राजस्थानी साहित्य के भागीरथ : मुरलीधर व्यास ‘राजस्थानी’ / डॉ. नीरज दइया
जब हम समय के विगत पृष्ठों को खोलते हैं तो पाते हैं कि आजादी से पहले और उसके बाद भी राजस्थानी साहित्य को लेकर बीकानेर में विपुल कार्य हुआ है, अब भी हो रहा है। हम आज तकनीक के घोड़ों पर सवार हैं और बहुत कुछ कर सकते हैं फिर भी हमारे अनेक ऐसे पुरोधा साहित्यकार हैं जिनके बारे में इंटरनेट पर अधिक कुछ नहीं मिलता है। साहित्यकारों के परिवार उनकी धरोहर को सहेजेंगे, किंतु ऐसा बहुत कम हुआ है। ऐसे में हम सभी भाषा-साहित्य समर्थकों का दायित्व है कि हमसे जितना जो कुछ हो सके, हम करें।
बीकानेर के साहित्यकार मुरलीधर व्यास ‘राजस्थानी’ राजस्थानी साहित्य के इतिहास में बहुत बड़ा नाम है और उनके विपुल अवदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता है। विविध विधाओं में लिखने वाले व्यास जी के साहित्य को अब उनके पड़पौत्र और युवा साहित्यकार योगोश व्यास ने संरक्षित करने का दायित्व लिया है। यह खुशी की बात है कि योगोश भी अपने नाम के आगे ‘राजस्थानी’ लिख कर व्यास जी की परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं।
मुरलीधर व्यास का जन्म चैत्र शुक्ला द्वादशी विक्रम संवत 1955 को हुआ। इसे हम हमारी परिचित शब्दावली में कहें तो 10 अप्रैल, 1898 कहना समीचीन होगा। उनकी पुण्य तिथि 16 फरवरी, 1984 है। अंग्रेजों का देश पर राज था और गुलाम भारत में शिक्षा का प्रचलन भारतीय समाज में बहुत कम था। व्यास जी ने मैट्रिक तक शिक्षा प्राप्त की और बाद में उन्होंने प्रयाग से विशारद भी किया। उनकी अनेक पुस्तकों में नाम मुरलीधर व्यास विशारद अंकित है। राजस्थानी के अतिरिक्त उनको हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू और गुजराती आदि अनेक भाषाओं का अच्छा ज्ञान था। वे अनेक बड़े पदों पर रहे और राजकीय सेवा से सेवानिवृति के बाद भी लिखते रहे। उनके जीवनानुभवों को उनकी रचनात्मकता में देख सकते हैं।
मुरलीधर व्यास जी ने वर्ष 1930 में राजस्थानी भाषा में लिखने बोलने का दृढ़ संकल्प लिया और जीवन पर्यंत यानी फरवरी, 1984 तक उसे व्रत मान निभाते रहे। सर्वाधिक उल्लेखनीय बात यह कि उन्होंने राजस्थानी में लिखने का एक मिशन आरंभ किया। अपने साथी रचनाकारों के साथ आधुनिक राजस्थानी की नींव के निर्माण में उनका विपुल योगदान है। वे राजस्थानी भाषा साहित्य अकादमी (संगम) के प्रथम अध्यक्ष भी रहे। मुरलीधर व्यास ‘राजस्थानी’ के साहित्य पुरोधा होने का एक प्रमाण यह भी है कि वर्ष 1998 में राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी बीकानेर और वर्ष 2009 में साहित्य अकादेमी नई दिल्ली ने उन पर मोनोग्राफ प्रकाशित किया है। राजस्थानी अकादमी ने स्मृति के अक्षुण रखने के उद्देश्य से उनके नाम पर 51,000/- रुपये का मुरलीधर व्यास राजस्थानी कथा पुरस्कार भी आरंभ किया है। वर्तमान में यह सिलसिला अकादमी अध्यक्ष की नियुक्ति के अभाव में थमा हुआ है। राजस्थानी भाषा-साहित्य के लिए समर्पित संस्थाओं का यह दायित्व है कि वे हमारे पुरोधाओं की स्मृति में समय-समय पर विभिन्न कार्यक्रम आयोजित करे। कार्यक्रमों के माध्यम से चर्चाओं और विमर्श से नई बातों का खुलासा होगा वहीं शोध-खोज द्वारा हम अपनी थाती को बचाए रखने में सक्षम हो सकेंगे।
