धरती कब तक घूमेगी / मूल : सांवर दइया / अनुवाद : डॉ. नीरज दइया
इस आकाश की तरफ देखा। फिर जमीन कुरेदने लगी। उसे लगा कि आकाश और धरती के बीच घना सूनापन फैला हुआ है। ठीक वैसा ही सूनापन जैसा कि उसके हृदय में भरा हुआ है। सब कुछ है और कुछ भी नहीं है। भरा पूरा हंसता-खेलता घर है। बेटे-बहुएं हैं। पोते-पोतियां हैं। नाती-नातिनें हैं। मिलने को दिन में दो बार समय पर खाने को भोजन भी है। पर फिर भी पता नहीं क्यों कुछ अजीब अजीब सा लगता रहता है। लगता है कि जैसे कहीं कोई कम जरूर है। पकड़ में भले ना आए। दो बार भरपेट भोजन करना और सोना ही तो सब कुछ नहीं होता है। रोटी के अतिरिक्त भी तो मनुष्य को कुछ चाहिए होता है। यह अतिरिक्त वाली इच्छाएं ही कृष्टकारक होती हैं। सीता अपना काला ओढ़ना देखकर फिर रुआंसी हो गई। वे जिंदा थे तब तक तो सब कुछ ठीक ही था। घर, घर जैसा ही लगा करता था। आंगन में खेलते-कूदते लड़ते-झगड़ते बच्चों का शोर-शराबा कितना सुहाबना लगा करता था। उस चिल्लम-पो में संगीत जैसा आनंद होता था। पर अब तो बेचारे बच्चे शोर-शराबा भी नहीं करते हैं। यदि कभी करते भी हैं तो उनकी मांएं चटाक करती तीन नंबर वाली डांट मारती है। पकड़ बाजू को घसीटते हुए कमरे में ले जाती हैं। फिर उनका वही रिकार्ड बजने लगता है। कितनी बार समझाया है कि यहां मत खेला करो। गाली गलोच सीखने के अलावा यहां दूसरा क्या है... किसी को बोलने तक की तमीज नहीं है... चाहे जैसे बोलते हैं फूहड गंवार।
सीता विचार करती है कि इस घर को क्या हो गया है। बच्चे यदि घर के आंगन में नहीं खेलेंगे तो क्या पड़ौस के आंगन में खेलेंगे? बच्चे तो परिवावालों के साथ ही खेलेंगे-कूदेंगे। पर नहीं! इनको तो घर के बच्चे आंखों देखे भी नहीं सुहाते हैं। खुद के बच्चे बहुत प्यारे दुलारे लगते हैं। उनको चौबीसों घंटों खिलाएंगे-हंसाएंगे। खुद खेलेंगे-कूदेंगे। फिर चुम्मा अलग से लेते हैं। पर छोटे या बड़े भाई के बच्चों को देखते ही इनको बदबू सी आने लगती है। जबान भले ही यह भेद ना खोले पर आंखों से तो सब कुछ साफ दिखाई देता ही है। खीर-पूरी खाते समय यदि कोई कुता गली का नाली से उठकर कभी आ जाए तो उस समय जो गुस्सा और घ्रणा और पता नहीं क्या क्या जो आता है बस वही सब कुछ इनके चेहरों पर पुता हुआ नजर आता है!
सीता अपने ही बारे में सोचने लगी। वह कौन है? कहने को तो इनकी मां ही है, पर मां और बेटों के बीच जो लगाव होता है, वह कहां है? कोई क्षण भर के लिए भी पास नहीं बैठता है। हालचाल कैसे हैं... तबियत कैसी है... मन लगता है या... किसी चीज की कोई आवश्यकता है क्या...। क्या पड़ी है इन सबकी इनको। यह क्यों पूछेंगे। दोनों समय खाने को देते हैं यह क्या कम बात है क्या? पर यह दोनों समय खाना खाना भी क्या हंसी-खुशी है? जबरदस्ती गले बंधा हुआ यह बस फर्ज है! नहीं तो इन तीनों में से ऐसा कमजोर गया गुजरा कौन है कि जो मुझे अपने पास नहीं रख सकता है... जो मेरा खर्च नहीं उठा सकता हो? चाहिए ही क्या है मुझे? रोटी ये खाते हैं और रोटी मैं खाती हूं! पांच-सात सदस्यों की रोटी जहां बनती है वहां एक मेरा तो गुजारा ऐसे ही हो जाए। चिकनी-चुपड़ी या काजू-बिदाम मिष्ठान्न मांगती हूं वैसी भी बात नहीं है। ये रुखी-सूखी जैसी खाते हैं तो क्या मैं कौनसी धी में लिथड़ी मांगती हूं? पर फिलहाल तो ये चुपड़ी हुई खाते हैं और मुझे लुक्खी सरकाते हैं तो भी मैं कुछ कह नहीं सकती हूं। एक शब्द निकालते ही जैसे ये तो जली-भुनी तैयार बैठी रहती हैं- हां, हां... हम भेदभाव करते हैं। हमारी तो ऐसे औकात नहीं है चिकनी-चुपड़ी हर दिन खिलाते रहे। हम गरीब आदमी हैं। बड़ी मुश्किल से गुजर बसर करते हैं। पर जो अपाको हमेशा छप्पन भोग खिला सके उसके पास चले जाएं। देखते हैं कि वे भी कितने दिन रोटियां डालते हैं। वे अमीर और भाग्यवान होंगे तो अपने घरों में होंगे। उनकी अमीरी हमारे किस काम आती है। हमारे तो हमारी भूख ही गुजारा कराएगी!
