लघुकथाएं / नीरज दइया
मैं जैसे ही हैडमास्टर साहब के कमरे से बाहर निकला मेरी आंखों के सामने एक नया चेहरा आया। धोती-कुर्ता और मुरकियां पहने वह गबरू जवान मुस्करा रहा था। सभी से आज जान-पहचान और परिचय का दिन था। मैंने मेरा हाथ उससे मिलाने के लिए आगे किया- ‘मैं मास्टर मगनीराम। आज ही मैंने यहां जोइन किया है।’
वह गबरू दो कदम पीछे हटा और मेरे सामने हाथ जोड़े। वह कुछ कहता इससे पहले ही एक अन्य अध्यापक जो मेरे पीछे खड़ा था, उसने कहा- ‘यह अपने यहां फोर्थ क्लास है, तोलाराम।’
मेरा मन जैसे गहरी कंदरारों में जा घसा। चारों तरफ आंखें दौड़ा कर जायजा लिया कि उस दृश्य को किस-किस ने देखा। क्या वह मेरी मूर्खता थी जिसका एक मात्र चश्मदीद गवाह मैं ही था। मेरे भीतर का पढ़ा-लिखा अध्यापक मुझ से कह रहा था- ‘तू कितना पागल है, जो आदमी की सही पहचान भी नहीं कर सकता। बिना जाने-पहचाने हर किसी के सामने हाथ आगे करने की जरूरत क्या है?’ मुझे पता ही नहीं चला कि मैंने कब तोलाराम से कहा- ‘अब यहां घोड़े की तरह खड़ा-खड़ा क्या कर रहा है? जा कर पानी का लोटा भर ला।’
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नौकर / डॉ. नीरज दइया
- ‘अरे सुन रहा है क्या, पानी का लोटा ले कर आना।’ रामलाल ने अपनी पत्नी से कहा तो उसने सोए सोए ही प्रत्युत्तर दिया- ‘आज तो छत पर पानी लाना ही भूल गई।’ फिर उसने अपने बड़े लड़के से कहा- ‘अरे टीकूराम, नीचे जाकर पानी भर कर लेकर आ तो।’
टीकूराम ने अपने छोटे भाई की तरफ इसी काम को पटलते हुए कहा- ‘खेमू! पिताजी के लिए नीचे जाकर पानी तो ले आ।’ खेमू भी कौनसा कम था हाथोंहाथ जवाब दिया- ‘मुझे तो डर लगता है, यह काम तो मुकनी बहन करेगी।’
और बहन भी इसी परंपरा को आगे बढ़ाने वाली थी, बोली- ‘मुझे तो नींद आ चुकी है, भाई ने तुझे कहा था तो तुझे ही पानी भरकर लाना होगा।’
यह संवाद सुनते हुए रामलाल को क्रोध अया। वह एकदम उठा और सीढ़ियां उतरते हुए बड़बड़ाने लगा- ‘यह घर कभी तरक्की नहीं कर सकता है। सबके हाड हराम हो गए हैं। सबको बैठै-बिठाए खाने-पीने को सब चाहिए... राम जाने इस घर का आगे क्या होगा...।
इतने में पिता रामलाल के कानों में उसके बड़े पुत्र का स्वर पहुंचा- ‘पिताजी, मां कह रही है आप जब उठ ही गए हैं तो आते हुए मग भर कर ले आना।’
रामलाल ने पानी पीकर मग भर लिया। प्रथम सीढ़ी चढ़ कर वह फिर नीचे उतर गया और गाली निकालते हुए मग को जमीन पर उडेल दिया- ‘मैं इनके बाप का नौकर थोड़ी लगा हुआ हूं... हरामजादे।’
- ‘ठहरो बेताल! जाते कहां हो? मेरा उत्तर तो सुन लो। वह तोता जान चुका था कि आजादी में लाखों तकलीफें हैं। पिंजरे में उसे सब कुछ मुफ्त में मिल रहा था। समय पर चुग्गा, पानी... जब जीवन की मूलभूत चीजों समय पर मिल जाए तो भला...
