“मौन से बतकही” (2014) राजेंद्र जोशी का दूसरा कविता संग्रह है। “सब के साथ मिल जाएगा” (2011)
कविता-संग्रह से अपनी काव्य-यात्रा आरंभ करने वाले जोशी के इन दोनों
संग्रहों के बीच तीन वर्ष अंतराल का है, इसे लंबा अंतराल नहीं कहा जा सकता। “मौन
से बतकही” में आमुख लेखक की पहली पंक्ति पर ध्यान चाहूंगा- “जाने-माने सामाजिक
कार्यकर्त्ता और साक्षरताकर्मी श्री राजेंद्र जोशी लंबे अंतराल से कविताएं भी
लिखते रहे हैं।” क्या यहां व्यंजना यह है कि जोशी बहुत लंबे समय से कविताएं भी
लिखते रहे हैं, और उनका प्रकाशन नहीं हुआ है। संभवतः ऐसा नहीं है, यह एक संकेत है।
मुझे उल्लेखित पंक्ति का पद “भी” अनुचित जान पड़ता है। चूंकी यहां लंबे अंतराल पद
को सद्भावना पूर्वक व्यवस्थित नहीं किया गया है। यदि ऐसा होता तो आगे कि पंक्तियों
में कविताओं को लेकर गहरे संदेह प्रस्तुत नहीं किए जाते। इस पहली पंक्ति के आरंभिक
पद पर विचार करें तो स्पष्ट होगा कि किसी सामाजिक कार्यकर्त्ता और साक्षरताकर्मी
द्वारा कविता लिखी जानी चाहिए अथवा नहीं इस दुविधा पर भी यहां प्रश्न उठता है। साथ
ही यह प्रतिप्रश्न भी जाग्रत होता है कि कवि का रोजगार-कार्य भी कविता के
मूल्यांकन हेतु महत्त्वपूर्ण होता है? मेरा विश्वास है कि किसी रचना की परख का
आधार केवल उसका पाठ ही होना चाहिए। हिंदी साहित्य में कभी सामाजिक कार्यकर्त्ताओं
की अथवा साक्षरताकर्मियों की कविताओं की चर्चा होगी तब इन कविताओं को उस समूह में
विवेचित किया जाएगा, फिलहाल मेरा अनुरोध है कि श्री राजेंद्र जोशी को केवल और केवल
हिंदी के कवि के रूप में स्वीकारते हुए लिखित कविता-पाठ को प्रमुख समझा जाए।
आमुख लेखक का पूर्वाग्रह
तीसरी पंक्ति में व्यंजित हुआ है- “जाहिर है, जोशी के यहां अपने कवि-कर्म को
लेकर कोई बड़बोला दावा अथवा कोई दुर्विनित आग्रह नहीं है।“ ऐसा दावा जाहिर
करवाने का यह मार्ग यहां ऐसे सुलभ हो जाता है, जिसकी कोई आवश्यकता नहीं। ऐसा
उद्देश्य होने अथवा न होने से, कविता का पाठ कहीं प्रभावित नहीं होता? पाठक के लिए
यह एक भटकाव अवश्य होता है। यहां मेरा प्रतिप्रश्न है कि ऐसा दावा अथवा आग्रह किस
युग की परंपरा रही है, अथवा ऐसा व्यक्तिगत स्वभाव भी भला किस कवि का देखा और
पहचाना गया है। कवि-विवेक की पहली अनिवार्य शर्त है कि हर दावे और प्रत्येक आग्रह
को खारिज कर दिया जाए। यह किसी रचना के पाठ को पूर्वग्रह पूर्वक अस्वीकार करना है।
संभवतः इसी का प्रमाण है कि श्री राजेंद्र जोशी की कविताएं आमुख लेखक को छद्म-कविताएं
प्रतीत होती है। कविता की परख में उसके भेस को देखना केवल उसका बाहरी रूप देखना
है।
आमुख की चौथी पंक्ति उल्लेख
करना चहूंगा- “उनके (यानी श्री राजेंद्र जोशी के) संवेदनशील मन की प्रतीतियां
अपना रूपाकार खोजती हुई कागज पर उतरती हैं तो स्वाभाविक सी कुछ लय-संरचनाएं भाषा
में निबद्ध होकर कविता का भेस धारण कर लेती है।“ अर्थात ये कविताएं केवल भेस
में दिखाई देती है और है नहीं। क्या भेस धारण करना बुरा है? यदि स्वाभाविक सी कुछ
लय-संरचनाएं भाषा में निबद्ध होकर कविता का भेस धारण कर लेती है, तो क्या केवल भेस
पर ही ठहर जाना है। भेस होने के उपरांत भी अगर कोई काव्य-भाषा के मर्म तक नहीं
