उपन्यास री गांठड़ी अर खुलती-घुळती गांठां.... / डॉ. नीरज दइया
अै सगळी बात राखण रो मायनो ओ कै पारस अरोड़ा घणी ऊरमा वाळा लेखक हा, वां बरसां पैली ‘करमा काकी’ नांव सूं ई अेक उपन्यास लिखण री मनगत करी, पण प्रकासण री अबखयां रै रैवतां पार कोनी पड़ी। जीवण रै लारलै बरसां वै आपरै जीया-जूण अर घर-परिवार नै लेय’र अेक आत्मकथात्मक उपन्यास लिखण री बात दो-तीन बार म्हारै सूं करी। गुजरात अर राजस्थान री जमी सूं जुडिय़ो जिको उपन्यास पारसजी रै मगज में हो साम्हीं नीं आय सक्यो। ‘अपरंच’ (जुलाई-दिसम्बर; 2012) गद्य विशेषांक में जिको उपन्यास-अंस ‘जूझ’ नांव सूं साम्हीं आयो, वो हुय सकै उणी उपन्यास रो अंस हुवै। किणी लेखक री खरोखरी कूंत नीं हुवण रै लारै केई कारण हुवै, जिण में सगळा सूं मोटी बात पत्र-पत्रिकावां री कमी अर पोथी छपण री अबखी आड़ी गिण सकां। ‘बेतारीख डायरी रा पांना’ नांव सूं बां री डायरी बरसां पैली छपणी ही, पण नीं छपी। बां री जूनी डायरी सूं आपां जाण सकां कै लिखण-बांचण री जबरदस्त हूंस वाळा बै जीवट लेखक हा।
पारस अरोड़ा री ओळख ‘राजस्थानी-1’ रै कवि रूप आखी जूण रैयी, अर रैवैला। उपन्यास विधा री बात करतां ‘खुलती गांठां’ रो जिकर बरोबर चालतो रैयो, पण उपन्यासकार रूप बां री कूंत विगतवार कोनी करीजी। विगत आ है कै पारस अरोड़ा (1937-2015) बरस 1963 सूं लिखणो सरू कियो। जीवण रै छेहला दिनां तांई गद्य अर पद्य, दोनां में सास्ती लिखता रैया। बां रै गद्य लेखन पेटै पगत अेक पोथी ‘खुलती गांठां’ उपन्यास आपां साम्हीं है। इण उपन्यास नै राजस्थान क्लब, नई दिल्ली रो डालमिया पुरस्कार ई मिल्यो। बियां बां रै गद्य लेखन में आपां कहाणियां, आलोचना-परख सिरजण, संपादकीय, डायरी लेखन, अनुवाद आद ई गिण सकां। म्हारो मानणो है कै जे फगत अेक गद्य-पोथी ‘खुलती गांठां’ ई गिणां, तो ई सिमरध गद्यकारकार रूप पारस अरोड़ा री ओळख बरसां रैवैला।
राजस्थानी गद्य रै विगसाव में आजादी पछै लोककथावां री अेक बंधी बधाई भासा देख सकां। उण मांय कैवणगत कीं बेसी निजर आवै। पच्चीस-तीस बरसां पछै लोककथा रै उणियारै साम्हीं जिकी लोकभाषा आपरो आपो सांभती निगै आवै, उण में पारस अरोड़ा रै इण उपन्यास री भाषा नै खास तौर सूं गिणावणो पड़ैला। असल में आ भासा जीवतै जागतै लोक री जन-जीवन री भासा है। ‘खुलती गांठां’ री असल हेमाणी उण री भासा मानी जावैला, जिकी ओळी-ओळी पारस अरोड़ा जैड़ै लूंठै गद्यकार री खिमता नै बखाणै।
‘म्हैं आ नीं चावूं कै लोग थां दोनां रा नांव लेय’र कान-मूंडा नैड़ा करै।’ (खुलती गांठां, पेज-18)
‘सूरज री बात सुण’र रतन रै लीलाड़ माथै सळ पडग़ा। वौ कीं बोलै इणसूं पलीज स्यामा तड़की- ‘वाह, वाह! कांई बात है आजादी री! बिना सोच्यां-समझ्यां प्रेम-प्यार करै जित्ती आजाद जरूर व्हैगी, पर-पुरस रै साथै रास रमै जित्ती आजाद जरूर व्हैगी। पण अकेक सही बात सोचै जित्ती आजाद कोनी व्ही, क्यूं? अरे, मिरच खायां सूं मूंडौ बळैला, आ बात तौ हरेक समझ सकै।’ (खुलती गांठां, पेज-27)