मुरलीधर व्यास ‘राजस्थानी’ के कार्यों में दो बातें बहुत स्पष्ट ढंग से रेखांकित की जा सकती है। पहली बात बे मौलिक सृजन के पक्षधर रहे और दूसरी वे अपनी परंपरा और लोक साहित्य को संरक्षित करना ना केवल जरूरी मानते हैं बल्कि इस दिशा में उन्होंने कार्य भी किया।
आधुनिक कहानी के क्षेत्र में उनका उल्लेखनीय संग्रह ‘बरसगांठ’ (1963) प्रकाशित हुआ जो कथा साहित्य में एक धरोहर के रूप में सदा स्मरणीय रहेगा। यह वह बिंदु है जहां से हम आधुनिक कहानी का आगाज देख सकते हैं। सर्वाधिक उल्लेखनीय तथ्य यह है कि वे पहले ऐसे आधुनिक कहानीकार है जिन्होंने कहानी को दिशा दी। वैसे तो आधुनिक राजस्थानी कहानी और हिंदी कहानी की शुरुआत लगभग एक साथ हुई। राजस्थानी साहित्य में शिवचंद्र भरतिया जी की सन 1904 में प्रकाशित कहानी ‘विश्रांत प्रवासी’ को पहली राजस्थानी कहानी माना जाता है और आचार्य रामचंद्र शुक्ल सन 1900 में प्रकाशित किशोरीलाल गोस्वामी की कहानी ‘इंदुमति’ को हिंदी की पहली कहानी मानते हैं। किंतु भरतिया जी की कहानी यात्रा राजस्थानी कहानी को आगे नहीं बढ़ती और उसके बाद लंबा अंतराल है। किंतु व्यास जी के कार्यों में निरंतरता और विविधता है। उनकी ‘जूना जागता चितराम’ (1963) और ‘इक्कैवाळौ’ (1965) उल्लेखनीय कथेतर गद्य की पुस्तकें हैं। राजस्थानी कहावतों और लोक साहित्य पर उनका काम उल्लेखनीय है। उनके समकालीन राजस्थानी के प्रख्यात लेखक श्रीलाल नथमल जोशी उनको बेन यहूदा कहा है, क्यों कि बेन यहूदा ने यह प्रतिज्ञा ली थी कि वह अपनी मातृभाषा हिब्रू के अलावा दूसरी भाषा में बात नहीं करेंगे इसी भांति व्यास जी ने भी राजस्थानी का व्रत लेकर आजीवन उसे निभाया।
मुरलीधर व्यास ‘राजस्थानी’ की रचनाशीलता में भाषा के प्रयोग को हम देखें तो पाएंगे उन्होंने लोक जीवन को अपनी भाषा में सुंदर ढंग से साकार किया है। उनके यहां प्रस्तुत समस्याएं बहुत नई नहीं है किंतु लोक जीवन और व्यवहार के सिलसिले में यहां स्थानीयता को उकेरा गया है। आम आदमी की पीड़ा दुख दर्द भारतीय समाज का हिस्सा रहा है किंतु उनका प्रस्तुतीकरण और भाषा व्यवहार व्यास जी यहां बेहद प्रभावशाली है। आज आवश्यकता इस बात की है कि उनके समग्र साहित्य को ग्रंथावली के रूप में प्रकाशित किया जाए। उनकी रचनाओं का हिंदी-अंग्रेजी और अन्य भारतीय भाषाओं में अनूदित हो। उनके समग्र अवदान का सम्यक मूल्यांकन हो। इन सब से भी बेहद जरूरी उनकी विचारधार का विस्तार हो। वे आजीवन जिस राजस्थानी भाषा, साहित्य और संस्कृति के लिए कार्यरत रहे उसकी पहचान के लिए संघर्षरत रहे उसी मिशन को हमें आगे बढ़ाना है। हमारी पीढ़ी और युवा वर्ग को समझना है कि भाषा, साहित्य और संस्कृति के विकास में ही राजस्थान और सभी राजस्थानवासियों का विकास-सूत्र समाहित है।
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