पहुंचे तो भेस अनावश्यक है। कविता केवल भेस घारण करने से संभव नहीं होती। प्रश्न
यह भी है कि क्या कविता का उसके भेस में बने रहने से होना संभव होता है, अथवा भेस
में पहचाना जाना प्रतिकूलता के सांचे की तरह है कि लौट चलिए यहां वास्तविक कविता
नहीं मिलेगी।
वास्तविक और अवास्तविक कविता
क्या होती है? भेस कहते ही असली और नकली जैसे पद साथ चले आते है। सीधे प्रश्न पर
आते हैं कि कविता कैसे बनती हैं? वह कौनसी आंख होती हैं कि कुछ पंक्तियों को कविता
के रूप में स्वीकारा जाता है और कुछ को अस्वीकारा जाता है। कवि द्वारा रचे जाने के
उपरांत पारखी नजर भेस को पहचान लेती हैं, या फिर यह भेस स्वतः सर्वसुलभ गोचर होता
है। मित्रो ! कविता का होना अथबा नहीं होना उसके भेस पर निर्भर नहीं है। जब कोई
कवि अपने मन की प्रतीतियों को भाषा में प्रस्फुटित करता है, तो कविता की तमाम
शर्ते वह जानता है। किसी अनुभव का काव्य में रूपांतरण भाषा संभव करती है। कविता की
समझ और भाषा की शक्ति जिनके द्वारा पोषित होती है, उनमें काव्यानुवाद प्रमुख है। यहां
उल्लेखनीय है कि राजेंद्र जोशी समर्थ अनुवादक हैं। राजस्थानी और हिंदी भाषा में आपका
सुदीर्घ विधिवत अध्ययन, मनन और चिंतन रहा है। इसी जुड़ाव के चलते आपने राजस्थानी से
हिंदी में सराहनीय काव्यानुवाद किया जो साहित्य अकादेमी नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित
हुआ है।
फेस-बुक के मित्र परिचित हैं
कि स्वाभाविक सी कुछ लय-संरचनाएं भाषा में निबद्ध करते हुए राजेंद्र जोशी प्रतिदिन
कुछ पंक्तियां कविता के भेस में प्रस्तुत करते हैं। क्या यह काव्य-कौशल को विकसित
करने का उनका प्रतिदिन का रियाज है। कविता में अभ्यास की आवश्यकता अपने पक्ष को और
उन्नत करने का उपक्रम मानी जा सकती है। कुछ ऊंची उडानें भरने की आपकी प्रगाढ़ अभिलाषा
है। किसी शब्द का पद के रूप में किसी पंक्ति में आना, और उस पंक्ति में उस पद के
द्वारा कविता संभव करना, असल में कवि-हृदय ही संभव करता है। बोलचाल की भाषा से
साहित्य का प्रगाढ संबंध रहता है। साहित्यिक भाषा बोलना अथवा सामान्य भाषा बोलना,
सभी रूप भाषा के ही उपांग और विविध घटक कहे जाते हैं। जो कुछ भी सामान्य-सा घटित घटना-क्रम
है वह भी साहित्य की किसी विधा का कोई अंश अथवा अवयव हो सकता है। हो सकता से भी आगे
बढ़कर लिखा जाना चाहिए कि ऐसा होता है। कविता को जीवन से विलगित नहीं किया जा सकता।
कुछ प्रसंग रचे जाते हैं, कुछ छूट जाते हैं। जो कुछ रचा जाता है अथवा छूट जाता
है... वह पूर्वाग्रहों के चलते धुंधलके में चला जाता है। रचना के पाठ में उतरने से
पहले उसके विषय में कहे गए पूर्व-कथनों को अलग कर दिया जाना चाहिए।
इसे कोई साहित्यिक प्रवचन
नहीं माने, मैं कविता संग्रह “मौन से बतकही” के बहाने कविता को लेकर अपनी कुछ बुनियादी
जिज्ञासाएं साझा कर रहा हूं। जीवन की व्यापकता पर ही कविता और साहित्य की हर विधा
आश्रित है। वह भाषा ही है जो अलग-अलग विधाओं के भेस सौंपती है। क्या यह रूपगत पहचान
विधा के लिए अवरोध है? आश्चर्य है कि रूपगत पहचान संदेह का कारण है। आमुख लेखक ने
संग्रह की कविताओं में स्वाभिवता को उनकी शक्ति और सीमा दोनों कहा है। आखिर
