75 कहानीकार और वे भी केवल बीकानेर जैसे किसी शहर में होना अपने आप में एक अभिनव प्रयोग है। संपादक हरीश बी. शर्मा के "कथारंग" के लिए बहुत-बहुत रंग कि इस सहयात्रा में मैं भी शामिल हूं....
कमरे की साफ-सफाई
झाड-फौंछ के सिलसिल में हाथ में एक पुरानी डायरी आ गई है। यह संयोग ही है कि जो
पृष्ठ मेरे सामने खुला है, उस पर बड़े अक्षरों में लिखा है- प्रेम से मिलता-जुलता
कोई शब्द। आगे के पृष्ठ पर एक फूल का अधूरा-सा चित्र बनाने की गई मेरी कोशिश देखते
ही हरी हो गई है। पहली पंक्ति- वह उससे आखिरी मुलाकात थी, को पढ़कर एक स्मित भीतर
ही भीतर जैसे खिल आई। जैसे कोई पुरानी कहानी जवान हो गई हो। कुछ क्षण पहले सब कुछ
सामान्य था, बस पलक झकते ही किसी एक शब्द, चित्र या पंक्ति से बंधा मैं कहां से
कहां चला गया।
एक ही बस में हम
दोनों एक ही शहर से रवाना हुए थे। उसकी और मेरी मंजिल जुदा-जुदा थी, बस हमारा रास्ता एक
था। मेरा शहर उसके रास्ते में आता था। सोचा थोड़ा सफर साथ-साथ रहेगा। मैंने कहा कुछ
नहीं बस सोचा था कि यदि वह चाहती तो मेरे यहां रुक सकती थी। आगे दो दिन की छुट्टी
थी। उसे या मुझे कोई जल्दी नहीं थी। अब इस पल भी सोचता हूं कि मैंने उससे रुकने का
कहा क्यों नहीं। वह रुकती या फिर नहीं रुकती किंतु मुझे कहना तो चाहिए था। पता
नहीं रुकने का कहता तो वह रुकती भी या नहीं। कहीं एक डर और संदेह था कि मेरे रुकने
का कहने का वह क्या अर्थ लेगी? कोई स्त्री-पुरुष साथ या पास-पास आते ही कहानी जन्म लेती है। कहानी तो
कोई भी पास-पास और साथ-साथ आए तो आरंभ होती ही है। हमारे समय में ऐसी मित्रता कठिन
है। उसके रुकने का अथवा मेरे इस सोचने का सिरा आप पकड़ कर इस कहानी को कहां से कहां
ले जाएंगे। क्या एक इन्सान का दूसरे इन्सान से प्रेम के अतिरिक्ति कोई दूसरा संबंध
भी होता है।
उसकी समय की याद एक
खुशबू की तरफ अब भी अपने अहसास को लिए जिंदा है। मैं इतने वर्षों बाद अब तक मैं
इसे अपनी प्रेम कहानी की तरह संभाले हुए हूं। आज भी लगता है कि वह जख्म हरा है। पीड़ा
नहीं, बस कोई सुखद अहसास है जो किसी हवा के झोंके के साथ आया है। वैसे आप जानते
हैं कि वर्तमान में जीते हुए, हमारा अतीत में विचरण कभी सुखद और कभी दुखद होता है।
मैं अपना काम करते-करते, क्यों सुखद-दुखद जैसी बातें लेकर आत्म-संवाद करने लगा हूं।
अभी काम काफी बाकी है। आपका कभी किसी लेखक के कमरे को देखने का अनुभव रहा होगा तो
आप जानते होंगे कि कितनी किताबें, पत्र- पत्रिकाएं और भी ढेर सारी सामग्री रहा
करती है लेखकों के कमरों में... कोई जरा-सा कागद या पुर्जा भी बेहद जरूरी होता है।
किसी कविता की कोई पंक्ति या फिर कहानी की शुरुआत की कुछ पंक्तियां ना जाने कहां
कहां लिखी हुई मिल जाती है। हमारे भीतर बहुत सारे नदी-नाले और खिड़कियां-दरवाजे
आदी-आदी हुआ करते हैं, जहां से हम जब चाहे-अनचाहे निकलते हैं, और बस खो जाते हैं।
एक समय में एक जीवन
के साथ, समांनतर हम अनेक जीवन जिया करते हैं। करने को तो मैं अब भी अपने कमरे को
ठीक-ठाक करने का नाटक कर रहा हूं, किंतु खो गया हूं उस कहानी में। मैंने उससे कहा