सरस संवाद, रळियावणी भासा सूं ओ उपन्यास आज रै संदर्भां मांय ई प्रासंगिक कैयो जाय सकै। ‘खुलती गांठां’ नै आज ई बांचां तो कथा-बुणगट मांय चित्रात्मकता, रंजकता अर प्रवाह सूं प्रभावित हुया बिना कोनी रैय सकां। सैर आयां उपन्यास रो खास पात्र सूरज आपरै साथी तेजसिंह नै गांव कागद लिखै, वै कागद युवा हियै रो उमाव अर काळजै री कळझळ नै गैरै तांई दरसावै। कैय सकां कै जोधपुर रै रंग रंगी सजीव भासा गद्य री जमीन माथै पैल पोत ‘खुलती गांठां’ जैड़ै उपन्यास मांय साकार हुवै अर उण बगत बदळतै उपन्यास री आ अेक बानगी निजर आवै। इण रै मारफत आजादी पछै रो जोधपुर अर बदळाव री जमीन माथै ऊभी हुवती पूरी अेक युवा पीढ़ी आपरी मनगत अर नवो सोच-विचार लियां पळपळाट करती दीसै।
उपन्यास ‘खुलती गांठां’ बांचणो चालू करिया पछै- आगै कांई अर कियां हुयो, जैड़ा सवाल मन नै जक कोनी लेवण देवै। ओ उपन्यास जद किस्तवार तेजसिंह जोधा ‘जागती जोत’ में छाप्यो, तो बांचणिया उडीक करता कै आगै कांई हुवैला। धुन रै घणी अर कलम रै कारीगर जनकवि गणेशीलाल व्यास उस्ताद नै समर्पित इण उपन्यास ‘खुलती गांठां’ में कथा रा केई-केई रंग है, तो बातां भेळी केई-केई बातां उपन्यासकार भेळै राखै।
उपन्यास री बोवणी बरसां पैली श्रीलाल नथमल जोशी ‘आभै पटकी’ (1956) रै मारफत विधवा-ब्यांव री समस्या राख’र करी, उणी रो आगलो मुकाम ‘खुलती गांठा’ (1977) नै मान सकां। क्यूं कै इण उपन्यास में ई विधवा अर बलात्कार री पीडि़त तारा नै सूरज स्वीकार करै। असल में सूरज रो तारा नै स्वीकारणो नवै जुग री थरपणा कैय सकां। अजेस ई उपन्यास जातरा मांय देखां तो मूळ नै मोटी बात बदळाव अर अबला जीवण सूं जुड़ी साम्हीं आवै। ‘खुलती गांठा’ में सूरज रो तारा नै अपणावण रो फैसलो, फगत इणी उपन्यास रो नीं राजस्थानी उपन्यास रो मूळ सुर मान सकां। समाज मांय ऊंच-नीच अर जात-पांत बिचाळै बदळती मनगत रो जिको सुर बरसां पैली पारस अरोड़ा उगेर’र आधुनिकता नै जाणै थापित करै।
आज रै संदर्भ में बात करां तो इणी ढाळै री गांठां बिचाळै बदळती सामाजिक मनगत रो नवो दरसाव भरत ओळा ‘घुळगांठ’ (2009) में राखै। सामाजिक गांठां जद पारस अरोड़ा रै हवालै सूं बरसां पैली खुलगी तद ई म्हैं ‘घुळगांठ’ बाबत लिखतां लिख्यो- ‘गांठ कोनी गंठजोड़ो है घुळगांठ’। ओळा आज रै समाज में मानवीय-जातीय कुंठावां नै सांवठै रूप से राखता थका जाणै ओलै-छानै कैय देवै कै जड़ां दावै जैड़ी ही, पण इण भेळप अर भाईचारै रो आज साच साव न्यारो है। कांई इण ओळी रो ओ मानयो है कै पारस अरोड़ा री निजर जठै जड़ां कानी रैयी तो भरत ओळा रै हवालै पारस अरोड़ा पछै रै उपन्यास री निजर रूंख कानी रैयी?