राजेंद्र जोशी की इन कविताओं में ऐसा क्या विरोधाभाष है कि अपनी भाषिक संरचना में
सरल और निष्कपट-सी लय संरचनाओं में सामाजिक सरोकारों से सराबोर कविताओं को एक साथ
दो विपरीत धुव्रों पर रखने का आग्रह है। क्या यह सिद्धांत है कि कोई नया कवि सदैव
विधा को और उन्नत करने और ऊंची उड़ाने भरने की आशीषों का आकांक्षी ही होता है? शक्ति
भी है और सीमा भी है, अर्थात कुछ कहने में कुछ नहीं कहना है। अथवा कहने के उपरांत
कहना स्थगित रखा जाना है।
मैं कुछ सीधे-सीधे
कहने-सुनने के बीहड़ जंगल में पहुंच सकूं, इसके लिए जरूरी है कि कवि राजेंद्र जोशी
और मेरी अंतरंगता भी यहां जाहिर करता हूं। आरंभ में यह अंतरंगता मुझे रोकती-टोकती
रही। कवि का या आयोजकों का कोई आग्रह नहीं था, मैं सीधे-सीधे यह तथ्य प्रस्तुत
करना चाहता हूं कि जिस सीमा और संभावाना के दो छोर के बीच किसी कवि को रखा जाता है
वह असमंजस की स्थिति है। स्थिति को ठीक-ठीक नहीं पहचान सकने की स्थिति है। यह कहना
बेहद खतरनाक है कि राजेंद्र जोशी की कविताएं स्वयं ऐसी चुनौती प्रस्तुत करती हैं
कि मैं अपने तमाम काव्य-विवेक जो जितना भी और जिस किसी मात्रा में है अथवा जिसके होने
के भ्रम का असहास भी है अगर, तो उस के रहते भी किसी निष्कर्ष तक पहुंचना कठिन है। यह
सीधे-सीधे कहने का साहस है कि मेरी अपेक्षाओं को राजेंद्र जोशी पूरित नहीं करते,
किंतु वर्तमान में जो ऊर्जा यहां प्रस्तुत हुई है वह बेहद आशा जगाती है।
संग्रह “मौन से बतकही” की
कविताओं पर चर्चा से पूर्व संग्रह की शीर्षक-कविता देखें- आओ बातें करें /
पेड़ों से / पत्तों के / मौन से / थोड़ा सहज होकर X X X
X कितने सीधे / अनुशासित /
अहिंसक / पूरी सृष्टि में / बिना अहंकार के / जन्म-मरण में साथ निभाते / प्राण
देते हमें / आओ इनके मौन से / बतियायें !
अनुभव का यह रूपांतरण जिसे
कविता के भेस में प्रस्तुत किया गया है के साथ विमर्श के अनेक मार्ग है। आलोचना का
गणित यह है कि दो अनुबंधों की यह कविता पांच और नौ पंक्तियों में व्यवस्थित है।
इसके पहले अनुबंध में कवि आदेशात्मक मुद्रा में अपने पाठक को जो विनम्रता पूर्वक
ही सही किंतु आदेशित कर रहा है, जो काव्यानुभव नहीं है। पंक्तियों पर फिर से ध्यान
दिलाना चाहता हूं- आओ बातें करें / पेड़ों से / पत्तों के / मौन से / थोड़ा सहज
होकर ... इसके उपरांत दूसरे अनुबंध में कवि का विमर्श पेड़ और पत्तों के विषय
में भौतिक ज्ञान है, जो अनुभव द्वारा पोषित है। किंतु कविता की अंतिम पंक्ति के
रूप में प्रयुक्त पद- बतियायें के पश्चात विस्मयादि बोधक चिह्न का रखा जाना क्या
है? क्या पूरी सृष्टि में पेड़ों के अतिरिक्त कोई सीधा, अनुशासित और अहिंसक नहीं
है? पेड़ का बिना अहंकार के जन्म-मरण में साथ निभाना और प्राण देना क्या है? कविता हमें
इन प्रश्नों तक ले जाती है। पेड़ों का प्राण देना और कवि का विमर्श कि इनके मौन से
बतियाया जाए। वह जो भाषा से हमें प्राप्त हो रहा है उससे हम कुछ ऐसे कर्म को
प्रेरित हो सकें। आओ इनके मौन से बतियायें में विस्मयादि बोधक असल में कविता और
कवि का पाठक को संबोधन भी कहा जा सकता है। यह भी हो सकता है कि अब तक हमारे इस मौन
