मंच पर उपस्थित
माननीय श्री मानिकचंदजी सुराणा, श्री
भवानीशंकरजी शर्मा, श्री जनार्दनजी कल्ला, डॉ. सत्यप्रकाशजी आचार्य, गुरुदेव श्री भवानीशंकरजी
व्यास ‘विनोद’, परमआदरणीया सत्याजी और आप सभी उपस्थित
सम्मानित-समुदाय। सर्वप्रथम मैं हमारे जनकवि श्री बुलाकीदासजी ‘बावरा’ के 80वें
जन्म दिवस पर उनको और उनके पूरे सामाजिक-साहित्यिक परिवार को बधाई व मंगलकामाएं
अर्पित करता हूं। बेहद हर्ष का विषय है कि हरदिल अज़ीज जनकवि बावरा साहब की तीन
काव्य-कृतियों का विमोचन आज गरिमामय मंच द्वारा हुआ। मुक्ति संस्था के सचिव श्री
राजेंद्र जोशी का आभार कि मुझे आज के अवसर पर पत्रवाचन का अवसर दिया, साथ ही मित्र
श्री संजय पुरोहित का आभार।
विगत तीन वर्षों में
प्रतिवर्ष जनकवि बावरा साहब की एक-एक पुस्तकें प्रकाशित होती रही, और यह कार्यक्रम
आज होना संभव हुआ है। किसी कवि-लेखक के जीवन में किताब का प्रकाशन एक सपने के संभव
होने जैसा है। मुझे खुशी है कि मेरे मित्र संजय ने बहुत बड़ा सपना पूरा किया है। यह
सपना केवल हमारे जनकवि श्री बावराजी का नहीं, वरन पूरे बीकानेर और पूरे प्रदेश का
है। इस काम का महत्त्व मैं अपने व्यक्तिगत कारणों से कुछ अधिक समझने का भरोसा रखता
हूं। मैं स्मरण करना चाहता हूं बावरा साहब के अजीज मित्र और मेरे पिता श्री सांवर
दइया का, जिनके नहीं रहने के पर मैंने तीन कृतियों का ऐसा ही
लोकार्पण वर्षों पहले करवाया था... मैं मानता हूं कि पिता के प्रति यह और वह
कार्यक्रम अथाह प्रेम का प्रतीक है। यह हमारी श्रद्धा है कि ऐसा कर हम स्वयं के साहित्यिक संस्कार पोषित कर रहे हैं। यह अतिश्योक्ति नहीं होगी यदि मैं कहूं कि आज
लोकार्पित तीन-काव्य कृतियां ऐसा प्रसाद है, जो मां सरस्वति के श्री चरणों में एक
पुत्र द्वारा पिता के लिए अर्पित किया जा रहा है। यह निरी भावुकता नहीं है। यह
भावना की बात है और भावना के आगे तो भगवान भी विवश हो जाते हैं। आज की हमारी
बात ऐसे ही आरंभ होनी चाहिए थी, मैं चाहूंगा कि इस पूरे भावनामय कार्य के लिए हमारे
युवा कवि-कहानीकार मित्र संजय पुरोहित के लिए जोरदार तालियां कि उन्होंने हमारे जनकवि
बुलाकीदास ‘बवरा’ की रचनाओं को पुस्तकाकार संजोया।
इस भूमिका के बाद अब मैं विधिवत अपनी
बात पर आता हूं। जनकवि श्री बुलाकीदास ‘बावरा’
का विस्तार से परिचय बड़े भाई कहानीकार-व्यंग्यकार श्री
बुलाकी शर्मा ने दिया, उनकी कही बातों को वापस नहीं कहूंगा। ‘शब्दों
की कतरन’ प्रकाशन वर्ष 2012, ‘अरदास’ प्रकाशन
वर्ष 2013 और ‘माटी
की मिल्लत’ प्रकाशन वर्ष 2014 में संकलित विभिन्न काव्य-रचनाओं
की बात करते समय मेरे समक्ष एक बहुत बड़ा संकट और चुनौती है। संकट इस रूप में कि इन
पुस्तकों में संकलित रचनाओं के रचनाकाल के संबंध में कोई सूचना नहीं है। चुनौती इस