सीता याद करती है कि वह दिन कितना मनहूस था जब बड़े बेटे कैलाश ने सुबह सुबह ही चाय पीते समय नारायण और बिरजू को बुलाकर कहा था कि मां को रखने का ठेका केवल मेरा ही नहीं लिया हुआ है। तुम लोगों का भी तो कोई फर्ज होगा। तुमने कौनसा घर का हिस्सा नहीं लिया है? तुम क्या मां के बेटे नहीं हो?
उसकी बात सुनकर नारायण बोला- ‘आप कहें वैसे ही कर लेते हैं।’
‘मैं क्या कहूं? तुमको दिखाई नहीं देता है क्या?’ कैलाश के भीतर गुस्से के बवंडर उठ रहे थे।
बिरजू चुप रहा। वह हमेशा चुप ही रहता है। बस, केवल देखता रहता है कि कौन क्या करता-कहता है।
और सीता...? वह अर्धविछिप्त सी देख रही थी। देखो, अब क्या होता है? एक मां... तीन बेटे... दो समय की रोटी... तीन बेटे, एक मां... एक मां, तीन बेटे। ... मां ... रोटी... बेटे...। मां... बेटे... रोटी...! और फिर बहस में घूमते मां, बेटे और रोटी में से केवल रोटी ही महत्त्वपूर्ण बची। मां और बेटे कहीं अलग जा कर गिर गए- गुलेल में डाल कर फेंके जाने वाले पत्थर की तरह! रोटी का अकार और भार इतना बढ़ गया कि उसे संभाल लेना किसी एक के बस-बूते की बात नहीं रही है। फैसला हो गया- तीनों भाई बारी-बारी से मां को एक एक महीना रखेंगे।
सीता को कुछ कहने का अवसर ही नहीं मिला। तीनों में से किसी ने नहीं पूछा कि यह फैसला उसे मंजूर भी है या नहीं। उसकी अपनी इच्छा क्या है? उसने उसांस ली- खैर कोई बात नहीं! यदि वे आज होते और यह तमाशा देखते तो क्या कहते? उनसे इतना सहन हो पाता। वे तो आग बबूला होकर गालियां निकालने लग जाते। थप्पड़ या लात अलग से मारते! क्या समझ रखा है मुझे! मैं तुम्हारी मां दो रोटियों के भरोसे बैठी हूं क्या... ! अभी तो इतनी पहुंच है कि तुम जैसे बीस भिखारियों को रोटी डाल सकता हूं। एक लंबी उसांस! पर उनके रहते हुए तो कभी ऐसे बात उठी भी नहीं थी। उन्हें क्या खबर थी कि दो समय की रोटी के लिए ऐसा करेंगे!
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सीता को अच्छी तरह याद है कि वे श्रवण मास के दिन थे। तीन चार दिनों बाद होली थी। तब यही हुआ था कि होली के बाद मां बारी बारी से सब के पास रहेगी। होली के बाद नाहर सिंहजी वाले दिन खाना खाते समय उसे महसूस हुआ कि लापसी एकदम फीकी है। कौर गिटती तो लगता जैसे कौर गले में अटक रहा है। होली वाले दिन भी वह गुमसुम और उदास थी। होली पर लापसी ही बना करती थी, पर उस दिन कैलाश की बहू ने दाल का हलवा बनाया। दाल को सिकते हुए देखकर उसे लगा जैसे वह खुद सेकी जा रही है।
बच्चे उस से कहने लगे- दादी मां... दादी मां... बाई (मां) कह रही थी कि कल से आप नारायण काको सा के हिस्से में खाना खाएंगे। दादी मां क्या सच में आप वहीं खाना खाएंगे क्या? और शाम को जब वह खाना खाने बैठी तो कैलाश की पत्नी राधा कहने लगी- दाल का हलवा आपके लिए बनाया है। अच्छे से भरपेट खा लेना, ठीक!