यह सुन बेताल उड़ा और फिर से पेड़ पर जा कर औंधा लटक गया।
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शहर में एक मकान / डॉ. नीरज दइया
एक आदमी को जिन्न बोलत में मिल गया। उसने जिन्न को बोलत से बाहर निकाला। जिन्न उसका गुलाम हो गया। वह आदमी गांव में रहता था। जिन्न उसकी हर इच्छा पूरी कर देता।
एक दिन उस आदमी की इच्छा शहर चल कर रहने की हुई। बस उसके तो सोचने भर की देर थी कि जिन्न को बुला लिया। जिन्न ने कहा- ‘हुकम आका!’
- ‘जिन्न मुझे शहर में एक मकान चाहिए रहने के लिए।
जिन्न अपने मालिक के कदमों में गिर कर रोने लगा। वह बोला- ‘मैं माफी चाहता हूं। यह काम मैं नहीं कर सकता हूं।’
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मेरा एक दोस्त है। आप उसका नाम जानना चाहेंगे पर नाम में क्या रखा है। आप यूं समझे कि कोई मिस्टर एक्स है जो मेरे दोस्त हैं। मिस्टर एक्स की धर्म में रुचि बढ़ी और उन्होंने बाजार से रामायण खरीद ली। अब वह दिन-रात जब समय मिलता ‘रामायण’ पढ़ने की लगन में ना दिन देखता ना रात। उसकी यह बात सभी को पता चल गई। होली पर उसका टाइटल निकला- ‘रामायण चाटने वाला मिस्टर एक्स उर्फ रामचंद्रजी।’
सबने उसकी भक्ति भावना को देखते हुए सोचा रामयण से उसका अगला-पिछला जन्म सुधर जाएगा। वह बहुत भला आदमी बन गया।
यह कथा का पूर्वाद्ध था किंतु आगे हुआ यह कि उसके कार्यों को देखकर लगगे लगा कि उसे रामयण में राम का नहीं रावण का करेक्टर अधिक भा गया। आप पूछेंगे- ऐसा क्या हुआ? क्या कोई विशेष बात हुई? क्या बदलाव आया उसमें?
... तो जनाब, क्या आपको पता नहीं है मिस्टर एक्स आजकल नेता बन गए हैं और चुनाव नजदीक है।
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रमेश को मैं कथा-गुरु कह सकता हूं। उसकी अनेक कहानियां पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी है। मेरी तो एक भी कहानी अभी तक प्रकाशित नहीं हुई है। मेरी लिखी कहानी जब भी मैं रमेश को दिखाता, वह कहता- ‘दोस्त, तुम बेकार कागज खराब करते हो। यदि कुछ लिखना ही है तो ऐसा लिख जो छपने लायक हो। भाषा साधारण होनी चाहिए। कहानी को कथ्य में उलझने मत दे। मुझे देख घड़ाघड़ छप रहा हूं। मेरा नाम देखते ही संपादक छाप देता है। और अपने उपसंपादक को कहता होगा- यह रमेश जी की कहानी आ गई है, इसी अंक में लगा दो। जगह नहीं है तो कोई कहानी निकाल दो, उसे अगले अंक के लिए विचारार्थ छोड़ सकते हैं। और एक तुम हो जो अभी अकटे हुए हो....।
कुछ दिनों के बाद संयोग यह बना कि मैंने मेरी कहानी रमेश को बिना दिखाए एक प्रतिष्ठित कहानी प्रतियोगिता में भेज दी। चमत्कार यह कि मैं प्रथम घोषित हुआ और बाद में जब रमेश से यह खुशी साझा करने गया तो पता चला उसने भी कहानी भेजी थी। मैं विचार कर रहा था कि पुरस्कार तो रमेश को मिलना चाहिए था मुझे कैसे मिल गया।
रमेश का स्वर बदलता गया। वह कह रहा था- ‘कहानी का असली गुण उसकी पठनीयता है। तुम्हारी भाषा में गति है और कथ्य एकदम सरल सहज कि पठनीयता देखते ही बनती है।
मैंने मेरे कथा-गुरु को गौर से देखा। पुरस्कार से पहले और बाद की प्रतिक्रियाओं की तुलना करते हुए मेरे चेहरे पर मुस्कान खिल उठी।