था कि घर पहुंच कर मिस कॉल जरूर करना, और उसका उस रात मिस कॉल आया भी था। वह अच्छे
से अपने घर पहुंच गई और फिर कभी नहीं मिली। जरा-सी कोई बात जीवन में खलबली मचा
सकती है। एक कोड वर्ड हो सकता है- मिस कॉल वाली। अतीत की यह छोटी-सी कहानी वर्तमान
में अनेक कहानियों को जन्म दे सकती है। पत्नी, बेटे-बेटियां और मेरे मित्र, सब के
सब अपनी अपनी नजर से इसका पोस्टमार्टम करेंगे।
सच में ऐसी कहानियां
जग-जाहिर नहीं करते। बहुत-सी कहानियां पुरानी होकर भी पुरानी नहीं होती, जैसे- यह
प्रेम-कहानी। आप उत्सुक हैं जानने को कि आगे मैं क्या लिखने वाला हूं। हम दोनों
किसी एक कार्यशाला के सिलसिले अपने अपने शहरों से रवाना होकर किसी एक शहर में मिले
थे। वह देखने में सुंदर और दूसरों से अलग-सी दिखती थी। मेरा उसके प्रति आकर्षण का
कारण उसकी सुंदरता या विपरित लिंगी होना नहीं था। हम दोनों के अलग-अलग समूह थे।
चाय के वक्त जब मैंने पहली बार उसको देखा और उसकी तरफ देखता रहा, तो इसका कारण
उसके हाथ में हिंदी की प्रसिद्ध कथा-पत्रिका का होना था। उसका साहित्य-प्रेम जाहिर
हो रहा था। मैं हैरान था कि इस उजाड़ में और हिंदी साहित्य के आधुनिक काल के आरंभिक
दौर को जानने-पहचानने वाले मास्टरों और मास्टरनियों में इक्कीसवी शताब्दी की
आधुनिक साहिबा कौन है? मेरा अनुमान ठीक निकला वह कहानी लेखिका थी और उसकी कहानी उस
पत्रिका में प्रकाशित हुई थी।
अपनी और उसकी कहानी
मैं आगे बढ़ाता हूं, किंतु बीच में जो मैंने एक आकलन प्रस्तुत कर दिया है उसके भी
स्पष्ट करता चलू। जिससे आपको लगे कि मैं सही हूं। मेरा कोई पूर्वाग्रह नहीं है। वहां
मौजूद जमात से यदि सवाल किया जाए कि हिंदी कहानीकार कौन-कौन? तो जबाब होगा-
प्रेमचंद। और उनके लिए प्रेमचंद के आगे-पीछे भी प्रेमचंद। जिनकी दुनिया सूर, कबीर,
तुलसी से आरंभ होकर पंत, प्रसाद, निराला और महादेवी तक पूरी हो जाती हो, वह भला उस
कथा-पत्रिका को क्या जानेंगे। उस पत्रिका के बारे में उससे कुछ मित्रों ने पूछा और
उन्हें अफसोस हुआ- अरे यह पत्रिका तो प्रेमचंदजी निकाला करते थे, क्या फिर से
निकालने लगे? मैं बिना किसी नाटकीय मुद्रा और व्यंग्य के यह सत्य वचन लिख रहा हूं
कि हिंदी साहित्य को पढ़ाने वाले समकालीन साहित्य से पर्याप्त सरोकार नहीं रखते।
मैं जानता हूं कि आपको भी इस कहानी की नायिका से सरोकार है, कि कैसे-क्या हुआ?
आपको यह जानना अच्छा
लगेगा कि मैं जानता हूं कि आपको पता है- आंखें सेकना क्या होता है। यह दोनों तरफ
से होता है। चाय के वक्त एक दृश्य बहुत करीब मेरी आंखों के सामने घटित हो रहा था,
जिसमें भाई लोग उस कथा-पत्रिका को ले लेकर उलट-पलट कर अपना ज्ञान आलाप कर रहे थे।
मैंने एक काम करने की हिम्मत जुटा ली। अपने थेले में से एक पत्रिका निकाली और उस
रुपसी को यह कहते हुए दे दी कि मेरी कहानी छपी है। इस उजड़े चमन में यह चुपके-चुपके
कोई फिज़ा थी। आश्चर्य कि वहां हिंदी कहानी में अकहानी का दौर कब तक चलेगा... जैसी
आवश्यक बहस गर्म थी, और एक साहब तो कह रहे थे कि हिंदी कहानी में प्रेमचंदजी के
बाद कोई ढंग का कहानीकार पैदा ही नहीं हुआ। ठीक उस समय हम एक-दूसरे को देख रहे थे!