वह सोचने लगी कि दाल का हलवा हो या फिर लूखी रोटी, थाली पर बैठने के बाद तो पेट का गड्डा तो भरना ही होता है। इच्छा हो तो दो कौर अधिक, नहीं तो चार कौर कम। उसने विचार किया- आज के बाद मुझे यहां से विदाई। कल से नारायण के हिस्से में खाना-पीना। फिर क्या यहां के पानी में भी सीर नहीं रहेगा क्या? बच्चों के पास आना जाना भी बंद हो जाएगा क्या? नहीं, नहीं... यह बात नहीं हो सकती है।
एक के बाद वह दूसरे और दूसरे के बाद तीसरे के हिस्से में वह लुढकने लगी। कैलाश के हिस्से से नारायण के हिस्से में और नारायण के हिस्से से बिरजू के हिस्से में! यह हिसाब बदलते ही बच्चे खुशी खुशी उसके पास आते और कहते- दादी जी, कल से आप हमारे हिस्से में खाना खाएंगे! हम साथ-साथ खाना खाएंगे- एक ही थाली में! ठीक है ना दादी सा?
वह रोने जैसी हालत में पहुंच जाती। इन नासमझ बच्चों को भी इस बात का विश्वास हो चला है कि वह बारी बारी से खाना खाएगी। एक महीने से ऊपर एक दिन भी नहीं रखता कोई। महीना पूरा होते ही जैसे टिकट कटाओ। अब दो महीने तक तो छुटकारा मिल गया, यही सोचते होंगे।
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बच्चे शाम होने पर सरावगियों के पाटे पर खेलते। वे जब कभी ‘माई माई रोटी दे’ वाला खेल खेलते तो उसे लगता जैसे यह कहानी आज भी सोलाह आने खरी है। बच्चों में से एक बच्चा भिखारी बन कर बारी-बारी से एक दूसरे के पास जाकर एक ही बात कहता- माई माई रोटी दे...। उसे उत्तर मिलता- यह घर छोड़, अगले घर जा!
वह सोचती- एकदम यही तो हालत है मेरी। मैं इस भिखारी-भिखारिन जैसी ही तो हूं। महीना होते ही बेटा कह देता है- माई, यह घर छोड़ कर अगले घर जा! और मैं रवाना हो जाती हूं। अगले घर तक। वहां महीना होते ही वही आदेश सुनाई देता है- यह घर छोड़ अगले घर जा!
यह घर छोड़ अगले घर जाते और वह घर छोड़ अगले घर जाते-जाते करीब पांच वर्ष बीत गए। ये पांच वर्ष सुख से बीते हो ऐसा कहां! इन पांच वर्षों में पच्चीसों बार फजीहत हुई है। बिरजू के हिस्से में थी तब नारायण की बहू भंवरी ने लड़के का जन्मदिन था तो कटोरी में डालकर रसमलाई भेज दी। रसमलाई का एक कौर ही मुंह में लिया था कि ऊपर से शोर सुनाई दिया। बिरजू की बहू पुष्पा बोल रही थी- अरे अमीरी दिखाने के लिए रसमलाई का टुकड़ा भेजा है क्या! तुम्हारे हिस्से में थे तब तो इनको लूखे रोटे खिलाए थे। आज महाराणी रसमलाई का नाटक दिखा रही है। देखे तुम्हारे चौंचले। मेरे हिस्से में हो तब यह तुम्हारा खेल-तमाशा अपने पास ही रखा करो। हमारी जैसी औकात होगी वैसा हम अपने आप ही खिला-पिला देंगे।
सीता को फिर स्मरण हुआ- उन दिनों वह नारायण के हिस्से में थी। राधा को बुखार आ गया था। कैलाश नौकरी के सिलसिले में कहीं बाहर गया हुआ था। उसने दो-तीन दिन तक उसके बच्चों के लिए खाना-पानी किया। थोड़े दिनों बाद बच्चों की लड़ाई को लेकर भंवरी और राधा के बीच लड़ाई हो गई। राधा ने कहा कि बच्चों की लड़ाई हुई तब सासू जी वहीं थे। उनसे पूछ ले भले। इतने में भंवरी ने जैसे जहर से भरा हुआ तीर मारा- ‘अरे जा जा! पूछ लिया तुमको और उनको, दोनों को। उन्हें क्या पूछना है? वे नौकरानी जैसे सारे काम करते रहते हैं तुम्हारे और खाना खाते हैं हमारे हिस्से में। अरे जब इतना काम कराती रही हो तो तो खाना भी तो खिलाना था।’