को नहीं समझे जाने पर यह आश्चर्य हो। संभवतः यह उसी का संकेत हो। कविता जिस मौन की
तरफ संकेत कहती है, वह अव्यक्त है और व्यक्त होने को आतुरता से प्रतिक्षारत है। इस
मौन में समाहित भाषा को पहचाने का यह कवि का आह्वान ही कविता है। व्यापकता से पेड़
और पत्तों से दूर पूरे पर्यावरण के मौन को ग्रहण किया जा सकता है। फिराक़ साहब का
स्मरण करना चाहूंगा- तारे आंखें झपकावें हैं, ज़र्रा-ज़र्रा सोयो हैं। / तुम भी सुनो हो यारो शब में सन्नाटे कुछ बोलें हैं। फिराक
साहब ने जिस सन्नाटे को सुनने का आगाज किया, वह कवि की परंपरा है और उसी परंपरा
में सन्नाटे के छंद अज्ञेय जी की कविता उल्लेखनीय है, और उसी काव्य-भूमि पर राजेंद्र
जोशी का यह संवाद-आह्वान है।
एक अन्य महत्त्वपूर्ण कविता
है- “खोजना अपने होने को”, इसे संग्रह के अंतिम आवरण पृष्ठ पर भी रखा गया है।
देखें- “कब मिलेगी आजादी / थिरकन है तुम्हारे पांवों में / और ऊर्जा देह में /
शिथिल नहीं हो / संभलकर चलती हो / कहीं सच यह तो नहीं / कि तुम आजादी चाहती ही
नहीं / जकड़ी जा चुकी हो / मेरी बेड़ियों में / मुझे पता है / तुम बंधनों को /
अपनेपन में बदल चुकी हो / इसमें भी शायद / खोज लेती हो / अपने होने को।“
स्त्री विर्मश को नए संदर्भों
में प्रस्तुत करती यह कविता राजेंद्र जोशी के विशद और व्यापक अनवेष्ण का परिणाम
है। यहां प्रचलित विमर्श के समक्ष नवीन और एकाकी धारणा का प्रस्तुतिकरण सीधे संवाद
के रूप में हुआ है। पहले जिस अबोले पेड़ के मौन को चिह्नित किया गया था, उसी क्रम
में यहां स्त्री के मौन को सुनने-समझने की प्रबल आकांक्षा व्यंजित हुई है। यहां
विचार नहीं वरन अनुभव प्रमुख है। हमारे इस बीकानेर राजस्थान परिक्षेत्र में स्त्री
को अबोली भी कहा जाता है। वह बोलती नहीं, उसकी मुखरता धूंघट से बाहर नहीं आई। आज
के युग में जिसे स्त्री-विमर्श की संज्ञा से पहचाना जा रहा है, उसी के समक्ष यह
कविता अनेकाने प्रश्नों का अंबार प्रस्तुत करने की विकलता दर्शाती है। क्या ऐसे
सीधे और सटीक काव्य-विमर्श के बाद भी राजेंद्र जोशी को हम संभावनाओं और सीमाओं के
दो ध्रुवों के बीच गतिशील प्रस्तुत करना चाहेंगे अथवा यह कह सकते हैं कि यह कविता
संभावनों के नए क्षितिजों को खोलती ही नहीं, वरन हमें उन तक ले जाने का साहस भी
रखती है। जहां हम मौन को सुनने को सुलभ हो जाएं। यह सामाजिक यथार्थहमारे बेहद
नजदीक पहुंच कर मर्म को छूता है।
“मौन से बतकही” संग्रह के तीन
खंड़ों में 72
कविताएं हैं। इन तीनों खंडों की कविताओं के केंद्रीय स्वर की बात
करें तो यहां प्रेम और मानवीय संबंधों के इर्द-गिर्द स्त्री को नए नजरिये से
पहचानने अथवा कहें उसके यथार्थ को बुनने का हौसला नजर आता है। राजेंद्र जोशी की
कविताओं के संदर्भ में कवि प्रेमचंद गांधी ने लिखा है- “समाज और परिवार के बीच
दाम्पत्य और प्रेम को मजूबत रिश्तों के परिप्रेक्ष्य में काव्यानुभव में बदल देने
वाली ये कविताएं निरंतर अमानवीय होते जा रहे समय में मनुष्यता और मानवीय प्रेम का
एक वितान रचती हैं।“ मुझे कविताओं के एकाधिक पाठ में कहीं भीतर लगा कि कवि
श्री राजेंद्र जोशी के मानस में आदर्श कवि के रूप में कवि डॉ. नन्दकिशोर आचार्य की