आज इतने लंबे अंतराल के बाद भी मैं उसी जगह जा कर खड़ा हो गया हूं- उसे देखते हुए।
थोड़ी देर बाद ही वह मधुर मुस्कान के साथ पत्रिका मुझे लौटाते हुए आंखों ही आंखों
में कुछ कहती है। मैं उसका कहना सुनता हूं। अब वह मित्र-मंडली से संबोधित है-
प्रेमचंद के बाद... वाह री अकहानी.... उसकी हंसी भीतर गूंज रही है। इस कहानी का
यहां कोई सूत्र कस कर हमे एक दूसरे से अब भी जैसे बांधे हुए है।
क्या मैं अब भी उसकी
स्मृति में कहीं हूं या यह कोरी मेरी ही स्मृति है जो उसे अब तक बांधे है। आपको यह
जादू जैसा नहीं लगता। हम जिसे बांधे बैठे हैं और उसको इसकी खबर नहीं! संबंधों में
ऐसा कुछ बीज जैसा होता है कि वह सपना बुनता है। क्या उसकी स्मृति कोई सपना है, जो
जड़े फैलाए मेरे भीतर अब भी जिंदा है। आज वह भले ही मुझे भूल गई हो, किंतु जब किसी सूत्र
से उसकी स्मृति विगत के उस बिंदु पर पहुंचेगी तब मैं उसके भीतर किसी दृश्य में उपस्थित
हो जाऊंगा। मेरी उस उपस्थिति का मुझे भला कैसे अहसास होगा। मुझे इसकी कोई खबर नहीं
होगी। बेखबर हमारा ऐसा होना, असल में होना नहीं चाहिए। हम शादी-सुदा ऐसे आकर्षण
में अनचाहे बंध गए। हमारी इस कहानी के लिए हमें प्रेम से मिलता-जुलता कोई शब्द
नहीं मिल सकता। अंतस में कोई दृश्य कहां से कहां पहुंच कर जुड़ जाता है! इस समय
भीतर जैसे गीत बज रहा है- प्यार को प्यार रहने दो.... कोई नाम ना दो.... । इस अनाम
कहानी का कोई नाम नहीं, फिर भी एक नाम है। घर-परिवार की आत्मीय बातों,
किस्सों-कहानियों में जो संबंध का सिरा बना और विकसित हुआ, वह हमारी आखिरी मुलाकात
में कहीं पीछे छूट गया। नहीं ऐसा नहीं हुआ, उसका कोई अंश अब भी भीतर बच है। जो कि अब
भी लहरा रहा है। उसका लहराना या रोकना मेरे बस में नहीं।
मैंने एक बार सोचा
भी था कि हमारी उस मुलाकात पर एक कहानी लिख कर प्रकाशनार्थ भिजवा दूं। किंतु नहीं
लिख सका। सोचता हूं कि हमारा मन क्या किसी कागद की तरह होता है कि उस पर कभी कोई पेपरवेट
रख दे, और वह हवा में फड़फड़ाता रहे। ऐसा प्रम जो कभी आकार लेता संभव होता दिखता है,
उसे दिखाया कैसे जाए? और क्यों दिखाया जाए? दिखने से दूर सदा छुपा कर रखने वाला प्रेम
हमे जिंदा रखता है। भले ऐसे प्रेम पर किसी को यकीन हो या नहीं, किसी के यकीन की
आवश्यकता भी नहीं। यह है तो बस है। इस प्रेम को अपना नाम नहीं दिया जा सकता, इसलिए
उस पृष्ठ पर मैंने उस दिन लिखा था- प्रेम से मिलता जुलता कोई शब्द ... फूल का वह अधूरा-सा
चित्र बनाया था, जो अब भी कभी-कभार महक उठता है। बस मेरे लिए, जैसे आज अभी-अभी
सजीव हो गया हो।
कथारंग पर पाठक पीठ कार्यक्रम में कवि-संपादक हरीश बी. शर्मा के साथ
09-08-2015 जन्मदिन की बधाई देने के बाद का एक चित्र
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