उसकी आंखें गीली हो गई। इनके बाक्-युद्ध का कोई अंत नहीं है। यह प्रतिदिन लड़ाई करती हैं। लड़ाई है इनकी खुद की और कांटों में घसीटती हैं मुझे। अब मरना तो मेरे बस की बात नहीं है। यदि बस में हो कल ही प्राण त्याग दूं। भगवान के घर से जितनी सांसें हिस्से में आई है वह तो लेनी ही होगी! यह सोचते-सोचते सीता की आंखें डबडबा रही थी।
सीता को महसूस होने लगा है कि आकाश अनंत नहीं है। वह सिकुड़ गया है। यह धरती लंबी चौड़ी नहीं है। यह सिकुड़ गई है। घर भी सिकुड़ गया है। यहां सिर छिपाने को भी जगह नहीं है। कहने को तो यह घर है। यह घर इस गली का अच्छा इज्जतदार खाता-पीता घर कहा जाता है। पर इस खाते-पीते इज्जतदार घर में खाने-पीने की ही लड़ाई है! एक पेट के लिए इतना कोहराम! ये लोग सुबह शाम को गाय-कुत्ते को भी रोटी देते हैं। फिर मेरी रोटी में ऐसा क्या है कि इनको हर दिन कुछ नया विचार करना पड़ता है।
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आज तो हद ही हो गई! कैलाश ने कहा- ‘यह बात अच्छी नहीं लगती है कि मां महीने दर महीने इधर-उधर लुढकती रहती है। मेरे विचार से यह ठीक रहेगा कि हम तीनों ही हर महीने मां को पचास-पचास रुपये दे दिया करें। मां को डेढ़ सौ रुपये पर्याप्त ही हैं। चाय तो हम पिलाते ही हैं। और फिर पिलाते रहेंगे। बाकी रही रोटी, जो अपनी खुद मर्जी से बनाएंगी-खाएंगी...।
नारायण ने कहा- ‘जैसी तुम्हरी इच्छा। मुझे मंजूर है। आज तो बिरजू भी चुप नहीं बैठा। वह बोला- ‘रोज इधर उधर लुढ़कने से तो यह ठीक ही है। अपनी एक जगह तो पड़ी रहेगी...।’
इतनी बातें होने के बाद उस कमरे में मौन के तीखे तेज कीलों का जैसे खेत ऊग आया। इधर-उधर जरा सा हिले कि कीले चुभे। सभी जैसे थे वैसे ही मौन बैठे रहे। थोड़ी देर बाद कीलों से बींधे हुए स्वर आरंभ हुए- ‘मां को पूछ लेते...। बिरजू की आवाज थी यह।
‘मां आजकल किसी बात के लिए मना नहीं करती है। उसके भले कुछ भी हो यहां। असली बात तो यह हमारे पसंद आने की है।’ कैलाश कहे जा रहा था- ‘आप सभी को बात ठीक लगी हो मां से बात करता हूं।’
जब सीता ने यह सुना तो वह कुछ नहीं बोली। बारी बारी से तीनों बेटों की तरफ देखने लगी। उसकी आंखों के आगे अंधेरा छाने लगा। डबडबाई हुई आंखों को पौंछते हुए उसने अपना भर्राया हुआ गला चुपचाप पी गई। रोने की आवाज होंठों के बाहर नहीं निकली। हृदय का एक एक हिस्सा रो रहा था। उसके भीतर आंसुओं का समंदर भर गया था।
सीता सोचने लगी कि यहां अगर रोटी खाती हूं तो कौनसी मुफ्त की खाती हूं। इनके बच्चों के कितने काम करती हूं। हाथ पैर चलते है जितने दो चार बर्तन भी मांज देती हूं। कौनसे हाथ घिसते हैं मेरे। पर ये क्या मुझे इस काम के लिए पचास पचास रुपये मजदूरी दे रहे हैं क्या? जब मुझे मजदूरी ही करनी है तो कहीं भी कर लूंगी। दुनिया में काम की कौनसी कमी है? और नहीं तो किसी के घर जूठे बर्तन साफ कर के रोटी खा लूंगी। सवाल तो बस रोटी का ही है।
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अगले दिन सीता अपने दो चार कपड़े लत्तों की गठरी बांध मुह अंधेरे ही घर से निकल गई। अभी उसकी आंखों के आगे ना तो अंधेरा था और ना ही धरती और आकाश के बीच सूनापन लगा।
आज आकाश अनंत था। धरती बहुत बड़ी थी। वह रास्ता बहुत चौड़ा था, जिस पर वह चल निकली थी। और सबसे बड़ी बात यह थी कि उसके चारों तरफ खुली हवा थी।
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(वर्ष 1980 में प्रकाशित राजस्थानी कहानी संग्रह ‘धरती कद तांई घूमैली’ से अनूदित)
सांवर दइया अन्य रचनाओं के लिए संपर्क : डॉ. नीरज दइया
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