रूप में कि मैं जिस कवि के विषय में बात कर रहा हूं वे मेरे लिए मेरे पिता जितने
आदरणीय और पूज्य है। मैं स्वयं उनके मित्र-कवि की रचना हूं और अपने रचनाकार पिता के
साथी-कवि पर बात करने का अधिकारिक विद्वान होने का भ्रम नहीं पाल सकता। अस्तु मैं
जो कुछ भी कह रहा हूं अथवा कहूंगा वह बस ऐसा समझा जाए कि जैसे कोई शिशु डगमगाते
कदमों से चलना आरंभ करे और उसके पारिवारिक जन एकदम मौन रहते हुए उसके इस साहस में
उसके साथ-साथ स्वयं भी हर्षित-प्रफुल्लित हों।
किसी भी रचना के मूल्यांकन में समय का घटक
महत्त्वपूर्ण होता है। वर्ष 2005 में
प्रकाशित अपने कविता संग्रह ‘अपने आस-पास’ संग्रह में बावराजी ने लिखा है-
"इस संग्रह की कविताओं में मेरे काव्य जीवन की पचास वर्षों की बानगियां
हैं।" इसी संदर्भ को विस्तार देते हुए कहा जा सकता है कि आज विमोचित तीनों
काव्य संग्रहों की कविताओं को हम साठ वर्षों की बानगियां मान सकते हैं। मैं एक ऐसे
कवि की साधना की बात कर रहा हूं, जिनको कविता लिखते हुए साठ वर्ष हो चुके। मंचीय
कविता की शान रहे बावराजी की साधना को प्रणाम करते हुए यह निवेदन करना चाहता हूं
कि अपनी पूरी काव्य-यात्रा में जिस काव्य-विवेक का परिचय इन रचनाओं में आरंभ से
अंत तक मिलता है, वह जीवनानुभवों के ऐसे धरातल पर आलोकित है जहां जीवन के प्रति गहन
अनुराग है। इसे ऐसे भी कहा जा सकता है कि बावराजी की कविता में जीवन के हर राग को
सुर में साधने का हुनर और हर संभव प्रयास देखा-समझा जा सकता है। कवि-आलोचक डॉ.
नन्दकिशोर आचार्य के शब्दों में- "बावरा के काव्य-संघर्ष की सार्थकता इस बात
में है कि उन्होंने प्रारंभ से ही कवि-सम्मेलनों के मंच पर भी वाचिक कविता का
स्वथ्य स्वरूप ही प्रस्तुत किया और सस्ती वाहवाही के लोभ में अपनी कविता के
साहित्यिक स्वरों को दब जाने नहीं दिया।"
डॉ. आचार्य
कविता के जिन साहित्यिक स्वरों का संकेत करते हैं उनका समेकित आकलन करना हो तो
हमें कवि बुलाकीदास बावरा के पूरे रचना-संसार को कालखंडों में देखना होगा। हिंदी
कविता के विविध बदलते आयामों के बीच समय-समय पर अनेक परिवर्तनों को लक्षित किया जा
सकता है और हमारी सहज जिज्ञासा यह भी हो सकती है कि आज की इक्कीसवीं सदी की हिंदी
कविता-यात्रा में, इन कविताओं को जो विभिन्न दौरों में रची गई हैं को कहां रखा
जाएगा? बेशक बावराजी की इस काव्य-यात्रा में हिंदी साहित्य की वर्तमान
कविता-यात्रा के साथ चलने का आग्रह नहीं है। महत्त्वपूर्ण यह है कि इन कविताओं का
अपना एक अलग इतिहास है और यह हमारे जनकवि श्री बुलाकीदास बावरा री पूरी कहानी है।
कहानी इस अर्थ में कि अपनी जिन कविताओं के बल पर कवि बावराजी ने अपना जो मुकाम
हासिल किया, ये कविताएं उसी यात्रा को पुखता, प्रमाणित और सघन करती है। आपकी साधना