कोई छवि है। कुछ विषय व निर्वाहन जिस शिल्प में प्रस्तुत किया गया है, उससे कहीं
भीतर अहसास होता है कि श्री जोशी के गुरु द्रोण आचार्य जी हैं। इससे आगे की बात
श्री राजेंद्र जोशी उनकी काव्य-यात्रा स्वतः उजागर करेगी। रेखांकित करने योग्य बात
यह भी है कि इन कविताओं में किसी कवि की अनुकृति नहीं, बस भाषा में कविता का भेस बनाने
का हुनर कहीं कहीं आयतित-सा जान पड़ता है।
संग्रह की कविताओं में विविध
विषयों की प्रस्तुतियों में कवि की कथात्मक से सजी अभिधायुक्त पंक्तियों में मार्मिकता
और सच्चाई के साथ जहां जीवनानुभव भी तो कहीं-कहीं अनगढ़ माटी-सा रूपाकार लिए कुछ पंक्तियां
ऐसी आकृतियां भी गढ़ती हैं, जिन्हें हम किसी बंधे-बंधाए रूप के करीब तो पाते हैं पर
आकृति कुछ स्पष्ट नहीं हो पाती। यह मूर्त और अमूर्त के बीच का किसी पुल जैसा है,
जहां कोई दृश्य किसी स्मृति के दरवाजे को खोल कर उसके बेहद करीब होने का अहसास दे
जाता है। यह भाषा में लुका-छिपी का खेल नहीं है। मैं साफ-साफ देख सकता हूं कि कविताओं
की पंक्तियों में कही-कही कुछ शब्दों का क्रम जिस सहजता के चलते प्रस्तुत हुआ है,
उसमें कुछ परिवर्तन की संभवाना है। यह संभावना इस लिए भी है कि कविताओं में कहीं-कहीं
कुछ शब्दों और पदों से कवि का मोह है, जो बार-बार कविताओं में प्रयुक्त होता है।
ऐसे मोहवश कहीं-कहीं तो कुछ पदों की उपस्थिति कविता के पाठ और अर्थ-विस्तार को
बाधित करती है।
उदाहरण के लिए हम संग्रह की
पहली ही कविता “विरासत” को लेते हैं। यह स्त्री को संबोधित कविता है, जो
स्त्री-गाथा प्रस्तुत करने का साहस करती है। साहस इस अर्थ में कि स्त्री पर अब तक
बहुत लिखा जा चुका है और साहसी कवि रचनाकार फिर फिर नए रंग-रूप में फिर लिखेंगे।
राजेंद्र जोशी की कविता में स्त्री को सूर्य, चंद्रमा और आकाश की विरासत बताया गया
है। जिसे अपराधी दुनिया मिटा नहीं सकती। स्त्री धर्म, कर्म, मंदिर, ध्वजा तो है ही,
साथ ही नदी, तालाब, पृथ्वी और आकाश भी है, जिसे अग्नि भी जला नहीं सकती। यहां
बिम्बों और विचारों की ऐसी भरमार जिसमें स्त्री आकाश होकर भी आकाश की विरासत के
रूप में प्रस्तुत की गई है। ऐसा लगता है कि कवि स्त्री को सभी कुछ कहते हुए, जैसे
सब कुछ पूरा उडेल देना चाहते हैं। ऐसी ज्ञान से परिपूर्ण कविताओं में संवेदनाओं की
कमी और व्यक्तिगत आग्रह-विमर्श अधिक नजर आते हैं।
मुझे इन कविताओं में भाषा और
शिल्प की विविधता के रहते उनका केंद्रीय स्वरूप प्रेम और मानवीय संबंधों के
इर्द-गिर्द ही नजर आता है। कवि जोशी अपनी भाषा में बेहद सरल और सीधे जान पड़ते हैं,
तो कहीं ऐसे भटकाव और उलझने भी हैं कि संदेह होता है कि पीछे कोई अनुगूंच अचेतन
में उन्हें खींच रही है। अंत में मेरा यह आग्रह है कि कवि राजेंद्र जोशी अपनी
कविता को लेकर दावा मजबूत करेंगे और इस साहस को हासिल करेंगे कि मैं कवि हूं..... ।
मेरी सुभेच्छा कि हमारे जाने-माने सामाजिक कार्यकर्त्ता और साक्षरताकर्मी श्री
राजेंद्र जोशी अपनी रचनात्मकता के बल पर विगत छवि से मुक्त होकर जाने-माने कवि
राजेंद्र जोशी कहें जाए।
- नीरज दइया
(दिनांक 05-07-2015 को पाठक-पीठ कार्यक्रम में पठित आलेख)
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