किणी उपन्यास री सगळा सूं जरूरी बातां मांय अेक- बांच्यां पछै आपां नै कांई-कांई खास चेतै रैवै। ‘खुलती गांठां’ रै रचाव मांय चरित्रां नै साम्हीं लावतीं बगत पारस अरोड़ा रेखाचित्र विधा रो प्रयोग करियो। चरित्र री ओळखावण करावण पेटै जिका उणियारा उपन्यासकार सिरज्या बै भासा रै पाण बांचणियां री आंख्यां साम्हीं हरेक पाठ सूं सजीव हुवतां लखावै। दाखलै रूप उपन्यास रा अै दाखला देखां-
अेक सोळै-सतरै बरसां री जवान छोरी आपरौ घड़ौ-चरी भर गरणै नै निचोय’र उणरी इडोणी बणावती अठी-उठी देखण लागी इत्तैक में अेक बीस-बाइस बरसां रो जवांन बड़लै री आड सूं निकळ’र उणरै सांमी आय ऊभौ। गेवूं बरणौ रंग, जवानी रै पांणी सूं पळकती आंख्यां, मुळकतौ चैरौ, चिलकतौ लीलाड़- बूढा-बडेरा देख’र थूथकौ न्हाकै जिस्सौ ओपतौ सरीर। औ हौ लाभजी सेठ रौ लाडेसर बेटौ सूरज। (खुलती गांठां, पेज-10)
चास नैड़ी उमर रा ओमा म्हाराज रौ रंग पक्कौ, दूबळौ सरीर, करड़ी मैणत अर दुख री चितावां सूं झुकती-सी कमर, चौड़ै माथै केसर री आंगळियां फिरियोड़ी, कानां री लोल माथै केसर री टीकियां, गळै में रुद्राक्ष री माळा, तुलसी री माळा। धोती माथै बनियान अर बनियान माथै बंडी पैरियोड़ा छतरी तांण्योड़ा सांमी आयगा हा। (खुलती गांठां, पेज-12)
उपन्यास मांय गांव अर शहर रै जीवण मांय बदळती मानसिकता रो ठीमर बखाण जसजोग मिलै। रूपाळू गांव रै मांय पिणघट हुवो का घर-गळी-गवाड़ रो चितराम का फेर जोधपुर री बसावट रो बखाण करती बगत जाणै उपन्यासकार दुनिया रा दोय रंग जोड़ैसरा राखै। अठै खास उल्लेखजोग ओ पण कैय सकां कै सड़कां अर आधुनिकता रै रंग मांय रंगीजती दुनिया री बातां बिचाळै माक्र्स रो जिकर ई रोम रै मारफत ठौड़-ठौड़ हुवै। अमीरी अर गरीबी री बातां भेळै पारस अरोड़ा रै उपन्यास ‘खुलती गांठां’ मांय सोम रो चरित्र उण री विचारधार कठैई-कठैई खुद उपन्यासकार री विचारधारा सूं मेळ खावती लखावै। उपन्यास में लेखक री मनगत अर माक्र्सवादी विचारधार रै अलावा प्रेस-कंपोजिटर रै काम पेटै ई केई दीठाव मिलै। खुलती गांठां आत्मकथात्मक उपन्यास कोनी पण फेर ई आपरै पूरै कलेवर में केई घटनावां-प्रसंगां रै पाण लेखक री विचारधार रो असर उपन्यास माथै देख सकां।
सूरज इत्ता दिनां में सोमनाथ रै बारै में खासी बातां जांणगौ हौ। सोमनाथ अेक प्राइवेट स्कूल में मास्टर हौ, पण उणनै इण नौकरी सूं संतोस नीं हौ। चार सौ माथै दस्तखत कर ढाई सौ लेवणा, मन नै मांनै जैड़ी बात कोनी, पण आ ई अेक मजबूरी ही। साहित्य में उणरौ पूरौ दखल। लोग कैवै के पक्कौ माक्र्सवादी है। आपरै मेळू स्वभाव रै कारण सगळां लोगां में चावौ हौ। (खुलती गांठां, पेज-50)