में इन तीनों संग्रहों द्वारा कुछ नए रंग भी जुड़ते हैं।
‘शब्दों की
कतरन’ में 69 काव्य रचनाएं संकलित है।
शीर्षक कविता को देखें- "मैंने / मेरी / शब्दों की कतरन का / कागजनुमा नाविक
/ तुम्हें / इसलिए नहीं सौंपा / कि तुम उसे / किसी प्रदर्शनी में / रखने की बजाय /
पानी में / फैंक दो / यह देखने के लिए / कि वह / तैर सकता है / या कि नहीं।"
यह कविता बहुत कम शब्दों में जहां काव्य-सत्य का उद्घाटन करती है, वहीं हमारी
गरिमामय हिंदी काव्य-परंपरा से भी जुड़ती है। मैं बिहारी को स्मरण कर सकता हूं- करि
फुलेल को आचमन मीठो कहत सराहि / रे गंधी मतिमंद तू इतर दिखावत काँहि। कागज पर कविता कविता के
गहरे अर्थ और संदर्भ हुआ करते हैं। कवि की अपेक्षा होती है कि वह जिस भाव को
संप्रेषित करना चहता है उस तक पाठक पहुंचे। शब्दों की कतरन की कविताओं में कवि
बावरा का मन जिस सहजता सरलता से प्रस्तुत हुआ है उसमें कविता जैसे कवि की हमसफर
है। कविता जीवन से जुड़े अनेकानेक सत्यों को प्रकट करती हुई कठोर यथार्थ को स्पर्श
करती है। कवि के शब्दों में- "कविता ने स्वतंत्रता से मुझे अंतस की बातें
बताने का नैसर्गिक आनंद प्रदान किया है। जीवन के जीवंत संघर्ष का निरूपण करती हुई
कविता चिंतन की लंबी घाटियों से गुजर कर मानव समाज के लिए शाश्वत मूल्य उपस्थित
करती है और यही मानवीयता की विरासत बनती है।"
यहां यह भी उल्लेखनीय है कि कवि बावरा के यहां परंपागत
काव्य-शास्त्र के नियमों का पालन उनके अब तक प्रकाशित लगभग सभी संग्रहों में इस
रूप में देखा जा सकता है कि कविता संग्रह के आरंभ में ईश-वंदना का निर्बाध पालन
हुआ है। शब्दों की कतरन काव्य संग्रह की पहली कविता "ऐ मां मुझको वाणी
दे" में कवि बाबराजी लिखते हैं- चलता रहूं निरंतरता में / अपनी राहों को
खोजूं / मुझे आलौकित ज्ञानामृत दे / सदा उसे ही पूजूं / तुझमें श्रद्धा रहे सदा ही
/ वैसी मुझे निशानी दे / ऐ मां मुझको वाणी दे.... कवि का यह विनीत आग्रह है। यहां
यह भी साझा करना चाहता हूं कि जोश और खरोश के जीवट और जींवत कवि बावरा की कविताएं
जहां जनवाद और प्रगतिवाद के धुव्रों को स्पर्श करती है वहीं भक्ति में डूबी ऐसी
रस-धार भी उपस्थित करती है जिसे सर्वथा पृथक रूप में जाना-पहचाना जाएगा। मैं बात
कर रहा हूं कविता संग्रह ‘अरदास’ की,
जिसमें 34 काव्य-सुमन है जो विभिन्न
देवी-देवताओं को सादर समर्पित है। प्रथम-पूज्य श्रीगणेश वंदना से आरंभ हुए इस
काव्य संग्रह अरदास में जिस सहजता, सरलता और विनित भाव से ईश-वंदना के स्वरों को
संजोने का महती कार्य हुआ है। ऐसा प्रतीत होता है कि यह काव्य-साधना का दूसरा छोर
है जिस पर पहुंच कर कवि उस परम तत्त्व को सुरों से साधना चाहता है। इन काव्य
रचनाओं और अन्य गीतों के संबंध में मैं यह भी निवेदन करना चाहता हूं कि इनमें छिपी
