीराम पांडेय सर्वगुण सम्पन्न है कि वे किसी फिल्म के हीरो की भांति कुछ भी कर सकते हैं। वे जब कुछ भी करते हैं तब उनकी सहजता नजर आती है किंतु उसमें व्यंग्यकार का हस्तक्षेप अखरने वाला भी रहता है। लालित्य ललित की यह विशेषता है कि वे विभिन्न रसों से युक्त परिपूर्ण जीवन को व्यंग्य रचनाओं में अभिव्यक्त करते हैं। अनेक वर्तमान संदर्भों-स्थितियों को उकेरते हुए वे बहु-पठित, शब्दों के साधक, कुशल वक्ता, कुशाग्र बुद्धि होने का अहसास कराते हैं।
    इस संग्रह का उनका मुख्य पात्र विलायतीराम पांडेय उनके पहले दोनों संग्रहों में सक्रिय रहा है और यहां तो उनकी हाय-तौबा देखी जा सकती है। नाम- विलायतीराम पांडेय, पिता का नाम- बटेशरनाथ पांडेय, माता का नाम- चमेली देवी, पत्नी- राम प्यारी यानी दुलारी और दोस्त- अशर्फीलाल जैसे कुछ स्थाई संदर्भों यानी आम आदमी से व्यंग्यकार देश-दुनिया और समाज का इतिहास लिपिबद्ध करता है। यहां आधुनिकता की चकाचौंध में बदलते जीवन की रंग-बिरंगी झांकियां और झलकियां हैं। हमारे ही अपने सुख-दुख और त्रासदियों का वर्णन भी पांडेय जी के माध्यम से हुआ है। कहना होगा कि लालित्य ललित मजाक मजाक में अपना काम भी कर जाते हैं। यह उनकी सीमा है कि उनके व्यंग्य का मूल केवल कुछ पंक्तियों में समाहित नहीं होता है, किंतु यह उनकी खूबी है कि उनके व्यंग्य का वितान जीवन के इर्द-गिर्द व्यापकता के साथ दिखाई देता है। स्वार्थी और मोल-भाव करने वाले प्राणियों के बीच नायक विलायतीराम पांडेय इस दुनिया को देख-समझ रहे हैं अथवा दिखा-समझा रहे हैं। यहां एक चेहरे में अनेक चेहरों की रंगत है। सार रूप में कहा जाए तो एक बेहतर देश और समाज का सपना इन रचनाओं में निहित है।
    संग्रह में विषय-विविधता के साथ समसामयिक स्थितियों से गहरी मुठभेड है। साहित्य और समाज के पतन पर पांडेय जी चिंतित हैं। जनमानस की बदलती प्रवृतियों और लोक व्यवहार को रेखांकित करते हुए वे कुछ ऐसे संकेत छोड़ते हैं जिन्हें पाठकों को पकड़ना है। उनका हर मजाक अहिंसक है। लालित्य ललित अपने गद्य-कौशल से किसी उद्घोषक की भांति किसी भी विषय पर आस-पास के बिम्ब-विधानों से नए रूपकों को निर्धारित करने का प्रयास करते हैं। पांडेय जी उनके और हमारे लिए सम्मानित नागरिक है और होने भी चाहिए। वे यत्र-तत्र ‘नत्थू’ बनने की प्रविधियों से बचाते हुए सम्मानित जीवन जीना चाहते हैं। वे परंपरागत उपमानों के स्थान पर नए और ताजे उपमान प्रयुक्त करते हैं। बाजार की बदलती भाषा और रुचियों से उनके व्यंग्य पोषित हैं।
    लालित्य ललित के व्यंग्य अपनी समग्रता और एकाग्रता में जो प्रभाव रचते हैं, वह प्रभावशाली है। ऐसा भी कहा जा सकता है कि वे पृथक-पृथक अपनी व्यंजनाओं से हमें उतना प्रभावित ना भी करते हो किंतु समग्र पाठ और सामूहिकता में निसंदेह पांडेय जी एक यादगार बनकर स्थाई प्रभाव पैदा करते हैं। विविध जीवन-स्थितियों से हंसते-हंसाते मुठभेड करने वाले एक स्थाई और यादगार पात्र पांडेय जी हर मौसम हर रंग में सक्रिय है और उनको हम नहीं भूल सकेंगे। अंत में बधाई और शुभकामनाएं।
डॉ. नीरज दइया

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डॉ. नीरज दइया की प्रकाशित पुस्तकें :

हिंदी में-

कविता संग्रह : उचटी हुई नींद (2013), रक्त में घुली हुई भाषा (चयन और भाषांतरण- डॉ. मदन गोपाल लढ़ा) 2020
साक्षात्कर : सृजन-संवाद (2020)
व्यंग्य संग्रह : पंच काका के जेबी बच्चे (2017), टांय-टांय फिस्स (2017)
आलोचना पुस्तकें : बुलाकी शर्मा के सृजन-सरोकार (2017), मधु आचार्य ‘आशावादी’ के सृजन-सरोकार (2017), कागद की कविताई (2018), राजस्थानी साहित्य का समकाल (2020)
संपादित पुस्तकें : आधुनिक लघुकथाएं, राजस्थानी कहानी का वर्तमान, 101 राजस्थानी कहानियां, नन्द जी से हथाई (साक्षात्कार)
अनूदित पुस्तकें : मोहन आलोक का कविता संग्रह ग-गीत और मधु आचार्य ‘आशावादी’ का उपन्यास, रेत में नहाया है मन (राजस्थानी के 51 कवियों की चयनित कविताओं का अनुवाद)
शोध-ग्रंथ : निर्मल वर्मा के कथा साहित्य में आधुनिकता बोध
अंग्रेजी में : Language Fused In Blood (Dr. Neeraj Daiya) Translated by Rajni Chhabra 2018

राजस्थानी में-

कविता संग्रह : साख (1997), देसूंटो (2000), पाछो कुण आसी (2015)
आलोचना पुस्तकें : आलोचना रै आंगणै(2011) , बिना हासलपाई (2014), आंगळी-सीध (2020)
लघुकथा संग्रह : भोर सूं आथण तांई (1989)
बालकथा संग्रह : जादू रो पेन (2012)
संपादित पुस्तकें : मंडाण (51 युवा कवियों की कविताएं), मोहन आलोक री कहाणियां, कन्हैयालाल भाटी री कहाणियां, देवकिशन राजपुरोहित री टाळवीं कहाणियां
अनूदित पुस्तकें : निर्मल वर्मा और ओम गोस्वामी के कहानी संग्रह ; भोलाभाई पटेल का यात्रा-वृतांत ; अमृता प्रीतम का कविता संग्रह ; नंदकिशोर आचार्य, सुधीर सक्सेना और संजीव कुमार की चयनित कविताओं का संचयन-अनुवाद और ‘सबद नाद’ (भारतीय भाषाओं की कविताओं का संग्रह)

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संपादक - नीरज दइया

स्मृति में यह संचयन "नेगचार"

स्मृति में यह संचयन "नेगचार"
श्री सांवर दइया; 10 अक्टूबर,1948 - 30 जुलाई,1992

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