सेठजी रै गयां पछै सूरज नै न्हैचौ आयौ अर वौ उठै सूं प्रेस पूगौ। प्रेस में आय’र वौ सीधौ मोवनजी कंपोजिटर कनै पूगौ। वै प्रेस रा फोरमैन हा। थानवी जी प्रुफ री बाबत पूछियौ, तो मोवन जी बोल्या- हाल घंटौ भर लागैला। दोयेक पट्टियां रौ करेक्सन-मेकप बाकी है सा। बारै पेजां रा प्रुफ तौ तैयार है। चार पेज बाकी है। (खुलती गांठां, पेज- 57)
उपन्यास रै कलेवर में केई केई घटना-प्रसंग साथै चालै अर किणी बात रो मांयलो आंटो छेहली ओळी तांई बण्यो रैवै तो आ उपन्यासकार री सफलता मानीजै।
उपन्यास रो छेहलो दीठाव देखां-
सूरज चोर निजर सूं मोहन कानी देख’र तारा रौ हाथ आपरै हाथ में लेय’र बोल्यौ- ‘कर ली तुलना।’
स्यामा चट बोली- ‘स्याबास।’
उणी बगत सोम अर निरमळा कार में आय बैठा अर कार आगै बधगी।
उपन्यास खुलती गांठां में सूरज, मोहन, तारा, स्यामा, सोम अर निरमळा री लांबी कथावां अर उपकथावां है, अर इण मांय केई मांयला आंटा है। आपरी काया मांय छोटो-सो दिखै उपन्यास, पण घणी घेरघुमेरदार केई-केई बातां नै खळ-खळ बैवतै किणी नाळै दांई प्रवाह मांय रोचकता साथै बांचणियां नै ठेठ तांई जाणै बांध’र राखै। उपन्यासकार कथा बिचाळै अंतर्कथवां रो सागीड़ो जाळ रचै, खासियत आ कै सगळी कथावां अंत-पंत अेक दूजी सूं जुड़ परी मिनखीचारै रै मोटै साच री सिरजणा करै।
असल में मोटो साच तो बगत हुया करै अर ‘खुलती गांठां’ उपन्यास आपरै बगत नै अरथावै। गांव मांय सूरज अर तारा री प्रेम कहाणी, जात-पंत अर ऊंच-नीच रा केई-केई रिवाज, लोगां रा सुभाव अर बिना बात री बात, विधवा ब्यांव पेटै न्यारो-न्यारो सोच, पीढियां रो फरक, सोसक अर सोसित वरग, धन री आंधी दौड, सहरी जीवन, बदळता संबंध, नवी पीढी रो नवो सोच, जमीदारां रो सोसण, साच रै मांयलो असली साच, युवा मनां रा सुपनां, जबरजिन्ना री पीड़, अतीत रो भळै भळै साम्हीं आवणो, काळजै री कसक, जूण री अबखायां, जीवण री जरूरतां आद कित्ता ई साच इण उपन्यास रै मारफत न्यारै न्यारै रूपां मांय साम्हीं आवै।
‘खुलती गांठां’ मांय बदळतो जुग मिलै तो आधुनिकता रै विगसाव मांय परंपरा अर संस्कार असल में मानखै रै मोल नै कूंतै। सार रूप कैवां तो माक्र्स रै मारफत आपरै बगत नै अंगेजती आ कथा मिनखीचारै रै मोटै काळजै री बानगी राखै। अेक अेक कर सगळी गांठां नै खोलण री इण कथा मांय उपन्यासकार पारस अरोड़ा आ साबित करै कै कोई पण गांठ हुवै, बा समझदारी सूं बगत परवाण खोली जाय सकै। राजस्थानी उपन्यास जातरा मांय ‘खुलती गांठां’ अेक बेजोड़ उपन्यास है अर इण रै मारफत पारस अरोड़ा सिमरध गद्यकार रूप बरसां ओळखीजता रैवैला।
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