ऊर्जा और ओज का सही-सही रूपांकन होगा यदि इन भजनों और गीतों को सुर अर संगीत से
जोड़ दिया जाए। इन संग्रहों की तथा अनेक अन्य ऐसी रचनाएं बावरा साहब के सजृन-लोक
में हमें मिलती है कि उनका आस्वाद करते हुए लगता है कि यदि इनको सुरों और संगीत
में पिरोया जाए तो सृजन की सार्थकता होगी।
असल में हमारे
जनकवि श्री बुलाकीदास ‘बावरा’ की काव्य-साधन स्वातः-सुखाय रही है जिसमें कवि का धेय
कविता द्वारा स्वयं को पाना है। ‘स्व’ की तलाश करती ये कविताएं विभिन्न सौपानों को
पार करती हुई आज जिस रूप में हमारे सामने है, उसमें एक राजस्थानी कविता संग्रह और
आठ हिंदी काविता संग्रह का होना अपने आप में बहुत बड़ा काम है। इस काम का महत्त्व
इस अर्थ में और अधिक बढ़ जाता है जब कि कवि ने अपनी पूरी जिंदगी अपने असूलों पर
जीना स्वीकारा और आनंदपूर्वक स्वाभिमान से जीवन जीया है।
संग्रह ‘माटी
की मिल्लत’ में कवि बावराजी के 125 मुक्तक और 61
गीतिकाएं व गजलें संकलित हैं। मुक्तकों में जहां छंद का निर्वाह हुआ
है वहीं अंतर्मन की विभिन्न अवस्थाओं में अनेकानेक रंग-रूप देखे जा सकते हैं।
बावराजी के
शब्दों में ही कहना चाहता हूं- तुमने मुझे संवारा है / तुमने मुझे दुलारा है / बंद
हुई सब आवाजें / तुमने मुझे पुकारा है।
ये रात अपनी है /
ये बात अपनी है / दुनिया जले तो जलने दो / मुलाकात अपनी है।
जीवन की इस
पुस्तक के मैं पृष्ठ उलटता जाता हूं। / निहित सभी अध्यायों के भी अर्थ
लगाता जाता हूं। / खोकर
के जो भी पाया है उसकी रक्षा के खातिर, / लुट जाने से पहले सारे वहम मिटाता जाता हूं।
आज सांध्य
दैनिक "विनायक" के संपादक दीपचंद सांखला ने अपने संपादकीय में लिखा है- "आठवें
दशक में आपातकाल के दौर को छोड़ दें तो तब शहर में कवि सम्मेलनों में व्यवस्था विरोध
की वाणी मुखर थी। जनकवि हरीश भादानी, शायर मस्तान के साथ सरकारी सेवा में होने के बावजूद जो कवि बेधड़क थे उनमें भीम
पांडिया, बुलाकीदास 'बावरा', व लालचन्द भावुक के नाम प्रमुख रहे। ऐसों की ही
कविताओं के माध्यम से व्यवस्था विरोध के भाव का पोषण होता रहा है।"
कवि श्री
बुलाकीदास बावरा की इस काव्य-यात्रा में हमें गीत, गजल, मुक्तक और छंद मुक्त
कविताएं मिलती हैं, जिनमें अनेक काव्य-प्रयोग है। काव्य-भाषा में हिंदी के साथ
उर्दू का सुंदर प्रयोग किया गया है। अरदास जैसा संग्रह तो बावराजी को सगुण भक्त
कवियों की श्रेणी में ले जाता है। हम इन संग्रहों और बवराजी की समग्र काव्य-यात्रा
पर आगे विभिन्न अवसरों पर चर्चा करेंगे। आज बस इतना ही और अंत में इन पुस्तकों के
सुंदर प्रकाशन के लिए अणिमा प्रकाशन, बीकानेर को साधुवाद। धन्यवाद।
- नीरज दइया
(दिनांक 06-07-2015 को
विमोचन समारोह में प्रस्तुत किया गया पत्र)
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