मेरे दो दोस्त घर आए। मैंने बड़े लड़के को बाजार भेजा- कुछ नाश्ता ले आएगा। वह मिठाई और नमकीन लेकर आया। चाय-नाश्ता मेरे दोस्तों ने किया। हमारी बातचीत हुई और वे थोड़ी देर बाद चले गए। उनके जाने के बाद मेरा छोटा लकड़ा कमरे में आया।
- ‘पापा! ये आपके दोस्तों ने इतनी मिठाई छोड़ क्यों दी है?’ लड़के की नजरों के सामने दो प्लेटें थी।
- ‘राजा बेटा! देख मेरे समने देख, जब हम बड़े लोग नाश्ता करते हैं तो पूरी प्लेट में रखी चीजे चट नहीं करते। यह ऐटीकेट होता है। खाने और नाश्ते मे कुछ कुछ छोड़ना हमारा नियम है। तुम तो अभी छोटे हो और प्लेट खा कर पूरी सफाई कर देते हो, पर बेटा बड़े ऐसा नहीं करते हैं। जब तुम बड़े हो जाओगे तो इसे समझ जाओगे।’ मैंने देखा- लड़का प्लेट में बची हुई आधी अधूरी मिठाई और नमकीन पर हाथ साफ करने में व्यस्त था।
मैं बोलते-बोलते अब मौन हो गया तो उसका ध्यान मुझ पर गया। वह मुझे भोली सी सूरत लिए मुझे कुछ अधिक ही गौर से देखने लगा। जैसे छोटे और बड़े का अर्थ समझने की जद्दोजहद कर रहा हो।
लड्डू / डॉ. नीरज दइया
आखिर इंतजार करते-करते वह बस आ गई जिससे मुझे यात्रा करनी थी। इसे संयोग कहेंगे कि बस भरी हुई थी। बस में चढते ही मैं सीट का जुगाड़ करने की फिराक में था, पर हर सीट पर किसी न किसी का कब्जा था। काफी सवारियां बस में खड़ी थी। मैंने विचार किया पीछे कोई एक-आध सीट खाली मिल सकती है। रास्ते में खड़ी सवारियों में आगे-पीछे धक्कम-पेल करते बड़ी मुश्किल से पीछे तक पहुंचा। मेरा अंदाजा ठीक था, एक सीट खाली दिखाई दी। मैंने पहले आओ, पहले पाओ के हिसाब से सीट पर कब्जा करने का जरा सा प्रयास किया ही था कि पास की सीट पर काबिज नवयुवक ने सीट पर रखे रुमाल की तरफ संकेत करते हुए कहा- “रोकी हुई है, कोई आ रहा है।”मैंने झेंपते हुए कहा- “अच्छा जी” और पास खड़ा रह गया। सोचा- नाहक हैरान हुआ। आगे भी खड़े होने के लिए पर्याप्त जगह थी। मैंने देखा- उस सीट के लिए एक-दो अन्य यात्री भी आए, किंतु पास बैठा आदमी पक्का पहरेदार था किसी को पल भर भी बैठने नहीं दिया। वह कहता रहा- “रोकी हुई है, कोई आ रहा है।” इसी बीच एक सुंदर नैन-नक्स वाली लड़की को देखा जो मुस्कान बिखेरते हुए उसी आदमी से पूछ रही थी- “यह सीट खाली है क्या?” लड़की की मुस्कान से वह आदमी जैसे खिल उठा, उसकी आंखों में चमक आ गई थी। मुस्कुराते हुए वह कह रहा था- “हां-हां, आइए....। खाली है।” यह सुनते ही वह लड़की पीछे पलट कर ऊंचे स्वर में बोली- “ताऊजी! यहां आ जाएं। सीट मिल गई है।” वह आदमी मुंह बाए आगे खड़ी सवारियों में उसके ताऊजी को पहचानने की कोशिश करने लगा।
मुझे लगा उस आदमी के सपने बिखर कर चकना चूर हो गए हैं और वह मुंह बाए ऐसे दिखाई दे रहा था जैसे उसके मुंह में कोई लड्डू आते-आते रह गया हो। उस लड़की के ताऊजी को देखते हुए उस आदमी का मुंह ना जाने क्यों खुला रह गया था और मुझ से निगाहें मिलते ही उसने सकपकाकर मुंह बंद कर लिया। मैं अब कहां चूकने वाल था, मैंने मन ही मन कहा- “ क्यों, मिल गया लड्डू?”
००० कथारंग-3 लघुकथा विशेषांक में प्रकाशित
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